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एम एम कलबुर्गी की हत्या के बहाने अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर कुछ नोट्स

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सुमन केशरी

पिछले दिनों कन्नड़ लेखक और तर्कवादी प्रो. एम एम कलबुर्गी की हत्या उनके घर में ही घुस कर कर दी गई। कारण अंधविश्वास और धार्मिक कर्मकांडों के विरुद्ध उनका तर्क प्रधान अभियान। यह कोई पहली घटना न थी। उसके भी पहले सन् 2010 में केरल के टोडुपूझा में महात्मागांधी यूनिवर्सिटी के न्यूमैन कॉलेज में अध्यापक टी.जे.जोसेफ़ का कथित ईश-निंदा के लिए दाँया हाथ काट दिया गया था और विडंबना यह कि शुरु में जोसेफ़ को ही अपराधी ठहराते हुए उसे कॉलेज से निकाल दिया गया, जिसके चलते उसकी पत्नी ने आत्महत्या कर ली। बाद में कुछ लोगों को सजा मिली जरूर (आज कितनों को याद है यह घटना और जोसेफ़ का नाम तक)   अभी कुछ ही दिनों पहले ही दाभोलकर और पंसारे की आवाजों को खामोश कर दिया गया था। यू आर अनंतमूर्ति को पाकिस्तान का टिकट भेजा जा चुका था। एम एफ़ हुसैन को तो शब्दशः दो गज जमीन भी न मिली कूचे यार में...
और उससे भी पहले गांधी की अहिंसा की आवाज को गोलियों की धायं धायं में दबाने की कोशिश से कौन नहीं अवगत!

यूँ इतिहास में जाएँ तो इस तरह की कोशिशों का अंत नहीं, किंतु यहाँ प्रश्न पर विचार, आज के संदर्भ में ही करना उचित है।  आखिर, यह कौन-सी सोच है जो किसी भी तरह के विरोध और तर्क को स्वीकार नहीं कर पाती? जो सारी दुनिया को अपने ही रंग में रंग डालने को यूँ बेतरह आमादा है?...और फिर रंग एक हो तो कहें...यहाँ तो सबका अपना रंग है और सभी रंगरेजों के लिए उनका वाला रंग ही सबसे ज्यादा सफेद है। उसकी धुलाई मेरी धुलाई से सफेद कैसी पूछ कर अपनी धुलाई की कमजोरियों को तो जानने समझने की कोई गुंजाइश ही नहीं बची। यहाँ तो बस अपनी धुलाई की चमक से ही आँखें ऐसी चकाचौंध हैं, कि सबको सिरे से अँधा कर देने के लिए ही सभी अपनी अपनी तरह से सन्नद्ध हैं।

यह घोर अस्मितावादी सोच का समय है, जिसमें आपस में स्पेस के लिए ऊपर से लड़ती दिखती विभिन्न धर्म आधारित, क्षेत्र आधारित, जाति आधारित, भाषा आधारित अस्मिताएँ वस्तुतः एक दूसरे को खून पिला कर, अपनी अपनी दुकाने चमका रही हैं, और अंततः लोकतांत्रिक स्पेस को कम कर रही हैं।

आम आदमी के सोच की, जीवन अपने ढंग से जीने की आजादी की जगह को कम कर रही हैं।  यह बहुत विकट समय है। अधिकांश तो कहेंगे कि समय की यह विकटता खासतौर से पढ़ने-लिखने, सोचने और रचने वालों के लिए है क्योंकि जाने कौन-से शब्द किसकी आत्मा को छलनी कर दें और जाने कौन-सी रेखाएँ किसी की भावना को आहत कर दें। पर अगर ध्यान दें तो क्या यह समय केवल बुद्धिजीवियों, कलाकारों, रचनाकारों के लिए कठिन है? क्या ऐसे समय में तथाकथित आम आदमी किसी भी तरह की मार से बचा रहता है? अथवा सबसे ज्यादा परोक्ष पिटाई उसी की होती है? उसको मारा जाना  इतना खामोश होता है कि सामने दिखाई नहीं देता और वह रूई की तरह धुना जाने को, फिर किसी गिलाफ़-रजाई का हिस्सा बनकर गुम मौत मर जाने को अभिशप्त होता है? दुनिया की आबोहवा, उसकी रंगत बदल जाती है और इसका अहसास तक नहीं होता।

याद करें आज से पंद्रह साल पहले हम कितनी बार ‘खाप’ और ‘खाप पंचायत’ जैसे शब्द सुनते थे और वह भी प्रेम के संदर्भ में! खापें बैठती जरूर थीं पर उनके काम का दायरा इतना बड़ा और प्रभावी न होता था कि उसका असर महानगरों में होने वाले विवाहों तक हो जाए। आज गाँव तो गाँव महानगर में भी जाति बाहर या बिरादरी भीतर शादियाँ इतनी सहज नहीं रह गईं।

अब जरा सोचें, कोई लेखक किसी धर्म, जाति, भाषा-भाव के बारे में कुछ तीखा या प्रश्नवाचक लिख कह देता है, कोई चित्रकार किसी देवी या पैगंबर का चित्र या कार्टून अपने हिसाब से बना देता है, किसी फिल्म में किसी देवता या रसूल के नाम पर लेकर कोई गीत बना दिया- गा दिया जाता है तो कुछ लोग इतना हाहाकार करते हैं कि उन शब्दों को, उन गीतों को, उन चित्रों को तुरंत हटाने की मांग, वे लोग यानि सत्ता में बैठे लोग करने लगते हैं, जिनका बुनियादी काम, ज्ञान और समझ को बहुआयामी बनाने का है, और इस तरह से उनकी सुरक्षा सुनिश्चित करने का है जो अपनी अपनी समझ के मुताबिक किसी भी धारणा को व्याख्यायित या प्रश्नांकित करने का साहस और योग्यता रखते हैं। यहाँ योग्यता में ज्ञान ही नहीं, कल्पना, रचना और पुनर्सृजन भी शामिल है। विष्णु के दशावतार की कथा क्या कल्पना और सर्जना के बिना संभव थी ? सीता के महादुख और पीड़ा को साकार करने के लिए ही तो उनका भूमिसात् होना कल्पित-सृजित किया गया होगा?

कर्बला का दुख आज भी तो अपने को प्रताड़ित करने में व्यक्त होता है! मेरी मैगद्लीन और जीसस के संबंध पर सोचना ही तो मनुष्य को ‘द लास्ट टैंपटेशन ऑफ़ जीसस क्राइस्ट’ और ‘द विंची कोड’ जैसी कृतियों की रचना करने को प्रेरित करता है।

मनुष्य का स्वभाव ही है कुछ भी सोचना, कल्पना करना और सृजित करना। अगर यह न होता तो आज भी हम पेड़ों पर लटक रहे होते! या वहाँ से मनुष्य योनि में प्रवेश कर भी गए होते तो जंगलों में रह रहे होते, कच्चा फल माँस खा रहे होते। पर ऐसा हुआ तो नहीं। दूर क्यों जाएँ, सोलहवीं-सत्रहवीं सदी में स्वयं गैलीलियो को सूर्य केन्द्रित ब्रह्माण्ड बताने के लिए नजरबंद कर दिया गया था। यदि उन्हें मार दिया गया होता तो आज जिस रूप में हम काइनेमेटिक्स और मैकेनिक्स को जानते हैं, उसे जानना क्या असंभव नहीं हो जाता, क्योंकि तब खाली एक गैलीलियो थोड़े ही मारा जाता? जो भी उस राह पर चलता, यानी कि जो भी पृथ्वी की बजाय सूर्य को ब्रह्माण्ड का केन्द्र साबित करने का प्रयास करता उसे मार दिया जाता। कल्पना और ज्ञान की सीमाएँ बाँध दी जातीं। उससे आगे जाना हैरेसी होती!

यह कैसी सोच है? मेरा तो अपने देश के सत्रहवीं सदी के एक शासक के संदर्भ में एक सवाल पूछने का मन हो रहा है। अभी कुछ दिन पहले ही उस शासक का नाम सुर्खियों में आया है। ठीक समझे आप- औरंगजेब- दिल्ली में जिसके नाम की सड़क का नया नामकरण हुआ है- ए पी जे अब्दुल कलाम रोड। औरंगजेब की कुख्याति या बदनामी किस संदर्भ में है? अब इस संदर्भ में तो नहीं ही होगी कि उसने अपने साम्राज्य का विस्तार किया, या व्यापार को इतना बढ़ाया कि विश्व का  लगभग पच्चीस प्रतिशत व्यापार पर भारत का कब्जा हो गया। इसके लिए तो शर्तिया नहीं कि उसमें इतनी हिम्मत थी कि 1686 में  चटगांव पर कब्जा करने की नियत रखने वाले ईस्ट इंडिया कंपनी के गवर्नर सर चाइल्ड के सदके बंगाल के तमाम कारखानों से अंग्रेजो को उसने बेदखल कर दिया और गुजरात में भारतीय व्यापारियों और मक्का जाने वाले यात्रियों  को नुकसान पहुँचाने वाले अंग्रेज व्यापारियों पर डेढ़ लाख रुपयों का जुर्माना लगा कर र उन्हें सबक सिखाकर  अगले पचास सालों के लिए उन्हें शांत कर दिया।

औरंगजेब की भर्त्सना की जाती है उसकी अनुदारवादी नीतियों के लिए। इसके लिए कि उसने धर्म के नाम पर इस्लामेतर धर्मावलंबियों को परेशान किया। उसके कारणों की पड़ताल व व्याख्याएँ संभव हैं, पर चेतना में औरंगजेब की छवि कट्टर शासक की तो है ही। अब इसके विरुद्ध ए पी जे अब्दुल कलाम की छवि को देखें- एक उदार व्यक्ति की छवि!

तो इससे निष्कर्ष क्या निकला- यही न कि हम उदार छवि के एक व्यक्ति को, कट्टर छवि के शासक से ज्यादा महत्त्वपूर्ण मान रहे हैं, तभी तो रास्ते का नाम बदल रहे हैं। पर यहीं यह सवाल और जोरों से उभरता है कि क्या हम अपने आचरण में भी उदार हैं? यदि हाँ तो ऐसा कैसे हो जाता है कि जब खाप दो प्रेमियों को मौत के घाट उतारने का फ़रमान जारी करता है तो हम गूंगे बहरे हो जाते हैं! जब पार्क में बैठे दो प्रेमियों को सरेआम पीटा जाता है तो आसपास के लोग या तो तमाशाई बन जाते हैं, अथवा छिटक जाते हैं। जब टाइट जींस पहने किसी लड़की के पैरों पर मारा जाता है या उसके जींस को फाड़-काट दिया जाता है तो हम खामोश रह जाते हैं। जब कश्मीर में लड़कियों के बैंड को बजाने नहीं दिया जाता तो हम इस आधार पर चुप रहते हैं कि यह धर्म-संस्कृति, तहजीब का मामला है। और जब हुसैन का सर काटने की धमकी देकर उन्हें देश निकाला दे दिया जाता है, अनंतमूर्ति को पाकिस्तान का टिकट भेज उन्हें प्रताड़ित किया जाता है, धमकाया जाता है, जब जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल में रुश्दी को शामिल नहीं होने दिया जाता, आशीष नंदी को प्रताडित किया जाता है,  और अब हाल के दिनों में तर्क करने और अंधविश्वास के खिलाफ़ लड़ने के लिए  पंसारे, दाभोलकर और कलबुर्गी की हत्या कर दी जाती है तो भी हम आवाज शायद इस यकीन से नहीं निकालते कि यह तो चंद बुद्धिजीवियों का मामला है, हमें इससे क्या? बेकार की बाते मरोड़ेंगे तो कोई क्या करे!

पर सोचने की, विचारने की बात यह है कि क्या यह सचमुच चंद सिरफिरे बुद्धिजीवी-कलाकार कहलाने वाले लोगों का मामला है या फिर डर का ऐसा माहौल बनाने की तैयारी है कि लोगों के दिमाग कुंद हो जाएँ और वे जुबान खोलने से पहले ही डर जाएँ कि कहीं कोई ऐसी बात उनके मुँह से न निकल जाए, जिसकी कीमत सिर्फ जान ही हो सकती है...या फिर हुक्का बंदी, देशनिकाला...

आम आदमियों में से ही पैदा होते हैं ये चंद बुद्धिजीवी और कलाकार..पर उनमें खास यह होता है कि वे मन में आने वाले सवालों का हल खोजने लगते हैं, कल्पना करते हैं, उसे साकार करने में लग जाते हैं और सपने देखते हैं...और सपने केवल और केवल मनुष्य ही देखते हैं, कल्पना भी केवल और केवल मनुष्य ही करते हैं।  यह दरअसल मनुष्य को कल्पनाओं और सपनों से दूर रोबोट बनाने की तैयारी है- हुक्म का गुलाम, भाव-संवेदनाहीन रोबोट...जो मनुष्याभासी तो होगा पर मनुष्य नहीं क्योंकि प्रश्न करना, कल्पना करना, नया सृजन करना मनुष्य का स्वभाव है, ऋत है...

(श्री विजय शंकर व्यास एवं डॉ. श्रीलाल मेहता के संपादन में बीकानेर से प्रकाशित पत्रिका “विकल्प” के सितंबर 2015 अंक में छपा साहित्‍यकार सुमन केसरी का लेख)

साहित्य अकादमी पुरस्कार वापस करने का एक राजनीतिक अर्थ है - कुमार अंबुज

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हालिया साहित्य अकादमी पुरस्कार वापसी पीआर उठे विवाद के संबंध में वरिष्ठ कवि कुमार अंबुज की फेसबुक पर की यह टिप्पणी कई सवालों के स्पष्ट जवाब देती है। इसे बहस के लिए यहाँ रख रहा हूँ। 

लेखकों द्वारा सम्मान या पुरस्कार वापस करने संबंधी कुछ सवाल भी सामने आए हैं। इस संदर्भ में कुछ बातें, एक पाठक, लेखक और नागरिक के रूप में, कहना उचित प्रतीत हो रहा हैः

1. पुरस्कार वापस करने संबंधी तकनीकी दिक्कतें हो सकती हैं, यानी प्रदाता संस्था उसे वापस कैसे लेगी, प्रावधान क्या हैं, राशि किस मद में जमा होगी, इत्यादि। उसका जो भी रास्ता हो, वह खोजा जाए लेकिन समझने में कोई संशय नहीं होना चाहिए कि यह एक प्रतिरोध और प्रतिवाद की कार्यवाही है। तमाम तकनीकी कारणों से भले ही यह प्रतीकात्मक रह जाये किंतु इसके संकेत साफ हैं। यह एक सुस्पष्ट घोषणा है कि हम सत्ता की ताकत और आतंक से व्‍यथित हैं। हम विचार, विवेक, बुद्धि के प्रति हिंसा के खिलाफ हैं। अभिव्यक्ति की असंदिग्ध स्वतंत्रता के पक्ष में हैं, सांप्रदायिकता और धार्मिक उन्माद की राजनीति के विरोध में हैं। लोकतांत्रिकता और बहुलतावाद को इस देश के लिए अनिवार्य मानते हैं। इसलिए सम्मान-पुरस्कार वापस किए जाने की यह मुहिम बिलकुल उचित है, इस समय की जरूरत है।

2. कहा जा रहा है कि सम्मान राशि को ब्याज सहित वापस किया जाना चाहिए। और उस यश को भी वापस करना चाहिए, जैसे प्रश्न उठाए गए हैं। लेखक को जो राशि सम्मान में दी गई थी वह किसी कर्ज के रूप में नहीं दी गई थी और न ही उसे ऋण की तरह लिया गया था। वह सम्मान में, सादर भेंट की गई थी। इसलिए उस पर ब्याज दिए जाने जैसी किसी बात का प्रश्न ही नहीं उठता। जब तक वह सम्मान लेखक ने अपने पास रखा, उसे ससम्मान रखा, उसके अधिकार की तरह रखा। वह उसकी प्रतिभा का रेखांकन और एक विशेष अर्थ में मूल्‍यांकन था। वह किसी की दया या उपकार नहीं था। यश तो लेखक का पहले से ही था बल्कि अकसर ही सम्मान और पुरस्कार भी लेखकों से ही यश और गरिमा प्राप्त करते रहे हैं। इसलिए इन छुद्र, अनावश्यक बातों का कोई अर्थ नहीं है।

3.यदि इन सम्मानों को वापस करना राजनीति है तो निश्चित ही उसका एक राजनीतिक अर्थ भी है। लेकिन यह राजनीति वंचितों, अल्पसंख्यकों के पक्ष में है। यह राजनीति इस देश के संविधान, प्रतिज्ञाओं, पंरपरा और बौद्धिकता के पक्ष में है। यह राजनीति इस देश के लोकतांत्रिक स्वरूप को बनाए रखने के लिए, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, नागरिक अधिकारों के लिए है। राष्ट्रवाद के नाम पर देश को तोड़ने के खिलाफ है, इस देश में फासिज्म लाने के विरोध में है।

4. जो कह रहे हैं कि आपातकाल या 1984 के दंगों के समय ये सम्मान वापस क्यों नहीं किए गए, उन्हें याद रखना चाहिए कि तब देश में इस कदर दीर्घ वैचारिक तैयारी के साथ, इतने राजनैतिक समर्थन के साथ अल्पसंख्यकों और विचारकों की ‘सुविचारित हत्याएँ’ नहीं की गई थी। तब कहीं न कहीं यह भरोसा था कि चीजें दुरुस्त होंगी, अब यह भरोसा नहीं दिख रहा है। यह हिंसा अब राज्य द्वारा प्रायोजित और समर्थित है। पहले इस तरह की हिंसा का कोई दीर्घकालीन एजेण्डा नहीं था, अब वह एजेण्डा साफ नजर आ रहा है। पहले एक धर्म, एक विचार और एक संकीर्णता को थोपने की कोशिश नहीं थी, अब स्पष्ट है। जब विश्‍वास खंडित हो जाता है और जीवन के मूल आधारों, अधिकारों पर ही खतरा दिखता है तब इस तरह की कार्यवाही स्‍वत:स्‍फूर्त भी होने लगती है। लेखक एक संवेदनशील, प्रतिबद्ध और विचारवान वयक्ति होता है। उस बिरादरी के अनेक लोगों के ये कदम बताते हैं कि देश के सामने अब बड़ा सकंट है।

तो सामने फासिज्म का खतरा साकार है। एक साहित्यिक रुझान के व्यक्ति और नागरिक की तरह मैं इन सब लेखकों के साथ भावनात्मक रूप से ही नहीं, तार्किक रूप से खड़ा हूॅं। और इसके अधिक व्यापक होने की कामना करता हूँ।

A review of "Muslims against partition" (Shamsul Islam)

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  • Kuldeep Kumar



The standard narrative about the Partition, actively propagated by the Hindu communalists and innocently believed by most Hindus, puts the onus on the Muslim masses that supported the Muslim League’s demand for a separate country. It is not uncommon to hear people referring to an area where Muslims live in substantial numbers as “Pakistan”. However, as a recently published book tells us, the reality is very different.

“Muslims Against Partition”, written by the multi-talented theatre activist, anti-communal propagandist and political scientist Shamsul Islam and published by Pharos Media and Publishing Pvt. Ltd., offers an eye-opening account of the way a large number of Muslim political leaders, thinkers and organisations opposed the idea of Pakistan and actively worked against it. Renowned historian Harbans Mukhia has penned a thought-provoking Foreword wherein he praises the writer for drawing our attention to the ambivalent attitude of the Congress to the question of communalism as it had many leaders who were sympathetic to the “exlusivist Hindu cause”.

All of us know about prominent Muslim leaders like Khan Abdul Ghaffar Khan, M. A. Ansari, Asaf Ali and Maulana Abul Kalam Azad who fiercely opposed the communal politics of the Muslim League. However, since they were in the Congress, their opposition to the creation of a separate homeland for the subcontinent’s Muslims is generally ignored. What is remembered is the fact that the Muslim League led by Muhammad Ali Jinnah was successful in mobilising the Muslim elite as well as Muslim masses in support of its Pakistan demand and had won most of the Muslim seats in the 1946 election to provincial assemblies. However, most people remain unaware that this fact conceals a vital aspect of reality. The Sixth Schedule of the 1935 Act had restricted the franchise on the basis of tax, property and educational qualifications, thus excluding the mass of peasants, the majority of shopkeepers and traders, and many others. Thus, as Shamsul Islam informs us quoting from Austin Granville’s book on the Indian Constitution, only 28.5 per cent of the adult populations of the provinces could cast their votes in the 1946 provincial assembly elections. This makes it amply clear that the Pakistan demand was not supported by the majority of Muslims because only a small percentage of the Muslim population was eligible to vote.

Nationalist Muslims had started expressing themselves as early as 1883 when the Congress was not even born and nationalism was in the early stages of its inception. Shamsul Islam’s book contains a very informative chapter on Muslim patriotic individuals and organisations. It tells us the inspiring story of Shibli Nomani who established a National School in Azamgarh in 1883 and actively opposed the Muslim League agenda of cooperation with the British and opposition to the Hindus. Nomani, who died a year after Jinnah’s entry into the League in 1913, castigated the organisation because “everyday the belief which is propagated, the emotion which is instigated is (that) Hindus are suppressing us and we must organise ourselves.”

In a chapter titled “Two-Nation Theory: Origin and Hindu-Muslim Variants”, Shamsul Islam underlines the fact that much before the Muslim League came up with the two-nation theory, leaders such as Madan Mohan Malaviya, B. S. Moonje and Lajpat Rai were championing a Hindu nation. Much before them, Raj Narain Basu (1826-1899), maternal grandfather of Aurobindo Ghosh, and his close associate Naba Gopal Mitra (1840-1894) had emerged as the co-fathers of Hindu nationalism. Eminent historian R. C. Majumdar has remarked that “Naba Gopal forestalled Jinnah’s theory of two nations by more than half a century”. So, the onus for spreading the belief that Hindus and Muslims constituted two separate nations that could not peacefully co-exist with each other should first be placed at the door of Hindu leaders.


Of all the Muslim leaders who were opposed to the idea of Partition, the case of Allah Bakhsh seems to be most interesting. When British Prime Minister Winston Churchill made a derogatory reference to the Indian freedom struggle and Quit India Movement, Allah Bakhsh, who as head of the Ittehad Party was the Premier (chief minister) of Sind, decided to return his titles of Khan Bahadur and Order of the British Empire (OBE). Consequently, he was dismissed by the Viceroy. Later, he was assassinated by supporters of the Muslim League and his murder paved the way for the entry of the separatist organisation into Sind. The rest, as they say, is history.

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First Published in The Hindu
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अर्थसत्ता : चिली का अनुभव और मुक्त बाज़ार

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अमर तिवारी जीका यह स्तम्भ "अर्थसत्ता"हम आज से जनपक्ष पर शुरू कर रहे हैं। अर्थशास्त्र के बाजारू सिद्धांतों की तह मे जाकर उनकी पड़ताल करने और अब तक के अनुभवों के आधार पर उनकी समीक्षा का उनका यह प्रयास मुझे बेहद सकारात्मक और ज्ञानवर्धक लगता है। आप सब इसमें सहभाग करेंगे तो यह और उपयोगी हो सकेगा। 




कल शशिभूषण जी ने ठीक कहा कि जो अपना इतिहास नहीं पढ़ते वे चिली का क्या पढ़ेंगे। मुझे भी इस मूर्खों और धूर्तों की टुकड़ी से कोई उम्मीद नहीं है। जो इनके पहले थे उनसे भी नहीं थी, क्योंकि वे तो अर्थशास्त्र के पंडित थे। ट्रेकिल डाउन और जाने कौन कौन से पोंगा सिद्धांत बघारते थे और फ्री इकॉनमी को वरदान मानते थे कि यही अब हर हिन्दुस्तानी की जिंदगी को जगमग कर देगी।

हमारे हुक्मरान कभी भी अंतर्राष्ट्रीय आर्थिक दबावों के आगे घुटने टेकने के अलावा कोई विकल्प नहीं पेश कर सके। यह उनके बस की बात ही नहीं थी। दरअसल फ्री मार्किट के एजेंट 1975 के पहले ही भारत घुसपैठ कर चुके थे और वे विभिन्न स्तरों पर लॉबीइंग करके या सीधे हस्तक्षेप द्वारा सरकारी निर्णयों को प्रभावित कर रहे थे। याद रखिये कि यही वह जमाना था जब अमेरिका में भी इकनोमिक डेरेगुलशन शुरू हुआ और वहां का अर्थ तंत्र पूंजीवाद के सबसे खतरनाक दौर में प्रवेश कर गया, और उत्पादन, निर्माण और विपणन का नियंत्रण परोक्ष रूप से मेन स्ट्रीट से वाल स्ट्रीट ने हथिया लिया।

अब चिली की बात पर आते हैं और ये देखते हैं की वह क्यों हमारे लिए आज प्रासंगिक है।

1950 -60 में चिली ठीक ठाक तरक्की पर था बिना किसी बाहरी मदद के। शिक्षा और स्वास्थ्य के साथ राष्ट्र निर्माण के प्रमुख उद्योग पूरी तरह राज्य के नियंत्रण में थे। (बताना जरुरी है कि चिली १८१० में आजाद हुआ और स्वशासन के दो प्रमुख काल खण्डों से गुजरते हुए १८९१ से ही संसदीय प्रणाली अपना ली थी और १९२५ से Arturo Alessandri Palma. के सुधारवादी नेतृत्व में मजबूत हो रहा था) वहाँ के सुदृद्ग होते कामकाजी मध्यवर्ग को "ईवोलूशन टू अवॉयड रेवोलुशन"के नारे के तहत संगठित किया जा रहा था। ऐसे दौर में जब उसके पडोसी दक्षिण अमेरिकी देश भी उससे रश्क करते थे; वहां पांव जमाये अमेरिकी कंपनियों को खतरा महसूस होने शुरू हो गया।

इसके पहले ही अमेरिका में १९२९ की भयानक मंदी को मार भागने के लिए रूज़वेल्ट द्वारा "न्यू डील"की घोषणा की जा चुकी थी और अमेरिकी सरकार बड़े पैमाने पर लोगों को रोजगार मुहैय्या कराने का बीड़ा न केवल उठा चुकी थी बल्कि करा भी रही थी। इसी वजह से अमेरिकी पूंजीपति और उनके पिछलगुए अर्थशास्त्री भी कनमना रहे थे, जिनमें सबसे प्रमुख थे शिकागो यूनिवर्सिटी के मिल्टन फ्रीडमैन। उन्होंने "न्यू डील"के विरुद्ध और पूंजीपतियों के हक़ के लिए युद्धस्तर पर विरोध शुरू कर दिया।

इसके कुछ पहले यूरोपीय/अमरीकी पूंजीपतियों के पिछलगुए अर्थशस्त्रियों द्वारा एक संगठन की स्थापना भी हो चुकी थी जिसका नाम था --"मोंट पेलेरें सोसाइटी"; इसका उद्देश्य था --समस्त व्य[एरिक और औद्योगिक उपक्रमों से सरकारी नियंत्रण हटवाना। फ्रीडमन उसका सक्रिय सदस्य था और ऑस्ट्रिया का अर्थशास्त्री फ्रेडरिक वोन हायक अध्यक्ष। इस सोसाइटी ने एक पोंगा सिद्धांत निकला और न केवल प्रचारित किया बल्कि उसे संगठित रूप से लागू करने के लिए दुनिया की सभी सरकारों पर परोक्ष दबाव बनाने की भी शुरुआत की। कहना न होगा कि इसके पीछे दुनिया के सभी प्रमुख पूँजी पतियों ने समर्थन और धन लगाया।

यह पोंगा सिद्धांत था कि "यदि सरकार अर्थतंत्र से अपना समस्त नियंत्रण हटा कर उसे पूरी तरह मुक्त कर दें तो अर्थ व्यवस्था स्वयं ही अपने को सन्तुलित करती रहेगी ". ... इसके बाद ही मुक्त बाजार और मुक्त अर्थ व्यवस्था के खेल की शुरुआत कर दी गयी. ....१९५० के शुरूआती विरोध के बाद अयोग्य सरकारों को यह सिद्धांत तुरंत भा गया और दूसरों ने भी इसमें अपनी मुक्ति देखनी शुरू की।

अब पुनः चिली पर आते हैं---- तो चिली के आत्मनिर्भर बनते चले जाने और सरकार द्वारा पोषित उपक्रमों के पुष्ट होते जाने के दौरान वहां पांव पसारे पूंजी पतियों को अपनी तरक्की में बधा महसूस हुयी और उन्होंने अपने एजेंट मिल्टन फ्रीडमन को सक्रिय किया। फ्रीडमन ने अमेरिकी सरकार के साथ मिलकर अपने लम्बे और सुनियोजित प्लान के तहत चिली की कैथोलिक यूनिवर्सिटी से मेधावी छात्रों को जहाज भर भर कर शिकागो यूनिवर्सिटी बुलाया मुक्त बाजार की शिक्षा के लिए। सालों तक चले इस उपक्रम के बाद सैकड़ों की संख्या में मुक्त बाजार के पैरोकार तैयार होकर चिली पहुचने लगे और वहां के सरकारी, अर्ध सरकारी और निजी वसंस्थानो में अपनी जगह बनाने लगे। यही नहीं कैथोलिक यूनिवर्सिटी का अर्थशास्त्र विभाग पूरी तरह से शिकागो यूनिवर्सिटी के अर्थशास्त्र विभाग का क्लोन बन गया और इसके मुखिया अर्नाल्ड हरबेर्गेर बन गए फ्रीडमन के भक्त.

नतीजा सत्तर के दशक की शुरुआत से सामने आया जब नयी चुनी गयी सरकार (राष्ट्रपति: साल्वाडोर अलेंदे गोसेंस) को गिराने का प्रयास अमेरिका द्वारा किया जाने लगा। अमेरिकी राष्ट्रपति निक्सन ने सीआईए को चिली में आर्थिक अस्थिरता पैदा करने का साफ़ निर्देश दे दिया। इसका एक मात्र कारण था नयी सरकार द्वारा अमेरिकी पूंजी द्वारा संचालित उपक्रमों का राष्ट्रीयकारण करने का प्रयास (जाहिर है की इससे अमेरिकी पूजी की पकड़ चिली के पर कमजोर होतो या ख़त्म होती)।

उस समय चिली के टेलीकॉम , बैंकिंग, माइनिंग आदि सभी प्रमुख क्षेत्रों का या तो राष्ट्रीय कारन कर दिया गया था या उनमें सरकारी हस्तक्षेप बढ़ाया जा रहा था जिसके फलस्वरूप नयी सरकार के कार्यकाल के पहले साल में अच्छी आर्थिक प्रगति भी हुयी थी.

इधर अमेरिका के सरकारी पैसे, सीआईए और चिली की कैथोलिक यूनिवर्सिटी के मुक्त बाजार सेवक-शावकों द्वारा एक ५०० पेज का ब्लू प्रिंट तैयार किया गया जिसका नाम था -"ब्रेक "। इसके तहत बड़े पैमाने पर हड़ताल कराना, आम लोगों में भय पैदा करके उन्हें बैंकों से जमा पूँजी निकालने की उकसाना आदि के माध्यम से अस्थिरता/अशांति पैदा की गयी और असफल तख्तपालट की एक कोशिश हुयी। अमेरिकी पूंजीपतियों ने भी अपने पैसे बाजार से निकाल कर कृत्रिम आर्थिक संकट पैदा किया गया जिससे मुद्रास्फीति पहले १४०% और फिर ८००% तक पहुंच गयी।

जिस चिली ने ४० साल शांतिपूर्ण लोकतान्त्रिक शासन के बिताये थे उसकी गलियों में मिलिटरी की संगीनें लहराने लगी और इसकी चरम परिणति राष्ट्रपति भवन पर सीधे हमले द्वारा साल्वाडोर अलेंदे गोसेंस की सरकार को उखाड़ फेंकने में हुयी।

आज भारत में वही अभियान सक्रिय है, बेशर्म समझौतों द्वारा कुशिक्षित राजनेताओं को फुसलाया जा रहा है या तो धमकाया जा रहा है. चिली में तो शिक्ष को प्रायोजित किया गया था, अब तो सीधे हस्तक्षेप कर खरीदा जा रहा है। हमारे कुशासक पहले इसे अपरिहार्य बता रहे थे और आज निहाल हुए जा रहे हैं और हाथ उठा-उठा कर मेक इन इंडिया कर रहे हैं।
ठीक भी है वायरस पहले ठीक दिमाग में घुसाओ, इंसान को पागल करो बाकि बीमारियां वो अपने आप पैदा कर लेगा। धर्म को भ्रष्ट करना है, पंथ चलाना है तो पहले अपने पुरोहित पैदा करो .......

बच्चे है जो इस बात को समझ रहे है और विरोध में जान की बाजी लगा रहे हैं, लाठियां खा रहे है।

हुक्मरान कुशिक्षित हैं, मूर्ख हैं, बिके हुए हैं, बेहया हैं या यह सब होने के साथ क्रूर भी हैं......फिलहाल इस देश के पक्ष में नहीं हैं। ..और अर्थशास्त्र के बुनियादी सिद्धांतों को उतना भी नहीं जानते मानते जितना गली का एक व्यापारी अपनी सहज बुद्धि से ही जनता है।

इस बात को शायद छात्र समझ रहे है। थोड़ी बहुत उम्मीद भी उन्ही से है।

सरहदों के पार- रोहित वेमुला : अभिनव श्रीवास्तव

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रोहित वेमुला को गुजरे हुये दस दिन से भी ज्यादा हो गये हैं। इन दस दिनों में हममें से कुछ लोगों ने रोहित को कभी दुःख और अफ़सोस तो कभी क्षोभ और आक्रोश के साथ याद किया है। दुःख और अफ़सोस इसलिये क्योंकि रोहित जैसे स्वप्नद्रष्टा युवा की असमय मौत से हम कहीं भीतर ही भीतर बेहतर समाज बनाने के अपने साझा सपनों को नुचा हुआ महसूस कर रहे हैं, आख़िरी ख़त में रोहित ने अपने भीतर के द्वंद और अपनी पहचान से जुड़ी विडम्बनाओं का जैसा चित्र उकेरा है, उसका मर्म समझने के लियेr हमें संभवतः हजारों-हजार विमर्शों की आवश्यकता पड़े।

क्षोभ और आक्रोश इसलिये क्योंकि रोहित की मौत के लिये एक ऐसी सरकार और उसका सड़ा-गला तंत्र ज़िम्मेदार रहा जिसके राष्ट्रवाद के खांचे में रोहित के सपनों की कोई जगह नहीं थी। यूं भी सितारों तक की यात्रा करने की चाह रखने वाले रोहित के विशाल सपने एक ऐसे तंग राष्ट्रवाद में समा नहीं सकते थे जो रोहित के गुजर जाने के बाद भी उसकी दलित पहचान को नकारने जैसी निम्नतम और फूहड़ प्रवृत्तियों से खुद को संतुष्ट करता हो, जिस शासक वर्ग में रोहित के गुजर जाने का सामान्य मानवीय दुःख तो न हो, लेकिन इस बात का गर्व अवश्य हो कि उसने रोहित को गैर-दलित साबित कर अपने बचाव में तर्क गढ़ लिये हैं।

अपने समय के कड़वे यथार्थ और उसकी जकड़बंदी से आजाद होते हुये रोहित ने तो किसी से कोई शिकायत नहीं की, लेकिन एक राष्ट्र की सामूहिक चेतना में इतनी जगह नहीं कि वह अपने ही बीच एक स्वप्नदर्शी नौजवान की आत्महत्या की वजहों पर चिंतन-मनन कर सके। कुछ विचारों और टिप्पणियों से चोटिल और आहत हो जाने वाली सामूहिक चेतना आज स्वयं को आईने के सामने खड़ा कर ऐसे सवाल पूछने से डर रही है। जाहिर है कि महज झंडों, नारों तक सिमटे हुये राष्ट्रवाद से यह उम्मीद न तो पहले ही की जा सकती थी और न अब की जा सकती है।

हमें याद रखना होगा कि रोहित वेमुला ने जिन परिस्थितियों में घिरकर आत्महत्या की, वे परिस्थितियां जान-बूझकर पैदा की गयीं। राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ से जुड़े छात्र संगठन आखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद् (एबीवीपी) के एक सदस्य ने रोहित वेमुला और उनके चार साथियों पर मारपीट करने का आरोप लगाया था। हैदराबाद विश्वविद्यालय की पहली जांच में यह आरोप बेबुनियाद निकला, लेकिन विश्वविद्यालय में अप्पा राव पोडिले के नये कुलपति की हैसियत से आने वाले की बाद स्थिति बदल गयी। बगैर किसी नयी जांच के पुराना फैसला पलट दिया गया और रोहित समेत उनके चार साथियों की छात्रावास समेत सार्वजनिक जगहों की आवाजाही पर पाबंदी लगा दी गयी। वास्तव में नये कुलपति के नेतृत्व में विश्वविद्यालय की कार्यपरिषद पर रोहित और उसके चार साथियों को दण्डित करने का दबाव भाजपा नेता और केंद्र सरकार में श्रम रोजगार राज्य मंत्री बंडारू दत्तात्रेय के कारण पड़ा जिन्होंने मानव संसाधन विकास मंत्री स्मृति ईरानी को पत्र लिखकर विश्वविद्यालय को राष्ट्रविरोधियों का अड्डा बताकर दखल करने की मांग की। बंगारू दत्तात्रेय की चिंता का कारण रोहित और उसके साथियों का आंबेडकर स्टूडेंट एसोशियेशन से जुड़ाव था। आम्बेडकर स्टूडेंट एसोशियेशन के सदस्य होने के नाते रोहित ने विश्वविद्यालय में ‘मुजफ्फरनगर बाकी है’ फिल्म के प्रदर्शन के दौरान हुये हमले के विरोध में एक जुलूस निकाला था, किसी भी सामान्य प्रगतिशील छात्र संगठन की तरह एसोशियेशन ने याकूब मेनन को फांसी दिये जाने की सजा का विरोध किया था। कुल मिलाकर ऐसी ही गतिविधियों के चलते संगठन पर राष्ट्रविरोधी होने का तमगा लगा दिया गया।

इतना लिख देने के बाद इस पूरे मामले में सरकार, विश्वविद्यालय प्रशासन की क्या भूमिका रही, इस पर कुछ कहने की जरुरत भी महसूस नहीं होती, रोहित की मौत से पहले भी सरकार और उसके प्रतिनिधियों की भूमिका साफ थी और उसके बाद रोहित की पहचान को नकारने की जैसी घ्रणित कोशिशों से यह और ज्यादा साफ होती चली गयी है, सरकार ही क्यों, हमारे समाज के एक खास हिस्से में कई बार दबी जुबान में और कई बार बेहिचक इस बात को लेकर स्वीकार्यता का माहौल है कि रोहित की आत्महत्या को दलित पहचान का मुद्दा न बनाया जाये। अमानवीयता की हद तक जाने वाली ऐसी दलीलों पर मुमकिन है कि हममें से कुछ लोग उद्वेलित हो उठें, लेकिन रोहित अपने दलित होने के कड़वे सामाजिक यथार्थ को उसके अनुभवों से एक ऐसे दायरे में चला गया था, जहां उसके लिये पाने-खोने, खुशी-रुलाई, हंसी-मायूसी के कोई मायने ही नहीं थे। शायद रोहित ने इसी को अपने भीतर का खालीपन कहा है- ऐसा खालीपन जिसमें न्याय मिलने या न मिलने की उम्मीद तो दूर अपना अस्तित्व भी कहीं खोया हुआ नजर आता है। रोहित की आत्महत्या को हम इतनी सहजता से कायरता का कृत्य नहीं कह पायेंगे, अपने दलित होने की लम्बी प्रताड़ना, बतौर विद्यार्थी अपना सब कुछ खोने और अंततः मौत को गले लगाने के लिये मजबूर होने के बावजूद रोहित ने तो ‘सबको माफ़’ करने की असाधारण हिम्मत दिखायी, लेकिन हमारे समाज और शासक वर्ग में इतना साहस भी नहीं कि उसकी दलित पहचान को स्वीकार कर सके! हम कह सकते हैं कि अपने आस-पास बन रहे ऐसे समाज और उसके खतरों का अंदेशा हमें भले न रहा हो, लेकिन संभवतः रोहित वेमुला को इस सामाजिक यथार्थ को ज्ञान बहुत पहले से था।

रोहित की आत्महत्या और उसके आख़िरी ख़त ने हमारे 66 साल के लोकतंत्र के सामने एक बहुत बड़ी लकीर खींच दी है. निस्संदेह, ऐसे अनेक मौके आये हैं जब विभिन्न समूह/लोग न्याय से महरूम कर दिये गये हैं लेकिन न्याय का न मिल पाना एक बात है और न्याय से नाउम्मीद हो जाना दूसरी बात। अगर 28 साल के एक शोधरत दलित नौजवान के न्याय की उम्मीद और सपनें इस कदर टूट जायें कि उसे लिखना पड़े कि- “मैं एक लेखक बनना चाहता था, कार्ल सगान की तरह सायेंस का लेखक, लेकिन अंत में मैं सिर्फ एक ख़त लिख पा रहा हूं”... तो हमें मान लेना चाहिये कि हम एक बेहद खतरनाक दौर में प्रवेश कर चुके हैं। लेकिन हम शायद ही रोहित के इन शब्दों में छिपी असहायता और खालीपन से खिंची लकीर के मायने समझ पा रहे हैं। रोहित, तुम हमारी काल्पनिकताओं, हमारे शब्दों, हमारी भाषा और हमारी समझ को इतना छोटा बना गये कि हम तुम्हें समझने का दावा कभी नहीं कर पायेंगे..

अंध राष्ट्रभक्ति और उन्मादी आज़ादी के नारों के बीच ज़रूरी सवाल : अक्षत

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जे एन यू के छात्र तथा एस ऍफ़ आई और आग़ाज़ से जुड़े अक्षत सेठ ने 9 तारीख को कैपस में हुई घटना पर विस्तार से लिखा है जो दोनों पक्षों को कटघरे में खडा करता है और बहुत गंभीरता से पढ़े जाने की माँग करता है. -------------------------------------------------------------------------------------- जेएनयू में कल हुए कार्यक्रम पर कुछ बुनियादी तथ्य और सवाल रखने बहुत ज़रूरी हो जाते हैं:

पहले, उन लोगों से जो 'कश्मीर मांगोगे तो चीर देंगे'कहते हैं मगर आज तक वैष्णो देवी से आगे गए भी नहीं, और साथ ही उनकी सरकार, देशभक्ति के ठेकेदार मीडिया और इस विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र से:

1. दिल्ली से थोड़ी दूर एक शहर मेरठ है। आज से 68 साल पूर्व एक प्रार्थना सभा में एक निहत्थे बूढ़े पर एक तथाकथित राष्ट्रवादी ने गोली चलायी जिसने, (पॉइंट टू बी नोटेड माय लार्ड) आज तक ऑन रिकॉर्ड किसी अँगरेज़ को एक पत्थर नहीं मारा। मैं कोई गांधीवादी नहीं लेकिन इस देश के संविधान में उस बूढ़े को राष्ट्रपिता का दर्ज दिया गया है। मेरठ में हिन्दू महासभा के लोग खुलेआम गांधी की मौत पर मिठाई बांटते हैं। साक्षी महाराज गोडसे को देशभक्त कहते हैं। अरविन्द केजरीवाल के खिलाफ चुनाव लड़ने वाले हिन्दू महासभा के स्वामी ओमजी खुलेआम कहते हैं कि गोडसे ने गांधी को मारकर गौरव का कार्य किया है। ( वीडियो ये रहा ) ये सारे लोग जेल से बाहर हैं, कोई देशद्रोही नहीं कहलाया गया और न कोई जेल में गया। ये दोहरे मापदंड क्यों कि आप इन सभी को बस प्यार से डांटकर चुप करा देते हैं और जेएनयू के पीछे पड़ जाते हैं? राष्ट्रद्रोही हैं तो दोनों हैं, वर्ना एक भी नहीं। यह दिखता है कि दो एक जैसे क़िस्सों में समानता और न्याय की दुहाई देने वाले लोकतंत्र में अलग-अलग स्टैण्डर्ड हैं।

2. अफज़ल गुरु और याक़ूब दोनों के केस में सबसे पहला विरोध फांसी की सज़ा को लेकर सिविल सोसाइटी की तरफ से हुआ है। जो लोग नहीं जानते या अनजान बनने का नाटक कर रहे हैं उनकी जानकारी के लिए बता दें कि फांसी की सजा का विरोध करना हमारा संवैधानिक हक़ है। और जो संवैधानिक हक़ है उसको अगर आप एंटी-नेशनल बोलेंगे तो आपपर मानहानी का दावा भी हो सकता है (वैसे मैं मानहानी का समर्थन बिलकुल नहीं करता पर बिलकुल लीगल टर्म्स में बात कर रहे हैं). फांसी की सजा का विरोध कई देशों में हुआ है। कई देशों ने मौत की सजा को ख़त्म कर दिया है। अगर आरएसएस 26 जनवरी 1950 के दिन तिरंगा झंडा की जगह भगवा फरा सकता है तो हम भी फांसी की सजा का विरोध कर सकते हैं।

3. अफज़ल गुरु की फांसी पर माननीय उच्चतम न्यायालय का कहना है कि 'देश की सामूहिक चेतना'की संतुष्टि के लिए उसे फांसी देना बहुत ज़रूरी है। यह कॉमन सेन्स है कि सामूहिक चेतना किसी को फांसी देने का क़ानूनी तर्क नहीं है। सामूहिक चेतना तो समलैंगिकता के भी खिलाफ है पर इसे फिर भी पूर्व में क़ानूनी दर्जा दिया गया है। अगर इसे देश की न्याय पद्धति सामूहिक चेतना के नाम पर भीड़तंत्र से संचालित होने लगी तो जिस सऊदी अरब और ईरान से तुलना कर भक्त टाइप लोग फूले नहीं समाते उसमें और आपमें कोई अंतर नहीं। वहां भीड़ पत्थर मार देती है और यहाँ फांसी दे दी जाती है कागज़ी कार्यवाही के साथ। और फांसी के बाद इस सबसे बड़े लोकतंत्र की न्यायव्यवस्था, सरकार और सुरक्षा एजेंसियां इतना क्यों डर गयीं कि अफज़ल की लाश उसके परिवार वालों तक को नहीं दी गयी? ऐसा ही रोहित वेमुळे के साथ किया गया। आप यदि पाक साफ़ हैं तो क़ानून और संविधान को पूरा फॉलो कीजिये।

4. और यह सबसे अहम है। कितनों को पता है कि सिर्फ सं 1990 या 1947 ही नहीं बल्कि 1848 से कश्मीर में क्या हुआ है? कितनों को पता है कि डोगरा राज्य में जम्मू और कश्मीर में छह प्रतिशत हिन्दुओं के पास नब्बे प्रतिशत ज़मीन थी? कितनों को पता है कि 1947 में महाराजा हरी सिंह का भारत या पाकिस्तान में जाने का कोई इरादा नहीं था और वहां पर आरएसएस के अवतार प्रजा परिषद के लोग उसे हिन्दू राष्ट्र बनाना चाहतेथे? कितनों को पता है कि संघ परिवार के परम पूज्य और देश के पहले गृहमंत्री सरदार पटेल कश्मीर को भारत में मिलवाना ही नहीं चाहते थे क्योंकि उनका मानना था कि मुसलमान बहुमत वाले राज्य का भारत में कोई काम नहीं? कितने जानते हैं कि भारतीय सरकार ने कश्मीर में किसी सार्थक लोकतांत्रिक विकल्प को पैदा ही नहीं होने दिया और मजबूरी में वहां की अवाम को उग्रवाद का रास्ता पकड़ना पड़ा? कुनान पोषपुरा गाँव में महिलाओं के साथ आर्मी द्वारा किये गए सामूहिक बलात्कार के बारे में कितने लोग जानते हैं? उन गायब लड़कों के बारे में जिनको सिर्फ शक के आधार पर सेना पकड़ कर ले गयी और जिनका एनकाउंटर कर दिया गया? पल-पल अपने चारों और फ़ौज का जमावड़ा होने का मतलब जानते हैं? अच्छा कश्मीरी पंडितों के खैरख्वाह लोग कम से कम यह तो जानते होंगे कि जब पंडितों को घाटी छोड़कर जाना पड़ा तो कश्मीर में गवर्नर कौन था। उसका नाम जगमोहन था, वे भाजपा में शामिल हुए और हाल ही में उन्हें पद्मभूषण मिला है। वे पंडितों को घाटी से जाता देख तमाशा क्यों देख रहे थे? सेना भी उनके पास थी और प्रशासन भी। हर कोई कश्मीर पर ओपिनियन रखता है तो उसके बारे में पढ़ने और वहां की आम जनता की ज़िंदगी और उसके दुःख-दर्द को जानने की कितनी कोशिश की इस मीडिया या तथाकथित राष्ट्रवादियों ने?

