कुलदीप कुमार
अगस्त 1973 में मैंने इतिहास में एम ए करने के लिए जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में प्रवेश लिया। सबसे पहले जिनसे भेंट और मित्रता हुई वे थे पंकज सिंह,विजयशंकर चौधरी,त्रिनेत्र जोशी,देवीप्रसाद त्रिपाठी,अनिल राय और आनंद कुमार। पंकज सिंह अंतर्राष्ट्रीय अध्ययन संस्थान में शोध कर रहे थे और विजयशंकर चौधरी क्षेत्रीय विकास अध्ययन केंद्र में एम ए (द्वितीय वर्ष) कर रहे थे। शुरुआती दो-ढाई वर्षों के दौरान हम तीनों का अधिकांश समय एक साथ ही गुजरता था। पंकज सिंह ने जिन अनेक लोगों से मेरा परिचय कराया उनमें विजयमोहन सिंह,मंगलेश डबराल और गिरधर राठी भी शामिल थे। उन दिनों विजयमोहन सिंह दिल्ली विश्वविद्यालय के रामलाल आनंद कॉलेज में हिन्दी साहित्य पढ़ाते थे और पास ही आनंद निकेतन में रहते थे। मंगलेश और राठीजी ‘प्रतिपक्ष’साप्ताहिक के संपादक मंडल में थे। इसके प्रधान संपादक जॉर्ज फर्नांडीस और संपादक कमलेश थे।
पंकज सिंह विजयमोहन जी को तब से जानते थे जब वे आरा में पढ़ाया करते थे। उनके साथ मैं विजयमोहन जी के घर कई बार गया और मुझ पर भी उनका स्नेह हो गया। सितंबर या अक्तूबर की बात होगी। विजयमोहन जी जेएनयू आए थे। हम लोग चाय पीकर क्लब बिल्डिंग से बाहर निकल रहे थे कि उन्होंने अचानक मेरी ओर मुड़ कर पूछा: “आज ‘प्रतिपक्ष’में जिस कुलदीप कुमार की समीक्षा छपी है,वह क्या तुम ही हो?”मेरे ‘हाँ’कहने पर उन्होंने एक और सवाल किया: “तुम्हारी उम्र कितनी है?”मेरे यह बताने पर कि अठारह साल है,वे मुझे गौर से देखते हुए बोले,“तब तो तुम्हारा भविष्य बहुत उज्ज्वल है।” तब क्या पता था कि मैं 1980 के दशक के अंत तक आते-आते साहित्य से लगभग विरत होकर पत्रकारिता में ही डूब जाऊंगा। दरअसल मैंने गंगाप्रसाद विमल और विश्वेश्वर के दो छोटे उपन्यासों की समीक्षा लिखी थी। मंगलेश डबराल,गिरधर राठी और पंकज बिष्ट (उन दिनों वे ‘आजकल’के सह-संपादक थे) में एक विशेष गुण यह था कि वे युवाओं को बहुत प्रोत्साहित करते थे। मैं नया-नया दिल्ली आया था। एकदम अज्ञात कुलशील। फिर भी ये मुझ पर भरोसा करके समीक्षा के लिए किताबें दे देते थे। विजयमोहन जी ने मुझे जो शाबासी दी,उसका मुझ पर क्या असर हुआ,आज यह बताना असंभव है। मुझे लगा कि मैं तो सातवें आसमान पर हूँ।
उस समय हिन्दी जगत में विजयमोहन जी की धूम मची हुई थी। एक कहानीकार के रूप में तो वे प्रसिद्ध थे ही,नामवर सिंह द्वारा संपादित ‘आलोचना’में प्रकाशित उनकी कुछ समीक्षाओं ने उन्हें प्रखर आलोचकों की पहली पंक्ति में ला खड़ा किया था। उनसे मिलने-जुलने का सिलसिला जारी रहा और मुझ पर उनका स्नेह बढ़ता गया। 1975 में वे हिमाचल प्रदेश विश्वविद्यालय में पढ़ाने शिमला चले गए जहां डॉ बच्चन सिंह हिन्दी विभागाध्यक्ष और डीन थे। इमरजेंसी लग चुकी थी। अगले साल कुछ ऐसी स्थितियाँ बनीं कि मुझे जेएनयू छोडना पड़ा। अब सवाल यह था कि जाऊँ तो जाऊँ कहाँ। मुझे विजयमोहन जी की याद आई और मैं अचानक शिमला जा धमका। प्रवेश की तारीख निकल चुकी थी। लेकिन उन्होंने बच्चन सिंह जी पर जोर डाल कर मेरा दाखिला करवा दिया। हॉस्टल भर चुके थे। डेढ़ माह मैं उनके घर पर रहा और उनके प्रयासों के कारण ही मुझे हॉस्टल में जगह मिली। जब भी मैं इस दौर के बारे में सोचता हूँ तो मेरा मन विजयमोहन जी के प्रति अपार आदर से भर उठता है। कितने लोगों का हृदय इतना विशाल है जो थोड़े से परिचय के आधार पर एक लड़के को अपने घर डेढ़ महीने तक रखें,एकदम परिवार के सदस्य की तरह?
