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हम गैर को सतायेंगे गुजरात की तरह !

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गुजरात माडल की बात ऐसे की जा रही है मानो विकास नाम की चिड़िया लाशों से दाना-पानी लेती हो फिर भी पूज्य है. पुरानी बातें भुलाने की बातें कुछ यों की जाती हैं जैसे वह कई सदी पुरानी बात हो. बाबर का बदला जुम्मन से लेने को आतुर लोग मोदी और उसके गिरोह के लोगों पर अदालती कार्यवाही को भी कटघरे में खड़ा करते हैं. ऐसे में आनंद कुमार द्विवेदीकी यह ग़ज़ल उस स्मृति को न केवल ताज़ा करती है बल्कि उसे बनाए रखने की वजूहात को भी साफ़ करती है.








हम रामराज लायेंगे गुजरात की तरह
 
इस देश को बनायेंगे गुजरात की तरह 

बस एक बार होंगे जो होने हैं फ़सादात 
झगड़े की जड़ मिटायेंगे गुजरात की तरह 

अपराध नहीं पनपेगा, मुज़रिम न बचेगा 
सबको सज़ा दिलायेंगे गुजरात की तरह 

क्या कीजियेगा रंग-रंग के गुलों का आप 
कुछ रंग हम हटायेंगे गुजरात की तरह 

आतंकियों, जहाँ भी तुम्हारा मिला वजूद 
वो बस्तियाँ मिटायेंगे गुजरात की तरह 

पहले तमाम काम एजेंडे के करेंगे 
पीछे विकास लायेंगे गुजरात की तरह 

इस बार जो खायेंगे शपथ संविधान की 
फिर घर नहीं जलायेंगे गुजरात की तरह 

'आनंद' तू तो अपना है बेकार में न डर 
हम गैर को सतायेंगे गुजरात की तरह 



दुनिया को नर्क बना रखा है देवों के देव महादेव ने

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  •   'रामायण' धारावाहिक के बाद इधर टी वी पर इस तरह के मिथकीय धारावाहिक कुकुरमुत्ते की तरह उग आये हैं. अंधविश्वास और पूरी तरह सामंती तथा कबीलाई मानसिकता से भरे इन धारावाहिकों ने समाज की मानसिकता को अपने तरीके से प्रभावित तो किया ही है साथ में वह संकटों से घिरी इस व्यवस्था के लिए भी बड़े मुफीद हैं. अप्रासंगिक हो गयी जादू-टोने की किताबों से किये 'शोध' के ये परिणाम समाज के भविष्य और वर्तमान दोनों के लिए घातक हैं. जाने माने लेखक और पेशे से चिकित्सक राम प्रकाश अनंतका यह आलेख इन चमकदार धारावाहिकों के इन्हीं प्रभावों पर केन्द्रित है.


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        २८ मार्च को राजस्थान के स्वामी माधोपुर जिले के गंगापुर सिटी के रहने वाले एक व्यक्ति ने अपनी पत्नी,भाई,पुत्र व पुत्री के साथ मिलकर ज़हर खाकर आत्महत्या कर ली। उसने मरने से पहले एक विडियो बनाया और उसमें बताया कि वे लोग क्यों आत्महत्या कर रहे हैं. पुलिस छानबीन से पता चला कि वह परिवार अति धार्मिक प्रवृत्ति  का था .धार्मिक आयोजनों में काफी हिस्सा लेता था, यहाँ तक कि टीवी पर भी धार्मिक सीरियल ही देखता था। वह महादेव सीरियल से बहुत प्रभावित था। बहुत से लोग ये तर्क दे सकते हैं कि महादेव सीरियल तो पूरा देश देखता है और किसी ने तो आत्महत्या नहीं की, अब वह परिवार मूर्ख था तो इसमें महादेव सीरियल का क्या दोष है।  
हम इक्कीसवीं सदी में जी रहे हैं और यह विज्ञान का युग है। विज्ञान ने आज चाँद सितारों तक की दूरियां तय कर ली हैं लेकिन विडम्बना है कि तमाम तरक्की के बाद भी आज समाज की सोच आदिम सामंती संस्कृति की सोच से ऊपर नहीं उठ पाई है। उसकी बड़ी वजह यह है कि शासक वर्ग ने समाज का ऐसा ताना वाना बुन रखा है कि वह अपने हित के लिए समाज की सोच को ऊपर नहीं उठने देना चाहता। यही वजह है कि तमाम वैज्ञानिक प्रगति के बाद भी समाज का पढ़ा लिखा तबका भी अपनी पुरातनपंथी सोच से बाहर नहीं आ पाया है। उसकी वजह यही है कि  शासक वर्ग के पास जनता की चेतना को कुंद करने के तमाम हथियार हैं। वह चाहता है कि जनता की समझ वहीं तक विकसित हो जहां तक उसके हित में है। यह बिला वजह नहीं है कि निर्मल बाबा(और ऐसे तमाम बाबाओं)के दरबार में जनता की काफी भीड़ जुटती है,पढ़े लिखे लोग उसके बेहूदे उपायों पर विश्वास करते हैं,टीवी चैनलों पर निर्मल बाबा के कार्यक्रम छाए रहते हैं।

विजुअल मीडिया का समाज पर गहरा प्रभाव पड़ता है। तमाम चैनल जिस तरह राशिफल,तंत्र-मन्त्र,बाबाओं और धार्मिक सीरियलों को परोसते हैं उसने जनता की सांस्कृतिक चेतना को मटियामेट कर दिया है और वह उसे फिर उसी आदिम युग में ले जाना चाहते हैं। ऐसे में किसी परिवार के पांच सदस्य ज़हर खाकर देवों के देव महादेव से मिलने चले जाते हैं या हज़ारों महिलाएं डाइन बता कर मार दी जाती हैं या तंत्रमन्त्र के चक्कर में लोग पड़ौसियों, जहां तक कि अपने ही बच्चों की बलि दे देते हैं तो इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं होनी चाहिए।  अन्धविश्वास से लेकर परम शक्ति यानी ईश्वर से सम्बंधित जो सीरियल टीवी पर दिखाए जाते हैं वे हमारी सांस्कृतिक चेतना को एक ही जगह ले जाते हैं परन्तु इनमें एक बहुत बड़ा अंतर है। हो सकता है एक धार्मिक व्यक्ति तंत्र मन्त्र को सही मानता हो और दूसरा ग़लत या एक धार्मिक निर्मल बाबा को ढोंगी मानता हो और आशाराम बापू का भक्त हो जबकि दूसरा आशा राम को ढोंगी मानता हो और निर्मल बाबा का भक्त हो लेकिन जो इस तरह के धार्मिक सीरियल हैं उनमें सभी धार्मिक  अंधी श्रद्धा रखते हैं। इस बात को एक उदाहरण से समझते हैं।
         
कुछ दिन पहले टीवी पर ऐसे बहुत से विज्ञापन आ रहे थे जो विशेष छूट के साथ तीन-साढ़े तीन हज़ार में लक्ष्मी यंत्र कुबेर की चाबी आदि देते थे जिसकी स्थापना के बाद खरीदने वाले का घर दौलत से भर जाएगा। बहुत से धार्मिक व्यक्ति इस पर विश्वास नहीं करते होंगे। लेकिन यही बात महादेव सीरियल में कुबेर वाले एपीसोड में दिखाया गया है जिस पर हिन्दू माइथोलोजी में विश्वास करने वाला हर व्यक्ति विश्वास करेगा।जहां तक कि उसके विश्वास करने या न करने का कोई सवाल ही नहीं उठता यह बात उसके अवचेतन में सीधे प्रवेश कर जाती है। कुबेर में अपने धन के प्रति लोभ पैदा हो जाता है। महादेव उसे फटकारते हैं कि लोगों में असंतोष बढ़ रहा है,दुनिया में जिनके पास धन है उनका दायित्व है कि वे अपना धन संसार आवश्यकताओं में लगाएं। दरअस्ल यहाँ महादेव पूंजीवाद के असमानता के अन्तर्विरोध को उसी उपदेशात्मक तरीके से हल कर देते हैं जैसे अब तक गली मोहल्ले के कथा वाचक हल करते आ रहे हैं। साथ ही वे निर्धनों को आश्वस्त करते हैं की वे अपने काम में लगे रहें उन्होंने कुबेर को डांट कर ठीक कर दिया है वह एक दिन आपके लिए भी अपना खजाना खोल देगा।
             
राजा- महाराजाओं के समय में लिखी गईँ ये  धार्मिक कथाएं शासक वर्ग के हितों के लिए वर्तमान समाज को पुराने सामंती मूल्यों की जकडबंदी में जकड़े रखना चाहती हैं।देवताओं का राजा इंद्र है।उसमें वे सारे गुण हैं जो उस समय राजा महाराजाओं में होते थे। धूर्तता,मक्कारी,अय्याशी और हमेशा अपने राज्य के लिए चिंतित। इससे यही पता चलता है कि जिस दौर में ये कथाएँ लिखी गईं उस दौर में इन्हें इसी तरह सोचा जा सकता था। लेकिन अफ़सोसजनक यह है कि इन कथाओं का धार्मिक जनमानस में काफ़ी प्रभाव है और शासक वर्ग जनता की मानसिकता को उन्हीं सामंती मूल्यों में जकड़े रखने के लिए इन कथाओं का इस्तेमाल कर रहा है। 
       
महादेव बार -बार यह बात दोहराते हैं कि कैलाश, उनका परिवार सिर्फ उनका परिवार नहीं है,वह संसार के लिए एक आदर्श है। सही भी है। महादेव यानी इस सृष्टि के ईश्वर को शादी और बच्चे पैदा कर परिवार बसाने की भला क्या ज़रुरत है। उन्होंने यह सब संसार के लिए आदर्श स्थापित करने के लिए किया होगा। तब कुछ महिलाएं व पुरुष विवाह नाम की संस्था को स्त्री के विरुद्ध बताते हैं वे भी सही ही बताते हैं। क्योंकि महादेव ने परिवार का जो आदर्श स्थापित किया था वही अभी तक चला आ रहा है और उसे बदलने की ज़रुरत है। इस पारिवारिक व्यवस्था में महादेव विवाहित पुरुष का आदर्श हैं और पार्वती विवाहित स्त्री का। महादेव एक दूसरे ईश्वर नारायण के साथ मिलकर संसार की फर्जी चिंताओं (ध्यान रहे ईश्वर दुनिया की वास्तविक चिंताओं से निरपेक्ष है) में व्यस्त रहते हैं और पार्वती के तीन काम हैं- स्वामी के मूड को दुरुस्त रखना,बच्चों के भरण पोषण के लिए लड्डू बनाना और उनकी सुरक्षा का ध्यान रखना। वे एक अच्छी गृहणी की तरह हमेशा चिंतित रहती हैं कि बच्चों की सुरक्षा के लिए एक भवन का निर्माण कर लिया जाए। वे बार -बार रट लगाए रहती हैं स्वामी बच्चों की सुरक्षा के लिए भवन का निर्माण कर लिया जाए। महादेव प्रकृति के निकट रहने का आदर्श स्थापित करते हैं कि इंसान को भवन की आवश्यकता ही नहीं है। आज जब करोड़ों लोगों के सर पर मकान नहीं है उनके लिए महादेव का यह आदर्श कितना सुन्दर है। कभी कभी महादेव यह कह कर कि पार्वती तुम आदि शक्ति हो यह सन्देश देते हैं कि दिव्य शक्तियों से संपन्न ईश्वर पुरुष रूप में ही नहीं स्त्री रूप में भी होता है। लेकिन पार्वती की शक्ति का संचालन महादेव के अधीन तो है ही वे अपनी शक्ति का उपयोग तभी करती हैं जब महादेव उसकी भूमिका बना देते हैं और उनके बच्चों पर कोई गहरा संकट आने को होता है। वे दुर्गा बन कर महिषासुर को मारती हैं क्योंकि वह उनके पुत्र कार्तिकेय पर हमला करता है।वे काली का रूप धरती हैं क्योंकि हुन्ड नाम का असुर उनके भावी दामाद नहुस को मारना चाहता है। वे एक अच्छी माँ की तरह बेहद चिंतित रहते हुए नहुस को  तत्काल विवाह योग्य बनाने की जिद पकड़ लेती हैं। महादेव के समझाने के बावजूद पार्वती का बार बार जिद पकड़ना समाज में प्रचलित कहावत तिरिया हठ और बाल हठ की ही पुष्टि करता है।  पार्वती की जिद पर महादेव अपने जादू से दस-बारह साल के दिखाई देने वाले नहुस को विवाह योग्य पूर्ण युवा बना देते हैं। स्त्री होते हुए भी पार्वती का नहुस को विवाह योग्य बनाने के लिए इतना चिंतित होना और महादेव का उसे विवाह योग्य बना देना सामंती युग में अधिक उम्र के पुरुषों द्वारा कम उम्र की नाबालिग लड़कियों से विवाह करने की प्रवृत्ति का ही प्रतीक है। कैसी विडम्बना है की देश में जब बहस छिड़ी हुई है कि लड़की की यौन स्वीकृति की उम्र सोलह साल हो या अठारह साल हो ऐसे समय में महादेव एक  कम उम्र के लडके को विवाह योग्य बना कर अपनी पुत्री जो विवाह योग्य नहीं है उससे शादी करने का आदर्श प्रस्तुत करते हैं। आधुनिक युग में भी लड़कियां अच्छे पति के लिए व्रत रखती हैं महादेव सीरियल इसकी सार्थकता की पुष्टि करता है। महादेव की पुत्री बाल्यावस्था में नहुस से विवाह करने के लिए तपस्या करने चली जाती है और लक्ष्मी की पांच बहनें अपने जीजा नारायण से विवाह करने के लिए घोर तपस्या करती हैं। जो कामकाजी महिलाएं यह शिकायत करती हैं कि उनके पति घर में सहयोग नहीं करते उन्हें समझना चाहिए की महादेव और पार्वती ने यही आदर्श प्रस्तुत किया है।
           
महादेव जैसे सीरियल समाज की चेतना का जिस तरह क्षरण करते हैं वह समाज की सोच को सदियों पीछे ले जाते हैं। धार्मिक संस्कार किस कदर व्यक्ति की चेतना में अन्दर तक घुस जाते हैं कि व्यक्ति चेतना के स्तर पर उनसे मुक्त भी हो जाए तब भी अवचेतन से ये संस्कार आदत के रूप में प्रदर्शित होते रहते हैं और व्यक्ति को उसका पता भी नहीं चलता। लोग डॉक्टर,इंजीनियर,वैज्ञानिक  बन जाते हैं फिर भी उनकी सोच इन्हीं संस्कारों की वजह से एक अनपढ़ अन्धविश्वासी व्यक्ति की सोच से ऊपर नहीं उठ पाती।उनकी इस सोच को बनाए रखने में रामायण,महाभारत,महादेव जैसे सीरियलों का बड़ा योगदान है।  

कम्यूनिस्ट घोषणा पत्र – सर्वहारा की ऐतिहासिक उपलब्धि

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मई दिवस के अवसर पर सभी साथियों का जनपक्ष की ओर से हार्दिक अभिनन्दन. यह दिन हम सर्वहाराओं की जीत और संकल्प का दिन है. वह दिन, जब हम एक बेहतर दुनिया के निर्माण की मुश्किल लड़ाई के लिए एक बार फिर संकल्पबद्ध होते हैं. आज इस अवसर पर जनपक्ष पर प्रस्तुत हैं सर्वहारा की मुक्ति के ऐतिहासिक दस्तावेज़ 'कम्युनिस्ट घोषणापत्र' पर एक टिप्पणी, जो दरअसल मेरी सद्य प्रकाश्य किताब , 'मार्क्स और उनकी दर्शन'  का हिस्सा है.

पूरा घोषणा पत्र यहाँ हिंदी मेंऔर यहाँ  अंग्रेज़ी में  पढ़ा जा सकता है.





“घोषणा पत्र” मार्क्स और की एक महान उपलब्धि थी जिसने उस समय के मजदूर आंदोलनों की मूल भावना को स्पष्टतः प्रकट किया. यह सारी दुनिया के सामने एक ऐसे राजनैतिक दृष्टिकोण का प्रमाण था जो अपने समय के भौतिक यथार्थ पर आधारित था तथा अक्सर सतह के नीचे दबे तनावों तथा अंतर्विरोधों की सटीक पहचान भी करता था. घोषणा पत्र की प्रसिद्ध आंरभिक पंक्ति में ही उन्होंने देख लिया था -  

“ यूरोप को एक भूत आतंकित कर रहा है... कम्यूनिज्म का भूत ! इस भूत को भगाने के लिए पोप और ज़ार, मेटरनिख और गीज़ो
, फ्रांसीसी उग्रवादी और जर्मन पुलिस के भेदिये...बूढ़े यूरोप के सारे सत्ताधारी एक हो गए है.”

