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दो ख़त कश्मीर से

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बुरहान वानी के एनकाउंटर के बाद क्श्मीर में भारतीय सेना और भारत सरकार के खिलाफ प्रदर्शन कर रहे लोगों के नाम मेजर गौरव आर्या ने एक खुला पत्र लिखा था तो उसके जवाब में एक कश्मीरी युवक ने भी खुला पत्र लिखा। दोनों पत्र पढ़िये दिल से भी और दिमाग से भी......काफी कुछ पता चलेगा कि कश्मीर फिर क्यों सुलग उठा. थोड़ा समय देना पड़ेगा इसे पढ़ने के लिए। लेकिन समय दीजिए और पढ़िये. - राजेन्द्र  तिवारी, वरिष्ठ  पत्रकार 



मेजर आर्या का पत्र

‘बुरहान, सेना के ऑपरेशन में तुम्हारे मारे जाने के बाद से अब तक 23 लोगों की जानें गई हैं | मुझे नहीं मालूम कि इनकी जानें क्यों गई |
शायद वो तुम्हारी मौत का बदला लेना चाहते थे और वो तुम्हारी मौत के बाद गहरे सदमें में थे | एक सिपाही को को वैन के साथ नदी में फेंक दिया गया और वो डूब गया | मैं उन मारे गए सारे लोगों के प्रति सहानुभूति रखता हूँ। तुम इसके पात्र हो सकते थे लेकिन इसमें तुम्हारे परिवार का कोई कसूर भी नहीं है |
तुम एक डॉक्टर, इंजिनियर या फिर सॉफ्टवेयर इंजिनियर हो सकते थे लेकिन तुम्हें सोशल मीडिया की लत लग गई जहाँ जल्दी ही प्रसिद्ध होने की लालसा तुम्हारे मन में जाग गई | मैं जानता हूँ कि अब बहुत देर हो चुकी है लेकिन तुमनें अपने भाई के साथ तस्वीरें पोस्ट की | राइफल कंधे पर लेकर जो की एकदम फ़िल्मी था | तस्वीरों में रेडियो सेट और बन्द्कों के साथ तस्वीरें भी थी |
तुम तो उसी दिन मर गए जब तुमने सोशल मीडिया पर ये सब करना शुरू कर दिए | तुमनें कश्मीरी युवकों को भारतीय सैनिकों को मारने के लिए उकसाया | ये सब तुमनें अपने फेसबुक अकाउंट की सेफ्टी की आड़ में किया | तुम्हारी फीमेल फैन फोलोविंग गजब की थी, और तुम सोशल मीडिया में छा रहे थे |
लेकिन कुछ लोग तुम्हे 24 घंटे ट्रैक कर रहे थे जिसकी तुम्हें कोई खबर नहीं थी | तुम 22 साल की उम्र में मारे गए और ना भी मारे गए होते तो 23 की उम्र में मारे जाते | केवल कैलेंडर की तारीख बदलती लेकिन तुम्हारा अंजाम तय था | हिंसा का इरादा रखने वाले का अंजाम यही होना था ।
काश मैं तुमसे मिल पाता और तुमको बता पाता कि हुर्रियत के लोग कैसे कश्मीरी युवाओं को सेना से लड़ने के लिए भेज रहे हैं | ये लोग शेर के सामने मेमनों को भेजकर लड़ाई करना चाहते हैं और खून की होली खेलना चाहते हैं |
हुर्रियत के मुखिया गिलानी के किसी के रिश्तेदार का नाम बताओ जो सेना के खिलाफ लड़ने आया | गिलानी का लड़का नईम पाकिस्तान के रावलपिंडी में डॉक्टर है और ISI के संरक्षण में है | उसका दूसरा लड़का दिल्ली में रहता है जबकि उसकी लड़की राबिया अमरीका में डॉक्टर है |
