पिराते-से ख़याल
अंधेरे मेंपर हिन्दी में बहुत चर्चा हुई है। मैं मुक्तिबोध के कविता-संसार में जाता हूं तो चकमक की चिनगारियांभी उससे कम महत्वपूर्ण नहीं लगती। मुक्तिबोध की कविता के विशद विवेचन में जाना हो तो अंधेरे मेंऔर यदि नए कवियों को मुक्तिबोध से कुछ सीखना हो तो चकमक की चिनगारियां,उनकी दो अनिवार्य लीजेंडरी कविताएं हैं।
चकमक अग्निधर्मा पत्थर है। बहुत ठोस होता है,आसानी से टूटता नहीं और कहते हैं उसकी संरचना में कुछ धातु भी शामिल होती है। यह आपस में या किसी दूसरी ठोस सतह से टकराए तो चिनगारियां उत्पन्न होती हैं। दो ठोस सतहों का संघर्ष अथवा घर्षण हमें द्वन्द्व की ओर ले जाता है,द्वन्द्वात्मकता- ऐतिहासिक भौतिकवाद,जहां कोरे दर्शन और निपट बौद्धिक तत्वमीमांसाएं घुटने टेक देती हैं। सब कुछ मनुष्यता और समाज के परिप्रेक्ष्य में देखा-समझा जाता है,जैसा कि देखा-समझा जाना चाहिए। रचना में निजी और सामाजिक सन्दर्भ टकराते हैं तो चिनगारियां पैदा होती हैं,आग जलाना सम्भव होता है,रोशनी मिलती है। यह आग और रोशनी ही किसी कविता का प्राप्य है और उससे भी आगे मनुष्य-जीवन का भी।
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अधूरी और सतही जिन्दगी के गर्म रास्तों पर
हमारा गुप्त मन
निज में सिकुड़ता जा रहा
जैसे कि हब्शी एक गहरा स्याह
गोरों की निगाह से अलग ओझल
सिमटकर सिफ़र होना चाहता हो जल्द
मानों क़ीमती मजमून
गहरी,ग़ैर-क़ानूनी किताबों,ज़ब्त पत्रों का
यह इस कविता की आरम्भिक पंक्तियां हैं। मुक्तिबोध सिर्फ़ अपने नहीं,सभी समानधर्मा विचारवान जनों के गुप्त मन की बात कर रहे हैं,जो निज में सिकुड़ते जा रहे हैं। निज कभी किसी का सही शरण्य नहीं होता। यहां सिकुड़ने की क्रिया है,जो मन की सामान्य व्याप्ति को भी संकुचित कर रही है। मुझे सिकुड़ कर अपने खोल में घुसता घोंघा याद आ रहा है। मुक्तिबोध की कविता हमेशा ऐसी स्थिति में पहुंचा देती है,जहां हम अपने रूपक जोड़ने लगते हैं। खोल घोंघे का प्राकृतिक शरण्य है,लेकिन जब हत्यारे उस तक पहुंचते हैं तो वह भी उसे बचा नहीं पाता और फिर मनुष्य तो अपने विकासक्रम में घोंघे से अरबों गुना आगे का प्राणी है। मुक्तिबोध पहले गहरे स्याह हब्शी का रूपक देते हैं,जो गोरों की निगाह से ओझल सिमटकर कर सिफ़र हो जाना चाहता है। यह रूपक मानवजाति के भीतर अन्याय और भेदभाव का आदिरूपक है। नस्लों की श्रेष्ठता के क्रूर प्रसंग इतिहास से भी पूर्व के हैं। फिर एक उजला रूपक है गहरी ग़ैर-क़ानूनी किताबों और ज़ब्त पत्रों के क़ीमती मजमून का। यह प्रत्याख्यान है। पारम्परिक क़ानून अनाचारियों के बनाए हैं और उनसे मुक्ति और विद्रोह के क़ीमती मजमूनों के पत्र भी हमेशा ज़ब्तशुदा ही रहे - आने वाले समयों ने उन्हें पहचाना,जैसे कि हिन्दी कविता ने मुक्तिबोध को उनके न रहने के बाद। ज़ब्तशुदा मुक्तिबोध के लिए भुगता हुआ पद है। इतिहास पर उनकी एक किताब म.