यह कोई साधारण राजनीतिक पर्चा मात्र नहीं है, यह एक उत्कट घोषणापत्र तथा  एक नवीन दृष्टि है. इक्कीसवीं सदी के उन सभी प्रबुद्ध पाठकों के लिए जो पंक्तियों के बीच की इबारत को पढ़ना जानते है
, यह अविश्वसनीय रूप से सामयिक है. यह एक ऐसे विश्व की विवेचना करता है जिसे हम आज भी फौरन पहचान लेते हैं, जबकि जिस समय यह घोषणा पत्र लिखा  गया था, वह बस आकार ही ले रहा था. जिस औद्योगिक पूंजीवाद को मार्क्स  ने इतनी गहरी अंतर्दृष्टि से समझा और व्याख्यायित किया है, वह उस दौर में अपने क्रूर विकास की आरंभिक अवस्था में ही था. जब मार्क्स ओर एंगेल्स ने शोषण पर आधारित इस तंत्र तथा मुनाफ़ाखोरी की अंधी दौड़ से पैदा होने वाली अमानवीकरण की प्रवृत्ति पर से परदा हटाया था तो शायद उन्हें यह भान भी नहीं  था कि आने वाली पीढ़ियों के लिए उनके शब्द कितने सही साबित होगें.

“उत्पादन उपकरणों में
, लगातार  क्रांति लाये बिना बुर्जुआ वर्ग जीवित नहीं रह सकता इसके विपरीत सभी पुराने औद्योगिक वर्गों के अस्तित्व की पहली शर्त पुरानी उत्पादन विधियों को ज्यों का त्यों बनाए रखना थी. उत्पादन प्रक्रिया का निरंतर क्रांतिकरण, सभी सामाजिक अवस्थाओं में लगातार उथल पुथल, चिरंतन अनिश्चितता और हलचल - ये चीजें बुर्जुआ युग को पहले के सभी युगों से अलग करती हैं सभी स्थिर और जड़ीभूत संबंध अपने सहगामी, प्राचीन व पवित्र पूर्वाग्रहों तथा मतों सहित ध्वस्त हो जाते हैं, सभी नवनिर्मित संबंध जड़ीभूत होने के पहले ही पुराने पड़ जाते है जो कुछ भी ठोस है, वह हवा में उड़ जाता है, जो कुछ पावन है वह भ्रष्ट हो जाता है, और अंततः मनुष्य को संजीदा दृष्टि से  जीवन की वास्तविक अवस्थाओं तथा पारस्परिक संबंधों को देखने के लिए मजबूर होना पड़ता है.”

“...अपने उत्पादों के लिए निरंतर विस्तारमान बाजार की जरूरत बुर्जुआओं का दुनिया भर में पीछा करती है हर जगह घुसना, हर जगह पैर जमाना तथा हर जगह संपर्क कायम करना होता है.”

“कम्युनिस्ट अपने दृष्टिकोण और लक्ष्य छिपाने से घृणा करते हैं. वे खुले तौर पर एलान करते हैं कि उनका लक्ष्य सिर्फ समस्त मौजूदा सामाजिक दशाओं को बलपूर्वक उखाड़ फेंकने से ही हासिल हो सकता हैं. शासक वर्गों को कम्युनिस्ट क्रांति के भय से कांपने दो. सर्वहाराओं के पास अपनी बेड़ियों के सिवाय खोने के लिए कुछ नहीं है. जीतने के लिए उनके सामने सारी दुनिया है.”
            दुनिया के मजदूरों एक हो !
                                                                                                                                                                       
 इसे पढ़ते हुए पाठक के लिए यह विश्वास कर पाना बेहद मुश्किल होता है कि यह सब मध्यपूर्व में तेल के भंडार मिलने के साथ इस क्षेत्र के दुनिया के दूसरे छोर पर बसे देशों के हितों चलते युद्धक्षेत्र में परिवर्तित हो जाने या फिर कोक और नाइक जैसे बहुराष्ट्रीय उत्पादों के विश्व की हजारों विभिन्न सभ्यताओं को प्रभावित करने या उस परिदृश्य के भी पहले बहुत पहले लिखा गया था जहां बम्बई के शेयर बाजार के एक निर्णय से लाखों करोड़ों लोग प्रभावित हो जाते हैं. [1]
घोषणा पत्र में सटीक विवेचना और पूंजीवादी तंत्र की कार्यप्रणाली तथा प्रभावों का विशद विवरण ही प्रभावशाली नहीं हैं अपितु जिस उत्कट तरीके से उन्होंने इसे बेपरदा किया है, जिस दृढ़ता के साथ इसकी भर्त्सना की है वह भी अद्भुत है. आखिकार यह एक कम्युनिस्ट घोषणा पत्र है जो कि पूँजीवादी तंत्र की आक्रामक गतिकी की पहचान इसकी प्रशंसा के लिए नहीं, इसे दफनाने के लिए करता है प्रश्न यह है कि इसकी कब्र खोदेगा कौन ?

इसका उत्तर हमें घोषणा पत्र में थोड़ा आगे मिलता है. जैसे जैसे पुरानी व्यवस्था से पूंजीवाद विकसित होता है छोटी कार्यशालाएं औद्योगिक पुंजीपति के विशाल कारखाने में बदल जाती हैं. विकसित हो रहे नगरों को आपूर्ति करने वाले आधुनिक फार्मों के गहन उत्पादन तंत्र में किसान खेत मजदूर बन जाते है
, चिरंतन विकासमान राष्ट्रीय तथा अंतर्राष्ट्रीय वाणिज्यिक इकाईयों के चलते छोटे व्यापारी नष्ट हो जाते है, और बहुराष्ट्रीय निगमों के निर्माण  की प्रक्रिया आरंभ हो जाती हैं. शहरों में और उसके इर्द गिर्द  विकसित उद्योगों में काम करने को मजबूर कामगार एक नई क्रूरता के शिकार होते है.

“कारखाने में ठुंसे झुंड के झुंड मजदूरों को सैनिकों की तरह संगठित किया जाता है. औद्योगिक फौज के सिपाहियों की तरह वे बाकायदा एक दरजावार तरतीब में बंटे हुए अफसरों और जमादारों की कमान में रखे जाते हैं. वे सिर्फ बुर्जुआ वर्ग या बुर्जुआ राज्य के ही दास नहीं है बल्कि उन्हें घड़ी घड़ी, दिन ब दिन
, अधीक्षक और सर्वोपरि खुद बुर्जुआ कारखानेदार द्वारा भी दासता में ले लिया जाता है. यह निरंकुशता जितना ही अधिक प्रच्छन्न तौर पर मुनाफे को अपना लक्ष्य घोषित करती है, वह उतनी ही तुच्छ, घृणित और कटु होती जाती है.[2]                    

“प्रांरभ में जैसे जैसे हताशा बढ़ती जाती है पहले इक्के दुक्के मजदूर लड़ते हैं, फिर एक कारखाने के मजदूर मिलकर लड़ते हैं और फिर एक पेशे के, एक इलाके के सब मजदूर एक  साथ उस साझा दुश्मन -बुर्जुआ से मोर्चा लेते हैं
, जो उनका सीधे सीधे शोषण करते हैं. वे अपने हमले उत्पादन की बुर्जुआ अवस्थाओं के विरूद्ध नहीं बल्कि उत्पादन के उपकरणों के विरूद्ध लक्षित करते हैं. अपनी मेहनत के साथ होड़ करने वाले आयातित सामानों को नष्ट कर देते हैं, मशीनों को तोड़ देते है, फैक्ट्रियों में आग लगा देते हैं. वे मध्ययुग की खोई हुई हैसियत को बलपूर्वक प्राप्त करने कोशिश करते हैं.”[3]

लेकिन दरअसल विडंबना तो यह है कि मशीन नहीं इनका वास्तविक शत्रु तो वह प्रयोजन है जिसके लिए इनका प्रयोग होता है. यह विरोधाभास ही है जैसा कि मार्क्स  स्पष्टतः रेखांकित करते हैं, कि मनुष्य जितना अधिक उत्पादन करने में सफल होता है मनुष्य को श्रम की दासता से मुक्त कराने की संभावना उतनी ही मजबूत होती जाती है.लेकिन पूंजीवादी व्यवस्था में यह संभावना नष्ट कर दी जाती है. मानवता को मुक्त करने की जगह मशीन इसकी दासता में और अधिक अभिवृद्धि करती हैं. लेकिन इसके साथ ही एक और  प्रक्रिया होती है- सर्वहारा या श्रमिक वर्ग केवल शहरों की तरफ धकेला ही नहीं जाता बल्कि जैसे जैसे उत्पादन मुनाफे की होड़ में और परिष्कृत तथा यांत्रिक होता जाता है कालांतर में इसकी वजह से मजदूरों की सामूहिक शक्ति भी बढ़ती जाती है. जिससे उनके लिए संगठित होकर मशीनों के मालिकों से लोहा ले पाना संभव हो पाता है.

इस प्रकार मार्क्स की दृष्टि  में सर्वहारा ही समाजवादी क्रांति का प्रतिनिधि है. वह मजदूरों का किसी रूप में आदर्शीकरण नहीं करते. न तो वह उन्हों दुसरे संघर्षरत लोगों से मजबूत या बेहतर घोषित करते हैं और न ही उन्हें पूंजीवाद समाज में पैदा होने वाले अंतर्विरोधो से मुक्त समझते है. एक आम मजदूर व्यक्तिगत स्तर पर किसी भी दूसरे व्यक्ति की तरह ही स्वार्थी, पतित, पुरूष अहं की ग्रंथि का शिकार कुछ भी हो सकता है लेकिन इस नवीन पूँजीवादी समाज में एक वर्ग के रूप में वह ऐसी विशिष्ट स्थिति में होता है कि एक तरफ इसे बदलना उसके हित में होता है और दूसरी तरफ उसमें ऐसा करने की क्षमता भी होती है. सर्वहारा वर्ग के पास खोने के लिए कुछ नहीं होता और सामूहिक शक्ति ही उसका इकलौता हथियार होती है.

मार्क्स ने कम्युनिस्ट घोषणा पत्र का ज्यादातर हिस्सा ब्रुसेल्स  के ब्लू पैरट रेस्त्रां में लिखा था.
1848के फरवरी माह में यह छापाखाने में पहुंचा और जब यह छपकर आया तो फ्रांस से विद्रोहों की ख़बर आनी शुरू हो गई थी. वहां के अलोकप्रिय प्रधानमंत्री गीजो ने इस्तीफा दे दिया और अगले दिन राजा लुई फिलिप का भी पतन हो गया. कुछ ही हफ्तों में विद्रोह की लपटें बर्लिन तक पहुँच गईं और एक और सरकार गिर गई एंगेल्स ने उत्साहपूर्वक लिखा “ट्यूलेरिज और शाही महल की लपटें सर्वहारा के उदय की प्रतीक हैं...अब बुर्जुआ शासन हर जगह ध्वस्त हो जायेगा...हमें उम्मीद है कि जर्मनी में भी यही होगा.”फरवरी क्रांति के फलस्वरुप कम्युनिष्ट लीग की लंदन स्थित केन्द्रीय समिति ने समस्त अधिकार ब्रुसेल्स के उच्च मंडल को हस्तांरित कर दिये। पर जब यह फैसला ब्रुसेल्स पहुंचा तो वहां का प्रशासन यूरोप मे फैलते विद्रोह के मद्देनजर सावधान हो चुका था और घेराबंदी शुरु हो चुकी थी। जर्मन लोगों की बैठकों पर पूर्ण प्रतिबंध लगा दिया गया। अतः नई केन्द्रीय समिति ने अपने को भंग कर दिया और सारे  अधिकार मार्क्स को सौंप कर उन्हें फौरन पेरिस में एक नई केन्द्रीय समिति गठित करने का निर्देश दिया। यह निर्णय करने वाले पांच आदमियों ने (3मार्च 1848को) अपने अपने अलग रास्ते पकड़े ही थे कि पुलिस मार्क्स के घर में घुस आई और उन्हे गिरफ्तार कर अगले ही दिन फ्रांस जाने को, जहां वह खुद ही जाना चाह रहे थे, मजबूर कर दिया। पेरिस में कम्यूनिष्ट लीग का नया मुख्यालय घोषित किया गया। बाद में एंगेल्स भी वहां आ गए और दोनो जन वापिस जर्मनी लौटने की कोशिश मे जुट गये। लेकिन उन दिनो पेरिस मे निर्वासितों के  बीच क्रांतिकारी दस्ते  कायम करने की एक खब्त सी फैली हुई थी। स्पेनी, इतालवी, बेल्जियम, पोल और ज़र्मन सभी अपने देशों को आजाद कराने के लिये ग्रुपों में एकत्र हो रहे थे. हरवे,बोर्न्स्तेड और बर्नस्टीन के नेतृत्व में गठित जर्मन सैन्य दस्ते द्वारा इस काम को अंजाम देने की (जिसमें नई सरकार भी सहयोग की बात कर रही थी) योजना को क्रांति के साथ खिलवाड बताते हुये मार्क्स  ने इसका पुरजोर विरोध किया। उनके अनुसार जर्मनी की तात्कालिक उथन पुथल के मध्य आक्रमण संगठित करने यानी बाहर से संगठित क्रांति का बलपूर्वक आयात करने का अर्थ खुद जर्मनी की क्रांति की जडे काटना, सरकारों के हाथ मजबूत करना और इन सैनिकों को हाथ पैर बांध कर जर्मन फौज  के हवाले करना था।

अप्रैल में मार्क्स जर्मनी लौट आये और क्रांतिकारी आन्दोलन में राजनीतिक बहसों द्वारा सक्रिय हस्तक्षेप के उद्देश्य से एक दैनिक समाचार पत्र
नया राईन समाचारनिकालने की तैयारी करने लगे. चार साल पहले जब ‘राईन समाचार’ के पिछले संस्करण निकले थे तो इसे जर्मनी के हताश मध्यवर्ग का व्यापक समर्थन मिला था। लेकिन इस बार वे मार्क्स के दृष्टिकोण का समर्थन करने में उतनी रुचि नहीं दिखा रहे थे। मार्क्स का पूरा जोर पुरानी व्यवस्थाओं क विनाश के बाद उभरी नई विधानसभा जैसी व्यवस्थाओं के आलोचनात्मक विश्लेषण पर था. इन दिनों पूरे जर्मनी में मजदूरों के ग्रुप बनाए जा रहे थे, हालांकि उनकी मांग या तो पूरी तरह तात्कालिक आर्थिक लाभों पर केन्द्रित थीं या फिर विशुद्ध लोकतांत्रिक सुविधाओं पर. जून में अखबार का पहला अंक प्रकाशित हुआ तो मार्क्स और एंगेल्स ने इस कम्युनिष्ट ताकतों के संगठन के केन्द्रीय बिंदु के रुप में देखा।

कम्यूनिष्ट लीग का क्या हुआ
? मार्क्स और एंगेल्स दोनों ने महसूस किया कि यह इतनी  छोटी थी कि तत्कालीन परिस्थितियों में, जब हजारों लोग सडको पर आ रहे थे , आंदोलन पर कोई व्यापक प्रभाव छोडने में सफल नहीं हो पा रही थी। मूलभूत बात तीव्र परिवर्तनो और उफान के समय आंदोलन का हिस्सा बनकर उसको प्रभावित करना था न कि कम्युनिष्टों को इससे अलग या फिर इसके विरुद्ध खडा करना। मार्क्स की इस नवीन विश्वदृष्टि  के केन्द्र में यह विचार था कि चेतना में महान रुपांतरण अपने आप नही अपितु भौतिक परिवर्तनों के संदर्भ में ही आता है।नए विचार केवल उसी सीमा तक  स्वीकार तथा अंगीकार किए जायेंगे जितना वे आंदोलन के भीतर प्रतिबिंबित होगें. इस तर्क ने मार्क्स की एक दूसरे महत्वपूर्ण जर्मन समाजवादी गोथे से उग्र बहस को जन्म दिया। गोथे जर्मन मजदूरों में काफी लोकप्रिय थे लेकिन उनके विचार इस धारणा को मजबूत करते थे कि ‘मजदूरो को व्यापक क्रांतिकारी आंदोलनों  से  दूर रहना चाहिये.’

सच्चाई यह है कि उन दिनों जर्मन मजदूर आंदोलन अपने विकास की उस मंजिल पर था जहाँ वह जनतांत्रिक अधिकार प्राप्त करने की लडाई लड रहा था. इसके विपरीत इंग्लैड में चार्टिस्ट आंदोलन का प्रभाव अपने उच्चतम स्तर पर पहंच चुका था और मार्क्स एंगेल्स इसे निश्चित तौर पर यूरोपीय मजदूर आंदोलन के अग्रिम दस्ते के रुप मे देखते थे. साथ ही वे इस बात से भी अवगत थे कि ‘उदार’ तत्वों के साथ संघर्ष में साझा हिस्सेदारी का अर्थ कभी भी उनके हाथ में आन्दोलन का राजनैतिक नेतृत्व सौंप देना नही हो सकता।

‘नए राईन समाचार पत्र’ की पहली प्रतियां जब गलियों में आई तो यूरोप में एक बार फिर परिस्थितियां नए उच्चतर स्तर पर पहुँच रहीं थीं। फ्रांस में राजशाही को  अपदस्थ कर सत्ता में आई उदारवादी सरकार के जनतांत्रिक दावे खोखले साबित हो रहे थे. फरवरी क्रांति से प्राप्त अधिकार पर नव निर्वाचित राष्ट्रीय एसेंबली में प्रभावी दक्षिणपंथियों द्वारा कुठाराघात किया जा रहा था। ज़र्मनी में शहरी मजदूरों को न्यूनतम मजदूरी कीगांरटी देने वाली राष्ट्रीय कार्यशालाएं बंद कर दिये जाने से मजदूर एक  बार फिर निराश्रित हो गए। इसके विरोध में लोग पेरिस की सडकों पर उतर आए। इस बार वे बर्बर दमन का शिकार हुये। जब मार्क्स ने फ्रांस की कायर बुर्जुआजी की इस कारवाई का विरोध किया तो जर्मन प्रशासन ने इसे अपने खिलाफ भी समझा और उनके अखबार को समर्थन देना बंद कर दिया.

