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यह शिक्षा किसका भला कर रही है?

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  • वंदना शुक्ला 
चित्र एन डी टी वी की वेबसाईट से साभार 


पिछले दिनों मलेशिया सिंगापूर यात्रा के दौरान एक चीनी परिवार में जाने का मौक़ा मिला |भारत के भौगोलिक सौंदर्य और संस्कृति व संयुक्त परिवार की अवधारणा के वो कायल थे |उन्होंने कहा ‘’ सुना है कि भारत में शिक्षा अन्य देशों की अपेक्षा सस्ती और सुलभ है शायद इसीलिये वहां पढ़े लिखे अधिक हैं |"शिक्षा और शिक्षित" ...ये शब्द बहुत देर तक कौंधते रहे ज़ेहन में |क्या ज्ञान (?)को खरीदकर एक अदद नौकरी हासिल कर पाना ही शिक्षा का उद्देश्य है?क्या बड़े बड़े उलझे हुए गणित या विज्ञान जैसे विषयों के प्रश्नों को हल कर देने मात्र को शिक्षा कहा जा सकता है?क्या शिक्षा में नैतिकता अथवा मानवीयता की कोई ज़रूरत वाकई नहीं ?

भूमंडलीकरण,वैश्वीकरण,नव-उदारवाद ,उत्तर-औपनिवेशिक इत्यादि ना जाने पिछले कुछ दशकों में इन जैसे कितने ही शब्द संस्कृति के विशाल आँगन में उग खड़े हुए हैं फल फूल रहे हैं |जाहिराना तौर पर समय के साथ आवश्यकताएं और बाजार की  मांग आपूर्ति के समीकरण बदलते ही हैं लेकिन इन भौतिक ज़रूरतों और बदलाव के चलते मानवीय मूल्य और संस्कारों का अपने विशिष्ट अर्थों में बाजारीकरण हो जाने की हद तक क्षरण हो जानाचिंतनीय नहीं? या ये हर युग परिवर्तन के साथ अनिवार्यतः परिवर्तनशील ही हैं हमारी पीढ़ी इस बदलाव को नयेपन के साथ स्वीकार कर रही है?

समय और समयगत परिवर्तन (वैश्विक परिप्रेक्ष्य में ) का प्रभाव देश की शिक्षा ,साहित्य,विचारधारा ,विकास ,संस्कृति आदि पर पढ़ना स्वाभाविक ही है |इतिहास गवाह है कि यह देश प्रायः अतीत जीवी रहा है यानी अपने अतीत की पूर्णता और सम्पन्नता से आश्वस्त जबकि वर्तमान से निराश ....नतीजतन भविष्य से कुछ सशंकित | उसी परिपेक्ष्य में देखें तो अब सामान्य और असामान्य घटनाओं का फर्क शनैः २ कम हो रहा है |उदाहरणार्थ ...अब  आम आदमी अख़बारों चैनलों पर अपराध जगत की ख़बरें सुनने पढ़ने का इस क़दर अभ्यस्त हो चुका है कि ये घटनाएँ आँखों के सामने से गुज़र जातीं हैं महज कुछ फ़िल्मी द्रश्यों की तरह एक हल्की सी आह छोड़कर और बस....फिर सामान्य ...फिर कोई दूसरी वैसी ही घटना ढँक लेती है ज़ेहन को |वीडियो गेम ,कार्टून ,या एनीमिटेड कॉमिक्स बनाने वाली कम्पनियां जिनकी सफलता का राज़ उनका मौजूदा वक़्त पर नज़रें गढ़ाए रखना और उनका सही वक़्त पर इस्तेमाल करना है (विज्ञापन कंपनियों की तर्ज़ पर ) इन घटनाओं –दुर्घटनाओंसे प्रेरित असंख्य कहानियां बना रही हैं जिनमे मारधाड़,लड़ाई, प्रतियोगिता और हिंसा जैसे द्रश्य बहुलता में हैं जो बच्चों में आश्चर्यजनक रूप से लोकप्रिय हैं |

