फासीवाद की एक प्रमुख विशेषता यह होती है कि वह अफवाह फैलाता है. जैसा कि संघ परिवार ने मेरे साथ किया. एक कन्नड़ अखबार है 'कन्नड़ प्रबाह' जिसने मेरे बारे में अफवाहें और गन्दी चीजें प्रकाशित कीं. ऐसी चीजें कि मुझे मर जाना चाहिए. यही हिटलर के समय में हुआ था. मेरा शोध इसी पर है.
अनंतमूर्ति, एक साक्षात्कार में
वरिष्ठ कन्नड़ लेखक अनंतमूर्ति के बयान के बाद सोशल मीडिया सहित तमाम जगहों पर बवाल मचा है . ज़ाहिर है कि मोदी को लकड़ी के लाल किले से असली वाले लाल किले तक पहुँचाने की कोशिश में लगे संघ गिरोह और उसके समर्थकों को यह बुरा लगता. ज़ाहिर है कि वे उन्हें देश से चले जाने की सलाहें देने भर से संतुष्ट नहीं होते और उनकी ह्त्या तक की बात करते, लेकिन जो लोग मोदी के समर्थक नहीं हैं वे भी इस बयान से खासे नाराज़ ही नहीं नज़र आ रहे बल्कि उन्हें भगोड़ा और कायर भी कह रहे हैं. रवीश कुमार जैसे समझदार और उदार समझे जाने वाले पत्रकार भी इस मुद्दे पर जिस तरह ‘जनमत’ के नाम पर उनके प्रति अपमानजनक टिप्पणियाँ कर रहे हैं वह सच में हैरान करने वाला है. यहाँ यह भी समझने की ज़रुरत है कि उनकी प्रयुक्त शब्दावली थी, 'आई डीड ना वांट टू लिव इन अ कंट्री रुल्ड बाई मोदी'. लिव रहना ही नहीं होता, जीना भी होता है. उन्होंने कहीं विदेश जाने की बात नहीं की हैं. वह कह रहे हैं कि ऐसे देश में वह जीना नहीं चाहेंगे जिसका प्रधानमंत्री मोदी हो. वह कह रहे हैं कि वह इस धक्के से मर जाएँगे. (मूलबयान यहाँ पढ़ा जा सकता है)
फिर भी चलिए मान लेते हैं कि वह विदेश जाने की ही बात कर रहे हैं. तो भी एक अस्सी साल के लेखक के प्रति जिस तरह की असहिष्णुता दिखाई जा रही है, वह यह तो बिलकुल साफ़ करती है कि कम से कम भारत में लेखकों को लेकर न्यूनतम सम्मान वाली स्थिति भी नहीं है, वरना शायद इस शोरगुल का एक हिस्सा अनंतमूर्ति की उस चिंता के लिए भी होता जो उस वक्तव्य में उन्होंने एक फासिस्ट सरकार आने की दशा में भारत के सेकुलर और सहिष्णु ताने बाने को लेकर जताई है. एक ऐसे देश में जहाँ मध्यवर्ग का सबसे बड़ा सपना अपने बच्चों या मुमकिन हो तो खुद अपने लिए अमेरिका या किसी अन्य पश्चिमी देश में एक अदद नौकरी हासिल कर लेना हो, मोदी जिस प्रदेश से आते हैं वहां तो अमेरिका और कनाडा जाने के लिए क़ानूनी-ग़ैरक़ानूनी तरीक़े अपनाना एकदम रोजमर्रा की बात है, एक ऐसे देश में जहाँ ‘इम्पोर्टेड’ अब भी एक पवित्र शब्द हो वहां एक लेखक के इस बयान पर इतना शोर!
फिर भी चलिए मान लेते हैं कि वह विदेश जाने की ही बात कर रहे हैं. तो भी एक अस्सी साल के लेखक के प्रति जिस तरह की असहिष्णुता दिखाई जा रही है, वह यह तो बिलकुल साफ़ करती है कि कम से कम भारत में लेखकों को लेकर न्यूनतम सम्मान वाली स्थिति भी नहीं है, वरना शायद इस शोरगुल का एक हिस्सा अनंतमूर्ति की उस चिंता के लिए भी होता जो उस वक्तव्य में उन्होंने एक फासिस्ट सरकार आने की दशा में भारत के सेकुलर और सहिष्णु ताने बाने को लेकर जताई है. एक ऐसे देश में जहाँ मध्यवर्ग का सबसे बड़ा सपना अपने बच्चों या मुमकिन हो तो खुद अपने लिए अमेरिका या किसी अन्य पश्चिमी देश में एक अदद नौकरी हासिल कर लेना हो, मोदी जिस प्रदेश से आते हैं वहां तो अमेरिका और कनाडा जाने के लिए क़ानूनी-ग़ैरक़ानूनी तरीक़े अपनाना एकदम रोजमर्रा की बात है, एक ऐसे देश में जहाँ ‘इम्पोर्टेड’ अब भी एक पवित्र शब्द हो वहां एक लेखक के इस बयान पर इतना शोर!