प्र. शासन ने न सिर्फ़ पाठ्यक्रम से हटाई बल्कि उस पर प्रतिबंध भी लगाया था। यहां से निषिद्धता पर एक पूरी बहस शुरू होती है। जो मनुष्यमात्र के लिए मुक्ति का दस्तावेज़ हो सकता है,वह मनुष्यद्रोही सत्ताओं की निषेधाज्ञाओं का लक्ष्य भी बनता है। इस महत्वपूर्ण प्रस्थानबिन्दु से ही मुक्तिबोध की यही नहीं,लगभग सभी महत्वपूर्ण कविताएं आकार लेना शुरू करती हैं।
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मुक्तिबोध की लंबी कविताओं में आत्मसंघर्ष के लम्बे सिलसिलेवार दृश्य हैं। इस कविता में भी हैं। दरअसल यही दृश्य इन कविताओं को लम्बा बनाते हैं,वरना तो हम देख ही सकते हैं कि सीधे ही क्रांतिकारी बयान देने पर उतर आने में कविजनों को कितनी कम देर लगती है। ऐसी कविताएं बिना चिनगारियों की आग का बयान होती हैं। ये वास्तव में आग नहीं,आग की उस चमक भर का बयान हैं,जो दिखते ही बुझ भी जाती है। चकमक की चिनगारियांमें मुझे आत्मसंघर्ष का यह चरम दिखता है –
व्रणाहत पैर को लेकर
भयानक नाचता हूं,शून्य
मन के टीन-छत पर गर्म
हर पल चीख़ता हूं,शोर करता हूं
कि वैसी चीख़ती कविता बनाने से लजाता हूं
समाज में व्रणाहत पैरों का पूरा इतिहास है उनके बारे में लिखी जा रही कविता का भी। ध्यान देने की बात है कि जैसी चीख़ती कविता की बात मुक्तिबोध यहां कर रहे हैं,वैसी कविता बाद में धूमिल ने लिखी और लेखन के आरम्भिक दौर में आलोक धन्वा ने लिखी। कविता में ठीक इसके बाद कविता में अंधेरी दूरियों में सेउभरता एक कोई श्याम धुंधला लम्बा और मोटा हाथ आता है,कवि को अपनी कनपटी पर ज़ोर से एक आघात महसूस होता है। इस प्रसंग को समझना भी जटिल है। यह हाथ दरअसल आत्मसंघर्ष में फंसी कविता के बीच एक विस्फोटनुमा हस्तक्षेप करता है। यहां से मुक्तिबोध का चिर-परिचित फंतासी शिल्प अपनी भूमिका तय करने लगता है इस आघात के बाद बिखरती चिनगारियों के साथ होता यह है –
कि कंधे से अचनाक सिर कटा और
उड़ गया,ग़ायब हुआ(जो शून्य यात्रा में स्वगत कहता –
अरे ! कब तक रहोगे आप अपनी ओट ! )
.....वह जा गिरा
उस दूर जंगल के
किसी गुमनाम गड्ढे में
(स्वगत स्वर में –
कहां मिल पाएंगे वे लोग
कि जिनमें जनम लेकर भी
उन्हीं से दूर दुनिया में निकल आए)
यह मुक्तिबोध का आत्मसंघर्ष है। इसकी दिशा बिलकुल अलग है। कोई लिजलिजा निजीपन नहीं जो अज्ञेय के कथित आत्मसंघर्ष में ख़ूब रहा। न नई कविता की कोई कुंठा,हताशा और न उसका पारिभाषिक संत्रास। यहां ख़ुद से सीधा सवाल है कि कब तक रहोगे आप अपनी ओट?इस कविता का पिराता-सा ख़याल भी यही कि कहां मिल पाएंगे वे लोग कि जिनमें जनम लेकर भी उन्हीं से दूर दुनिया में निकल आए। तमाम जनपक्षधरता का दावा करते हुए भी प्रतिबद्ध कवि अकसर अपने लोगों से दूर निकल जाते हैं,लेकिन यह आत्मस्वीकार और इससे बाहर निकलने की यह अपूर्व छटपटाहट मुझे सिर्फ़ मुक्तिबोध में मिलती है। बतौर कवि कहना चाहता हूं कि हमारे लिए ये आत्मालोचन के अनिवार्य पाठ हैं,जिन्हें हमें रोज़ पढ़ना चाहिए।
