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पूँजीवादी विकास की अंतर्कथा

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क्या विकास पूरा हो चुका है?

--लूई प्रोयेक्ट 


पूँजीवाद के संकट का सवाल विश्व के प्रमुख औद्योगिक राष्ट्रों के सम्मुख जिस तरह खड़ा है वैसा 1930 के दशक के बाद कभी नहीं हुआ था। जहाँ एक ओर बहुत से लोग मानते हैं कि मंदी की विकटता अपने चरम पर है, वहीं यह मानने वाली प्रवृत्ति भी चली आई है कि पूँजीवाद अब व्यवसाय चक्र (बिज़नेस साइकल) के दुरुस्त होने के चरण में है। मसलन, सं. रा. अमेरिका में अब बेरोज़गारी की दर 7.7 फ़ीसदी है जो पिछले चार सालों में सबसे कम है। इस सुधार के बावजूद यूरोप का बहुत सा हिस्सा अब भी यूरोज़ोन संकट में डूबा हुआ है।

वामपंथ के सामने खड़े अहम सवालों में से एक है पूँजीवादी व्यवस्था की दीर्घकालिक व्यवहारिकता (लॉन्गटर्म वाएबिलिटी) । और अगर आप इस सिद्धांत को आधार मान कर चलते हैं कि यह व्यवस्था तेजी और मंदी के चक्रों से संचालित होती है, तो एक तार्किक निष्कर्ष यह निकाला जा सकता है कि बेरोज़गारी की स्थिति में सुधार होने के साथ ही मुकम्मल लड़ाई छेड़ने का मौका हमारे हाथों से निकल गया है। इसमें अगर ऑक्युपाई आन्दोलन के कमज़ोर पड़ने की बात जोड़ दी जाए तो ऐसा आभास होता है कि इस व्यवस्था ने अपने आप को फिलवक्त स्थिर कर लिया है।

पूँजीवादी विचारधारा के खेमे के भीतर से एक बेमेल सी मगर पते की बात निकल कर आई है। नोबेल पुरस्कार से सम्मानित अर्थशास्त्री पॉल क्रुगमन ने, जो 'वैश्वीकरण' को लेकर न्यूयॉर्क टाइम्स के अपने साथी स्तंभकार थॉमस फ्रीडमन जितने ही प्रतिबद्ध हैं, पंचकोटि महामनी वाला सवाल हाल ही में पूछा है: क्या प्रौद्योगिक उन्नति से नई नौकरियाँ तैयार होती हैं? यह शूमपेटर के सृजनात्मक विध्वंस (क्रिएटिव डिस्ट्रक्शन) वाले सिद्धांत - जिसे कैपिटल के दूसरे खंड में वर्णित पूँजी संचयन चक्र (कैपिटल एक्युमुलेशन साइकल) का अश्लीलीकरण (वल्गराइजेशन) कहा जा सकता है - की मूल कल्पना है।

दिसंबर 2012 को अपने एक स्तम्भ में क्रुगमन ने अपना ध्यान सजीव श्रम के स्थान पर मशीनरी के उपयोग की तरफ मोड़ा, जिसे उन्होंने "पुराने अंदाज़ वाली लगभग मार्क्सवादी किस्म की बहस" करार दिया:

हाल ही में आई एक पुस्तक 'रेस अगेंस्ट दि मशीनमें एमआईटी के एरिक ब्रिंजल्फ़्सन और एंड्रयू मैकाफी तर्क देते हैं बहुत से क्षेत्रों की यही दास्ताँ है और इनमें अनुवाद और वैधानिक अनुसंधान (लीगल रिसर्च) जैसी सेवाएँ भी शामिल हैं। उनके द्वारा दिए गए उदाहरणों के बारे में सबसे आश्चर्यजनक बात यह है कि बहुत सारे पेशे जो ख़त्म हो रहे हैं वे उच्च कौशल वाले और ऊँची तनख्वाहों वाले हैं; प्रौद्योगिकी का नकारात्मक असर केवल निचले दर्जे का काम करने वालों तक ही सीमित नहीं है।
फिर भी, क्या नवप्रवर्तन (इनोवेशन) और प्रगति से सचमुच ज़्यादातर मजदूरों का, या व्यापक रूप से सभी मजदूरों का नुकसान होता है? अक्सर ऐसे दावे सुनाई पड़ते हैं कि ऐसा नहीं हो सकता। मगर हकीकत यह है कि ऐसा हो सकता है और गंभीर अर्थशास्त्री इस संभावना से पिछली दो सदियों से वाकिफ हैं।

