Quantcast
Channel: जनपक्ष
Viewing all articles
Browse latest Browse all 168

भारत में सेवा और सार्वजनिक सम्पत्ति : संजय जोठे

$
0
0

 
तस्वीर गूगल से साभार 


अभी अभी मदर टेरेसा द्वारा गरीबों की सेवा के विषय पर जो बहस छिड़ी है उसके सन्दर्भ में हमें एक अन्य दिशा से भी विचार करना चाहिए. सेवा और धर्मान्तरण बहुत लोगों के लिए बड़ा मुद्दा बन गया है. लेकिन स्वयं सेवा और सर्वजन हिताय सामूहिक प्रयास की प्रेरणा का होना या न होना किसी के लिए मुद्दा नहीं है. मुझे लगता है कि सेवा से धर्मान्तरण को जोड़कर देखने के बजाय भारतीय समाज में सेवा की धारणा के न होने पर ही विचार करना ज्यादा जरुरी है. तो आइये भारत में सार्वजनिक संपत्ति के तिरस्कार और सर्वजन की सेवा की प्रेरणा के अभाव पर एक नए ढंग से विचार करते हैं.

भारत में सर्वजन सेवा और सार्वजनिक संपत्ति का तिरस्कार असल में इस देश की वर्ण और जाति व्यवस्था की वजह से है. और उसका भी मौलिक कारण इस देश के धर्मदर्शन और न्यायदर्शन में ही मिलता है. भेदभाव और छूआछूत को ठीक से समझा जाए तो यह बात आसानी से समझी जा सकती है. कुछ मित्र भेदभाव और छूआछूत एक वैज्ञानिक कारण देते हैं वे कहते हैं कि भारत में ट्रोपिकल जलवायु के कारण यहाँ रोग और छूत अधिक होती है इसलिए गरीब बीमार या अपाहिज  सहित मनोरोगी के बारे में छूआछूत या दूरियां निर्मित हुई. मेरे ख्याल से ये बात गलत है. यहाँ धूप की अधिकता से बीमारियाँ यूरोप की तुलना में कम फैलती हैं. बीमारियाँ अगर भेदभाव का कारण हैं तो फिर ये किसी भी जाती या वर्ण में हो सकती हैं फिर कुछ ख़ास वर्ण या जातियां ही अछूत क्यों हैं? फिर सभी वर्णों की स्त्रीयों को पाप योनी किस आधार पर घोषित किया हुआ है? इस तरह इसका धार्मिक और जातीय विभेद से कोई सीधा रिश्ता नहीं बनता. ट्रोपिकल देश दुसरे महाद्वीपों में भी हैं लेकिन जातिवाद सिर्फ इसी मुल्क में है. यह वर्ण और जाति ही हैं जो सार्वजनिक हित के कामों पर और सामूहिक अभियानों रोक लगाते हैं.

किसी समाज देश या सभ्यता का सबसे बड़ा सामूहिक अभियान उसका सामरिक अभियान यानि युद्ध होता है. और इसी में भारत हमेशा से महाफिसड्डी रहा है और बार बार गुलाम हुआ है.  हालाँकि कहने के लिए एक विशेष वर्ण की रचना यहाँ सिर्फ युद्ध के विशेषज्ञ पैदा करने के लिए हुई है. लेकिन इतिहास उठाकर देखिये यह “युद्ध विशेषज्ञ क्षत्रिय कौम” कितनी सफल रही है. अगर यह सफल होती तो दो हजार साल लम्बी गुलामी इस देश को नहीं भोगनी पड़ती. आंबेडकर ने प्रोफेसर भंडारकर को उद्धृत करते हुए लिखा है कि “आज भी हमारी जनसंख्या का दस प्रतिशत से अधिक भाग पुलिस या सेना की नौकरी के लिए अयोग्य है. भारत एक ठिगने और कमजोर लोगों का समाज है”.वर्ण व्यवस्था की तथाकथित वैज्ञानिक व्यवस्था ने इस मुल्क के शरीर और मन दोनों को कमजोर बनाया है. अब अगर समाज मनोविज्ञान के हिसाब भी से सोचा जाए तो भारत में सामूहिक संगठन की प्रेरणा का अभाव ही अधिक रहा है. यहाँ कभी एक भाईचारे जैसी विकसित अवस्था रही ही नही. वर्ण और जातियां आपस में लडती रही हैं. और उन्हें प्रयासपूर्वक हर दौर में हर मोड़ पर लड़ाया गया है.

यह लड़ाई खुद में कोई कारण नहीं है बल्कि किसी अन्य बात का परिणाम है. फूट डालो राज करो की ब्राह्मणवादी नीति ने सदा से शेष तीन वर्णों को विभाजित रखके आपस में लडवाया है. अब इस बिंदु से सोचिये कि भारत में सार्वजनिक संपत्ति या सर्वजन की निरपेक्ष सेवा का अकाल क्यों बना हुआ है. और क्यों पश्चिमी ढंग की सेवा ने यहाँ के गरीबों को एकदम से सम्मोहित कर लिया है? इसका कारण गहराई से देखना होगा. यह कारण इस देश के शास्त्रों और धर्म के मनोविज्ञान सहित दंड और पुरस्कार विधानों में भी ढूंढा जा सकता है. यहाँ वर्ण के हिसाब से क़ानून और दंड व्यवस्था है. ब्राह्मण के लिए और शूद्र के लिए एक ही अपराध के लिए जो सजा है उसमे जमीन आसमान का अंतर है. ब्राह्मण को जहां सिर्फ हल्की सी झिडकी दी जानी है वहीं उसी अपराध के लिए शूद्र की ह्त्या की जाती है. यही दंड और न्याय विधान ब्राह्मण और वैश्यों के बीच है. एक बनिया अगर कोई अपराध करे तो उसे भी लगभग शूद्र की तरह दण्डित किया जाता है.