जुलाई में जर्मनी की अपेक्षाकृत उदार सरकार की जगह प्रतिक्रयावादी सरकार  ने ले ली. मार्क्स और उनका अखबार उसकी दमनकारी नीति के पहले शिकार हुये और अगले महीने इसके प्रंबधन में एकाधिक बार बाधा पहुंचाई गई लेकिन वियना से बर्लिन तक लोकतांत्रिक अधिकारों पर गहराते जा रहे खतरों के बीच मार्क्स और उनका अखबार पूरी आक्रमकता के साथ मजदूरों के अधिकारों का पुरजोर समर्थन करते रहे. उनकी रणनीति का सबसे प्रमुख उद्देश्य मजदूरों के बीच अपने वैचारिक दृष्टिकोण का प्रभाव बढाना था जिसे बाद में उन्होने क्रांति की सततता कहा. लेकिन साथ ही उन्होंने इस दौरान स्टीफन बोर्न की मजदूर बिरादरी की पंचमेल वैचारिक खिचड़ी पर आधारित उस कार्यनीति का भी सक्रिय विरोध किया जिसके तहत हड़तालों, ट्रेड यूनियनों,उत्पादकों की सहकारी समितियों का आयोजन किया गया और यह भुला दिया कि सर्वोपरि प्रश्न राजनैतिक जीतों द्वारा वह भूमि विजित करने का है जिस पर चीजें टिकाऊ आधार पर प्राप्त की जा सकती हैं। मार्क्स और एंगेल्स इस आंदोलन की कमजोरियों को अच्छी तरह पहचानते .थे इसलिये उन्होने 1848के उस समय को ‘क्रांतिकारी संयम’ का समय कहा।

वियना में आंदोलन का बर्बर दमन हुआ तो सडको पर आस्ट्रियाई  मजदूरों के समर्थन में विशाल जनांदोलन उमड़ पड़ा। अक्टूबर के अंत तक उसे भी  दबा दिया गया लेकिन बर्लिन तथा जर्मनी के दूसरे हिस्सों पर पूर्ण अधिकार करने में प्रतिक्रांतिकारियों को दो और महीने का समय लग गया और तब जाकर फ्रेडरिक चतुर्थ के हाथ में प्रशियाई सत्ता का पूर्ण अधिकार आ गया। इसके बाद के महीनों में मार्क्स और एंगेल्स ने खासतौर पर अपने समाचार पत्र के जरिये जनतांत्रिक ताकतों को एक मंच पर लाने मजदूरों और किसानों के बीच एकता कायम करने और सबसे महत्वपूर्ण तौर पर जर्मन आंदोलन को अंतराष्ट्रीय परिदृश्य के परिप्रेक्ष्य में समझने तथा व्याख्यायित करने का अथक परिश्रम किया।
जर्मनी के कई असफलताओं के बाबजूद यूरोप के दूसरे हिस्सों में जारी संघर्षों ने मार्क्स  के मन में क्रांतिकारी संभावनाओं के प्रति आशा की दीप जलाये रखा और अब भी प्रतिरोध कर रहे बेडेन तथा फैंकफर्ट की अस्थाई प्रतिनिधि सभाओं का समर्थन करने के लिये प्रोत्साहित किया।

लेकिन 13जून 1849को रुसी जार द्वारा हंगरी की क्रांति के कुचल दिये जाने के साथ 1848की क्रांति के महान युग का अंत हो गया। 16मई को मार्क्स को कोलोन से निष्कासित करने का आदेश थमा दिया गया और अगले ही दिन वह पेरिस के लिये रवाना हो गए। इस बीच एंगेल्स बेडेन के विद्रोहियों के साथ संघर्ष में शामिल हो गए. जर्मनी छोडने से पहले नए राईन समाचार पत्र के अंतिम अंक में, जो पूरा लाल स्याही में निकाला गया था, उन्होंने लिखा ...

“हमें अपना दुर्ग छोडना पड रहा है. लेकिन हम अपने हथियारों और साज-ओ- समान के साथ पीछे हट रहे हैं... युद्धक बैंडों और फहराते हुए झंडे के साथ...  हमारे अंतिम शब्द हमेशा और हर जगह बस एक ही होंगे.... ‘सर्वहारा वर्ग की मुक्ति’.”



[1]कम्युनिस्ट घोषणा पत्र, पेज 34, पीपीएच 1986
[2]वही, पेज 39
[3]वही, पेज 40

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आलेख:

हिन्दी सिनेमा: प्रतिरोध की संस्कृति हाषिए का समाज

-जितेन्द्र विसारिया
कला और विज्ञान का अद्भुत संगम और बीसवीं सदी के कुछ विशिष्ट अविष्कारों में से एक ‘सिनेमा’ ने अपने शैशवकाल से ही व्यक्ति और समाज को अपने सम्मोहन में बाँध रखा है और बाँधे हुए है। कहते हैं 1857 के विद्रोह के कुछ कारणों में से एक देश में अंग्रेजों द्वारा ‘रेलगाड़ी’ का लाना भी था, जो अपने आप में सभी जातियों और धर्मों के लोगों को बिठाकर एक मार्ग पर आगे बढ़ती है। इससे ब्राह्मणों का धर्म भ्रष्ट होता था और तथाकथित उच्च-जातियों के अहंकार को ठेस लगती कि इसमें अछूत और निम्न जातियों के लोग भी बगल में बैठकर यात्रा करते हैं/करेंगे। अर्थलोभी कंपनी सरकार सबको एक करना चाहती है।...पता नहीं भारत में सिनेमा के आगमन के साथ ऐसा हुआ या नहीं? क्योंकि रेल की तरह ही सिनेमा हाॅल का विकास भी अनचाहें ही भारत में लोकतांत्रिकता की ओर बढ़ा एक क़दम था, जो दलितों और अस्पृश्यों को टिकट खरीदवाकर उच्च जातियों के साथ बैठकर उस ‘भगवान’ के दर्शन का लाभ देता था, जिसके दर्शन मंदिर में असंभव थे और जिसकी शुरूआत दादा साहब फालके ने ‘हरिश्चन्द्र तरामती’(1913), ‘मोहिनी भस्मासुर’(1913), ‘लंका दहन’(1917), ‘कृष्ण जन्म’(1918), ‘कालिय मर्दन’(1919) जैसी धार्मिक फिल्मों के अविष्कार के साथ कर दी थी।
...इसका मूलभूत कारण भारत में रगंमच और अन्य प्रदर्शनकारी कलाओं में दलित-पिछड़ों का सर्वेसर्वा होना है और यही कारण है कि देश में दलितों की ही तरह संगीत, नृत्य और अभिनय कला को सदैव उपेक्षा की दृष्टि से देखा गया। इस उपेक्षा का शिकार भारत में नाट्य कला को जन्म देने वाले एवं ‘नाट्यशास्त्र’ शास्त्र के प्रणेता भरत मुनि और उनकी संतानें भी हुई। डाॅ. राम विलास शर्मा अपनी पुस्तक ‘भारतीय साहित्य की भूमिका’ में लिखते हैं-‘‘मनुस्मृति में हम गीत, वाद्य और नृत्य से आजीविका का निषेध देखते हैं तथा व्यवस्था पाते हैं कि सवर्णों को गीत, वाद्य और नृत्य से आजीविका का उपार्जन नहीं करना चाहिए। ‘मनुस्मृति’ सूत, मागधों और नटों को वर्णसंकरता का परिणाम बताती है...‘नाट्यशास्त्र’ ‘नटशाप’ अध्याय में बताया गया है कि ऋषियों के शाप से भरतमुनि के पुत्रों का वंश शूद्राचार, अशौच एवं स्त्री-बालोपजीवी हो गया...जिस समाज में नर्तकों, गायकों, अभिनेताओं को हीन स्थिति में रखा जाये, उसमें संगीतशास्त्र का विकास कैसे हो सकता है?1’’
फिर भला सिनेमा इस उपेक्षा से कैसे बच सकता था। दादा साहब फालके ने भले ही क्राइस्ट के जीवन पर बनी फिल्म से प्रेरणा लेकर भारतीय पुर्नजागरण के उस युग में चित्रपट पर कृष्ण का जीवन सजीव करने की कल्पना की किन्तु आर्थिक अभावों के चलते जब वे ‘हरिश्चन्द्र तारामती’ फिल्म बनाते हैं, तो उसमें रानी तारामती की भूमिका के लिए कोई स्त्री तो क्या तब के सवर्ण ज़मीदार और नबाबों की मुँहलगीं एवं कोठे पर मुजरा करने वाली किसी ‘तवायफ’ ने भी उसमें अभिनय करने से इन्कार कर दिया था। ...ऐसे में सिनेमा की बागडोर सम्हाली थी दलित, मुस्लिम और एंग्लो-इण्डियन परिवारों के स्त्री-पुरूष कलाकारों ने जिनके लिए रंगमंच और थियेटर की तरह सिनेमा भी हेय नहीं, सम्मान और आत्मगौरव की वस्तु थी। संभव है फिल्म ‘हरिश्चन्द्र तारामती’ में रानी तारामती की भूमिका करने वाले ‘ए. सालुंके’ भी दलित ही रहे हो? दादा साहब फाल्के ने इसकी भरपाई के लिए ‘हरिश्चन्द्र तारामती’ में जहाँ राजकुमार रोहिताश्व की बाल भूमिका में अपने बेटे ‘बालचन्द्र’ को लिया था तो दूसरी फिल्म ‘कालिया मर्दन’ में अपनी बेटी ‘मंदाकिनी’ को कृष्ण की भूमिका देकर पूरा किया था। 1917 में उनकी ‘मोहिनी भस्मासुर’ में मराठी नाटकों की अभिनेत्री ‘कमला बाई गोखले’ फिल्म अभिनय में आती हैं तो वह भी स्वेच्छा से नहीं, परिवार की विकट गरीबी के चलते।2 वैसे भी दलितों की तरह स्त्री, वह भले ही उच्च या निम्न परिवार से रही हो; समाज में उसकी स्थिति दलितों जैसी ही रही है। कालिदास और भवभूति के नाटकों में सीता और अन्य स्त्री पात्र संस्कृत नहीं प्राकृत में संवाद बोलते दिखाये गए हैं, क्योंकि शूद्रों की तरह स्त्रियों के लिए भी संस्कृत पढ़ना-लिखना और बोलना वर्जित था।
और यह आश्चर्य नहीं कि वर्णव्यवस्था का समर्थन करने वाले महात्मा गाँधी फिल्मों की जनप्रियता और लोकधर्मिता को संदेह की दृष्टि से देखते थे। जबकि बाबू सुभाष चन्द्र बोस और बाबा साहेब अंबेडकर उसके दूरगामी परिणामों के प्रति पूर्ण आश्वस्त थे। बाबू सुभाष ने जहाँ कुछ राष्ट्रीय फिल्मकारों को आजाद हिन्द सेना के जीवंत दृश्य सूट करने की अनुमति दी थी, वहीं बाबा साहेब ने अपनी पहली पत्नी रमाबाई के साथ ‘अंकल टाॅम’ और ‘अछूत कन्या’ फिल्म देखीं थी। निरंजन पाल निर्मित ‘अछूत कन्या’ चित्रपट उन्होंने भींगी आँखों से देखा था। वह चित्रपट अस्पृश्य जीवन की मानवता की पुकार था। वहीं ‘अंकल टाम’ हैरियट बीचर स्टो के कालजयी उपन्यास अंकल टाम केबिन (टाम काका की कुटिया) पर आधारित थी, जिसमें रंगभेद और गुलामी की अटूट श्रृंखलाओं में जकड़े और अमानवीय कष्ट पाते एक अमेरिकी अश्वेत ‘टाम’ की ह्नदय विदारक त्रासदी है। डाॅक्टर श्रीमती सविताबाई के साथ उन्होंने ‘आॅलिव्हर ट्विस्ट’ अंग्रेजी फिल्म देखी थी। निम्नवर्ग के निकृष्ट जगत का गरीबों या पद्दलितों की जिन्दगी देखते समय उनके ह्नदय का कंपन बढ़ जाता था।3  हम अपने महापुरुषों को अतिमानवीय और अति संयमी दिखाने के चक्कर में कभी-कभी उनके जीवन संस्मरण लिखते समय उनकी स्वभाविक मानवीय प्रवृŸिायों को दबा जाते हैं।... बाबा साहेब अंबेडकर ने सार्थक फिल्में देखी हीं नहीं बल्कि उनके मुहूर्त समारोहों में भी शामिल हुए थे। आचार्य प्र. के. अत्रे के ‘महात्मा फुले’ चित्रपट के मुहुर्त समारोह में 4 जनवरी, 1954 को ‘फेमस पिक्चर्स’ कलागृह में बाबा साहेब उपस्थित रहे थे। चित्रपट का मुहुर्त उनके हाथों सम्पन्न हुआ। चित्रपट आचार्य अत्रे को शुभेच्छा देकर बाबा साहेब ने कहा, ‘आजकल जो उठता है वह राजनीति और चित्रपट के पीछे लग जाता है। किन्तु समाज सेवा का भी अधिक महत्व है, क्योंकि उसमें शीलवर्धन होता है।’ आचार्य अत्रे बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे। उनका ‘श्यामची आई’ चित्रपट राष्ट्रपति स्वर्ण पदक से गौरवान्वित किया गया था।...महात्मा ज्योतिराव फुले के तेजस्वी और सत्य जीवन को दर्शाने वाली यह फिल्म देखकर बाबा साहेब आंबेडकर ने आचार्य अत्रे को उत्कृष्ट चित्रपट बनाने के लिए धन्यवाद था। अपने 20 जनवरी, 1955 के पत्र में आंबेडकर ने अभिप्राय व्यक्त किया है कि विषय-प्रस्तुति और दृश्य विधान की दृष्टि से वह चित्रपट उत्कृष्ट है।4