27 दिसंबर को 'इस ग्रोथ ओवरशीर्षक वाले अपने एक कॉलम में  क्रुगमन ने पूँजीवादी कट्टरपंथियों के समक्ष एक और गंभीर चुनौती पेश की। इसमें रॉबर्ट गॉर्डन नाम के एक अर्थशास्त्री के शोध का ज़िक्र किया गया है।

हाल ही में नार्थवेस्टर्न यूनिवर्सिटी के रॉबर्ट गॉर्डन के इस तर्क से सनसनी फैल गई कि आर्थिक विकास के तेज़ी से धीमे पड़ते जाने की सम्भावना है- हो सकता है कि विकास का युग जिसकी इब्तिदा अठारहवीं सदी में हुई थी वह सचमुच ख़त्म होने वाला है। गॉर्डन ध्यान दिलाते हैं कि दीर्घकालिक आर्थिक विकास एक स्थिर और नियमित प्रक्रिया नहीं रही है; और वह कई सारी अलग-अलग "औद्योगिक क्रांतियों' से चालित रहा है जिनमें से हरेक किसी विशेष प्रौद्योगिकी समुच्चय (सेट ऑफ़ टेक्नॉलॉजीज़) पर आधारित थी। पहली औद्योगिक क्रान्ति ने, जो मुख्य रूप से भाप के इंजन पर आधारित थी, अठारहवीं सदी के आखिरी और उन्नीसवीं सदी के शुरूआती दौर में विकास को गति प्रदान की। मुख्यतः विद्युतीकरण, आतंरिक दहन (इन्टरनल कम्ब'शन) और रासायनिक इंजीनियरिंग जैसी प्रौद्योगिकियों में विज्ञान की प्रयुक्ति से मुमकिन हो पाई दूसरी औद्योगिक क्रान्ति 1870 के आसपास शुरू हुई और उसने 1960 के दशक तक विकास को गति दी। तीसरी औद्योगिक क्रान्ति, जो सूचना प्रौद्योगिकी पर केन्द्रित है, हमारे वर्तमान युग का निर्धारण करती है।

अगर यह सच है तो मार्क्सवाद के समक्ष अभूतपूर्व परिस्थितियाँ खड़ी हैं। जब कम्युनिस्ट मैनिफेस्टो लिखा गया था तब पूँजीवाद हरसू उत्पादन के साधनों में इंकलाब ला रहा था।

सभी उत्पादन उपकरणों में तीव्र सुधार और अत्यंत सुगम बनाए गए संचार-साधनों के ज़रिये बुर्जुआ वर्ग सभी, यहाँ तक कि बर्बर से बर्बर राष्ट्रों को भी सभ्यता की परिधि में खींच लाता है। उसके जिंसों के सस्ते दाम से, जो उसके लिए एक भारी तोपखाना है जिसकी मदद से वह सभी चीन की दीवारों को ढहा देता है और विदेशियों के प्रति बर्बर जातियों की अत्यंत अदम्य घृणा को घुटने टेकने के लिए मजबूर कर देता है। वह प्रत्येक राष्ट्र को, अन्यथा विलुप्त हो जाने के भय से, बुर्जुआ उत्पादन प्रणाली अपनाने के लिए मजबूर करता है; वह उन्हें मजबूर करता है कि वे अपने बीच उस चीज़ को दाखिल करें जिसे वह सभ्यता कहता है, अर्थात खूद बुर्जुआ बन जाएँ। संक्षेप में, वह अपने ही साँचे में ढली दुनिया का निर्माण करता है।