पर सवाल उन आज़ादी के मतवालों से भी पूछना बनता है जो वहां नारे दे रहे थे:

1. आपके लिए अपनी आज़ादी ज़रूरी है या किसी और की बर्बादी ज़्यादा ज़रूरी?अगर आप आज़ादी के साथ या उससे ज़्यादा किसी और की बर्बादी की चिंता करते हैं और उन्माद में इसी कामना के साथ नारे लगते हैं तो मुझे कसकम बहुत शक है आपकी लड़ाई की ईमानदारी पर। मुझे इसमें प्रतिक्रियावाद और कट्टरपंथ की बू आती है। किसी और की बर्बादी की कामना करने वाला नारा यह दिखता है कि आपकी आज़ादी का सपना मर चुका है और आपके भीतर सिर्फ धार्मिक उन्माद और नफरत ज़िंदा है जो आज़ादी मिलने पर कश्मीर को संवारने से ज़्यादा अपनी नफरत की आग को ज़िंदा रखने पर आधारित है।

2. अगर मैं कश्मीर में हो रहे दमन के खिलाफ उठ रहीं आवाज़ों का समर्थन करता हूँ (जो कि मैं करता हूँ) तो मेरा यह पूछने का हक़ है कि आज़ादी के बाद का कश्मीर कैसा होगा?क्या वहां प्रगाश बैंड की लड़कियों को रेप की धमकियां दी जाएंगी और उनपर फतवे जारी किये जाएंगे? मैंने कश्मीर पर जेएनयू में पहले भी प्रोटेस्ट देखे हैं। इनमें कई बार धार्मिक उन्माद से भरपूर होकर नारे लगाये गए हैं। इस तरह के प्रोटेस्ट सिम्बल्स में माफ़ कीजियेगा पर मुझे इन नारों में कश्मीर या उसकी एक आइडेंटिटी को बचाता नारा नहीं दिखता बल्कि पाकिस्तान नामक एक फेल्ड स्टेट और सऊदी अरब से एक्सपोर्ट हुई मध्ययुगीय दकियानूसी वहाबियत/सलफ़ियत और अमेरिकी साम्राज्य्वाद से संचालित सऊदी पेट्रोडॉलर की बू आती है। कश्मीर में हो रहे दमन का विरोध करने का मतलब किसी भी धार्मिक कट्टरपंथ का समर्थन करना नहीं है। यह एक तथ्य है कि भारत और पाकिस्तान दोनों ने बड़ी सफलतापूर्वक कश्मीर आंदोलन के सेक्युलर और कश्मीरी आइडेंटिटी पर आधारित तबके को साइडलाइन कर लगभग ख़त्म कर दिया है जिससे दोनों तरफ की शोषणकारी व्यवस्थाओं और फिरकापरस्तों को फायदा हुआ है। अगर जेएनयू जैसे कैंपस में भी कश्मीर के सवाल को भारत/पाकिस्तान और हिन्दू/मुसलमान की बाइनरी से देखा जाता है (और आरएसएस तो चाहता ही है कि ऐसा हो ताकि उनका फायदा हो) तो समझदार लोगोंके द्वारा वो नारे क्यों लगाये गए जिनकी पैदाइश कश्मीर का प्रतिरोध नहीं बल्क़ि पाकिस्तान प्रायोजित धार्मिक उग्रवाद है? यदि मैं यहाँ गलत हूँ तो ज़रूर माफ़ी चाहूंगा और मुझे करेक्ट किया जा सकता है पर यदि एडिटिंग के द्वारा झूठी अफवाहें फैयिन गयीं भी है तो भी मुझे पता है कि वहां नारे दमनके खिलाफ लग रहे थे पर साथ ही धार्मिक उन्माद के पक्ष में भी लग रहे थे। मैंने पूर्व में ऐसे नारे लगते देखे हैं और मैं सैद्धांतिक रूप से इनका विरोध करता हूँ और करने का लोकतांत्रिक हक़ रखता हूँ।

3. जब धार्मिक उन्माद में मध्यवर्गीय रूमान जनवाद और प्रतिरोध का मुखौटा लिए आता है तो बस हंगामा खड़ा होता है, सूरत नहीं बदलती।क्या दमनकारी शक्तियों के विरोध को भारत के टुकड़े करने की कामना का रूप दे देना और झंडे को लात मारना (अगर ऐसा हुआ है तो, नहीं हुआ तो माफी चाहता हूँ ऐसा कहने की एडवांस में) का मक़सद सिर्फ प्रोवोक करना और कॉर्पोरेट मीडिया में सनसनी फैलाना नहीं था? आज तक जेएनयू में कश्मीर पर हंगामा हुआ है, डिबेट करके लोगों के नज़रिये को बदलने की कोशिश बहुत ही कम हुई है कमसकम जबसे मैं रहा हूँ। डोगरा रूल में हुए अन्याय से लेकर 47 की घटनाओं और उसके बाद भारत सरकार के अपने ही संविधान का मखौल उड़ाकर कश्मीर की लोकतांत्रिक अस्मिता को कुचलने के सिलसिलेवार क़िस्सों को तथ्यों के साथ पेश किया गया? जर्गन से और हंगामे से आगे जानेकी कोशिश की गयी। मेरी समझ से नहीं की गयी क्योंकि सनसनी पर आधारित नवउदारवादी संस्कृति के मानकों को लेफ्ट के जरगन के साथ हूबहू कॉपी करने की टेंडेंसी आ गयी है। और उसमें धार्मिक उन्माद की दिशाहीन विचारधारा को ही आज़ादी की लड़ाई का अंतिम सत्य मान लिया गया है।

4. जब दुश्मन हमसे बदला लेने के मौके ढूंढ रहा है तो क्या हमें उसके जाल में फंसकर हमारे कैंपस के लोकतांत्रिक स्पेस को खतरे में डालना चाहिए था( मेरी असहमति सिर्फ वहां लगाये नारों से है, वह आयोजन बिलकुल होना चाहिए तह और ऐसे आयोजन और होने चाहिएं) जबकि उनके पास स्टेट मशीनरी और मीडिया मैनेजमेंट है? यह तो वही क़िस्सा हो गया कि मेरे पिताजी बड़े बहादुर थे, तो क्या किया? शेर सेलड़ गए। और शेर ने खा लिया। और सब ख़त्म। एक कम्युनिस्ट होने के नाते मुझे इस तरह के हथकंडे revolutionary nihilism ही लगते हैं। मिडिल क्लास हिरोइज़्म कमसकम मेरे लिए सीखने की चीज़ नहीं है।

कश्मीर में जैसा की मैंने कहा, पूरी कोशिश हुई है कि जेकेएलएफ और बाक़ी संगठनों से उसका सेक्युलर और जनवादी करैक्टर छीनकर उसे साम्प्रदायिक रंग देने की। इससे दोनों मुल्कों के ठेकेदारों को अपने-अपनेहिस्सों को आज़ाद कहते हुए जेल बनाये रखने में मदद मिलती है। ऐसे में तथ्य सामने लाये जाने चाहिएं, वैचारिक बहसें होनी चाहिएं। मीडिया को दिखाने के लिए स्टंटबाजी एबीवीपी जैसों का हथियार है, उसे उन्हीं के पास रहने दिया जाए।

आराम से कहा जा सकता है कि हमारे कैंपस के डेमोक्रेटिक स्पेस को बचाने गए छात्र समुदाय के एक तबके में भी संशय की स्थिति बनी है और सबका मानना है कि जहाँ आरएसएस के सपोले मौके का फायदा उहने और राज्य की मशीनरी काइस्तेमाल करने के मौके ढूंढ रहे थे, वह मौक़ा उन्हें वैचारिक अपरिपक्वता ने थाली में सजाकर दे दिया है।

इस समय ज़रुरत है अफज़ल गुरु और कश्मीर से जुड़े सवालों पर तथ्य सामने लाने की। जिन लोगों को ये एक न्यायसंगत लड़ाई से ज़्यादा सऊदी स्टाइल धार्मिक जिहाद लगता है वे फ्रीडम ऑफ़ एक्सप्रेशन का सहारा लेना छोड़ें।

जे एन यू परिघटना पर लेखकों का बयान

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हम हिन्दी के लेखक देश के प्रमुख विश्वविद्यालय जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में 9 फरवरी को हुई घटना के बाद से जारी पुलिसिया दमन पर पर गहरा क्षोभ प्रकट करते हैं। दुनिया भर के विश्वविद्यालय खुले डेमोक्रेटिक स्पेस रहे हैं जहाँ राष्ट्रीय सीमाओं के पार सहमतियाँ और असहमतियाँ खुल कर रखी जाती रही हैं और बहसें होती रही हैं। यहाँ हम औपनिवेशिक शासन के दिनों में ब्रिटिश विश्वविद्यालयों में भारत की आज़ादी के लिए चलाये गए भारतीय और स्थानीय छात्रों के अभियानों को याद कर सकते हैं, वियतनाम युद्ध के समय अमेरिकी संस्थानों में अमेरिका के विरोध को याद कर सकते हैं और इराक युद्ध मे योरप और अमेरिका के नागरिकों और छात्रों के विरोधों को भी। सत्ता संस्थानों से असहमतियाँ देशद्रोह नहीं होतीं। हमारे देश का देशद्रोह क़ानून भी औपनिवेशिक शासन में अंग्रेज़ों द्वारा अपने खिलाफ उठने वाली हर आवाज़ को दबाने के लिए बनाया गया था जिसकी एक स्वतंत्र लोकतांत्रिक समाज में कोई आवश्यकता नहीं। असहमतियों का दमन लोकतन्त्र नहीं फ़ासीवाद का लक्षण है।
इस घटना में कथित रूप से लगाए गए कुछ नारे निश्चित रूप से आपत्तिजनक हैं। भारत के टुकड़े करने या बरबादी की कोई भी ख़्वाहिश स्वागतेय नहीं हो सकती। हम ऐसे नारों की निंदा करते हैं। साथ में यह भी मांग करते हैं कि इन विडियोज की प्रमाणिकता की निष्पक्ष जांच कराई जाए। लेकिन इनकी आड़ में जे एन यू को बंद करने की मांग, वहाँ पुलिसिया कार्यवाही और वहाँ के छात्रसंघ अध्यक्ष की गिरफ्तारी कतई उचित नहीं है। जैसा कि प्रख्यात न्यायविद सोली सोराबजी ने कहा है नारेबाजी को देशद्रोह नहीं कहा जा सकता। यह घटना जिस कैंपस में हुई उसके पास इससे निपटने और उचित कार्यवाही करने के लिए अपना मैकेनिज़्म है और उस पर भरोसा किया जाना चाहिए था।
हाल के दिनों में बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय में ख्यात कवि और विचारक बद्रीनारायण पर हमला, सीपीएम के कार्यालयों पर हमला, दिल्ली के पटियाला कोर्ट में कार्यवाही के दौरान एक भाजपा विधायक सहित कुछ वकीलों का छात्रों, शिक्षकों और पत्रकारों पर हमला बताता है कि देशभक्ति के नाम पर किस तरह देश के क़ानून की धज्जियां उड़ाई जा रही हैं। इन सबकी पहचानें साफ होने के बावजूद पुलिस द्वारा कोई कार्यवाही न किया जाना इसे सरकारी संरक्षण मिलने की ओर स्पष्ट इशारा करता है। असल में यह लोकतन्त्र पर फासीवाद के हावी होते जाने का स्पष्ट संकेत है। गृहमंत्री का एक फर्जी ट्वीट के आधार पर दिया गया गंभीर बयान बताता है कि सत्ता तंत्र किस तरह पूरे मामले को अगंभीरता से ले रहा है। ऐसे में हम सरकार से मांग करते हैं कि देश में लोकतान्त्रिक स्पेसों को बचाने, अभिव्यक्ति की आज़ादी के अधिकार की रक्षा और गुंडा ताकतों के नियंत्रण के लिए गंभीर कदम उठाए। जे एन यू छात्रसंघ अध्यक्ष को फौरन रिहा करे, आयोजकों का विच हंट बंद करे, वहाँ से पुलिस हटाकर जांच जेएनयू के प्रशासन को सौंपें तथा पटियाला कोर्ट में गुंडागर्दी करने वालों को कड़ी से कड़ी सज़ा दें।
मंगलेश डबराल
राजेश जोशी
ज्ञान रंजन
पुरुषोत्तम अग्रवाल
असद ज़ैदी
उज्जवल भट्टाचार्य
मोहन श्रोत्रिय
ओम थानवी
सुभाष गाताडे
अरुण माहेश्वरी
नरेंद्र गौड़
बटरोही
कुलदीप कुमार
सुधा अरोड़ा
सुमन केशरी
नन्द भारद्वाज
ईश मिश्र
लाल्टू
कुमार अम्बुज
शमसुल इस्लाम
सुधीर सुमन
ऋषिकेष सुलभ 
विनोद दास
राजकुमार राकेश
हरिओम राजोरिया
अनिल मिश्र
नंदकिशोर नीलम
अरुण कुमार श्रीवास्तव
मधु कांकरिया
सरला माहेश्वरी
वंदना राग
मुसाफिर बैठा
अरविन्द चतुर्वेद
प्रमोद रंजन
हिमांशु पांड्या
वैभव सिंह
मनोज पाण्डेय
शिरीष कुमार मौर्य
अशोक कुमार पाण्डेय 
वर्षा सिंह
विशाल श्रीवास्तव
उमा शंकर चौधरी
चन्दन पाण्डेय
असंग घोष
विजय गौड़ 
अरुणाभ सौरभ
देवयानी भारद्वाज
पंकज श्रीवास्तव
कविता
हरप्रीत कौर
अनुप्रिया
राकेश पाठक
संजय जोठे
रामजी तिवारी
कृष्णकांत
मनोज पटेल 
देश निर्मोही 
प्रज्ञा रोहिणी 
दीप सांखला 
अमलेंदु उपाध्याय
प्रमोद धारीवाल 
अनिल कार्की 
देवेन्द्र कुमार आर्य 
प्रमोद कुमार तिवारी 
अरविंद सुरवाड़े (मराठी)
आलोक जोशी 
रोहित कौशिक 
मनोज छबड़ा 
अमिताभ श्रीवात्सव 
ऋतु मिश्रा 
कनक तिवारी 
ईश्वर चंद्र 
नित्यानन्द गाएन
शशिकला राय 
पंकज मिश्रा 
कपिल शर्मा (सांगवारी)
विभास कुमार श्रीवास्तव 
मेहरबान सिंह पटेल 



सन 42, कम्युनिस्ट, संघी और सच

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द्वितीय विश्व युद्ध के आरंभ होने पर कम्युनिस्ट पार्टी ने पीस पालिसी की घोषणा करते हुए नारा दिया कि ‘ये जंग है साम्राज्यशाही, हम न देगें एक पाई ना एक भाई.’ पार्टी ने सेना में भर्ती के ब्रिटिश अभियान तथा धन जुटाने की कोशिशों का पुरजोर विरोध किया. विश्व युद्ध शुरू होने के एक महीने के भीतर ही दुनिया कि पहली युद्ध विरोधी हड़ताल बंबई में हुई जिसमें 89हजार कपड़ा मजदूरों के अलावा हजारों दूसरे मजदूर भी शामिल हुए. अक्तूबर में पोलित ब्यूरो द्वारा पारित प्रस्ताव में कहा गया कि युद्धकालीन संकट का उपयोग आजादी के लिए किया जाना चाहिए. पार्टी ने अपना लक्ष्य घोषित किया – ‘साम्राज्यवादी युद्ध का राष्ट्रीय मुक्ति युद्ध में क्रांतिकारी रूपांतरण.’ ऐसा ‘गांधीवादी तरीकों की जंजीरों को तोड़कर मजदूर वर्ग की क्रांतिकारी कार्यवाहियों के उभार’ द्वारा किया जाना था इसके उलट कांग्रेस की नीति सौदेबाजी की थी. उसने युद्ध के बाद संवैधानिक सभाओं के निर्माण के बदले मदद की पेशकश की.

          युद्ध के दौरान कम्युनिस्ट पार्टी की आक्रामक नीतियों का प्रतिफलन जुझारू किसान मजदूर आंदोलन के रूप में हुआ. मद्रास, आंध्र, मालाबार बंगाल आदि तमाम जगहों पर किसानों ने हंगर मार्च निकाल कर युद्ध के दौरान बढ़ी हुई कीमतों का विरोध किया तथा जमींदारों तथा व्यापारियों को मुफ्त या कम कीमत पर अनाज़ उपलब्ध कराने के लिए मज़बूर किया गया.  ऐसे आंदोलनों में सबसे महत्त्वपुर्ण नाम कय्यूर का है. मालाबार से लगे इस इलाके में 15सितंबर को पूरे देश के साथ-साथ ‘दमन विरोधी दिवस’ मनाया गया. इसी के साथ यहां अवैध वसूली, ज़बरन बेदख़ली, लगान वृद्धि और बढ़ती कीमतों के खिलाफ तीखा संघर्ष शुरू हो गया. 25-26मार्च को स्थानीय पुलिस ने तमाम कम्युनिस्ट नेताओं को गिरफ्तार कर लिया. 28मार्च को गुस्साए किसानों ने दो पुलिसवालों की हत्या कर दी. इसके बाद तो दमन का भयावह दौर शुरू हो गया. 4किसानों को फांसी की सज़ा हुई और 16को आजीवन कारावास 29मार्च को फाँसी के फंदे को चूमते हुए उन वीर किसानों ने नारा बुलंद किया ‘साम्राज्यवाद मुर्दाबाद’, ‘फासीवाद मुर्दाबाद’, ‘कम्युनिस्ट पार्टी जिंदाबाद’, और इस तरह कय्यूर का क्रांतिकारी संघर्ष इतिहास का एक सुनहरा अध्याय बन गया.

युद्ध के इन आरंभिक वर्षों में कम्युनिस्ट पार्टी ने तीखा संघर्ष चलाया तथा युद्ध विरोधी व ब्रिटिश साम्राज्यवाद विरोधी आंदोलनों की अगुआई कर मजदूरों को दमन के खिलाफ राजनीतिक रूप से जाग्रत भी किया. जबकि इस दौरान (1937-39) ब्रिटिश सरकार को राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ, हिंदू महासभा और मुस्लिम लीग का बिना शर्त और कांग्रेस का सशर्त समर्थन मिला. यही नहीं तत्कालीन कांग्रेस सरकारों ने तो कम्युनिस्ट आंदोलनों का भरपूर दमन भी किया.  

लेकिन जून, 1941में जर्मनी के रूस पर आक्रमण कर देने से माहौल पूरी तरह से बदल गया. पूरी दुनिया पर फासीवाद का खतरा मंडराने लगा. दुनिया भर की मेहनतकश जनता की उम्मीदों के केद्र सोवियत रूस के लिए यह युद्ध जीवन मरण का प्रश्न बन गया. इसके बावजूद आरंभिक पांच महीनों तक भारत की कम्युनिस्ट पार्टी ने युद्ध विरोधी रूख ही अपनाए रखा और कहा कि ‘लड़ते हुए सोवियतों की सबसे बड़ी सहायता यही हो सकती है कि हम साम्राज्यवादी जुए को उतार फेंकें. आज़ाद हिंदुस्तान ही सोवियत संघ की सच्ची मदद कर सकता है’. लेकिन जहां पी.सी.जोशी, के सुंदरैया, नंबूदरीपाद इस लाइन के समर्थन में थे, वहीं कम्युनिस्ट इंटरनेशलन से प्राप्त दिशा निर्देश के बाद 1941के अंत तक डांगे, मुजफ्फर अहमद, रणदिवे आदि ‘जनयुद्ध लाइन’ के तहत इस युद्ध में मित्र सेनाओं को समर्थन देने के लिए ब्रिटिश सरकार के खिलाफ संघर्ष रोक देने के पक्ष में हो गए. तीखी बहस के बाद अंततः यही लाइन प्रभावी हुई.

इसी के तहत सन 1942में कांग्रेस ने ‘भारत छोड़ो’ आंदोलन शुरू किया तो कम्युनिस्ट पार्टी ने इसका विरोध किया. यहां दो बातें स्पष्ट करना ज़रूरी है, पहली यह कि कांग्रेस का यह आंदोलन किसी बड़े उद्देश्य को ध्यान में रखकर शुरू नहीं किया गया था. यह केवल दबाव बनाने की रणनीति थी, जिससे सत्ता हस्तांतरण की प्रक्रिया से मुस्लिम लीग को बाहर रखा जा सके. नेहरू ने स्पष्ट लिखा है “गांधी या उन्होंने ऐसे कोई निर्देश जारी नहीं किए थे कि उनके जेल जाने के बाद आंदेलन की दिशा क्या हो”. बाद में उनके जीवनी लेखक एस. गोपाल ने लिखा, ‘मानो पूरी कार्यकारिणी किसी ठोस निर्णय से बचने के लिए जेलों में पलायित हो गई’. लेकिन उस समय तक जनता ब्रिटिश सरकार के विरूद्ध पूरी तरह आंदोलित हो चुकी थी और ‘भारत छोड़ो’ का नारा जनता के स्वतः स्फूर्त आंदोलन में बदल गया (गौरतलब है कि ऐसे में गांधी जी ने हिंसा की निंदा की थी और आत्मसमर्पण की सलाह दी थी. यही नहीं, उन्होंने नाराज ब्रिटिश सत्ता की मिजाजपुर्सी के लिए जी.डी. बिरला को दूत के रूप में भेजा था.) कम्युनिस्ट पार्टी इस उभार के क्रांतिकारी उपयोग में असफल रही. इस समय जिस लचीले रूख की जरूत थी, वह नदारद था और सोवियत संघ की जीत के बाद भी युद्ध का समर्थन जारी रख वही नीति अपनाया जाना उसकी बड़ी भूल थी, जिसका अहसास पार्टी की दूसरी कांग्रेस के दौरान 1948में हुआ. यहां यह भी बता देना जरूरी होगा कि यह लाइन इतनी हावी थी कि 5अप्रैल, 1943को माओ त्से तुंग द्वारा भेजी गई उस सलाह को भी तवज्जो नहीं दी गई जिसमें उन्होंने सामराजी ताकतों के खिलाफ युद्ध तेज करने सलाह दी थी.

          दूसरी बात यह कि आर. एस. एस. और हिंदू महासभा तथा मुस्लिम लीग ने भी भारत छोड़ो आंदोलन का विरोध किया था. इनकी भूमिका तो पूरे आंदोलन के दौरान ब्रिटिश एजेंटों जैसी रही. दक्षिणपंथ के बड़े नेता श्यामाप्रसाद मुखर्जी ने तो तत्कालीन मंत्रिमंडल के सदस्य के रूप में आंदोलन के दमन में सक्रिय भूमिका निभाई थी. लेकिन जहां अपनी भूल के स्वीकार के बावजूद कम्युनिस्टों को सन 42के लिए आज भी कोसा जाता हैं, तत्कालीन ब्रिटिश राज के विश्वस्त सहयोगी संघ की भूमिका को भुलाकर उसकी अनुयायी पार्टी राष्ट्रभक्ति के प्रमाणपत्र जारी करती है. हम इस दौरान हिन्दुत्ववादी गिरोह के ब्रिटिश चाटुकारिता के प्रमाण शमशुल इस्लाम के ‘काउंटर करेंट्स’ में छपे एक आलेख में दिए इन तथ्यों से पा सकते हैं-

आर एस एस (राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ) और हिन्दू महा सभा से निर्मित 'हिन्दू खेमे ' की इस प्रसंग में क्या भूमिका रही ? यह कुछ अज्ञात कारणोंवश अब भी अस्पष्ट है .दर असल हिन्दू खेमे ने न केवल भारत छोडो और आजाद हिंद फौज के दोनों आंदोलनों का विरोध किया बल्कि इनके दमन में ब्रिटिश हुक्मरानों को अपना बहु-आयामी व बहु-विस्तारी सहयोग भी उपलब्ध करवाया. इस सन्दर्भ में पढ़े जाने योग्य व विश्वसनीय कुछ हतप्रभ कर देने वाले दस्तावेज उपलब्ध हैं . वीर सावरकर सुभाष चन्द्र बोस के विरुद्ध अँगरेज़ हुकूमत के साथ खड़े दिखाई देते हैं .
                                                                                       
हिंदुत्व गिरोह नेताजी सुभाष बोस के ,जिन्होंने भारत से अंग्रेजों को खदेड़ने के लिए एक सैन्य संगठन निर्मित करने का प्रयास किया , घोर प्रशंसक होने का ढोंग करता है . परन्तु सावरकर के नेतृत्व में हिन्दू महासभा द्वारा इस अभियान के प्रति किये गए विश्वासघात को कम ही लोग जानते हैं .द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान नेताजी देश की आज़ादी के लक्ष्य प्राप्ति हेतु विदेशी सहायता ,विशेषकर जापान से मदद लेकर सैन्य शक्ति द्वारा देश के पूर्वोत्तर क्षेत्रों पर आक्रमण करना चाहते थे ,वहीँ वीर सावरकर के नाम से प्रसिद्द विनायक दामोदर सावरकर ने अपने ब्रिटिश आकाओं को पूर्ण सैन्य सहायता का आश्वासन १९४१ में ही दे दिया था .भागलपुर में आयोजित हिन्दू महा सभा के २३वे सत्र को संबोधित करते हुए सावरकर ने कहा -

"जहाँ तक भारत की सुरक्षा का प्रश्न है ,हिन्दुओं को बिना हिचक थल ,वायु व नौ सेना में अधिकाधिक संख्या में भर्ती होकर हिन्दू हितों के अनुरूप , ब्रिटिश भारतीय सरकार का एक प्रतिक्रियात्मक सहयोग की भावना से प्रेरित होकर पूर्ण सहायता के लिए तत्पर रहना चाहिए ....पुनश्च यह ध्यातव्य है की युद्ध में जापान के प्रवेश ने हमें प्रत्यक्षतः और तुरंत ब्रिटेन के शत्रुओं के सम्मुख असहाय छोड़ दिया है .परिणामतः ,ये हमें पसंद हो या न हो, हमें युद्ध के झंझावातों से अपने घर बार की रक्षा हेतु स्वयं प्रयास करने होंगे और यह केवल सरकार के भारत के रक्षार्थ युद्ध -प्रयत्नों को और तेज करके ही किया जा सकता है . अतएव हिन्दू महा सभा के सदस्यों को ,विशेषकर बंगाल व असम प्रान्त में हिन्दुओं को सेना के सभी अंगों में बिना एक भी मिनट गंवाए अधिकाधिक संख्या में भर्ती होने हेतु जागरूक करने की आवश्यकता है."

द्वीतीय विश्व युद्ध की पृष्ठभूमि में जब ब्रिटिश हुकूमत सैन्य बलों की नई बटालियंस खडी करने को प्रवृत्त हुई तब वीर सावरकर के नेतृत्व में यह हिन्दू महासभा ही थी जिसने हिन्दुओं को अधिकाधिक भर्ती कर इस अभियान में जोरदार ढंग से सर्कार का सहयोग किया . हिन्दू महासभा के मदुरै अधिवेशन में सावरकर ने संबोधित किया ,"स्वाभाविक रूप से व व्यावहारिक राजनीतिक  दृष्टि के अनुरूप ,जहाँ तक भारत भूमि की रक्षा का प्रश्न है तथा नई सैन्य टुकड़ियाँ खडी करने का प्रश्न है , हिन्दू महा सभा ने सरकार के युद्ध प्रयत्नों तथा नई सैन्य टुकडियां भर्ती करने के अभियान में सहभागिता का निर्णय लिया है "

ऐसा नहीं था की इस तरह के रवैये के विरुद्ध आम जन मानस में उभरती तीव्र जनभावना से सावरकर अनभिग्य रहें हों .हिन्दू महासभा के अंग्रेजों के सहयोग के निर्णय की लगभग किसी भी आलोचना को सहज रूप से ख़ारिज कर देते थे , उदाहरणार्थ "भारतीय जनता जिस प्रकार से राजनीतिक मूर्खता वाली इस सोच कि सामान्यतः भारतीय व ब्रिटिश हित अनिवार्यतः परस्पर विरोधी हैं, से ग्रस्त हो चुकी है ,की ब्रिटिश सरकार से सहयोगात्मक लगभग किसी भी पहल को आत्म-समर्पण ,राष्ट्र-विरुद्ध ,ब्रिटिश हाथों में खेलने जैसा व अनिवार्य तौर पर देशद्रोह तथा इस कारण से निंदनीय माना जाता है "

जहाँ महात्मा गाँधी के नेतृत्व में कांग्रेस ने द्वितीय विश्व युद्ध को साम्राज्यवादी करार दिया और "न एक भाई ,न एक पाई "( न एक व्यक्ति सेना में भर्ती हेतु न एक पैसा सहयोग हेतु ) का नारा बुलंद किया वहीँ वीर सावरकर ने इस मत की तीव्र आलोचना इन शब्दों में की-  " यह स्मरण रखने की आवश्यकता है की सशस्त्र सैन्य आक्रमण की स्थिति में भी अहिंसा और अ-प्रतिरोध के निराशाजनक व ढोंगी झक के चलते जिन्होंने सरकार के युद्ध-प्रयत्नों में सहयोग न करने का शौक पाल रखा है अथवा जिन्होंने महज नीतिगत सिद्धांत के चलते सैन्य बलों में भर्ती होने से इनकार किया है दर असल वे अपने को धोखा दे रहे हैं तथा पर्याप्त उत्तरदायित्व से चूक रहे हैं "

उनके हिन्दुओं के लिए किये आह्वान में कहीं कोई संशय नहीं था ,"इसलिए हिन्दू आगे आयें और थल सेना ,नभ सेना ,जल सेना ,तोपखाने तथा अन्य युद्ध -कला से जुड़े कारखानों में हजारों की तादाद में भर्ती हों ." जो लोग वीर सावरकर को महान राष्ट्रभक्त व स्वतंत्रता सेनानी मानते हैं उनके सर शर्म से झुक जायेंगे जब वे सावरकर का सेना में भर्ती होने वाले उन हिन्दुओं को दिए गए सन्देश को पढेंगे -

"
इस सम्बन्ध में एक बिंदु जिस पर हमारे अपने हित में अत्यंत जोर दिए जाने की जरुरत है वो यह है की जो हिन्दू 'भारतीय ( इसे 'ब्रिटिश' पढ़ें ) सेना ' में सम्मिलित्त हों वे पुरी तरह वफादार व सैन्य अनुशासन व आदेश के प्रति निष्ठावान बने रहें ,उस सीमा तक जहाँ तक इस तरह के आदेश 'हिन्दू सम्मान' को जानबूझकर ठेस पहुचानेवाले न हों "

आश्चर्यजनक रूप से सावरकर को यह नहीं अनुभव हुआ की किसी भी आत्म सम्मान वाले तथा राष्ट्रभक्त हिन्दू के लिए अपने औपनिवेशिक स्वामियों के सैन्य बल में सम्मिलित होना स्वयं में घोर अपमानजनक था. ब्रिटिश सैन्य बल में भर्ती होने की इच्छा रखने वाले हिन्दुओं की सहायता हेतु सावरकर के नेतृत्व में हिन्दू महासभा ने देश के विभिन्न क्षेत्रों में उच्च स्तरीय 'युद्ध-परिषदों ' का गठन किया .इसके अतिरिक्त वायसराय ने सावरकर की पसंद के व्यक्तियों को 'राष्ट्रीय सुरक्षा परिषद्' में स्थान दिया जिसके लिए सावरकर ने वायसराय तथा ब्रिटिश सेना के कमांडर-इन-चीफ को इस टेलीग्राम के जरिये कृतज्ञता ज्ञापित किया "योर एक्सीलेंसी की सुरक्षा समिति के कार्मिकों सम्बन्धी घोषणा का स्वागत है ,हिन्दू महा सभा सर्वश्री कलिकार तथा जमनादास मेहता की नियुक्ति पर गहरा संतोष व्यक्त करती है "

वीर सावरकर ने ब्रिटिश तथा मुस्लिम लीग का सहयोग कर भारत छोडो आन्दोलन से विश्वासघात किया .८ अगस्त १९४२ को किये गए 'भारत छोडो ' के आह्वान के अलोक में ब्रिटिश हुकमरानों ने कई प्रान्तों की कांग्रेस सरकारों को बर्खास्त कर दिया .ब्रिटिश शासकों ने आम तौर पर राज्य के आतंक व दमनचक्र का सूत्रपात कर दिया .जबकि कांग्रेस के काडर व सामान्य जनता का अधिकांश हिस्सा औपनिवेशिक शासन के घोर दमन का सामना कर रहे थे तथा राज्य की संस्थाओ के बहिष्कार का निर्णय किये थे ,वहीँ हिन्दू महासभा ब्रिटिश शासकों का साथ दे रही थी . कानपूर में आयोजित हिन्दु महासभा के २४वे अधिवेशन को संबोधित करते हुए सावरकर ने औपनिवेशिक सत्ता के साथ सहयोग की अपनी नीति को इन शब्दों में परिभाषित किया -

"हिन्दू महासभा 'प्रतिक्रियावादी सहयोग' को व्यावहारिक राजनीति का अग्रणी सिद्धांत स्वीकार करती है ,फलतः यह विश्वास करती है की जो भी हिन्दू संगठन वादी पार्षद ,मंत्री ,विधायक ,या किसी सार्वजनिक अथवा निगम निकाय संचालक हैं तथा गैर-हिन्दू वर्गों के वैध हितों को निश्चित रूप से बिना क्षति पहुंचाए यदि हिन्दुओ के वैध हितों के रक्षण तथा संवर्धन हेतु अपने शक्तियों का उपयोग करते हैं ,वे निश्चित रूप से देश को महती सेवा अर्पित कर रहे हैं.जिन सीमाओं में वे कार्य करते हैं उनको ध्यान में रखते हुए महासभा ये अपेक्षा करती है की दी हुई परिस्थितियों में जो भी अच्छा कार्य वे कर सकते हैं करें और ऐसा करने में यदि वे असफल नहीं होते तो महासभा उनके अच्छे कार्य सम्पादन हेतु उनके प्रति कृतग्य होगी . सीमायें क्रमशः स्वयं चरणवार ढंग से सीमित होतीं जायेंगीं और अंततः पुरी तरह लुप्त हो जाएँगी .प्रतिक्रियावादी सहयोग की निति जो बिना शर्त सहयोग से लेकर सक्रिय व यहाँ तक की सशस्त्र प्रतिरोध तक की देशभक्ति परक गतिविधियों को स्वयं में समेटे हुए है ,समय की मांग , उपलब्ध संसाधन व राष्ट्रीय हितों की अपेक्षा के अनुरूप अपेक्षित ढंग से संशोधित होती रहेगी ."


यह बहुत कम लोगों को पता होगा कि जब कांग्रेस ने मुस्लिम लीग के साथ किसी भी तरह के सम्बन्ध का निषेध किया था उसी समय हिन्दु महासभा ने मुस्लिम लीग से मिलकर सिंध व बंगाल में गठबंधन सरकारें चलाईं थीं .सावरकर ने इस ‘अनैतिक गठजोड़’ को १९४२ में कानपूर में संपन्न २४वे सत्र को संबोधित करते हुए निम्नलिखित शब्दों में जायज ठहराया था ,”महासभा भलीभाँति अवगत है कि व्यावहारिक राजनीति में हमें आगे बढ़ने हेतु किंचित समझौते भी करने होंगे .उदहारण के तौर पर सिंध  में आमंत्रण मिलने पर महासभा ने मुस्लिम लीग के साथ मिलकर  गठबंधन सरकार चलाई. बंगाल का मामला सर्व-विदित है .वही दुष्ट लीगी जो कांग्रेस के दब्बूपने भरे आचरण के बावजूद शांत नहीं हो सके ,ज्यों ही हिन्दु महासभा के संपर्क में आये, पर्याप्त समझौतावादी तथा सामाजिक रूप से मिलनसार आचरण पर उतर आये और श्री फज़ल उल हक के मुख्यमंत्रित्व तथा हमारे श्रद्धेय नेता श्री श्यामा प्रसाद मुखर्जी के नेतृत्व में दोनों समुदायों के भले के लिए गठबंधन सरकार एक साल से अधिक समय तक चली.”

तो अंग्रेजों का साथ देने में ये दोनों साम्प्रदायिक पार्टियां पूरी ताक़त से लगी हुई थी. स्वाधीनता संग्राम के पूरे दौर में अलग-अलग रूपों में यही इनकी प्रमुख भूमिका रही.

कुछ ज़रूरी लेख यहाँ

सुभाष चंद्र पटनायक 
नौसेना विद्रोह पर Arun M Advaid,


भगत सिंह : कितने दूर, कितने पास

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यह लेख मैंने दखल विचार मंच द्वारा प्रकाशित भगत सिंह के धर्म एवं जाति सम्बन्धी लेखों की पुस्तिका "इन्क़लाब ज़िन्दाबाद"की भूमिका के रूप मे लिखा था। आज भगत सिंह-राजगुरु-सुखदेव की शहादत दिवस पर यह लेख देश मे बनते जा रहे भयानक सांप्रदायिक-फासीवादी माहौल के मद्देनज़र एक हस्तक्षेप के रूप मे 




भगत सिंह हमारी राष्ट्रीय चेतना में कितने गहरे बसे हैं इसका अंदाज़ा इसी बात से लगाया जा सकता है कि धुर दक्षिणपंथी दलों से लेकर धुर वामपंथी दलों तक उन्हें अपना नायक बनाने और उनसे अपनी परम्परा जोड़ने का भरसक प्रयास करते हैं. उनके जन्मशताब्दी वर्ष में शायद ही देश की कोई ऐसी पत्रिका होगी जिसने उन पर विशेषांक नहीं निकाला या फिर विशेष सामग्री नहीं दी. गांधी के अलावा शायद ही ऐसा किसी अन्य के साथ होता हो. गांधी के सन्दर्भ में भी स्वरों में पर्याप्त अंतर होता है तथा अक्सर वाम तथा दक्षिण अलग अलग कारणों से उनके प्रति आलोचनात्मक रुख रखते हैं, भगत सिंह के सन्दर्भ में अनिवार्य रूप से सभी का स्वर प्रशंसा का ही होता है लेकिन यहाँ अपनी अपनी तस्वीरों में मढ के. जहाँ वामपंथी उन्हें कम्युनिस्ट बता कर उनके सपनों के भारत की बात करते हैं वहीँ संघ परिवार उन्हें कट्टर राष्ट्रवादी और देश की आन बाण शान पर अपने प्राणों की बलि देने वाला देशभक्त जवान बताकर अपने सपनों का भारतवर्ष बनाने की बात करता है. ज़ाहिर है जनता के बीच भगत सिंह की जो विश्वसनीयता और उन्हें लेकर जो श्रद्धा भाव है वह अद्वितीय है. लेकिन इन सबके बीच असली भगत सिंह कहाँ हैं? कौन हैं? क्या थे उनके स्वप्न और हम उनसे कितने दूर खड़े हैं या फिर कितने पास हैं? संयोग से अपने अन्य समकालीन क्रांतिकारियों से अलग भगत सिंह का लिखा पढ़ा आज भी उपलब्ध है और भगत सिंह की तलाश उन्हीं लेखों, पत्रों, टिप्पणियों और पर्चों के सहारे की जा सकती है. उनके कुछ प्रतिनिधि लेखों की यह पुस्तिका इसी दिशा में हमारी एक कोशिश है. ये सभी लेख अलग अलग जगहों पर संकलित हैं और हमने इन्हें वहाँ से साभार लिया है

सितम्बर 1987 में भगत सिंह के साथी रहे शिव वर्मा के सम्पादन में कानपुर के समाजवादी साहित्य सदन ने उनके कुछ लेख और पत्र “भगत सिंह की चुनी हुई कृतियाँ” नाम से प्रकाशित किए. मुख्य खंड में 29 दस्तावेजी लेख/पत्र तथा परिशिष्ट के अंतर्गत भगत सिंह के संगठन ‘हिन्दुस्तानी समाजवादी प्रजातांत्रिक संगठन’ के दस दस्तावेज़ इसमें शामिल थे, जिनके लिखने में निश्चित रूप से उनकी प्रमुख भूमिका रही होगी और जिनसे सहमति तो रही होगी. इन दस्तावेजों के साथ शिव वर्मा ने एक लम्बी भूमिका के रूप में “क्रांतिकारी आन्दोलन का वैचारिक इतिहास” लिखकर भगत सिंह की वैचारिक अवस्थिति साफ़ की थी. यहाँ यह याद कर लेना अप्रासंगिक नहीं होगा कि हिन्दुस्तानी प्रजातांत्रिक संगठन का नाम बदल उसमें “समाजवादी” शब्द जुड़वाने में भगत सिंह की प्रमुख भूमिका थी. एक मज़ेदार तथ्य यह कि जिन दो लोगों ने “समाजवादी” शब्द जोड़ने का विरोध किया था उन दोनों ने ही बाद में भगत सिंह और उनके साथियों के खिलाफ़ गवाही दी, खैर, इन लेखों और दस्तावेजों को पढ़ते हुए इतना तो बिलकुल स्पष्ट हो जाता है कि चाफेकर बंधुओं से ग़दर पार्टी तक के क्रांतिकारियों की जो पूरी परम्परा थी भगत सिंह उसके सबसे आधुनिक और विकसित प्रतिनिधि थे. भारतीय क्रांतिकारी इतिहास में वह पहले क्रांतिकारी थे जिन्होंने धर्म, जाति और ऐसे तमाम मुद्दों पर अपनी स्पष्ट राय रखी थी. 1928 में किरती में लिखे अपने आलेख “धर्म और हमारा स्वतंत्रता संग्राम” में वह लिखते हैं – “बात यह है कि क्या धर्म घर में रहते हुए भी लोगों के दिलों के भेदभाव नहीं बढ़ाता? क्या उसका देश के पूर्ण स्वतंत्रता हासिल करने तक पहुँचने में कोई असर नहीं पड़ता? ... बच्चे से यह कहना कि ईश्वर ही सर्वशक्तिमान है मनुष्य कुछ भी नहीं है, मिट्टी का पुतला है, बच्चे को हमेशा के लिए कमज़ोर बनाना है. उसके दिल की ताक़त और उसके आत्मविश्वास की भावना को नष्ट कर देना है.” अपने थोड़े बाद के लेख “मैं नास्तिक क्यों हूँ?” में वह कहते हैं, “तुम जाओ और किसी प्रचलित धर्म का विरोध करो, जाओ किसी हीरो की, महान व्यक्ति की, जिसके बारे में सामान्यतः यह विश्वास किया जाता है कि वह आलोचना से परे है क्योंकि वह ग़लती कर ही नहीं सकता, आलोचना करो तो तुम्हारे तर्क की शक्ति हज़ारों लोगों को तुम पर वृथाभिमानी का आक्षेप लगाने को मज़बूर कर देगी.” उस दौर में जब महाराष्ट्र में एक मज़बूत दलित आन्दोलन के बावजूद कांग्रेस सहित आज़ादी की लड़ाई के तमाम भागीदारों के बीच जाति प्रश्न को लेकर कोई दृढ़ चेतना दिखाई नहीं देती और संघ जैसे कट्टरपंथी संगठन तो वर्ण व्यवस्था को बनाए रखने की पुरज़ोर कोशिश कर रहे थे, भगत सिंह का अछूत समस्या पर जून, 1928 को किरती में प्रकाशित लेख “अछूत समस्या” निश्चित रूप से क्रांतिकारी था. इस लेख में वह यह कहते हुए कि  “क्योंकि एक आदमी गरीब मेहतर के घर पैदा हो गया है, इसलिए जीवन भर मैला ही साफ करेगा और दुनिया में किसी तरह के विकास का काम पाने का उसे कोई हक नहीं है, ये बातें फिजूल हैं। इस तरह हमारे पूर्वज आर्यों ने इनके साथ ऐसा अन्यायपूर्ण व्यवहार किया तथा उन्हें नीच कह कर दुत्कार दिया एवं निम्नकोटि के कार्य करवाने लगे। साथ ही यह भी चिन्ता हुई कि कहीं ये विद्रोह न कर दें, तब पुनर्जन्म के दर्शन का प्रचार कर दिया कि यह तुम्हारे पूर्व जन्म के पापों का फल है। अब क्या हो सकता है?चुपचाप दिन गुजारो! इस तरह उन्हें धैर्य का उपदेश देकर वे लोग उन्हें लम्बे समय तक के लिए शान्त करा गए। लेकिन उन्होंने बड़ा पाप किया। मानव के भीतर की मानवीयता को समाप्त कर दिया। आत्मविश्वास एवं स्वावलम्बन की भावनाओं को समाप्त कर दिया। बहुत दमन और अन्याय किया गया। आज उस सबके प्रायश्चित का वक्त है”, खुली अपील करते हैं कि “संगठनबद्ध हो अपने पैरों पर खड़े होकर पूरे समाज को चुनौती दे दो। तब देखना, कोई भी तुम्हें तुम्हारे अधिकार देने से इन्कार करने की जुर्रत न कर सकेगा। तुम दूसरों की खुराक मत बनो। दूसरों के मुँह की ओर न ताको। लेकिन ध्यान रहे, नौकरशाही के झाँसे में मत फँसना। यह तुम्हारी कोई सहायता नहीं करना चाहती, बल्कि तुम्हें अपना मोहरा बनाना चाहती है। यही पूँजीवादी नौकरशाही तुम्हारी गुलामी और गरीबी का असली कारण है। इसलिए तुम उसके साथ कभी न मिलना। उसकी चालों से बचना। तब सब कुछ ठीक हो जायेगा। तुम असली सर्वहारा हो... संगठनबद्ध हो जाओ। तुम्हारी कुछ भी हानि न होगी। बस गुलामी की जंजीरें कट जाएंगी। उठो, और वर्तमान व्यवस्था के विरुद्ध बगावत खड़ी कर दो। धीरे-धीरे होनेवाले सुधारों से कुछ नहीं बन सकेगा। सामाजिक आन्दोलन से क्रांति पैदा कर दो तथा राजनीतिक और आर्थिक क्रांति के लिए कमर कस लो। तुम ही तो देश का मुख्य आधार हो, वास्तविक शक्ति हो। सोए हुए शेरो! उठो और बगावत खड़ी कर दो।“ यह यों ही नहीं था कि उनकी शहादत के बाद महान दलित नेता रामास्वामी पेरियार ने अपने अखबार “कुडई आरसु” में श्रद्धांजलि लेख लिखा था. जिस तरह गांधी ने आंबेडकर को उस समय पूना पैक्ट करने पर मज़बूर किया और लगातार वर्ण व्यवस्था का समर्थन करते रहे और वाम आन्दोलन के भीतर जाति के सवाल को लगातार टाला गया उसमें भगत सिंह का जाति प्रश्न पर यह स्पष्ट और कड़ा स्टैंड निश्चित रूप से उनकी अग्रगामी चेतना और भारतीय समाज की बेहतर समझ का परिचायक था.