फिल्म ही नहीं नाटकों का भी बाबा साहेब पर गहरा प्रभाव था और कुछ नाटक मंडलियों भी उन्हें नाटक देखेने के लिए बुलाया करती थी। 15 मार्च 1936 को बंबई में चितरंजन नाटक मंडली ने बाँबे थियेटर’ में आंबेडकर का सत्कार किया। उस समय वह नाटक मंडली आप्पा साहब टिपणिस लिखित ‘दक्खन का दिया’ इस लोमहर्षक नाटक के प्रयोग करती थी। उस नाटक में पेशवाई के समय अस्पृश्यों के साथ कितनी अमानुष रीति से बर्ताव किया जाता था, उस संबंध में कुछ प्रसंग रेखांकित किए गए थे। पुणे के रास्ते से जाना-आना करना हो तो महार जाति के अस्पृश्यों को गले में मिट्टी का घड़ा और कमर में पेड़ की डाली लगानी पड़ती थी। आंबेडकर नाटक का प्रयोग देखने जाने वाले हैं, यह खबर फैलते ही वहाँ काफी भीड़ लग गई। नाट्यगृह में चींटी को भी प्रवेश करने के लिए जगह नहीं थी।...सत्कार के समय अनंत हरि गद्रे प्रमुख वक्ता थे। गद्रे अत्यंत आस्थापूर्वक अस्पृश्यता निवारण का कार्य करने वाले कार्यकर्ताओं में से एक अगाड़ी के वीर, महाराष्ट के सामाजिक समता के बड़े पुरस्कर्ता थे। अपने भाषण में गद्रे ने कहा कि, ‘अस्पृश्यों के साथ पेशवा कालीन महाराष्ट्र में इतने अपमानास्पद और अमानुष रीति से बर्ताव किया जाता था कि नाटक में अभिनय करने वाले नट भी उनकी भाँति गले में मिट्टी का बर्तन बाँधकर रंगमंच पर आने के लिए शरमाते हैं।5’’
यों देखा जाए तो ब्राह्मण श्रेष्ठता और वर्णव्यवस्था को हर परिस्थिति में अक्षुण्ण बनाये रखने (भले ही स्वयं या पत्नी-पुत्र को बीच बाजार में बेचना पड़ जाए।) का यशगान तो हिन्दी की पहली फिल्म ‘हरिश्चन्द्र तारामती’ से ही प्रारंभ हो जाता है। छद्मभेषी ब्राह्मण विश्वामित्र को दिए वचन पर अटल अयोध्या का राजा हरिश्चन्द्र अपने राज्य के अतिरिक्त साठ भार सोने से उऋण होने के लिए काशी के बाजार में स्वयं और अपनी पत्नी तारामती एवं पुत्र रोहिताश्व के साथ बिक जाता है। सत्य (वर्णधर्म) पर अटल यह परिवार संकट के समय में भी एक दूसरे की मदद (कथानक में रानी तारामती कृशकाय हुए हरिश्चन्द्र का घड़ा इसलिए सिर पर नहीं रखवाती, क्योंकि वह एक ब्राह्मण की क्रीतदास है और राजा काशी के कालू नामक चांडाल (दलित) का श्मशान रक्षक।) करने से भी इन्कार कर देते हैं। अपनी आत्मकथा ‘मेरे सत्य के प्रयोग’ में गाँधी जिस ‘सत्य हरिश्चन्द्र’ नाटक का अपने जीवन पर अमिट प्रभाव6 बताते हैं, वह गुजराती नाटक और इस फिल्म का कथानक एक ही है-संकट की विकट परिस्थितियों में भी अपने जाति और वर्णधर्म पर अटल बने रहना और दलित द्वेष...। इस प्रकार दलितदृष्टिकोण से देखा जाए तो हिन्दी सिनेमा की प्रारंभिक फिल्म ही हमें निराश करती है। उसमें प्रगतिशील तत्वों की अपेक्षा प्रतिगामी तत्वों का समावेश ही प्रमुख है। जातिवाद और वर्णवाद के विरूद्ध न जाकर यह सिनेमा, उसका खुला समर्थन करता है। सामाजिक यथार्थ की अपेक्षा पौराणिक फंतासियों का पुनुरुत्पादन...।
पहला उपद्रव ‘अछूत कन्या’ (1936), से हुआ यह एक वस्तुनिष्ठ, वैज्ञानिक और ईमानदार अभिव्यक्ति थी। यह उपद्रव किसी खास दर्शक समूह में नहीं हुआ, क्योंकि इस फिल्म का मकसद किसी को सताना या चिढ़ाना कतई नहीं था। आजादी का आंदोलन था। समाज, शुद्धिकरण की प्रक्रिया में था। मनुष्य को हमेशा दूसरा नागरिक बनाने बताने वाली मान्यताओं की सींवने उधड़ रही थीं।7 इससे पूर्व 1934 में सोलहवीं शताब्दी में हुए महाराष्ट्र के संत एक नाथ पर ‘धर्मात्मा’ और बंगाल के संत चंड़ीदास पर बनी ‘चंडीदास‘ फिल्म में भी अस्पृश्यता और जातिवाद पर गहरी चोट कर चुकी थीं। ‘चंडीदास’ सदियों से चली आ रही ब्राह्मण वर्ग की अतिरूढ़िवादिता एवं मनमानी की प्रवृत्ति का प्रतिवाद करती है। सोलहवीं शताब्दी में बंगाल के एक गाँव में स्थित जागृत देवी बांशुली के मंदिर में वैष्णव चंडीदास ठाकुर पुरोहित के रूप में प्रतिष्ठित थे। वे आंतरिक रूप सौन्दर्य के पुजारी तथा सत्य और प्रेम के उपासक थे। प्रेम ही उनका धर्म था और प्रेम ही सत्कर्म था। वे ईश्वर को पाने का एक मात्र मार्ग, प्रेम ही मानते थे। निम्नवर्ग की रानी धोबिन में उन्हें सत्त प्रेम की छवि दिखी। रौब-दाब वाला अत्याचारी, ईष्र्यालु और बदचलन जमींदार समाज को उनके खिलाफ भड़का देता है। तमाम सामाजिक प्रतिरोध के बावजूद आदर्शवादी विश्वप्रेमी परिवर्तनप्रिय संतकवि चंडीदास को वर्गभेद, सामाजिक बंधन, धर्मान्धता-इन सबको लांघकर रानी के साथ स्वतंत्र एवं सुखी जीवन बिताने के लिए प्रेम नगर की राह पर चलने से कोई नहीं रोक पाता।8...
चंडीदास एक ऐतिहासिक और समाज से मान्यता प्राप्त कथानक पर आधारित होने से, निर्देशक फिल्म में दलित रानी धोबिन और ठाकुर पुरोहित चंडीदास का मिलन करवा देता है! किन्तु उसी के दो वर्ष बाद तत्कालीन सामाजिक परिस्थितियों के बीच से चुनी और सत्यकथा के रूप में फिल्मायी गई ‘अछूत कन्या’ का निर्देशक साहस करके भी उसमें उच्च वर्णीय ब्राह्मण युवक प्रताप (अशोक कुमार) और एक अछूत रेलवे क्रासिंग गार्ड की लड़की कस्तूरी (देविका रानी) का मिलन नहीं करवा पाता!! फिल्म के अंत में नायिका रेल दुर्घटना में हृदय विदारक मृत्यु को प्राप्त होती है!!! प्रमोद भारद्वाज के शब्दों में कहूँ तो, ‘दोनों में ही जाति का अस्वीकार था। जाति के परे प्रेम था, पर अछूत कन्या में अछूत नायिका को छोड़ने की दुर्बलता उस समय की भीषणतम सच्चाई थी।9 प्रहलाद अग्रवाल लिखते हंै कि ‘अछूत कन्या’ में छुआछूत के अमानवीय कृत्य को बड़ी तीव्रता से उकेर कर उसकी भत्र्सना की गई थी। यह उस समय आसान बात नहीं थीं यह बीसवीं सदी का पूर्वाद्ध था और राष्ट्र इस समस्या से गहराई तक ग्रस्त था।10
इन दो परिवर्तनकामी फिल्मों के बाद 1940 में सरदार चंदूलाल शाह निर्देशित और मोतीलाल गोहर मामाजीवाला द्वारा अभिनीत फिल्म ‘अछूत’ प्रदर्शित होती है। यह फिल्म ‘अछूत कन्या’ का थोड़ा सा परिष्कार है। इसमें भी उच्च जाति का लड़का और निम्न जाति की लड़की का प्रेम, संघर्ष और सामाजिक रूढ़ियों के चलते अंत में नायक-नायिका द्वारा अपने प्राणों का बलिदान है। बदलाव सिर्फ इतना कि फिल्म के अंत में नायक-नायिका अपने प्राणों का अंत गाँव के मंदिर में सबको प्रवेश दिलाने में करते हैं। यद्धपि फिल्म गाँधीजी के हरिजनोद्धार और मंदिर प्रवेश की पृष्ठभूमि पर निर्मित है, किन्तु उससे आगे जाकर वह यह भी संदेश देती है कि अछूतोद्धार सिर्फ दिखावे से नहीं होगा, अपितु सबको व्यवहार में समान समझना होगा और बराबर अवसर पाने के मौके देने होंगे। फिल्म में दलित लड़की लक्ष्मी एक सवर्ण पूंजीपति द्वारा गोद ली जाती है और उसे अपनी पुत्री के समान रखा जाता है, किन्तु जब दोनों लड़कियाँ एक ही व्यक्ति के प्रेम में पड़ती हैं तब पक्ष अपनी बेटी का लिया जाता है, लक्ष्मी का नहीं...! यह फिल्म इसलिए भी स्मरणीय कही जा सकती है कि इसमें सर्वप्रथम दलितों का धर्मान्तरण (फिल्म में नायिका लक्ष्मी का पिता सवर्णीय अत्याचारों से तंग आकर ईसाई धर्म ग्रहण करता है।) सवर्णों के अन्याय और अत्याचार से प्रेरित होकर दिखाया गया है न कि किसी प्रलोभवश। आश्चर्य होता है कि जो बात फिल्म ‘अछूत’ का निर्देशक 1940 में समझ गया था, हिन्दुत्व के झंडावरदार उसे आज भी मानने को तैयार नहीं है।... इस फिल्म की प्रशंशा सरदार पटेल और महात्मा गाँधी ने भी थी।
इसी समय ऐसी तमाम फिल्में आयीं, जिन्होंने धर्म, जाति, वंश और मिथकीय परंपराओं और महाजनी सभ्यता के संकीर्ण अनुशासन के खूब लŸो लिए। जैसे-महाजनी प्रथा (सावकारी पाश-1925), मूर्तिपूजा और ब्राह्मणवाद (संत तुकाराम-1936, संत दानेश्वर-1940, संतसाखू-1941), नरबलि (अमृत मंथन 1934), छुआछूत (धर्मात्मा-1934) बेमेल विवाह (दुनिया न माने-1937) विधवा विवाह (अनाथ आश्रम-1937, सिन्दूर-1947), वेश्यावृŸिाः (ठोकर-1939) दहेजप्रथा (दहेज-1950) नशा (ब्रांडी की बोतल 1939) इत्यादि विषय प्रधान फिल्मों के अलावा चालीस से पचास के दशक में दलित विमर्श से संबंधित फिल्मों का अभाव है। किन्तु दलित सर्वहारा की दृष्टि से इस दशक में ‘नया संसार’(1942), ‘रोटी’, ‘गरीब’ (1942), नीचा नगर (1946), ‘गोपीनाथ’ (1948), आदि विषयों ने परदे पर आकर काफी विक्षोम पैदा किया, पर यह हमारे समाज का अन्र्तयुद्ध था। हम एक नए समाज के क्षितिज की तरफ प्रस्थान कर रहे थे, इसलिए हमारी परंपराओं, हमारी धूर्तताओं और जड़ताओं से यह टकराव स्वभाविक थे। यह सनसनी फैलाने या बिखेरने का संघर्ष था, पर आजादी के बाद सिने माध्यम, बजाय समाज को नया और सार्थक शिल्प देने के, समाज में हड़बड़ी, अफरातफरी फैलाने वाले तत्वों का जमाव बनकर रह गया। कुंठाएँ, संत्रास, बैचेनियाँ, अतृप्ताएँ, निर्लक्ष्य कामनाएँ, अबूझ भविष्य और रहस्यमय जीवन शैलियाँ एकाएक उभरती रहीं।10
इन कारणों की गहराई में जाएँ तो हम पाते हैं कि तमाम मतभेदों के बावजूद  स्वतंत्रता के पूर्व आजादी को लेकर देश के नेताओं और जनता में एक सामूहिक स्वप्न था। स्वतंत्रता और स्वराज पाने की कामना हर एक वर्ग में थी। यद्धपि वर्चस्व की लड़ाई के बीज तब भी मौजूद थे और कोई किसी के प्रति पूर्णरूपेण विश्वस्त नहीं था; किन्तु एक सामूहिक आवेश था कि जो होगा वह देखा जाएगा, पहले हम गोरों की गुलामी से आजाद हो लें। किन्तु हम देखते हैं कि देश स्वतंत्र नहीं हो पाता और राष्ट्र को बँटवारे की गहरी त्रासदी झेलनी पड़ती है। सांप्रदायिक दंगे होते हैं और देश दो हिस्सों में विभाजित हो जाता है। सहानुभूति के आधार पर ही सही, समाज में सामूहिक परिवर्तन की इच्छा रखने वाले गांधी की हत्या होती है और संघर्ष से समानता की ओर अग्रसर होने वाले आंबेडकर को कानून मंत्री के पद से इस्तीफा देना पड़ता है। मुसलमान पाकिस्तान चले जाते हैं और दलित बौद्ध बनते हैं...।
आजादी के इस सामूहिक स्वप्नभंग की अवस्था 1950 से 1970 के बीस वर्षों की फिल्मों पर दृष्टिपात करते हैं तो इनमें दलित सर्वहारा की दृष्टि से कुछ ही फिल्में उल्लेखनीय हैं। ‘आवारा’ (1951) यद्धपि यह दलित विमर्श की फिल्म नहीं है किन्तु वह अपने साथ जो संदेश लिए थी कि व्यक्ति जन्मजात अपराधी नहीं होता, अपराधी उसे उसका परिवेश बनाता है फिर भले ही वह व्यक्ति किसी वंश, जाति, या गोत्र का रहा हो। उच्चकुल में जन्मा किन्तु एक अपराधी के यहाँ पलकर अपराधी बना उपेक्षित युवक ‘राज’ (राजकपूर) द्वारा ‘अवारा हूँ’ गीत के रूप में जब महान दलित गीतकार शैलेन्द्र की यह पंक्तियाँ:
  घरवार नहीं संसार नहीं  मुझसे किसी  को प्यार नहीं,
     दुनिया  में  तेरे  तीर  का  या  तकदीर का मारा हूँ।