न जाने क्यों मुझे ऐसे में गुजरात के उस मुसलमान युवक की याद आ रही है जिसका दंगाइयों के सामने हाथ जोड़े फ़ोटो उस दौर में गुजरात दंगों की त्रासदी का प्रतीक बन गया था. वह गुजरात से कोलकाता चला गया था! एक प्रोफ़ेसर बंदूकवाला थे जो एक नयी और आधुनिक रिहाइश में अपने हिन्दू दोस्तों के बीच रहने चले आये थे उन दंगों के पहले और फिर उन्हें वहाँ दंगों के दौरान इतना परेशान किया गया कि वह लौटकर पुरानी मुस्लिम बस्ती में चले गए. विभाजन के समय यहाँ से वहाँ और वहाँ से यहाँ आये लोगों का क़िस्सा तो पुराना हुआ अभी मुजफ्फरपुर दंगों के बाद कितने लोग अपना गाँव छोड़कर किसी और सुरक्षित ठिकाने पर चले गए! देश न छोड़ सके तो देस छुडा दिया गया. हिटलर के राज में , जिससे अनंतमूर्ति सहित तमाम लोग नरेंद्र मोदी की तुलना करते हैं, ब्रेख्त सहित कितने लोगों को देश छोड़ना पड़ा और सी आई ए ने किस तरह चार्ली चैपलिन को देश छोड़ने पर मज़बूर किया ये किस्से इतने भी पुराने नहीं (चाहें तो इसमें सोवियत संघ से देश छोड़ने वाले, कश्मीर से देश छोड़ने वाले, पाकिस्तान और इरान से देश छोड़ने वाले, फलस्तीन से देश छोड़ने वाले तमाम जाने अनजाने लोगों को जोड़ लें, मैं बख्श किसी को नहीं रहा, सिर्फ उदाहरणों की भीड़ लगाने की जगह प्रतिनिधि उदाहरण प्रस्तुत कर दे रहा हूँ). क्या कहेंगे आप इन सब लोगों को? भगोड़ा? कायर? देशद्रोही? कह लीजिये कि अभी आप ऐसे हालात से नहीं गुज़रे.
अनंतमूर्ति . कर्नाटक में रहकर कन्नड़ में लिखते हैं. उस कर्नाटक में जहाँ दक्षिणी राज्यों में पहली बार बी जे पी सत्ता में आई और श्रीराम सेने के उत्पातों के रूप में शिवसेना और बजरंग दल के उत्पातों का प्रयोग हुआ. जहाँ उनका मशहूर उपन्यास ‘संस्कारम’ लगातार विवाद में रहा.जो उन्हें जानते हैं वह शायद यह भी जानते होंगे कि एक लेखक की तरह सिर्फ लिखकर ही नहीं एक कार्यकर्ता की तरह सड़क पर आकर भी उन्होंने साम्प्रदायिक शक्तियों की मुखालिफत की. इमरजेंसी के खिलाफ स्टैंड लिया. चौरासी के दंगों पर तीखी प्रतिक्रिया दी और एक लोकसभा चुनाव इस घोषणा के साथ लड़ा कि वह ‘ भारतीय जनता पार्टी के ख़िलाफ़ लड़ने के मुख्य वैचारिक उद्देश्य से ही चुनाव लड़ रहे हैं’. यही नहीं उन्होंने चुनाव में देवेगौडा का दिया टिकट तब ठुकरा दिया जब देवेगौड़ा ने बीजेपी के साथ समझौता कर लिया. वह वामपंथी भी नहीं हैं. लोग जानते ही हैं कि बेंगलोर को बेंगलुरु नाम देने के आन्दोलन में वह बेहद सक्रीय रहे हैं. असल में वह एक ओर ब्राह्मणवादी संस्कारों और विचारों के कट्टर विरोधी रहे हैं तो साथ में देशज आधुनिकता के समर्थक हैं. इस रूप में वह शब्दवीर भर नहीं कि उन्हें शोशेबाज़ी का शौक हो. वह सक्रिय राजनैतिक लेखक रहे हैं जिन्होंने ऐसी ताक़तों के खिलाफ लगातार लड़ाई लड़ी है. वह राममनोहर लोहिया, जयप्रकाश नारायण, शान्तावेरी गोपाल गौड़ा जैसे समाजवादी नेताओं के साथ नजदीकी से जुड़े रहे हैं. ऐसे में अगर वह मोदी के आने के बाद देश छोड़ने की बात कह रहे हैं तो उसे समझा जाना चाहिए. एक सक्रिय वयोवृद्ध लेखक यह कह भर नहीं रहे हैं, यह कहते हुए कर्नाटक में ‘धुंडी’ पर लगे प्रतिबंध और उसके लेखक योगेश मास्टर की गिरफ्तारी के खिलाफ सक्रिय हैं.