यही नहीं जो लोग उन्हें “मरने के लिए मरे जा रहे” रूमानी क्रांतिकारी के रूप में देखते हैं उन्हें युवा राजनैतिक कार्यकर्ताओं के नाम लिखा उनका पत्र पढ़ना चाहिए जिसमें वे उन्हें गाँवों और फैक्ट्रियों में जाकर लोगों को संगठित कर एक नयी सामाजिक व्यवस्था के निर्माण की अपील करते हैं. इसी पत्र में वह लिखते हैं कि “इससे क्या फर्क पड़ता है कि भारतीय सरकार के प्रमुख लार्ड इरविन हों या सर पुरुषोत्तम ठाकुर दास. एक किसान को इससे क्या फ़र्क पड़ता है कि लार्ड इरविन की जगह सर तेज बहादुर सप्रू गद्दी पर बैठे हैं.” ज़ाहिर है कि उनकी देशभक्ति गोरे अंग्रेजों को सत्ता से हटाने भर तक सीमित नहीं थी बल्कि वह देश के मज़दूर, किसानों और वंचित जन के हाथ में सत्ता पहुँचाने की उस लड़ाई में मुब्तिला थे जिसकी तलाश में वह समाजवाद के सिद्धांत तक पहुँचे थे. “इन्कलाब जिंदाबाद से हमारा अभिप्राय क्या है” नामक लेख में वह इसका मज़ाक उड़ाने वाले सम्पादक को जवाब ही नहीं देते बल्कि क्रांति के अपने स्वप्न को भी स्पष्ट करते हैं, “क्रान्ति शब्द का अर्थ प्रगति के लिए परिवर्तन की भावना और आकांक्षा है.” इस प्रगति को लेकर उनका नज़रिया तमाम जगहों पर बहुत स्पष्ट रूप से सामने आता है. यह कोई वायवीय रोमांटिक स्वप्न नहीं है. अपने समकालीन क्रांतिकारी लाला रामशरण दास की किताब “ड्रीमलैंड” की भूमिका में वह रूमानी इन्कलाब और अपने उद्देश्यों का ज़िक्र करते हैं. लेखक की स्वप्नजीविता की कड़ी आलोचना करते हैं और साफ़ साफ़ अपनी विचारधारा “भौतिकवाद” घोषित करते हैं. यह भूमिका दरअसल पुस्तक की समीक्षा ही है और इस रूप में राजनीतिक आलोचना का एक उत्कृष्ट उदहारण है. इस भूमिका के अंत में वह कहते हैं कि “मैं अपने नौजवानों के लिए ख़ास तौर पर इस पुस्तक की सिफारिश करता हूँ, लेकिन एक चेतावनी के साथ. कृपया आँख मूंदकर इस पर अमल करने के लिए या इसमें जो कुछ लिखा है उसे वैसा ही मान लेने के लिए इसे न पढ़ें. इसे पढ़ें, इसकी आलोचना करें, इस पर सोचें और इसकी सहायता से स्वयं अपनी समझदारी बनाएँ.” भगत सिंह की यह चेतावनी किसी भी समय किसी भी रचना के पाठक के लिए समीचीन है. 

भगत सिंह को समझने के लिए उनके दिए नारे भी बेहद महत्त्वपूर्ण हो सकते हैं. उन्होंने ‘वन्दे मातरम’ या ‘भारत माता की जय’ की जगह जो नया नारा उपनिवेशवाद विरोधी आन्दोलन को दिया वह था – इन्कलाब जिंदाबाद. इन्कलाब से उनका अभिप्राय क्या था यह हम पहले ही स्पष्ट कर चुके हैं. अराजकतावाद से आगे बढ़ते हुए समाजवादी विचारों को आत्मसात करने की प्रक्रिया में उन्होंने यह साफतौर पर कहा कि ‘हथियार और गोला बारूद क्रांति के लिए कभी कभी आवश्यक हो सकते हैं लेकिन इन्कलाब की तलवार विचारों की सान पर तेज़ होती है. यानि इस क्रान्ति को वैचारिक तैयारी के बिना अंजाम देना संभव नहीं था. भगत खुद भी दीवानावार किताबें पढ़ते थे. उनकी जेल डायरी के नोट्स देखें जांय तो मार्क्स, एंगेल्स, लेनिन से लेकर गैरीबाल्डी और मैजिनी तक को वह पढ़ रहे थे और इन्हीं किताबों से उनके सम्मुख क्रान्ति का स्वप्न आकार ले रहा था. यह यों ही नहीं था कि उन्होंने कोर्ट में अपनी पेशी के दौरान लेनिन के निर्वाण दिवस पर तीसरी कम्युनिस्ट इंटर्नेशनल को पत्र लिखा था. इस पत्र में  एक और नारा है – साम्राज्यवाद मुर्दाबाद. ज़ाहिर है वह अंग्रेज़ी हुकूमत के खिलाफ सिर्फ़ इसलिए नहीं थे कि यह एक विदेशी हुकूमत थी. वह साम्राज्यवाद के खिलाफ थे और इसके विकल्प के रूप में समाजवाद के समर्थक. यह यों ही नहीं है कि ब्रिटिश गुप्तचर एजेंसी के प्रमुख ने अपनी रपट में गांधी से अधिक ख़तरा भगत सिंह जैसे “कम्यूनिस्ट” क्रांतिकारियों से बताया था. भगत सिंह निश्चित तौर पर भारत की आधिकारिक कम्युनिस्ट पार्टियों का हिस्सा नहीं थे, लेकिन अपने विचारों में वह वैज्ञानिक समाजवाद के बेहद करीब थे. आज़ाद हिन्दुस्तान को लेकर उनके स्वप्न एक शोषण विहीन और समानता आधारित समाज के थे जिसमें सत्ता का संचालन कामगार वर्ग के हाथ में हो.


और उस स्वप्न के आईने में जब हम अपना समय देखते हैं तो निश्चित रूप से यह उनके जितने पास लगता है उससे कहीं अधिक दूर. वह लड़ाई उपनिवेशवाद की मुक्ति तक तो पहुंची लेकिन उसके आगे जाकर वंचित जनों के हाथ में सत्ता देकर एक समतावादी समाज की स्थापना अब भी एक स्वप्न ही है. हमने जो आर्थिक व्यवस्था चुनी वह समतावादी होने की जगह लगातार विषमता बढ़ाने वाली साबित हुई और आज आज़ादी के सात दशकों बाद भी हम अपनी जनता के बड़े हिस्से को ज़रूरी सुविधाएं भी मुहैया नहीं करा पा रहे. सामाजिक ताना बाना भी बुरी तरह उलझा और ध्वस्त हुआ है. एक अपेक्षाकृत बराबरी वाला संविधान अपनाने के बावजूद समाज के भीतर जातीय, धार्मिक और इलाकाई भेदभाव लगातार बढ़ता गया है. बाबरी विध्वंस के बाद से देश में दक्षिणपंथी ताक़तें मज़बूत हुई हैं और धर्म का स्पेस राजनीति में घटने की जगह भयावह रूप से विस्तारित होता चला जा रहा है. कश्मीर और उत्तर पूर्व में जिस तरह उत्पीड़ित राष्ट्रीयताओं के प्रतिरोध और दमन देखे जा रहे हैं वह देश के रूप में हमारी परिकल्पना को ही प्रश्नांकित कर रहे हैं. ऐसे में भगत सिंह को याद करना उपनिवेशवादी आन्दोलन की क्रांतिकारी तथा जनपक्षधर धारा को याद करना है. यह सवाल सिर्फ एक महान क्रांतिकारी शहीद की स्मृति को ज़िंदा रखने का नहीं बल्कि उस विचार और स्वप्न को जीवित रखने का है और इसे आगे ले जाने की जिम्मेवारी उनकी है जो खुद को भगत सिंह का वारिस कहते हैं.

रमा कंवर हत्या काण्ड की फैक्ट फाइंडिंग रिपोर्ट

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 ग्राम पचलासा छोटा, जिला डूंगरपुर, राजस्थान में 4 मार्च , 2016 को सुश्री रमाकुंवर को बीच चौराहे पर भीड़ द्वारा जिंदा जला दिया गया. सुश्री रमाकुंवर का 'अपराध'यह था कि उन्होंने और प्रकाश सेवक ने सात वर्ष पहले अंतर्जातीय विवाह किया था. इज्जत के नाम पर हुआ यह निर्मम हत्याकांड देश के मीडिया में अपेक्षित जगह नहीं पा सका. पीयूसीएल, डूंगरपुर इकाई ने व्यापक छानबीन के बाद यह रिपोर्ट जारी की है
यहाँसे साभार 


रमा कँवर: 'इज्ज़तके नाम हुआ हत्याकाण्ड 

डूंगरपुर जिले के आसपुर तहसील के पचलासा छोटा गाँव की रिपोर्ट
द्वारा पीयूसीएल तथ्यान्वेषण दल
तारीख : 12मार्च 2016

 राजस्थान के डूंगरपुर जिले के आसपुर तहसील के गाँव पचलासा छोटा में 4 मार्च 2016, शुक्रवार की रात, रमा कँवर नाम की युवा महिला को गाँव के चौराहे पर उसके भाइयों तथा अन्य लोगों द्वारा केरोसिन डालकर जलाकर मार डालने और फिर रातोरात शमशान में अंतिम क्रिया किए जाने की खबर 6 मार्च 2016 को स्थानीय अखबारों में पढ़कर हम स्तब्ध हो गए. अखबारों से ज्ञात हुआ कि यह मामला मृतक रमा कँवर पिता विजयसिंह व प्रकाश पुत्र कचरू सेवक के 2007 में हुए अंतरजातीय विवाह से हुए विवाद से जुडा है. आसपुर के पुलिस थाना क्षेत्र में हुई इस घटना घटने के बाद पुलिस ने उसी रात गाँव पहुँचकर मृतका की सास कलावती की रीपोर्ट के आधार पर मामला दर्ज करवाया व कारवाही शुरू की. इस मामले में आसपुर पुलिस ने पचलासा निवासी लक्ष्मणसिंह पुत्र विजयसिंह, प्रवीणसिंह पुत्र वीरसिंह, कल्याणसिंह पुत्र गौतमसिंह, इश्वरसिंह पुत्र हमीरसिंह, महेंद्रसिंह पुत्र तखतसिंह , भूपालसिंह पुत्र विजयसिंह, गजेन्द्रसिंह उर्फ़ गजराज सिंह पुत्र किशोरीसिंह को गिरफ्तार किया. लगभग 35लोगों को नामज़द किया गया. इस रिपोर्ट के बनने तक 14 लोगों की गिरफ्तारियां हो चुकी है जो इस प्रकार है: लक्षमण सिंह पुत्र विजयसिंह, प्रवीणसिंह पुत्र वीरसिंह, कल्याणसिंह पुत्र गौतमसिंह, इश्वरसिंह पुत्र हमीरसिंह, महेंद्रसिंह पुत्र तख्तसिंह, भोपालसिंह पुत्र किशोरसिंह, गजेन्द्रसिंह पुत्र गज़राज सिंह, जयसिंह पुत्र नाहरसिंह, प्रतापकंवर पत्नी वीरसिंह, मोतीकंवर पत्नी दलपतसिंह, दलपतसिंह पुत्र किशोरीसिंह, हमीरसिंह पुत्र भवानीसिंह राजपूत. पुलिस ने आरोपित लोगों के खिलाफ निम्न धाराओं के तहत मामला दर्ज किया है धारा 302(ह्त्या), 201 (साक्ष्य विलोपित करना), 364 ( ह्त्या की नियत से अपहरण), 458 (किसी को मारने अथवा घायल करने अथवा चोट पहुंचाने अथवा जबरदस्ती रोककर रखने के उद्देश्य से रात को किसी के घर में घुसना), 323 ( स्वेच्छा से किसी को चोट पहुंचाना), 149 (unlawful assembly guilty of offense committed in prosecution of common object), 147 (Negotiable Instruments), 143 (unlawful assembly) तथा 120B (Concealing Design to commit offense).

हम सभी इस पुरे मामले की क्रूरता को तथा राज्य तथा राष्ट्रीय महिला आयोग की इस प्रकरण में चुप्पी को देखकर स्तब्ध व क्षुब्ध हैं.

पीपुल्स यूनियन फॉर सीविल लिबर्टीज इस मानवाधिकार संगठन ने राजस्थान के डूंगरपुर जिले के आसपुर तहसील के गाँव पचलासा छोटा में 4 मार्च 2016, शुक्रवार की रात, रमा कँवर को ज़िंदा जलाकर की गयी ह्त्या का तथ्यान्वेषण कर यह रिपोर्ट तैयार की है. पीयूसीएल के तथ्यान्वेषी दल के सदस्य इस प्रकार थे: धुली बाई, छगन बाई, कमलेश शर्मा, धर्मराज गुर्जर, हेमंत खराड़ी, फेंसी, मधुलिका, कांतिलाल रोत, प्रज्ञा जोशी. तथ्यान्वेषी दल ने दो चरणों में यानी 7 मार्च 2016 व 9 मार्च 2016 को क्रमशः पचलासा छोटा तथा सागवाड़ा जाकर संबधित व्यक्तियों से मिलकर तथ्य जुटाने का प्रयास किया. यह दस्तावेज़ निम्न सूत्रों के आधार पर तैयार किया गया है: इस दल ने कलावती पत्नी कचरू सेवक, भावना पत्नी जितेन्द्र सेवक, पचलासा छोटा वर्तमान सरपंच जस्सू देवी मीणा, पूर्व सरपंच कालूभाई मीणा, नाहर सिंह (वर्तमान उपसरपंच तथा वार्ड 4 के वार्ड पञ्च ), दलपत सिंह, अमरसिंह (हेड कांस्टेबल, थाना आसपुर), रामलाल चंदेल (एएसपी, डूंगरपुर), लक्ष्मण डांगी (थानाधिकारी, आसपुर), ब्रजराज चारण (डि.वाय एस. पी., सागवाडा), डूंगरपुर  पुलिस अधीक्षक अनिल कुमार जैन, पत्रकारतथा पचलासा छोटा के अन्य ग्रामीणों से इस मामले में प्रत्यक्ष की बातचीत, मोहनलाल यादव (पटवारी) व गोवर्धन सिंह चौहान (ग्राम सचिव) से हुई वार्ता, मीडिया में प्रकाशित रिपोर्ट. दल ने जिन अन्य ग्रामीणों से बात की उनके नाम उन लोगों की सुरक्षा के मद्देनज़र नहीं दिए हैं.

पचलासा छोटा गाँव :

राजस्थान के डूंगरपुर जिले की आसपुर तहसील से 12 किमी स्थित पचलासा छोटा गाँव लगभग6.5कि मी के दायरे में फैला है. यह लगभग 700 घरों की आबादी का गाँव है. इस गाँव में सबसे अधिक घर राजपूत समुदाय के हैं जो कि 250 के करीब हैं, लगभग 150 घर आदिवासी समुदाय के हैं तो सेवक समुदाय के घर 30-40 हैं.  गाँव में यादव, नाई, प्रजापत, नाथ, पांचाल, बुनकर, धोबी, मुस्लिम, तथा जैन समुदाय रहते हैं. संख्या और सामाजिक तौर पर राजपूत समुदाय का गाँव में वर्चस्व है.  गाँव में सिसोदिया, राठोड़, पंवर, तथा बोडना इन कुलों के राजपूत हैं. स्थानीय सूत्रों से पता चला कि इन्हें वागड़ीया राजपूत कहा जाता है. गाँव में विभिन्न गोत्रों के होने के कारण इस गाँव के ही परिवारों में वैवाहिक संबंध स्थापित होने का चलन रहा है. इस गाँव के अधिकतर पुरुष आजीविका हेतु बंबई और अहमदाबाद जैसे शहरों में रहते हैं.

रमा कँवर व प्रकाश सेवक के विवाह की पारिवारिक व सामाजिक पूर्वपीठिका :

2007 में पचलासा छोटा गाँव के वार्ड क्रमांक 4 की निवासी रमा कँवर पुत्री विजय सिंह सिसोदिया का विवाह गाँव के माधो सिंह के साथ हुआ परन्तु इस संबंध से नाखुश हो कर रमा कँवर लगभग छ: महीने पश्चात अपने पैतृक परिवार के साथ रहने लगी. इस दौरान पूर्व शादी के लगभग साल भर बाद रमा कँवर ने प्रकाश पुत्र कचरू सेवक जो उनके पड़ोसी थे, से अपनी मर्जी से विवाह किया. कलावती पत्नी कचरू सेवक के अनुसार दोनों ने कोर्ट में शादी कर ली और वे बंबई में रहने लग गए. विभिन्न स्त्रोतों से पता चला कि प्रकाश की भी शादी पूर्व में हो चुकी थी. सागवाड़ा उपाधिक्षक ब्रजराज चारण ने बताया कि प्रकाश की पहली पत्नी नाते चली गयी थी. इस तरह राजपूत समुदाय की रमा कँवर की शादी सेवक समुदाय के प्रकाश से दोनों की परस्पर सम्मतिसे हुई थी. इस सबंध के कारण राजपूत समुदाय में तीव्र प्रतिक्रया उठी. आज की तारीख में रमा कँवर के पूर्व पति ने व प्रकाश सेवक की पूर्व पत्नी ने अपनी अपनी पृथक गृहस्थी बसा ली है व दोनों के अपने अपने दांपत्य व बच्चे हैं. रमा कँवर का पूर्व पति अहमदाबाद या इंदौर में होने के बारे में गाँव में जानकारी प्राप्त हुई. प्रकाश सेवक की पूर्व पत्नी के वर्त्तमान स्थान के बारे में जानकारी प्राप्त नहीं हो पायी. प्रकाश सेवक के परिवार में उसके पिता कचरू सेवक, माँ कलावती सेवक के अलावा दो भाई जितेन्द्र  और  सुरेश थे व तीन बहनें थी. परन्तु कलावती जी के अनुसार प्रकाश इस विवाह के बाद फिर कभी घर नहीं आया.

सामाजिक दबाव व बहिष्कार:

रमा कँवर व प्रकाश सेवक के विवाह के मसले को लेकर राजपूत समुदाय की बैठक पचलासा छोटा गाँव के लक्ष्मी-नारायण मंदिर के सामने के चौक में हुई. गाँव में काफी तनाव का माहौलथा. पचलासा छोटा में राजपूत समुदाय के पारंपारिक पञ्च दलपत सिंह के अनुसार यह 52 गाँवों के चोखले (curcuit of caste panchaayat) की बैठक थी. ज्ञात हो किइस बैठक का स्थान व रमा कँवर को जिस स्थान पर ज़िंदा जलाया गया एक ही है. इस बैठक के होने की पुष्टि तत्कालीन सरपंच कालू भाई मीणा तथा प्रकाश सेवक की माँ, कलावती सेवक ने भी की. इस बैठक में निम्न फरमान सुनाया गया था:

·इस बैठक ने रमा कँवर और प्रकाश सेवक को अपने समुदाय के बाहर के व्यक्ति से विवाह दोषी माना.
·रमा कँवर तथा प्रकाश सेवक के गाँव में लौटने को प्रतिबंधित किया गया.
·इस बैठक ने गाँव के बाशिंदों को स्पष्ट निर्देश दिए कि संबधित परिवार को कोई नमक तक नहीं देगा.

चोखले के फरमान की परिणति:

इस बैठक के पश्चात परिणाम यह हुआ कि इस सेवक परिवार से उनके अपने समाज ने भी संबध तोड़ लिए. आज जब पुलिस कहती है कि सेवक समुदाय से भी कोई इस परिवार के बारे में बोलने को तैयार नहीं है तो इस पृष्ठभूमिको देखना ज़रूरी हो जाता है. यह सामजिक दबाव रमा कँवर के पैतृक परिवार व प्रकाश सेवक के पैतृक परिवार पर बीते 8 सालों से लगातार हावी रहा है. इसका परिणाम यह रहा कि प्रकाश सेवक के पिता तथा दोनों भाइयों को आजीविका के लिए गाँव से पलायन कर बाहर रहने के अलावा कोई विकल्प नहीं रहा. परिवार को जब जमीन के लिए पूछा गया तो कलावती जी ने बताया कि उनके पास मात्र वही ज़मीन है जिसमें उनका मकान बना हुआ है. मकान के अलावा खेत के तौर पर नाम मात्र ज़मीन थी और दल ने पाया कि यह ज़मीन जोती हुई नहीं थी. परिवार के पुरुष घर के बाहर रहते थे और कलावती जी अस्वास्थ्य के कारण खेती के  करने में अक्षम थी.

कलावती जी से बात करके पता चला कि यह महिला सामाजिक दबाव का सामना करते हुए जीवनयापन करती रही. प्रकाश और रमा की शादी के पश्चात उसके परिवार में एक के बाद एक विपत्तियाँ आती रही. पर सामाजिक दबाव के चलते उसका बेटा प्रकाश कभी लौटकर नहीं आया. उन्होंने बताया कि उन्हें उनकी बेटी के सन्दर्भ में भी राजपूत समाज के कुछ प्रभावशाली लोगों द्वारा दबाव इससे पूर्व बनाया गया था.  उनकी बेटी, पति के मृत्यु के बाद उनके साथ रह रही थी. उसने अपनी मर्जी से अपने समुदाय के युवक के साथ संबंध बनाया पर गाँव के लोगों ने इस पर आपत्ति जताते हुए लड़की को ज़िंदा जला देने को कहा. पर कलावती नहीं मानी. उसने कहा कि वैसे भी गाँव उसके साथ संबंध तोड़ चुका है इससे बुरा और क्या हो सकता है. लड़की ने इस संबंध से भी बाहर आकर फिर अपने समुदाय के युवक के साथ घर बसाया व आज उसके बच्चे भी है. कलावती व कचरू सेवक का सबसे छोटे बेटे सुरेश की बंबई में टीबी से मौत हुई. उसकी अंतिम क्रिया वहीं की गयी. हालांकि कलावती जी कहती हैं कि इन्फेक्शन फ़ैलने का अंदेशे के चलते ऐसा किया  गया पर यह सोचा जा सकता है कि सामाजिक तौर पर बहिष्कृत परिवार गाँव के सहयोग के बिना बेटे का अंतिम संस्कार कैसे करता. इस घटना के बाद कलावती जी के पति कचरू सेवक की भी मौत हुई. इस तनाव से वे बीमार रहने लगे व कुछ समय बाद वे गुज़र गए. अब कलावती अपने बेटे जितेन्द्र की पत्नी भावना के साथ रहती हैं. भावना व जितेन्द्र ने भी दो माह पूर्व कोर्ट में शादी की. इन सभी मौकों पर प्रकाश परिवार के किसी भी कार्य में सहभागी नहीं हुआ या कहें कि नहीं हो पाया.

जिस गाँव में लगभग 80 प्रतिशत घर दबंग जाति के हो वहाँ सामजिक तौर पर उनकी हुकूमत को इस तरह के फरमानों से समझा जा सकता है कि इस तरह के फरमान सामाजिक बहिष्कार को स्थापित करते हैं जो असंवैधानिक है और अतः लोकंतंत्र की धज्जियां उड़ाते हैं.

रमा कँवर की हत्या:

पिछले लगभग 8 साल से अपने विवाह के बाद रमा कँवर और प्रकाश दोनों ही अपने गाँव परिजनों से मिलने तक नहीं आए थे. उनके गाँव में प्रवेश पर पाबंदी थी. ऐसी स्थितियों में 3 मार्च 2016 को रमा कँवर अपनी व प्रकाश की बेटी (आयु 3 साल) को लेकर प्रकाश के बिना ही पचलासा छोटा आयी. रमा अपने ससुराल यानी प्रकाश के घर गयी. कलावती व प्रकाश के छोटे भाई जितेन्द्र की पत्नी भावना घर पर थे. कलावती जी ने बताया कि रमा के गाँव लौटने पर उन्हें डर था कि जिस गाँव में वे प्रकाश-रमा के विवाहोपरांत से बहिष्कार झेल रही थी वह गाँव उन्हें रमा के आने पर ज़िंदा नहीं रहने देगा. उन्होंने अपने डर को रमा से साझा किया तब रमा ने उन्हें बताया कि उसके गाँव लौटने की सूचना उसके पीहर में थी. कलावती और भावना दोनों के अनुसार रमा जब घर लौटी तब वह 4-5 महीने की गर्भवती थी. इन परिस्थितियों में रमा का अचानक अपने गाँव अपने ससुराल में लौटना कई तरह के संदेह उत्पन्न करता है. ऐसे में अब केवल प्रकाश ही इस पर कुछ रौशनी डाल सकता है.  भावना ने बताया कि रमा अधिक सामान नहीं लेकर आयी थी. उसके सामान में सब से अधिक सामान उसकी बेटी के कपडे थे.

4 मार्च को शाम के समय लगभग 7.30 बजे से 8.00 बजे तक बिजली अप्रत्याशित रूप से गायब रही. इसकी पुष्टि गाँव के विभिन्न बस्तियों के बाशिंदों से हुई. कुछ लोगों का यह मानना था कि यह गाँव के दबंग लोगों द्वारा की गयी हरकत थी. आम तौर पर गाँव में दहशत फैलाने के उद्देश्य से ऐसी हरकत की जाती है. यह एक तरह से गाँव के लोगों को घर से बाहर न निकलने की दी गयी चेतावनी थी. कुछ लोगों के अनुसार रमा के भाई और राजपूत समुदाय के लोगों ने अनौपचारिक बैठक इसी दौरान की व घटना को अंजाम देने के लिए आवश्यक सामग्री जुटाई गयी. जब वे रात रमा के ससुराल घुसे तो वे हिंसा की नीयत से ही घुसे थे.

कलावती जी के अनुसार शाम को 8.00 से 8.30 के दरम्यान रमा के भाई और अन्य रिश्तेदार घर में जबरदस्ती घुस आएं. वे रमा तथा प्रकाश को ढूंढ रहे थे. रमा उस वक़्त बाथरूम में बंद थी. उसे बाहर निकाला गया. उसके भाई तथा रिश्तेदार उसे लगातार पीटते रहे. कलावती व भावना ने मध्यस्थता कर रमा को बचाने की कोशिश की तो उन्हें भी मारा गया. कलावती जी को इतने जोर से मारा कि वे बेहोश हो गयी. भावना ने बताया कि रमा के भाई रमा को खींचकर बाहर ले जाने लगे. वे रमा की तीन साल की बेटी नन्ही को भी ले जाना चाहते थे. भावना को उनके इरादे ठीक नहीं लगे तो उसने खींचकर बच्ची को अपने साथ रखा.

ज्ञात हो कि रमा का पीहर और ससुराल के मकाने लगभग आमने सामने हैं. गाँव के प्रमुख चौराहेके पीछे की गली में दोनों मकान स्थित है. ऐसे में रमा को खींचकर मारते हुए भरे चौक में लाया गया व् उसके ऊपर केरोसीन डाल कर उसे ज़िंदा ज़लाया गया. ज़ाहिर है इस दौरान रमा ने बचाव के लिए खूब आवाज़ लगाई होगी परन्तु उसका बचाव नहीं किया गया. सार्वजनिक रूप से उसे जलाया गया. जिस स्थान पर उसके खिलाफ 52 गाँवों के चोखले ने फरमान सुनाया था उसी चौक में उसे जलाया गया. किसी ने उसे नहीं बचाया. बड़ी तादात में भीड़ होने के बावजूद रमा कँवर को बचाया नहीं जा सका यह ह्रदयविदारकसत्यहै. रात 8.30 से 9.00 के दरम्यान यह घटना हुई. रमा के जले शरीर को शमशान ले जाकर उसका अंतिम संस्कार किया गया.

जवाबदेही किसकी?

रमा को जब सार्वजनिक तौर पर ज़िंदा जलाया गया तो निश्चित रूप से बड़ी तादात में लोग उपस्थित थे पर आज बोलने के लिए कोई भी तैयार नहीं है. जिस स्थान पर रमा को जलाया वहाँ ना केवल मंदिर, बाज़ार की दुकाने हैं वहीं पास में आंगनवाडी भी है. टीम के सदस्यों ने ग्राम सचिव गोवर्धन सिंह चौहान तथा पटवारी मोहनलाल यादव से बात की परन्तु उनके अनुसार वे उस समय गाँव में थे नहीं. गाँव की विभिन्न बस्तियों में हमें बताया गया कि उन्हें अगले दिन सबेरे खबर मिली. घटनाक्रम को देखते हुए इसकी संभावना कम लगती है कि इस घटना के दौरान गाव की प्रमुख बस्तियों में इसकी खबर ना चली हो. यह सोचसमझकर साधी हुई चुप्पी है. ऐसे में जवाबदेही निर्धारित करना ज़रूरी है. पुलिस को खबर देर से की गयी . पुलिस के अनुसार रात्रिदेर रात को लैंड लाईन फोन पर पचलासा छोटा में रमा कँवर को ज़िंदा ज़लाने की सूचना दी गयी थी. उसके अनुसार उन्होंने मौक़ा मुआइनाकर  रिपोर्ट दर्ज कराई व तपतीश कर  रमा के भाई तथा अन्य को गिरफ्तार किया. पुलिस के अनुसार जब तक वे पहुंचे रमा का शव  राख में तब्दील हो चुका था.

पीयूसीएल के सवाल तथा मांगें: 

·पुलिस प्रशासन ने अपनी सक्रिय तत्परता से कार्रवाई कर आरोपितों को गिरफ्तार कर एक प्रशंसनीय पहल की है. अब आवश्यकता इस बात की है कि गाँव में छाये दहशत के माहौल को दूर कर प्रशासन आम ग्रामवासी के मन में व्यवस्था के प्रति विश्वास को पुनर्बहाल करे. इस विश्वास के अभाव में गवाह आगे नहीं आयेंगे और ऐसे में अपराधी आखिरकार छूट जायेंगे. ऐसी किसी निर्मम घटना की पुनरावृत्ति न हो, इसके लिए भी इस हत्या के दोषियों को समुचित दंड मिलना आवश्यक है. हमारी मांग है कि सभी नामजद अभियुक्तों की अनिवार्य रूप से गिरफ्तारी हो और उन्हें सामान्य परिश्तितियों में बेल न मिले.

·अगर  यह परिवार सामजिक दबाव के डर से पचलासा छोटा में पुनर्वासित होने में कतराए तो यह प्रशासन का अपयश होगा कि वह इस परिवार के रिहाईश के अनुकूल वातावरण गाँव में तैयार करने में नाकाम रहा. ऐसे में परिवार के इच्छा अनुरूप परिवार को घर उपलब्ध कराना प्रशासन की ज़िम्मेदारी है. पता करने  पर ज्ञात हुआ कि कलावती को विधवा पेंशन मिल रही थी. उस परिवार का नाम गरीबीरेखा से नीचे की सूची में शामिल है परन्तु सभी विकास योजनाओं का लाभ इस परिवार को मिले यह सुनिश्चित करना प्रशासन की जिम्मेवारी है.

·रमा व प्रकाश की 3 वर्षीय बेटी नन्ही को पालनहार योजना के साथ जोड़ा जाए.

·सामजिक बहिष्कार का बीते 8 साल से सामना करनेवाली कलावती जी पर आज प्रकाश व् रमा कँवर की बेटी के परवरिश की ज़िम्मेदारी आन पडी है. बीते समय में जो उनके अधिकारों का हनन हुआ है उसे ध्यान में रखते हुए उन्हें 20 लाख रुपये का मुवावज़ा दिया जाए. साथ ही नन्ही के परवरिश के हेतु 10 लाख रुपये प्रदान किए जाए.

·पीड़ित सेवक परिवार को आज अपने घर से दूर अज्ञात स्थान पर रहना पड़ रहा है जिसमें पुलिस द्वारा उन्हें सहयोग और संरक्षण प्रदान किया गया है. हालात जितनी जल्दी सामान्य होंगे, इस परिवार को अज्ञातवास छोड़कर अपने घर लौटना संभव होगा. इसके लिए यथासंभव प्रयास किये जाने चाहिए. इसके लिए आवश्यक होगा कि इस परिवार के पक्ष में गाँव में सकारात्मक जनमत को तैयार किया जाए. आशा है कि पुलिस व प्रशासन इस सन्दर्भ में उचित कार्यवाही करेंगे. पुलिस विभाग के अलावा प्रशासनिक स्तर का कोई अधिकारी गाँव नहीं गया व पीड़ित सेवक परिवार से नहीं मिला ये अत्यंत दुर्भाग्य पूर्ण है. यह भी विडम्बनापूर्ण है कि ग्राम स्तर पर कार्यरत प्रशासनिक कर्मियों यथा ग्राम सेवक,पटवारी,आंगनबाड़ी प्रबंधक आदि द्वारा ग्राम में घटित इस क्रूर घटना का कोई संज्ञान नहीं लिया गया और न ही ऐसी कोई जानकारी है कि जिले के उच्च अधिकारियों द्वारा उनसे कोई रिपोर्ट माँगी गयी.

·प्रकाश जहां कहीं भी है, उसकी ज़िंदगी पर खतरा बरक़रार है. उसकी खोज खबर एवं कुशलता को सुनिश्चित करना प्रशासन की जिम्मेदारी है.

·इस निर्मम हत्याकांड को 15 दिन बीत जाने के बाद भी राज्य महिला आयोग द्वारा इसका संज्ञान भी न लिया जाना शर्म की बात है. यदि राज्य महिला आयोग ने इस पर सख्त कदम उठाते हुए दोषियों के खिलाफ कड़ी कार्रवाई की मांग को स्पष्ट शब्दों में रखा होता और घटना स्थल पर जाकर पीड़ित सेवक परिवार का साथ दिया होता तो अपराधियों के हौसले पस्त होते और आम जनता में विश्वास का संचार होता.

·रमा के जल जाने से सामने आया कि उसकी मौत सामाजिक बहिष्कार की परिणति थी. बीते 8 साल से जिस दहशत में गाँव का परिवार जी रहा था उसकी जवाबदेही किसकी मानी जाएगी? इस तरह का सामाजिक बहिष्कार 8 साल तक गाँव में कैसे बना रहा और इस संबंध में किसी भी सरकारी नुमाइंदे ने शिकायत क्यों दर्ज नहीं कराई? इस परिवार के संबंध में यह तथ्य क्यों छुपाया गया कि यह परिवार सामाजिक बहिष्कार को झेल रहा था. इसी सामाजिक बहिष्कार के डर से आज इस अमानवीय घटना के बाद भी लोगों के मुंह पर ताले पड़े हुएहै. कहना न होगा कि इस प्रकार के सामाजिक बहिष्कार का फरमान देने वाले चोखले की बैठक खाप का ही एक प्रांतीय संस्करण है और इस पर तुरंत रूप से प्रतिबन्ध लगाता क़ानूनआवश्यक है. पिछली केंद्र सरकार ने खाप पंचायतों के ऐसे फैसलों के खिलाफ तथाकथित सम्मान एवं परम्परा के नाम पर होने वाले अपराधों की रोकथाम संबंधी विधेयक का प्रस्ताव रखा था लेकिन वह ठन्डे बस्ते में चला गया. वर्तमान केंद्र सरकार ने भी इस सम्बन्ध में विधि आयोग की रिपोर्ट पर राज्य सरकारों से राय माँगी थी. लगभग सभी राज्य सरकारों की इसके समर्थन में राय आ भी चुकी है, पर आगे कोई कार्रवाई नहीं हुई. वर्तमान तथा इससे पूर्व की दोनों केंद्र सरकारों ने अपने बयानों में इन खाप पंचायतों को न्याय और संविधान के खिलाफ माना है. पर दंड संहिता में समुचित बदलाव न होना इनके इरादों के ठोस होने में संदेह पैदा करता है. यदि यह विधेयक जल्दी आता है तो इन हत्याओं के सामूहिक चरित्र की पहचान और दंड का प्रावधान संभव हो पायेगा.

·भावना और कलावती दोनों ने स्पष्ट बताया कि रमा ने उन्हें बताया था कि उसके गाँव वापिस आने की खबर उसके पीहर में थी.  ऐसे में साफ़ है कि यह एक सोची समझी साजिश के तहत अंजाम दी घटना थी. इन हालातों में पुलिस गाँव से साक्ष्य जुटाकर आरोपियों को सज़ा तक कैसे पहुंचाएगी यह सवाल बारबार उठता है. यह निहायत ज़रूरी है कि आरोपियों को बेल ना मिले क्योंकि वे  साक्ष्यों के साथ छेड़छाड़ कर सकते है और गवाहों को प्रभावित कर सकते हैं.

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पीयूसीएल के तथ्यान्वेषी दल के सदस्य इस प्रकार थे धुली बाई (एकल नारी शक्ति संगठन), छगन बाई (एकल नारी शक्ति संगठन), कमलेश शर्मा (पीयूसीएल) धर्मराज गुर्जर (पीयूसीएल), हेमंत खराड़ी (राजस्थान शिक्षक संघ, शेखावत), फेंसी (विकल्प संस्थान, उदयपुर), मधुलिका (पीयूसीएल), कांतिलाल रोत (पीयूसीएल तथा आदीवासी संघर्ष समिति), प्रज्ञा जोशी (पीयूसीएल). जाँच दल ने कई जगह पर व्यक्तियों के नाम उन लोगों की सुरक्षा के मद्देनज़र नहीं दिए हैं.
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नोट/अपडेट  : 22.03.16 को पीयूसीएल, जयपुर एवं नगर के प्रमुख महिला संगठनों के प्रतिनिधि राज्य की महिला एवं बाल मंत्री सुश्री अनीता भदेल तथा राज्य महिला आयोग की अध्यक्ष सुश्री सुमन शर्मा से मिले, यह रिपोर्ट प्रस्तुत की तथा अपनी मांगें रखीं. मंत्री महोदया ने इस घटना के प्रति अपनी अनभिज्ञता जाहिर की परन्तु अब इस मामले में ध्यान देने का आश्वासन दिया.

राज्य महिला आयोग की अध्यक्ष सुश्री सुमन शर्मा ने आश्वासन दिया कि वे सम्बन्षित विभागों को तलब कर इस विषय में की गयी कार्रवाई की रिपोर्ट लेंगी तथा व्यक्तिशः 1 से 4 अप्रैल के अपने दक्षिण राजस्थान के दौरे के अंतर्गत विशेष रूप से पचलासा छोटा जायेंगी.

                                                                                                                                                                                                                                                                 


नाकोहस पढ़ते हुए कुछ फुटकर नोट्स

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मगर चिराग़ ने लौ को संभाल रखा है[1]



  • ·        अशोक कुमार पाण्डेय

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नाकोहस जब कहानी के रूप में आई थी तब इस पर टिप्पणी करते लिखा था – “समय का बदलना अक्सर महसूस नहीं होता. उसे कुछ प्रतीकों के सहारे पढ़ना होता है. और यह पाठभी क्या होता है? दरअसल यह जितना पढ़ी जाने वाली चीज़ में होता है उतना ही उस ज़मीन में भी जिस पर खड़ा हो के उसे पढ़ा जा रहा है. यानी हमारी अपनी नज़रपर. बकौल साहिर ले दे के अपने पास फ़क़त एक नज़र तो है/ क्यूं देखें ज़िन्दगी को किसी की नज़र से हम.यू आर अनंतमूर्ति की मृत्यु के बाद के उल्लास और पटाखों को कोई गौर से देखे तो यह किताब जालाये जाने, लेखकों पर हमलों, मक़बूल फ़िदा हुसैन की पेंटिंग्स फाड़े जाने के क्रम में तो थे लेकिन अपनी अभिव्यक्ति और सार में यह एक गुणात्मक छलांगथी. महात्मा गांधी की मृत्यु पर बंटी मिठाइयों के बाद यह पहला सार्वजनिक गिद्धभोज था, याद कीजिए हुसैन के मरने पर भी यह दृश्य नहीं देखा गया था. इस तरह यह एक पुख्ता प्रतीक था, हमारी ज़मीन से देखें तो फासिज्म के विजय उद्घोष का और उनकी ज़मीन से देखें तो अच्छे दिनों का.  नाकोहसइसी नई हकीक़त का एक आख्यान है.

और देखिये इन कुछ महीनों में कितना कुछ बदल गया. अपने देश मे दादरी से जे एन यू तक, रोहित वेमुला से ऋचा सिंह तक, पटियाला कोर्ट परिसर से बनारस हिन्दू यूनिवर्सिटी और ग्वालियर तक फ़ासीवाद अपनी विजय का उन्मुक्त उद्घोष करता विचर रहा है तो अमेरिका जैसे मुक्त बाज़ार वाले देश मे डोनाल्ड ट्रम्प खुलेआम अपनी घोर दक्षिणपंथी नीतियों के साथ ताल ठोंक कर भूमंडलीय नेता बनने की रेस मे है. अम्प्टन सिंक्लेयर ने फासीवाद को पूंजीवाद + हत्याकहा था और आज चार सू जो मंज़र है वह इसकी सख्त ताक़ीद करता नज़र आता है. ऐसे में नाकोहस अब जब उपन्यास के रूप में आया है और अपने फलक को और व्यापक करता हुआ वक़्त की तस्वीर और उसके पाठ, दोनों को और अधिक स्पष्ट करता है, तो इस पर ज़रा तफ़सील से बात करना ज़रूरी हो जाता है.

देखें तो नाकोहस की कहानी मुख़्तसर सी है. एक कॉलेज के अलग अलग धर्मों के तीन प्रोफ़ेसर दोस्त जो धर्मनिरपेक्ष हैं, मुखर हैं और लगातार साम्प्रदायिक ताक़तों के ख़िलाफ़ हैं, सत्ता के एक गोपनीय संगठन नाकोहस यानी  नेशनल कमीशन फॉर हर्ट सेंटीमेंट्स द्वारा गिरफ़्तार किये जाते हैं, उनका उत्पीड़न होता है और फिर उन्हीं हालात में चेतावनी के साथ उन्हें वापस छोड़ दिया जाता है. तीन लाइनों की इस कहानी के कोई एक सौ साठ पन्नों में आप किसी औपन्यासिकउतार चढ़ाव और रहस्य रोमांच की उम्मीद करते हों तो निराश होने की पूरी संभावना है. नाकोहस की कथा इसके विषय वस्तु सी खुरदुरी है,जिसमें घटनाएँ नहीं एक मुसलसल बहस और जद्दोजेहद है. यह पूरा उपन्यास हमारे सामाजिक-राजनीतिक जीवन की इस विडंबना को आहिस्ता आहिस्ता दर्ज़ करता जाता है और उसकी भयावहता को पाठक के दिल-ओ-दिमाग में पैबस्त करता जाता है. पन्ना दर पन्ना यह देश के लोकतांत्रिक ढाँचे में लगती दीमकों और उसके ढहते कंगूरों की शिनाख्त करता चलता है. असहमतियों को देशद्रोह में तब्दील कर देने वाले समय के तमाम बिम्ब असुन्दर होने के लिए अभिशप्त हैं तो यह उपन्यास अपने खुरदुरे शिल्प के साथ, जो न क्लासिकल अर्थों में फैंटसी या जादूई यथार्थवाद जैसी तकनीकों से परिभाषित किया जा सकता है,न ही सपाटबयानी कहा जा सकता है, एक प्रतिरोध की तरह,एक प्रतिआख्यान की तरह उपस्थित है जहाँ बहसें कथा का स्थान लेती जाती हैं, क्रूरताएं और उनसे उपजी आशंकायें रोमांच का. अपनी पूरी संरचना में यह शिल्प नया भले न हो लेकिन इस समय की भयावहता को उसकी सूक्ष्म पदचापों के साथ पहचानने और पाठकों तक संप्रेषित करने में काफी हद तक सफल है. उपन्यास की भाषा पर थोड़ी बात आगे की जायेगी.