कोई भाव या घटना अति हो जाने पर स्थिर हो जाती है ,अपना ‘’गुण’’ खो देती है जैसे अत्यधिक खुशी ,अत्यधिक दुःख,या अत्यधिक पीड़ा या ऐसी किसी अवस्था में मनुष्य अपनी विचारगत /विवेकशीलता /दैहिक क्षमता खो एक तटस्थ भाव में आ जाता है जिसे सन्निपात की अवस्था कहते हैं |दरअसल ख़बरों और उनसे सरोकार के मामले में आजकल देश ऐसी ही वैचारिक तथा भावनात्मक सन्निपात की अवस्था से गुजर रहा है | ये अवस्था अंततोगत्वा किसी भी घटना और उसके (कितने ही )तीव्रतम विरोध की परिणिति या अंतिम अवस्था ही हैं |चाहे वो राजनतिक मसला हो,सामाजिक,वैचारिक कोई भी |सच यह है कि झूठ और अन्याय सहने के हम उतने ही अभ्यस्थ हो चुके हैं जितने अन्याय करने वाले उसे सफलता पूर्वक अंजाम देने के|

मुझे पाओलो कोएलो का एक गद्यांश (ज़ाहिर)याद आता है उन्होंने लिखा है ‘’हम विद्रोही समय में पैदा हुए हैं इसमें हम अपनी सारी शक्ति उंडेलते हैं हम अपनी ज़िंदगी और जवानी का जोखिम उठाते हैं अचानक हम डरने लगते हैं और शुरुवाती जोश के सामने असली चुनौतियां आती हैं तो थकान,अकेलापन,और अपनी क्षमताओं के बारे में संदेह उस जोश की जगह ले लेता है |हमने देखा है कि हमारे कुछ दोस्त पहले ही हार मान चुके हैं ,हम मजबूर हैं अकेलेपन का सामना करने को सड़क को खतरनाक मोडों के मुताबिक चलने को ,थोड़ी सी गिरावटें झेलने को ,जबकि आसपास कोई नहीं जो मदद करे और अंत में हम खुद से पूछते रह जाते हैं क्या ये सब इस लायक है कि इतनी कोशिश की जाये?’’

उक्त सम्पूर्ण गद्यांश की अंतिम पंक्ति ‘’क्या ये सब इस लायक है कि इतनी कोशिश की जाए?’’सचमुच विचारणीय है ,बावजूद दुर्भाग्यपूर्ण, हताशा व स्व-ग्लानि के |

विश्व का बाजार में तब्दील हो जाना समय के सापेक्ष ,कोई अनहोनी घटना नहीं ,लेकिन बाजार का भावनाओं और संवेदनाओं पर अतिक्रमण मानवीयता के सन्दर्भ में निश्चित ही एक चिंतनीय घटना है|कहते हैं कि एक संवेदनशील शिक्षित समाज सोच और परिपक्वता के स्तर पर (तकनीकी और विकास की द्रष्टि से) देश को आगे ले जाने के लिए सबसे ज्यादा जिम्मेदार होता है |लेकिन शिक्षा?...

शिक्षाकेमायने?

एक रशियन मनोवैज्ञानिक की किताब पढ़ी थी ,लेखक का नाम तो याद नहीं पर उसका शीर्षक था ‘’बाल हृदय की गहराईयाँ ‘’|लेखक स्वयं जाने माने बाल मनोवैज्ञानिक और शिक्षाविद थे |  उन्होंने लिखा था कि बच्चे का मस्तिष्क पांच वर्ष की आयु तक सक्षम हो जाता है  वे पांच वर्ष उसके जीवन के सबसे महत्वपूर्ण वर्ष होते हैं और जो उसने उस दौरान ग्रहण किया होता है स्कूल से ,समाज से ,परिवार से,परिवेश से आगे सिर्फ उसका परिष्करण ही होता है लेकिन भविष्य की नींव वही पांच वर्ष हैं (जबकि हमारे यहाँ बच्चा समझे जाने की कोई उम्र नहीं है |अपनी इस संस्कृति पर हम स्व मुग्ध भी रहते हैं ..हमारी न्याय प्रणाली तो एक कदम आगे ... बच्चा घोर अपराध करने के बाद भी नाबालिग कह छोड़ दिया जाता है, )बच्चों के बालिग़/ना बालिग़ मानने का पैमाना आखिर क्या है?