दोहराता है, तो ऐसा लगता है कि गीत में स्वयं शैलेन्द्र ने सदियों से समाज के उपेक्षित अपनी धन-धरती से वंचित दुनिया (पूँजीवाद) और तकदीर (भाग्यवाद) दोनों की मार सहते आए दलित सर्वहारा जीवन की पीड़ा ही व्यक्त की हो...। ‘राही’(1952) काॅमरेड ख्वाजा अहमद अब्बास की आसाम के चाय बागानों में काम करने वाले श्रमिकों के शोषण को रूपायित करने वाली फिल्म है, जो मुल्कराज आनंद के उपन्यास ष्ज्ूव स्मंअमे ंदक ठनकष् पर आधारित है। ‘दो बीघा ज़मीन’(1953) हिन्दी सिनेमा के मील का पत्थर है। हिन्दी में प्रेमचन्द के अमर उपन्यास ‘रंगभूमि’ के बाद भूमि अधिग्रहण को लेकर यदि कोई महान रचना है तो वह ‘दो बीघा ज़मीन’ हो सकती है। यह एक ऐसे सीमांत किसान शंभू महतो (बलराज साहनी) और उसकी पत्नी पार्वती (निरुपाराय) की मर्मस्पर्शी दुखांत कथा है, जिसमें गाँव का जमींदार और शहर की पूँजीवादी ताकतें उसकी दो बीघा ज़मीन अधिग्रहीत कर उस स्थान पर एक मिल का निर्माण करती हैं। ऋण में गले तक डूबा बेचारा शंभू अपने अथक प्रयासों के बावजूद भी अपनी वह दो बीघा ज़मीन नहीं बचा पाता। फिल्म के अंत में बलराज साहनी के बूढ़े पिता की भूमिका में नाना पलसीकर तो एक प्रतीक बनकर खड़े हो जाते हैं उस किसान का, जिसके नसीब में उसकी ज़मीन की एक मुट्ठी धूल भी नहीं है जिसे वह माथे से लगा सके। इस फिल्म के बारे में तब मैनचेस्टर गार्जियन ने लिखा था, ‘भारत किसी अन्य प्रकार से न सही, लेकिन राजनैतिक दृष्टि से एक नव स्वतंत्र देश है। इस राष्ट्र का एक फिल्मकार अपने देश के अर्थिक विकास को इस क्रूर निराश नज़र से देखता है।11
‘बूट पाॅलिस’(1954) राजकपूर की सर्वहारा (आवारा) से दलित विमर्श की ओर बढ़ा दूसरा कदम था। यह फिल्म भी संदेश प्रधान है कि कोई काम छोटा-बड़ा नहीं होता। भीख माँगने और चोरी करने से अच्छा है मेहनत-मजदूरी (बूट पाॅलिस) करके जीवन यापन करना। इस फिल्म के माध्यम से राजकपूर दलितों में आत्मसम्मान की भावना जाग्रत करते प्रतीत होते हैं। भीख न माँगने की बिना पर ‘शर्मा अनाथ आश्रम’ में भर्ती हुए बालक (रतन कुमार) को चंदे के नाम पर आश्रम के संचालक (जो निश्चय ही ब्रह्मण है) की अगुवायी में अन्य अनाथ बच्चों के साथ जब घर-घर, गली-गली भीख माँगनी पड़ती है, तो भीख में मिले मोतियों को ठुकराने के आदर्श पर जीने वाला वह बालक वहाँ से भागकर पुनः अपने काम (बूट पाॅलिस) में लौट आता है। फिल्म ‘बूट पाॅलिश’ के इस दृश्य मे निश्चय ही कवि शैलेन्द्र की संगत में रहे निर्देशक राजकपूर, परजीवी एवं भिक्षाजीवी ब्राह्मणवाद के चुँगल से श्रमजीवी दलितों को दूर रहेने का महान संदेश, सायास और स्पष्ट रूप से देते प्रतीत होते हैं।  
 जिया सरहदी की ‘हमलोग’(1951), ‘फुटपाथ’(1954) और ‘आवाज’(1956) उनके वामपंथी रुझान और गंभीर सामाजिक सरोकारों से जुड़ी और जनसंघर्षों को विभिन्न कोणों से देखने परखने वाली फिल्में थीं। वहीं राजकपूर की ‘श्री 420’(1955) ‘विद्या’ (ज्ञान) और ‘माया’ (पूँजी) जैसे प्रतीक लेकर रची गई एक सामान्य फिल्म है, किन्तु अपने पीछे वह यह जो संदेश छोड़ती हैै कि हजारों आदमियों को भूखा रखकर एक गुलछर्रे उड़ाता है। दूसरों के खून-पसीने पर चमकदार जिंदगियाँ इतराती हैं। पर सच्चाई और ईमानदारी से कमाई गई सूखी रोटी जितनी शांति और मुहब्बत दे सकती है उतनी बेईमानी से कमाई गई करोड़ों की दौलत नहीं।’ वह अवश्य ही पूँजी और पूँजीवाद के विरुद्ध एक बड़ा किन्तु रोमानी संदेश है। गोगोल की कथा ‘द ओवर कोट’ पर आधारित और राजेन्द्र सिंह बेदी की निर्मित और अमर कुमार निर्देशित फिल्म ‘गरम कोट’(1955), भी एक सशक्त फिल्म थी जिसमें एक निम्नमध्यम वर्गीय परिवार में सौ के नोट के गुमने को प्रतीक बनाकर आर्थिक संकट की विभीषिका को व्यंग्यरू मिश्रित ढंग से बयान किया गया था। वहीं ‘सीमा’(1955) परिवार और समाज द्वारा प्रताड़ित लड़की की कथा है जिसके जीवन का कलुष एक आर्दशवादी व्यक्ति द्वारा चलाए जा रहे अनाथालय में जाकर घुलता है। यह एक गंभीर यथार्थवादी सामाजिक फिल्म है।
‘भारतीय कृषक ऋण में जन्म लेता है, ऋण में ही पलता है और अपनी मृत्यु के बाद अपने बाल-बच्चों को विरासत में ऋण दे जाता है।’ भारतीय कृषक जीवन का दृश्य महाकाव्य कही जाने वाली ‘महबूब खान’ की कालजयी फिल्म ‘मदर इण्डिया’(1957) इस वाक्य को पूर्ण रूपेण चरितार्थ करती है। फिल्म के केन्द्र में मूलतः साहूकारी प्रथा और उससे उपजे कृषक जीवन के संत्रास हैं, जिसकी कहानी गाँव की ‘राधा’ (नर्गिस) नामक स्त्री के आसपास बुनी गयी है, जिसका पति अपाहिज होकर सदा-सदा के लिए घर छोड़ गया है और एक बेटा ‘बिरजू’ (सुनील दत्त) गाँव के साहूकार सुख्खी लाला (कन्हैयालाल) के शोषण-उत्पीड़न के चलते डाकू बन जाता है। एक दिन जब सुक्खी लाला की लड़की का ब्याह हो रहा होता है, उस दिन बिरजू अपने अन्य साथियों के साथ गाँव पर हमला बोल देता है और लूटपाट एवं मारपीट के बाद बिरजू लाला की लड़की का अपहरण करके ले जा रहा होता है। आदर्शवादी ‘राधा’ अपने बेटे बिरजू को ही गोली मार देती है।... जिस तरह अपनी तमाम अच्छाइयों के उपरांत भी ‘गोदान’ का नायक ‘होरी’ दलित नहीं है, उसी प्रकार ग्रामीण भारत में व्याप्त शोषण के तमाम अनछुए पहलुओं को उजागर करने वाली फिल्म ‘मदर इण्डिया’ की नायिका ‘राधा’ भी दलित नहीं है। वह गरीब और विधवा होकर भी गाँव में ‘राधा चाची’ के रूप में सम्मान पाती है। सुख्खी लाला भी उससे जोर-जबरदस्ती नहीं कर सकता। यदि दलित होतीं तो ‘राधा’ से रधिया होकर, सुख्खीलाला द्वारा कब की रखैल बना ली जाती...। फिल्म में राधा के गैर दलित होने का प्रमाण, पुरोहित द्वारा उसके विवाह में वैदिक मंत्रोच्चार भी है, जो एक दलित के विवाह में असंभव है।
इसी तरह ‘नयादौर’(1957) पूँजीवाद और मशीनीकरण के विरुद्ध सामूहिक श्रम तथा स्वाबलंबन की महŸाा को दर्शाती है। फिल्म में ग्रामीण अपनी मेहनत के बल पर सड़क तथा पुल का निर्माण करते हैं। यह हमारे लिए प्रेरण दायक है, क्योंकि आज छोटे-बड़े हर काम को सरकार के भरोसे छोड़ दिया गया है। हम कष्ट सहते रहते हैं, असुविधा का समाना करते हैं, लेकिन उससे निजात पाने का प्रयास नहीं करते।...‘रील लाइफ’ में नयादौर से तथा ‘रियल लाईफ’ में हमें दसरथ मांझी से प्रेरणा मिलती रहेगी। ‘मिलन’(1957) यों तो पुनर्जन्म की फंतासी पर आधारित है, किन्तु उसके यथार्थवादी चित्रण के चलते उसे, एक सामाजिक फिल्म की श्रेणी में भी रखा जा सकता है। एक ज़मीदार की युवती राधा (नूतन) और गरीब मल्लाह युवक (सुनीलदत्त) के प्रेम में किस प्रकार उनकी जाति और सामाजिक स्थिति बाधक बनती है कि जिसे सेहरा बाँधकर दूल्हे के रूप में आना चाहिए, वही मीराँसियों भांति उसके सामने खड़ा मुबारक गीत गाने को विवश है।... राधा के विधवा होने पर भी गोपी उसका जीवन साथी नहीं बन पाता। आपसी लगाव से मिली बदनामी और सामाजिक घेराव के चलते अंत में उन्हें नदी में डूबकर जल समाधी लेनी पड़ती है। पति-पत्नी के रूप में उनका मिलन दूसरे जन्म में ही हो पाता है। हिन्दी सिनेमा में संभवतः यह पहली फिल्म है जो सवर्ण युवक और दलित युवती के प्रेम की दुखांत कथा के बँधे-बँधाए ढर्रे को तोड़कर, फिल्मी पर्दे पर पहली बार निम्न जाति के लड़के और उच्चवर्ग की लड़की के प्रेम को इतने भव्य स्तर पर दिखाती है। प्रेम के पक्ष में पुनर्जन्म के मिथ को एक क्रांतिकारी मोड़ देती है, कि प्रेम जाति और ज़मीदारी से बढ़कर है और दो प्रेमी-प्रेमिका अंततः मिलकर ही रहते हैं।  
  ‘अर्पण’(1957) हिन्दी सिनेमा की उन ऐतिहासिक दुर्लभ फिल्मों में से एक है, जिसका आधार दलित जीवन बना। गौतम बुद्ध के शिष्य आनंद (चेतन आनंद) और इतिहास प्रसिद्ध भिक्षुणी चांडालिका (प्रिया राजवंश) के प्रेम के इर्द-गिर्द बुनी गई प्रेमकथा है, जिसमें अपनी माँ के तंत्र-मंत्र और जादू के बल पर दलित युवति चांडालिका आनंद को वश में कर लेती है। बंधन में पड़कर आनंद अपना स्वाभाविक स्वरूप खो देते हैं। चांडालिका आनंद की दयनीय और विरूप स्थिति देखकर स्तब्ध रह जाती है। वह वासना भाव से ऊपर उठकर आनंद को मुक्त कर देती है और स्वयं भी अपना सारा जीवन बुद्ध के चरणों में जाकर अर्पण करती है।
‘सुजाता’(1959) विमलराय की यह बहुचर्चित फिल्म, दलित विमर्श पर बनी पूर्व की दो फिल्में ‘अछूत कन्या’ और ‘अछूत’ का परिष्कृत रूप है और कुछ नहीं। यहाँ भी अछूत कन्या की तरह दलित युवती (नूतन) और ब्राह्मण युवक (सुनील दŸा) है। ‘अछूत’ की तरह इसमें भी एक पिता ब्राह्मण इंजीनियर उपेन्द्रनाथ चैधरी (तरूण बोस) की दो पुत्रियाँ रमा (शशिकला) और सुजाता (नूतन) हैं, जिनमें फर्क बस इतना कि फिल्म ‘अछूत’ की लक्ष्मी दŸाक है और सुजाता अछूत कुली की लड़की जिसका पिता प्लेग की बीमारी के चलते अब इस दुनिया में नहीं है और चैधरी परिवार उसका पालन-पोषण सहर्ष नहीं दयावश किया करता है। फिल्म ‘अछूत’ में अपनी पुत्री और दलित पुत्री के बीच भेद पिता के सिर पर है, तो सुजाता में माँ पर। फिल्म में सुजाता की धर्म माँ चारू (सुलोचना) सबके बीच सुजाता को अपनी ‘बेटी’ नहीं, बेटी जैसा मानती है। यह खाई तब और चैंड़ी हो जाती है, जब एक ब्राह्मण युवक अधीर (सुनीलदŸा) रमा को देखने आता है किन्तु अपने परिवार की इच्छा के विरुद्ध सादगी पसंद सुजाता से विवाह का निश्चय करता है। सारा दोष सुजाता के सिर आता है। चारू के साथ-साथ सारे परिवार को दुःखी देखकर सुजाता आत्महत्या का मन बनाती है, किन्तु नदी के घाट पर खुदे महात्मा गाँधी के वाक्य ‘मरें तो कैसे? आत्महत्या करके? कभी नहीं। अगर आवश्यकता हो तो जिंदा रहने के लिए मरें।’’  पढ़कर उसका मन बदल जाता। पढ़कर उसका मन बदल जाता।... इसी बीच चारू सीढ़ियों से गिरकर अस्पताल पहुँच जाती है। उसे रक्त की गहन आवश्यकता है। परिवार में किसी का ब्लडग्रुप उससे मैच नहीं खाता। मैच खाता है तो सुजाता का और सुजाता अपनी धर्म माँ को रक्तदान करती है। सुजाता का रक्त पाकर रमा का हृदय परिर्वतन हो जाता है और वे सुजाता को केवल माफ कर देती हैं वरन अधीर से उसकी शादी भी करवाती हैं। कथानक की दृष्टि से सामान्य फिल्म ‘सुजाता’ की महानता सुजाता के रूप में नूतनजी का अभिनय है, जिन्होंने दलित होने की हीनग्रंथि से पीड़ित युवति के चरित्र को कुछ इस विश्वसनीयता से जिया है कि वह हिन्दी सिनेमा की अमर कृति बन जाती है। तब परिवार की सहमति से अन्तर्जातिय विवाह होना भी इस फिल्म का एक प्लस प्वाइन्ट कहा जा सकता है।
‘परख’(1960) विमल राय निर्देशित और शैलेन्द्र के संवादों से सजी यह फिल्म, चुनाव माध्यम से लोकतंत्र में गलत व्यक्तियों के चुनकर पहुँने पर निशाना साधती है। इसी के साथ इस फिल्म में गाँव के दलित डाकिया हराधन (मोतीलाल) के माध्यम से निर्देशक ने अस्यपृश्यता और जातिवाद पर भी गहरे व्यंग्य किए हैं। ‘गंगा जमना(1960) दिलीप कुमार के फिल्म मदर इण्डिया में न होने की टीस का परिणाम है थी इसमें भी ज़मीदार के अत्याचार और एक सामान्य किसान गंगा के बागी होने की दुखांत गाथा है, किन्तु इसमें दलित युवति धन्नो (बैजंयती माला) और गैर ब्राह्मण युवक जमुना (दिलीप कुमार) की मार्मिक प्रेमगाथ भी शामिल है। फिल्म में जमना और धन्नो के विवाह के पूर्व हाथ में जनेऊ लेकर पुरोहित जमना से यह कहता है कि यह विवाह इसलिए नहीं हो सकता कि तेरी जात धन्नो की जात से ऊँची है, उस समय गंगा का पुरोहित को भगवान के महामंत्री संबोधित करते हुए प्रतिउत्तर में यह कहना कि, ‘‘जब ऊँची जात वाले ऊकी गत बना रहे थे, तब तुम कहाँ गए थे? जब हमरी कुत्ते जैसी दशा हुय रही थी, जब हम भूखे पेट जंगल में मारे-मारे फिर रहे थे। चल-चल के हमरे पैरों में छाले पड़ गए थे, उत्ते समय हमरे सर पे हाथ रखे कोई नहीं आया। ई आई थी और तुमरे सामने खड़ी है। उस दिन हम येके काँधे पे सर रख के रोये थे...।’’ इस रूप में यह फिल्म ब्राह्मणवाद और जातिवाद के विरुद्ध जाते हुए, सामंतवाद के खिलाफ लड़ाई का हथियार भी बनती है।
‘फूल और पत्थर’ (1966) ओ.पी. रल्हन निर्देशित और धर्मेन्द्र और मीनाकुमारी अभिनीत इस फिल्म में धर्मेन्द्र ने एक अपराधी दलित की भूमिका निभाई थी, जिसे उच्च जाति की विधवा युवती (मीना कुमारी) से प्रेम हो जाता है। अब यह फिल्मकारों की सोच की बिडंबना ही कही जा सकती है कि एक ओर बाबा साहेब आम्बेडकर राष्ट्रीय स्तर पर डाॅ. शारदा कबीर से आपसी सहमति के आधार पर विवाह कर चुके थे और हिन्दी सिनेेमा का फिल्मकार अभी भी डरता हुआ दलित युवक और सवर्ण विधवाओं के प्रेम प्रसंग ही दर्शाने का साहस जुटा पाया था। सगीना महतो (1970) तपन सिन्हा की यह फिल्म इस दशक अन्तिम महत्वपूर्ण फिल्म है। इस फिल्म में ब्रिटिस राज के दौरान उत्तर भारत के पूर्वी क्षेत्र के एक चाय बागान के श्रमिक नेता की कहानी है। सगीना महतो ब्रिटिस मालिकों के अत्याचार का सामना करते हुए मजदूरों के अधिकार के लिए लड़ता हैं। वहीं एक युवा कम्युनिस्ट अमल है जो गरीब और पिछड़े वर्ग की जनता की सहायता करने के लिए आता है। सामाजिक पदानुक्रम में उच्च और एक बहारी नेता के आने पर निम्नवर्गीय ‘सगीना’ अलग-थलग पड़ जाता है। इस फिल्म से पहली बार कट्र मानवतावादी दृष्टिकोण रखने वाले संगठनों के बीच में भी अंदहनंतकपेउ (सेनामुख/आगे रहने की प्रवृत्ति) होने की अशिष्ट प्रवृत्ति का पता चलता है।