नाकोहसका कोई अर्थ नहीं बनता. अर्थ बनाने की कोई सचेत कोशिश भी नहीं दिखती. इसके कारिंदों के लिए उपयोग किया गया पदबंध बौनेसरभी क्लबों में अनियंत्रित होने वाले अतिथियों को नियंत्रित करने वाले समानधर्मी बाउंसरसे ध्वनि साम्य के बावजूद कोई अर्थ नहीं देता.  पर कहानी में ये अपनी उपस्थिति से,अपने नाम मात्र से जैसे रीढ़ की हड्डियों में एक सिहरन पैदा कर देते हैं, इसके विपरीत ये वस्तुतः अर्थहीन पदबंध हैं. यही इसकी व्यंजना है. दक्षिणपंथ के अपने तंत्र में उपस्थित ऐसी संरचनाएं, जो बाहर से दिखती ही नहीं, जिनका अस्तित्व एक सभ्य समाज में निरर्थक है, पूरे समाज को इतने गहरे प्रभावित करती हैं. आप देखिये प्रशांत भूषण पर आक्रमण करने वालों के हाथ में भगत सिंह सेना का बैनर था. भगत सिंह और साम्प्रदायिक ताक़तों का बैनर! मनसे को याद कीजिए. तर्कबुद्धि कहेगी, एकदम निरर्थक, एकदम बकवास. अनुभव कहेगा, हिंसक, भयानक, हत्यारे! यहाँ कथा की अनुपस्थिति  इस नए समय की उपस्थिति है. जहाँ सब कुछ इतना आवेगहीन, ठंढा और पूर्वनिर्धारित है कि कोई कुतूहल नहीं जगाता, कोई कथानक, कोई उतार चढ़ाव नहीं, एक सीधी सपाट रेखा पर चलता हुआ वह स्वाभाविक सा लगता चला जाता है. धीरे धीरे फासिज्म का दर्शन सहज स्वीकार्य होता चला जाता है. हम मान कर चलते हैं कि भड़काऊ भाषणोंया दंगोंया स्नूपिंगके कितने भी सबूत आ जाएँ, केस हो जाएँ लेकिन कुछ होना नहीं है. हम न पुलिस की कार्यवाही की प्रतीक्षा करते हैं न अदालत के आदेश का. अब फैसले टीवी बहसों और सड़क की गुंडागर्दी से होते हैं जहाँ संत-साध्वी-महंत-मौलवी अपने विषाक्त धर्मादेश बेखटके देते रहते हैं. गोएबल्स की ज़रुरत तक ख़त्म होती जाती है और लोग पहली बार ही आत्मविश्वास से बोला गया झूठ स्वीकार कर लेते हैं, भले ही सच की तरह नहीं. चंद टीवी चैनल और अखबार पूरे विश्वास से झूठ को लगातार दिखाते हैं और एक भीड़ सड़कों पर नारे लगाते उतर आती है जो किसी पर कहीं भी हमला कर सकती है, उनके लिए क़ानून और पुलिस उपस्थित होकर भी अनुपस्थित हैं या यह कहें कि उनके द्वारा छोड़ा गया स्पेस जिन्होंने साधिकार कब्ज़ा कर लिया है. वे सत्ता के बगलगीर हैं और न्याय के स्थानापन्न. उनके पास तर्क नहीं हैं परन्तु निष्कर्ष हैं- अप्रश्नेय निष्कर्ष. इस उपन्यास पुरुषोत्तम अग्रवाल ने बहुत गंभीरता से संचार माध्यमों के हमारे मानस और स्पेस पर कब्ज़े को रेखांकित किया है, जिस पर आगे विस्तार से बात की जाएगी. ज़ाहिर है, इस आख्यान को भी ऐसा ही होना था. यह न उतार चढ़ाव और किस्सागोई की शक्ल में आ सकता था, न ही किसी एकालाप की शक्ल में. चेखव की एक कहानी एक क्लर्क की मौत याद आती है. कोई मार्केज की क्रानिकल भी याद कर सकता है और कामू की द स्ट्रेंजर भी. नाकोहस का निरर्थक होना और उसका इस क़दर वर्चस्व अपने आप में एक व्यंजना रचता है.

नाओमी क्लेनअपनी किताब द शॉक थेरापीमें अर्जेंटीना के यातना शिविर में चार महीने गुज़ारने वाले मारियो बिलानी को उद्धृत करती हैं. वह कहते हैं, “मेरा सिर्फ़ एक लक्ष्य था अगले दिन तक ज़िंदा रहना. लेकिन सिर्फ़ ज़िंदा रहना नहीं, बल्कि जैसा हूँ वैसे बने रहना. जैसा हैं वैसा बने रहना - यह चुनौती सुकेत की भी है, रघु की भी और शम्स की भी. नाकोहस के यातना शिविर मे गुज़ारे कुछ घंटों मे ही नहीं बल्कि अपने सुरक्षित घरों के हर झरोखे मे आँख लगाए बौनेसर आँखों के बीच रहते भी।  यह यातना शिविर  किसी एक जगह तक महदूद नहीं है बल्कि हमारे पूरे पब्लिक और प्राइवेट स्पेस मे पसर गया है। नाकोहस सिर्फ़ शरीर को चोटिल नहीं करता. वह दिमाग और दिल पर भी कब्ज़ा करता जाता है. लोकतंत्र के भ्रम के भीतर चेतनाओं पर नियंत्रण का हिंसक उपक्रम करती दक्षिणपंथी राजनीति सुनहले लबादों, पवित्र शब्दों और ख़ूबसूरत प्रतीकों की आड़ में आती है. उपन्यास के शुरू में ही शम्स कहता है, “जो भी आमादा है, वह गले में कुत्तोंवाला पट्टा पहनाने पर आमादा है...हिल डुल पर कोई रोक नहीं,बशर्ते दुम साथ में हिलती रही...भौंकने की भी इजाज़त, बशर्ते चेन मज़बूती से उसके हाथ में थमी रहे...उसके बाद आये रघु के लेकिनके बाद के वाक्य को पूरा करने वाले शब्द कहीं नहीं थे. यह जो निःशब्दता है, जो बेबसी और बेचैनी है, यह उपन्यास उस बेबसी और बेचैनी का ज़िंदा दस्तावेज़ है तो उसके बाद का जो हँसी मजाक है वह इस अमानवीय वातावरण में मुखालिफ़त करते लोगों की लाचारी भी है और हिम्मत भी.  नियंत्रण की ये कोशिशें कई कई स्तरों पर चलती हैं. घर घर में पहुँचे टी वी चैनल और हर हाथ को काम की जगह मिले मोबाइल सेट चौबीसों घंटे आपकी चेतना के चोर दरवाज़े तलाशते रहते हैं, रिमोट के सहारे नियंत्रण का आपका भ्रम टूट जाता है. याद कीजिये जे एन यू की हालिया घटना जब फ़र्ज़ी वीडियोज और चयनित रिपोर्टिंग के सहारे टीवी चैनल्स ने उन्माद का ऐसा माहौल बना दिया है कि जे एन यू के लिए ऑटो करने पर ऑटो वाला कहता है सीधे पाकिस्तान क्यों नहीं जाते?याद कीजिये मेरठ के पास बनाई जा रही हिन्दू सेना से जुडी कोई बीस साल की लड़की का वह बयान जिसमें सेकंड्स में व्हाट्सेप के ज़रिये कई लाख लोगों तक अपने ज़हरीले सन्देश पहुँचा देने की गर्वोक्ति है. मुजफ्फरपुर दंगों के समय पकिस्तान के एक वीडियो के सहारे रातोरात दंगों की आग लगा देने की घटना याद कीजिये. सुकेत जब कोशिशों के बावज़ूद टीवी चैनल नहीं बंद कर पाता है या मोबाइल की स्क्रीन पर नाकोहस का कब्ज़ा कुछ ऐसा होता है कि वह उसके मन की बात भी जान लेता है तो याद कीजिये फेसबुक की टाइमलाइन पर दर्ज वह सवाल : आपके दिमाग में क्या है? अस्सी के दशक में लिखी नोम चोमस्कीकी विश्वप्रसिद्ध किताब मैन्यूफेक्चरिंग कंसेंट” इस अवधारणा को बहुत विस्तार से बता चुकी है. वियतनाम युद्ध सहित तमाम घटनाओं के दौरान जनता की अवधारणा को कैसे मिथ्या या अर्ध सत्यों और दुष्प्रचारों  के सहारे सत्ता के पक्ष में निर्मित किया जाता है इसे तबसे आज तक दुनिया भर में लगातार देखा गया है. अभिव्यक्ति की आज़ादी के नारे के  साथ अस्तित्व में आये मुक्तसंचार माध्यम मुक्त बाज़ार की तरह ही अपने मालिक के ग़ुलाम होते हैं और उसकी विचारधारा को लगातार इकलौती सही विचारधारा तथा बाक़ी सबके विरोधी नहीं शत्रु होने का जो द्वैत रचते हैं वह अंततः समाज में स्वतंत्र सोच और प्रतिरोध की सारी संभावनाओं के दमन के लिए आवश्यक जनमत निर्मित करता है. यही वह जनमत होता है जो खुलेआम पटियाला कोर्ट में कन्हैया की पिटाई से लेकर कलबुर्गी की हत्या तक को नज़रंदाज़ करता है. यह खाना,पहनना,बोलना,लिखना सब नियंत्रित करने की हिंसक हठ लिए संस्कृति के उद्धारक के वेश मे आई सांस्कृतिक सेना को न्यायसंगत सिद्ध करने वाला जनमत है,और उसे सही न मानते हुए भी चुप रह जाने वाला भी।
कमाने, खाने और आनंद मनाने को नाकोहस मनुष्य के लिए ज़रूरी और पर्याप्त काम घोषित करता है तो सुखवाद के इस दर्शन की मुक्त बाज़ार अर्थव्यवस्था में विन्यस्त जड़ें साफ़ दिखती हैं. आखिर मुसोलिनी ने खुद कहा था – “फ़ासीवाद को बेहतर तरीके से कारपोरेटवाद कहा जा सकता है. क्योंकि वह राज्य और कार्पोरेट शक्ति का सम्पूर्ण विलयन है.यहाँ निकोलस लामेर साउटे का उपन्यास द वाटर थीफ़याद आना स्वाभाविक है. तो यह सुखवाद नाकोहस के लिए सबसे मुफ़ीद दर्शन है जो एक तरफ़ जनता को चौबीसों घंटे कमाने और खर्च करने के चक्र में उलझा देता है तो दूसरी तरह परम्परा,इतिहास और दर्शन की जड़ों से पूरी तरह काटकर ज्ञान की जगह सूचना पर निर्भर एक संवेदनहीन मनुष्य में तब्दील कर देता है. उपन्यास की एकदम शुरुआत देखिये . सुकेत स्वप्न में गजग्राह के मिथक का नया रूप देख रहा है. इसमें नया क्या है? नया है गज की हत्या के इर्द गिर्द ज़िन्दगी का हस्ब मामूल चलते रहना.कुछ भी हो जाये ज़िन्दगी हस्ब मामूल चलती रहती है. आहत भावनाओं के पोषण के लिए सुकेत के घर आई गुंडा छात्रों की भीड़ शिक्षकों की उस कॉलोनी में बाक़ी लोगों के लिए सिर्फ़ एक व्यवधान है, खाए अघाए संपन्न लोगों के जीवन में एक अवांछित व्यवधान. टीचर्स असोसिएशन की बैठक में वबाल से दूर रहने की सलाहें आम शिक्षकों की हैं तो प्रगतिशील बख्शी जी के लिए अभिव्यक्ति की आज़ादी नहीं भावनाओं का आहत होना बड़ा मुद्दा है. कॉलेज से लेकर मध्यवर्गीय सोसायटी और सड़क तक सब अपने अपने समझौतों में मशरूफ़.  आपस मे बतियाते जब ये दोस्त कहते हैं कि यह अब वह देश नहीं रहा जिसकी आदत पड़ चुकी थी हमें,तो इस बदले हुए देश मे नाकोहस के लिए इससे अच्छा माहौल क्या हो सकता है? और इस माहौल में सबसे बड़ा ख़लल है स्वतन्त्र सोच. दुनिया भर में ऐसी ताक़तों ने सबसे पहले स्वतन्त्र सोच पर हमला किया है और दुनिया भर के लेखकों ने इसे दर्ज किया है. ओरहान पामुक के उपन्यास स्नो में एक प्रसंग है। देश में सर उठा रहे दक्षिणपंथ के दौर में एक छोटे से कस्बे में हिज़ाब पहनने वाली लड़कियों को कालेज में प्रतिबंधित करने वाले सरकारी आदेश का सख़्ती से पालन करने वाले कालेज के निदेशक की हत्या के इरादे से आया एक धर्मांध युवा उनसे पूछता है – ‘क्या संविधान के बनाये नियम ख़ुदा के बनाये नियम से ऊपर हैं?’ निदेशक के तमाम तर्कों का उस पर कोई असर नहीं पड़ता और वह उसकी हत्या कर देता है। हिटलर या मुसोलिनी के मॉडल ही नहीं अमेरिका में ओवरमैंन कमिटी या हाउस कमिटी ऑन अन-अमेरिकन एक्टिविटीज़ जैसी संस्थाएं नाकोहस की पूर्वपीठिका हैं. अगर वामपंथी मित्र अति संवेदनशील न हों तो स्टालिन की सत्ता संरचना भी. सन चौरासी से बयानबे तक हमारा समाज लगातार और बीमार और संवेदनहीन होता चला गया है और प्रत्यक्ष सत्ता में आने से पहले ही फासीवाद जनमानस में अपना वर्चस्व विभिन्न रूपों में स्थापित कर चुका है. इस उपन्यास मे ही नेल्ली के नरसंहार का ज़िक्र है। फरवरी, 1983 मे असम मे हुए इन दंगों मे 2000 से ज़्यादा मुसलमानों को मार दिया गया था (यह आधिकारिक संख्या है,स्वतंत्र रिपोर्टों मे यह संख्या दस हज़ार तक बताई गयी थी)। चौदह से अधिक गांवों मे एक तरह का नस्ली सफाया। सरकारें आती जाती रहीं लेकिन जांच के लिए बनी तिवारी समिति की रिपोर्ट आज तक सार्वजनिक नहीं की गयी। कोई सात सौ केस दर्ज़ हुए थे लेकिन आधे से अधिक सबूतों के अभाव मे रद्द हो गए। जीवन हस्बे मामूल चलता रहा। जातीय नरसंहारों की तो एक लंबी सूची है। बाबरी मस्जिद विवादित ढाँचा बनती गयी और अब तो मुख्यधारा के तमाम माध्यम इसे विवादित ढांचा कहने लगे हैं। सुकेत के लेख मे जिन बातों से भावनाएं आहत हुई हैं उनमें से एक यह भी थी।

यहाँ सुकेत को गिरफ्तार करने आये चौड़ा सिंह के चरित्र को अगर थोड़ा सा विवेचित कर लें तो चीज़ें और साफ़ होंगी. संवेदना से पूरी तरह से खाली वह साक्षर लेकिन अनपढ़ नौजवान जब एक क्षण के लिए द्रवित होता है तो उसका साथी उसे तुरंत सावधान करता है. और उसकी संवेदना को हरने वाले टूल्स क्या हैं? बेरोज़गारी, इतिहास-दर्शन-साहित्यहीन शिक्षा,चारों तरफ़ बजता निरर्थक संगीत. एरिक हाब्स्बाम एज ऑफ़ एक्स्ट्रीम्स में बताते हैं - फासीवादी और ग़ैरफासीवादी दक्षिणपंथ में असली अंतर यह है कि फासीवाद निचले तबके की भीड़ को आंदोलित करके अस्तित्वमान होता है। यह निश्चित तौर पर लोकतांत्रिक और लोकलुभावन राजनीति के युग से जुड़ा हुआ है। पारंपरिक प्रतिक्रियावादी इन राजनैतिक व्यवस्थाओं का फ़ायदा उठाते हैं और जैविक राज्यके समर्थक इनके अतिक्रमण का प्रयास करते हैं। फासीवाद अपने पीछे जनता को भारी संख्या में ले आने में गौरवान्वित महसूस करता है’… ये पीले बीमार चेहरेही हिटलरी फरमानों को पूरी आस्था से कोई सवाल किये बिना पालित करने वाले लोग होते हैं. कला, विद्या, ज्ञान आदि से काट दिए गए पुच्छ विषाण हीन पशु में तब्दील कर दिए गए ये युवा आज हमें हर सड़क पर नहीं दिखाई देते? और इनके नेतृत्व मे दिखते हैं गिरगिट। वह अपढ़ नहीं है। खूब पढ़ा लिखा है।  पर तीनों उसे छेड़ते हैं और शम्स कहता है, "ऐन मुमकिन है, शे'र अभी भी फरमाते हों" इस पर उसकी प्रतिक्रिया “"आई एब्हार एवरीथिंग ऑफ माई पास्ट...बीत चुके वक्त के एक एक पल से नफरत है मुझे..."इस बौद्धिक कौम का एक सिरा है भावनाओं केआहत होने को लेकर संवेदित प्रगतिशील बख्शी जी तो दूसरा सिरा है अपने अतीत मे अर्जितसारे लोकतान्त्रिक संस्कारों और ज्ञान को पूरी तरह सत्ता के पक्ष मे उपयोग करने वालागिरगिट। बक़ौल रसूल हमजातोव अतीत पर पिस्तौलें दागते समय पर भविष्य की तोपों के गोलेगिरने लाज़िम हैं,लेकिन उनकी जद मे जाने क्या क्या नष्ट होगा।टीवी की बहसों से अखबारों के पन्नों मे फासीवाद का वैचारिक आधार पुख्ता करते और उसकी कार्यवाहियों को अपने (कु) तर्कों का वैचारिक कवर देते तमाम बुद्धिजीवियों और उनके अतीत को देखते इन गिरगिटोंकी एकदम भौतिक उपस्थिति हाल के दिनों मे और मुखर होकर सामने आई है।

तो अगर एक उपन्यास वर्तमान और भविष्य की घटनाओं की इस क़दर भविष्यवाणी करने लगे तो यह लेखक की सफलता भले हो, समाज की भयावह असफलता भी है.

इन सब कथाओं के बीच सुकेतु के टूटे विवाह और एक प्रेम का किस्सा है. दोस्तों के हँसी मजाक हैं. नशा है. स्त्रियाँ हैं. उनकी अपनी महत्त्वाकांक्षाएं और रुमान हैं. ये सहज मानवीय कमज़ोरियाँ जो यह बताती हैं कि सच के पक्ष में खडा मनुष्य कोई परफेक्ट मनुष्य नहीं होता रेमंड के विज्ञापन की तरह, वह हमारे आपके ही तरह एक आम मनुष्य होता है बस उसने तर्क से दुनिया को देखना सीख लिया है. चरित्र को जिस तरह से प्रगतिशील ताक़तों पर हमला करने के लिए हथियार बना लिया जाता है उसे हमने नेहरू और गांधी ही नहीं हमारे अपने समय में खुर्शीद अनवर से कन्हैया तक देखा है. तर्कों का जवाब तर्कों से देने की जगह चारित्रिक हत्याएं, अफवाहें, झूठ और दुष्प्रचार सबसे बड़े औज़ार होते हैं प्रतिक्रियावादी ताक़तों के.

मार्क्स ने कहा था कि किसी भी समय की संस्कृति उस समय के वर्चस्वशाली वर्ग की संस्कृति होती है. व्यवस्था अपने सहजबोध (कॉमन सेन्स) निर्मित करती है और उसे हर तरह से स्थापित करती है. भाषा से लेकर नाम तक उस सहजबोध का हिस्सा होते चले जाते हैं. ऑन लिटरेचरमें अपने लेख फंक्शन्स ऑफ़ लिट्रेचरमें अम्बर्तो इको इटली के फासीवादी समय में भाषा के साथ हुए व्यवहार का विस्तार से विवेचन करते हैं. हमारे समय में भी यह सहज बोध लगभग स्थापित सा ही है. उर्दू यानी मुसलमान, संस्कृतनिष्ठ हिंदी यानी द्विज, लोकभाषा यानी गँवार (देहाती को लगभग गँवार के पर्यायवाची की तरह उपयोग किया जाता है). फ़िल्में इस सहज बोध को स्थापित करने का एक सशक्त माध्यम हैं तो पाठ्य पुस्तकों से लेकर कथित लोकप्रिय संचार माध्यम इसे बहुत बारीक़ी से स्थापित करते हैं और यह आम जीवन में जितनी स्वीकार्य होती जाती है, वर्चस्वशाली वर्ग की जकड़न उतनी मज़बूत होती जाती है. अभी एकदम हाल की घटना है कि मेट्रो में एक आयोजन का उर्दू ब्रोशर पढ़ती महिलाओं को पाकिस्तानी कहकर लगभग धमकाया गया. पुरुषोत्तम अग्रवाल इस उपन्यास में भाषा के इस सहजबोध का दो स्तरों पर प्रतिवाद करते हैं. पहला इस उपन्यास की अपनी भाषा और दूसरा इसके कथ्य में विन्यस्त भाषा और संस्कृति का सवाल. यहाँ रघु एक ईसाई पिता की संतान है, सेना में ब्रिगेडियर रहा पिता, योग और ध्यान का अभ्यासी पिता, नैष्ठिक ईसाई और रामायण-महाभारत का जानकार पिता जिसने पुत्र का नाम राम के पितामह राजा रघु से प्रभावित होकर रखा था. कहानी के रूप में पाखी में प्रकाशित होने पर एक आलोचक मित्र ने इसे हिन्दू साम्प्रदायिकता से जोड़ कर देखा था. यह आरोप मुझे वैसे है जैसे कोई कहे कि शरद जोशी रिवर्स लव जिहाद के संघी नारे से प्रभावित होकर इरफाना जी से विवाह को उद्धत हुए थे. अव्वल तो क्या किसी ईसाई का रघु या ऐसा कोई नाम होना सचमुच इतना अस्वाभाविक है? खुशवंत सिंह के उपन्यास अ ट्रेन टू पाकिस्तान में एक पात्र है इक़बाल. वह गाँव के भाई जी को इक़बाल सिंह, एक मोना सिख लगता है लेकिन सब इन्स्पेक्टर को इक़बाल खान. क्यों लगता है, प्रबुद्ध पाठकों को यह बताना मुझे ज़रूरी नहीं लगता. कबीर खान और दीपक कबीर और कबीर राजोरिया और कबीर बेदी हमारे समाज में जाने कितने हैं. अब किसी रसखान की कृष्णभक्ति या रघुपति सहाय के फ़िराक हो जाने या किसी ब्राह्मण शायर के शीन काफ़ निज़ाम हो जाने का क़िस्सा क्या सुनाना? मेरी गुजरात पोस्टिंग के दौरान मेरी सहकर्मी थी मनीषाबेन क्रिश्चियन. दिल्ली में मेरे एक सहकर्मी हैं विजय दीप मसीह. मेरी अपनी बेटी वेरा के नाम से ही अधिक जानी जाती है. हिन्दू मिथकों से प्रभावित ईसाइयों/मुसलमानों या इसके उलट के किस्से भी हमारे समाज में इतने अनुपस्थित तो नहीं तो रघु मसीह या रघु क्रिश्चियन नाम से इस क़दर चौंका जाए? यह चौंकना दरअसल नाकोहस के उस गिरगिट की याद दिलाता है जो कहानी में एक जगह कहता है, “एक आरोप तुम पर अपनी पहचान छिपाने का है.गुलजार की काफी पहले लिखी कहानी धुंआ में मुसलमान चौधरी चाहता है कि मरने के बाद दफनाने की जगह उसे जला दिया जाय. यह किन्हें नागवार गुजरता है?  गरबा नवरात्रों में देवी दुर्गा की पूजा अर्चना है. उसमें बुतपरस्ती से इंकार करने वाले मुसलमानों का शामिल होना जिन्हें आपत्तिजनक लगता है वे कौन लोग हैंकम्युनिस्ट उमर खालिद की जो पहचान इसे स्वीकार्य है वह मुसलमान की है. पहचानों के नशे में इस क़दर मदहोश हो जाना कि उनमें किसी अंतरण, किसी व्यतिक्रम के होने को अस्वीकार कर देना या संदेह की नज़र से देखना तो नाकोहस का ही नज़रिया है!  असल में उसके लिए सामने यह पहचान ओढ़े लोग होना ज़रूरी है जिससे वह हमऔर वेकी बाइनरी पैदा कर सके. तरल पहचानें उसके लिए एक संकट की तरह हैं. इसके उलट यह होना और इस होने को रेखांकित करना उस खाई के अस्तित्व का अस्वीकार और प्रश्नांकन है जिसकी उपस्थिति दक्षिणपंथ की उपस्थिति के लिए प्राण तत्व है. ईसाई होकर अपनी कविता में रघु का महाभारत के चरित्र के सहारे बात करना प्रगतिशील उमानाथजी को भी नहीं पच पाता. इसलिए जब पंडित शुक्ल जी रघु नाम जानने पर उपहास करने के लिए पूछते हैं कि नाम ही नाम के रघु हैं, या कुछ ज्ञान भी है महाराज रघु के बारे मेंतो वह इस सहजबोध के वाहकों के प्रतिनिधि बन जाते हैं और रघु जब अपनी ईसाई पहचान को साफ़ करते हुए उन्हें शास्त्रार्थ में धाराशायी करता है तो यह उस साम्प्रदायिक सहजबोध का एक प्रतिपक्ष रचता है. इसी तरह जब खुर्शीद कहता है, “मेरे नाम को लेके उर्दूआइये मतया जब सुकेत अपने सपनों में मिथकों के सहारे दुहस्वप्नों से गुजरते हुए देखता है कि मनुष्यों की ज़िन्दगी तो हस्ब मामूल चल ही रही है, देवताओं को भी उस गज को बचाने की कोई फ़िक्र नहीं तो यह एक तरफ़ उन पार्थक्य के उन बाड़ों को तोड़ते हैं जिनके बिना दक्षिणपंथ का कोई अस्तित्व ही नहीं तो दूसरी तरफ़ उस संवेदनहीन हो चुके समाज को रेखांकित  करते हैं जिसके लिए एक लेखक की मृत्यु पर हो रहे नृत्य में कुछ भी आपत्तिजनक नहीं. दूसरे स्तर पर यह काम लेखक ने उपन्यास की भाषा से किया है. जैसा कि मैंने शुरू में ही ज़िक्र किया, बेहद गंभीर विषय पर लिखे इस उपन्यास में एक पात्रों के बीच के लम्बे लम्बे संवादों में भी एक बेफ़िक्री है. शम्श ख़ासतौर बेहद मजाहिया है. हालांकि कई बार यह भाषा को हलके स्तर पर और फूहड़ मजाकों तक भी ले जाता है. मेरे लिए इसकी एक अपनी व्यंजना है. यह शत्रु को हलके में लेना नहीं है बल्कि प्रतिरोध को किसी उदास आख्यान की जगह एक ज़िंदादिल संघर्ष की तरह ज़िंदा रखना है. लोकभाषा से लेकर सोशल मीडिया और टीवी पर निर्मित हुई नई वाली हिंदीतक का बखूबी प्रयोग साजिशों की व्याप्ति के बरक्स उन स्पेसेज पर प्रतिरोध की आवश्यकता को बड़े सटल तरीके से इंगित करता है. और इन सबके साथ हर खंड की शुरुआत जिस तरह के काव्यात्मक वाक्यों या कहें कविता की दो पंक्तियों से हुई है वह संवेदना की आतंरिक तहों तक दस्तक देती है. लम्बी बहसें कई जगह ऊबाऊ हुई हैं, कई जगह इनमें उपन्यासकार पर आलोचक हावी होता दिखा है लेकिन अपनी सम्पूर्ण निर्मिति में भाषा प्रतिरोध के एक आदमक़द आख्यान के निर्माण के ज़रूरी टूल की तरह सामने आई है.

एक आखिरी उल्लेखनीय बात यह कि इस उपन्यास में कोई कृत्रिम उम्मीद नहीं. हाल में मुक्तिबोध को पढ़ते यह लगा है कि उनकी निराशा कितनी ईमानदार थी और उसी दौर में दस साल में क्रान्ति हो जाने की आशाएं कितनी निरर्थक. एक तरह का क्रांतिकारी नियतिवाद भी होता है जो अतिउत्साहों की जड़ में होता है. पामुक के उपन्यास अ स्ट्रेंजनेस इन माई माइंडमें वामपंथी युवा फ़रहत भीतर भीतर आसन्न संकट और हार को जानता है लेकिन प्रत्यक्ष में कहता है हम जीतेंगे. एक राजनीतिक कार्यकर्ता के लिए यह ज़रूरी हो सकता है लेकिन एक लेखक के लिए यह असल में बेईमानी है. उसे निराशाओं को भी उनकी पूरी भयावहता के साथ दर्ज़ करना होता है जैसे अम्पटन सिंक्लेयर जंगलमें करते हैं या मुक्तिबोध अँधेरे मेंजैसी कविता में. इस निराशा और नाउम्मीदी का स्वीकार ही सामने खड़ी चुनौती का असली आकार देखने को मजबूर करता है और उसके बरक्स ज़रूरी लड़ाइयों की हदें भी। नाकोहसमें जो अँधेरा है उसमें उम्मीद की इकलौती मद्धम रौशनी तीन दोस्तों की बेफ़िक्र हँसी में है, ज़िद में है, पागलपन में है, बेबसी में है, उदासी में है. इसलिए यह उपन्यास महान उपन्यास हो न हो आज एक बेहद ज़रूरी उपन्यास है. अपने समय का एक ज़िंदा दस्तावेज़ जो जितनी जल्दी अप्रासंगिक हो जाए, समाज के लिए उतना ही प्रासंगिक होगा.




[1]अगरचे ज़ोर हवाओं ने डाल रखा है /मगर चिराग़ ने लौ को संभाल रखा है (अहमद फ़राज़)
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पाखी के मई अंक से साभार 

जल-संकट(लातूर-शहर)-1: यह हमारी सभ्यता के अंत की शुरुआत है

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साथी देवेश और कुछ अन्य मित्र लातूर में थे कल तक...उन्होंने यह रिपोर्ट भेजी है 




याद कीजिये 2016 के बीत गए महीनों को. हैदराबाद केन्द्रीय विश्वविद्यालय के छात्र रोहित वेमुला की सांस्थानिक हत्या से शुरू हुआ साल बढ़ता हुआ पहुंचा जेएनयू और फिर देशद्रोह से लेकर राष्ट्रवाद की बहसों ने देश के दिलों-दिमाग पर कब्ज़ा जमा लिया. इस बीच इसी देश का एक हिस्सा सूखते-सूखते इतना सूख गया कि देश की नज़र में ही नहीं आया. यह कहना मुश्किल है कि उसे बारिश की कमी ने इतना सुखाया या हमारी उपेक्षा ने. इस उपेक्षा को मैं हमारी उपेक्षा ही कहूँगा, बाक़ी सरकारों की बात क्या ही करना. सरकारों की नीयत पर भरोसा हो,हमें इतना सीधा नहीं होना चाहिए.

आप शीर्षक देखकर सोच रहे होंगे कि मैंने शुरुआत ही अंत के साथ कर दी है पर यकीन मानिए मैं मजबूर हूँ यह लिखने के लिए. मैं यह मानकर चल रहा हूँ कि आपको मालूम होगा मराठवाड़ा क्षेत्र के सूखे के बारे में. आपको यह भी मालूम होगा कि लातूर में पूरे अप्रैल महीने में जल-स्रोतों के आस-पास धारा 144 लागू थी और यह भी कि लगभग 24 लाख की आबादी वाले लातूर से 1.5 लाख लोग अब तक जल-संकट की वजह से विस्थापित हो चुके हैं. लातूर ‘शहर’ में जब जल-संकट के कारण कर्फ्यू की स्थिति पैदा हुई तो राष्ट्रीय मीडिया ने लातूर पर खूब बहसें चलाई, अच्छा लगा. असर भी हुआ इसका और सरकार ने लातूर को बाहर से पानी उपलब्ध कराना शुरू किया. पानी से लदी ट्रेनें भेजी गईं और लातूर शहर नगर-निगम के कर्मचारियों के अनुसार अब तक 4 करोड़ लीटर पानी ट्रेनों के माध्यम से लातूर शहर के लिए भेजा जा चुका है. फिर एक दिन बारिश की ख़बर चली और सबने ख़ुशी मनाई लातूर के लिए, मनानी भी चाहिए थी. पर ज़मीनी हक़ीक़त हमेशा की तरह कुछ और ही है जिसे जानने के प्रति हमारी रुचि शायद होती नहीं है.

       


लातूर शहर का जो पहला व्यक्ति टकराया(गजानन निलामे, गायत्री नगर निवासी), उसने बताया कि जो पानी ट्रेनों के माध्यम लातूर के लिए भेजा जा रहा है वह केवल लातूर शहर के लिए है, ग्रामीण क्षेत्रों के लिए नहीं. शहर की स्थिति के बारे में पूछने पर गजानन बताते हैं कि शहर में नगर निगम के टैंकर हर वार्ड में पानी पहुंचाते हैं. औसतन 8-9 दिनों के अंतराल पर आने वाले इन टैंकरों के माध्यम से एक परिवार को 200 लीटर पानी की आपूर्ति की जाती है. अब सोचिये कि 200 लीटर पानी में एक परिवार कैसे 8-9 दिन काटता होगा? पीने के अलावा बाकी काम के लिए भी इसी पानी का इस्तेमाल करना होता है. पानी की  क्वालिटी के बारे में जानना चाहते हैं तो इतने से काम चलाइए कि 6 मई को एक राष्ट्रीय चैनल ने ख़बर चलाई थी जिसके अनुसार लातूर शहर के शिवाजी चौक के पास स्थित ‘आइकॉन अस्पताल’ में 5-6 मरीज भर्ती किये गए हैं जिनकी किडनी पर ख़राब पानी की वजह से असर पड़ा है. गजानन ने ही बताया कि क्षेत्र में पानी के दलाल पैर जमाये हुए हैं. इलाके में ‘सनराइज’ बोतल-बंद पानी की सबसे बड़ी कंपनी है जो पानी की दलाली भी करती है. इसके अलावा कई छोटी-बड़ी कंपनियाँ हैं जो बोतल-बंद पानी तो बेंचती ही हैं, अलग से भी पानी बेंच रही हैं. पूरे लातूर में औसतन 350-400 रूपये में 1000 लीटर और 1100-1200 रूपये में 5000-6000 लीटर का रेट चल रहा है.

गायत्री नगर में ही रहने वाले,पेशे से मजदूर रामभाऊ ने बताया कि लातूर में पिछले तीन महीने से किसी भी तरह का निर्माण-कार्य बंद है जिसकी वजह से मजदूरों के लिए कोई काम नहीं रह गया है. रामभाऊ बताते हैं कि दिक्कत तो सालों से है लातूर में पर पिछले 5 सालों से खेती बिलकुल ख़त्म हो गई और जब यहां सबकुछ ख़त्म होने के कगार पर है तब जाकर हमारी बात हो रही है. मैट्रिक तक पढ़े और साहित्य के गंभीर पाठक रामभाऊ कहते हैं कि ‘मैं आज तक अपना घर नहीं खड़ा कर पाया, अब शायद कर भी नहीं पाउँगा.अगले दो-तीन सालों में सबकुछ ख़त्म हो जायेगा. लातूर में एक आदमी भी नहीं दिखेगा.’ रामभाऊ लातूर के गांवों के लिए चिंता जताते हुए कहते हैं कि ‘शहर में तो फिर भी किसी तरह इतना पानी अभी आ रहा है जिससे जी ले रहे हैं लोग पर ग्रामीण क्षेत्रों के लिए तो कुछ भी नहीं है. यहां तक कि लातूर शहर के मुख्यालय से बमुश्किल 4-5 किमी दूर के क्षेत्रों से ही हाहाकार की स्थिति शुरू हो जाती है. प्रकृति से मात खाए इन लोगों के लिए न तो सरकार है, नगर निगम भी नहीं है. इनके लिए ट्रेन से पहुँच रहा पानी भी नहीं है.’रामभाऊ की बातों को सुनकर लगा कि जुमलेबाजों और उनके जुमलों के बीच रहते-रहते हमारी आदत हो गई है खरी आवाज़ों को अनसुना कर देने की. कलपुर्जों-सा जीवन जीते-जीते आज हम मनुष्यता से कितनी दूर जा खड़े हुए हैं, हम ख़ुद भी नहीं जानते. ज़मीन से 700-800 फीट नीचे भी अगर पानी नहीं मिल पा रहा तो इसका साफ़ मतलब है कि भयंकर उपेक्षा हुई है इस क्षेत्र की. पानी किसी ज़माने में 100-150 फीट पर ही मिल जाता था तो जलस्तर गिरने पर एक ही बार में इतना नीचे जा ही नहीं सकता कि पानी के ठिकानों की बाकायदा खोज शुरू करनी पड़ जाए. खैर आगे बढ़ते हैं....
                                                                         
                
लातूर शहर में 4 ‘वाटर फिलिंग पॉइंट’( बड़ी टंकियाँ) हैं जहाँ से सारे सरकारी टैंकर भरे जाते हैं. इनकी जगहें हैं ‘सरस्वती कॉलोनी’, ‘गाँधी चौक’, ‘नांदेड़ नाका’, नया रेणापुर नाका’.जब हम सरस्वती कॉलोनी फिलिंग पॉइंट पर पहुंचे तो पानी भरने वालों की लम्बी-लम्बी कतारें दिखाई दी.बहुत से लोग ऑटो में, सायकिल पर ढेर सारे घड़ों में पानी भर कर ले जाते हुए दिखे. इनसे बात करने पर पता चला कि लोग 2-3-4-5 किमी दूर से पानी भरने आये थे. लातूर के कलेक्टर ने लोगों को फिलिंग पॉइंट्स से पानी ले जाने की अनुमति दे दी है.जानकारी के लिए, ट्रेनों से आ रहा पानी इन फिलिंग पॉइंट्स में भर दिया जाता है. पानी भर रहे लोगों ने बताया कि यहां से पानी भरने में पूरा दिन निकल जाता है.लम्बी कतारें होती हैं, नंबर लगे होते हैं. ज़रा-सा ढीले पड़े कि नंबर गया. सुबह जल्दी पहुँच जाने पर नंबर 2-3 घंटे में आ जाता है पर लेट हो जाने पर और भीड़ बढ़ते ही नंबर 8/10/12 घंटे पर ही आ पाता है.अनुमति मिलती है 15-18 घड़ों में पानी भरने की और लोगों को पानी भरने के लिए हर तीसरे दिन फिलिंग पॉइंट्स पर आना पड़ता है.चूँकि इस पूरी प्रक्रिया में पूरा दिन निकल जाता है, इसलिए मौके पर पूरा परिवार मौजूद होता है. पानी भरने वाले दिन आदमी काम पर नहीं जाता, बच्चे स्कूल नहीं जाते और घर की औरतों के साथ मिलकर पानी भरते हैं. काम से बंक मारने की भरपाई काम मिलने वाले दिनों में 17-18 घंटे काम करके पूरी की जाती है.हर तरह का निर्माण कार्य बंद होने के कारण काम मिलने की दशा में मजदूरों की मजबूरी का फायदा उठाया जाता है और 200-250 रूपये की दिहाड़ी पर ही काम करा लिया जाता है. जबकि न्यूनतम दिहाड़ी 450 रूपये है. फिलिंग पॉइंट्स पर आपको उन इलाकों के लोग ज्यादा मिलते हैं जो शहर में आते हैं फिर भी वहां अभी तक कोई टैंकर नहीं पहुंचा है.

सरस्वती कॉलोनी में मौके पर नगर निगम के दो कर्मचारी मिल गए जिन्होंने नाम न बताने की शर्त पर कुछ बातें हमसे शाया कीं. मसलन, पहली बात तो यह कि जल-संकट को लेकर किसी से भी बात नहीं करनी है. उन्होंने बताया कि लोगों को देने के लिए महीने-डेढ़ महीने भर का पानी ही उपलब्ध है. उसके बाद कैसे काम चलेगा पूछने पर वे हंसने लगे और बोले कि इसके लिए तो कोई योजना या कोई मॉडल तो अभी तक नहीं तैयार है, सब भगवान के ऊपर है अब.कर्मचारियों के अनुसार ट्रेनों से पहुंच रहे पानी(25 लाख लीटर प्रति ट्रेन)  में से 12% पानी कहाँ गायब हो जाता है कोई नहीं जानता. पानी के दलाल पूरे इलाके में फैले हुए हैं जिन्हें राजनीतिक पार्टियों/संगठनों का सहयोग प्राप्त है. जिन्हें सरकारों से उम्मीद रहती है उनके लिए बताता चलूँ कि सूखे से निपटने के लिए जनवरी माह में एक मीटिंग जिला मुख्यालय में की गई थी. यह बात अलग है कि प्रस्तावित एजेंडों पर आज तक कुछ किया नहीं गया. हाँ, मई के पहले हफ़्ते में पानी को लेकर हेल्पलाइन नंबर जारी किया गया है. यह हेल्पलाइन नंबर काम कितना कर रहा है इसकी कोई जानकारी अभी तक नहीं है. नाना पाटेकर की‘नाम फाउंडेशन’ पूरे इलाके में काम कर रही अकेली संस्था मिलेगी आपको. इन इलाकों में सक्रीय राजनीतिक पार्टियाँ/संगठन किसी गैर सरकारी संगठन/संस्था को भी काम नहीं करने देती. ‘नाम फाउंडेशन’ यहां तक कर रही है कि जो लोग विस्थापित होने के इच्छुक हैं उन्हें पुणे के खुले मैदानों में बसाने का प्रस्ताव रख रही है. 
                                                                                     
पानी की कमी से त्रस्त इन इलाकों में आपको सबकुछ सूखा, गर्म, खौलता-सा ही मिलेगा. पर सबसे भयावह होता है लोगों का मुस्कुराते हुए स्थितियाँ बयान करना और हँसते हुए कहना कि 2-3 साल बाद यहां कोई नहीं दिखेगा. लगातार पियराते चेहरों में धंसी आँखें जो दुनिया दिखाती हैं वहाँ भविष्य के उजले सपने नहीं होते, अँधेरी गलियाँ होती हैं बस, अंधे कुंए में उतरती सीढियां होती हैं केवल. आप इस दुनिया को देखते हैं और अपनी आँखें भी बंद नहीं कर पाते. धरती पर आज तक पता नहीं कितनी सभ्यताएँ पैदा हुईं फिर नष्ट हो गईं. शायद अब हमारी बारी है.

