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राजेन्द्र यादव : बड़े सम्पादक और लेखक ही नहीं बड़े मनुष्य भी - पल्लव

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हमारे युग के नायक राजेन्द्र यादव
पल्लव
हिन्दी कहानियों के सबसे शानदार संकलन ‘एक दुनिया समानांतर’ की भूमिका में राजेन्द्र  यादव ने एक सवाल उठाया है कि विश्वामित्र नायक हैं या खलनायक? आज जबसे खबर मिली है कि यादव जी नहीं रहे यही सवाल उनके बारे में पूछ्ने का मन हो रहा है - राजेन्द्र यादव हमारे साहित्य समय के नायक हैं या खलनायक? शुरुआत उन्होंने भी बड़ी भव्य की थी – सारा आकाश जैसे उपन्यास और कई उम्दा कहानियों के साथ । हंस के सम्पादन से उनका सितारा बुलन्दी पर पहुंचा, यह वह समय था जब बड़े समूहों की पत्रिकाएं डूब रही थीं और उधर सोवियत संघ का भी पराभव होने को था । हंस ने हिन्दी संसार में कायदे की बहसों को फ़िर जीवन दिया और एक के बाद एक बढिया कहानियां उस्में आने लगी। फ़िर मौसम में बद्लाव दिखाई देने लगा और राजनीति के साथ साहित्य में भी दलित आहट हुई। ओमप्रकाश वाल्मीकि, मोहन्दास नैमिशराय,सूरजपाल चौहान और श्योराज सिंह बेचैन जैसे लेखक परिदृश्य पर उभर रहे थे, कहना न होगा कि हंस ने इस दलित विमर्श को ज़मीन प्रदान की । इसके साथ साथ स्त्री विमर्श का सिलसिला भी शुरू हुआ और हंस ने लवलीन, मैत्रेयी पुष्पा, अनामिका, सुधा अरोड़ा के साथ अनेक नयी लेखिकाओं के लिये मंच तैयार कर दिया । क्या राजेन्द्र यादव को ऐसा नहीं करना चाहिये था? क्या उन्हें खलनायक माने जाने चाहिये क्योंकि उन्होंने हाशिये के लोगों को साहित्य के सभागार में आदरपूर्वक बैठने की जगह दी और इससे मार्क्सवाद की शाश्वत लड़ाई को धक्का लगा। ये वे विमर्श थे जो उत्तर आधुनिक मुहावरे में अपनी जगह मांगते थे बल्कि कहना चाहिए कि अपनी जगह इन्होंने खुद आगे बढकर ले ली । राजेन्द्र यादव इस ऐतिहासिक क्षण में दलितों और स्त्रियों के लिए हंस में स्वागत कर रहे थे और उनके पक्ष में जिरह कर रहे थे, पितृसत्ता और ब्राह्मणवाद से लड़ाई लड़ रहे थे। अपने समय का नायक वह होता है जो अपने समय के असली संघर्षों को पहचाने और उन्हें सही दिशा दे, राजेन्द्र यादव ने दलित और स्त्री विमर्श के लिये यह भूमिका निभाई। लड़ाई उनके स्वभाव का स्थाई भाव था। हिन्दी कहानी का इतिहास जानने वाले पाठकों को मालूम है कि नयी कहानी के हक़ में उन्होंने कितनी लड़ाइयां मोल ली थीं और कितने दुश्मन बनाए थे। हंस के माध्यम से यह काम आगे भी वे जीवन भर करते रहे। काशीनाथ सिंह के कथा रिपोर्ताज़ छापे तो गालियों के कारण कोहराम मचा-राजेन्द्र यादव फ़िर लेखक और लेखन के पक्ष में थे, तसलीमा का मामला हो या हिन्दी पट्टी की जड़ता के कारण –हंस अपने समय का वैचारिक दीपक बनने की कामयाब कोशिश करता रहा। अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता के लिये कोई भी जोखिम उठाने की तत्परता उन्हें सचमुच बड़ा बनाती है। बड़ा सम्पादक और लेखक ही नहीं बड़ा मनुष्य भी ।
विचारों की स्वतन्त्रता के कारण ही उनका अपना वैवाहिक जीवन समाप्तप्राय: हो गया लेकिन वे अडिग थे तब भी जब सारे ज़माने ने उन्हें इसके लिये कोसा और ‘लम्पट’ तक कहा। मैं सोचता हूं कि क्या हम एक आदमी भी ऐसा नहीं बना सकते जो अपनी शर्तों पर जिन्दगी जीने की हिम्मत रखता हो। उनका अपना लेखन भी तमाम इसी तरह की चुनौतियों को स्वीकार करता हुआ लेखन है। भारतीय समाज के छ्द्म और पाखंड से वही लेखक लड़ सकता है जो स्वयं अपने जीवन में इनसे लड़ने का साहस रखता हो । राजेन्द्र यादव को इस कसौटी पर हमेशा कसा गया और वे हरदम कसे जाने के लिए तैयार रहे । हम नहीं जानते कि हिन्दी साहित्य के पाठक भविष्य में भी बने रहेंगे लेकिन यह तय है कि हिन्दी की साहित्यिक पत्रकारिता के सबसे चमकदार नामों की सूची में राजेन्द्र यादव का नाम बहुत ऊपर होगा।

लगभग एक दर्जन मूल किताबों और दो दर्जन सम्पादित किताबों के धनी राजेन्द्र जी ने प्रकाशन की हिम्मत भी की थी और ‘अक्षर प्रकाशन’ उनका ऐसा सपना था जो सहकारी ढंग से लेखकों की किताबें छापे और समुचित रायल्टी भी दे, यह कोशिश बहुत लम्बी नहीं चल सकी लेकिन अपनी सुरुचि और गुणवत्तापूर्ण किताबों के लिये ‘अक्षर प्रकाशन’ को याद किया जाता रहेगा।

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