आसिया अंदराबी और उसकी बहन अपने परिवार सहित मलेशिया में रहते हैं | ये सब कहीं न कहीं कश्मीर से बाहर सुकून से हैं और जिहादी बनाने के लिए दूसरों का इस्तेमाल करते हैं | कश्मीर के लोग गिलानी से नहीं पूछते कि उनके परिवार से कोई बुरहान क्यों नही निकलता |
1400 साल में पहली बार ऐसा हुआ कि चाँद देखने पर नहीं पाक की तरफ देखकर कश्मीर में ईद मनाई गई | पाकिस्तानी मीडिया खुश थी कि भारत के साथ ईद नहीं मनाई गई | इसे वो भारत की अखंडता पर प्रहार बता रहे थे | हुर्रियत के लोगों को कश्मीर और कश्मीरी आवाम की चिंता नहीं है | वो अपने परिवार को सुरक्षित रखकर दूसरों के खून से जिहाद की लड़ाई लड़ने की साजिश करते रहे हैं | हुर्रियत को पता है कि कश्मीर दुनिया भर के लिए चर्चा का विषय है और ये झगड़े की जड़ है | वहीं पाकिस्तान भी इंडियन आर्मी को घाटी में फंसाकर रखने के लिए भरपूर मदद करता रहा है | तुम एक आतंकी और तुमने भी अपने अन्य साथियों की तरह भारत के खिलाफ लड़ना शुरू किया, लेकिन इसका अंजाम तुम्हारे लिए अच्छा नही हुआ |
अगर तुम भारतीय सेना के खिलाफ लड़ रहे हो तो ये जान लो, ’भारतीय सेना तुम्हें जान से मार देगी |’ तुम्हारे समर्थक भी खून चाहते हैं तो खून ही सही |
चियर्स
मेजर गौरव आर्या



मेजर आर्या के नाम कश्मीरी युवक वसीम खान का जवाबी पत्र (हिंदी अनुवादcatchnews.com से साभार)
प्रिय मेजर गौरव आर्या,

मैं एक फ्लाइट में बैठने जा रहा था, जब मुझे आपका पत्र दिखा. अतीत के प्रति ईमानदारी दिखाते हुए कह रहा हूं कि काश मैंने यह पत्र नहीं पढ़ा होता, लेकिन मैं आपका दृष्टिकोण समझने के लिए उतावला था, इसलिए खुद को रोक नहीं सका. मैंने इसे पढ़ डाला. आपके शब्द मेरे साथ रहे और अगले दो घंटों तक मैं उन मसलों के बारे में सोचता रहा जिनके बारे में आपने लिखा था. जैसे-जैसे वक्त गुजरता गया, आपके शब्दों के अर्थ से मेरे दिलोदिमाग पर क्रोधपूर्ण विचार हावी होते चले गये.
मैं उनमें से हरेक मसले पर बात कर सकता हूं लेकिन मेरे विचार में इन सबसे ऊपर एक और मसला है, जो यहां दिख ही नहीं रहा. मैं उसके बारे में बात करना चाहता हूं क्योंकि मैं नहीं चाहता कि अभी जो कुछ कश्मीर में हो रहा है, उस पर मेरे मित्र, खास तौर पर भारत में, गर्व करें. मैं चाहता हूं कि वे पूरा सच जानें क्योंकि आपके खत में आधा सच ही बताया गया है.
मैं अपनी बात यह कहते हुए शुरू करता हूं कि मैं आपकी बात पूरी तरह समझ गया हूं. बुरहान वानी एक हिजबुल कमांडर था. उसने भारतीय सेना को चुनौती दी और उसे उसका नतीजा मिल गया. मैं यह बात समझता हूं और दरअसल एक सैन्य अधिकारी के तौर पर आपके इस दृष्टिकोण का मैं सम्मान भी करता हूं. यह एक युद्ध है. इसमें दो रास्ते नहीं अपनाये जा सकते. इसमें भ्रमित होने की जरूरत नहीं है और यह आपका काम है.