आधुनिकता-भावनात्मकता-प्रतिरोध - लाल्टू

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वरिष्ठ कवि और चिन्तक लाल्टू जी ने यह लेख इस नोट के साथ  भेजा  था
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भोपाल से एक पत्रिका आती है 'गर्भनाल'।
उनके लिए बीच-बीच में लिखता रहा हूँ। मैंने देखा है कि बड़े-बड़े लोग लिखते हैं उनके लिए।
यह आलेख संपादक जी नहीं छाप सकते, उन्होंने बड़ी विनम्रता से लिखा है कि उन्हें पहले दो पैरा ठीक नहीं लग रहे। उनका निर्देश है कि मैं कोई पहले का उदाहरण लूँ। मैं उनकी दिक्कत समझता हूँ। बदकिस्मती मेरी है कि मेरा हाजमा पहले से ही काफी बिगड़ा हुआ है, उसे और बिगाड़ नहीं सकता।

                                                                                                                  -लाल्टू
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जे एन यू के छात्र उमर खालिद ने हाल में कोलकाता में भारतीय संघ के भवन में छत्तीसगढ़ की समस्याओं पर व्याख्यान दिया। सभागार के बाहर अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद यानी ए बी वी पी के कार्यकर्त्ता विरोध प्रदर्शन कर रहे थे। इसकी वजह से ट्रैफिक में कुछ समस्याएँ हो रही थीं। एक बस में किसी सवारी ने पूछा, यहाँ क्या हो रहा है। किसी दूसरे ने जवाब दिया, अरे वह उमर खालिद है न, जिसने देशद्रोही नारे लगाए थे, वह आया हुआ है। किसी तीसरे ने कहा, अरे उसेे अभी तक गिरफ्तार नहीं किया। एक युवा स्त्री ने कहा कि आपलोग क्या कह रहे हैं, आपको पता नहीं कि यह सब झूठ है। जाली वीडियो दिखलाकर यह झूठ फैलाया गया था। तो कई लोग चिल्ला उठे कि इसे पीट कर गाड़ी से उतार दो।

इस घटना में एक तर्कशीलता है जो आधुनिक पूँजीवाद और सामंती समाज की गड्ड-मड्ड संस्कृति से निकलती है। कई लोग हैं जो इस बात के प्रति उदासीन हैं कि हमारे समाज में कई लोगों को या तो उमर खालिद से या उसके मुसलमान नाम से नफ़रत है, पर वे हम आप जैसे भले और सचेत भी दिखना चाहते हैं, तो वे कहेंगे कि यह सब आधुनिकता की वजह से, अंग्रेज़ों की वजह से, औपनिवेशिक शासन की वजह से है। यानी कि उस दिन उस वक्त बस में उस युवा स्त्री को एक बुज़ुर्ग ने सँभाल न लिया होता तो उसकी पिटाई और पता नहीं जो कुछ भी हो सकने की संभावना थी, उसे भूल जाएँ और अंग्रेज़ों को कोस लें तो सब ठीक दिखने लगेगा। जिस तर्कशीलता के साथ मैं अपने मित्रों की आलोचना कर रहा हूँ, यह भी आधुनिकता से ही आई है। ऐसी अलग-अलग युक्तियों में से हम कोई एक पक्ष चुनते हैं और उसे अपने तर्कों के साथ आगे बढ़ाते हैं। मित्रों को लगता है कि वे ठीक हैं, मुझे लगता है कि मैं ठीक हूँ। अक्सर दोनों पक्षों में से कोई एक ही सही होता है, पर यह ज़रूरी नहीं कि हमेशा ऐसा हो और अगर हो भी तो पूरी तरह यानी सौ फीसद सही हो। अपने पक्ष की सीमाओं को समझने में हमें लंबा समय लग सकता है और कभी-कभी तो हम उसे कभी नहीं समझ सकते।

कुछ साल पहले का एक उदाहरण लें। राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसंधान और प्रशिक्षण परिषद्(एन सी ई आर टी) की2006 में तैयार की गई ग्यारहवीं की राजनीति-शास्त्र की पाठ्य-पुस्तक में कोई तीस कार्टून डाले गए। इसके पीछे मासूम सा तर्क था कि बच्चे कार्टून का मजा लेते हुए पाठ के विषय-वस्तु में रुचि लेने लगेंगे। वैसे तो यह सही बात है और इस तरह के शैक्षणिक प्रयोग पिछली सदी के आखिरी दशकों में दुनिया भर में हुए हैं। किताब में एक अध्याय भारत के संविधान पर था और यह समझाने के लिए कि संविधान के लिखे जाने में तक़रीबन तीन साल लग गए, प्रसिद्ध कार्टूनिस्ट शंकर का1949 में छपा एक कार्टून डाला गया था। इसमें दिखलाया गया था कि भारत की जनता एक गोल चक्कर के बाहर अधीरता से इंतज़ार कर रही है कि संविधान जल्दी तैयार हो और अखाड़े में संविधान लिखने वाली समिति के अध्यक्ष आंबेडकर एक घोंघे पर बैठे हुए हैं। पीछे से उन दिनों की कार्यकारी सरकार के प्रमुख जवाहरलाल नेहरु एक चाबुक लेकर खड़े हैं कि घोंघे को जल्दी दौड़ाया जाए। जाहिर है इस कार्टून के पीछे अंग्रेज़ी का"स्नेल'स पेस" (घोंघे की चाल) वाला मुहावरा था, कि भई अब कामकाज की गति बढ़ाओ, कब तक लोग इंतज़ार करेंगे। इस कार्टून पर 2010 से पहले कुछ, और जल्दी ही बड़ी तादाद में, लोगों ने आपत्ति जतानी शुरु की।2012 तक ऐसा लगने लगा कि भारतीय बौद्धिक समाज दलित और गैर-दलित, दो तबकों में बँट गया है। दलितों और गैर-दलितों के बीच बृहत्तर समाज में जो संकट का संबंध है, वह बौद्धिकों में तीखी बहस बन कर सामने आ गया। दलित और गैर-दलित चिंतकों के बीच ध्रुवीकरण बढ़ता चला। अखबारों में, टी वी चैनलों पर जम कर बहस हुई। एन सी ई आर टी की पाठ्य-पुस्तक समिति के सदस्य जागरुक और सचेत लोग थे, बाकी समाज के लिए पथ-प्रदर्शक थे, फिर भी बहस चली। इसके एक दशक पहले प्रेमचंद की कहानियों पर भी ऐसा ही विवाद काफी तीखे तेवरों के साथ हुआ था।

आखिर कार्टून में पाठ को बेहतर ढंग से पढ़ाए जाने के अलावा और क्या पक्ष हो सकता था? कल्पना कीजिए कि देश के एक आम स्कूल में यह पाठ पढ़ाया जा रहा है। अध्यापक पाठ के मुताबिक समझा रहे हैं कि देश का संविधान कैसे बना। बच्चे पाठ में बनी तस्वीरों की तरह शर्ट निकर के साथ टाई पहने हो भी सकते हैं। मान लें कि कक्षा में सवर्ण और दलित दोनों पृष्ठभूमि के बच्चे हैं। ईमानदारी से हम मौजूदा स्थिति के बारे में सोचें तो हम देख सकते हैं कि अांबेडकर का घोंघे पर सवार होना किसी सवर्ण बच्चे को हास्यास्पद लग सकता है। वह इस कार्टून का इस्तेमाल किसी दलित बच्चे को तंग करने के लिए कर सकता है। अांबेडकर के ठीक पीछे नेहरू का चाबुक लिए खड़े होना कार्टून को और भी जटिल बना देता है।

प्रताड़ित जन की प्रतिक्रिया कैसी होती है, विश्व इतिहास में इसके बेशुमार उदाहरण हैं। साठ के दशक में, जब अमेरिका में काली चमड़ी के लोगों को बराबरी का नागरिक अधिकार देने का आंदोलन शिखर पर था, जिसमें कई गोरे लोग भी शामिल थेप्रसिद्ध अफ्रो-अमेरिकी कवि इमामु अमीरी बराका (मूल ईसाई नामः लीरॉय जोन्स) ने लिखाः- 'ब्लैक डाडा निहिलिसमुस। रेप द ह्वाइट गर्ल्स। रेप देयर फादर्स। कट द मदर्स थ्रोट्स।'कोई भी इस हिंसक कविता को सभ्य अभिव्यक्ति नहीं कहेगा। सिर्फ जाति नहीं, आर्थिक वर्ग आधारित निपीड़न भी हिंसक प्रतिक्रिया पैदा करता है। अभी हाल तक कोलकाता शहर में दीवारों पर सुकांतो भट्टाचार्य की ये पंक्तियाँ पढ़ी जा सकती थीं- 'आदिम हिंस्र मानविकतार आमि यदि केऊ होई, स्वजन हारानो श्मशाने तोदेर चिता आमि तूलबोई।'बराका की हिंसात्मक अभिव्यक्ति आज भी यू ट्यूब पर संगीत के साथ सुनी जा सकती है। गोरे लोगों के समाज ने इसका विरोध किया या नहीं, इसका कोई दस्तावेज नहीं है, पर अफ्रो-अमेरिकी स्त्रियों ने प्रतिवाद किया, यह इतिहास है। एलिस वाकर ने तो इस पर कहानी, उपन्यास तक लिखे- उनके उपन्यास'मिरीडियन'में यह दिखलाया गया है कि किस तरह काले लोगों के अधिकारों के लिए लड़ने आई एक गोरी लड़की का एक काला युवक ग़लत फायदा उठाता है।

बहरहाल हमें गैरतार्किक लगती स्थितियों तक कोई कैसे पहुँचता है, इस पर बेशुमार साहित्य लिखा गया है। 1949 में ही एक अफ्रो-अमेरिकी कवि लैंग्स्टन ह्यूज़ ने लिखा थाः- ह्वाट हैपेन्स टू अ ड्रीम डिफर्ड? दरकिनार किए गए सपने का क्या हश्र होता है? / क्या वह किसमिस के दाने की तरह धूप में सूख जाता है? / या वह घाव बन पकता रहता है? / क्या उसमें सड़े माँस जैसी बदबू आ जाती है?/ या वह मीठा कुरकुरा बन जाता है....?  शायद उसमें गीलापन आ जाता है और वह भारी होता जाता है / या फिर वह विस्फोट बन फूटताहै?

प्रसिद्ध इतिहास लेखक हावर्ड ज़िन ने अपनी किताब में एक अमेरिकी कहावत का ज़िक्र किया है, 'ग़रीब की आह हमेशा न्याय-संगत हो, यह ज़रूरी नहीं; पर अगर तुम उसे सुनोगे नहीं, तो तुम जान ही नहीं पाओगे कि न्यायक्या है।'

तो हम कैसे तय करें कि सही और ग़लत क्या है। सच यह है कि हममें से बहुत सारे लोग कभी नहीं जान पाएँगे कि दो विरोधी धारणाओं में से सही क्या हो सकता है। जीवन की तमाम प्रताड़नाएँ और असुरक्षाएँ हमारी इंसानियत को थोड़ा-थोड़ा कर खाती रहती हैं, और हममें से कई इसे इस हद तक खो बैठते हैं कि हम वापस पूरे इंसान नहीं बन सकते हैं। अच्छी बात यह है कि हममें से अधिकतर लोग इस बीमारी से निदान पा सकते हैं। वक्त के साथ इंसान में सहनशीलता और विरोधी धारणाओं के साथ जीने की क्षमता बढ़ी है। पिछली सदी के बीच के दशकों तक यह माना जाता था कि तर्कशीलता ही हमें सही राह पर ले जा सकती है। पर यह स्पष्ट होता गया कि विरोधी धारणाओं के अपने-अपने तर्क होते हैं और तर्कशील सोच हमें सही या ग़लत दोनों तरह के निष्कर्षों पर ले जा सकती है। मेरी अपनी तर्कशीलता मुझे बतलाती है कि राष्ट्रवाद, सांप्रदायिकता या इंसान को इंसान से बाँटने वाले सिद्धांत मानसिक बीमारियाँ हैं। पर औरों की तर्कशीलता उन्हें यह नहीं, बल्कि इसके विपरीत भी बतला सकती है। बीसवीं सदी के आखिर में यह दिखने लगा कि सिर्फ तर्कशीलता नहीं, बल्कि भावनात्मकता भी सत्य की ओर जाने का एक रास्ता है। जाहिर है कि भावनात्मक होना भी अक्सर हमें ग़लत दिशा में भी धकेलता है, पर कम से कम इतना तो कहा जा सकता है कि भावनात्मकता के साथ हम विरोधी विचारों के लोगों के साथ इंसानी रिश्ते बनाने के काबिल हो सकते हैं और उनकी सोच को जगह देने के काबिल होते हैं और मिलजुलकर आगे बढ़ने की कोशिश कर सकते हैं। असमंजस की स्थिति में समझदारी यह है कि हम उसकी सुनें जो उत्पीड़ित है। बाद में यह निर्णय ग़लत भी निकले तो उससे घबराना नहीं चाहिए, आज तक सामाजिक-राजनैतिक अखाड़ों में जिन निर्णयों को सही माना जाता रहा है, उनमें से अधिकतर बाद में ग़लत साबित हुए हैं।

जिसे आम तौर पर आधुनिकता कहा जाता है, सत्रहवीं सदी के बाद से यूरोप में प्रबोधन-काल(इनलाइटेनमेंट) से आए वैचारिक बदलावों के उस समूह में आधुनिक वैज्ञानिक तर्कशीलता पर जोर बढ़ता रहा। आधुनिक विज्ञान की यह ताकत भी है और कमजोरी भी कि इसमें सिद्धांतत: भावनात्मकता के लिए कोई जगह नहीं है। पर वैज्ञानिक तो आखिर इंसान है, इंसान सामाजिक प्राणी है, इसलिए विज्ञान के पेशे में वे सारे पूर्वग्रह मौजूद हैं, जो वर्ग, जाति, लिंग आदि आधारित भेदभावों से भरे बृहत्तर समाज में है। इसलिए अगर हमारी सोच सिर्फ वैज्ञानिक तर्कशीलता पर आधारित हो और हम भावनात्मक रुप से विज्ञान के पेशे की सीमाओं को नहीं पहचान पाते, तो हम सामाजिक पूर्वग्रहों से कभी मुक्त नहीं हो पाएँगे। यह विरोधाभास सा लगता है, क्योंकि भावनात्मकता से रहित विज्ञान से यह अपेक्षा होती है कि वह हमें सामाजिक पूर्वग्रहों से ऊपर ले जाए, पर ऐसा होता नहीं है। दरअस्ल बौद्धिक कर्म करने वालों की अलग-अलग जमातों में वैज्ञानिक ही संभवत: सबसे अधिक संरक्षणशील होते हैं। इसलिए दुनिया भर में इस बात पर जोर दिया जा रहा है कि उच्च-स्तर पर विज्ञान और तकनीकी शिक्षा लेने वालों को जहाँ तक हो सके समाज-शास्त्र और मानविकी(अदब समेत) भी पढ़ाया जाए। बगैर पर्याप्त भावनात्मक विकास के एक वैज्ञानिक महज एक मशीन है।

यूरोपी आधुनिकता और इसकी तर्कशीलता से जो और बातें आई है, उनमें आधुनिक'राष्ट्र'की धारणा प्रमुख है। यह एक ऐसी अजीब धारणा है, जो हमें अपने ही अंदर दुश्मन ढूँढने को कहती है। जो भी मुख्यधारा की भाषा, संस्कृति, मजहब का नहीं है, वह मेरा दुश्मन है। राष्ट्र की यह धारणा हमारी इंसानियत को बड़ी तेजी से खत्म करती है। यह कहा जा सकता है कि आज समूची दुनिया में हर मुल्क के लोग इस आधुनिक बीमारी से ग्रस्त हैं। इसलिए एक मुल्क का नागरिक दूसरे मुल्क के नागरिकों के साथ भावनात्मक रुप से नहीं जुड़ पाता, यहाँ तक कि अपने ही मुल्क में अल्पसंख्यकों से हम भावनात्मक रुप से नहीं जुड़ पाते। एक दूसरे को मार कर अपने मृत को शहीद और दूसरे को दुश्मन कहते हैं, जबकि सच यह है कि मरने वाले तो मर जाते हैं, उनके बच्चे अनाथ हो जाते हैं। लगता ऐसा है कि लोग भावनात्मकता में बह जा रहे हैं, पर दरअस्ल होता यह है कि राष्ट्र आधारित तर्कशीलता हमारे भावनात्मक अस्तित्व को खा चुकी होती है। इसका फायदा उठाकर मुनाफाखोर पूँजीपति और फिरकापरस्त राजनैतिक गुटबंदियाँ अपना स्वार्थ सिद्ध करती हैं। सरकारें जनता को भूखी और ग़रीबी की हालत में रखे अरबों-खरबों के शस्त्र खरीद कर जंग की तैयारी और दमन-तंत्र को मजबूत करती हैं।


इतना तो कहा ही जा सकता है कि सामाजिक सह-अस्तित्व का मनोविज्ञान जटिल है। इस जटिलता में हमारी भागीदारी क्या और कितनी है, हम यह समझ लें तो गैर-बराबरी की इस दुनिया में हम अपनी मुक्ति की ओर बढ़ सकते हैं। और दूसरी ओर जो विस्फोट हैं, उनको झेलने की ताकत हममें हो, इसकी कोशिश हम कर सकते हैं। अपनी मुक्ति के बिना किसी और की मुक्ति का सपना कोई अर्थ नहीं रखता। इसलिए आधुनिकता के उन पक्षों को जो हमें सत्ता और समाज पर सवाल खड़े करने की ताकत देते हैं, उनको पहचानने, जानने और अपनाने की ज़रूरत है। इस प्रतिरोधी प्रवृत्ति का भी एक भावनात्मक पक्ष हैजिसे हमें मजबूत करना होगा। उमर खालिद इसी प्रतिरोधी प्रवृत्ति का नायक है, और बस में भरी भीड़ की हिंसक मानसिकता के खिलाफ खड़ी होती युवा स्त्री भी।
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लाल्टू 
संपर्क : laltu10@gmail.com

दो ख़त कश्मीर से

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बुरहान वानी के एनकाउंटर के बाद क्श्मीर में भारतीय सेना और भारत सरकार के खिलाफ प्रदर्शन कर रहे लोगों के नाम मेजर गौरव आर्या ने एक खुला पत्र लिखा था तो उसके जवाब में एक कश्मीरी युवक ने भी खुला पत्र लिखा। दोनों पत्र पढ़िये दिल से भी और दिमाग से भी......काफी कुछ पता चलेगा कि कश्मीर फिर क्यों सुलग उठा. थोड़ा समय देना पड़ेगा इसे पढ़ने के लिए। लेकिन समय दीजिए और पढ़िये. - राजेन्द्र  तिवारी, वरिष्ठ  पत्रकार 



मेजर आर्या का पत्र

‘बुरहान, सेना के ऑपरेशन में तुम्हारे मारे जाने के बाद से अब तक 23 लोगों की जानें गई हैं | मुझे नहीं मालूम कि इनकी जानें क्यों गई |
शायद वो तुम्हारी मौत का बदला लेना चाहते थे और वो तुम्हारी मौत के बाद गहरे सदमें में थे | एक सिपाही को को वैन के साथ नदी में फेंक दिया गया और वो डूब गया | मैं उन मारे गए सारे लोगों के प्रति सहानुभूति रखता हूँ। तुम इसके पात्र हो सकते थे लेकिन इसमें तुम्हारे परिवार का कोई कसूर भी नहीं है |
तुम एक डॉक्टर, इंजिनियर या फिर सॉफ्टवेयर इंजिनियर हो सकते थे लेकिन तुम्हें सोशल मीडिया की लत लग गई जहाँ जल्दी ही प्रसिद्ध होने की लालसा तुम्हारे मन में जाग गई | मैं जानता हूँ कि अब बहुत देर हो चुकी है लेकिन तुमनें अपने भाई के साथ तस्वीरें पोस्ट की | राइफल कंधे पर लेकर जो की एकदम फ़िल्मी था | तस्वीरों में रेडियो सेट और बन्द्कों के साथ तस्वीरें भी थी |
तुम तो उसी दिन मर गए जब तुमने सोशल मीडिया पर ये सब करना शुरू कर दिए | तुमनें कश्मीरी युवकों को भारतीय सैनिकों को मारने के लिए उकसाया | ये सब तुमनें अपने फेसबुक अकाउंट की सेफ्टी की आड़ में किया | तुम्हारी फीमेल फैन फोलोविंग गजब की थी, और तुम सोशल मीडिया में छा रहे थे |
लेकिन कुछ लोग तुम्हे 24 घंटे ट्रैक कर रहे थे जिसकी तुम्हें कोई खबर नहीं थी | तुम 22 साल की उम्र में मारे गए और ना भी मारे गए होते तो 23 की उम्र में मारे जाते | केवल कैलेंडर की तारीख बदलती लेकिन तुम्हारा अंजाम तय था | हिंसा का इरादा रखने वाले का अंजाम यही होना था ।
काश मैं तुमसे मिल पाता और तुमको बता पाता कि हुर्रियत के लोग कैसे कश्मीरी युवाओं को सेना से लड़ने के लिए भेज रहे हैं | ये लोग शेर के सामने मेमनों को भेजकर लड़ाई करना चाहते हैं और खून की होली खेलना चाहते हैं |
हुर्रियत के मुखिया गिलानी के किसी के रिश्तेदार का नाम बताओ जो सेना के खिलाफ लड़ने आया | गिलानी का लड़का नईम पाकिस्तान के रावलपिंडी में डॉक्टर है और ISI के संरक्षण में है | उसका दूसरा लड़का दिल्ली में रहता है जबकि उसकी लड़की राबिया अमरीका में डॉक्टर है |
आसिया अंदराबी और उसकी बहन अपने परिवार सहित मलेशिया में रहते हैं | ये सब कहीं न कहीं कश्मीर से बाहर सुकून से हैं और जिहादी बनाने के लिए दूसरों का इस्तेमाल करते हैं | कश्मीर के लोग गिलानी से नहीं पूछते कि उनके परिवार से कोई बुरहान क्यों नही निकलता |
1400 साल में पहली बार ऐसा हुआ कि चाँद देखने पर नहीं पाक की तरफ देखकर कश्मीर में ईद मनाई गई | पाकिस्तानी मीडिया खुश थी कि भारत के साथ ईद नहीं मनाई गई | इसे वो भारत की अखंडता पर प्रहार बता रहे थे | हुर्रियत के लोगों को कश्मीर और कश्मीरी आवाम की चिंता नहीं है | वो अपने परिवार को सुरक्षित रखकर दूसरों के खून से जिहाद की लड़ाई लड़ने की साजिश करते रहे हैं | हुर्रियत को पता है कि कश्मीर दुनिया भर के लिए चर्चा का विषय है और ये झगड़े की जड़ है | वहीं पाकिस्तान भी इंडियन आर्मी को घाटी में फंसाकर रखने के लिए भरपूर मदद करता रहा है | तुम एक आतंकी और तुमने भी अपने अन्य साथियों की तरह भारत के खिलाफ लड़ना शुरू किया, लेकिन इसका अंजाम तुम्हारे लिए अच्छा नही हुआ |
अगर तुम भारतीय सेना के खिलाफ लड़ रहे हो तो ये जान लो, ’भारतीय सेना तुम्हें जान से मार देगी |’ तुम्हारे समर्थक भी खून चाहते हैं तो खून ही सही |
चियर्स
मेजर गौरव आर्या



मेजर आर्या के नाम कश्मीरी युवक वसीम खान का जवाबी पत्र (हिंदी अनुवादcatchnews.com से साभार)
प्रिय मेजर गौरव आर्या,

मैं एक फ्लाइट में बैठने जा रहा था, जब मुझे आपका पत्र दिखा. अतीत के प्रति ईमानदारी दिखाते हुए कह रहा हूं कि काश मैंने यह पत्र नहीं पढ़ा होता, लेकिन मैं आपका दृष्टिकोण समझने के लिए उतावला था, इसलिए खुद को रोक नहीं सका. मैंने इसे पढ़ डाला. आपके शब्द मेरे साथ रहे और अगले दो घंटों तक मैं उन मसलों के बारे में सोचता रहा जिनके बारे में आपने लिखा था. जैसे-जैसे वक्त गुजरता गया, आपके शब्दों के अर्थ से मेरे दिलोदिमाग पर क्रोधपूर्ण विचार हावी होते चले गये.
मैं उनमें से हरेक मसले पर बात कर सकता हूं लेकिन मेरे विचार में इन सबसे ऊपर एक और मसला है, जो यहां दिख ही नहीं रहा. मैं उसके बारे में बात करना चाहता हूं क्योंकि मैं नहीं चाहता कि अभी जो कुछ कश्मीर में हो रहा है, उस पर मेरे मित्र, खास तौर पर भारत में, गर्व करें. मैं चाहता हूं कि वे पूरा सच जानें क्योंकि आपके खत में आधा सच ही बताया गया है.
मैं अपनी बात यह कहते हुए शुरू करता हूं कि मैं आपकी बात पूरी तरह समझ गया हूं. बुरहान वानी एक हिजबुल कमांडर था. उसने भारतीय सेना को चुनौती दी और उसे उसका नतीजा मिल गया. मैं यह बात समझता हूं और दरअसल एक सैन्य अधिकारी के तौर पर आपके इस दृष्टिकोण का मैं सम्मान भी करता हूं. यह एक युद्ध है. इसमें दो रास्ते नहीं अपनाये जा सकते. इसमें भ्रमित होने की जरूरत नहीं है और यह आपका काम है.
सेना कश्मीर में विद्रोहियों को मारने के लिए ही है और यह पिछले ढाई दशकों से अपना काम कामयाबी के साथ कर रही है. एक सैन्य अधिकारी के तौर पर आपको इस बात पर गर्व की अनुभूति होनी चाहिए और साथ ही बाकी देशवासियों को भी. मैं इसे बीते हुए इतिहास की ओर नहीं ले जाऊंगा और यह बात नहीं कहूंगा कि वहां विद्रोह की स्थिति क्यों है. मुझे लगता है कि आप सभी को इसके बारे में पता है. अगर नहीं पता, तो इसका मतलब यह है कि आप अपनी सुविधा के हिसाब से अनजान बने हुए हैं.
लेकिन मैं एक बात से चिंतित हूं. मुझे ऐसा लग रहा है कि आपने यह पत्र केवल इसलिए नहीं लिखा कि आपको सेना की उपलब्धियों पर गर्व है. आपने यह पत्र उस पलटवार की वजह से लिखा है जो पिछले दिनों में सामने आया है, जिससे कई मौतें हुई हैं और इसने आपको परेशान किया. मौतों ने नहीं, पलटवार ने.
मेजर आर्या आप एक शक्तिशाली सेना का हिस्सा हैं. मेरे ख्याल से दुनिया की पांचवी सबसे मजबूत सेना, लेकिन आप एक बात भूल रहे हैं. सेना की ताकत के अलावा, आप दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र का भी हिस्सा हैं. अगर जम्मू और कश्मीर भारत का ‘अविभाज्य’ अंग है, तो लोकतंत्र के कानून यहां क्यों लागू नहीं होते? आंकड़ों में ऐसा होता है. क्या आपको ऐसा नहीं लगता कि यह पाखंड है?
आपके ही शब्दों के मुताबिक, अगर बुरहान 22 साल की उम्र में बच जाता, तो वह 23 साल की उम्र में मारा जाता. आपको पता है, कुछ अरसा पहले तक मैं उसको जानता तक नहीं था. दरअसल उसकी मौत के बाद मैंने उसके बारे में गूगल पर खोजबीन की और वह मेरे और भारत में मेरे बाकी दोस्तों के लिए पहली बार खबर बना.
साफ तौर पर ऐसा लगता है वह आतंकी इसलिए बना क्योंकि सेना ने उसके सामने उसके भाई को बेहोशी की हालत में मार डाला. शायद यह पहला आघात था.
यह मुझे कुछ याद दिला रहा है. आइए मैं आपको अपने बारे में कुछ बता दूं. जब श्रीनगर में सेना ने मुझे पहली बार पीटा, तब मैं दस साल का था. आप पूछेंगे क्यों? और मेरा जवाब यह है कि मुझे कुछ नहीं पता. सच में मुझे कुछ नहीं पता. मैं सड़क पर जा रहा था और तभी सेना के जवान ने मेरी तलाशी ली, उसके बाद मुझे थप्पड़ मार दिया.
और उसके बाद उसने और उसके बहादुर साथियों ने मुझे लातों से मारा. उस समय सोशल मीडिया जैसी कोई चीज नहीं थी और मैंने उन्हें धमकी नहीं दी थी. आखिरी बात जो मुझे याद थी वह यह थी कि गर्मी में एक दिन मैंने अपने घर के बाहर खड़े एक जवान को पानी पीने के लिए पूछा था.
दूसरी बार जब बीएसएफ ने मुझे पीटा, तब भी मैं दस साल का ही था. तीसरी बार जब सीआरपीएफ ने मुझे पीटा, तब भी मैं दस साल का ही था और अगले पंद्रह-सोलह बार जब भी मुझे पीटा गया, मैं दस साल का ही था. मुझे यह एक वक्त याद है. कुछ सालों के बाद, मुझे एक किनारे आने के लिए कहा गया और जैसे ही मैं कार से बाहर निकला, एक जवान ने मुझे एक तरफ धकेल दिया.
मैंने उससे कहा कि आराम से बात की जा सकती है, लेकिन मेरा वाक्य पूरा भी नहीं हुआ था कि मेरी गरदन पर एक जवान ने बंदूक के कुन्दे से प्रहार कर दिया. मैं गिर पड़ा. यह घटना राजमार्ग पर हो रही थी. मैं जब होश में आया, तो मैंने एक अधिकारी को अपने सामने पाया. मैं उसके पास गया और इस घटना की वजह पूछने की कोशिश की.
इससे पहले कि मैं उसके करीब तक पहुंचता, उसने मुझे वहीं रुकने का इशारा किया. फिर उसने कहा, ‘तुम सब ह****यों के साथ यही करना चाहिए. दफा हो जाओ.’ उसके बाद वह अपने जवानों के साथ जिप्सी में बैठा और निकल गया. मैं वहीं खड़ा रहा और उन्हें जाते हुए देखता रहा. आघात हो चुका था. मैंने उसका नेमप्लेट नहीं देखा, लेकिन उम्मीद करता हूं कि वह आप नहीं रहे होंगे.
अगर आप मेरे दोस्तों से पूछेंगे तो आपको पता चलेगा कि किस तरह मैंने उस घटना या उस तरह की घटनाओं को मैंने अपने ऊपर हावी नहीं होने दिया. उन पिटाइयों के बाद मैंने हिंसा का सहारा नहीं लिया. मैं कई बार आपे से बाहर हो गया, लेकिन मैंने उसे पनपने नहीं दिया.
मैं गलत नहीं हूं अगर मैं आपसे यह कहूं कि हर बार जब भी मुझे पीटा गया, मैं विरोध-प्रदर्शन ही नहीं कर रहा था. मुझे इसलिए पीटा गया कि मैंने यूनिफॉर्म पहने किसी व्यक्ति की ओर देखा और मेरा अंदाजा है कि शायद उसे मुझसे खतरा महसूस हुआ. मेरा विश्वास करिए, मैंने केवल कौतूहलवश उसकी ओर देखा. और उसके बाद मेरा कौतूहल और बढ़ गया.
नब्बे के दशक की शुरुआत में घाटी में आतंकियों की संख्या लगभग 4000 थी. आप सैन्य मुख्यालय के विशेषज्ञ से इस बारे में पूछ सकते हैं. वह इसे सही मानेंगे. आज दक्षिण कश्मीर में आतंकियों की संख्या तकरीबन 66 है, जबकि उत्तर कश्मीर और बाकी घाटी में तकरीबन 40 है.
दूसरी ओर नब्बे के दशक की शुरुआत में वहां सेना के जवानों की संख्या पांच लाख थी, जबकि आज यह सात लाख से थोड़ी अधिक है. विशेषज्ञ इसे भी सही मान लेंगे. तो अगर सेना ने सफलतापूर्वक इतने सारे आतंकियों को मार गिराया है, तो फिर इनकी संख्या बढ़ाने की क्या जरूरत है?
अब हाल में हुई मौतों के बारे में बात करते हैं. एक ऐसी चीज, जिसके कारण मैं काफी परेशान रहता हूं, कश्मीर मसले से भी अधिक. द्विपक्षीय या त्रिपक्षीय वार्ताओं से भी. जिस वजह से मैं आपको यह पत्र लिख रहा हूं.
जब आप सेना में भर्ती हुए, तब आप एक ग्रेजुएट थे. उसके बाद आप प्रतिष्ठित भारतीय सैन्य अकादमी में गये और वहां से एक सभ्य सुसंस्कृत अधिकारी के रूप में बाहर निकले. मैं भी आईएमए गया हूं और मैं भी प्रभावित हुए बिना नहीं रह सका.
मेरे भी सेना में दस से अधिक मित्र हैं. मेरे कई मित्र सैन्य अधिकारियों के बच्चे हैं और एक बार भी यह विचार मेरे मन में नहीं आया कि सैन्य अधिकारियों के बच्चे होते हुए भी वे सेना में क्यों नहीं गये. मैं आपको यह इसलिए बता रहा हूं क्योंकि हम इस बारे में भ्रमित नहीं हैं कि गिलानी या मीरवाइज उमर के परिवार का कोई व्यक्ति विदेश में क्यों है.
जो कुछ भी कश्मीर में हो रहा है, उससे इसका कोई संबंध नहीं है या है? क्या आप वाकई ऐसा सोचते हैं कि उन लोगों ने इन मौतों को रोकने के लिए कुछ कर लिया होता? मैं इस बातचीत में हुर्रियत, जिहाद और अल्लाह जैसे शब्द इस्तेमाल नहीं करना चाहता और केवल इन मौतों के बारे में बात करना चाहता हूं जो छोटे बच्चों पर सशक्त सेना के ताकत के इस्तेमाल से हुई है.

मान लीजिए, अगर मैं आज दिल्ली में विरोध-प्रदर्शन करूं, तो क्या वहां भी मुझे गोली मार दी जायेगी? सैन्य बल मुझ पर किस तरह का बल प्रयोग करेंगे? शायद पानी के फव्वारे?
मान लीजिए, मैं आपा खो बैठता हूं और उनसे मारपीट करने लगता हूं, तो वे किस तरह का बल प्रयोग करेंगे? शायद लाठी. मान लीजिए मैं उन पर पत्थर फेंकने लगता हूं, तो वे मुझे पर किस तरह का बल प्रयोग करेंगे? आंसू गैस? और आखिरकार अगर मैं उन्मादी की तरह व्यवहार करने लगूं, क्योंकि मैं खुद को उत्पीड़ित महसूस करता हूं, तो क्या मुझे गोली मार दी जायेगी? दिल्ली या मुंबई में- नहीं. कश्मीर में- हां.
मैं शक्ति या बल के बारे में आपसे बहस नहीं करना चाहता. सही या गलत के बारे में भी नहीं. मैं आपको केवल यह बताना चाहता हूं कि आपके शब्द “हम तुम्हें गोली मार देंगे” मेरे दिमाग में खलबली मचा रहे हैं. और यह खौफनाक है. यह खौफनाक है क्योंकि यह विद्रोहियों, आतंकियों या दहशतगर्दों तक सीमित नहीं है. मैंने आपको चुनौती तक नहीं दी है, लेकिन आप हम सबको डरा रहे हैं.
इस बिन्दु पर मैं यह भी स्वीकार करूंगा कि मुझे ऐसा लग रहा है कि सबके लिए इसी तरह से सोचा जाता होगा. बिना हथियार वाले एक दस साल के बच्चे के लिए भी. डियर मेजर आर्या, इसमें बहादुरी की कोई बात नहीं है.
उनको अंधा बना देने में बहादुरी नहीं है. उन्हें अपाहिज बना देने में बहादुरी नहीं है. उनको मार डालने में भी निश्चय ही कोई बहादुरी नहीं है. आप अपने ऊंचे घोड़ों से उतरिये और उन्हें एक इंसान के तौर पर देखिए.
मैं उम्मीद करता हूं कि इस पत्र का आप पर कुछ प्रभाव होगा ताकि आप इन बातों को एक सहज दृष्टिकोण से देख सकें. मैं उम्मीद करता हूं कि आप मेरे बगल में आकर बैठिए और मेरी आंखों में देखते हुए कहिए कि वाकई इसमें कोई बहादुरी या खूबी जैसी बात है.
अभी हाल ही में आपकी सेना के एक जवान की जाति की वजह से उसके दाह संस्कार के लिए जमीन देने से मना कर दिया गया. उसके बलिदान का क्या हुआ? क्या उसकी शहादत बेकार चली गई?
आप एक आर्मी अधिकारी हैं. मैं एक आम नागरिक हूं. हममें से कोई भी राजनेता नहीं है और हमें वोटों की जरूरत नहीं है. ऐसे में बेहतर यही है कि हम ईमानदार बनें और उनको बचाएं, जिनको बचा सकते हैं.
और अंत में, मुझे गलत मत समझियेगा. मुझे लगता है कि आपका पत्र पढ़ने के बाद भी अगर किसी बच्चे को देशभक्ति और राष्ट्रवाद के नाम पर मार दिया गया, तो इसका मतलब यही होगा कि आपने भला कम और अहित अधिक किया है.
हस्ताक्षर
कोई भी आम कश्मीरी

कश्मीर : एक संक्षिप्त इतिहास

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  • ---अशोक कुमार पाण्डेय 


कश्मीर भारतीय उपमहाद्वीप का वह इकलौता क्षेत्र है जिसका इतिहास लिखित रूप में अबाध, श्रेणीबद्ध और उपलब्ध है.[1]कल्हण द्वारा लिखी गई “राजतरंगिणी” कश्मीर के राजवंशों और राजाओं का प्रमाणिक दस्तावेज़ है जिसमें उन्होंने 1184 ईसापूर्व के राजा गोनंद  से लेकर अपने समकालीन राजा विजयसिम्हा (1129 ईसवी) तक का कालानुक्रमिक वर्णन दर्ज किया है. कश्मीर में इतिहास लेखन की परम्परा कल्हण के बाद भी फली फूली. पंद्रहवीं सदी में जोनाराजा ने “द्वितीय राजतरंगिणी” लिखी जिसे उन्होंने वहां से शुरू किया जहाँ कल्हण ने अपनी पुस्तक समाप्त की थी और इसे जैन-उल-आब्दीन तक लेकर आये. हालाँकि जैन-उल-आब्दीन के जीवनकाल में ही जोनाराजा गुज़र गए तो उनके काम को उनके शिष्य पंडित श्रीवर ने 1486 में फाह शाह के गद्दीनशीन होने तक बढ़ाया. इसके बाद प्राज्ञ भट्ट ने “राजावलीपतक” लिखी जो 1588 में अकबर के आधिपत्य तक का इतिहास है.[2]इसके अलावा फ़ारसी विद्वानों ने भी समकालीन इतिहास पर महत्त्वपूर्ण किताबें लिखी हैं.

कश्मीर के उद्भव का वर्णन नीलमत पुराण में  है जिसके अनुसार कल्प के आरंभ में घाटी कई सौ फीट गहरी सतीसर नामक झील थी जिसमें जलोद्भव नामक एक राक्षस रहता था. उसने झील के रक्षक नागों को आतंकित किया हुआ था. सातवें मनु के समय नागकुल के गुरु कश्यप मुनि जब हिमालय की तीर्थयात्रा पर आये तो उन्होंने जलोद्भव के अत्याचारों के बारे में ब्रह्मा से शिकायत की. ब्रह्मा के आदेश पर देवताओं ने झील को घेर लिया. लेकिन जलोद्भव को यह वरदान प्राप्त था कि जब तक वह जल में रहेगा उसे कोई मार नहीं सकेगा. जलोद्भव को जल से बाहर करने के लिए विष्णु ने अपने बड़े भाई बलभद्र को बुलाया और उन्होंने अपने हल से झील के चारों तरफ स्थित बारामूला (वाराह मूल) की पहाड़ियों में एक गोल छेद बना दिया जिससे झील का सारा पानी बह गया. इसके बाद विष्णु ने अपने चक्र से जलोद्भव की गर्दन काट दी और कश्यप मुनि इस सूखी घाटी में बस गए. कश्मीर का नाम (पहले कश्यपमार, फिर कश्मार और अंततः कश्मीर)[3]  इन्हीं कश्यप ऋषि के नाम पर पड़ा.  आश्चर्यजनक है कि भू विज्ञानियों ने अपने शोध में पाया कि वास्तव में यहाँ एक बड़ी झील थी जो बर्फ युग के बाद के एक बड़े भूकंप में पहाड़ों के धँसने से हुए छिद्र से बह गई और यह हरी-भरी घाटी अस्तित्व में आई.[4]श्रीनगर के पास हुई एक खुदाई में यहाँ पर 2000 वर्ष पहले मनुष्यों के निवास के अपुष्ट प्रमाण मिले हैं. नाग, पिशाच और यक्ष यहाँ के सबसे पहले निवासी माने जाते हैं जिसके बाद खस,डार,भट्ट,डामर,निषाद, तान्त्रिन आदि क़बीलों ने प्रवेश किया. नीलमत पुराण की इस कहानी का एक आधार 800 ईसा पूर्व आये आर्यों और स्थानीय निवासियों के बीच का संघर्ष भी हो सकता है. संभव है कि लोहे का उपयोग सीख चुके आर्यों ने पत्थरों में छेद कर झील को सुखा दिया हो और नागों का वहां रहना मुश्किल कर इलाक़े पर अपना कब्ज़ा कर लिया हो.[5]नाग क़बीले के लोग सांस्कृतिक रूप से बेहद समृद्ध थे. सांख्य दर्शन के प्रणेता कपिल इसी वंश के थे. यह भी माना जाता है कि प्रसिद्ध बौद्ध विद्वान नागार्जुन और नागबुधि भी नाग वंश से ही ताल्लुक रखते थे. कश्मीर के इन मूल निवासियों ने आर्यों के आने के बाद अपनी हार के साथ-साथ वैदिक धर्म अपना लिया और बाद में जब बौद्ध धर्म आया तो इनमें से अधिकाँश ने बौद्ध धर्म अपनाया.[6]आमतौर पर मान्यता है कि आर्यों की एक शाखा ओक्जस (वर्तमान में तजिकिस्तान, अफगानिस्तान,तुर्कमेनिस्तान और उज्बेकिस्तान से बहने वाली अमू दरिया) और जैक्सेरेट्स (वर्तमान में किर्गिस्तान के त्यान शान पर्वत से निकल कर दक्षिण कज़ाकस्तान से होकर अराल नदी में मिलने वाली सिर दरिया) की ओर जाते हुए अपने अपने साथियों से अलग होकर कश्मीर में बस गई थी.[7]हालाँकि कल्हण के अनुसार गोनंद कृष्ण का समकालीन था और  उनके शत्रु मगध के राजा जरासंध  का रिश्तेदार. कृष्ण के ख़िलाफ़ युद्ध में उसने जरासंध का साथ दिया और मारा गया. उसके बाद कश्मीर का सिंहासन उसके पुत्र दामोदर[8]को मिला. जब उसने सुना कि यादव उसके राज्य के निकट गांधार में स्वयंवर में भाग लेने आ रहे हैं तो वह अपने पिता की मृत्यु का बदला लेने निकल पड़ा और अंततः कृष्ण ने सुदर्शन चक्र से उसकी गर्दन उड़ा दी. उस समय उसकी पत्नी यशोवती गर्भवती थी और दरबारियों ने उसे रानी मानने से इंकार कर दिया. तब कृष्ण ने स्वयं हस्तक्षेप कर कहा कि “कश्मीर की धरती पार्वती है ; इसलिए इसका राजा स्वयं शिव का एक अंश है. उसका अपमान किसी हाल में नहीं होना चाहिए, तब भी नहीं जब वह बुद्धिमान व्यक्तियों के कल्याण में बाधा उत्पन्न करे”[9]फिर समय आने पर रानी ने पुत्र को जन्म दिया और वह गोनंद द्वितीय के नाम से कृष्ण की सरपरस्ती में सिंहासन पर बैठा. जब कौरव पांडव युद्ध हुआ तो अपने अल्पवय के कारण उसे किसी भी पक्ष से लड़ने के लिए आमंत्रित नहीं किया गया[10]. देखा जाए तो महाभारत काल से कश्मीर के इतिहास को जोड़ने के पीछे ऐतिहासिकता कम और इसे एक पौराणिक वैधता दिलाना अधिक लगता है.

कश्मीर  में  बौद्ध  धर्म

कश्मीर का प्रमाणिक इतिहास मौर्य वंश के प्रसिद्ध सम्राट अशोक (273 से 232 ईसापूर्व) के कश्मीर पर अधिकार से आरम्भ होता है. कल्हण बताते हैं कि उसने ही 96 लाख घरों वाले भव्य श्रीनगरी को बसाया और वितस्त तथा सुस्क्लेत्र में बौद्ध विहारों का निर्माण कराया.उसने पाटलिपुत्र में हुए महासंगीति (महासभा) ने मझ्झंतिका के नेतृत्व में पांच सौ बौद्ध भिक्षुओं को कश्मीर घाटी और गांधार में बौद्ध धर्म के प्रचार के लिए भेजा था. लेकिन अशोक के बाद वहां शासन में आये उसके पुत्र की आस्था शैव धर्म में थी. कश्मीर में राज्याश्रित बौद्ध धर्म की वापसी कोई दो सदी बाद कुषाण वंश के शासक कनिष्क के शासन काल में हुई. हूणों से पराजित हो चीन की सीमाओं पर स्थित अपने मूल निवास स्थान से विस्थापित होकर यह घुमंतू जाति (यू ची) ईसापूर्व पंद्रहवीं शताब्दी में काबुल की घाटी में बस गई थी. कुषाण इसी के एक क़बीले थे जिन्होंने बाद में अफगानिस्तान से उत्तर भारत के एक बड़े भूभाग पर कब्ज़ा कर लिया था. कनिष्क इस वंश का चौथा शासक था जिसका शासन बंगाल से ओक्जस नदी तक विस्तृत था. उसने न केवल एक विस्तृत भूभाग में अपना राज्य स्थापित किया बल्कि कई महत्त्वपूर्ण निर्माण भी कराये. कनिष्क ने सर्वस्तिवाद की विभिन्न पुस्तकों और यत्र तत्र फैले विचारों को एक साथ रखकर उसका व्यापक आधार निर्मित करने के उद्देश्य से श्रीनगर के कुंडल वन विहार में प्रसिद्ध बौद्ध विद्वान वसुमित्र की अध्यक्षता में सर्वस्तिवाद परम्परा की चौथी बौद्ध महासंगीति का आयोजन किया जिसमें सर्वस्तिवाद के तीन प्रमुख ग्रन्थ लिखे गए. इनमें से एक “महा विभास शास्त्र” अब भी चीनी भाषा में उपलब्ध है.[11]

अभिनव गुप्त 


आठवीं-नौवीं शताब्दी में कश्मीर में शैव दर्शन विकसित हुआ. यह शैव सिद्धांत प्रत्यभिज्ञा या त्रिक दर्शन कहलाता है जिसके सबसे उद्भट विद्वान अभिनव गुप्त का जन्म 950-960 ईस्वी के बीच हुआ था. उनकी पुस्तक ‘तन्त्रलोक’ एकेश्वरवादी दर्शन की इनसाइक्लोपीडिया मानी जाती है. उन्होंने कुल 50 पुस्तकें लिखी थीं लेकिन आज कुल 44 पुस्तकें उपलब्ध हैं जिनमें तन्त्रलोक के अलावा ‘तंत्रसार’ और ‘परमार्थ सार’ उल्लेखनीय  हैं. वह शैव दर्शन में आभासवाद के प्रणेता माने जाते हैं जिसमें उन्होंने ‘कुल’ और ‘कर्म’ की व्यवस्थाएं दीं.[12]उन्होंने दर्शन के अलावा व्याकरण, नाट्यशास्त्र और काव्यशास्त्र का विशेष अध्ययन किया था और भरतमुनि के नाट्यशास्त्र पर एक टीका भी लिखी थी. उन्हें रस सिद्धांत का प्रणेता माना जाता है. अभिनवगुप्त के शिष्य क्षेमेन्द्र संस्कृत के अत्यंत प्रतिष्ठित कवि थे जिन्होंने अपने गुरु का काम आगे बढ़ाते हुए “प्रत्याभिज्ञान हृदय’ में अद्वैत शैव परम्परा के ग्रंथों का सहज विश्लेषण प्रस्तुत किया तथा तांत्रिक परम्परा पर कई सुदीर्घ भाष्य भी लिखे. कश्मीर में विकसित इस दर्शन ने पूरे दक्षिण एशिया की शैव परम्परा पर गहरा प्रभाव डाला. नौवीं से बारहवीं सदी के बीच बौद्ध धर्म का प्रभाव क्षीण होता गया और शैव दर्शन कश्मीर का सबसे प्रभावी दर्शन बन गया.[13]


शैव धर्म का  प्रभाव

कश्मीर के इतिहास में कनिष्क के बाद सबसे प्रभावी राजा था मिहिरकुल जो साकल (आज का सियालकोट) का हूण राजा था. उसने मालवा के राजा यशोवर्मन और मगध के राजा बालादित्य से मिली पराजय के बाद कश्मीर में शरण ली. उसकी क्रूरता के कारण कल्हण ने उसे  हिंसक म्लेच्छ, यमराज  के समतुल्य और ज़िंदा बेताल कहा है जिसके आने का पता उसके आगे आगे चलते कौओं और गिद्धों से चलता था. इसकाका अंदाज़ एक घटना से लगाया जा सकता है जिसमें एक युद्ध से लौटते हुए पीर पंजाल दर्रे के पास जब उसकी सेना का एक हाथी खाई में गिर गया तो  हाथी की करुण पुकार सुनकर मिहिरकुल को इतना रोमांच हुआ कि उसने एक के बाद एक सौ हाथियों को खाई में गिरवा दिया. लेकिन उसने समय के अनुरूप शैव धर्म अपना कर उसने ब्राह्मणों को अपने पक्ष में कर लिया था. कश्मीर का एक और प्रतापी राजा कार्कोट वंश का ललितादित्य मुक्तपीड़( सन 724- सन 761) था जिसके राज्य को कश्मीर में स्वर्ण युग कहा जाता है. गुप्त साम्राज्य के पतन के बाद अस्त-व्यस्त पड़े उत्तर भारत, दक्कन के रजवाड़ों में आतंरिक संघर्ष और कश्मीर के पश्चिम में पसरे राजनीतिक शून्य का  फायदा उठा कर उसने अपने राज्य का खूब विस्तार किया. वह बेहद कुशल और  सहिष्णु प्रशासक था जिसने जिसका राज्यकाल “कश्मीरी बौद्ध युग का स्वर्ण काल” कहा जाता है.[14]उसकी सेना के सेनापति और कई प्रमुख मंत्री बौद्ध थे. चाहे कोई भी युग रहा हो, धार्मिक सहिष्णुता हमेशा राज्य की शान्ति, समृद्धि और खुशहाली के मूल में रही है. उसकी मृत्यु के बाद कार्कोट वंश का पतन शुरू हो गया. राजा की उपपत्नी और भतीजे आदि के बीच चले सत्ता संघर्ष में यह वंश समाप्त हो गया.