तो यह पलायन नहीं है. इस उम्र में वह अपने शरीर और अपने हौसलों की सीमा जानते हैं. वह जानते हैं कि देश में साम्प्रदायिक शक्तियों के हाथ में ताक़त आने के बाद उन जैसे लेखकों के विरोध का अधिकार किस तरह छीना जाने वाला है. उम्र भर जिन ताक़तों के ख़िलाफ़ एक लेखक खड़ा रहा उनके ताक़तवर होते जाने से एक हताशा भी पैदा होती है, निराशा भी, खीझ भी. बहुत दिन नहीं हुए जब मराठी के ख्यात नाटककार विजय तेंदुलकर ने कहा था कि 'मेरे पास पिस्तौल हो तो मैं सबसे पहले मोदी को गोली मार दूँगा'. यह कोई हिंसक कोशिश नहीं थी, एक लेखक की हताशा थी. इस हताशा में हत्याएं तो नहीं लेकिन तमाम लेखकों की आत्महत्याएं हमने देखी हैं.
इस इंटरव्यू के बाद उठे विवाद की रौशनी में दिए गए एक इंटरव्यू में वह कहते हैं, ‘मैं नेहरू और इंदिरा के प्रति आलोचनात्मक हो गया. मैं आपातकाल के खिलाफ़ था. इसके लिए मेरी आलोचना हुई मुझे ऐसे गालियाँ कभी नहीं दी गयीं जैसी आज दी जा रही हैं. इस आदमी के पीछे कारपोरेट जगत की ताकत है और अधिकाँश मीडिया की भी. और इसके सभी प्रसंशक एक साहित्यिक आदमी की टिप्पणी से परेशान हो गए. आखिरकार मैं वही हूँ, एक लेखक. . यहाँ तक कि मैं अंग्रेजी में भी नहीं लिखता. यह दिखाता है कि साहित्य में अब भी ताक़त है. जब एक सर्वसत्तावादी सत्ता में आता है तो जो आज चुप हैं वे और चुप हो जायेंगे. इसलिए मैं एक ऐसी दुनिया में नहीं रहना चाहता जहाँ मोदी प्रधानमंत्री हो.’गौर कीजिए वह यहाँ ‘देश’ नहीं ‘दुनिया’ कह रहे हैं. साहित्य की भाषा से परिचित लोग जानते हैं कि दुनिया का मतलब वह दुनिया ही नहीं होता जिसका राजा आज अमेरिका है. दुनिया भावभूमि के रूप में प्रयुक्त होती है, जैसे लेखकों की दुनिया, कवियों की दुनिया, कलाकारों की दुनिया. तो देश भी सिर्फ भौगोलिक सीमा नहीं होता, वह मानसिक और वैचारिक निर्मिति भी होता है. इस भारत कहे जाने वाले भौगोलिक देश में एक मोदी की दुनिया रहती है जहाँ विरोध के लिए कोई जगह नहीं, जहाँ सहिष्णुता कोई जीवन मूल्य नहीं, जहाँ संविधान की कोई क़ीमत नहीं, जहाँ लेखक का पर्यायवाची चारण है. चाहें तो दो साल पहले हुए गुजरात साहित्य अकादमी के उर्दू कवि के साथ व्यवहार को याद कर लें. चाहें तो सरूप ध्रुव जैसी गुजराती लेखिका से पूछ लें. जो होशियार हैं वे चुप हैं, आहिस्ता आहिस्ता जबानें बदल रहे हैं जो नहीं हैं वे अनंतमूर्ति की तरह साफ़ बोल रहे हैं और गालियाँ सुन रहे हैं. उनकी दिक्कत यह है कि वह अपनी वैचारिक नागरिकता के प्रति प्रतिबद्ध हैं, चाहे इसके लिए उन्हें अपनी भौगोलिक नागरिकता त्यागनी पड़े.
