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बलात्कार को अपनी राजनीति के खाँचे में न सेट करें - शुभा

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हैदराबाद की हालिया घटना के सन्दर्भ में जो प्रतिक्रिया सामने आई हैं वह बहुत विडम्बनामय और कहीं-कहीं जुगुप्सा पैदा करने वाली हैं.कुछ अपवाद भी हैं तो वे अपवाद ही हैं.पढ़े-लिखे सज्जन लोगों की जो हाय हायनुमा त्वरित प्रतिक्रिया थी वह साफ़ बताती थी कि उन्होंने इस समस्या को कभी गम्भीरता से नहीं लिया और न ही उस पर कुछ सोचा है .दुख के अतिरेक में पैदा हुए अविवेक में भी सरोकार का स्तर झलकता है.उनकी मासूमियत ऐसी थी जैसे वे न अपने समाज को जानते हैं न इसमें औरतों की हालत को फिर मर्दानगी की निरंकुशता को भला इतने सफेदपोश लोग कैसे जान सकते हैं.

दूसरी प्रतिक्रिया गहरे विषाद और असहायता से निकली इसमे नाराज़गी भी थी पर उसके निशाने हिले हुए थे.जैसे तय न कर पा रहे हों  कि किस पर निशाना साधें .

दक्षिणपंथी और संघियों ने इस अपराध के साम्प्रदायिकीकरण की पूरी कोशिश की जो जारी है  टप्पल -केस में भी यही किया गया था (उस समय की पोस्ट भी फिर से पोस्ट करती हूं).इसका
 विरोध करते हुए  बहुत बार मां, बहन, बेटी जैसी श्रेणियों का इस्तेमाल करते हुए उसी भाषा का  धड़ल्ले से प्रयोग किया जा रहा है जो बलात्कारियों द्वारा इस्तेमाल की जाती है.यानि सैक्यूलर होना इस बात की गारंटी नहीं है कि सैक्यूलर लोग जैंडर के प्रति भी संवेदनशील होंगे ही.

आज जब बलात्कार राष्ट्रवाद का हिस्सा बन चुका है और बलात्कारियों को बचाने के लिये तिरंगे का इस्तेमाल होता है, बलात्कारी संसद में बैठे हैं मंत्री बने हुए हैं ,बलात्कारियों को सम्मानित किया जा रहा है , ऐसे समय में बलात्कार को गैरराजनीतिक तरीके से देखना हताशा ही पैदा करेगा.

ठीक इसकी जुड़वा एक  समस्या और भी है बलात्कार को सामाजिक समस्या की तरह न देख पाना और उसके ख़िलाफ़ कोई व्यापक सामाजिक पहलकदमी के बारे में न सोच पाना .एक ज़माने में विकल्प की बात करने वाले संगठनों ,पार्टियों की भी यह समस्या रही और अब भी है.

बलात्कार बहुवर्गीय समस्या है कोई वर्ग ,समुदाय, सम्प्रदाय ,जाति  या तबका ऐसा नहीं है जिसमे बलात्कार के अपराधी न हों.इसकी वजह ये है कि पितृसत्ता सबसे अधिक समावेशी सत्ता है.इसमे दांया-बांया, अगड़ा-पिछड़ा, अमीर-ग़रीब यहां तक कि ख़ुद महिलाएं भी शामिल हैं. इसी को वर्चस्व कहते हैं जिसमे अत्याचारी और उत्पीड़ित दोनो शामिल रहते हैं.ये एक पुरुष सत्ता वाला वैचारिक  सामाजिक, राजनीतिक, पारिवारिक और आर्थिक ढांचा है जिसे पितृसत्ता कहा जाता है.ग्राम्शी इस वर्चस्व को चुनौती देने की बात करते है.वैचारिक-सामाजिक वर्चस्व जिससे किसी भी तन्त्र का चरित्र तय होता है.

 देखिये न आज के दौर में भी बलात्कार के लिये एक मुसलमान और तीन हिन्दुओं की टीम फ़टाफ़ट बन गई. एम.जे.अकबर के पक्ष मे मौजूदा गृहमंत्री ने बयान दिया था कि वे इस्तीफ़ा नहीं देंगे आदि....