हिन्दू राजाओं का पतन काल

अवन्तिवर्मन कश्मीर का एक और योग्य शासक था जिसने चौपट हो चुकी राज्यव्यवस्था तथा अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाने के लिए अथक प्रयास  किये. उसने बलिप्रथा तथा जीव हत्या पर रोक लगा दी. इस  समय  कश्मीर में हिन्दू धर्म पूरी तरह से प्रभावी हो चुका था और बौद्ध धर्म की चमक खो गई थी. 883 ईसवी में उसकी मृत्यु के बाद ही का समय हिन्दू राजाओं के चारित्रिक पतन का  है. सुरा-सुंदरी के प्रभाव में ऐसे ऐसे राजा हुए जिन्होंने अपने सगे बेटों के साथ सत्ता संघर्ष किये. अर्थव्यवस्था चौपट हो गई तथा जनता त्राहि माम करने लगी. ऐसे ही एक राजा क्षेमेन्द्र गुप्त का राज्यकाल पतन की पराकाष्ठा का काल था. क्षेमेन्द्र शराब और कामक्रीड़ा से जब मुक्त होता था तो विद्वानों के अपमान और किसानों के उत्पीडन के नए नए तरीके ढूंढता था. हालत यहकि उसके मंत्री उसे अपने घर पर आमंत्रित कर अपनी पत्नियाँ प्रस्तुत करते थे और वह इसके बदले उन्हें ईनाम-इक़राम दिया करता था. वह अपनी रानी दिद्दा पर इस कदर निर्भर था कि उसेदिद्दाक्षेम कहा जाने लगा था. राजा की मृत्यु के बाद उसने 958 ईसवी में रानी ने अपने अल्पवयस्क पुत्र अभिमन्यु को गद्दी पर बिठाया और ख़ुद शासन सम्भाला. वह अपने समय के किसी भी अन्य राजा की तरह ही चालाक और क्रूर थी. उसने अनेकों प्रेम सम्बन्ध बनाए और उसका उपयोग अपने शासन को सुरक्षित रखने में किया. जब वे उसके लिए ख़तरा बने या अनुपयोगी हुए तो दिद्दा ने उन्हें रास्ते से हटा दिया.उसकी सबसे क्रूर कार्यवाही अभिमन्यु की मृत्यु के बाद एक के बाद एक अभिमन्यु के तीन पुत्रों की हत्या करवाना थी. जहाँ पहले दो, नंदिगुप्ता और त्रिभुवन को उनके शासन के पहले और दूसरे साल में ही जादू टोने से मार दिया गया वहीँ भीमगुप्त ने पांच साल शासन किया और जब उसने अपनी दादी और उसके नए प्रेमी तुंग के अनाचारों के ख़िलाफ़ क़दम उठाये तो उसे पहले गिरफ़्तार किया गया और फिर खुलेआम हत्या कर 981 ईस्वी में दिद्दा ख़ुद गद्दीनशीन  हुई. तुंग खस कबीले का था और अपने भाइयों के साथ बैल चराने आया था. उसने दरबार में चिट्ठियां पहुंचाने का काम हासिल कर लिया था. दिद्दा की उस पर नज़र पड़ी और जल्द  ही वह उसका प्रिय बन गया. दिद्दा के तत्कालीन प्रेमी भूय्या की हत्या कर तुंगसबसे शक्तिशाली मंत्री बन गया. अपने सभी उत्तराधिकारियों की हत्या कर चुकी दिद्दा ने अपने भाई उदयराज के पुत्र संग्रामराजा  को अपना उत्तराधिकारी घोषित कियाऔर 1003  ईस्वी  में  दिद्दा की मृत्यु के साथ  लोहार वंश का शासन आरम्भ हुआ.  
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उसके बाद के राजाओं में प्रमुख नाम हर्ष का है जिसे मंदिरों को तोड़ने और लूटने के संदर्भ में विशेष रूप से याद किया जाता है. कल्हण ने उसका वर्णन करते हुए भयानक घृणा का प्रदर्शन किया है. हर्ष का व्यक्तित्व विद्वत्ता और दुराचार जैसे विरुद्धों का अजीब समन्वय था. एक तरफ वह सुन्दर गीतों का रचनाकार था, संगीत और कला का ज्ञाता था, न्यायप्रिय था, समन्वयवादी था तो दूसरी तरफ स्वेच्छाचारी, क्रूर और चरित्रहीन था. आरंभ में उसका शासन बहुत लोकप्रिय हुआ लेकिन बाद में वह लगातार पतन के गर्त में जाता गया. वह खुले दिमाग का था. तुर्क तब तक कश्मीर में आ चुके थे और उसने न केवल उनकी संस्कृति से बहुत कुछ अपनाया बल्कि उनकी सैन्य रणनीतियों को भी अपने दरबार में शामिल किया और गुलाम तुर्की स्त्रियों को अपने हरम में. हर्ष ने तमाम युद्ध किये और इनमें से अधिकतर में हार का सामना किया. इन  सबके साथ अय्याशी  उसे परम्परा में मिली थी. कामपिपासा में उसने अपने परिवार की स्त्रियों तक को नहीं बख्शा और वेश्याएं तो खैर थी हीं. ज़ाहिर है इन बढ़ते ख़र्चों को पूरा करने के लिए अकूत धन की ज़रुरत पड़ती. यह  धन अन्धान्धुध करारोपण से हासिल किया गया. यहाँ तक कि मल त्याग पर भी कर लगा दिया गया था![15]जनता में त्राहि त्राहि मच गई. उसने मंदिरों और देवालयों को भी लूटा. बहुत संभव है ऐसा धन के लिए ही किया गया हो[16]. मंदिर उस  समय धन  सम्पत्ति का केंद्र थे और राजाओं की गरिमा तथा शक्ति के प्रतीक. उन्होंने कभी  खुद को अमर करने के लिए तो कभी अपनी हिंसा और अनाचार को छिपाने के लिए एक तरफ पंडितों को दान दिए थे तो दूसरी तरफ मंदिर बनवाये थे जिनमें सोना-चांदी और दूसरी कीमती धातुएं लगीं थीं. मंदिरों की उसकी लूट को कुछ लोगों ने तुर्कों के प्रभाव से जोड़ा है, लेकिन न केवल कश्मीर बल्कि देश के अन्य कई भागों में मंदिरों के लूट के कारण केवल साम्प्रदायिक नहीं थे.[17]

1128 ईसवी में गद्दीनशीन हुए जयसिम्हा का लगभग 28 वर्षों का राज्य ललितादित्य और अवन्तिवर्मन की कड़ी में कश्मीर के बेहतर वक्तों की तरह याद किया जाता है. कल्हण इन्हीं के दरबार में थे. लेकिन इस छोटे से अंतराल के बावजूद कश्मीर में जो पतन जारी था वह बदस्तूर चलता रहा. 1171-1286  तक चले बोपादेव वंश के राज्य में या फिर उसके बाद स्थापित हुए डामर वंश में कुछ भी ऐसा नहीं बदला जो सड़ चुकी राज व्यवस्था में कोई बड़ा परिवर्तन लाता. नैतिक, आर्थिक, सामाजिक और राजनैतिक पतन कश्मीर के इतिहास का हिस्सा बन चुके थे.

जर्जर हो चुके कश्मीरी राज्य पर जब मंगोल आक्रान्ता दुलचा (ज़ुल्जू)  ने बारामूला दर्रे की ओर से आक्रमण किया तो डामर वंश के राजा सहदेव ने उसका सामना करने की जगह उसे रिश्वत देने की कोशिश की. नाक़ामयाब होने पर सहदेव किश्तवार भाग गया. मंगोल सैनिकों ने आठ महीनों तक सोना-चाँदी, अनाज लूटने के बाद कश्मीर की अरक्षित महिलाओं को अपना शिकार बनाया. खेत जला दिए गए, घर लूट लिए गए, जवान पुरुष और बच्चे या तो मार दिए गए या ग़ुलाम बना लिए गए. कश्मीर घाटी पूरी तरह से तहस नहस हो गई. सेनापति रामचंद्र ने ख़ुद और अपने परिवार सहित विश्वस्त सैनिकों तथा अनुचरों को किले के भीतर क़ैद कर लिया था. आठ महीने बाद जब वहाँ सब नष्ट हो चुका था और लूटने के लिए कुछ नहीं बचा तो दुल्चा वापस जाने का निर्णय लिया. उसके सहयोगियों ने बारामूला और पाखली के उसी रास्ते से लौटने की सलाह दी जिससे वे आये थे, पर दुलचा ने स्थानीय क़ैदियों से सबसे छोटे रास्ते के बारे में पूछा. कहते हैं कि दुलचा से उसकी ज़्यादतियों का बदला लेने के लिए उन्होंने जान बूझकर सबसे ख़तरनाक रास्ते, बनिहाल दर्रे से जाने का सुझाव दिया और लौटते हुए दुलचा दिवासर परगना की चोटी के पास अपने सैनिकों, क़ैदियों और लूट के सामान के साथ बर्फ में दफ़न हो गया.[18] 

इस पूरी विपत्ति में घाटी के निवासियों के मददगार बनकर आये शाह मीर और रिंचन. रामदेव की पुत्री कोटा के साथ मिलकर उन्होंने जितना थोड़ा बहुत संभव हो सका प्रतिरोध भी किया और सहायता भी. रिंचन कोटा से प्रेम में पड़ गया और कोटा ने भी उसे स्वीकृति दी. रिंचन (ला चेन रिग्याल बू रिन चेन) बौद्ध था जो कुबलाई खान की मौत के बाद लद्दाख में मची अफरातफरी में अपने पिता और वहां कुबलाई खान के प्रतिनिधि लाचेन की हत्या के बाद अपनी छोटी सी सेना के साथ जो-ज़िला दर्रे से सोनमर्ग घाटी पार कर गंगागीर में सेनापति रामचंद्र के महल में शरणागत हुआ था. शाह मीर स्वात घाटी का निवासी था और कहा जाता है कि एक रात उसे ख़्वाब आया कि वह कश्मीर का राजा बनेगा तो इस बिना पर वह सपरिवार श्रीनगर पहुँच गया  और राजा के दरबार में उसने रामचंद्र से निकटता बनाई. राजा  सहदेव ने उसे बारामूला के पास एक गाँव दावर कुनैल की जागीर दे दी थी.[19]कालान्तर में रिंचन और शाह मीर अच्छे मित्र बन गए.[20]

दुलचा के जाने के बाद सहदेव लौटा तो उसने किश्तवार के गद्दी क़बीले के साथ श्रीनगर पर कब्ज़े की कोशिश की लेकिन रामचन्द्र ने खुद को राजा घोषित कर दिया. उसने लार के अपने किले से उतर अंदरकोट पर कब्ज़ा कर लिया और सहदेव की सेना को हरा कर सत्ता पर कब्ज़ा कर लिया. भय से पहाड़ों में जा छिपी जनता जब वापस लौटी तो राजा के लिए उसके मन में कोई सम्मान शेष न था. चारों ओर त्राहि-त्राहि सी मची थी. हालत यह कि पहाड़ी क़बीलों ने इसी बीच हमला कर दिया और बचा-खुचा लूटने के साथ कई लोगों को दास बनाकर ले गए और इन सबके परिणामस्वरूप अकाल की स्थिति पैदा हो गई. जनता की रक्षा के लिए वहां कोई नहीं था. उन्होंने खुद अपनी सेनायें बनाकर इन क़बीलों का सामना किया. रिंचन ने इसका पूरा फ़ायदा उठाया. पहले तो उसने जनता का साथ दिया और फिर शाह मीर तथा अपनी लद्दाखी सेना की सहायता से सैनिकों को वस्त्र व्यापारी के रूप में धीरे धीरे महल के अन्दर भेज कर उचित समय पर महल पर हमला कर रामचंद्र की हत्या कर दी. मौक़े की नज़ाकत को देखते हुए कोटा ने पिता की हत्या को महत्त्व देने की जगह कश्मीर की महारानी के पद को महत्त्व दिया और 6 अक्टूबर 1320  को रिंचन जब कश्मीर की गद्दी पर बैठा तो कोटा उसकी महारानी के रूप में उसके बगल में बैठी. रिंचन ने अपने रामचंद्र के पुत्र रावणचन्द्र को रैना की उपाधि देकर लार परगना और लद्दाख की जागीर दे दी और इस तरह उसे अपना मित्र बना लिया.
                                                            

कश्मीर में इस्लाम

दुलचा के जाने के बाद सहदेव लौटा तो उसने किश्तवार के गद्दी क़बीले के साथ श्रीनगर पर कब्ज़े की कोशिश की लेकिन रामचन्द्र ने खुद को राजा घोषित कर दिया. उसने लार के अपने किले से उतर अंदरकोट पर कब्ज़ा कर लिया और सहदेव की सेना को हरा कर सत्ता पर कब्ज़ा कर लिया. भय से पहाड़ों में जा छिपी जनता जब वापस लौटी तो राजा के लिए उसके मन में कोई सम्मान शेष न था. चारों ओर त्राहि-त्राहि सी मची थी. हालत यह कि पहाड़ी क़बीलों ने इसी बीच हमला कर दिया और बचा-खुचा लूटने के साथ कई लोगों को दास बनाकर ले गए और इन सबके परिणामस्वरूप अकाल की स्थिति पैदा हो गई. जनता की रक्षा के लिए वहां कोई नहीं था. उन्होंने खुद अपनी सेनायें बनाकर इन क़बीलों का सामना किया. रिंचन ने इसका पूरा फ़ायदा उठाया. पहले तो उसने जनता का साथ दिया और फिर शाह मीर तथा अपनी लद्दाखी सेना की सहायता से सैनिकों को वस्त्र व्यापारी के रूप में धीरे धीरे महल के अन्दर भेज कर उचित समय पर महल पर हमला कर रामचंद्र की हत्या कर दी. मौक़े की नज़ाकत को देखते हुए कोटा ने पिता की हत्या को महत्त्व देने की जगह कश्मीर की महारानी के पद को महत्त्व दिया और 6 अक्टूबर 1320  को रिंचन जब कश्मीर की गद्दी पर बैठा तो कोटा उसकी महारानी के रूप में उसके बगल में बैठी. रिंचन ने अपने रामचंद्र के पुत्र रावणचन्द्र को रैना की उपाधि देकर लार परगना और लद्दाख की जागीर दे दी और इस तरह उसे अपना मित्र बना लिया.

जोनाराजा के अनुसार वह हिन्दू धर्म अपनाना चाहता था लेकिन उसके तिब्बती बौद्ध होने के कारण ब्राह्मण देवस्वामी ने उसे शैव धर्म में दीक्षित करने से इंकार कर दिया.[21]. ऐसे में निराश रिंचन को शाहमीर एक सूफ़ी संत बुलबुल शाह के पास ले गया. रिंचन उनसे बहुत प्रभावित हुआ और उसने इस्लाम अपना लिया. लेकिन यूनेस्को द्वारा कराए गए शोध में एन ए बलूच और ए क्यू रफ़ीकी इसे जोनाराजा के दिमाग की उपज मानते हैं. उनके अनुसार एक राजा के रूप में यह उसके लिए कोई समस्या थी ही नहीं. वे उन इस्लामी विद्वानों[1]  के तर्कों को भी खारिज़ करते हैं जिनके अनुसार रिंचन ने तीनो धर्मों के विद्वानों से शास्त्रार्थ के बाद इस्लाम को अपनाया या वह बुलबुल शाह[2]के यहाँ अध्यात्मिक शान्ति से प्रभावित हो मुसलमान बन गया था. उनकी मान्यता है कि रिंचन का इस्लाम अपनाना किसी नैतिक नहीं बल्कि उस राजनीतिक यथार्थ के चलते था जिसमें उसकी स्वीकृति सिर्फ़ इस्लाम मानने वालों में संभव थी जो अब अच्छी संख्या में कश्मीर में आ चुके थे.[22]बौद्ध धर्म तब तक तमाम विकृतियों का शिकार हो हाशिये पर जा चुका था और हिन्दू राजाओं के वंशज अब भी कश्मीर में थे. ऐसे में शाह मीर की सलाह और प्रोत्साहन पर उसने इस्लाम अपनाया. कश्मीरी इतिहास के एक अध्येता अबू-फद्ल-अल्लामी भी रिंचन के इस्लाम स्वीकारने के पीछे शाह मीर की ही भूमिका मानते हैं. रिंचन के इस क़दम को दुनिया के अन्य देशों में इस्लाम के प्रभावी होने से जोड़कर भी देखा जाना चाहिए.[23]रिंचन के बाद कश्मीर में सबसे पहले इस्लाम अपनाने वाला व्यक्ति था उसका साला रावणचन्द्र.[24]

जोनाराजा ने उसके शासन काल को “स्वर्ण युग” कहा है, हालाँकि प्रोफ़ेसर के.एल.भान[25]उस युग को जबरिया धर्म परिवर्तन का युग बताते हैं. बहुत संभव है कि सच्चाई इन दोनों के बीच कहीं हो. तथ्य बताते हैं कि सबसे पहले उसके उन बौद्ध अनुयायियों ने इस्लाम अपनाया जो लद्दाख से ही उसके साथ आये थे. ज़ाहिर है कश्मीर में इस्लाम तलवार के दम पर नहीं आया. हिन्दू राजाओं के शासन काल में जिस तरह का पतन हुआ था जनता उससे त्रस्त थी. अंधाधुंध कर, मंहगाई, मंत्रियों और सामंती प्रभुओं का भ्रष्टाचार, कृषि क्षेत्र तथा व्यापार में भारी गिरावट और भयावह अस्थिरता ने राजाओं पर से जनता का विश्वास उठा दिया था, इसलिए जब रिंचन और उसके बाद के सुल्तानों के समय शान्ति और सुव्यवस्था क़ायम हुई तो जनता की ओर से धर्म के आधार पर कोई प्रतिरोध नहीं हुआ. इन राजाओं ने भी धार्मिक सहिष्णुता का परिचय दिया और सभी धर्मों का सम्मान किया.

लेकिन रिंचन सिर्फ़ तीन वर्ष तक राज्य कर पाया. विद्रोहियों से युद्ध में घायल होकर जब उसकी मृत्यु हुई तो उसका पुत्र हैदर अभी शिशु ही था. शाह मीर और अन्य दरबारियों की सलाह से रानी ने डोल्चा के आक्रमण के बाद से ही स्वात घाटी में रह रहे राजा सहदेव के छोटे भाई उदयनदेव को राजा नियुक्त कराया तथा उससे विवाह कर रानी पद बरक़रार रखा. उदयनदेव एक कमज़ोर राजा था और राज्य का नियंत्रण कोटा देवी के हाथों में आ गया. इसी समय इतिहास ने खुद को दुहराया. एक तुर्क आक्रमणकारी अचल ने घाटी पर आक्रमण किया तो राजा लद्दाख भाग गया. कमान पूरी तरह से रानी और शाह मीर के हाथों में आ गई. उन्होंने चतुराई से चाल चली और अचल को समर्पण का सन्देश भेज दिया. इससे जब वह निश्चिन्त हो गया और उसने सेना का एक हिस्सा वापस भेज दिया तो रानी, उसके भाई रावणचन्द्र, भट्ट भीक्ष्ण और शाह मीर ने सेना एकत्र कर उस पर हमला किया और बुरी तरह परास्त कर गिरफ़्तार कर लिया. बीच चौराहे पर शाह मीर ने अचल का सर धड़ से अलग कर दिया. अब वे जनता के नज़र में नायक थे. लौटने पर उदयन देव को अपनी भाई की नियति तो नहीं मिली लेकिन वह नाममात्र का राजा रह गया. सत्ता का पूरा नियंत्रण रानी कोटा के हाथों में आ गया. 1338  में राजा की मृत्यु के बाद दोनों के बीच सत्ता के लेकर खींचतान शुरू हुई. रानी कोटा ने ख़ुद को साम्राज्ञी घोषित कर दिया और भट्ट भीक्ष्ण को अपना मंत्री घोषित कर राजधानी अंदरकोट में ले गईं. शाहमीर की महत्त्वाकांक्षाएं अब जाग चुकी थीं. उसने गंभीर रूप से बीमार होने का बहाना किया और जब रानी ने भट्ट भीक्ष्ण, अवत्र और अन्य मंत्रियों को उसे  देखने भेजा तो उनकी हत्या कर दी. इसके बाद  शाह मीर ने मानसबल झील के पास राजमहल को घेर लिया और रानी ने आत्मसमर्पण कर दिया. शाह मीर ने विवाह का प्रस्ताव दिया और रानी ने स्वीकार कर लिया. लोक में एक मान्यता है कि रानी ने उसी रात अपनी कटार पेट में भोंक कर आत्महत्या कर ली. लेकिन जोनाराजा ने बताया है कि एक रात रानी के साथ सोने के बाद शाह मीर ने उसे और उसके दोनों पुत्रों को गिरफ़्तार कर अपनी संभावित प्रतिद्वंद्वी को हमेशा के लिए राह से हटा दिया. रानी की मृत्यु 1339 में हुई और उसके बेटों का इतिहास में फिर कोई ज़िक्र नहीं आता. इस तरह कश्मीर में शाह मीर वंश की स्थापना हुई. इस समय तक दरबार में हिन्दू दरबारियों का बाहुल्य था. धर्म परिवर्तन की कोई बड़ी घटना भी इतिहास में नहीं मिलती. ज़्यादातर सुल्तानों की पत्नियाँ हिन्दू राजाओं या दरबारियों की बेटियाँ थीं और दोनों धर्मों के रहन सहन में कोई ख़ास अंतर न था.

शाहमीर वंश के एक सुल्तान शहाबुद्दीन से जुड़े जोनाराजा द्वारा उद्धरित एक किस्से को उनके धार्मिक आचरण को समझ सकते हैं. उसका प्रेम रानी की सगी बहन की लड़की लास्या से हो गया. वह रानी की शिक़ायत करते रहती थी. एक बार उसने कहा कि मंत्री उदयश्री को अपने पक्ष में करके रानी उस पर जादू टोना करवा रही हैं. सुल्तान ने कहा कि उदयश्री तो ईश्वर को मानता ही नहीं है, इसलिए यह संभव नहीं कि वह जादू टोना करे. लास्या के न मानने पर राजा ने उदयश्री को बुलाया और उससे कहा कि खज़ाना ख़ाली हो चुका है इसलिए पीतल की बनी श्री जयेश्वरी की मूर्ति को पिघला कर सिक्के ढलवा दे. इस पर कोई एतराज़ न करते हुए मंत्री ने कहा कि “लेकिन मूर्ति बड़ी हलकी है, बेहतर होता कि बुद्ध की मूर्ति को पिघलाया जाता उससे अधिक सिक्के ढल जाते. अगले दिन जब मंत्री बुद्ध की मूर्ति तोड़ने के लिए तत्पर हुआ तो सुल्तान ने कहा कि “हमारे पुरखों ने प्रसिद्धि और पुण्य कमाने के लिए मूर्तियाँ बनवाई और तुम उन्हें तोड़ने की बात कर रहे हो. कुछ ने ईश्वरों की मूर्तियाँ बनवा कर यश प्राप्त किया, कुछ ने उनकी नियमित पूजा करके तो कुछ ने उनकी देख रेख करके. उन्हें तोड़ना कितना नृशंस कार्य होगा. सागर नदियाँ और समुद्र बनाकर प्रसिद्ध हुए, भागीरथ गंगा को ज़मीन पर लाकर, इंद्र की प्रतिद्वंद्विता में दुष्यंत विश्वविजय करके प्रसिद्ध हुआ, और राजा राम रावण को मार के. अब यह कहा जाएगा कि शहाबुद्दीन ने भगवान की मूर्तियाँ तुड़वाईं? और यम से भयावह यह तथ्य सुनकर लोग भविष्य में काँपेंगे.[26]” हालाँकि कुछ फ़ारसी स्रोतों में उसे मूर्तिभंजक और हिन्दुओं पर अत्याचार करने वाला कहा गया है लेकिन अबुल फज़ल या निज़ामुद्दीन के ब्यौरों में इसका कोई ज़िक्र नहीं मिलता, बल्कि इसके उलट सुलतान द्वारा जीर्ण मंदिरों के पुनरुद्धार और प्रशासन में बराबरी की घोषणा का ज़िक्र मिलता है.[27]जोनाराजा का उल्लिखित विवरण भी इस बात की गवाही नहीं देता. जोनाराजा ने ही आगे बताया है कि सुलतान ने उन विद्रोही हिन्दुओं को माफ़ कर दिया जिन्होंने माफ़ी मांग कर उसकी सरपरस्ती स्वीकार कर ली लेकिन उन मुसलमानों को मरवा दिया जिन्होंने ऐसा नहीं किया.[28]

कश्मीर में इस्लामीकरण की शुरुआत 1379 में कुतुबुद्दीन के शासनकाल में फ़ारसी संत और विद्वान सैयद अली हमदानी का अपने शिष्यों के साथ कश्मीर आगमन से मानी जाती है. सुल्तान ने उनका स्वागत किया श्रीनगर में झेलम के दक्षिणी किनारे पर उन्हें अपना खानकाह बनाने के लिए ज़मीन दी गई और इस तरह खानकाह-ए-मौला के नाम से कश्मीर में पहली खानकाह (सूफ़ी मठ) का निर्माण हुआ. हमदानी ने अपने शागिर्दों को पूरे कश्मीर में धर्म प्रचार के लिए भेजा. साथ ही उसने सुल्तान को शरिया की शिक्षा दी. सुल्तान पर उसके प्रभाव को इससे ही समझा जा सकता है कि उसने  दोनों बहनों में से एक को तलाक़ देकर बड़ी बहन सूरा से फिर से निक़ाह किया. उसके ही प्रभाव में उसने मुस्लिम देशों में पहने जाने वाली वेशभूषा अपनाई और अपने मुकुट के नीचे उसकी दी हुई एक टोपी, क़ुल्लाह-ए-मुबारक़,  पहनने लगा. यह परम्परा तब तक चली जब तक फतह शाह की आख़िरी इच्छा के अनुसार इस टोपी को उनके साथ दफ़ना नहीं दिया गया. सैयद हमदानी के समय तक बलपूर्वक धर्म परिवर्तन के प्रमाण नहीं मिलते. उनका तरीक़ा आध्यात्मिक बहसों और चमत्कारों वाला था. हालाँकि रिज़वी चमत्कार की इन कथाओं को तवज्जो नहीं देते.[29]वह बताते हैं कि सुलतान के प्रभाव का इस्तेमाल करके उन्होंने काली मंदिर को तुड़वा कर अपनी खानकाह का निर्माण करवाया था और उनके शिष्यों ने अन्य कई मंदिरों को ध्वस्त करने तथा बलपूर्वक धर्म परिवर्तन कराने के काम किये थे. उन्होंने एक सुलहनामा भी लिखा था जिसमें सुल्तान के राज्य में रह रहे हिन्दुओं के लिए नए मंदिरों के निर्माण पर रोक, क्षतिग्रस्त मंदिरों के पुनर्निर्माण पर रोक, मुस्लिम व्यापारियों को रुकने के लिए अपने घर उपलब्ध कराना, मंदिरों में सूफ़ी संतों को रुकने की इजाज़त देना, घोड़े पर जीन-काठी सहित सवारी न करने, तलवार-तीर रखने पर पाबंदी, अपने धार्मिक रीति रिवाज़ सार्वजनिक रूप से न करना यहाँ तक कि मृतक का शोक भी ऊंचे स्वर में न मनाना और मुसलमान दास न ख़रीदने जैसी बातें थीं.[30]एम आई खान रिज़वी की बातों को खारिज़ तो करते हैं लेकिन सिवाय इस आरोप के कि उन्होंने उस समय के क्रोनिकल्स को जस का तस स्वीकार कर लिया, कोई और तर्क नहीं देते[31]. परमू यह तो बताते हैं कि हमदानी ने अपनी खानकाह बनाने के लिए झेलम के दक्षिणी किनारे की वह जगह चुनी जहाँ काली मंदिर था, लेकिन मंदिर के ध्वंस का कोई ज़िक्र नहीं करते.[32] कहते हैं उसके हस्तक्षेप से दरबार में हिन्दू दरबारियों के बीच असंतोष फैला तो सुल्तान ने उसकी सारी बातें मानने से इंकार कर दिया और उसे वापस जाना पड़ा. हालाँकि इस तथ्य को लेकर इतिहासकारों में आम  सहमति नहीं है.
लाल द्यद 
इसी दौर में प्रसिद्ध शैव योगिनी लल द्यद का प्रभाव भी बढ़ा. वह हिन्दू धर्म के अंधविश्वासों, मूर्ति पूजा, आडम्बर और जाति प्रथा का विरोध करती थीं. उनकी लिखी कविताओं को वाख (वाक्य) कहा जाता है और कश्मीरी भाषा में लिखे गए ये वाख अब तक कश्मीर में बेहद लोकप्रिय हैं. तमाम ब्राह्मणवादी कुरीतिओं पर यह हमला वहाँ के हमदानी के साथ आये सूफ़ी आन्दोलन और इस्लामीकरण के लिए पूर्वपीठिका बना. इसे समझने के लिए उस दौर के धर्म परिवर्तनों को हमें एक भिन्न परिप्रेक्ष्य में देखना होगा. धर्म का परिवर्तन वस्तुतः सांस्कृतिक श्रेष्ठता की स्थापना और वर्चस्व का सवाल था, एक नए धर्म के रूप में इस्लाम के माननेवालों में एक मिशनरी जज़्बा तो था ही अधिक से अधिक लोगों को मुसलमान बना लेने का साथ ही अपने तांत्रिक तरीक़ों और ब्राह्मणवादी आचारों से हिन्दू धर्म उस समय ऐसी स्थिति में पहुँच चुका था कि  डी एच लारेंस ने लिखा है “हिन्दू समाज भ्रष्ट हो गया था. पुरुष असहिष्णु, अय्याश और पतित थे और स्त्रियाँ उससे बेहतर नहीं थीं जैसा उन्होंने उन्हें बनाया था. जादू टोने और चमत्कारों की भरमार थी”. हमने पिछले अध्यायों में राजाओं के किस्सों में समाज के पतन की इन्तेहा देखी हैं. उस दौर में स्त्रियों की दशा बेहद ख़राब थी और वैश्यावृत्ति, नैतिक भ्रष्टाचार, देवदासी प्रथा और सती प्रथा जैसी व्यवस्थाएं उनके जीवन को नर्क बना रही थीं. कल्हण ने ऐसे तमाम हृदयविदारक किस्से राजतरंगिणी में  बयान  किये  हैं. ऐसे में जब लल द्यद मूर्तिपूजा के खंडन, एकेश्वरवाद और योग के तीन सरल आधारों पर धर्म की स्थापना करती हैं तो यह सूफ़ी संतों के लिए बहुत सुविधाजनक हो जाता है. पहली दो चीज़ें तो थी हीं इस्लाम में, योग के समकक्ष था सूफ़ी समाज में प्रचलित “ज़िक्र” जो श्वास नियन्त्रण का अभ्यास है. इस तरह लल की शिक्षाएँ परोक्ष रूप से इस्लाम के लिए अनुकूल माहौल बनाने में सहायक हुईं. आम भाषा में मूर्तिपूजा  और ब्राह्मणवादी श्रेष्ठता का उनका विरोध भ्रष्ट ब्राह्मण समाज को सुधारने की इस्लाम के प्रसार में सहायक सिद्ध हुआ.[33]यही वज़ह है कि आज भी उनकी रचनाएं कश्मीर के मुसलमानों की जुबान पर हैं और वे उन्हें उसी आदर और श्रद्धा के साथ लल आरिफ़ा और राबिया[3]सानी के नाम से याद करते हैं. ब्राह्मणवादी प्रपंचों से त्रस्त ग़ैर-सवर्ण हिन्दू समाज के लिए जाति-पांति का भेद न करने वाला इस्लाम मुक्तिदाता की तरह भी था. उसने धीरे धीरे लोगों को नैतिक और सामाजिक बल दिया. उनमें एक नए धर्म के साथ शक्ति का संचार हुआ जो साधारण था, बोधगम्य था और व्यवहारिक था. इसने सदियों पुराने विभाजनकारी सामाजिक ढांचों को ध्वस्त कर दिया. [34], जैसा कि रतन लाल हंगलू कहते हैं कि ऐसे माहौल में ब्राह्मणवादी व्यवस्था के पीड़ितों ने किसी सीधे विरोध की जगह इस्लाम अपनाने को मूक अहिंसक विद्रोह की तरह लिया.[35]

सिकन्दर ‘बुतशिकन’

लेकिन सुल्तान सिकंदर का समय आते-आते परिस्थितियाँ बदल गईं. 1393 में सैयद अली हमदानी के साहबज़ादे मीर सैयद मुहम्मद हमदानी (1372-1450) की सरपरस्ती में सूफी संतों और उलेमाओं की दूसरी खेप कश्मीर आई. अपने पिता के विपरीत मीर हमदानी इस्लाम की स्थापना के लिए हर तरह की ज़ोर ज़बरदस्ती का हामी था या  यों  कहें  कि  तब  तक  इसके  लिए  अनुकूल  माहौल बन  चुका था. कश्मीर में उसी समय सक्रिय सैयद हिसारी जैसे सहिष्णु सूफ़ियों के विपरीत उसने इस्लामीकरण के लिए मिशनरी ज़ज्बे से काम किये और सिकन्दर पर अपने प्रभाव का पूरा इस्तेमाल करते हुए 12 सालों के कश्मीर प्रवास में सत्ता और धर्म के चरित्र को इस कदर बदल कर रख दिया उसे में सिकन्दर बुतशिक़न के नाम से जाना गया. हमदानी के प्रभाव में सबसे पहले जो लोग आये उनमें सुल्तान का ताक़तवर मंत्री सुहा भट्ट था. हमदानी ने उसका धर्म परिवर्तन कर मलिक सैफुद्दीन का नाम दिया और उसकी बेटी से विवाह किया. सुहा भट्ट ने कालान्तर में अपनी क्रूरता से सबको पीछे छोड़ दिया और सिकन्दर के नेतृत्व में कश्मीर में मंदिरों के ध्वंस और धर्मपरिवर्तन का संचालक बना. इस दौर को कश्मीर में ताक़त के ज़ोर से इस्लामीकरण का दौर कहा जा सकता है जिसके बारे में जोनाराजा ने कहा है कि “जनता का सौभाग्य उनका साथ छोड़ गया, सुल्तान राजधर्म भूल गया और दिन रात मूर्तियाँ तोड़ने में आनंद लेने लगा.”  फ़रिश्ता ने लिखा है कि सुहा भट्ट के प्रभाव में सुल्तान ने शराब, संगीत, नृत्य और जुए पर पाबंदी लगा दी, हिन्दुओं पर जज़िया लगा दिया गया और माथे पर कश्का (तिलक) लगाना प्रतिबंधित कर दिया गया, सोने और चाँदी की सभी मूर्तियों को पिघला कर सिक्कों में तब्दील कर दिया गया और सभी हिन्दुओं को मुसलमान बन जाने के आदेश दिए गए. हालाँकि इसी धार्मिक पागलपन के चलते सती प्रथा पर जो बंदिश लगी उसने कश्मीर से इस कुप्रथा का लगभग अंत ही कर दिया.कश्मीर में अफ़रातफ़री मच गई, मार्तंड, अवन्तीश्वर, चक्रधर, त्रिपुरेश्वर, सुरेश्वर और पारसपुर के प्राचीन मंदिरों को ध्वस्त कर दिया गया. हिन्दुओं के सामने इस्लाम अपनाने, देश छोड़ देने या आत्महत्या करने के ही विकल्प बचे थे. बड़ी संख्या में लोगों ने धर्म परिवर्तन स्वीकार कर लिया. केवल कुछ ब्राह्मणों ने ऐसा करने से इंकार कर दिया. उनमें से अधिकाँश ने देश छोड़ दिया और बाक़ी ने आत्महत्या कर ली. कुछ विद्वानों ने तो माना है कि उस दौर में बस 11 कश्मीरी पंडित परिवार बचे थे.[36]जोनाराजा की मानें तो कोई मंदिर साबुत नहीं बचा था.

लेकिन उसी दौर में सैयद हिसारी जैसे सहिष्णु सूफ़ी भी थे जिनके दबाव में आखिरकार सुलतान को इस्लामीकरण की सीमा तय करनी पड़ी और जज़िया कम करने के साथ कुछ और क़दम उठाने पड़े. इन क़दमों से मीर हमदानी इतना आहत हुआ कि 12 साल के प्रवास के बाद अपने पिता की ही तरह अपने कई महत्त्वपूर्ण शिष्यों को इस्लाम का प्रचार जारी रखने के लिए छोड़कर वह भी कश्मीर से चला गया. वर्तमान मीरवायज़ हमदानी के उन शिष्यों में से एक सिद्दीकुल्लाह त्राली के खानदान से हैं जो उस समय त्राल में बसे लेकिन बाद में श्रीनगर आ गए थे. बाद के दौर में ऋषि आन्दोलन से ज़ोर पकड़ा और कश्मीर में अंततः जो इस्लाम स्थापित हुआ वह बाहर से आये सूफिओं का भी नहीं बल्कि स्थानीय ऋषियों का इस्लाम था जिसके नायक नन्द ऋषि ऊर्फ शेख नुरूद्द्दीन थे. मान्यता है कि नन्द ऋषि को लल द्यद ने अपना दूध पिलाया था. सादा जीवन, त्याग, समानता और साम्प्रदायिक सद्भाव वाला यह इस्लाम उन्नीस सौ साठ के दशक में अहले हदीस और जमात जैसे कट्टरपंथी आन्दोलनों के पहले तक वहां बना रहा.

1413 में सिकन्दर की मृत्यु के बाद उसका बेटा अली शाह जब गद्दी पर बैठा तो सत्ता पूरी तरह सुहा भट्ट के हाथ में थी और उसने अपना साम्प्रदायिक अभियान और क्रूरता से चलाया. जोनराजा बताते हैं कि सिकन्दर का नियंत्रण समाप्त होने बाद उसकी क्रूरताएँ और बढ़ गईं. अपने पूर्व समुदाय को उसने तलवार की नोक पर मुस्लिम बनाया. मौलानाओं ने सुलतान से मनमुताबिक नीतियाँ बनवाईं. लेकिन यह आज़ादी केवल चार साल चल पाई. 1417 में जब सुहा भट्ट की मौत तपेदिक से हुई तो क्रूरताओं से कराहते कश्मीर की एक स्वर्णयुग प्रतीक्षा कर रहा था.

ज़ैनुलआब्दीन : ‘बड शाह’

अली  शाह  के  छोटे भाई शाही खान उसे सत्ता से अपदस्थ कर ज़ैनुल आब्दीन के नाम से गद्दी पर बैठा और उसने अपने पिता तथा भाई की साम्प्रदायिक नीतियों को पूरी तरह से बदल दिया. उसका आधी सदी का शासन काल कश्मीर के इतिहास का सबसे गौरवशाली काल माना जाता है. जनता के हित में किये उसके कार्यों के कारण ही कश्मीरी इतिहास में उसे बड शाहयानी महान शासक कहा जाता है. ज़ैनु-उल-आब्दीन का सबसे बड़ा क़दम धार्मिक भेदभाव की नीति का ख़ात्मा करना था. अपने पिता और भाई के विपरीत उसने हिन्दुओं के प्रति दोस्ताना रुख अपनाया और उन्हें धार्मिक स्वतंत्रता दी. एम डी सूफ़ी तबाक़त ए अक़बरी के हवाले से बताते हैं कि सुल्तान ने हिन्दुओं से अपने धर्म ग्रन्थों में लिखी बातों का उल्लंघन न करने का राजीनामा लेकर सिकंदर के समय में बने उन तमाम क़ानूनों को रद्द कर दिया जो धार्मिक असमानता पर आधारित थे. जज़िया की दर चाँदी के दो पल (सिक्कों) से घटाकर एक माशा चाँदी कर दिया और इसे भी कभी वसूला नहीं गया. इसी तरह हिन्दुओं की अंत्येष्टि पर लगाया कर भी समाप्त कर दिया गया. तिलक लगाने आदि पर लगी रोक को हटाकर धार्मिक मामलों में पूरी आज़ादी दी गई. सौहार्द्र बढ़ाने का एक बड़ा क़दम उठाते हुए गो हत्या पर पाबंदी लगा दी गई. जो हिन्दू कश्मीर छोड़कर जम्मू सहित दूसरी जगहों पर जा बसे थे उन्हें वापस बुलाया गया और जिन्होंने भय से धर्म परिवर्तन कर लिया था उन्हें फिर से अपने धर्म में लौटने की सहूलियत दी गई. टूटे हुए मंदिरों का पुनर्निर्माण कराया गया और कई नए मंदिर बनवाये भी गए. पंडित श्रीवर बताते हैं कि महल के भीतर के कई मंदिरों का सुल्तान ने जीर्णोद्धार कराया और नए मंदिर भी बनवाये. श्रीनगर में रैनावारी में हिन्दू राजाओं द्वारा तीर्थयात्रियों के भोजन आदि के व्यवस्था के लिए बनाए गए स्थान को उसने और विस्तृत कराकर उनके रुकने की व्यवस्था भी की. हिन्दू बच्चों के लिए पाठशालाएं खोलीं गईं तथा संस्कृत सीखने के लिए छात्रों को छात्रवृत्ति देकर दकन और बनारस भेजा गया. मंदिरों और पाठशालाओं की देखरेख के लिए उन्हें जागीरें दी गईं. कई हिन्दुओं और बौद्धों को शासन के उच्च पदों पर नियुक्ति दी गई. साथ में राज्य सेवाओं में निचले स्तरों पर भी उन्हें अवसर दिए गए. इसी काल में कश्मीरी हिन्दुओं के बीच “कारकून” और “पुजारी (बछ भट्ट)” जैसी दो श्रेणियों का विकास हुआ, जिनमें आपस में शादी ब्याह नहीं होता. कारकून श्रेणी के पंडितों ने फ़ारसी सीखी और शासन व्यवस्था में शामिल हुए. एक तीसरी श्रेणी ज्योतिषियों की विकसित हुई जिनका कारकूनों के साथ रोटी बेटी का सम्बन्ध होता है. ज़ाहिर है पुजारी वर्ग स्वयं को सबसे उच्च मानता है. संस्कृत के अलावा इस दौर में हिन्दुओं ने फ़ारसी का भी अध्ययन किया. मुंशी मुहम्मद-उद-दीन की किताब तारीख़-ए-अक्वान-ए-कश्मीर के हवाले से सूफ़ी बताते हैं कि जिन हिन्दुओं ने सबसे पहले फ़ारसी और इस्लामी साहित्य की तालीम हासिल की वे सप्रू थे. सर मोहम्मद इक़बाल इसी वंश के थे जिनके परिवार ने औरंगज़ेब के समय इस्लाम स्वीकार कर लिया था. इस वंश के दूसरे प्रतिष्ठित नाम सर तेज़ बहादुर सप्रू थे. मैंने उस दौर पर लिखी बीसियों किताबें पढ़ते तमाम मुद्दों पर असहमत लेखकों और इतिहासकारों को ज़ैन उल आब्दीन के शासनकाल की मुक्त कंठ प्रशंसा में लगभग एक स्वर में करते पाया है, और उसकी सबसे बड़ी वज़ह है ज़ैन उल आब्दीन का जनता के प्रति अथाह स्नेह और समर्पण. उसके पचास साल के शासन काल में कश्मीर के सामाजिक-आर्थिक –सांस्कृतिक जीवन का कोई ऐसा क्षेत्र नहीं था जो अनछुआ छूटा हो. धार्मिक सहिष्णुता, आर्थिक स्वावलंबन, राजनैतिक स्थिरता, सांस्कृतिक उत्थान और ज्ञान-विज्ञान का आम जन तक प्रसार ऐसे क़दम थे जिन्होंने कश्मीर को पूरी तरह बदल दिया. उसके बनवाये तमाम भवन भले समय की मार से नष्ट हो गए हैं, लेकिन उसके दौर में विकसित हुए जीवन मूल्य कश्मीर के सामाजिक जीवन में आज भी मौज़ूद हैं और इन अँधेरे वक्तों में भी उम्मीद की लौ की तरह टिमटिमाते हैं.

ज़ैना कदाल 

लेकिन उसकी मृत्यु के बाद शाह मीर वंश का पतन शुरू हो गया और 1540 में हुमायूं के एक सिपहसलार मिर्ज़ा हैदर दुगलत ने सत्ता पर कब्ज़ा कर लिया. उसका शासनकाल 1561 में समाप्त हुआ जब स्थानीय लोगों के एक विद्रोह में उसकी हत्या कर दी गई. उसके बाद चले सत्ता संघर्ष में चक विजयी हुए और अगले 27 सालों तक कश्मीर में लूट, षड्यंत्र और अत्याचार का बोलबाला इस क़दर हुआ कि कश्मीर के कुलीनों के एक धड़े ने बादशाह अकबर से हस्तक्षेप की अपील की. अकबर की सेना ने 1589 में कश्मीर पर कब्ज़ा कर लिया और इस तरह कश्मीर मुग़ल शासन के अधीन आ गया. इस खूनखराबे के बीच आख़िरी चक सुल्तान युसुफ शाह और उसकी प्रेमिका हब्बा ख़ातून का एक मासूम सा क़िस्सा भी है. अकबर द्वारा गिरफ़्तार युसुफ के बिछोह में लिखे हब्बा ख़ातून के गीत आज भी कश्मीर में बेहद लोकप्रिय हैं.

हब्बा खातून 

कश्मीरी प्रजा : गैर कश्मीरी शासक

16 अक्टूबर 1586 को जब मुग़ल सिपहसालार कासिम खान मीर ने याक़ूब खान को हराकर कश्मीर पर मुग़लिया सल्तनत का परचम फ़हराया तो फिर अगले 361 सालों तक घाटी पर ग़ैर कश्मीरियों का शासन रहा- मुग़ल, अफ़गान, सिख, डोगरे.