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जहां तक मैं देख पाया हूं मुक्तिबोध की कविताओं की पूरी लिखत में चांद शायद ही कहीं सकारात्मक बिम्ब या प्रतीक के रूप में आया हो पर इस कविता में वो निजता के इस गड्ढे में एक चिट्ठी फेंक जाता है,जिसमें लिखी यह बात हिन्दी कविता की आने वाली पीढ़ियों के लिए शिलालेख बन जाती हैं -
अरे जन-संग ऊष्मा के
बिना,व्यक्तित्व के स्तर जुड़ नहीं सकते
प्रयासी प्रेरणा के स्त्रोत,
सक्रिय वेदना की ज्योति,
सब साहाय्य उनसे लो ।
तुम्हारी मुक्ति उनके प्रेम से होगी
कि तद्गत लक्ष्य में से ही
हृदय के नेत्र जागेंगे
व जीवन-लक्ष्य उनके प्राप्त
करने की क्रिया में से
उभर ऊपर
निकलते जाएंगे निज के
तुम्हारे गुण
कि अपनी मुक्ति के रास्ते
अकेले में नहीं मिलते।
मेरे लिए यह अमर-काव्य है और मुक्तिबोध शिक्षक-कवि। यह शिक्षा जनवादी विचार से लेकर मुक्तछंद की आंतरिक लय को साधने तक कई दिशाओं में है। मुक्तिबोध के समय में भी अपनी निजता अपने में ही अगोरने वाले अहंकारी व मूर्ख बड़े कवि थे और आज भी हैं। विकट प्रतिभावान कहाने वाले दो-एक युवा कवि तो उस समय के ऐसे कवियों से चार हाथ आगे ही हैं। मुझे वो वीरेन डंगवाल की कविता में आने वाले चीं-चीं,चिक-चिक धूम मचातेउन मोटे-मोटे चूहों से ज़्यादा कुछ नहीं लगते,जो जीवन की महिमा नष्ट नहीं कर पाएंगे। उजले दिनों की आस का बरक़रार होना बड़ी बात है।
सवाल यह भी है कि कविता में मुक्तिबोध के होने को चन्द्रकांत देवताले,विष्णु खरे,वीरेन डंगवाल,मंगलेश डंबराल,राजेश जोशी,अरुण कमल आदि वरिष्ठ और अग्रज कवियों ने जिस तरह समझा,उस तरह हमारी पीढ़ी नहीं समझ पा रही है?जिस तरह साथी कवि सुंदरचंद ठाकुर ने अपनी भारतभूषण अग्रवाल पुरस्कृत कविता ‘मुक्तिबोधों का समय नहीं है यह’है में समझा है दरअसल वह भी एक सतही समझ ही है,लेकिन कविता के सीमित शिल्प में है,इसलिए मैं उसकी क़द्र करता हूं। यहीं अधबीच में निवेदन यह भी है कि मेरी इस अतिरिक्त टीप को विषयान्तर न माना जाए,यह सवर्था अनन्तर ही है।
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कविता की फंतासी में बिम्ब पर बिम्ब,दृश्य पर दृश्य आते जाते हैं। गहन संवाद जारी रहता है –कभी ख़ुद से,कभी उपस्थित हो रहे बिम्बों-प्रतीकों से,कभी दृश्यों से। ऐसे ही एक दृश्य में –
अंधेरी आत्म-संवादी हवाओं से
चपल रिमझिम
दमकते प्रश्न करती है –
‘मेरे मित्र,
कुहरिल गत युगों के अपरिभाषित
सिन्धु में डूबी
परस्पर,जो कि मानव-पुण्य धारा है,
उसी के क्षुब्ध काले बादलों को साथ लायी हूं ,
बशर्ते तय करो
किस ओर हो तुम,अब
सुनहले ऊर्ध्व–आसन के
निपीड़क पक्ष में अथवा
कहीं उससे लुटी-टूटी
अंधेरी निम्न-कक्षा में कक्षा में तुम्हारा मन
कहां हो तुम?