दूसरी बात जो मुझे अति महत्वपूर्ण लगी वो ये कि,बच्चे को कम से कम इन पांच वर्षों तक ज्यादा से ज्यादा प्रकृति के सानिध्य में रखना चाहिए |उसे बिना किसी विशेष युनिफोर्म,पीरियड्स की बंदिश,या आदेशों नियमों के उसे वनस्पतियों,बगीचों ,फूलों,खुले मैदान में छोड़ना चाहिएइससे उसमे स्वाभाविक क्रियाशीलता का विकास होता है | उसे मुक्त छोड़ना चाहिए अपने खेल ,अपने स्थान और अपनी बातें (विषय)चुनने के लिए | इससे उसमे आत्म निर्णय लेने की क्षमता और आत्म विशवास का संचार होता है वो क्रिएटिव होता है |उन्होंने उदाहरण स्वरुप अनुभव भी लिखे थे जो सचमुच आश्चर्य चकित कर देने वाले थे कि बच्चे इतने गहरे होते हैं उनके मासूम प्रश्नों में इतनी डेप्थ भी हो सकती है !अनेक विद्वान मानते हैं कि पाठ्यपुस्तकों की निर्भरता से बच्चे में सीखने की प्रक्रिया पर दुष्प्रभाव पड़ता है |इसमें निरंतर एक बासीपन आता जाता है |जबकि प्राकृतिक रूप से सीखने जानने की आजादी उसकी ग्राह्य क्षमता को परिवर्धित करती है|

हाँ हो सकता है कि (हिन्दुस्तानी शिक्षा की मौजूदा अवधारणा के मुताबिक )वो उस वातावरण में वहां कुछ खास प्रसिद्द लोगों की कवितायेँ ,गणित के कुछ आधुनिक और कठिन सवाल या प्रथ्वी के बारे में ज्यादा नहीं जान पाए बच्चा शैक्षिक प्रतियोगिता में भी अव्वल ना आ पाए और अपनी उम्र के अन्य बच्चों से ‘अंकों की दौड़ में’पिछड़ जाए |लेकिन ये निश्चित है कि बाल सुलभ मासूमियत,निश्छलता, (जो आज के बच्चों में प्रायह गायब दिखाई देती है और मनुष्य के तौर पर उसका होना बेहद ज़रूरी भी है )कायम रहेगी | ‘’स्वाभाविकता या नैसर्गिकता ’’ निस्संदेह किसी आरोपित प्रयास से ज्यादा मूल्यवान होती है | जबकि प्राकृतिक रूप से सीखने जानने की आजादी उसकी ग्राह्य क्षमता को परिवर्धित करती है और ये प्रकति,आजादी,मानसिक स्वछंदता की वो प्रारम्भिक अनुभूति उसे फिर ता उम्र नहीं मिलेगी 

एक बच्चे की भावनाओं को एक कवि ने (नाम याद नहीं ) बखूबी उकेरा है

‘’रविवार होने से दिन अच्छा होता है
माँ अच्छी होती है
हवा कितनी ठंडी होती है
पापा घर में ज्यादा होते हैं,पिता कम
मै इतना सोचता हूं माँ उतना नहीं चिल्लातीं
रविवार रोज क्यूँ नहीं होता
दिन की शुरुवात रोज क्यूँ नहीं होती ‘’

आजादी क्या और कितनी?

हमारे यहाँ आजादी की अवधारणा एक विचित्र अर्थ लिए हुए है |ये उन शब्दों में से एक है जो बच्चा रट लेता है (जो आधुनिक शिक्षा का मूल मन्त्र है )लेकिन समझ नहीं पाता कि आजादी वो है जो पिता अक्सर धमकाते हुए कहते हैं ‘’आजकल बहुत आज़ाद हो रहे हो तुम “” या वो जिसके गुण गान हर पन्द्रह अगस्त पर किये जाते हैं या फिर वो जिसे अभिव्यक्ति की आजादी (?)कहा जाता है |यानी आजादी गुण है या अवगुण ?