1589 में जून के महीने में अकबर पहली बार श्रीनगर पहुँचा और उसने जो पहले दो काम किये वे थे एकसमान और न्यायपूर्ण लगान तय करना तथा हिन्दुओं पर लगा जज़िया हटाना. उस समय तक हर पुजारी को साल के 40 पण सुल्तान को भेंट के रूप देने पड़ते थे, अकबर ने इस प्रथा तथा ऐसे तमाम नियमों को रद्द करवा दिया जो साम्प्रदायिक भेदभाव प्रकट करते थे.[37]उसके समय में कश्मीरी पंडित एक बार फिर दरबार में प्रविष्ट हुए और पंडित तोताराम पेशकार के पद तक पहुँचे. डल झील पर हाउसबोटों का विचार सबसे पहले अकबर को ही आया था और आज भी डल पर तैरती हाउसबोट कश्मीर के ख़ुशनुमा दिनों का प्रतीक सी लगती है. उसकी दूसरी यात्रा के समय दीवाली का त्यौहार था और बादशाह ने झेलम नदी में जहाज़ों और आसपास के पूरे क्षेत्र में दिए जलवाए. 1597 में जब वह तीसरी बार कश्मीर गया तो अकाल पड़ा हुआ था, अकबर ने लोगों को आर्थिक सहायता देने की जगह निर्माण कार्य शुरू करवाए और उचित मज़दूरी दी जिससे अर्थव्यवस्था फिर से पटरी पर आ गई. कुल मिलाकर अकबर से लेकर शाहजहाँ तक का समय बाहरी राज्य के बावज़ूद कश्मीर की जनता के लिए सुख और समृद्धि का समय था. जहाँगीर का कश्मीर प्रेम तो जग प्रसिद्ध है, उसका बनवाया मुग़ल गार्डेन आज भी अपनी ख़ूबसूरती में दुनिया के किसी बाग़ को शर्मिन्दा कर सकता है. कहते हैं मृत्युशैया पर जब उसकी आख़िरी इच्छा पूछी गई तो उसने कहा – कश्मीर. कश्मीर की आर्थिक प्रगति तो हुई इस काल में लेकिन मोहम्मद इशाक खान अपनी किताब “पर्सपेक्टिव्स ऑफ़ कश्मीर” में एक जायज़ सवाल उठाते हैं कि – इस काल में कश्मीर में सांस्कृतिक, साहित्यिक प्रगति क्यों रुक गई थी?

औरंगज़ेब का समय आते आते स्थितियाँ बदलीं, उसने अपनी कट्टरपंथी नीतियाँ वहां लागू करने की कोशिश की. सिर्फ हिन्दू ही इसका शिकार नहीं हुए बल्कि कश्मीर की अल्पसंख्यक शिया आबादी के साथ भी दुश्मनाना व्यवहार हुआ. उसके बाद मुग़ल शासन के पतन के साथ साथ कश्मीर में भी स्थितियाँ बदतर हुईं. अगले 46 सालों में कश्मीर में 57 गवर्नर बदले. बहादुर शाह के वक़्त कश्मीर का गवर्नर बना महताबी खान उर्फ़ मुल्ला अब्दुन नबी. हिन्दुओं और शियाओं पर उसने वो वो कहर किये कि इंसानियत काँप जाए. 1720 में शियाओं और पंडितों ने उसके ख़िलाफ़ विद्रोह कर दिया और मुल्ला मारा गया. लेकिन उसके बेटे मुल्ला सैफरुद्दीन ने बदला लिया और शिया मुहल्ला ज़ादीबल ख़ाक में तब्दील हो गया. साल भर बाद दिल्ली से आये अब्दुर समद खान ने उसे गिरफ़्तार कर पचास सिपहसालारों के साथ मौत की सज़ा तो दी लेकिन हालात बिगड़ते चले गए. 1724, 1735 और 1746 में आई बाढ़ में कश्मीर तबाही की कगार पर पहुँच गया. दिल्ली में कमज़ोर हो चुकी सल्तनत के हाथ से कश्मीर का जाना अब वक़्त की बात थी और 1753 में अहमद शाह अब्दाली के नेतृत्व में अफगानों ने कश्मीर पर कब्ज़ा कर लिया.[38]

अफगान और  सिख : क्रूरता  के  साल  

 अफगानों के अत्याचार की कथाएं आज तक कश्मीर में सुनी जा सकती हैं, अगले 67 सालों तक पांच अलग अलग गवर्नरों के राज में कश्मीर लूटा-खसोटा जाता रहा. अफगान शासन की एक बड़ी विशेषता यह थी कि इसमें प्रशासनिक पदों पर स्थानीय मुसलमानों की जगह कश्मीर पंडितों को तरज़ीह दी गई. “ट्रेवेल्स इन कश्मीर एंड पंजाब” में बैरन ह्यूगल लिखते हैं कि पठान गवर्नरों के राज में लगभग सभी व्यापारों और रोज़गारों के सर्वोच्च पदों पर कश्मीरी ब्राह्मण पदासीन थे. संयोग ही है कि अफगान शासन के अंत के लिए भी एक कश्मीरी पंडित बीरबल धर ही जिम्मेदार हैं. आख़िरी गवर्नर आज़िम खान के समय दीवान थे पंडित सहज राम सप्रू, मुख्य सचिव थे पंडित हर दास और राजस्व विभाग बीरबल धर, मिर्जा धर और पंडित सुखराम सफाया के पास था. यहाँ यह बता देना समीचीन होगा कि मुगलों के समय राजस्व विभाग पर पंडितों का जो कब्ज़ा हुआ वह डोगरा काल तक बना रहा. छः सालों तक लगातार उपज कम होने के चलते अकाल पड़ा तो गाज बीरबल धर पर पड़ी. बीरबल धर ने लाहौर दरबार के सिख महाराज रणजीत सिंह से मदद मांगने की ठानी और एक ग्वाले कुद्दुस गोजरी के यहाँ अपने परिवार को सुरक्षित छोड़ जम्मू के राजा गुलाब सिंह की मदद से वह लाहौर दरबार पहुँचे जहाँ गुलाब सिंह के भाई राजा ध्यान सिंह प्रधानमंत्री थे. मौसम अनुकूल था, रणजीत सिंह ने तनिक देर न लगाई, किसी संभावित धोखे के ख़तरे को टालने के लिए सुखराम के बेटे को लाहौर में बंधक रखा और अपने उत्तराधिकारी खड़क सिंह के नेतृत्व में  हरि सिंह नलवा सहित अपने सबसे क़ाबिल सरदारों के साथ तीस हज़ार की फौज रवाना की. आज़िम खान अपने भाई जब्बार खान के भरोसे कश्मीर को छोड़कर काबुल भाग गया लेकिन बीरबल धर के सगे दामाद त्रिलोक चंद की गद्दारी के चलते कुद्दुस गोजरी परिवार सहित मारा गया, बीरबल धर की पत्नी ने आत्महत्या कर ली और उनकी बहू को काबुल भेज दिया गया. यह थी उन दिनों की नैतिकता जिसे सिर्फ हिन्दू-मुस्लिम के पैमाने पर देखना थ्री डी फ़िल्म को चश्मा उतार कर देखने जैसा होगा. खैर, इस तरह 15 जून 1819 को कश्मीर में सिख शासन की स्थापना हुई, बीरबल धर फिर से राजस्व विभाग के प्रमुख बनाये गए और मिस्र दीवान चंद कश्मीर के गवर्नर. दीवान चंद के बाद कश्मीर की कमान आई मोती चंद के हाथों और शुरू हुआ मुसलमानों के उत्पीड़न का दौर. श्रीनगर की जामा मस्ज़िद बंद कर दी गई, अजान पर पाबंदी लगा दी गई, गोकशी की सज़ा अब मौत थी और सैकड़ों कसाइयों को सरेआम फाँसी दे दी गई. उसके एक सिपहसालार फूला सिंह ने तो शाह हमादान की खानकाह को बारूद से उड़ा ही दिया था मगर कश्मीर के रहवासी बीरबल धर को उसका महत्त्व पता था और खानकाह बच गई.  धार्मिक कट्टरपन का आतंक अभी ख़त्म नहीं हुआ था कि नए गवर्नर हरि सिंह नलवा ने वहां लूट-खसोट की सीमाएं पार कर दीं, इस हद तक कि यह बीरबल धर के लिए भी नाक़ाबिल-ए-बर्दाश्त था. किसानों में त्राहि-त्राहि मच गई और ऐसा अकाल पड़ा कि आठ लाख रहवासियों वाली घाटी में बस दो लाख लोग ज़िंदा बचे.[39]

गुलाब सिंह 

डोगरा राजवंश : अंग्रेज़ों  के  ज़रखरीद ग़ुलाम

1839 में रणजीत सिंह की मौत के साथ लाहौर का सिख साम्राज्य बिखरने लगा. अंग्रेज़ों के लिए यह अफगानिस्तान की ख़तरनाक सीमा पर नियंत्रण का मौक़ा था तो जम्मू के राजा गुलाब सिंह के लिए खुद को स्वतंत्र घोषित करने का. लाहौर में फैली अफरातफरी का फ़ायदा उठा कर अंग्रेज़ों ने 1845 में लाहौर पर आक्रमण कर दिया और अंततः दस फरवरी 1846 को सोबरांव के युद्ध में निर्णायक जीत हासिल की और रणजीत सिंह के साथ 1909 में हुई मित्रता संधि के उल्लंघन का आरोप उल्टा उनके पुत्र दलीप सिंह पर लगाकर उसे अपने संरक्षण में पंजाब का राजा बनाने के बदले डेढ़ करोड़ रुपयों की मांग करते हुए 9 मार्च 1946 को लाहौर की संधि की. दलीप सिंह की धन देने में असमर्थता की आड़ में उनके सभी किलों, ज़मीन-ज़ायदाद और ब्यास से सिंधु तक के बीच का सारा क्षेत्र अब ब्रिटिश सरकार की संपत्ति बन गया जिसमें कश्मीर और हज़ारा भी शामिल थे. इसके बाद 16 मार्च, 1846 को अंग्रेज़ों ने गुलाब सिंह के साथ अमृतसर संधि की जिसमें 75 लाख रुपयों के बदले उन्हें सिंधु के पूरब और रावी नदी के पश्चिम का जम्मू, कश्मीर और लद्दाख के इलाक़े की सार्वभौम सत्ता दी गई, गुलाब सिंह अंग्रेज़ों से यह समझौता पहले ही कर चुका था बस कोशिश क़ीमत कम कराने की थी जो संभव नहीं हुआ.[40]इस तरह अपने पूर्व शासक रणजीत सिंह के बेटे को धोखा देकर 75 लाख रुपयों के बदले गुलाब सिंह ने जम्मू और कश्मीर का राज्य अंग्रेज़ों से ख़रीदा और यह इतिहास में पहली बार हुआ कि ये तीन क्षेत्र एक साथ मिलकर स्वतन्त्र राज्य बने.[41]ख़ुद को अंग्रेज़ों का ज़रख़रीद ग़ुलाम कहने वाला[42]यह राजा और उसका खानदान ताउम्र अंग्रेज़ों का वफ़ादार रहा, 1857 का राष्ट्रीय विद्रोह हो कि तीस के दशक में पनपे अनेक राष्ट्रीय आन्दोलन, कश्मीर के राजाओं ने अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ लगने वाले किसी भी विद्रोह को अपनी ज़मीन पर पनपने नहीं दिया, उन्होंने क़ीमत दी थी कश्मीर की और उसे हर क़ीमत पर वसूलना था. किसानों और बुनकरों से इस दर्ज़ा टैक्स वसूला गया कि उनका जीना मुहाल हो गया. कश्मीरी शाल तब तक नेपोलियन की पत्नी के पहने जाने के बाद यूरोप में फ़ैशन बन गई थी. मांग बढ़ी और उत्पादन भी लेकिन इसका लाभ टैक्स के रूप में राजा के खज़ाने में गया. अनाज अब राजा खुद बेचता था. कालाबाज़ारी हद से अधिक बढ़ गई. एक तरफ किसानों को लगान के रूप में आधी से अधिक फसल के अलावा तमाम टैक्स देने पड़ते थे तो दूसरी तरफ़ बाज़ार में उसकी क़ीमत दुगनी हो गई. राजस्व विभाग पर वर्षों से कब्ज़ा जमाए बैठे कश्मीरी पंडितों ने इस तबाही का फ़ायदा अपनी तरह से उठाया और क़र्ज़ ने डूबे किसानों की ज़मीनें कब्जाईं. यहाँ यह जान लेना बेहतर होगा कि आबादी का लगभग 93 फ़ीसद हिस्सा होने के बावज़ूद मुसलमानों के पास संपत्ति का दस फ़ीसद हिस्सा भी नहीं था, हाँ परम्परागत रूप से रईस तथा कुछ धार्मिक नेताओं की संपत्तियां सुरक्षित रहीं, फलती फूलती रहीं. अंग्रेज़ों ने भी राजा का पूरा साथ दिया और उसकी नीतियों से त्रस्त जनता की सारी शिक़ायतें एक कान से सुने बिना ही अक्सर लौटा दीं. आख़िर उनके लिए कश्मीर एक सुरक्षित स्वर्ग था तफ़रीह और अय्याशी के लिए और गुलाब सिंह जैसे मेज़बान को छोड़कर ग़रीब किसानों और बुनकरों की आवाज़ भला वह क्यों सुनते?[43]गुलाब सिंह के रहते तो कश्मीर में उन्होंने अपना रीजेंट भी नहीं नियुक्त किया.

डोगरा और पंजाबियों के साथ-साथ कश्मीरी पंडितों को प्रशासन और खासतौर पर राजस्व विभाग में सबसे ऊंचे पद दिए गए तथा बहुसंख्यक कश्मीरी मुसलमानों का बड़ा हिस्सा खेती-किसानी और बुनकर के पेशे से जुड़ा हुआ था. सिखों के समय से चले आ रहे धार्मिक भेदभाव खासतौर से गुलाब सिंह के पुत्र रणबीर सिंह के दौर में और बढ़ गए. यहाँ एक और बात कहनी ज़रूरी है, आमतौर से माना जाता है कि उस दौर में हिन्दू-मुस्लिम भेदभाव जैसी कोई चीज़ नहीं थी और अंग्रेज़ गवर्नर लॉरेंस जैसे तमाम लोगों ने लिखा है कि हिन्दू-मुसलमानों में फ़र्क करना ही मुश्किल था. लेकिन इस रूमानी तस्वीर के पीछे सच इतना सीधा नहीं है. पहली बात तो यह कि हिन्दू धर्म के जिस गैरबराबरी के चलते इस्लाम आया था अब वह उसका हिस्सा बन चुकी थी. सुन्नियों में शेख, सैयद, मुग़ल, पठान जैसी ऊंची जातियों के अलावा बकरवाल, डोम और वाटल जैसे नीची जाति के सदस्य भी थे और आपसी शादी ब्याह जातिगत श्रेष्ठताओं से संचालित होता था तो घाटी में 5 प्रतिशत शियाओं के साथ उनका विवाद भी लगातार रहा. 1872 में शिया-सुन्नी विवाद हुआ जिसकी जड़ में भयानक करारोपण से बर्बाद होते शाल उद्योग में बुनकरों का सुन्नी और मालिकान का शिया होना था. 1880 आते आते वहां वहाबी किस्म का कट्टर इस्लाम प्रवेश कर चुका था और पारम्परिक सूफ़ी-ऋषि परम्परा को ग़ैर इस्लामी बता रहा था. इसी के आसपास आर्य समाज सहित हिन्दुओं के कट्टर संगठन बनने लगे थे जो इस्लाम पर सीधा हमला करते थे. आपसी तकरार के तमाम उदाहरण मृदु राय की बेहद महत्त्वपूर्ण किताब ‘हिन्दू रूलर्स एंड मुस्लिम सब्जेक्ट” में मिलते हैं.

एक बड़ा फैसला डोगरा राजाओं ने फ़ारसी की जगह उर्दू को राजभाषा बनाकर किया (जी. कश्मीर में उर्दू मुसलमान नहीं सिख लेकर आये थे) इसका परिणाम यह हुआ कि सदियों से फ़ारसी में प्रशिक्षित कश्मीरी पंडितों के लिए राज्य प्रशासन की परीक्षा पास करना मुश्किल हो गया और पंजाबी प्रशासन में भरने लगे. उसी दौर में पंडितों और डोगराओं ने इसका विरोध किया और राज्य की नौकरी राज्य के निवासियों की जो मांग उठी वह डोगरा शासन की विदाई के बाद तक सुनाई देती रही.

असंतोष की आहटें और सन 31 का आन्दोलन

नौकरी के लिए मैट्रिक की पढ़ाई आवश्यक बना देने के कारण शिक्षा दीक्षा का वहां खूब विस्तार हुआ, लेकिन रोज़गार उस गति से नहीं बढ़े. ऊंचे पद कश्मीरी पंडितों, डोगराओं और सिखों के लिए आरक्षित थे, निचले स्तर पर रोज़गार बहुत कम थे. बेरोज़गारी, 95 फ़ीसद मुस्लिम आबादी के साथ इस कदर अन्याय कि टैक्स और दीगर परेशानियों के साथ-साथ अज़ान तक पर पाबंदी. हालाँकि राजा हरि सिंह ने मीरवायज़ सहित कुछ एलीट मुस्लिमों वाली अंजुमन-ए-नुसरत-उल-इस्लाम को संरक्षण दिया था[44], लेकिन बहुसंख्यक मुस्लिम आबादी की आवाज़ के लिए कोई जगह नहीं थी. यह सारा गुस्सा फूटना ही था. वक़्त बदल रहा था. दुनिया भर में चल रहे मुक्ति आन्दोलन की आहट कश्मीर पहुँच रही थी. तीस का दशक आते आते पढ़े लिखे मुस्लिम लड़के मुस्लिम रीडिंग रूम में पढने और बहस करने लगे. उन्हीं में से एक थे मामूली गड़रिया परिवार से निकलकर जम्मू, लाहौर और फिर अलीगढ़ से विज्ञान में एम एस  सी करके लौटे शेख मोहम्मद अब्दुल्लाह, जिन्हें मुस्लिम होने के कारण राज्य प्रशासन में जगह नहीं मिली और उस वक़्त एक हाई स्कूल में पढ़ा रहे थे.  1931 में 21 जून को इन्हीं में से एक अब्दुल क़ादिर को जब शाह हमादान के ऐतिहासिक खानकाह पर राजा के ख़िलाफ़ भाषण देने के बाद गिरफ़्तार कर लिया गया तो यह गुस्सा सड़कों पर फूटा. हज़ारो नौजवान आन्दोलन की राह पर उतर पड़े. पंडितों के विशेषाधिकार पर दबा वर्षों का क्रोध उनके घरों और दुकानों पर हुए हमले के रूप में निकला तो आन्दोलन ने साम्प्रदायिक रूप ले लिया. हालात बिगड़े और दमन चक्र चला. एक सिपाही ने जेल में बंद आन्दोलनकारियों के सामने ही क़ुरान फाड़ डाली तो मामला एकदम बिगड़ गया. और अधिक दमन से आन्दोलन फौरी तौर पर दबा तो दिया गया लेकिन तब उठी मांग निष्पक्ष जांच की. राजा हरि सिंह ने शुरू में इंकार किया लेकिन फिर दबना पड़ा. जांच रिपोर्ट ने राजा की साम्प्रदायिक नीतियों पर सवाल उठाया और मज़बूरन उसे कुछ नीतियाँ बदलनी पड़ीं. लेकिन अब यह साफ था कि मेयो कॉलेज से पढ़े और अक्सर विदेशों में रहने वाले रंगीन मिजाज़ हरि सिंह के लिए अह आक्रोश संभालना आसान नहीं था और अँगरेज़ किसी मौके का फायदा उठाने से चूकने वालों में से नहीं थे.[45]


शेख अब्दुल्लाह 

इस आन्दोलन के फलस्वरूप मुस्लिम कॉन्फ्रेंस का जन्म हुआ और शेख अब्दुल्लाह इसके पहले अध्यक्ष बने. जल्द ही इसे अपनी मुस्लिम पहचान खोकर समाजवादी विचार के क़रीब एक ऐसा संगठन बनना था जिसमें कश्मीरी पंडितों की भी महत्त्वपूर्ण भागीदारी हुई और जो आने वाले समय में कश्मीर का सबसे महत्त्वपूर्ण संगठन बना – नेशनल कॉन्फ्रेंस.     

भारत-पाकिस्तान-कश्मीर

सैंतालीस जैसे जैसे क़रीब आ रहा था भारतीय उपमहाद्वीप में हलचलें और बेचैनियाँ बढ़ती जा रही थीं. जिस अंग्रेज़ी छत्रछाया में राजे-रजवाड़े डेढ़ सौ साल से अय्याशी कर रहे थे वह अब हटने वाली थी, हिन्दुस्तान का दो हिस्सों में बंटना लगभग तय था. रजवाड़े येन केन प्रकारेण अपना राज बचाए रखना चाहते थे लेकिन इतिहास अब उस दौर को पीछे छोड़ने ही वाला था. हरि सिंह बाक़ी राजाओं से अलग कैसे हो सकता था. 

शेख अब्दुल्लाह इकतीस के आन्दोलन के बाद कश्मीर में अवाम के सबसे बड़े नेता बनकर उभरने लगे थे. अब वह सिर्फ़ मुसलमानों की बात नहीं कर रहे थे. 1932 में उन्होंने कहा – हमारे देश (कश्मीर) की प्रगति तब तक असंभव है जब तक हम यहाँ के विभिन्न समुदायों के बीच सौहार्दपूर्ण सम्बन्ध स्थापित न कर लें.” यह कश्मीरियत की तरफ़ बढ़ा हुआ क़दम था – कश्मीरियत यानी धार्मिक अभिमान से ऊपर क्षेत्रीय स्वाभिमान. भारत में चले सिविल नाफ़रमानी आन्दोलन की आग वहां पहुँची और राजा को “प्रजा सभा” बनानी पड़ी जिसके 75 सदस्यों में से तैंतीस को चुना हुआ होना था, मिन्टो-मार्ले के आबादी के अनुसार प्रतिनिधित्व के फ़ार्मूले से इसमें 21 मुसलमान, दस हिन्दू और दो सिख सदस्य चुने जाने थे. औरतें और अनपढ़ तो वोट देने के अधिकार से वंचित रखे ही गए 400 रुपये सालाना से कम आय वालों को भी वोट देने का अधिकार नहीं दिया गया. अधिकार सारे राजा के पास. शेख अब्दुल्लाह ने ऐसी असेम्बली को मान्यता देने से इंकार कर दिया. अब वह राज्य की सारी मेहनतकश अवाम का नेतृत्व कर रहे थे. 1937 में जब मज़दूरों का आन्दोलन हुआ तो धर्म पीछे छूट गया. अंततः 11 जून 1939 को पार्टी के नाम से मुस्लिम हटाकर उसे “नेशनल कॉन्फ्रेंस” बनाया गया और जब 28 जून को उसमें हिन्दुओं सहित सभी धर्मों/जातीयों के प्रवेश का प्रस्ताव रखा गया तो रात भर चली बहस के बाद 179 सदस्यों की कार्यसमिति में से बस तीन ने इसका विरोध किया. इसके साथ ही यह पार्टी भारत की आज़ादी में सामंतवाद और उपनिवेशवाद के दोहरे जुए को उतार फेंकने के लिए लड़ रही पार्टियों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर खड़ी हुई, अब वह कांग्रेस की सहयोगी पार्टी थी. जवाहर लाल नेहरू और शेख की दोस्ती दो स्वप्नदर्शियों की दोस्ती थी. शेख की पार्टी ने आल इंडिया स्टेट्स पीपुल्स कॉन्फ्रेंस का हिस्सा बनना मंज़ूर किया और शेख 46 में इसके अध्यक्ष बनाये गए. नेहरु ने कहा कि कश्मीरी लोग भारत की वृहत्तर आज़ादी में अपनी आज़ादी हासिल करेंगे. शेख ने साथ दिया और भारत छोड़ो आन्दोलन के समय कांग्रेस का साथ दिया. मुस्लिम कट्टरपंथी धड़ा जिन्ना के साथ था. 1941 में ग़ुलाम अब्बास के नेतृत्व में मुस्लिम लीग की सहायता से मुस्लिम कॉन्फ्रेंस को फिर से जीवित किया गया. 44 में जिन्ना जब कश्मीर आये तो शेख से मिले तो लेकिन अगले ही दिन मुसलमानों से एक कलमा और एक ख़ुदा का हवाला देकर कश्मीर की आज़ादी को एक मुस्लिम काज़ बताया और मुस्लिम कांफ्रेंस में शामिल होने की अपील की. शेर ए कश्मीर ने जवाब देने में देर नहीं की – इस धरती की मुश्किलात केवल हिन्दुओं, सिखों और मुसलमानों को साथ लेकर दूर की जा सकती है.  

कश्मीर में आन्दोलन तेज़ हो रहा था. 46 का साल आते-आते शेख कश्मीरी जनता के निर्विवाद नेता बन चुके थे. इस हैसियत से कश्मीर का भविष्य तय करने के लिए उन्होंने राजा हरि सिंह से बात करने के लिए बम्बई तक जाना मंज़ूर किया जहाँ राजा अक्सर रहा करते थे. पर हरि सिंह ने बात करने से इंकार कर दिया. अंततः उन्होंने अपने राजनीतिक जीवन का सबसे बड़ा आन्दोलन शुरू किया – कश्मीर छोड़ो आन्दोलन और घोषणा की कि “कोई पवित्र विक्रय पत्र (इशारा अमृतसर समझौते की तरफ है) चार लाख लोगों की आज़ादी की आकांक्षा को दबा नहीं सकती.”
राजा ने दमन का सहारा लिया. शेख नेहरू से मिलने जाते समय गिरफ़्तार कर लिए गए. नया प्रधानमन्त्री रामचंद्र काक हर आदेश को बढ़ चढ़ कर पूरा करने वाला था. नेशनल कॉन्फ्रेंस के नेताओं पर हर तरह के अत्याचार किये गए. नेहरु ने उनकी मदद के लिए कोष इकट्ठा करना शुरू किया. उन्हें कश्मीर में प्रवेश से रोका गया. मज़ेदार बात यह कि इस समय मुस्लिम कॉन्फ्रेंस राजा के साथ खड़ी थी. 47 के मई महीने में अखिल जम्मू और कश्मीर राज्य हिन्दू सभा (जो बाद में जनसंघ और फिर भाजपा की राज्य ईकाई में तब्दील हुई) घोषणा की कि वह हर हाल में राजा के साथ है. उनका फ़ैसला चाहे जो हो. मुस्लिम कॉन्फ्रेंस भी पीछे नहीं थी. चौधरी हमीदुल्लाह ने घोषणा की कि “राजा का जो निर्णय होगा मंज़ूर होगा. अगर पाकिस्तान कश्मीर पर हमला करेगा तो कश्मीर मुसलमान हथियार लिए उसके ख़िलाफ़ खड़े होंगे और ज़रूरी हुआ तो हिन्दुस्तान की मदद भी ली जा सकती है.”   बलराज पुरी जैसे भारत समर्थकों को गद्दार कहा गया. जम्मू से मुल्क राज सर्राफ के सम्पादन में निकलने वाले दैनिक अखबार रणबीर पर भारत समर्थक होने का आरोप लगाकर प्रतिबन्ध लगा दिया गया.[46]

राजा कशमकश में था. एक तरफ़ जिन्ना हर तरह का लालच दे रहे थे तो दूसरी तरफ़ कश्मीर में जनता का आन्दोलन बढ़ता जा रहा था. माउंटबेटन ने उससे मिलने की कोशिश की तो पेट दर्द का बहाना बनाकर दिल्ली से श्रीनगर आये वायसराय से वह नहीं मिले. वह किसी भी हाल में अपने अधिकारों की सुरक्षा चाहते थे तो शेख के समर्थन से आश्वस्त नेहरु हर हाल में मुस्लिम बहुल कश्मीर को सेकुलर भारत का हिस्सा बनाना चाहते थे, पटेल एक मुस्लिम बहुल सीमांत इलाक़े को भारत में मिलाने के लिए इस क़दर मुतमइन नहीं थे. उनके सचिव मेनन ने बाद में लिखा कि कश्मीर उस समय उनके दिमाग में था ही नहीं.
इसी बीच जम्मू में साम्प्रदायिक तनाव फ़ैल गया. 19 जुलाई 47 को मुस्लिम कॉन्फ्रेंस ने आज़ादी के समर्थन में प्रस्ताव पास किया और पाकिस्तान के साथ समझौता कर उसका स्वतंत्र उपनिवेश बन जाने की हिमायत की. अब हिन्दू सभा ने भी भारत से जुड़ने की बात धीमे शब्दों में कहनी शुरू की. 15 अगस्त 47 को पाकिस्तान ने राजा का स्टैंड स्टिल प्रस्ताव मान लिया जिसके तहत लाहौर सर्किल के तहत राज्य के केन्द्रीय विभाग पाकिस्तान के अधिकार क्षेत्र में होने थे. राज्य भर के पोस्ट और टेलिकॉम विभागों में पकिस्तान का झंडा फहर गया. ऐसा प्रस्ताव राजा ने भारत को भी दिया था, लेकिन नेहरु ने उसे ठुकरा दिया. पहली मांग शेख को रिहा करने की थी. उस समय नेहरु ने गृह मंत्री पटेल को लिखे पत्र में कहा कि पाकिस्तान की रणनीति कश्मीर में घुसपैठ करके किसी बड़ी कार्यवाही को अंजाम देने की है. राजा के पास इकलौता रास्ता नेशनल कॉन्फ्रेंस से तालमेल कर भारत के साथ जुड़ने का है. यह पाकिस्तान के लिए कश्मीर पर आधिकारिक या अनाधिकारिक हमला मुश्किल कर देगा.[47]काश यह सलाह मान ली गई होती! पर पटेल ने इसे गंभीरता से नहीं लिया और उस समय राजा पर दबाव बनाने की कोई अतिरिक्त कोशिश नहीं की. 

जम्मू से लेकर गिलगिट तक साम्प्रदायिक तनाव की स्थिति बिगडती जा रही थी. पाकिस्तान ने आरोप लगाया कि राजा की सेनायें मुस्लिम बहुल इलाक़ों में हमला कर रही हैं तो नए प्रधानमन्त्री मेहर चंद महाजन ने जांच का प्रस्ताव दिया. पकिस्तान के गवर्नर जनरल ने इसका स्वागत करते हुए उन्हें कराची में डिनर पर चर्चा का न्यौता दे डाला. महाजन इंडिपेंडेस एक्ट का हवाला देकर आज़ाद कश्मीर को स्विट्जरलैंड बनाने के सपने देख रहे थे. पकिस्तान ने मेजर ए एस बी शाह के हाथों विलय का ख़ाली प्रपत्र भिजवाकर राजा से अपनी मर्ज़ी की शर्तें भर लेने को कहा. 21 अक्टूबर को हरि सिंह ने पंजाब हाई कोर्ट के रिटायर्ड जज बख्शी टेक चंद को राज्य का नया संविधान बनाने को कहा.[48]शेख अब भी जेल में थे और नेहरु कश्मीर को अपने साथ लेकर चलने के लिए मुतमईन, पटेल बाक़ी रियासतों को हिन्दुस्तान से जोड़ने में मसरूफ़. आखिर निज़ाम और कश्मीर ही नहीं जोधपुर जैसी हिन्दू बहुल रियासतों के राजा भी अपना फ़ायदा देखते हुए पाकिस्तान से जुड़ने की इच्छा जता रहे थे!

इस हाई वोल्टेज ड्रामे के बीच वह हुआ जिसने कश्मीर की क़िस्मत तय कर दी. कश्मीर को अपनी जेब में देखने को बेक़रार जिन्ना ने कबायलियों के भेस में पाकिस्तानी सेना भेज दी. यह एकदम अविश्वसनीय था. राजा और उसका नया प्रधानमंत्री अब भी पाकिस्तान से बात कर रहे थे. किसी तरह की कोई ऐसी कार्यवाही नहीं हुई थी, लेकिन पाकिस्तान शायद जल्दबाजी में था. कश्मीर में अफरातफरी मच गई. खूंखार आक्रमणकारियों ने किसी को नहीं छोड़ा. राजा की कमज़ोर सेना उनका मुक़ाबला करने में नाक़ामयाब हुई और सेना श्रीनगर के दरवाज़े पर पहुँच आई तो राजा के पास हिन्दुस्तान से सहायता माँगने के अलावा कोई चारा नहीं था. नेहरु की शर्त साफ थी. शेख की रिहाई और भारत में विलय के शर्तनामे पर दस्तख़त. अंततः यह सब हुआ. कश्मीरियों के आत्मसम्मान और आज़ादी के जज़्बे की इज्ज़त करते हुए इसे विशेष दर्ज़ा देकर हिन्दुस्तान में शामिल किया गया.[49]हैदराबाद और जूनागढ़ की तरह यहाँ भी जनमत संग्रह की मांग स्वीकार की गई और 361 वर्षों बाद एक कश्मीरी फिर कश्मीर का प्रशासक बना – शेख अब्दुल्ला.  
 
इतिहास के तथ्य अपनी जगह रह जाते हैं, भविष्य उनके सही-ग़लत की पहचान करता है. इसके बाद का कश्मीर का क़िस्सा इतिहास की क़ैद में उलझे भविष्य का क़िस्सा है. वह फिर कहीं, फिर कभी.

(अशोक इन दिनों “कश्मीरनामा: इतिहास की क़ैद में भविष्य” शीर्षक से किताब लिख रहे हैं.)
संपर्क : ashokk34@gmail.com






   












[1]बहारिस्तान ए शाही –हसन बिन अली, तारीख़-ए-कश्मीर - हैदर मलिक, मजमुआदार अंसब माशिखी कश्मीर –बाबा नसीब आदि.
[2]बुलबुल शाह का असली नाम सैयद शरफ़ अल दीन था. वह सुहरावर्दी सम्प्रदाय के सूफी संत थे जो सहदेव के समय तुर्किस्तान से कश्मीर आ गए थे.
[3]राबिया बसरा की अत्यंत प्रतिष्ठित सूफ़ी संत थीं.



[1]देखें, पेज़ 179, द वैली ऑफ़ कश्मीर, डी एच लारेंस, ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस,लन्दन, 1895
[2]देखें, http://www.peacekashmir.org/jammu-kashmir/history.htm
[3]देखें, http://www.peacekashmir.org/jammu-kashmir/geography.htm
[4]पेज़ 10, कश्मीर बिहाइंड द वेल, एम जे अकबर, छठवां संस्करण, 2011, रोली बुक्स प्राइवेट लिमिटेड, दिल्ली
[5]देखें, माई फ्रोज़ेन टर्बुलेंस इन कश्मीर, जगमोहन, दूसरा संस्करण, 1991, अलाइड पब्लिशर्स लिमिटेड, नई दिल्ली
[6]देखें, बुद्धिज्म इन कश्मीर, डा आर एल आइमा, जून, 1984, कश्मीरी ओवरसीज़ असोसिएशन की वेबसाईट
[7]देखें पेज़ 9, कश्मीर बिहाइंड द वेल, एम जे अकबर, छठवां संस्करण, 2011, रोली बुक्स प्राइवेट लिमिटेड, दिल्ली
[8]माई फ्रोज़ेन टर्बुलेंस इन कश्मीर में जगमोहन ने दामोदर को जरासंध का पुत्र बताया है. लेकिन राजतरंगिणी में उसे गोनंद का पुत्र बताया गया है. (पेज़ 16)
[9]देखें, पेज 17, तरंग 1, श्लोक 72,  कल्हण, राजतरंगिणी में, साहित्य अकादमी, दिल्ली द्वारा  मुद्रित आर एस पंडित का अनुवाद
[10]नीलमत पुराण, श्लोक 10
[11]देखें, बुद्धिज्म इन कश्मीर, डा आर एल आइमा, जून, 1984, कश्मीरी ओवरसीज़ असोसिएशन की वेबसाईट
[12]देखें, पेज़ 10-11, कश्मीर इन क्रूसिबल, प्रेम नाथ बज़ाज़, दूसरा संस्करण, 1967, पाम्पोश पब्लिकेशन,नई दिल्ली 
[13]देखें, पेज़ 109, प्राचीन भारतीय धर्म और दर्शन, शिवस्वरूप सहाय, मोतीलाल बनारसीदास, दिल्ली-2001
[14]देखें,पेज़  43,  माई फ्रोज़ेन टर्बुलेंस इन कश्मीर, जगमोहन, दूसरा संस्करण, 1991, अलाइड पब्लिशर्स लिमिटेड, नई दिल्ली
[15]देखें,  पेज़ 33, हिस्ट्री ऑफ़ सिविलाइज़ेशन ऑफ़ सेन्ट्रल एशिया, सम्पादक : एम एस आसिमोव तथा सी ई बोज्वर्थ,  खंड 4, भाग 1, मोतीलाल बनारसीदास पब्लिशर्स प्राइवेट लिमिटेड, दिल्ली, 1997
[16]देखें, पेज़ 5, कश्मीर इन क्रूसिबल, प्रेमनाथ बज़ाज़, पाम्पोश पब्लिकेशंस, नई दिल्ली, दूसरा संस्करण, 1967

[17]देखें, Temple desecration in pre-modern IndiaRichard M Eaton, फ्रंटलाइन, 9-22 दिसंबर, वर्ष-2000

[18]देखें, पेज़ 36, कश्मीर अंडर सुल्तान्स, मोहिबुल हसन, प्रकाशक : ईरान सोसायटी,159-बी, धर्मतल्ला स्ट्रीट, कलकत्ता, 1959
[19]देखें, इकॉनमी ऑफ़ कश्मीर अंडर सुल्तान्स,डा मंज़ूर अहमद, इंटरनेशल जर्नल ऑफ़ हिस्ट्री एंड कल्चरल स्टडीज़, वाल्यूम 1, अंक 1, अक्टूबर-दिसम्बर, 2015, पेज़ 39
[20]देखें, किंग्स ऑफ़ कश्मीर (अनुवाद : जोगेश चन्द्र  दत्त), पेज़ 15, पुस्तक 1, खंड 3, जोनाराजा, ई एल एम प्रेस, कलकत्ता, 1898

[21]देखें, किंग्स ऑफ़ कश्मीर (अनुवादक : जोगेश चन्द्र  दत्त), पेज़ 20-21, पुस्तक 1, खंड 3, जोनाराजा, ई एल एम प्रेस, कलकत्ता, 1898
[22]1- इस संदर्भ में कल्हण ने हर्ष के समय तुर्की लोगों की कश्मीर में उपस्थिति का ज़िक्र किया है. ये मुस्लिम व्यापारी मुख्यतः व्यपारियों और भाड़े के सैनिकों के रूप में कश्मीर में आये और यहाँ बस गए.
  2- ए क्यू रफ़ीकी का पूर्वोद्धृत पुस्तक में यह मानना है कि बहुत संभावना है कि गज़नी के कुछ सैनिक लौटने की जगह कश्मीर में ही बस गए हों.
  3- तेरहवीं सदी के अंत तक कश्मीर में कश्मीर में मुस्लिम बस्तियों के होने के प्रमाण मार्को पोलो के यात्रा वृत्तांत में मिलते हैं जहाँ वह लिखता है कि कश्मीर के लोग न जानवरों को मारते थे न ही खून फैलाते थे. जब उन्हें मांसाहार का मन होता था तो वे वहां रहने वाले साराकेन लोगों को बुला लेते थे. ( यूल एंड कार्डियर, ए क्यू   साराकेन उस समय तक मुसलमानों के संदर्भ में ही प्रयोग किया जाता था.  रफ़ीकी द्वारा हिस्ट्री ऑफ़ सिविलाइज़ेशन ऑफ़ सेन्ट्रल एशिया, सम्पादक :एम एस आसिमोव तथा सी ई बोज्वर्थ, पेज़ 311, खंड 4, भाग 1, मोतीलाल बनारसीदास पब्लिशर्स प्राइवेट लिमिटेड, दिल्ली, 1997  पर  उद्धरित)
[23]देखें, हिस्ट्री ऑफ़ सिविलाइज़ेशन ऑफ़ सेन्ट्रल एशिया, सम्पादक :एम एस आसिमोव तथा सी ई बोज्वर्थ, पेज़ 308, खंड 4, भाग 1, मोतीलाल बनारसीदास पब्लिशर्स प्राइवेट लिमिटेड, दिल्ली, 1997
[24]देखें, पेज़ 40, कश्मीर अंडर सुल्तान्स, मोहिबुल हसन, प्रकाशक : ईरान सोसायटी,159-बी, धर्मतल्ला स्ट्रीट, कलकत्ता, 1959
[25]देखें, पेज़ 5, सेवेन एक्जोडस ऑफ़ कश्मीरी पंडित्स, प्रोफ़ेसर के एल भान (ऑनलाइन संस्करण)
[26]देखें, किंग्स ऑफ़ कश्मीर (अनुवादक : जोगेश चन्द्र  दत्त), पेज़ 44, पुस्तक  1, खंड 3, जोनाराजा , ई एल एम प्रेस, कलकत्ता, 1898
[27]देखें, पेज 97, ए हिस्ट्री ऑफ़ मुस्लिम रूल इन कश्मीर, आर के परमू, पीपुल्स पब्लिशिंग हाउस, दिल्ली, 1969
[28]देखें, किंग्स ऑफ़ कश्मीर (अनुवादक : जोगेश चन्द्र  दत्त), पेज़ 47, पुस्तक  1, खंड 3, जोनाराजा , ई एल एम प्रेस, कलकत्ता, 1898
[29]देखें, पेज़ 291-294, अ हिस्ट्री ऑफ़ सूफीज्म इन इंडिया, खंड 1, सैयद अतहर अब्बास रिज़वी, मुंशीलाल मनोहर लाल पब्लिशर्स प्राइवेट लिमिटेड,1978
[30]देखें, वही, पेज़ 305
[31]देखें, पेज़ 26, कश्मीर्स ट्रांजीशन टू इस्लाम, प्मोहम्मद इशाक़ खान, मनोहर पब्लिशर्स, दिल्ली, 1994
[32]देखें, पेज 103, ए हिस्ट्री ऑफ़ मुस्लिम रूल इन कश्मीर, आर के परमू, पीपुल्स पब्लिशिंग हाउस, दिल्ली, 1969
[33]देखें, पेज़ 12, पर्सपेक्टिव ऑन कश्मीर, मोहम्मद इशाक खान, गुलशन पब्लिशर्स, श्रीनगर, कश्मीर, 1983
[34]देखें, पेज़ 432, ए हिस्ट्री ऑफ़ मुस्लिम रूल इन कश्मीर, आर के परमू, पीपुल्स पब्लिशिंग हाउस, दिल्ली, 1969
[35]देखें, पेज़ 60 , रतन लाल हंगलू,द स्टेट इन मेडिवेल कश्मीर, मनोहर लाल पब्लिकेशन, दिल्ली-2000
[36]आनंद कौल बम्ज़ाई, द कश्मीरी पंडित, कलकत्ता 1924 ; आर सी काक, एंसियेंट मान्यूमेंट ऑफ़ कश्मीर, 1933, लन्दन ; लॉरेन्स, (पूर्वोद्धृत पुस्तक) 1895  
[37]देखें, पेज़ 41-43, कश्मीर बिहाइंड द वेल, एम् जे अकबर, रोली बुक्स, दिल्ली 2002
[38]देखें, वही, पेज़ 50
[39]देखें, वही, पेज़ 53-55
[40]देखें, अ हिस्ट्री ऑफ़ सिख्स, खुशवंत सिंह, प्रिंसटन-1963
[41]देखें, पेज़ 26-27, हिन्दू रूलर्स-मुस्लिम सब्जेक्ट, मृदु राय, परमानेंट ब्लैक, रानीखेत, 2004
[42]देखें, पेज़ 59, कश्मीर बिहाइंड द वेल, एम् जे अकबर, रोली बुक्स, दिल्ली 2002
[43]देखें, पेज़ 65, वही
[44]देखें, पेज़ 236, हिन्दू रूलर्स-मुस्लिम सब्जेक्ट, मृदु राय, परमानेंट ब्लैक, रानीखेत, 2004
[45]देखें, पेज़ 67-71, कश्मीर बिहाइंड द वेल, एम् जे अकबर, रोली बुक्स, दिल्ली 2002
[46]देखें, पेज़ 5-6, कश्मीर इंसरजेंसी एंड आफ्टर, बलराज पुरी, तीसरा संस्करण, ओरियेंट लॉन्गमैन, 2008
[47]देखें, पेज़ 7, वही
[48]देखें, पेज़ 9, वही
[49]देखें, पेज़ 13, वही

बिटिया के सहारे राजनीति मत चमकाइये दयाशंकर जी

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  • अंजुले की यह टिप्पणी उत्तर प्रदेश में इन दिनों चल रही उस राजनीति का पर्दाफ़ाश करती है, जो वोटों की फ़सल उगाने के लिए किसी भी हद तक गिर सकती है.







नसीम अंकल, मुझे बताएं कहाँ आना है , आपके पास पेश होने के लिए....?

सुनो सिस्टर....

तुम्हारा ये सवाल मासूम और जायज होते हुए भी बेहद पॉलटिकल है. क्योंकि ये एक व्यक्ति-विशेष को निशाने पर रखकर दिया गया है. जिसने ये शब्द बोले भी नहीं हैं. तुम्हारे बोलने के लिए ये सवाल जिन अंकल ने लिख कर दिया है ना, वही और उन जैसी मानसिकता के लोग ही जिम्मेदार हैं मायावती जी को कभी ‘वैश्या’ कहने के लिए, तो कभी तुम्हें ‘पेश'होने का आदेश देने के लिए. मैंने भी टीवी देखा तमाम न्यूज पेपर पढ़े, लेकिन कहीं भी तुम्हारे इन नसीम अंकल को ये नारे लगाते नहीं देखा सिस्टर. इसलिए मैं कह रहा हूं कि, ‘तुम्हारा ये सवाल मासूम और जायज होते हुए भी बेहद पॉलटिकल है’.

ये सवाल करने वाली उस 12 साल की बीजेपी नेता दयाशंकर की बिटिया से मुझे कहना है. मैं यहां अपनी क्रूर से क्रूरतम आलोचना और अपशब्द सुनने का ख़तरा उठाकर कहता हूं कि, ‘दयाशंकर जी अपनी बेटी-पत्नी का इस्तेमाल अब राजनीतिक ब्रांड बीजेपी नेता दयाशंकर की छीज गई इमेज को मरहम लगाने के लिए कर रहे हैं’.