सेना कश्मीर में विद्रोहियों को मारने के लिए ही है और यह पिछले ढाई दशकों से अपना काम कामयाबी के साथ कर रही है. एक सैन्य अधिकारी के तौर पर आपको इस बात पर गर्व की अनुभूति होनी चाहिए और साथ ही बाकी देशवासियों को भी. मैं इसे बीते हुए इतिहास की ओर नहीं ले जाऊंगा और यह बात नहीं कहूंगा कि वहां विद्रोह की स्थिति क्यों है. मुझे लगता है कि आप सभी को इसके बारे में पता है. अगर नहीं पता, तो इसका मतलब यह है कि आप अपनी सुविधा के हिसाब से अनजान बने हुए हैं.
लेकिन मैं एक बात से चिंतित हूं. मुझे ऐसा लग रहा है कि आपने यह पत्र केवल इसलिए नहीं लिखा कि आपको सेना की उपलब्धियों पर गर्व है. आपने यह पत्र उस पलटवार की वजह से लिखा है जो पिछले दिनों में सामने आया है, जिससे कई मौतें हुई हैं और इसने आपको परेशान किया. मौतों ने नहीं, पलटवार ने.
मेजर आर्या आप एक शक्तिशाली सेना का हिस्सा हैं. मेरे ख्याल से दुनिया की पांचवी सबसे मजबूत सेना, लेकिन आप एक बात भूल रहे हैं. सेना की ताकत के अलावा, आप दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र का भी हिस्सा हैं. अगर जम्मू और कश्मीर भारत का ‘अविभाज्य’ अंग है, तो लोकतंत्र के कानून यहां क्यों लागू नहीं होते? आंकड़ों में ऐसा होता है. क्या आपको ऐसा नहीं लगता कि यह पाखंड है?
आपके ही शब्दों के मुताबिक, अगर बुरहान 22 साल की उम्र में बच जाता, तो वह 23 साल की उम्र में मारा जाता. आपको पता है, कुछ अरसा पहले तक मैं उसको जानता तक नहीं था. दरअसल उसकी मौत के बाद मैंने उसके बारे में गूगल पर खोजबीन की और वह मेरे और भारत में मेरे बाकी दोस्तों के लिए पहली बार खबर बना.
साफ तौर पर ऐसा लगता है वह आतंकी इसलिए बना क्योंकि सेना ने उसके सामने उसके भाई को बेहोशी की हालत में मार डाला. शायद यह पहला आघात था.
यह मुझे कुछ याद दिला रहा है. आइए मैं आपको अपने बारे में कुछ बता दूं. जब श्रीनगर में सेना ने मुझे पहली बार पीटा, तब मैं दस साल का था. आप पूछेंगे क्यों? और मेरा जवाब यह है कि मुझे कुछ नहीं पता. सच में मुझे कुछ नहीं पता. मैं सड़क पर जा रहा था और तभी सेना के जवान ने मेरी तलाशी ली, उसके बाद मुझे थप्पड़ मार दिया.
और उसके बाद उसने और उसके बहादुर साथियों ने मुझे लातों से मारा. उस समय सोशल मीडिया जैसी कोई चीज नहीं थी और मैंने उन्हें धमकी नहीं दी थी. आखिरी बात जो मुझे याद थी वह यह थी कि गर्मी में एक दिन मैंने अपने घर के बाहर खड़े एक जवान को पानी पीने के लिए पूछा था.
दूसरी बार जब बीएसएफ ने मुझे पीटा, तब भी मैं दस साल का ही था. तीसरी बार जब सीआरपीएफ ने मुझे पीटा, तब भी मैं दस साल का ही था और अगले पंद्रह-सोलह बार जब भी मुझे पीटा गया, मैं दस साल का ही था. मुझे यह एक वक्त याद है. कुछ सालों के बाद, मुझे एक किनारे आने के लिए कहा गया और जैसे ही मैं कार से बाहर निकला, एक जवान ने मुझे एक तरफ धकेल दिया.
मैंने उससे कहा कि आराम से बात की जा सकती है, लेकिन मेरा वाक्य पूरा भी नहीं हुआ था कि मेरी गरदन पर एक जवान ने बंदूक के कुन्दे से प्रहार कर दिया. मैं गिर पड़ा. यह घटना राजमार्ग पर हो रही थी. मैं जब होश में आया, तो मैंने एक अधिकारी को अपने सामने पाया. मैं उसके पास गया और इस घटना की वजह पूछने की कोशिश की.