भारतीय परिवेश और सोच को दरकिनार कर स्कूल्स कॉलेज पश्चिमी शिक्षण पद्धतियों को धडल्ले से अपना रहे हैं बोर्ड्स में होड लगी हुई है श्रेष्ठता सिद्ध करने की नतीजतन वो हर वर्ष शिक्षा पद्धतियों,पाठ्यक्रम में युद्ध स्तर पर परिवर्तन कर रहे हैं और अभिभावकों में एक ‘’श्रेष्ठं’’स्कूल में अपने बच्चे को पढ़ा पाने की उत्कट लालसा |बच्चा इन दौनों महत्वाकांक्षाओं के बीच पिसता है |हलाकि बोर्ड्स गुणवत्ता के हिसाब से संतोषजनक परिवर्तन भी कर रहे हैं लेकिन स्कूलों ने जो दुकाने खोल रखी हैं वो एक ओर अपनी चमक दमक से अभिभावकों को चमत्कृत कर रही हैं और दूसरी ओर बच्चों की  प्राकृतिक क्षमताओं से उनको दूर कर रही हैं |स्कूलों की शानदार इमारत,रंग बिरंगी और कहीं दिनों के हिसाब से बंटी युनिफोर्म,शानदार चमकते हुए क्लास रूम्स ,खेल के लंबे चौड़े मैदान अमूमन माता पिता स्कूलों की इसी चमक दमक से आकर्षित होते हैं और स्कूल संचालक अभिभावकों के इस मनोविज्ञान को भली भाँती ना सिर्फ समझते बल्कि दोहन भी करते हैं |निजी विद्यालयों के इसी ‘चमत्कार’’ के सामने सरकारी स्कूल और उसमे पढने वाले बच्चे /अभिभावक कभी २ हीन भावना से ग्रसित हो जाते हैं जबकि महाविद्यालयों में स्थिति लगभग उलट है |हलाकि बच्चों के मस्तिष्क और ग्राह्य क्षमता समान नहीं होती इसलिए सभी के लिए एक सी शिक्षा पद्धति,लागू करना कुछ अस्वाभाविक तो है ही ..लेकिन इसको गहराई से विचारने का जोखिम बोर्ड या स्कूल क्यूँ लें ?उन्होंने एक पूरा पैटर्न तैयार किया है जो हरेक बच्चे पर लागू होगा |’’बौद्धिक असमानता’’ की समस्या माता पिता की है बोर्ड या स्कूल प्रबंधन की नहीं ....एक दुकानदार कभी नहीं कहेगा कि आपका घर इन पर्दों के लायक नहीं है यदि आप उसे वो मोटी रकम चुका रहे हैं जो उसने परदे के लिए निश्चित की है |

हमारे नौनिहाल हमारे सपनों की चाभी !

पिछले दिनों एक नामी गर्ल्स कॉलेज में परिसर के भीतर बलात्कार का प्रकरण काफी उछला था ,जो किसी तरह ‘’रिसकर’’बाहर तक अनहोनी स्वरुप आ गया था खबरों की भीड़ में एक खबर यह भी थी  पिछले कुछ हफ़्तों के बीच उसी महाविधायालय की दो और छात्राओं ने गले में फांसी लगाकर आत्म ह्त्या कर ली | प्रबंधक इस बात से खुश थे कि पहली बार की तरह इस बार वो कटघरे में नहीं खड़े किये गए वजह लड़कियों के सोसईड नोट में ‘’घरेलू वजह ‘’होना बताया गया है | कहा जा रहा है कि लड़कियां होस्टल में पढ़ना नहीं चाह रही थी बावजूद  इसके उन्हें यहाँ जबरन भर्ती किया गया | खैर सच्चाई जो भी हो लेकिन हॉस्टल के जिम्मे भले ही पूरा का पूरा दोष मढ़ दिया जाए पर ऐसे प्रकरणों के लिए माँ पिता भी कम जिम्मेदार नहीं होते |आखिर कैसी शिक्षा देना चाहते हैं वो अपने बच्चों विशेषकर लड़कियों की | छात्रावासों की परिकल्पना के मूल में संभवतः छोटे शहरों में ‘’अच्छे स्कूल कॉलेजों’’ का ना होना भी एक वजह रही होगी लेकिन अब बच्चों को छात्रावास में रखना एक स्टेटस सिम्बल बन गया है|