लेकिन अगर यह "भारी तोपखाना" महज एक फूँकनी में तब्दील हो गया हो तो? जो अपनी बढ़ती आबादी (खासकर विकासशील देशों में) की ज़रूरतों का और विस्तार नहीं कर सकती ऐसी सामाजिक व्यवस्था के राजनीतिक परिणाम क्या हैं? वामपंथी केन्सवादी अर्थशास्त्री जोअन रॉबिन्सन ने एक बार लिखा था,"...पूँजीपतियों द्वारा शोषण किए जाने का दर्द उस दर्द के आगे कुछ भी नहीं जो शोषण बिलकुल न होने से उपजता है।" अगर मेहनतकश लोग वेतन दास (वेज स्लेव) होने की आशा नहीं कर सकते, तो जिस सामाजिक व्यवस्था के साथ उन्होंने सदियों से समझौता कर रखा है उसके साथ मुकाबला करने के अलावा उनके पास और क्या विकल्प हैं? अरब बसंत को निरंकुश सत्ताओं के खिलाफ खड़े हुए आन्दोलन के तौर पर देखने की तमाम (और दुरुस्त) प्रवृत्तियों के बीच जीवन की बुनियादी ज़रूरतें मुहैया कराने में पूँजीवाद की मूलभूत विफलता ने ही विद्रोह को हवा दी है। जब ट्यूनीशिया में सड़क पर ठेला लगाने वाले शख्स ने आत्मदाह किया तो यह उसका तरीका था यह कहने का कि यह व्यवस्था उसके लिए कारगर नहीं रही है। जब एक यूनानी पेंशनभोगी आदमी ने पिछले साल संसद भवन के सामने अपनी जान दी, तो वह ऐसा ही वक्तव्य दे रहा था।

एक ऐसे दौर में जब 1930 के दशक के बाद पहली बार वर्गभेद और तीक्ष्ण होते जा रहे हैं, मार्क्सवादी वाम को अपनी सलाहियत साबित करनी होगी। ह्यूगो शावेज़ की अगुवाई में लातिन अमेरिकी वामपंथियों द्वारा रखी गई इक्कीसवीं सदी के समाजवाद (ट्वेंटी-फर्स्ट सेंचुरी सोशलिज्म) की माँग को ध्यान में रखकर हमें गौर करना होगा कि अमेरिका, जर्मनी, ब्रिटेन या फ्रांस जैसे देशों के क्रांतिकारियों के लिए इस बात के क्या मायने हैं। हालाँकि इन देशों में मेहनतकश तबका तुलनात्मकरूप से निष्क्रिय बना हुआ है (जो मुख्यतः उस विऔद्योगिकरण का नतीजा है जिसको लेकर क्रुगमन चिंतित हैं), मगर इसमें शुबहा नहीं कि संघर्ष जारी रहेंगे भले ही वे वह भूमिका न अख्तियार करें  जो उन्होंने 1930 के दशक में की थी। इसका पहला संकेत क्युपाई आन्दोलन था और हमें इसके आगामी आविर्भावों को लेकर सचेत रहना होगा। शासक वर्ग हमको लेकर तैयार है और आगामी महत्त्वपूर्ण लड़ाइयों के लिए हमारा उतना ही तैयार रहना लाजिमी है।
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(न्यूयॉर्क में रहने वाले लूई प्रोयेक्ट जाने-माने वामपंथी विचारक-लेखक, एक्टिविस्ट और ब्लॉगर हैं। वे दुनिया भर के वामपंथियों में लोकप्रिय ईमेल समूह 'मार्क्समेल' के मॉडरेटर भी हैं। यह आलेख उन्होंने हमारे आग्रह पर ख़ास समयांतर के लिए लिखा है।- भारत भूषण तिवारी, अनुवादक

*समयांतर  के वामपंथ  केन्द्रित विशेषांक से साभार 

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