अब राज्य से मिलने वाली सुविधाओं पर आते हैं. इसमें भी पहला अधिकार ब्राह्मण का है. ब्राह्मण न खेती करता है न काश्तकारी न और कोई उत्पादक कार्य. सिर्फ कर्मकांड उसका कृत्य रहा है. अब इस प्रकार से श्रम का अपमान करके कर्मकांड को महिमामंडित करने से क्षत्रिय श्रमिक और वणिक जातियों को दोयम दर्जा मिल ही जाएगा. जब राज्य द्वारा सेवा की बात आयेगी तब भी अनुत्पादक वर्ग उस पर पहला अधिकार जताएगा. यज्ञों के बाद जो दान दक्षिणा दी जाती थी वो गरीबों को नहीं बल्कि सुविधाभोगी कर्मकांडी वर्ग को ही मिलती रही है. ये हर शास्त्र और पुराण में आसानी से देखा जा सकता है.

अब आइये गरीबों की सेवा पर. जब किसी देश में गरीब और कोढ़ी आदमी पिछले जन्म का पापी हो और इस जन्म में पाप का प्रायश्चित करने आया हो तब उसके प्रायश्चित्त में बाधा डालना एक अन्य पाप है. इसलिए उसे उसके हाल पर छोड़कर उसे अपने कर्मों का क्षय करने देना चाहिए. इसीलिये कोढी को गाँव से बाहर निकालकर मरने को छोड़ दिया जाता था. यही काम विधवाओं के साथ किया जाता था. उसका सर मुंडवाकर घर के एक कोने में गाय की तरह बाँध दिया जाता था . अर्थात जो कोई भी तरह का अभाव रोग या गरीबी है वो समाज की सड़ी व्यवस्था के कारण नहीं है बल्कि पूर्व  जन्म के पाप के कारण है. यह धारणा हिन्दू और जैन धर्म में में एक सामान रही है. यह विशुद्ध भाग्यवाद है. जैन तेरापंथ में एक कथा है कि कुवे में गिरे आदमी को बचाना नहीं चाहिए क्योंकि कुवे में डूब मरने से उसके पूर्व जन्मों के कर्मों की निर्जरा हो रही है और कर्म के विधान में हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए.

अब आते हैं आदिवासियों पर. आदिवासियों को इंसान ही नहीं माना गया है. उन्हें वानर कहा गया है. वानर सेना शब्द आपने सुना होगा. कुछ लोग कहते हैं कि वन में रहने वाले वानर होते हैं जैसे कि नगर में रहने वाले नागर. इस तर्क को मान भी लें तो यह बात स्पष्ट नहीं होती कि वनवासी मनुष्य या वानर की शक्ल बंदर जैसी क्यों है ? और पूंछ कहाँ से निकल आती है ? आज के आदिवासी (यानी वानर) लोगों में किसी भी एक में पूछ नहीं मिलेगी आपको. लेकिन वनवासी समाज को इस देश के शास्त्रों में वानर कहा है और उनका सबसे बड़ा नेता हनुमान बनाया गया है जो ब्राह्मणवाद की सेवा में तन मन से जुटा हुआ है.

इस उदाहरण में भी हनुमान या वानर सेना, जो कि गरीब और अनपढ़ समाज है – वो खुद आगे बढ़कर राजसत्ता और धर्मसत्ता की सेवा कर रही है. राज्य और धर्म उनकी सेवा नहीं कर रहे हैं. यही आज भी हो रहा है. आज का वनवासी भी अपने प्राकृतिक संसाधनों के लिए लूटा जा रहा है. वानर और नागर का संघर्ष आज भी वाहें का वहीं खडा है.

जिस मुल्क में गरीब रोगी विधवा वनवासी और अछूत के बारे ऐसी मान्यतायें हों वहां सार्वजनिक संपत्ति और सर्वजन की सेवा की धारणा कैसे पैदा हो सकती है? इसीलिये हमारे सरकारी विभाग अकर्मण्य होते हैं और आम जनता भी सार्वजनिक संपत्ति के महत्त्व को नहीं समझती. पिछले दो सौ साल में पश्चिमी देशों से गरीबों की सेवा और सार्वजनिक संपत्ति की धारणा इस देश में आने लगी है लेकिन अभी भी यह यहाँ स्थापित नहीं हो सकी है, उसपर भी दुर्भाग्य ये कि इस देश का शोषक और धर्मांध वर्ग इस सेवा की आवश्यकता स्वीकार करते हुए खुद में कोई सुधार तो नहीं लाता बल्कि इससे विपरीत जाते हुए उन सेवकों को ही बदनाम करने में लगा हुआ है.
  

Viewing all articles
Browse latest Browse all 168

Trending Articles