इससे पहले कि मैं उसके करीब तक पहुंचता, उसने मुझे वहीं रुकने का इशारा किया. फिर उसने कहा, ‘तुम सब ह****यों के साथ यही करना चाहिए. दफा हो जाओ.’ उसके बाद वह अपने जवानों के साथ जिप्सी में बैठा और निकल गया. मैं वहीं खड़ा रहा और उन्हें जाते हुए देखता रहा. आघात हो चुका था. मैंने उसका नेमप्लेट नहीं देखा, लेकिन उम्मीद करता हूं कि वह आप नहीं रहे होंगे.
अगर आप मेरे दोस्तों से पूछेंगे तो आपको पता चलेगा कि किस तरह मैंने उस घटना या उस तरह की घटनाओं को मैंने अपने ऊपर हावी नहीं होने दिया. उन पिटाइयों के बाद मैंने हिंसा का सहारा नहीं लिया. मैं कई बार आपे से बाहर हो गया, लेकिन मैंने उसे पनपने नहीं दिया.
मैं गलत नहीं हूं अगर मैं आपसे यह कहूं कि हर बार जब भी मुझे पीटा गया, मैं विरोध-प्रदर्शन ही नहीं कर रहा था. मुझे इसलिए पीटा गया कि मैंने यूनिफॉर्म पहने किसी व्यक्ति की ओर देखा और मेरा अंदाजा है कि शायद उसे मुझसे खतरा महसूस हुआ. मेरा विश्वास करिए, मैंने केवल कौतूहलवश उसकी ओर देखा. और उसके बाद मेरा कौतूहल और बढ़ गया.
नब्बे के दशक की शुरुआत में घाटी में आतंकियों की संख्या लगभग 4000 थी. आप सैन्य मुख्यालय के विशेषज्ञ से इस बारे में पूछ सकते हैं. वह इसे सही मानेंगे. आज दक्षिण कश्मीर में आतंकियों की संख्या तकरीबन 66 है, जबकि उत्तर कश्मीर और बाकी घाटी में तकरीबन 40 है.
दूसरी ओर नब्बे के दशक की शुरुआत में वहां सेना के जवानों की संख्या पांच लाख थी, जबकि आज यह सात लाख से थोड़ी अधिक है. विशेषज्ञ इसे भी सही मान लेंगे. तो अगर सेना ने सफलतापूर्वक इतने सारे आतंकियों को मार गिराया है, तो फिर इनकी संख्या बढ़ाने की क्या जरूरत है?
अब हाल में हुई मौतों के बारे में बात करते हैं. एक ऐसी चीज, जिसके कारण मैं काफी परेशान रहता हूं, कश्मीर मसले से भी अधिक. द्विपक्षीय या त्रिपक्षीय वार्ताओं से भी. जिस वजह से मैं आपको यह पत्र लिख रहा हूं.
जब आप सेना में भर्ती हुए, तब आप एक ग्रेजुएट थे. उसके बाद आप प्रतिष्ठित भारतीय सैन्य अकादमी में गये और वहां से एक सभ्य सुसंस्कृत अधिकारी के रूप में बाहर निकले. मैं भी आईएमए गया हूं और मैं भी प्रभावित हुए बिना नहीं रह सका.
मेरे भी सेना में दस से अधिक मित्र हैं. मेरे कई मित्र सैन्य अधिकारियों के बच्चे हैं और एक बार भी यह विचार मेरे मन में नहीं आया कि सैन्य अधिकारियों के बच्चे होते हुए भी वे सेना में क्यों नहीं गये. मैं आपको यह इसलिए बता रहा हूं क्योंकि हम इस बारे में भ्रमित नहीं हैं कि गिलानी या मीरवाइज उमर के परिवार का कोई व्यक्ति विदेश में क्यों है.