शहरों का माहौल देखते हुए छोटी २ बच्चियों को अपनों से घर से दूर एक ऐसे कैदखाने में भेज दिया जाये ताकि लडकियां मन ना होते हुए भी बिना किसी अनहोनी की आशंका से पढ़ लिख और ब्याह दी जाएँ | क्या ये अपनी ही संतान के साथ बर्बरता नहीं ?बात सिर्फ होस्टल की नहीं  आजकल शिक्षा का मतलब एक मानसिक द्वंद्व एक संघर्ष हो गया है माता पिता के लिए भी जितना बच्चे के लिए | प्रश्न ये है कि क्या पहले बच्चे शिक्षित नहीं हुआ करते थे ?इस पर तर्क हो सकता है कि शैक्षिक तकनीक में उन्नति वजह है लेकिन एसी उन्नति किस काम की जहाँ शिक्षा का अर्थ ज्ञानार्जन ना रहकर सिर्फ एक प्रतियोगिता और चुनौती भर रह गया हो? क्या बच्चों की योग्यता का मापदंड  उनके हर विषय में प्राप्त अंक होना चाहिए जिसके लिए हर महत्वाकांक्षी माता पिता सामर्थ्य भर जोर लगाते हैं कोचिंग, छात्रावास प्राइवेट ट्युशन !कहना अतिशयोक्ति नहीं होगा कि शिक्षा भी आज एक वस्तु या उत्पाद हो गई है जिसे ‘’कीमत’’ के हिसाब से खरीदकर उससे (येन-केन  प्रकारेण )‘’लाभ’’ हासिल किया जाता है |अमूमन जिस उम्र में बच्चों को (उनकी नहीं माता पिता की इच्छा के अनुसार )छात्रावासों में भेजा जाता है उम्र का वो हिस्सा बच्चों के शारीरिक बदलाव व मानसिक उद्विग्नता का होता है अनायास आये इस स्वभावगत परिवर्तन को ना तो माता पिता समझ पाते हैं ना बच्चा और यही वो समय होता है जब बच्चे को उसके अभिभावकों की सख्त ज़रूरत होती है |उनकी इस ज़रूरत को छात्रावास कभी पूरा नहीं कर सकते ,उनको एक दो नहीं सैंकडों बच्चों को संभालना होता है |छात्रावास में बच्चों को भेजने से पूर्व उन्हें मानसिक रूप से तैयार करना बहुत आवश्यक है ,उन्हें छात्रावास की उपियोगिता,महत्व आदि ताकि बच्चा अपने भविष्य और माता पिता के स्वयं के प्रति सरोकार से आश्वस्त हो सके |

जहाँ तक शिक्षा के उद्देश्य का प्रश्न है क्या शिक्षा का अर्थ एक बने बनाये ढर्रे को रटवाकर शिक्षित मान लिया जाना होता है?बिना किसी नैतिक,मूल्यों एवं भविष्य की संभावित योजनाओं की बुनियाद रखे एक अंतहीन दौड़ ?क्या यही वजह नहीं की कई अभिभावक बच्चों को तथाकथित स्कूलों कॉलेजों की ‘’उच्च’’शिक्षा देने ,अपनी जमा पूंजी का एक बड़ा हिस्सा कोचिंग ,छात्रावासों ,किताबों में खर्च कर देने के बावजूद उनकी ‘’आधुनिकता एवं अमर्यादित व्यवहार को देखकर ठगा हुआ महसूस करते हैं ?ज़रूरी नहीं की हर बच्चा असंवेदनशील ही निकले लेकिन आज शिक्षण संस्थाओं का तथाकथित ‘’पढ़ाई’’की गंभीरता की तरफ  विकेंद्रीकरण होना व् सभ्यता के मायने बदल जाना (सिर्फ अंग्रेजियत)इस गुंजाईश को उकसाता तो है ही |‘’असल में शिक्षा ऐसी होने चाहिए जो बच्चों को ना आधुनिकता की आंधी में धकेले न रुढ़िवादी परम्पराओं में बल्कि उन्हें अच्छा बुरा ,सही गलत ,न्याय अन्याय के बारे में सोचने और फैसले लेने में सक्षम बनाये |(तद्भव )