इस इंटरव्यू के बाद उठे विवाद की रौशनी में दिए गए एक इंटरव्यू में वह कहते हैं, ‘मैं नेहरू और इंदिरा के प्रति आलोचनात्मक हो गया. मैं आपातकाल के खिलाफ़ था. इसके लिए मेरी आलोचना हुई मुझे ऐसे गालियाँ कभी नहीं दी गयीं जैसी आज दी जा रही हैं. इस आदमी के पीछे कारपोरेट जगत की ताकत है और अधिकाँश मीडिया की भी. और इसके सभी प्रसंशक एक साहित्यिक आदमी की टिप्पणी से परेशान हो गए. आखिरकार मैं वही हूँ, एक लेखक. . यहाँ तक कि मैं अंग्रेजी में भी नहीं लिखता. यह दिखाता है कि साहित्य में अब भी ताक़त है. जब एक सर्वसत्तावादी सत्ता में आता है तो जो आज चुप हैं वे और चुप हो जायेंगे. इसलिए मैं एक ऐसी दुनिया में नहीं रहना चाहता जहाँ मोदी प्रधानमंत्री हो.’गौर कीजिए वह यहाँ ‘देश’ नहीं ‘दुनिया’ कह रहे हैं. साहित्य की भाषा से परिचित लोग जानते हैं कि दुनिया का मतलब वह दुनिया ही नहीं होता जिसका राजा आज अमेरिका है. दुनिया भावभूमि के रूप में प्रयुक्त होती है, जैसे लेखकों की दुनिया, कवियों की दुनिया, कलाकारों की दुनिया. तो देश भी सिर्फ भौगोलिक सीमा नहीं होता, वह मानसिक और वैचारिक निर्मिति भी होता है. इस भारत कहे जाने वाले भौगोलिक देश में एक मोदी की दुनिया रहती है जहाँ विरोध के लिए कोई जगह नहीं, जहाँ सहिष्णुता कोई जीवन मूल्य नहीं, जहाँ संविधान की कोई क़ीमत नहीं, जहाँ लेखक का पर्यायवाची चारण है. चाहें तो दो साल पहले हुए गुजरात साहित्य अकादमी के उर्दू कवि के साथ व्यवहार को याद कर लें. चाहें तो सरूप ध्रुव जैसी गुजराती लेखिका से पूछ लें. जो होशियार हैं वे चुप हैं, आहिस्ता आहिस्ता जबानें बदल रहे हैं जो नहीं हैं वे अनंतमूर्ति की तरह साफ़ बोल रहे हैं और गालियाँ सुन रहे हैं. उनकी दिक्कत यह है कि वह अपनी वैचारिक नागरिकता के प्रति प्रतिबद्ध हैं, चाहे इसके लिए उन्हें अपनी भौगोलिक नागरिकता त्यागनी पड़े.
लेकिन लोग इसे समझना नहीं चाहते. वे अस्सी साल के लेखक से, जो आज भी सड़क पर खड़ा है अपने एक साथी की किताब पर प्रतिबंध लगाए जाने के ख़िलाफ़, ‘वीरता’ के उच्चतम मानदंडों की उम्मीद करते हैं लेकिन ख़ुद उसकी चिंताओं पर सोचने को भी तैयार नहीं. वे उन हालात को रोकने के लिए लड़ाई में उतरने को तैयार नहीं. उनके पास अनंतमूर्ति को देने के लिए यह आश्वासन नहीं कि आपको कहीं नहीं जाना पड़ेगा, हम हिटलर के इस अवतार को सत्ता में आने ही नहीं देंगे. वे उनके ‘पलायन’ को प्रश्नांकित करते हैं और इस तरह उनके संघर्षों और उनकी चिंताओं को परदे के पीछे भेज दिए जाने में मदद करते हैं. मुझे डर है कि वे अपनी भौगोलिक नागरिकता बचाने के लिए अपनी वैचारिक नागरिकता त्यागने की तैयारियाँ मुकम्मिल करने में लगे हैं. अगर नहीं तो उन्हें समझना चाहिए कि यह एक लेखक की कातर पुकार नहीं चुनौती है अपने नागरिकों के प्रति.