सत्तर के दशक का सिनेमा हमारे आजादी से स्वप्नभंग का समय था। इस दशक की फिल्मे अहसास कराती हैं कि आजादी के इतने वर्षों बाद भी भारत से सामंती उत्पीड़न का खात्मा नहीं हुआ है। इस उत्पीड़न से सामना हुए बगैर नये समाज का निर्माण संभव नहीं है। इसलिए इस दशक की दलित-आदिवासी विमर्श आधारित फिल्मों में ग्रामीण परिवेश रोमानियत से अलग एक कड़वी सच्चाई के रूप में प्रकट हुआ है। ‘अंकुर’ (1973) श्याम बेनेगल की पहली फिल्म है। ग्रामीण परिवेश उसके पूरे रंग-ओ-आब के साथ सामंती मूल्यों के खिलाफ खड़ी यह फिल्म फिल्मों के बाजार में एक सशक्त चुनौती है। फिल्म में गरीब किसान (साधू मेहर) अनाज चोरी में पकड़ा जाता है। गांव का जमींदार (अनंत नाग) उसके मुँह पर कालिख पोतकर उसे पूरे गांव में गधे पर बैठाकर घुमाता है। इतना ही नहीं गांव का क्रूर जमींदार किसान की पत्नी (शबाना आजमी) को भी अपनी गिरफ्त में करता है। किसान की वह गर्भवती हुई पत्नी ज़मींदार के कहने पर भी गर्भपात नहीं कराती। गुस्साया ज़मींदार साधू को सजा देता है, इससे आहत हो उसकी पत्नी जमींदार को बहुत कोसती है। ज़मींदार दरवाजा बंद किए हुए बैचेनी से सुन रहा है। इस दृश्य में जमींदार युवक के प्रति निर्देशक की सहानुभूति का बोध खटकता है। परंतु फिल्म के अंत में एक छोटा बच्चा जमींदार के घर पर पत्थर फेंकता है। खिड़की का कांच चटक जाता है। इसका एक अभिप्राय यह है कि नयी पीढ़ी को युवक जमींदार की बेचैनी, उसकी आत्मस्वीकृति की परवाह नहीं है। नयी पीढ़ी हर घर का कांच तोड़ देगी। फिल्म इस साहस और जोखिम से टकराती है। एकल साहस, एकल जोखिम के बाद भी, फिल्म का संदेश है, नयी पीढ़ी गांव के उत्पीड़न को बर्दाश्त नहीं करेगी।12 ‘बाॅबी’ (1973) इस वर्ष की दूसरी फिल्म है जो एक मुंबई के एग्लों-इण्डियन दलित मछुआरे की लड़की बाॅबी (डिंपल कपाड़िया) और एक उच्चवर्गीय लड़के राज (ऋषि कपूर) के किशोर रोमांस के उपफनते प्रेम के बीच वर्ग और जाति के उपबंध तोड़ती सुन्दर प्रेम कहानी है। बहुत सारे नए आयाम लिए इस फिल्म में एक नयापन यह है, कि बदलते परिवेश में सम्पन्न हुआ दलित मछुआरा कहीं से भी दीनहीन नहीं है। वह अपनी लड़की के हक़ में किसी भी सीमा तक जाने को तैयार है। संभवतः इसका श्रेय उत्तर की अपेक्षा महाराष्ट्र में सर्वप्रथम उठी सामाजिक परिवर्तन और आर्थिक मुक्ति की लहर को दिया जा सकता है, जिसने दलितों को आर्थिक रूप से सम्पन्न और सामाजिक रूप ये सुदृढ़ होने का मार्ग सुझाया था।
‘निषांत’ (1975) अंकुर के बाद की श्याम बेनेगल की ही फिल्म है, जिसमें वे एक कदम आगे बढ़कर जमींदारी अत्याचारों के प्रति शोषित ग्रामीणों के सामूहिक संघर्ष को चित्रित करते हैं। फिल्म में पत्नी की मर्यादा भंग होने पर मास्टर साहब (गिरीश कर्नाड) गांव को मिलाकर संगठित रूप से जमींदार (अमरीशपुरी) के घर पर हमला करते हैं। फिल्म अच्छाई पर बुराई के संघर्ष में जमींदार की हत्या के बावजूद आवाम की जीत का अहसास पैदा नहीं कर पाती। ‘दीवार’, (1975) दीवार यश चोपड़ा की बहुचर्चित और बहुदर्शित फिल्म है। फिल्म के मूल में मजदूर संघ के एक नेता आंनद (सत्येन कपूर) है। मिल मालिक आनंद को उसके परिवार सहित जान से मारने की धमकी देते है। बेवश आनंद मालिकों से समझौत कर लेता है। इससे मजदूरवर्ग आनंद को चोर और बेईमान मानकर उस पर जानलेवा हमला करता है। आनंद अपनी जान बचाकर भगता है। मजदूरों के कोप से आनंद का परिवार भी नहीं बचता। उसके दो बच्चे विजय (अमिताभ बच्चन) और रवि (शशि कपूर) और पत्नी (निरुपाराय) को वह स्थान छोड़कर मुंबई भागना पड़ता है। भागते हुए भी वे मजदूर विजय (अमिताभ बच्चन) के हाथ पर-‘मेरा बाप चोर है।’ लिख देते हैं। अपने हाथ पर लिखे इस अपराधी शिलालेख के चलते स्वाभिमानी विजय कहीं भी सम्मान नहीं पाता और वह अपराध की दुनिया में धँस जाता है। दूसरा भाई रवि (शशि कपूर) पुलिस अफसर बनता है। एक कानून का रखवाला है तो दूसरा भंजक। आगे की कहानी दानों भाइयों की इसी तकरार की कहानी है। फिल्म में विजय (अमिताभ बच्चन) का बचपन में बूटपाॅलिश करना और उसी से जुड़ा उसका जवानी में बोला गया यह संवाद-‘मैं आज भी फेंके हुए पैसे नहीं उठाता!’ फिल्म ‘दीवार’ को दलित स्वाभिमान अंकुरण की फिल्म बना देता है।13 ‘मृगया’ (1976) मृणाल सेन निर्देशित यह फिल्म बीसवीं सदी के तीसरे दशक में उड़ीसा के जंगलों में रहने वाले एक आदिवासी शिकारी घिनुआ (मिथुन चक्रवर्ती) की बहादुरी की कथा कहती है। साहूकार भुवन सरदार एक आदिवासी विद्रोही का सिर काटकर ब्रिटिश सरकार को पहुँचाकर इनाम पाता है। प्रतिशोध में नायक घिनुआ उस साहूकार का सिर काटकर ब्रिटिश सरकार के अधिकारी के पास यह कहकर पहुँचाता है कि उसने जंगल के सबसे खतरनाक जानवर का शिकार किया है। वह जो दूसरों की बहू-बेटियों को बेइज्जत कर अपनी हवस पूरी करता है, उससे बड़ा शिकारी कौन हो सकता है। उसकी बहादुरी पर अंग्रेज सरकार को भी सजा सुनाते हुए दो बार सोचना पड़ता है। उपनिवेशकालीन शोषण के विरुद्ध और प्रकारांतर से आपातकाल के विरोध में खड़ी यह बहुचर्चित फिल्म, दलितों के बाद आदिवासी जीवन और उनके कथावृत्तों का चित्रपट पर उभरने के प्रारंभिक सफल प्रयासों में से एक है। यह सब अनायास ही नहीं हुआ था उस समय तक 1969 में बंगाल के नक्सलवाड़ी गाँव से शुरू हुआ नक्सलवादी आन्दोलन देश के उत्तरपूर्वी क्षेत्रों में अपना प्रभाव पकड़ चुका था। तब बंगाली फिल्मकार मृणलसेन इसके प्रभाव से कैसे बचपाते। शोषण के विरुद्ध सार्थक हिंसा इस फिल्म का मूल स्वर है।
‘मंथन’ (1976) श्वेत क्रांति के जनक और गुजरात के नेशलन डेरी डेवलपमेंट कार्पोरेशन के अध्यक्ष वी. कुरियन के सहयोग से बनी और श्याम बेनेगल निदेर्शित यह फिल्म यथार्थ जीवन की कथा पर आधारित है। इसमें सहकारिता की शक्ति को प्रदर्शित किया गया है और इसके साथ ही उन बाधाओं का भी निरूपण किया गया है जो सामाजिक कार्यों के बीच आ खड़ी होती हैं। इनमें सिर्फ शोषक वर्ग ही नहीं होता अपितु जातिवाद और अस्यपृश्यता जैसी अनेक सामाजिक कुरीतियाँ और अंधविश्वास भी होते हैं जो सृजानत्मक कार्यों में अवांछित अवरोध खड़े करते हैं। गंगा की सौगंध (1976) राबिनहुड टाइप में डाकुओं पर बनने वाली तत्कालीन मसाला फिल्मों के दौर सुल्तान अहमद निर्देशित ‘गंगा की सौंगध’ एक दलित युवति धनिया (रेखा) और गैर ब्राह्मण गंगा(ंगंगा) जमींदारी अत्याचारों से तंग आकर डाकू बनने और चुन-चुनकर बदला लेने की सामान्य सी कहानी है। फिल्म में ध्यान देने योग्य एक चीज़ यह है कि फिल्मकार के मुस्लिम होने के कारण इसमें दलितों के ज़मीदारी अत्याचारों से तंग आकर गाँव से पलायन का दृश्य, पूरी तरह पैगंबर हजरत मुहम्मद के मदीना से मक्का ‘हिजरत’ करने की शैली में फिल्माया गया है। जमींदारों और सवर्णीय अत्याचारों के विरुद्ध दलितों का अपना निवास छोड़ सुरक्षित स्थान की ओर हिजरत (पलायन) कर जाने का विचार गाँधी का भी था। फिल्म में यह प्रभाव मिलाजुला माना जा सकता है, क्योंकि धनिया का पिता कालू चमार(प्राण) अपनी जूते दुकान में गाँधी की तस्वीर लगाए हुए दिखाया गया है दूसरे जमींदार के अत्याचारों से पलायन अपनी जाति-बिरादरी के साथ कालू जिन उदार मुस्लिमों के यहाँ शरण पाता है वहाँ उसका स्वागत ठीक वैसे ही होता है, जैसे मदीना छोड़कर गए हजरत मुहम्मद का मक्का में स्वागत होना बताया गया है। फिल्म में प्राण का कालू चमार के रूप में विद्रोही अभिनय एक स्मरणीय हिस्सा है।  
 ‘आक्रोष’ (1980) आदिवासी विद्रोह की जो शुरूआत ‘मृगया’ से हुई थी, उसकी समकालीन समय के क्रूर यथार्थ में परणिति, गोविन्द निहालनी निर्देशित व विजय तेन्दुलकर कृत फिल्म ‘आक्रोश’ में होती है। यह फिल्म भीखू लहन्या (ओमपुरी) नामक आदिवासी की व्यथा बयान करती है जो अपनी ही पत्नी नागी लहन्या (स्मिता पाटिल) के कत्ल के जु़र्म में मुज़रिम है और अपने बचाव में एक भी शब्द नहीं बोलता! स्थानीय राजनेता, पूँजीपति और पुलिस तीनों ने मिलकर ही उसकी पत्नी से बलात्कार करने के बाद उसकी जघन्य हत्या की है। निरक्षर होने बावजूद लहन्या मूर्ख नहीं है वह जानता है कि उसे यह स्वार्थी व्यवस्था न्याय नहीं दे सकती और व्यवस्था के इस ढोंग में पड़कर अपनी पत्नी की अस्मिता की और छीछालेदर नहीं करवाना चाहता, इसलिए वह न अदालत में एक शब्द बोलता है और न सरकार द्वारा न्युक्त किए गए वकील को कुछ बतलाता है। उसे जब अपने पिता के अन्तिम संस्कार की इजाजत मिलती है तो वह मौके का फायदा उठाकर अपने पिता का अन्तिम संस्कार करने के साथ ही अपनी बहन की हत्या भी कर देता है ताकि उसकी असहाय बहन भी उसकी पत्नी की तरह ही समाज के बेईमानों की दरिंदगी का शिकार न हो। दलित-आदिवासी जीवन के नग्न यथार्थ को रूपायित करने वाली इस फिल्म में नक्सलवाद की स्पष्ट अनुगूँज है और कथा परिदृश्य में एक अनाम नक्सली (महेश एलंकुचवार) भी है जो आदिवासियों के बीच संगठन का काम करता है। वहीं दूसरी ओर भास्कर कुलकर्णी (नसीरुद्दीन शाह) है जिसका कानून और न्यायवस्था पर से अभी विश्वास छूटा नहीं है उन दोनों के निम्न संवाद से हम फिल्म ‘आक्रोश’ की पक्षधरता समझ सकते हैं-
काॅमरेड: दया आती है तुम्हें?
भास्कर कुलकर्णी: ये लोग सोचते क्यों नहीं, जब तक ये बोलेंगे नहीं तब तक कोई इनकी मदद नहीं कर सकता?
काॅमरेड: आप उन्हें साँस भी लेने दें, तब ना? दोष उनका नहीं आपकी व्यवस्था का...?
भास्कर कुलकर्णी: जी हाँ जानता हूँ, माक्र्सिट लोग तो हर...।
काॅमरेड: हर्ट करना चाहते हो...।
भास्कर कुलकर्णी: सो साॅरी...!
काॅमरेड: मुझे घिन आती है तुम्हारे एटीट्यूड पर... तुम्हें दया आती है लेकिन जो कुछ चल रहा है उस पर गुस्सा नहीं आता। खिचाई की तो आदत बन गई है, बड़ा नाॅवेल फील कर लेते हैं आप...फिर उसके बाद कुछ करने की जरूरत ही नहीं।
भास्कर कुलकर्णी: और किया भी क्या जा सकता है...?
काॅमरेड: टिपीकल पेटी बुर्जुआ एटीट्यूड, क्रांति तो दूर इस घिनौनी परिस्थिति को बदलने का ख्याल तक नहीं आता हमें... ऐसा तो रोज़ ही होता है कहकर चुप हो जाते हैं सब... क्या हो गया हमें; हमें शर्म ही नहीं आती? गुस्सा भी नहीं आता?
भास्कर कुलकर्णी: यश! आई डू हिम वट वरी सैम....लेकिन हमारी इतनी ताकत नहीं है; मैं सिर्फ लहन्या की मदद कर सकता हूँ...।
काॅमरेड: लहन्या जैसे इक्के-दुक्के की की मदद करने से क्या यह समस्या हल हो जाएगी? इस व्यवस्था को जब तक जड़ से नहीं उखाड़ा जाए, तब तक कुछ नहीं होने वाला...।’’
भास्कर कुलकर्णी: लेकिन, देखिए यदि मैं एक भी गरीब आदिवासी की मदद कर सकूँ, उसे न्याय दिला सकूँ, तो कहीं तो कुछ तो फर्क पड़ेगा...।’’
काॅमरेड: तो तुम यह समझतो हो कि तुम्हारी इस व्यवस्था में इंसाफ मिलना मुमकिन है?
भास्कर कुलकर्णी: इंसाफ दिलाना हमार फ़र्ज़ है...।14
फिल्म का एक पक्ष दुसाणे वकील (अमरिश पुरी) है, जो स्वयं आदिवासी होकर भी पूँजीपति, नेताओं और वकीलों के केस लड़ता है। उन्हीं के साथ उसका उठना-बैठना है और उन्हीं की गालियाँ भी खाता है। किन्तु वह अपने को इस तरह डी-कास्ट कर चुका है कि सिर्फ केस लड़ने के अलावा उसकी न तो ह्यूमनिटी में आस्था है न ही आत्मसम्मान और खुद्दारी मेें। बाबा साहेब ने संभवतः ऐसे ही पढ़े-लिखे प्रशासनिक दलित-आदिवासियों को ध्यान में रखकर कहा था, कि मुझे सबसे ज्यादा धोखा पढ़े-लिखे लोगों ने ही दिया है। ‘चक्र’ (1980) रवीन्द्र धर्मराज की इकलौती फीचर फिल्म जो मुंबई में झोपड़पट्टियों में रहने वालों के जीवन की आशा-निराशाओं की मार्मिक कथा बयान करती है। उन कारणों की ओर इशारा करती है जो उनको विपदाग्रस्त वीभत्स जीवन से बाहर नहीं निकलने देते। व्यवस्था की उनकी कुटिलताओं को भी रेखांकित करती है जो उन्हें पशुवत जीवनयापन के लिए मजबूर कर रही हैं। जयंत दलवी के मराठी उपन्यास पर आधारित इस फिल्म के मुख्य कलाकार थे नसीरुद्दीन शाह, स्मिता पाटिल, कुलभूषण खरबंदा, रंजीता चैधरी, सविता बजाज और रोहिणी हट्टंगड़ी।
अंधेर नगरी’ (1980) गुजराती लोककथा ‘अछूत नो वेश’ पर आधारित केतन मेहता की यह पहली फिल्म में अछूतों की हीन दशा और उनके साथ होने वाले अमानवीय व्यवहार को दर्शाया गया है। एक राजा की दो रानियों के आपसी संघर्ष में बड़ी रानी के बेटे को छोटी रानी मरवा डालने का प्रयत्न करती है परंतु वह दलित-आदिवासियों द्वारा बचा लिया जाता है और उसके समुदाय की ही एक लड़की से प्यार करने लगता है। गुजरात के ‘भवाई’ लोकनाट्य शैली में फिल्म के अंत में सूत्रधार यह संदेश देता दिखाया गया है कि यदि हम अपने अधिकारों की प्राप्ति के प्रति सचेत और सघर्षशील हो जाएँ तो अन्याय का उन्मूलन कर सकते हैं। नसीरुद्दीन शाह, मोहन गोखले, ओमपुरी, स्मिता पाटिल और दीना पाठक इसके मुख्य कलाकार थे। ‘सदगति’ (1981) सत्यजीत राय निर्देशित और प्रेमचंद की अमर कहानी ‘सद्गति’ पर आधारित यह एक मात्र फिल्म है, जो उस अप्रतिम कथाशिल्पी के साथ न्याय करती है। जिस तरह प्रेमचन्द ने ‘सद्गति’ में ब्राह्मणवाद पर गहरी चोट की थी उसी प्रकार सत्यजीत राय ने भी उसी तुर्श अभिव्यंजना की है। ओमपुरी, मोहन अगाशे, स्मिता पाटिल और गीता सिद्धार्थ इसके मुख्य कलाकार थे। ‘आरोहण’ (1982) समाज में व्याप्त सामाजिक और आर्थिक गैर बराबरी से उत्पन्न वर्गसंघर्ष को केन्द्र में रखकर बनाई गई श्याम बेनेगल की यह फिल्म एक ग्रामीण हरिमंडल की कहानी है जो जमींदार के अत्याचार से उत्पीड़ित है। पुलिस और प्रशासन भी हरि की जगह जमींदार की सहायता करते हैं। हरि लेकिन तब भी हिम्मत नहीं हारता और निरंतर संघर्ष के पथ पर आगे बढ़ने को ही शोषण से मुक्ति का साधन मापता है। मुख्य कलाकार थे ओमपुरी, शीला मजूमदार, पकंज कपूर ओर विक्टर बैनर्जी। ‘सौतन’ (1983) सावन कुमार निर्देशित और राजेश खन्ना के नायकत्व वाली इस फिल्म में टीना मुनीम के विरुद्ध सौतन के रूप में एक दलित युवति राधा की भूमिका का निर्वहन पद्मिनी कोल्हापुरे ने किया था।