यह बुनियादी चुनौती है कि तय करो किस ओर हो तुम। बिना यह तय किए कविता लिखने का कोई अर्थ नहीं। पक्षधरता उन कवियों के लिए पहली शर्त है जो कविता को महज अपने या औरों के रंजन का साधन नहीं मानते। कविता की भूमिका साहित्य में दूसरी विधाओं से अलग स्तर पर रही है और रहेगी।दूसरे यह आदि विधा है,इसके उत्तरदायित्व भी अधिक हैं। कहना ही होगा कि आस्वादात्मकता और रस-रंजन के प्रसंग कविता के पराभव के प्रसंग हैं। सुख की बात है कि बहुधा हिन्दी कविता ऐसे प्रसंगों में व्यर्थ नहीं हुई है।
यह एक सहज बात है कि कविता उसकी वाणी बन जाती है,जो अपनी अनुभूति को वाणी नहीं दे पाता। हज़ारों वर्ष में एक पूरा वर्ग ऐसा बन गया है,जिसे ऊपर मुक्तिबोध लुटी-टूटी निम्न-कक्षाकह रहे हैं। दूसरी ओर सुनहले ऊर्ध्व आसन का निपीड़कपक्ष है,जिसके पास क्रूर सत्ताएं रही हैं। कवि के पास तय करने के लिए बहुत अधिक विकल्प नहीं हैं,बस यही दो हैं। शोषक विचारों और सत्ताओं की गोद में बैठे या अपने लुटे-टूटे जनों के बीच चला आए। सत्य का पक्ष,न्याय का पक्ष,संसार में मानवीय शुभ्रता की कामना और उसके लिए चल रहे संघर्ष का पक्ष। यह सब कहने में जितना आसान लगता है,कर दिखाने में उतना ही कठिन और जटिल होता है। लेकिन संसार के हर कोने और हर दौर में ऐसे कवि होते हैं – आधुनिक हिन्दी कविता के पास भी यह परम्परा है,मुक्तिबोध जिसके मूल में हैं।
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आगे की कविता मुक्तिबोध के इसी सिग्नेचर शिल्प में चलती है लेकिन समाप्त नहीं होती। मुक्तिबोध की कोई कविता कहीं समाप्त नहीं होती,ऐसा कई विद्वानों का भी मानना है। इस कविता में तो मुक्तिबोध ने स्वयं घोषित किया –
नहीं होती,कहीं भी ख़त्म कविता नहीं होती
कि वह आवेग-त्वरित काल यात्री है।
इस कविता का अभिप्राय अर्थ से कहीं आगे का है। यह मुक्तिबोध की अपनी कविता का प्रसंग भर नहीं है,उस साकार-सरूप,सारवान और जीवन्त चीज़ का प्रसंग है,जो अभिव्यक्ति का आदि रूप है। संसार में कविता कभी ख़तम नहीं होगी,क्योंकि वह आवेग-त्वरित काल यात्री है। मुक्तिबोध इन पंक्तियों में आनेवाली नस्लों को जनता के हक़ में पिराते-से ख़यालों की एक विरासत ही नहीं,विश्वास भी सौंपते हैं। हम सब जानते हैं कि जब तक चकमक की ये चिनगारियां हमारे भीतर छिटकती रहेंगी तो हमारा आवेग कायम रहेगा।
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- शिरीष कुमार मौर्य