राजनीति में परिवार और महिलाओं का घर के पुरुषों को बचाने के लिए दिया गया ये कोई पहली बाईट नहीं है. इंडिया से लेकर अमेरिका तक में इसके उदाहरण भरे पड़े हैं. ये सिर्फ अपने खिलाफ लगे नारे का प्रतिकार भर नहीं है बल्किं इसमें पिता के हिस्से सहानुभूति बटोरने की कवायद भी है. दयाशंकर जी की हेट स्पीच के विरोध में बसपा के जिन कार्यकर्ताओं ने हेट नारे लगाए, उनकी मैं बिना किंतु-परंतु के आलोचना करता हूं. लेकिन मैं उन मां-बाप और परिवार वालों की भी आलोचना करता हूं, जो एक 12 साल की लड़की के कंधे पर सवार होकर खो गई अपनी राजनीतिक जमीन तलाश रहे हैं. उसे एक राजनीतिक हथियार की तरह इस्तेमाल कर रहे हैं.

सिस्टर, मैं मानता हूं कि इन नारों को टीवी पर सुनकर और देखकर तुम्हें सिर्फ धक्का ही नहीं, डर भी लगा होगा, बिल्कुल अकेला हो जाने जैसा. लेकिन तुम्हारे सवाल से सहमत होते हुए भी जिसे टार्गेट कर सवाल किए गए हैं उससे सहमत नहीं हूं. आपने नसीम अंकल यानी नसीमुद्दीन सिद्दकी से सवाल किया है तो मैं जानना चाहता हूं, “क्या आपने ये नारे लगाते हुए अपने नसीम अंकल को सुना-देखा है टीवी पर ही सही”? अगर नहीं सुना और जैसा मेरा अंदाजा है कि आपके घरवालों ने जो लिखकर सवाल दिया, उनसे पूछना ये सवाल... नसीम अंकल से सिर्फ क्यों? सवाल तो उन सभी मानसिक रोगियों से पूछे जाने चाहिए ना, जो एक लड़की और महिला को निशाने पर ले कर कभी ‘वेश्या’ तो कभी ये ‘पेश करो’ के नारे लगा रहे हैं? मुझे अच्छा लगता और मैं आपको सलाम कर रहा होता अगर आप अपने पापा जी की बाईट पर, ‘कुछ नहीं कहना है’ की जगह, ‘पापा जी आपने गलत बोला है’ कहा होता. हालांकि कई लोग मेरी बात की आलोचना करते हुए मुझसे आपकी कम उम्र का हवाला देते हुए कहेंगे कि आप ये नहीं कह सकती हैं. बिल्कुल मैं उनकी बात से सहमत होता अगर आप ने ये नहीं पूछा होता कि, ‘एक आदमी के एक गुनाह की कितनी बार सजा दी जाएगी. उन्हें पार्टी से निकाल दिया गया, पद छिन लिए गए’? यानी वो जो उन्होंने कहा था वो गुनाह है आप मानती हो, लेकिन सीधे आलोचना की जगह आप अपने पिता को बख्श देती हो. मैं समझ सकता हूं ये हमारे-आपके परिवार का माहौल है जहां पैरेंटस की ऐसी आलोचना को बेअदबी माना जाता है. मानता हूं ये कोई अमेरिका तो नहीं है, लेकिन अमेरिका में ही कहां ये आलोचना पूरी तरह खरी उतर पाती है. आपकी मम्मा ने इस मामले में अपने कानूनी अधिकार का उपयोग करने का निर्णय लिया है ये जानकर मैं खुश हूं उन्हें इस मामले में निश्चित रुप से ये नारे लगाने वालों के खिलाफ मामला दर्ज कराया चाहिए और उससे भी पहले ये स्वत: यूपी पुलिस और सरकार को संज्ञान में लेकर मामला दर्ज कर कार्यवाही करनी चाहिए थी. मैं आपकी मम्मा के कदम से सहमत हूं सिस्टर बजाय आपके सवाल के. हां साथ ही मैं बीएसपी अध्यक्ष बहन मायावती जी की भी आलोचना करते हुए कहना चाहता हूं कि, ‘उन्हें खुद इन नारों की बात सामने आने पर आगे आकर आलोचना करनी चाहिए. हेट स्पीच के बदले हेट स्पीच, न्याय नहीं अन्याय ही है’. जो मायावती जी के लिए सही नहीं है वो दयाशंकर की बेटी या परिवार की किसी दूसरी महिला मेंबर के लिए भी सही नहीं हो सकती. और ये भी एक अपराधिक मामला ही है.

मेरा भी उसी पूर्वांचल की धरती से खून का रिश्ता है जहां से दयाशंकर आते हैं. वहां बेटे-बेटियों का राजनीतिक हितों के लिए कैसे इस्तेमाल किया जाता है ये मैंने भी देखा है. इसलिए मैं अपनी तमाम आलोचनाओं के ख़तरे को दरकिनार करते हुए कहता हूं उस लड़की से जिसे बेवजह निशाना बनाकर ‘पेश करो-पेश करो’ के नारे लगाये. ‘सिस्टर, पैरेंटस को अपना राजनीतिक इस्तेमाल मत करने दो. उनसे कहो... “प्लीज़, मम्मा-पापा मुझे राजनीतिक हथियार ना बनाओ”. और पूछो भी उनसे कि, ‘मम्मा, पापा जी ने या पापा जी आपने ऐसा क्या कह दिया जो कि लोग आज आपकी आलोचना कर रहे हैं?

सुनो, दाना मांझी सुनो..

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दाना माझी का क़िस्सा अखबारों से सोशल साइट्स तक वायरल है. दुःख, क्षोभ, गुस्सा सब लाइव है और इन सबके बीच जो अनुपस्थित है वह है उस वायरस की चिंता जो इस मुल्क में रोज़ दीना मांझी पैदा करता है. वे आंकड़ों के घर में रहते हैं, वे बुंदेलखंड में घास की रोटी खाते हैं, विदर्भ में सल्फास, महानगरों की झुग्गियों में ज़िल्लत और बिहार-झारखंड के बदनसीब इलाकों में मूस. सत्ता के समर्थक उन्हें कांग्रेस राज की पैदाइश बताते हैं तो विरोधी मोदी जी से सवाल पूछते हैं और इस तरह वे इस भारतमाता की ऐसी अनचाही औलादें हैं जिनकी जिम्मेदारी कोई नहीं लेता. राकेश पाठक की यह कविता खीझ और गुस्से से निकली एक नागरिक की पुकार है

  • राकेश पाठक
तुमने जब अपनी पत्नी के
शव को कंधे पर रख
राजपथ पर पहला कदम बढ़ाया
उस समय कैलाश पर्वत पर
त्रिनेत्रधारी शिव
शैलपुत्री के साथ विहार कर रहे थे

सृष्टि के रचयिता ब्रह्मा
नयी आकाशगंगाओं
का शिल्प गढ़ रहे थे

शेषशायी विष्णु क्षीरसागर में
कमल पर विराज कर
अपनी प्रिया पत्नी से
पाँव दबवाते हुए
मत्स्य कन्याओं का नृत्य देख रहे थे

देवराज इंद्र की सभा
सदैव की तरह
अप्सराओं के उद्दाम कामवेग
में हिलोरें ले रही थी

तुमने अर्धांगिनी के शव के साथ
जब दस कोस की यात्रा प्रारम्भ की
तब भद्रजन गिरिधर की भक्ति में लीन
झाँझ मजीरे बजाते हुए
गिरिराज पर्वत की पंचक्रोशी
परिक्रमा में थिरकते हुए
परलोक सुधारने में व्यस्त थे

लोकतंत्र की राजसभाओं में
सभासद विकास की स्वर्णाक्षरी लिखने
को गंभीर मंत्रणाओं में तल्लीन रहे

चारण और भाट समवेत स्वर में
सत्ता का विरुद गाते रहे
कवि प्रेम कवितायें
लिख लिख कर धन्य होते रहे

चित्रकार तूलिका से अमूर्त शैली में
नायिकाओं के उन्नत यौवन
रेखांकित कर नयनाभिराम चित्र बनाते रहे

संगीतकारों का अभ्यास
नए राग की रचना में
अनवरत चलता रहा

और तुम बिना थके
सृष्टि का महानतम भार
अपने कंधे पर रख चलते रहे, चलते रहे

स्वर्ग के देवताओं के पास नहीं था अवकाश
तुम्हारा आर्तनाद सुनने को
और न ही पृथ्वी के अधिनायक के पास समय

सुनो , दाना मांझी
दस कोस की इस महायात्रा में
तुम्हारे कंधे पर तुम्हारी पत्नी का नहीं
मनुष्यता का शव रखा था ।

क़िस्सा आधी माँ और आधी बेवाओं का

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यह क़िस्सा एक दोस्त के आदेश पर क़िस्सागोई के लिए लिखा गया था. किन्हीं वज़ूहात से वह मुमकिन नहीं हुआ तो सोचा यहीं आप सबको पढ़वा दूँ. कोई मित्र किसी रूप में उपयोग करना चाहे तो एकदम कर सकता है. बस मुझे सूचना दे देंगे तो अच्छा लगेगा - अशोक कुमार पाण्डेय 




पैंतीस की उम्र है मेरी. शोपियाँ में जन्मी. शोपियाँ नहीं जानते आप? वादी  ए कश्मीर का छोटा सा ताल्लुका. श्रीनगर  से  आयेंगे तो पुलवामा होकर आना  होगा. और इस्लामाबाद से ...अरे  आप तो अनंतनाग कहते हैं न उसे. वहाँ से आये तो ज़ैनापुरा होकर आना होगा. हाँ, सही पहचाना वही ज़ैनापुरा जिसे बड शाह ने बसाया था. कश्मीर का हीरा बादशाह. ज़ैनुलआब्दीन. सोचिये बुतशिक़न सिकन्दर का बेटा ज़ैनुलआब्दीन जिसने अपने बाप के सारे क़ायदे बदल दिए. उसके  डर  से  भाग गए पंडितों को फिर से बसाया और हिन्दू मुसलमान का भेड़ किए बिना कश्मीर को जन्नत में बदल दिया. उन्हीं के वक़्त में थे नुन्द ऋषि. शेख नुरूद्दीन.  आप कहेंगे ये मुसलमान ऋषि कैसे हो गया? है न गड़बड़झाला? यही कश्मीर है मेरा ...इत्ती आसानी से समझ नहीं आता. अच्छा अगर बताऊं कि जब नुन्द पैदा हुए तो अपनी माँ का दूध ही नहीं पी रहे थे और जोगिन लल द्यद ने जब अपना सीना उनके मुंह में देकर कहा कि दुनिया में आने से नहीं शर्माए तो इसके सुख लेने से क्यों शर्मा रहे हो तो उस बूढ़ी जोगिन के सीने में दूध उतर आया. हिन्दू जोगिन का पहला दूध पीकर यह बच्चा मुसलमानों का सबसे बड़ा पीर बना कश्मीर में, तो? सन्न रह जाओगे न? ऐसा ही है हमारा कश्मीर. न हिन्दुस्तान समझा न पाकिस्तान. सबको अपने रंग में रंगने की पड़ी है...खैर चली थी अपना क़िस्सा सुनाने और कहाँ के किस्से ले बैठी मैं. क्या करें यहाँ किसी के किस्से सिर्फ़ उसके कहाँ होते हैं? एक माज़ी है सर पे सवार, और एक वर्तमान है रगों में खून सा तैरता. खैर मैं शोपियाँ के बारे बता रही थी आपको. आने के लिए पहाड़ी रस्ते. बसें चलती हैं धीरे धीरे. बीच-बीच में रुकती है कहीं तो लोग भाग के कहवा पीने जाते हैं. और जब रोक दी जाती है तो क़तार बना के खड़े हो जातें हैं तलाशी के लिए.
 
उस दिन बर्फ़ गिरी थी वादी में. ऐसी ठण्ड की हड्डियाँ जम जाएँ. फिरन के भीतर कांगर के गर्म कोयले भी जैसे बर्फ़ बन गए थे. शाहीन तो बिस्तर से उठने का नाम न ले. स्कूल बंद थे तो यासीन भी घर में दुबका रहा. ऐसे तो पाँव नहीं पड़ते घर में. जब देखो क्रिकेट क्रिकेट. बल्ला उठाया और निकल लिए मैदान में. लेकिन उस दिन सारी गलियाँ कुहरे में डूबी थीं और मस्ज़िद से आती अस्र की नमाज़ की आवाज़ें जैसे उन्हीं कुहरों में डूबती जा रही थीं. सूरज था ही नहीं कहीं आसमान में पर नमाज़ बता रही थी कि जहाँ कहीं था वह अब डूबने वाला था. शाहिद अब तक नहीं लौटे थे. अब तक तो लौट आना था पुलवामा से. हर हफ्ते जुमे के रोज़ सुबह की बस से जाकर वहाँ से किराने का सामान ले आते. हमारी छोटी सी दुकान थी न किराने की. शक्कर, चाय पत्ती, टॉफी, चिप्स, चावल सब मिलता था. दिन में शाहिद बैठते दोपहर बाद मैं और शाम को शाहिद के साथ यासीन भी. थोड़े से खेत थे, चंद पेड़ सेब के और मजे से चल रहा था घर. यासीन को पढ़ा रहे थे शाह ए हमादान स्कूल में. शाह ए हमादान को तो जानते हैं न आप? अरे! इतनी नावाक़फियत हमसे! आख़िर आप ही कहते हैं कि हम हिन्दुस्तानी हैं. यहाँ तो बच्चा बच्चा जानता है बुद्ध को, राम को, महाभारत को और आप...खैर. हमादान से आये थे सैयद अली हमदानी. बड़े पहुँचे सूफ़ी पीर थे. कहते हैं नौ बरस के थे तो जबानी याद कर ली थी क़ुरान शरीफ़. तैमूर के वक़्त में जब उसने ख़ुद के लिए ख़िलाफ़त मांगी तो इंकार कर दिया सूफ़ियों ने. वह बेहद नाराज़. उसके क़हर से बचने के लिए छोड़ दिया अपना शहर. दुनिया भर में दीन का प्रचार करने निकल पड़े. कई बार हज़ किये. पीर-मौलवी थे आख़िर हम जैसे अभागे तो थे नहीं कि चरार-ए-शरीफ़ तक जाने को तरस जाएँ. घूमते घूमते कश्मीर आये तो इन ख़ूबसूरत वादियों ने रोक लिया उन्हें. सुल्तान क़ुतुबुद्दीन का राज था उन दिनों. मलंग सुल्तान. मस्ज़िद जाता तो मंदिर भी. हिन्दुओं से कपडे पहनता. गाने सुनता. शाह ए हमादान को पूरी इज्ज़त दी. खानकाह की ज़मीन दी और बदले में शाह उसे असली मुसलमान बनाने पर लग गए. दीन और शरिया ऐसा सिखाया कि उसने अपनी दो बेगमों में से एक को तलाक़ दे दिया. सगी बहनें थीं न वे और शरिया इसकी इज़ाज़त नहीं देता. और औरत बेग़म हो बादशाह की या फिर ग़रीब की. उसकी औकात ही क्या? बोल दिया तीन बार तलाक़ दे दिए मेहर के टुकड़े और क़िस्सा ख़त्म. जिए या मरे क्या फ़र्क पड़ता है. दीन के अलम की रौशनी तो औरत की आहों से ही बढ़ती है न. खैर..देखिये न मैं फिर बहक गई. तो उस रोज़ शाम से रात होने को आई...नमाज़ ए मगरिब की आवाज़ कानों में पड़ी तो दिल बैठने लगा. इतनी देर तो कभी नहीं हुई और फिर जब नमाज़ ए इशा पढ़ने बैठी तो अगल बगल बैठे बच्चों के साथ फूट फूट कर रो पड़ी. कहीं से कोई ख़बर नहीं आई थी. चौक तक हो आई कई बार. बस वालों से पूछा. कहीं कोई ख़बर नहीं. दूसरे मोहल्ले में शाहिद के चचाजात भाई रहते थे मोहसिन भाई. उनकी भी दुकान थी किराने की ही. अक्सर दोनों साथ ही आते जाते थे. कुछ न सूझा तो भाग के उनके पास गई. गलियों में घुप अँधेरा. थोड़ी थोड़ी दूर पर आर्मी वाले दीखते. मैंने अपना आई कार्ड गले में लटका लिया था. किसी ने न रोका. वहाँ पहुँची तो उदासी का कुहरा दरवाज़े तक पसरा था. भीतर जख्मी मोहसिन भाई बिस्तर पर पड़े थे. मुझे देखते फूट पड़े. “चेकिंग हुई थी बस की. बहुत मारा. सबको मारा. शाहिद को भी मारा. वह ठहरा गुस्से वाला. बहस करने लगा तो उठा ले गए उसे अपने साथ. मैं आने वाला था बताने लेकिन हाथ-पाँव सब सुन्न हैं.” सुन्न होने की बारी तो अब मेरी थी. वहीँ ढेर हो गई ज़मीन पर. उठा ले गए! कहाँ? जाने पुलवामा के थाने में रखा होगा कि इस्लामाबाद ले गए होंगे. कहीं श्रीनगर तो नहीं. आँखों के सामने अँधेरा छा रहा था...   

रात क्या थी क़यामत की रात थी वह. सोचती हूँ उस रात क्या गुज़री होगी हसन-हुसैन के  बीबी बच्चों पर. मर्द शहीद हो जाता है औरतें बेवा रह जाती हैं बस और बच्चे यतीम. किसी किस्से में उनके आँसुओं की नमी नहीं होती शामिल. उनकी ज़िन्दगी की तो तमाम रातें क़यामत की रातें हो जाती हैं न. उस्मान को ले गए थे आर्मी वाले. आज छः महीने हुए कहीं कुछ पता नहीं. पगली सी सोफ़िया घूमती रहती है इस थाने से उस थाने. इस चौकी से उस चौकी. बच्चे का स्कूल छूट गया. दस बरस का बच्चा मज़दूरी करता है. बूढ़ा बाप कलप कलप के मर गया. एक घर और दो बेवा औरतें. एक पूरी और एक आधी. मेरे अल्लाह रहम कर. रहम कर मौला. इन मासूम बच्चों पर रहम कर. सीधा सादा मर्द मेरा. पाँच वक़्त का नमाज़ी. कभी तेरी शान में कोई गुस्ताखी नहीं की. किसी ग़ैर औरत को नज़र उठा के न देखा. उसे क्या करना बंदूकों से? उसे क्या करना ज़िहादियों से? उसके तो सारे सपने इन दो बच्चों के लिए हैं. कहता है अलीगढ़ भेजूँगा यासीन को. इंजीनियर बनाऊंगा. शेख़ साहब की तरह बड़ा आदमी बनके लौटेगा. और लौट के क्या मिला था शेख साहब को? डोगरा राजा के दरबार में कोई ढंग की नौकरी नहीं थी किसी मुसलमान के लिए. मुदर्रिस हुए स्कूल में. वो तो तीस का गुस्सा था जिसके नेता बन के उभरे वह और फिर बाबा ए कश्मीर बन गए वरना चली जाती ज़िन्दगी बच्चों को पढ़ाते हुए. इतना कहती हूँ कोई काम धंधा सिखाओ इसे. बन भी गया इंजिनियर तो कहाँ रखी है नौकरी इस सूबे में? बड़े घर का होता तो इंग्लैण्ड अमरीका चला जाता. हम कहाँ से भेजेंगे इसे? ऐसे सपने न देखो कि कल को उसकी किरचें आँखों में चुभे. पर दीवाना है वह तो. किसी की नहीं सुनता. मजलिस से लड़ के चला आता है. एक एक पैसा बचाता है इन बच्चों के लिए. मौला उस पर ये ज़ुल्म क्यों?

सुबह हुई तो जैसे सूरज की रौशनी में धब्बे पड़ गए थे. बच्चों को जल्दी से नाश्ता कराया और मोहसिन भाई के घर छोड़ दिया. पहली बस पकड़ के पुलवामा पहुँची
. इतनी उम्र हुई न कभी थाने गई न कचहरी. हाथ-पाँव फूल रहे थे. मैं ग़रीब ज़ाहिल कैसे बात करुँगी हाकिमों से. क्या कहूँगी, क्या सुनूँगी. किसी को साथ लाना चाहिए था शायद. खैर, ख़ुदा ख़ुदा करके पहुँच गई थाने में. भला आदमी था बिचारा संतरी सीधे थानेदार के पास ले गया. पर वहाँ कोई सुनवाई नहीं थी, बोले, “आर्मी वाले ले गए होंगे. उनके आगे हमारी क्या चलती है? तुम आर्मी कैम्प जाओ. वहाँ से कुछ पता चले शायद.”  आर्मी कैम्प! नाम ही सुना था. रूह कंपाने वाले किस्से. मुहल्ले के जुनूबी कोने पर रहने वाले सादिक़ मास्टर का बेटा गिरफ़्तार हुआ था गर्मियों में. श्रीनगर में पढता था. कैसा सुन्दर बांका नौजवान था. कितनी शीरीं आवाज़. लेकिन जबसे श्रीनगर गया था चुप चुप रहने लगा था. जाने कहाँ भटकता रहता दिन भर. अपनी ही दुनिया में गुम. और उस रात जब आर्मी ने रेड डाली तब पता चला सबको कि जेहादी हो गया था वह. फिरन के अन्दर बन्दूक छिपा के रखता था. मास्टर के जूते घिस गए आर्मी कैम्पों के चक्कर लगाते पर आज तक कोई ख़बर न मिली. कहते हैं पापा टू में रखा है उसे! पापा टू! श्रीनगर की सबसे खौफ़नाक जेल. बच के निकल भी आये कोई वहाँ से तो बाक़ी उम्र किसी काम का नहीं रहता. आख़िर क्यों लगी है ऐसा आग. इतने मासूम बच्चे क्यों उठा लेते हैं बन्दूक. आग लगे इस सियासत को. आर्मी के किस्से सुनाते सुनाते सादिक़ मास्टर जुल्चू की कहानी सुनाने  लगते. खूँखार तुर्क लुटेरा. आया तो श्रीनगर वीरान हो गया. राजा भाग गया. मर्दों की जान गई औरतों की आबरू. बेवा शहर की जिस गली में उसके सैनिक घुस जाते, वीरान हो जाती. माल-असबाब लूटकर मर्दों की हत्या कर देते और औरतें...उनके लिए तो सबके पास एक ही भूख है एक ही प्यास. कहते हैं जब वह गया तो कोई घर साबुत न बचा था, किसी कोठली में अनाज न था. रिंचन आया तब आगे. मदद की सबकी. श्रीनगर को फिर से बसाया. बौद्ध था वह हिन्दू बनना चाहता था. पंडितों ने मना कर दिया तो बुलबुल शाह के पास गया और मुसलमान बन गया. कश्मीर का पहला मुस्लिम बादशाह. और उसकी बीबी. कोटा रानी! उसके बाप की हत्या कर तो बना था रिंचन बादशाह. फिर वह मरा तो नन्ही सी जान छोड़ गया. बुला के पुराने राजा के भाई को सबने गद्दी पर बिठाया. उसने भी कोटा से शादी की. न करती तो क्या करती? हर ओर साजिशों के बीच कहीं मर खप गई होती वह. राजा के मरने के बाद क्या हुआ? जब उसने ख़ुद राज चलाना चाहा तो वज़ीर शाहमीर ने कहाँ बर्दाश्त किया? गिरफ़्तार किया. शादी की. और एक रात गुज़ारने के बाद ख़त्म कर दिया उसे बच्चे सहित. इसीलिए तो दिद्दा ने नहीं किया था भरोसा किसी पर. दिद्दा! जानते हैं न आप? नहीं जानते...खैर बताती हूँ. नौवीं सदी में क्षेमेन्द्र नाम के राजा की रानी थी. राजा दिन रात औरतों के साथ रंगरलियाँ मनाता. शराब और औरत. बस यही ज़िन्दगी थी उसकी. निकलना पड़ा दिद्दा को परदे से बाहर और राज संभाल लिया उसने. सारे दांवपेंच सीखे. अपनी अय्याशी के चलते कम उम्र में मर गया राजा और कमसिन बेटे को गद्दी पर बिठा के दिद्दा राज करने लगी. सत्ता के भूखे सियासतदानों के सामने उसने अपनी सुन्दर देह को हथियार बना लिया. कपडे की तरह बदले आशिक़. जिससे काम निकल गया उसे बेरहमी से क़त्ल करा दिया. और सत्ता का लालच जानते हैं न आप? एक दिन अपने नन्हें पोतों को भी मरवा दिया उसने. सब उसे बुरा कहते हैं. क़ातिल-अय्याश-आवारा. पर सोचिये ज़रा न करती ये सब तो आज कोई नाम भी जानता उसका? फेंक दिया गया होता राजा की चिता पर उसे और इतिहास की धूल-गर्द में दब गई होती कहीं. मर्दों के खेल में किसी और नियम से कैसे खेल सकती है कोई औरत भी? फिर बहका दिया आपने मुझे, ऐसे कैसे सुनाऊंगी अपनी कहानी मैं!

तो आर्मी कैम्प पहुँच गई मैं. जाने कहाँ से आ गई थी इतनी हिम्मत. पर भीतर कौन जाने दे? बाहर के दो संतरियों में से एक तो कुछ सुनने को ही तैयार नहीं पर दूसरा भला मानस था. कितना मासूम चेहरा. चेहरे पर एक उदासी की चादर सी थी. जाने क्या गुनाह है इन बन्दों का भी कि घर-परिवार से दूर यहाँ अनजान बस्ती में मौत का सामान पकड़ा के भेज दिया गया है. दिन रात संगीनों के साए में. मौत का खेल खेलते. इनकी माओं के भी कलेजे फटते होंगे. जाने कब कौन सी ख़बर आ जाए. अल्लाह रहम कर. हर ग़रीब पर रहम कर. बंद करवा ये ख़ूनी खेल. लेकिन भीतर जो अफसर मिला उसकी बातों में मासूमियत का कोई क़तरा नहीं था. एक बात न सुनी कमबख्त ने. नाम-फोटो सब लेकर रख लिया और बोला, ख़बर मिली तो बता देंगे. मैं रोने लगी तो झिड़क कर बोला “तब रोना था बीबी जब मियाँ तुम्हारा जेहादियों का ख़बरी बन रहा था. हर जुमे जाता था पुलवामा ख़बर पहुँचाने.” मैं रोती रही, मिन्नतें करती रही. वह तो सौदा लाने जाता था साहब. किराने की दुकान है हमारी. सामान लाने जाता था वह. ख़बरी नहीं है वह हुज़ूर. कुछ लेना देना नहीं उसका जिहादियों से. पर कौन सुनता. वहां से चले जाने का हुक्म हुआ बस. और फिर शुरू हुआ भटकने का मुसलसल सफ़र. पुलवामा-इस्लामाबाद-श्रीनगर-थाना-जेल-कैम्प. जिस औरत ने शोपियाँ के बाहर की दुनिया न देखी पैंतीस वर्षों में उसने जाने कौन कौन सी गलियाँ देख लीं. कभी बुलाया जाता लाशों की पहचान करने को तो कलेजा पत्थर करके जाती. कभी घर आ जाते आर्मी के जवान तो रूह काँप जाती. कैसी नज़रों से घूरते थे घर को. जहाँ चाहते बेधड़क घुस जाते. शाहिद का एक एक सामान उलट पुलट डाला. दुकान का एक एक कोना छान मारा. हम तीनों एक कोने में दुबके रहते. यासीन अपने बाप पर ही गया था. गुस्से से पागल हो जाता लेकिन मैं उसे थामे रहती. पढ़ाई छूट गई उसकी. दुकान बर्बाद हो गई. खेतों में किसी तरह हो जाता चावल और मक्का इतना कि भूखे न रहना पड़े. पर बाक़ी ख़र्चे चलाना मुश्किल. ऊपर से ये दौड़ भाग.  अल्लाह रहम कर... 

और फिर तांता लगा अजीब अजीब लोगों का. कंधे पर कैमरे लटकाए चले आते. रिकॉर्डर ऑन करते और शुरू हो जाते. आपका नाम? अरे नाम तो मैंने बताया ही नहीं आपको! वैसे भी क्या नाम होता है औरत का? किसी की बेटी फिर किसी की बीबी और फिर किसी की माँ. न हुआ होता यह हादसा तो किसको रूचि थी मेरे नाम में? खैर नाम तो है ही मेरा एक. राबिया. राबिया जानते हैं आप? तुर्की में पैदा हुई थीं. ग़रीब माँ-बाप की औलाद. सात साल की थीं जब सड़क से उठाकर बेच दिया था किसी ने. क़िस्मत ने गुलामी लिखनी चाही उनके माथे पर, लेकिन उनका दिल तो ख़ुदा में बसता था. सूफ़ी हो गईं. छोड़ दी दुनिया. जंगल में रहती थीं जानवरों के बीच. जानवर ख़रीद फ़रोख्त नहीं करते न. बलात्कार भी नहीं करते. गोलियाँ भी नहीं चलाते. सिरहाने ईंट का तकिया, तन पर एक फटा पुराना लिबास और पानी के लिए टूटी मटकी. बस यही ज़ायदाद थी उनकी. बड़े बड़े पीर फकीर आते उनके पास. सूफ़ियों की दुनिया में बड़ा मान है उनका. लल द्यद को भी नाम दिया था उनके दीवानों ने – राबिया सानी. उनका भी क्या था. गरीब ब्राह्मण की बेटी. आठ साल की उम्र में ब्याह हुआ. सास खाने को देती तो थाल में पत्थर रख देती और उसके ऊपर चावल. भूखी प्यासी दिन भर खटती. जंगल में जातीं पानी लाने तो बैठ जातीं ध्यान लगाकर. जब कहीं से न मिले मुहब्बत तो ऊपरवाले के अलावा सहारा क्या है? एक दिन छोड़ दिया सबकुछ और जोगन हो गईं. न तन पे लिबास न मन में कोई सपना. गली गली घूमतीं और वाख रचतीं. आज तक कश्मीर में कहे जाते हैं उनके वाख. मीराबाई को भी घर छोड़ना पड़ा था न? औरत या तो घर के चूल्हे में ख़ाक हो जाए या फिर छोड़ दे और उम्र भर के लिए बेघर हो जाए. पर वो सब तो महान औरतें थीं. हिम्मतवाली. मैं तो एक आम औरत. बचपन से सपना एक घर का जहाँ एक शौहर हो, दो बच्चे हों, अनाज हो घर में, दरवाज़े पर फूलों की क्यारी हो. और मिला भी था यह सब. जाने किसकी नज़र लगी सब छिन गया उस मनहूस रात. जो पूछता उसे वही क़िस्सा दुहरा देती. जो दरवाज़ा दीखता उस पर गुहार लगाती. जो जहाँ कहता चली जाती. मिन्नतें करती, हाथ जोड़ती. कोई सुन लेता कोई सुनता भी नहीं. और ये लोग...किसी को अखबार में कहानी बनानी थी, कोई किताब लिख रहा था, किसी को फ़िल्म बनानी थी..किसी को कुछ तो किसी को कुछ. शुरू शुरू में बड़े उत्साह से बताती. लगता दुनिया को ख़बर मिलेगी तो मदद करेंगे सब. पर धीरे धीरे समझ आया कि हम बस एक क़िस्सा हैं सबके लिए. शोपियाँ से श्रीनगर श्रीनगर से दिल्ली दिल्ली से अमेरिका. सबके लिए एक क़िस्सा हैं हम...एक उदास क़िस्सा जिसे सुनकर उनकी रूह में थोड़ी देर हरक़त तो होती है लेकिन थोड़ी देर बाद सब सामान्य हो जाता है और वे पन्ने पलट कर नए किस्से ढूँढने लगते हैं. किस्सागो को ईनाम मिल जाता है, सुनने वाले को सुकून और हम वैसे के वैसे.

हाँ ...मैं नहीं हम. अकेली नहीं हूँ मैं. श्रीनगर गई तो पता चला मुझ जैसी अभागनों की लम्बी फेहरिश्त है कश्मीर में. 89 में जब आग लगी कश्मीर में और हमारे सैकड़ों बरस के पड़ोसी पंडित घाटी छोड़ के जाने को मज़बूर हुए तबसे लेकर अब तक हज़ारों ऐसे लोग  ग़ायब हुए कि आज तक नहीं लौटे. सच कहूँ तो कौन बेघर नहीं है कश्मीर में अमीर-उमराओं के अलावा. पंडित बेचारे पुरखों का घर छोड़कर जाने कहाँ कहाँ भटक रहे हैं, जिन्होंने बन्दूक थाम ली उनका तो कोई ठिकाना ही नहीं, कौन सी गोली पर नाम लिखा हो उनका कौन जाने, ये जो आर्मी वाले यहाँ अपने घर बार छोड़ के भटक रहे हैं उनकी भी क्या ज़िन्दगी है. मारते हैं मरते हैं जाने किसके लिए. और हम जैसे आम लोग. किस पल हो जायेंगे बेघर कोई नहीं जानता. आधी बेवा कहा जाता है हम जैसों को. न सुहागन न बेवा. माएं हैं आधी जिनके बेटों की कोई ख़बर नहीं. रैलियाँ निकालते हैं, दुनिया भर में ख़त लिखते हैं लेकिन आगा साहब कहते हैं न – यह बिना डाकघर का मुल्क है. कहीं से कोई जवाब नहीं आता. हब्बा खातूने हैं हम भटकती हुई अपने-अपने युसुफ के लिए. जानते हैं न हब्बा ख़ातून और युसुफ चक का क़िस्सा? फ़िल्म तो देखी होगी. युसुफ चक खानदान का चिराग़. शायर मिजाज़. मौसिकी का दीवाना. लंबा क़द, ख़ूबसूरत काठी, बांका जवान. तलवारबाज़ी ही नहीं संगीत भी सीखा था उसने. ऊबता जब सियासत से तो वादियों में निकल जाता अपने काले अरबी घोड़े पर बैठकर. भटकता रहता यहाँ वहाँ. झेलम के किनारे बैठ ऐसे ही एक दिन खोया था वादी की ख़ूबसूरती में कि एक आवाज़ सुनाई दी. दर्द से भरी मासूम आवाज़. पीछा करते पहुँचा तो हब्बा ख़ातून चिनार से सर टिकाये आँखें मूंदे गा रही थी. बड़ी बड़ी आँखे, सुतवां ज़िस्म और आवाज़ ऐसी कि रूह को छू ले. दीवाना हो गया युसुफ. ब्याह लाया उसे. कितने खुश थे दोनों. सियासत की पेचीदगियों से जूझकर लौटता जब तो हब्बा की बाहों में डूब जाता. जंग के मैदान से लौटता तो उसके जख्मों को चूम लेती वह और जख्म फूल से महकने लगते. दोनों निकल जाते वादियों में. हँसते-गाते-शेर कहते. दिन हवा की तरह निकल रहे थे पर हाय रे सियासत. देखते देखते कश्मीर शहंशाह ए हिन्द जलालुद्दीन मोहम्मद अक़बर के परचम तले आ गया. युसुफ को पटना भेज दिया गया
.हब्बा अकेली रह गई. न कोई घर न सहारा. भटकती रहती अपने युसुफ को याद करती, उसके लिए नज़्में कहती, कहीं बैठकर गाने लगती तो आँखों से अपने आप आँसू झरने लगते. युसुफ कभी नहीं लौट पाए पटना से.  हब्बा उम्र भर यों ही तड़पती रही. क़िस्सा बन गई. पहली आधी बेवा थी वह कश्मीर की. उसे कुछ नहीं चाहिए था. न महल न सेना न राजपाट न सोना...बस अपना युसुफ चाहिए था. देखिये न उसकी तड़प...



किस सौतन ने कर दिया तुमको मुझ से दूर?
 
काहे किया पिया धोखा मुझसे काहे गए तुम दूर? 

मेरी बगिया में फूले हैं रंग बिरंगे फूल
काहे किया पिया धोखा मुझसे काहे गए तुम दूर? 
प्यारे मेरे तुम ही पीया हो सोचूँ तुम्हें दिन रात
काहे किया पिया धोखा मुझसे काहे गए तुम दूर?  

रात रात भर अपने दरवाज़े रखती हूँ मैं खोल 
आओ आके करो प्रवेश तुम हो गहना मेरे अनमोल
मेरे घर का रास्ता कैसे गए तुम भूल
काहे किया पिया धोखा मुझसे काहे गए तुम दूर? 

क़सम तुम्हारी कहीं नहीं अब आती-जाती हूँ मैं  
रुत बासंती में भी नहीं घर से कहीं मैं निकसी
आग में जलती देह मेरी क्यूं नहीं आग बुझाते हो तुम
काहे किया पिया धोखा मुझसे काहे गए तुम दूर? 

मुझे तो गीत लिखने भी नहीं आता. कैसे कहूँ मैं अपने दिल का दर्द. किससे कहूँ यह सब मेरे मौला. सब छीन लो मेरे मौला मुझसे...कुछ न मांगूंगी उम्र भर तुमसे. मर्दों का खेल है सियासत. हम औरतों की कौन सुनेगा? मैं ज़ाहिल -ग़रीब औरत तो बस सर झुकाती हूँ, हाथ जोडती हूँ, मिन्नतें करती हूँ, पाँव पड़ती हूँ ...माँ हूँ मैं, बीबी एक ग़रीब की. जो गुज़री मुझ पर किसी माँ पर न गुज़रे. कोई बड़ी बात नहीं है मेरे पास कहने को. बस राबिया, लल द्यद और हब्बा की तरह बेपनाह मुहब्बत है सबको बाँट देने के लिए. उसी का वास्ता देती हूँ...ए हिन्दुस्तान, ए पाकिस्तान, ए शहंशाह ए हिन्द, शहंशाह ए कश्मीर कुछ नहीं चाहिए मुझ ग़रीब को..सब ले लो ....बस मेरा शाहिद लौटा दो मुझे. न हो ज़िंदा तो उसकी लाश ही सही. कम से कम उस बदनसीब को कफ़न-दफ़न तो मिले. इस आधेपन में नहीं जीना चाहती एक दिन भी मैं. मुझे पूरा कर दो मौला...मुझे पूरा कर दो.
                                


उदयपुर मे "प्रतिरोध का सिनेमा"रुकवाने की संघी कोशिश

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  • प्रज्ञा जोशी
कल 14 अक्तूबर से शुरू होने वाले चौथे उदयपुर फ़िल्म फेस्टिवल को फेस्टिवल शुरू होने से ठीक एक दिन पहले की शाम को संघ और प्रसाशन ने दबाव बनाकर रुकवाने की भरपूर कोशिश की. फिल्मोत्सव के आयोजकों को पुलिस प्रसाशन द्वारा बुलाकर देर रात तक लम्बी बैठक की गयी. प्रशासन से बैठक का कारण यह था कि राजकीय कृषि महाविद्यालय का ऑडिटोरियम जो कि फ़िल्म महोत्सव करने का स्थल था यूनिवर्सिटी द्वारा रद्द कर दिया गया और इसका कारण यह बताया गया कि प्रशासन से कार्यक्रम की पूर्वानुमति नहीं ली गयी थी. ज्ञातव्य है कि उदयपुर फ़िल्म सोसाइटी पिछले चार साल से यह फ़िल्म फेस्टिवल कर रही है, न तो पिछले तीन फिल्मोत्सवों में कोई पूर्वानुमति ली गयी और न ही किसी भी सांस्कृतिक आयोजन में कभी भी ऐसी किसी अनुमति की जरुरत होती है.




दरअसल अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद् के द्वारा कृषि विश्वविद्यालय के कुलपति को ज्ञापन सौंपा गया था. जिसमे फ़िल्म महोत्सव को आग भड़काने और बाबा साहेब आंबेडकर के नाम पर राजनीति करने वाला बताया गया. कुलपति ने दबाव में आकर विश्विद्यालय सभागार में कार्यक्रम को निरस्त कर दिया जबकि इसकी पूर्व लिखित अनुमति सोसाइटी ने पहले ही ले ली थी एवं निर्धारित शुल्क 24,450 रूपये भी जमा करा दिए थे.

विश्वविद्यालय द्वारा अनुमति निरस्त किए जाने के बाद सोसाइटी को आनन-फानन में नया कार्यक्रम स्थल चुनना पड़ा. अब यह फ़िल्म महोत्सव विद्या भवन ऑडिटोरियम में होगा. पूरा कार्यक्रम तीनो दिन यथावत वैसे ही रहेगा.

इस ख़बर के साथ एबीवीपी की प्रेस विज्ञप्ति और कृषि महाविद्यालय के डीन के द्वारा दिया गया निरस्तगी का पत्र संलग्न है. विद्यार्थी परिषद् की प्रेस विज्ञप्ति में रोहित वेमुला, गुजरात के ऊना मामले और कैराना जैसे विषयों पर फ़िल्म प्रदर्शन और बहस को धर्म एवं जाति पर लड़वाने वाला विषय बताया गया और यह सब मामले छात्रों को बरगलाने की साजिश बताये गये हैं. फेस्टिवल के आयोजकों द्वारा कहा गया कि जातिगत शोषण के सभी मुद्दों पर बात एवं बहस करके ही जतिमुक्त समाज की दिशा में बढ़ा जा सकता है. इन सभी मुद्दों पर बात करके एवं जातिगत भेदभाव एवं अन्याय का कड़ा विरोध करके ही हम एक समतामूलक समाज की दिशा में आगे बढ़ सकते है. अतः इन विषयों पर चुप्पी नहीं बल्कि बात करना ही जिम्मेदार नागरिक का कर्तव्य है. पुलिस प्रशासन द्वारा जिन फिल्मों पर आपति एवं सवाल उठाये गये उनके बारें में सोसाइटी का कहना है कि वह सभी फ़िल्में देश के प्रतिष्ठित निर्माताओं और निर्देशकों द्वारा बनाई गयी है. जिन्हें देश विदेश में पर्याप्त प्रशंसा भी मिली है

आप झूठ फैला रहे हैं साक्षी महाराज - शम्सुल इस्लाम

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भारतमेंमुसलमानोंकीआबादीकेबारेमेंहिंदुत्वादीसफ़ेदझूठ

चित्र गूगल से साभार 

गेरुआ वस्त्र-धारीसाक्षीजोस्वयंकोमहाराजकहलानापसंदकरतेहैं, एकऐसेवयक्तिहैंजोभारतकेप्रजातान्त्रिक-सेक्युलरसंविधान, भारतकेधार्मिकअल्प-सांख्यिकसमूदायोंविशेषकरमुस्लमानोंऔरईसाइयोंकेखिलाफलगातारज़हरउगलतेरहतेहैं।यहहिंदुत्वराजनीतीकावहीसिपहसालारहैजिसनेगांधीजीकेहत्यारे, नाथरामगोडसेकोमहामंडितकरतेहुवेउसेराष्ट्रीयदेशभक्तघोषितकरनेकी  मांगकीथी।

राष्ट्रविरोधीज़हरउगलनेकेकामकोजारीरखतेहुवेहालहीमेंउन्होंउत्तरप्रदेशकेमेरठनगरमेंदेशमेंबढ़तीआबादीकीसमसयाकेबारेमेंप्रवचनदेतेहुवेफ़रमाया:   "यहजोजनसंख्या बढ़रहीहैइसकेलिएहिन्दूज़िम्मेदारनहींहैं।  जनसंख्याउनलोगोंकेकारणबढ़ीहैजो 4 शादियोंऔर 40 बच्चोंकासमर्थनकरतेहैं।"

यादरहेकीउत्तरप्रदेशमेंअगलेमहीनेविधानसभाचुनावहोनेहैंऔरआबादीबढ़नेको4 शादियोंऔर40 बच्चोंकेहोनेसेजोड़करमुसलमानोंकेख़िलाफ़नफ़रत  फेलानेकाहीउनका उद्देश्य था। 

अर्ध-शिक्षितआरएसएस/बीजेपीनेता, जोबदकिस्मतीसेलोकसभासदस्यभीहैं, कोइतनी  जानकारीनहींहैकीजहाँतकमर्दोंदुवाराएकसेज़्यादाबीवीरखनेकामामलाहैआदिवासियों, हिंदुओंऔरबौद्धोंमेंमुसलमानोंसेज़ियादाइसकाप्रचलनहै।  

साक्षी  कीधर्मानताकेकारणउनकोयहएकसामानयसच्चाईभीसमझमेंनहींआतीकिएकमर्दहरतरहकीमर्दानगीकेदावोंकेबावजूद4 बीवियांसेउतनेबच्चेपैदानहींकरसकताजितनेबच्चे4 औरतोंकी4 मर्दोंसेशादीकेबादपैदाहोनेकीसम्भावनाहोगी।   

एकबीवीकेरहतेहुवेदूसरीयाशादियां, अपनेआपमेंएकशर्मनाकप्रचलनहैजिसकीकिसीभीसभयसमाजमेंइजाज़तनहींहोनीचाहिए, लेकिनयहदावाकरनाकियहमुसलमानोंतकसीमितहैएकसफ़ेदझूटहै।  भगवनरामकेपिताराजादशरथकीएकहीसमयमें3 पत्नियां(कौशल्या, केकईऔरसुमित्रा) थींऔरउनकेकेवल4 संतानेंथींनाकि30 जोसाक्षीकेफॉर्मूलेकेहिसाबसेहोनीचाहिएथीं।  इसीतरहश्रीकृष्णकी8 मुख्यरानियोंऔरसेंकड़ोंछोटीरानियोंकेबावजूद80+ संतानेंनहींथीं। 
  
मुसलमानोंमें4 शादियोंकाव्यापकप्रचलनऔरहरबीवीसे10 संतानोंकाजनमहिंदुस्तानीमुसलमानोंकेखिलाफएकऔरसफ़ेदझूटहैजोएकमिथककेरूपमेंआरएसएसगढ़तीरहतीहै। 

भारतमेंमुसलमानोंकीजनसंख्याकेबारेमेंएकऔरसफ़ेदझूटजोहिंदुत्वटोलीकेद्वारालगातारप्रसारितकियाजाताहैवहयहहैकी'बसअगले50 सालमेंभारतमेंमुसलमानों  काबहूमतहोजायेगा' (मज़ेकीबातयहहैकियहरटपिछले100 सालसेलगातारलगाईजारहीहै)
सचयहहैकिभारतकेइतिहासमें700 सालके'मुसलमानराज'केबावजूदमुसलमानोंकीसंखियाकुलआबादीमें20% सेज़ियादाकभीभीनहींरही।  मुसलमानोकीदेशकीआबादीमेंतथाकथितबढ़ोतरीकाहव्वाहिंदुत्वटोलीदुवाराआममुसलमानकेखिलाफसफ़ायेकेअभियानकीमानसिकतातैयारकरनेकाहीएकहिस्साहै। 
सचतो  यहहेकिएकसेहतमंदप्रजातान्त्रिकऔरधर्म-निरपेक्ष व्यवस्था मेंयहमुद्दातभीउठसकताहैअगरहमभारतकोएकराष्ट्रनहींमानकरइसे  एकबहु-राष्ट्रीयदेशमानतेहों। 

     
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