 ‘दामुल’ (1984) ‘षुरू होता है जहाँ से भय और अंधेरा/षुरू होती है भय और अंधेरे को भेदने की इच्छा भी वहीं से।’ कुमार अंबुज की ‘गुफा’ कविता की यह पंक्तियाँ प्रकाश झा निर्देशित फिल्म ‘दामुल’ पर सटीक बैठती हैं। यह फिल्म आईना है बिहार का, जिसके समाजार्थिक स्थितियों का खुलासा वह करती है। वर्गीय चरित्र को परत दर परत उघाड़ती है। राजनीतिक भ्रष्टाचार से जूझते और जातिवाद के दंश झेलते उन दलितों की असाहयता को बिना किसी तर्क और लाग-लपेट के परोसती है, जिसे देखकर हिन्दू समाज की उस जड़ता को समझ सकते हैं, जहाँ आदमी जानवर होने को अभिशप्त है। ‘दामुल’ है तो एक बंधुआ मजदूर की कहानी, लेकिन कोई बंधुआ मजदूर कैसे बनता है, उसे किन-किन नारकीय परिस्थितियों से गुजरना पड़ता, न चाहते हुए भी उसे वह काम करना पड़ता है, जो वह नहीं चाहता। इसके अलावा फिल्म में ब्राह्मण और राजपूतों के आपसी वर्चस्व में हरिजन (दलित) कैसे पिसते है, यह प्रकाश झा की आँख देखती है।
बिहार के जिला मोतीहारी के बच्चा सिंह राजपूत की खुन्नस यह है कि परधानी में ब्राह्मण माधो पांड़े ही जीतते आ रहे हैं। उन्हें हराने की चाल स्वरूप वे इस वार हरिजन टोले के गोकुल को चुनाव में खड़ा कर देते हैं। बच्चा सिंह हरिजन टोले में जाकर माधो पांड़े का कच्चा चिðा खोलते हैं। कहते हैं छुआछूत, भेदभाव ई बाभन लोेग का बनाया हुआ है। अपनी इस चाल में बच्चा सिंह सफल तो हो जाते है, लेकिन गोकुल चुनाव नहीं जीत पाता, क्योंकि बच्चासिंह को छोड़कर सभी राजपूत टोले के लोग अपने मत का प्रयोग करने नहीं जाते। बच्चासिंह का तर्क भी कि, खड़ा किए हम, जिताएंगे हम तो राज कौन करेगा, चमार? कोई असर नहीं करता। उधर, बोगस वोट के जरिए माधो पांडे़ चुनाव जीत जाते हैं। बाहर के गुंडे को बुलाकर हरिजनों को उन्हीं के अहाते में बंधक बना देने वाले माधो पांडे़ अपनी चाल में सफल हो जाते हैं। पर, लंबे समय से चुनाव जीतने की तैयारी कर रहे बच्चा सिंह अपने ही लोगों से हार जाते हैं। मेले में उनका हरिजनों के साथ उठना बैठना, उनकी बस्तियों में आना-जाना, उनके साथ अपनापन पैदा करना सब कुछ बेकार चला जाता है। इधर गोकुल की वह आशंका भी सच साबित होती है कि इस चुनाव में बहुत खून-खराबा होगा। उनका तो कुछ नहीं बिगड़ता। लेकिन हरिजन टोला मातमी माहौल में बदल जाता है। आगजनी और हत्याओं के नंगे-नाच के बीच अंततः सारे गिले-शिकवे मिटाकर माधो पांड़े और बच्चासिंह का बाभन-राजपूती मेल हो जाता है। इसके बाद तो फिर पुलिस, नेता, कानून हरिजनों के दर्द को कैसे समझते?
गाँव की विधवा महत्माइन जिसकी जर-ज़मीन ही नहीं, माधो पाड़ें उसका शारीरिक शोषण भी करता है, एक रात वह उसकी हत्या करवा देता है। केस में फँसा दिया जाता है संजीवना। संजीवना माधो पाड़ें का बंधुआ है। कानून तो ताकतवर के लिए है। बंधुआ संजीवना के लिए महत्माइन की हत्या का झूठा केस दामुल साबित होता है। उसे इसमें फाँसी हो जाती है।...गौर करने की बात है कि जो दलित बस्ती जमींदारों के शोषण-उत्पीड़न के खिलाफ उठा खड़ा नहीं होती, उस समाज की एक औरत प्रतिकार करती है। जब माधो पांड़ें ठंड की रात में अपने गुर्गों के साथ अलाव ताप रहे थे, रजुली (संजीवना की पत्नी) गंड़ासा लेकर आती है और माधो पांड़े के गले पर प्रहार करती है। माधो कुर्सी से गिरकर छटपटाने लगता है और अंततः दम तोड़ देता है। रजुली को लोग पकड़ लेते हैं, रजुली तीव्र आक्रोश में फूट पड़ती है-‘तू मुखिवा को मारकर दामुल पर काहे नहीं चढ़ा रे...!’ यशस्वी कथाकर शैवाल की कहानी पर आधारित ‘दामुल’ में मुख्य कलाकार थे मनोहर ंिसंह, अन्नू कपूर, दीप्ति नवल, सीमा मजूमदार, रंजना कामथ, प्यारे मोहन सहाय इत्यादि।15
‘पार’ (1984) बिहार के गाँव-जवार में दलितों के चुनाव में खड़े होने और सवर्णीय कुचक्रों चलते मिली असफलता की जो एक हल्की सी झलक हम ‘दामुल’ में देखते हैं, उसका अगला रूप गोतम घोष निर्देशित फिल्म ‘पार’ में हमें देखने को मिलता हैं। फर्क बस इतना है कि यहाँ एक दलित को चुनाव में खड़ा करने का प्रयत्न बाभन-राजपूत नहीं, एक आर्दशवादी स्कूल मास्टर करता है।... चुनाव सफलतापूर्वक जीता जाता है। मास्टर के प्रगतिकामी विचार और गाँव में दलित राजनीति आने से जगी आशा की किरण से उत्साहित गाँव के मजदूर, स्थानीय ज़मींदार के यहाँ न्यूनतम वेतन पर मजदूरी करने से इन्कार कर देते हैं। ज़मींदार इस सब की जड़ स्कूल मास्टर को पहले तो धमकाता है और फिर न मानने पर एक रोड एक्सीडेन्ट में उसकी हत्या करवा देता है। इस घटना का प्रतिकार गाँव का विद्रोही दलित नौरंगिया (नसीरुद्दीन शाह) अपने अन्य साथियों के साथ, जमींदार के भाई की हत्या के रूप में करता है। बदले में जमींदार पूरी दलित बस्ती में आग लगावा देता है। उस दहशतज़दा माहौल में नौरंगिया और उसकी गर्भवती पत्नी (शबाना आजमी) भागकर किसी तरह कलकत्ता पहुँचते हैं। जहाँ रोजगार के स्थायी अभाव और मिलों में चल रही अनिश्चितकालीन हड़तालों के कारण, अंततः भूख से लड़ते थक-हारकर वे दलित दंपत्ति गाँव लौटने के लिए विवश होते हैं। किराये का पैसा जुटाने के लिए नौरंगिया को एक बेहूदा काम मिलता है-सुअरों के झुँड को नदी पार कराने का। सुअरों के झुँड को वे नदी पार तो पहुँचा देते हैं और पार पहुँचकर उन्हें रोटी भी मिल जाती है और पैसा भी, पर उसकी पत्नी के पेट में पलने वाला उसका बच्चा मर जाता है। दलित जीवन की भयानक त्रासदियों में से एक फिल्म ‘पार’ सिद्ध करती है, कि सिनेमा भी जीवन से जुड़ी सच्चाइयों को बयान करने का एक सशक्त दृश्य माध्यम है और क्यों? इसके शुरूआती दौर से लेकर अब तक परंपरागत रूढ़िवादी तबका; इससे नाक-भौं सिकोड़ता चला आ रहा है...।
के. विश्वनाथ की ‘जाग उठा इंसान’ (1984) इस वर्ष की एक अन्य महत्वपूर्ण फिल्म थी, जिसमें मिथुन ने एक हरिजन युवक ‘हरि’ और श्रीदेवी ने एक ब्राह्मण युवा नर्तकी ‘संध्या’ भूमिका निभाई थी। तमाम उतार चढ़ावों के बावजूद संध्या और हरि का मिलन होता है। ‘जन्मना जयते शूद्रः कर्मणा द्विज उच्च्यते’ जैसे प्रकारांतर में ब्राह्मण श्रेष्ठता को जीवित बनाये रखने वाले आर्यसमाजी विचार के तहत, युवति का पिता और भतीजा यह रिश्ता स्वीकार भी कर लेते हंै, किन्तु उसका भाई और गाँव समाज नहीं; जिनके क्रूर हमले में हरि और संध्या को अपने जीवन से हाथ धोना पड़ता हैं। सटीक अभिनय और अर्धशास्त्रीय संगीत के होते हुए भी फिल्म का दुखांत दर्शकों को भाया नहीं और फिल्म फ्लाप हुई। स्मरण रहे मिथुन चक्रवर्ती की फिल्मों का दर्शक अधिकांशतः दलित-पिछड़ा आम आदमी ही रहा है, वह अपने नायक (जो फिल्म में भी दलित है) की पराजय भला कैसे स्वीकार कर करता? ‘आदमी और औरत’ (1984) तपन सिन्हा निर्देशित, अमोल पालेकर, महुआ राय चैधरी अभिनीत मूलतः एक यह टेलीफिल्म है जो दूरदर्शन द्वारा दूरदर्शन के लिए ही बनी थी, किन्तु जाति और धर्म से परे मन और देह के धरातल पर मात्र स्त्री-पुरुष होने की कथा कहती इस फिल्म को ‘इन्टरनेशनल फिल्म फेस्टीवल’ में भी सराहा गया और अवार्ड जीते थे।
‘देव षिषु’ (1985) उत्पलेंदु चक्रवर्ती निर्देशित धार्मिक शोषण पर आधारित यह फिल्म एक ऐसे दलित माता-पिता रघुवर (ओमपुरी) और सीता (स्मिता पाटिल) के तीन सिर वाले बच्चे की कहानी है, जिसे अशुभ कहकर जिये महंत नामक तांत्रिक (साधू मेहर) ने उनसे छीन लिया था। गाँव में आई बाढ़ से लुटकर रघुवर और सीता जब अपने एक रिश्तेदार के गाँव पहुँते हैं, तो वे वहाँ देखते हैं कि उनका वही तीन सिर वाला शिशु एक ठेले पर रखा हुआ है और दो व्यक्ति उसे देवशिशु कहकर प्रचारित कर रहे हैं। अंधश्रद्धा में डूबे लोग भी उस पर पैसों की बौछार किए जा रहे हैं। रघुवर इसका तीव्र विरोध करता है, परिणाम स्वरूप वहाँ उपस्थित लोग उसे मार-मारकर अधमरा कर देते हैं। किसी तरह जान बचाकर भागा रघुवर अपनी पत्नी के पास आता है और अपनी पत्नी से पुनः उसी तरह का विचित्र बच्चा पैदा करने का आग्रह करता है, ताकि जिसके जरिये वह भी कमाई कर सके। अपने सम्पूर्ण अर्थ में ‘देवशिशु’ एक महत्वपर्ण फिल्म है, जिसका एक दर्शन (पाठ) यह भी है कि धार्मिक अंधविश्वास के आधार होने वाले अर्थोपार्जन पर जन्मजात आरक्षण केवल सवर्ण पुरोहित, पंडे-पुजारी और संत-महंतो का ही है और वे इस क्षेत्र में भूलकर भी दलित वर्ग को प्रश्रय नहीं देना चाहते/चाहेंगे।
‘गुलामी’ (1985) यद्धपि वर्ग और जाति के अपने संस्कार होते हैं और उनका प्रतिबिंब व्यक्ति के व्यक्तित्व और कृतित्व पर एक छाप के रूप में अवश्य रहता है। उससे छुटकारा पाना असंभव नही ंतो आसान भी नहीं है, किन्तु जो इससे मुक्त हो जाता है वही सिद्ध पुरुष कहलाता हैं। जे.पी.दत्ता निर्देशित और उनके पिता ओ.पी दत्ता द्वारा लिखित फिल्म ‘गुलामी’ एक ऐसी ही महत्वपूर्ण कृति है, जिसे फिल्मकार ने अपने तमाम पूर्वाग्रह और संस्कारों से मुक्त होकर सहज मानवीय धरातल पर स्वतंत्रता और समानता की पैरोकार प्रतिनिधि रचना के रूप में किया है। यह फिल्मकार की दृष्टि का ही विस्तार है कि जिस दलित जीवन की दुश्वारियों को महात्मा गाँधी भी सवर्णों की आम समस्याओं से अलग करके नहीं देख सके थे, गुलामी का निर्देशक फिल्म के प्रारंभ में ही सूत्रधार (अमिताभ बच्चन) के माध्यम से, उन्हें पहले ही अलग बताता हुआ आगे बढ़ता है-‘अंग्रेजों की हुकूमत से जूझने के लिए और गुलामी की जंजीरें तोड़ने के लिए तमाम हिन्दुस्तानी वतन के सिपाही बन चुके थे। कुछ जाने-पहचाने कुछ बेनाम और कुछ गुमनाम। आजादी का सपना तो सभी देख रहे थे, मगर एक सिपाही का सपना कुछ अपना था उसकी गुलामी की जंजीरें अलग थीं और उसकी आजादी की देवी की मूरत भी अलग थी। वह गुमनाम जरूर था मगर बेनाम न था। उसका नाम था रंजीत सिंह चैधरी।16’
 फिल्म का प्रारंभ होता है राजस्थानी मरुधरा के एक अनाम गाँव के एक दलित लड़के रणजीत के विद्रोह से, जो ब्रिटिश सरकार के शोषण और दमन की जड़ें काटता, अपने गाँव-समाज में व्याप्त-अस्यपृश्यता, जातिवाद और जमींदारी की जड़ें काटने का प्रयास करता है। रणजीत अपने स्कूल में पीछे नहीं आगे और सवर्ण बच्चों के बगल में बैठना चाहता है। ऊँची जाति के बच्चों के लिए पृथक रखे मटकों से पानी पीकर, वह पानी-पानी का भेद मेटना चाहता है। पर यह हो नहीं पाता। स्कूल में जमींदार के लड़कों से लड़ी बराबरी की लड़ाई में, उसे हवेली बुलाकर मार पड़ती है। हवेली में अपना और अपने माता पिता का अपमान रणजीत सहन नहीं कर पाता और आगे की पढ़ाई पूरी करने अपने मामा के यहाँ चला जाता है।
रणजीत अपनी पढ़ाई पूरी कर भी नहीं पाता कि क़र्ज़ और जमींदार/महाजनों के शोषण के चलते बीमार और फिर मृत्यु को प्राप्त हुए पिता के देहांत की खबर सुनकर वह अपने गाँव लौट आता है। परंपरा अनुसार रणजीत के पिता द्वारा ज़मीदार से लिया क़र्ज़ रणजीत के सिर आता है, किन्तु विद्रोही रणजीत इससे इन्कार कर देता है। ज़मीदार पुलिस से मिलकर युवा रणजीत (धर्मेन्द्र) को जेल भिजवा देता है। घर में माँ अकेली माँ के रहते रणजीत का खेत और घर नीलाम हो जाता है और माँ विक्षिप्त। कुछ दिन बाद जमींदार की प्रगतिशील लड़की सुमित्रा (स्मिता पाटिल) के प्रयासों से रणजीत सिंह जेल से छूट आता है, किन्तु अपना घर और खेत नीलाम होने के कारण अपनी मानसिक स्थिति खो बैठी रणजीत की माँ (सुलोचना) उसके आने के साथ ही यह दुनिया छोड़ देती है। रणजीत अपनी ही  बिरादरी की मित्र लड़की मोरा (रीनाराॅय) जो उसके जेल से आने तक उसकी माँ की सरंक्षक बन रही थी, उसे अपनी पत्नी बना लेता है।
इसके बाद गाँव में क्रमशः चार घटनाएँ घटती हैं। एक के ज़मींदार के विरुद्ध जाकर रणजीत  गाँव छोड़कर जा रहे किसानों को गाँव में ही रोक लेता है और क़र्ज़ में जमींदार के कारिन्दों द्वारा खोलकर लिए जा रहे किसानों के हल-बैल वापस कराता है। दो दलितों के लिए प्रतिबंधित जमींदार के कुँए पर सामूहिक रूप से पानी भरने के लिए संघर्ष करता है। तीन दलित हवलदार गोपी (कुलभूषण खरबंदा) अपने बेटे के विवाह के अवसर पर निम्न जातियों के लिए वर्जित घुड़चढ़ी की रस्म करने के प्रयास में, अपने बेटे मोहन से हाथ धो-बैठता है। इसी क्रम में चैथी घटना अंतर्गत एक दिन रणजीत और सुमित्रा डाकुओं के बीच फँस जाते हैं। रणजीत एक शिक्षक है यह सुनकर डाकुओं का सरदार उनसे नरमी बरतता हैं। जमींदार और साहूकारी शोषण के चलते एक आम इंसान से बागी बने डाकुओं के सरदार का दृष्टिकोण पलटने के लिए, रणजीत उन्हें पढ़ने के लिए मक्सिम गोर्की का महान उपन्यास ‘माँ’ देता है।
अंत में यही उपन्यास रणजीत सिंह की बर्बादी का सबब बनता है। एक मुठभेड़ में डाकुओं के डेरे से पुलिस के हत्थे यह किताब चढ़ जाती है। पुलिस जब्त की हुई पुस्तक की पहचान कर लेती है जो गाँव के पुस्तकालय में चैधरी रणजीत सिंह के नाम चढ़ी हुई थी, रणजीत एक बार फिर जेल में होता है। कटे पर नमक यह कि एसपी सुल्तान सिंह जो सुमित्रा का पति है, उसकी विवाह के बाद वहीं आकर पोस्टिंग होती है। वहाँ आकर जब उसे यह ज्ञात होता है कि नीच जात रणजीत और उसी पत्नी सुमित्रा कभी मित्र थे, तब तो वह जेल में रणजीत को और अधिक मात्रा में यातना देता है। तंग आकर रणजीत एक दिन जेल से भाग खड़ा होता है और अपनी बेटे की मृत्यु का प्रतिशोध लेने के लिए हवलदार से बागी बने गोपी दादा की गैंग में शामिल हो जाता है। इसी क्रम में एक व्यक्ति और बागी बनता है-जाबर (मिथुन चक्रवर्ती)। दलितों के प्रति सहानुभूति रखने और बागी रणजीत की हथियारों से मदद करने के कारण, पूर्व आर्मी मैन जाबर को भी एसपी सुल्तान सिंह झूठे केश में फँसा देता है।