पहले कहा जाता था कि घर ,बच्चे की पहली पाठशाला होते है लेकिन अब तो दो ढाई साल के बच्चे को युनिफोर्म में कस लपेटकर भेज दिया जाता है उस ‘’अनजान’’ स्थान पर जब वहां कोई अपना नहीं दिखाई देता उसे ,और तब उसका सामना पहली बार होता है ‘’अविश्वास ‘’ से |और वो संदेह की द्रष्टि से देखने लगता है सभी को ....मासूम मस्तिष्क पर कई नए २ रिश्तों का बोझ पड़ता है घर में माँ पिता भाई बहन मामा मौसा और स्कूल में टीचर, मैडम, बाई आदि | ढाई तीन वर्ष का बच्चा स्कूल में पहले दिन से प्रतियोगिता और स्वीकृति का पाठ पढता है वो जानता है कि स्कूल में शाबाशी इनाम और घर में अच्छा व्यवहार वो तब हासिल कर सकता है जब वो ना सिर्फ अपने पड़ोसी ,रिश्तेदारों या दोस्तों से अव्वल आयेगा बल्कि अपने शिक्षकों और ‘’बड़ों’’द्वारा दिये गए हर आदेश को चुपचाप मान लेगा |स्कूल में ,वो नहीं दौडेगा जब उसका मन दौड़ने का होगा ,वो भूखा बैठा रहेगा जब तक रिसेस नहीं होगी ,उसे माँ से दूर रहना ही होगा जब तक छुट्टी की घंटी नहीं बजती | और यही वो समय होता है जब वो अपने से बड़ों की हर ना मानने वाली बात को भी मानना सीखता है उसकी तर्कशीलता और विरोध करने की क्षमता शनैः शनैः लुप्त होती जाती है जो उम्र भर उसकी ज़िंदगी का एक हिस्सा बन जाती है |परिवार,दोस्त,समाज,सरकार,बॉस किसी की बात का विरोध करने का साहस उसमे नहीं रहता |

एक तरफ उपभोक्तावादी संसार में बच्चों को ‘’किसी भी तरह’’शिक्षा मिले यह जंग लड़ी जा रही है,तो दूसरी तरफ रुढ़िवादी विचार पुख्ता किये जा रहे हैं हम अपने बच्चों को मौजूदा सोच के चलते क्या बनाना चाहते हैं ?एक योग्य ,वास्तविक सुशिक्षित व्यक्ति अथवा येन केन प्रकारेण कोई भ्रमित डिग्री ले कोई इंजीनियर डॉक्टर ?आजकल इंजीनियरिंग ,एम् टेक,एम् बी ए जैसी डिग्रियां  बेचने वाले कॉलेज शहरों ,कस्बों तक कुकुरमुत्तों की तरह उग आये हैं क्या माता पिता जान पाते  हैं उन बच्चों का मानसिक द्वन्द जो अपने माता पिता के सपनों को पूरा करने के लिए किसी भी फ्रॉड कॉलेज में भरती कर दिये जाते हैं डोनेशन देने और किसी भी प्रायवेट कॉलेज की डिग्री हासिल करने के बाद कहलाते तो इंजीनियर हैं लेकिन खड़े बेरोजगारों की लाइन में होते हैं?दुहरा प्रायश्चित...एक मोटी फीस अदा करने का और दूसरा बेरोजगारी का |

आउट लुक के एक सर्वेक्षण के मुताबिक ‘’भारत का पूरा हायर एजुकेशन सेक्टर ग्रसित है तेज़ी से बढ़ती मांग को पूरा करने के लिए सप्लाई तो बढ़ती है लेकिन क्वालिटी कंट्रोल की व्यवस्था ना होने से हालत यह है कि भारत के लाखों नौजवानों के पास डिग्री ज़रूर है लेकिन वे किसी लायक नहीं|’’

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लेखिका लम्बे समय से शिक्षा के क्षेत्र से जुडी हैं और साहित्य में सक्रिय हैं.


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