1975 में मैंने दाढ़ी रख ली थी। विजयमोहन जी भी दाढ़ी रखते थे। शिमला में बहुत-से लोग मुझे उनका छोटा भाई समझते थे। अगर किसी ने उनके सामने कहा तो उन्होंने कभी इसका प्रतिवाद नहीं किया। वे घर पर हों या न हों,मेरे लिए उनके घर के दरवाजे हमेशा खुले थे। शिमला में उनके पास एक रिकॉर्ड प्लेयर था और बहुत से एल पी और ई पी थे। मैं अक्सर वहाँ विलायत खां के खमाज का ईपी और ‘अदा’फिल्म के गाने सुनता था। टी एस एलियट का निबंध संग्रह ‘द सेक्रेड वुड’और मार्टिन टर्नेल की पुस्तक ‘नॉवेल इन फ्रांस’मैंने शिमला में उनके घर पर ही पढ़ी थीं।
हिन्दी फिल्मों और उनके संगीत के बारे में उनका ज्ञान बहुत विशद था। उनकी संगत में ही मैंने इस संगीत को गंभीरता से सुनना शुरू किया। वे गानों और उनके संगीत की बारीकियों को बहुत अच्छे ढंग से समझाते थे। जब वे और विष्णु खरे एक साथ होते थे,तो यह तय करना मुश्किल हो जाता था कि फिल्म संगीत के बारे में किसका ज्ञान अधिक है। काशी विश्वविद्यालय में पढ़ते हुए उन्होंने संगीत सीखा था और उन दिनों वे वायलिन बजाया करते थे। बागेश्री उनका प्रिय राग था। वहाँ बी वी कारन्त उनके सहपाठी थे और दोनों में प्रगाढ़ मित्रता थी। मुझे कारन्त जी से उन्होंने ही मिलवाया था। शिमला में वे सबसे अधिक लोकप्रिय अध्यापकों में गिने जाते थे। जो लोग केवल उनके धीर-गंभीर रूप से ही परिचित हैं,उन्हें यह जानकर आश्चर्य होगा कि शायद ही कोई दिन जाता हो जब उनकी क्लास में हम सब लड़के-लड़कियां खिलखिलाकर न हँसते हों। वे बोलने में भी भाषा का रचनात्मक इस्तेमाल करते थे और अद्भुत हास्य-व्यंग्य पैदा करते थे। ‘गोदान’पढ़ाते समय वे लगभग अभिनय करके बताते थे कि मिस्टर मेहता कैसे मालती को नाला पार करा रहे हैं। उस समय भी वे ‘गोदान’को असफल उपन्यास मानते थे।
वे जितने सच्चे और खरे इंसान थे,उतने ही सच्चे और खरे आलोचक भी। लिखते समय वे भूल जाते थे कि किस पर लिख रहे हैं। साहित्य को देखने-परखने की उनकी दृष्टि विलक्षण थी। उनके सादगी भरे जीवन को देखकर कोई सोच भी नहीं सकता था कि वे कितने सम्पन्न परिवार से थे। उन्होंने दिल्ली में दो बार फ्रीलांसिंग की और संघर्ष के कई साल गुजारे। बहुत-से लोग आभिजात्य ओढ़े रहते हैं,लेकिन विजयमोहन जी के व्यक्तित्व में वह खुशबू की तरह रचा-बसा था। वे सामंती सोच के घोर विरोधी थे,लेकिन उनके व्यक्तित्व में एक सामंती ठसक थी जो स्वाभिमान के रूप में प्रकट होती थी। अपने और दूसरों के स्वाभिमान की रक्षा करना उनका स्वभाव था। मुझ पर उनके इतने अहसान थे,लेकिन कभी उन्होंने एक क्षण के लिए भी मुझे इसका अहसास नहीं कराया। प्रेमपूर्वक खातिरदारी करना उनके स्वभाव की एक और विशेषता थी।
उनसे आखिरी मुलाक़ात पिछले साल नवंबर में हुई थी जब मैं उनके घर अपनी बेटी की शादी का निमंत्रणपत्र देने गया था। उनका पेट बहुत खराब चल रहा था। शादी के दिन उनका फोन आया कि तबीयत ऐसी नहीं कि आ सकें। फिर दिसंबर में फोन आया कि किसी अच्छे डॉक्टर को दिखाना है। मैंने होली फेमिली में उनके लिए एपाइंटमेंट लिया लेकिन फिर उन्होंने अपने बेटे वर्तुल के पास जाने का मन बना लिया। इस बीच कई बार वे आईसीयू आए-गए। तीन सप्ताह पहले आशा जी (विजयमोहन जी की पत्नी) ने फोन पर उनसे बात कराने की कोशिश की लेकिन वे बोल नहीं पाये। आखिरी बार जब मैंने फोन किया तो वर्तुल ने कहा कि पापा बस अब अंतिम सांस ले रहे हैं। पंद्रह-बीस मिनट बाद ही पता चला कि वे नहीं रहे। मुझ पर तो वज्रपात-सा हुआ। दुनिया के लिए वे एक लब्धप्रतिष्ठ कथालेखक और आलोचक थे लेकिन मेरे लिए सिर्फ विजयमोहन जी थे। मेरे मित्र,मेरे शिक्षक,मेरे बड़े भाई।
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(जनसत्ता से साभार)
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(जनसत्ता से साभार)