पल्लवी त्रिवेदी की पोस्ट पुलिस पर भरोसा करने की बात कर रही थी जबकि हमारे यहां कस्टडी रेप होते हैं .फरीदाबाद के थाने में पुलिसकर्मियों ने महिला कान्स्टेबल के साथ रेप किया .पुलिस ने उन्नाव रेप केस मे क्या भूमिका अदा की सब जानते हैं.पुलिस रिफार्म की सिफ़ारिश जस्टिस वर्मा कमैटी की रिपोर्ट में की गई थी ठीक उससे उल्टी दिशा में पुलिस "रिफ़ार्म"चल रहा है....दूसरे वे उत्पीड़ित पर ही अपनी सुरक्षा की ज़िम्मेदारी डाल रही थीं. वे उत्पीड़ित को ही दोषी ठहरा रही थीं .सरकार की ज़िम्मेदारी को उन्होंने पूरी तरह नज़रअन्दाज़ किया ख़ैर उनकी मजबूरी समझी जा सकती है वे ख़ुद एक पुलिस अफ़सर हैं लेकिन इस पोस्ट को 600 से अधिक लोगों ने शेयर किया इसके बाद आगे भी वह ख़ूब शेयर की गई .इसकी दो वजह हैं एक तो लोग बिना ज्यादा बोझ उठाए तुरन्त उपाय चाहते हैं और इस पोस्ट को शेयर करके तो वे बलात्कार विरोधी भी मान लिये गए, कोई दबाव कोई ज़िम्मेदारी भी नहीं आई लड़की को ही अपनी सुरक्षा आप करनी है.

लेकिन इसकी एक दूसरी वजह भी थी.लड़कियां और उनके माता-पिता बहुत असुरक्षित हैं उन्हें फौरी उपाय भी चाहिए और वे कुछ करना भी चाहते हैं.लड़कियों के आत्मरक्षा के उपाय भी उसी तरह सीख लेने चाहियें जैसे आग लगने पर हमें फौरन कुछ करना पड़ता है.यह उपाय पहले भी आते रहे हैं मसलन जूडो-कराटे सीखें, मिर्ची पाउडर ,कोई नुकीली चीज़ पास में रखें,डरें न और पुरुष की नाज़ुक जगह पर चोट करें आदि आदि....

कुछ प्रतिक्रिया ऐसी भी आईं जैसे वे ग़रीब, बेरोज़गार हैं आदि   इस तथ्य का इस्तेमाल असावधानी और लगभग ग़ैरज़िम्मेदाराना तरीके से किया गया  मानो यह रेप का जस्टिफिकेशन हो . रेप बहुवर्गीय  समस्या है यह बात अभी ठीक से समझी नहीं गई.  तीसरी बात लड़कियां भी बेरोज़गार और ग़रीब हैं .

एक और तर्क भी आया कि यह समझ ग़लत है कि रेप पुरुष द्वारा  स्त्री पर अपनी ताक़त का  इस्तेमाल करने के लिये होता है क्योंकि यहां तो लड़की मध्वर्गीय थी ,पढ़ी-लिखी ,स्कूटर चलाती थी जबकि नौजवान बेचारे इतने ग़रीब थे ,बेरोजगार थे वे पढ़ी लिखी स्कूटर चलाने वाली लड़की से नफ़रत करते हैं आदि.वे "ग़रीब"एक "ताकतवर"लड़की को मारने में इसलिए सफल हुए क्योंकि वे पुरुष थे पितृसत्ता के प्रतिनिधी.उस स्त्री के मुक़ाबले ये पुरुष इसलिये ताक़तवर थे कि स्त्री उनसे ही असुरक्षित थी.ग़रीब खाती-पीती लड़की से रेप करे तो इसे वर्गसंघर्ष के रूप में पेश न करें.रोहतक में दिमाग़ी रूप से अस्त-व्यस्त ग़रीब लड़की को 12 ग़रीब लड़कों ने मिलकर रेप किया और उसकी योनि में पत्थर की राड डाली और गाड़ी का पहिया उसके मुंह पर चढ़ाकर शक्ल बिगाड़ने की कोशिश की.

रेपिस्ट को हमारे अच्छे-ख़ासे समझदार लोग नहीं देख पा रहे जो महिलाओं की बराबरी मे भी यक़ीन करते हैं.यह वास्तव मे विचलित करने वाली बात है. इस पर कभीअलग से लिखा जायेगा.

काश कोई ऐसी राजनीतिक पार्टी होती जो रेप के ख़िलाफ़ नौजवान लड़के लड़कियों का व्यापक मंच बनाती.हमारे इस दौर का समाज-सुधार आन्दोलन यहां से शुरू हो सकता है.

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कवि, शिक्षक और सामाजिक कार्यकर्ता शुभा जी छात्र जीवन से ही बौद्धिक और सड़क , दोनों मोर्चों पर सक्रिय हैं। 


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