जो कुछ भी कश्मीर में हो रहा है, उससे इसका कोई संबंध नहीं है या है? क्या आप वाकई ऐसा सोचते हैं कि उन लोगों ने इन मौतों को रोकने के लिए कुछ कर लिया होता? मैं इस बातचीत में हुर्रियत, जिहाद और अल्लाह जैसे शब्द इस्तेमाल नहीं करना चाहता और केवल इन मौतों के बारे में बात करना चाहता हूं जो छोटे बच्चों पर सशक्त सेना के ताकत के इस्तेमाल से हुई है.

मान लीजिए, अगर मैं आज दिल्ली में विरोध-प्रदर्शन करूं, तो क्या वहां भी मुझे गोली मार दी जायेगी? सैन्य बल मुझ पर किस तरह का बल प्रयोग करेंगे? शायद पानी के फव्वारे?
मान लीजिए, मैं आपा खो बैठता हूं और उनसे मारपीट करने लगता हूं, तो वे किस तरह का बल प्रयोग करेंगे? शायद लाठी. मान लीजिए मैं उन पर पत्थर फेंकने लगता हूं, तो वे मुझे पर किस तरह का बल प्रयोग करेंगे? आंसू गैस? और आखिरकार अगर मैं उन्मादी की तरह व्यवहार करने लगूं, क्योंकि मैं खुद को उत्पीड़ित महसूस करता हूं, तो क्या मुझे गोली मार दी जायेगी? दिल्ली या मुंबई में- नहीं. कश्मीर में- हां.
मैं शक्ति या बल के बारे में आपसे बहस नहीं करना चाहता. सही या गलत के बारे में भी नहीं. मैं आपको केवल यह बताना चाहता हूं कि आपके शब्द “हम तुम्हें गोली मार देंगे” मेरे दिमाग में खलबली मचा रहे हैं. और यह खौफनाक है. यह खौफनाक है क्योंकि यह विद्रोहियों, आतंकियों या दहशतगर्दों तक सीमित नहीं है. मैंने आपको चुनौती तक नहीं दी है, लेकिन आप हम सबको डरा रहे हैं.
इस बिन्दु पर मैं यह भी स्वीकार करूंगा कि मुझे ऐसा लग रहा है कि सबके लिए इसी तरह से सोचा जाता होगा. बिना हथियार वाले एक दस साल के बच्चे के लिए भी. डियर मेजर आर्या, इसमें बहादुरी की कोई बात नहीं है.
उनको अंधा बना देने में बहादुरी नहीं है. उन्हें अपाहिज बना देने में बहादुरी नहीं है. उनको मार डालने में भी निश्चय ही कोई बहादुरी नहीं है. आप अपने ऊंचे घोड़ों से उतरिये और उन्हें एक इंसान के तौर पर देखिए.
मैं उम्मीद करता हूं कि इस पत्र का आप पर कुछ प्रभाव होगा ताकि आप इन बातों को एक सहज दृष्टिकोण से देख सकें. मैं उम्मीद करता हूं कि आप मेरे बगल में आकर बैठिए और मेरी आंखों में देखते हुए कहिए कि वाकई इसमें कोई बहादुरी या खूबी जैसी बात है.
अभी हाल ही में आपकी सेना के एक जवान की जाति की वजह से उसके दाह संस्कार के लिए जमीन देने से मना कर दिया गया. उसके बलिदान का क्या हुआ? क्या उसकी शहादत बेकार चली गई?
आप एक आर्मी अधिकारी हैं. मैं एक आम नागरिक हूं. हममें से कोई भी राजनेता नहीं है और हमें वोटों की जरूरत नहीं है. ऐसे में बेहतर यही है कि हम ईमानदार बनें और उनको बचाएं, जिनको बचा सकते हैं.
और अंत में, मुझे गलत मत समझियेगा. मुझे लगता है कि आपका पत्र पढ़ने के बाद भी अगर किसी बच्चे को देशभक्ति और राष्ट्रवाद के नाम पर मार दिया गया, तो इसका मतलब यही होगा कि आपने भला कम और अहित अधिक किया है.
हस्ताक्षर
कोई भी आम कश्मीरी

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