 इधर गाँव के स्कूल मास्टर (राम मोहन) की अनाथ बेटी और जाबर की मंगेतर तुलसी (अनीता राज) हवेली में ज़मीदार के ऐयास बेटों से अपनी मर्यादा की रक्षा करती, मारी जाती है। घुड़चढ़ी की ज़िद में अपने बेटे को खो चुके गोपी दादा के सामने भी वैसा ही दृश्य पैदा होता है। थानेदार फतेसिंह (रजामुराद) अपने बेटे की बरात लेकर जा रहा होता है। प्रतिशोध की आग में जलते गोपी दादा अपनी गैंग के साथ हमला करते हैं और फतेसिंह को मार गिराते हैं, किन्तु उसके मासूम बेटे को डाकू और पुलिस की गोलियों से बचाते हुए खुद मारे जाते हैं। इस प्रकार जुल्म की इंतिहा हो जाती है।
फिल्म के अंत में चैधरी रणजीत सिंह और जाबर गैंग के साथ गाँव पर हमला बोल देते है। वे अपने ऊपर हुए अत्याचारों का चुन-चुनकर प्रतिशोध लेते, ज़मीदार और महाजनों को मारते और लूटते-पीटते हैं। तब तक एसपी सुल्तान सिंह अपने पुलिस फोर्स के साथ गाँव का घेरा डाल देता है। पुलिस और बागियों की दो तरफा फायरिंग में पहले जाबर मारा जात है और उसके बाद जमींदारों और महाजनों की हवेलियों से इक्ट्ठा किए गए बही-खातों के ढेर पर जलती लुकाठी लगा, अंत में चैधरी रणजीत सिंह भी शहीद हो जाता है। ...सामाजिक समरसता और शोषण से मुक्ति का अधूरा सपना पूर्ण होने की आशा में मरते हुए भी चैधरी रणजीत सिंह की आँखें, खुली रह जाती हैं। समाप्त होती फिल्म डूबते सूरज की पृष्ठभूमि में रणजीत की पत्नी मोरा अपने नवजात शिशु को लिए खड़ी दिखाई देती है, जो चैधरी रणजीत सिंह के सपने के बचे रहने और आशा का प्रतीक है। शिक्षक से बाग़ी बने राजस्थान के एक दलित किसान के वास्तविक जीवन-संघर्ष का आधार लेकर बनी फिल्म ‘गुलामी’ को; जातिग्रस्त भारत में वर्गसंघर्ष की गतिशीलता समझने में, पाठ्यपुस्तक की तरह इस्तेमाल किया जा सकता है।17
आघात (1985) गोविन्द निहालिनी निर्देशित और नसीरुद्दीन शाह, ओमपुरी, पंकज कपूर, दीपासाही और सदाशिव अमरापुरकर अभिनीत यह फिल्म टेªेड यूनियनों के विघटन और समाजवादी आन्दोलन के क्रमशः नष्ट होते जाने पर तीखा और विचारोत्तेजक व्यंग्य करती है। टेªेड यूनियनों की आपसी प्रतिद्वन्दिता किस प्रकार उनकी विश्वसनीयता को नष्ट करने का काम करती है और व्यक्तिवाद को प्रश्रय देती है, इसका अत्यंत सजीव चित्रण गोविंद निहालिनी ने इस फिल्म में किया है। ‘मैसी साहब’ (1986) प्रदीप कृष्ण निर्देशित और रघुवीर यादव अभिनीत इस फिल्म में रघुवीर यादव ब्रिटिश शासित भारत में फ्रैंसिस मैसी नामक एक साधारण क्लर्क की कहानी है, जो अपनी अंग्रेज नस्ल के चलते लोगों पर रुवाब दिखाता है। क़र्ज़ लेता है और एक आदिवासी युवति से विवाह भी करता है। आदिवासी समाज में दहेज युवति को नहीं युवक को देना होता है। दहेज की रकम पाने के चक्कर में फ्रैंसिस से महाजन का खून हो जाता है। इस बीच उसके चहेंते अंग्रेजी नस्ल भाई विवाह के चक्कर में इंग्लैण्ड चले जाते हैं और उसके पत्नी-बच्चे को उसका आदिवासी ससुर रकम न चुका पाने के कारण, वापस घर लिवा ले जाता है। इधर जेल में पड़े कल्पना करते मैसी साहब को भरोसा है कि एक न एक दिन उसके चाल्र्स एडम्स साहब उसे जरूर आकर बचा लेंगे और उसके बेटे को अफसर बनायेंगे। पर एडम्स साहब इंग्लैण्ड से कभी नहीं लौटते और मैसी साहब को फाँसी हो जाती है। रघुवीर यादव, बैरी जान, अंरुधती राय, सुधीर कुलकर्णी, लल्लूराम, वसंत जोगलेकर इत्यादि इसके प्रमुख अभिनेता थे।
 सुष्मन’ (1986) आंध्रप्रदेश के सिल्क कारीगरों, सरकारी अमले और सहकारी संस्थाओं के अंतःसंघर्ष को बयान करती श्याम बेनेगल की इस फिल्म में, बुनकर रामुल के माध्यम से उनकी कथा कही गई है जो ‘इकत’ की बारीक सिल्क कारीगरी करता है। पूँजीवादी शोषण और मशीनीकरण के कारण किस प्रकार कुशल कारीगर अपने हुनर से दूर चले जाते हैं। वे कारीगर जो सिर्फ अपने हाथों से नहीं  अपनी आत्मा से वस्त्रों का निर्माण करते हैं। एसोसिएशन आॅफ कोआपरेटिव्स एंड अपेक्स सोसाइटी आॅफ हेन्डलूम्स निर्मित इस फिल्म के मुख्य कलाकार थे-ओमपुरी, शबाना आज़मी, कुलभूषण खरबंदा, के.के. रैना, अन्नू कपूर, इला अरुण, मीना गुप्ता और मोहन अगाशे इत्यादि। ‘महायात्रा (1987) गौतम घोष की एन.एफ.डी.सी द्वारा हिन्दी और बंगला में एक साथ बनी इस पीरियड फिल्म में उन्नीसवीं शताब्दी के बंगाल में गंगा तट पर शवों को जलाने वाले एक अछूत बैजू का भी वर्णन है, जो मृत्युशैया पर पड़े एक विधुर ब्राह्मण के मोक्ष के लिए खरीदकर लाई गई गरीब ब्राह्मण युवति को, सती कराने का विरोध करता है। मुख्य कलाकार थे शुत्रघन सिन्हा, शंपा घोष, बसंत चैधरी, मोहन अगाशे प्रमोद गांगुली और राॅबी घोष। ‘बँटवारा’ (1989) राजस्थान के जातिय और साम्प्रदायिक संघर्ष को जमींदारी परिवेश के अन्तर्गत प्रस्तुत करने वाली जे.पी. दŸाा निर्देशित इस बहु सितारा फिल्म में भी अभिनेता धर्मेन्द्र ने एक बार एक दलित युवा की भूमिका निभाई थी। यह चरित्र गुलामी के रणजीत से हटकर एक अपेक्षाकृत संयमित दलित युवा है। अन्य कलाकार थे-विनोद खन्ना, डिंपल कपाड़िया, आशा पारेख, शम्मी कपूर, पूनम ढिल्लों, अमरीशपुरी, विजयेन्द्र घाटगे, नीना गुप्ता और कुलभूषण खरबंदा इत्यादि। ‘भीम गर्जना’ (1989) बाबा साहेब आम्बेडकर के जीवनवृत्त को पहली बार चित्रपट पर दर्शाने वाली विजय पवार निर्देशित यह फिल्म अपने सार्थक अभिनेता चयन और निर्देशकीय गड़बड़ियों बावजूद भी दलित वर्ग में इसे काफी सराहना प्राप्त हुई थी। ‘धारावी’ (1991) एन.एफ.डी.सी. और दूरदर्शन के सहयोग से बनाई गई प्रयोगधर्मी निर्देशक सुधीर मिश्रा की यह फिल्म एशिया की सबसे बड़ी झोपड़पट्टी धारावी में हिन्दुस्तान के कोने-कोने से आकर पनाह पाने वाले गरीब, दलित और बेरोजगारों की फौज के संतापों, आकांक्षाओं और स्वप्नों के बनने और टूटने की कहानी है। मुख्य कलाकार थे-ओमपुरी, शबाना आजमी, माधुरी दीक्षित, चंदू पारखी, रघुवीर यादव, सतीश खोपकर, मुश्ताकखान, प्रमोदबाला, वीरेन्द्र सक्सेना इत्यादि।
 ‘दीक्षा’ (1991) अरुण कौल निर्देशित यह फिल्म भी ‘महा यात्रा’ की तरह एक काल विशेष पर आधारित है। पृष्ठभूमि है बीसवीं सदी के आरंभ का कर्नाटक, जब सुधारवादी आन्दोलनों के प्रभाववश एक प्रगतिशील ब्राह्मण शेषादि; परंपरावादियों से बैर मोल लेता अस्पृश्यों के यहाँ धार्मिक कृत्य सम्पन्न कराने लगता है। शेषाद्रि की निर्भीकता और पारंपरिक मूल्यों से हटकर चलने की सजा उसकी विधवा युवा बेटी को मिलती तब मिलती है, जब वह गाँव के एक शिक्षक के प्रेमपाश में पड़कर गर्भवती हो जाती है। शेषाद्रि, ब्राह्मण समाज के दबाव में आकर अपनी पुत्री का घटश्राद्ध (जीवित रहते शवायात्रा निकालने का दंड) करने को बेवश है। इस मनुष्यता विरोधी पाखंड के विरुद्ध तब सिर्फ अस्पुश्य ‘कोगा’ ही आवाज उठाता है, जिसके यहाँ शेषाद्रि ने धार्मिक आचार संपन्न किया था। प्रगतिशील ब्राह्मण और विद्रोही दलित के संयुक्त प्रयत्नों से धर्म के अन्तर्गत टूटती जड़ता का दर्शन कराने वाली, मनोहर सिंह, नाना पाटेकर और राजश्री सांवत अभिनीत ‘दीक्षा’ भी एक सराहनीय फिल्म है। ‘रूदाली’ (1992) महाश्वेता दी के उपन्यास पर आधारित कल्पना लाजिमी की यह काव्यात्मक अभिव्यक्ति सही मायनों में स्त्रीत्व को श्रद्धांजली है। फिल्म के अनुसार राजस्थान के गाँव में समृद्ध व्यक्तियों की मृत्यु पर रूदाली कहलाने वाली निम्न जाति की पेशेवर रोने वाली स्त्रियों को बुलाया जाता था। सनीचरी (डिंपल कपाड़िया) एक ऐसी ही औरत की बेटी है, जिसकी माँ बचपन में ही उसे छोड़कर चली गई थी। उसका शराबी पति विवाह के कुछ समय बाद ही मर जाता है। गाँव के ठाकुर की हवेली में वह काम करके अपना जीवन यापन करती है। वह जीवन से लड़ने वाली स्त्री है, हथियार डाल देने वाली नहीं। भले ही एक रूदाली उसकी माँ थी लेकिन वह रोना नहीं जानती। सनीचरी का बेटा बुधुआ, जो एक वेश्या से ब्याह कर लेता है, उसकी कोख में पलने वाले अपने बेटे के बच्चे की खातिर अपने घर में आश्रय देती है। लेकिन वह वेश्या गर्भपात करवाकर अपनी दुनिया में वापस लौट जाती है। हर तरफ से रूसवाई की शिकार सनीचरी हवेली के छोटे ठाकुर के भावनात्मक शोषण का भी शिकार होती है। बड़े ज़मीदार गंभीर रूप से बीमार हैं और अपने परिवार के बारे में अच्छी तरह जानते हैं कि उनकी मौत पर कोई रोने वाला नहीं होगा। भीकनी (राखी) नामक रूदाली ठाकुर को आश्वस्त करती है। वह सनीचरी के पास आती है और उसकी अंतरंग बन जाती है। एक दिन भीकनी को दूसरे गाँव में रोने के लिए जाना पड़ता है। सनीचरी कुछ समय बाद ही जान पाती है कि भीकनी उसकी खोई हुई माँ थी जो अब इस दुनिया में नहीं है। उसका पत्थर का कालजा फूट पड़ता है। इसी बीच बड़े ठाकुर की मृत्यु हो जाती है और उसे हवेली में रोने के लिए बुलाया जाता है, जहाँ सनीचरी के भीतर जिंदगी भर के जमे हुए आँसू आँखों से फूट पड़ते हैं। उसके मर्माहत कर देने वाले क्रंदन को सुनकर लोग स्तब्ध रह जाते हैं। उसके रूदन का असली मर्म उसके सिवा भला और कौन जान सकता है। मूल रूप से असम के ग्रामीण परिवेश को लिखे गए महाश्वेता देवी के इस उपन्यास को कल्पना लाजमी ने राजस्थानी पृष्ठभूमि देकर इस तरह फिल्माया है, कि वह राजपूताने की मौलिक लोककथा लगती है।
 ‘बैंडिट क्वीन’ (1994) इस फिल्म पर कुछ लिखने से पूर्व हमें दो कथन आ रहे हैं, पहला तेलुगु दलित स्त्र्ाी रचनाकार चल्लापल्ली स्वरूपारानी का य्ाह मार्मिक कथन- ’सवर्ण तो हमें भोग्य्ाा समझ्ाते हैं, दलित पुरुष भी मात्र्ा सम्पत्ति के रूप में देखते हैं। ऐसे में हम प्रेम करें तो किससे? बेहतर मानवता की उम्मीद में हम अपना प्रेम स्थगित करती हैं।18‘ तो दूसरा महान फ्रैंच नारीवादी लेखिका सिमोन द बोउवार का प्रसिद्ध कथन-‘स्त्री पैदा नहीं होती उसे बना दिया जाता है।19’ एक सामन्य दलित पिछड़ी युवति से बागी बनी फूलन देवी (मैं उन्हें यहाँ जानबूझकर दस्यु या डाकू नहीं कह रहा, क्योंकि शोषण और अपमान के खि़लाफ़ बन्दूक लेकर बीहड़ में कूद जाने वाले व्यक्ति का,े हमारे चंबल में डाकू नहीं बागी कहा जाता है!) के ऊपर यह दोनों ही पंक्तियाँ खरी उतरती हैं। उनके जीवन वृत्त को छोड़ दिया जाए और बात केवल शेखर कपूर निर्देशित इस महान यथार्थवादी फिल्म की ही की जाए तो भी हम पाते हैं कि एक अदद साइकिल और एक गाय के बदले अपने से तिगुनी उम्र के व्यक्ति पुत्तीलाल (आदित्य श्रीवास्तव) से मात्र ग्यारह वर्ष की उम्र में फूलन (सीमा विश्वास)को ब्याह दिया जाता है।
 पुत्तीलाल दलित होने के साथ-साथ पुरुष भी है और वह विवाह के बाद घर आई बालिका वधू के उम्र पूरी होने का इंतजार नहीं करता। ब्याह के साथ बलात्कार करने के कानूनी हक का उपयोग वह क्रूरता के साथ करता है कि फिल्म के पर्दे पर गूँजती बालिका फूलन की मर्माहत चीखें, हमारा कलेजा चीर डालती हैं कि क्या यह वही समाज है, जिसमें हम रहते हैं। क्या यह वही माता-पिता है, जिन्हें हम शिव और गौरी का रूप मानते हैं? क्या यह वही पति है, जिसे हमारे शास्त्र ईश्वर का दर्जा देता हैं? अर्थात नहीं। और आश्चर्य, इसकी भुक्तभोगी फूलन भी यह नहीं मानती। वह ससुराल छोड़कर घर भाग आती है। परन्तु बेटी और बैल में अन्तर न समझने वाले आम भारतीय माता-पिता दान (कन्यादान) करने के बाद फिर नहीं चाहते कि उनकी बेटी ससुराल का खूँटा तोड़कर सदा-सदा के लिए फिर कभी लौटे, फिर भले ही उसक मालिक मारे-पीटे या काट कर बहा दे। लेकिन विद्रोही फूलन रूकने का प्रयास करती है। किन्तु ठाकुरों से भरे-पूरे गाँव में भला एक युवा दलित लड़की कब सुरक्षित रही है। फूलन भी इसका अपवाद रह पातीं। अर्थात नहीं। उस पर भी फब्तियाँ कसी जातीं। छेड़खानी होती। लेकिन फूलन मल्लहिनियाँ की हिम्मत देखो कि वह गाँव के ठाकुर और उस पर सरपंच के बेटे को भी तरजीह नहीं देती। उसकी यही हिम्मत उसे गाँव की पंचायत में ला खड़ा कर देती है। तब जाहिर है कि फैसला उसके पक्ष में नहीं होना था। बेटी पर पिता के सामने ही झूठा इल्जाम लगाकर, उसे गाँव से खदेड़ दिया जाता है।
फूलन के सामने अब सारे रास्ते बंद है। वह अपने चचेरे भाई मय्यादीन (सौरभ शुक्ला) के साथ उसके घर जाती है, लेकिन ससुराल से भागी और मायके से परित्यक्त स्त्री का शरण स्थल फिर कहीं स्थिर नहीं रहता। डाकुओं के साथ रहने के झूँठे लाँछन के बीच पुलिस हिरासत में पुलिस उसकी देह से खेलती है। जमानत करने वाला गाँव ठाकुर उसका उपभोग कर पाता, उससे पहले ही बागी उसे उसके घर ही धर ले जाते हैं। इसके बाद फिर शुरू होता है यातनाओं का लंबा सिलसिला। बागियों के गिरोह में बाबू गूजर (अनिरुद्ध अग्रवाल) उसके साथ बर्बरता के साथ बलात्कार करता है। बाबू पिछड़ी जाति का है किन्तु सवर्णों की भाँति उसके लिए भी फूलन मात्र देह है और उपभोग की वस्तु भी, वह भला इस बहती गंगा में हाथ कैसे न धोता? तब यहाँ फूलन का मददगार होता है विक्रम मल्लाह मस्ताना (निर्मल पाण्डेय), जो उसी की जाति का है। अब वह मात्र सहानुभूति थी या अपनी जाति की स्त्री को अपनी इज्ज़त माानने का गुरूर कि विक्रम मल्लाह आवेश में आकर बाबू गुर्जर की हत्या कर स्वयं गैंग का मुखिया बन जाता है।
एक मुठभेड़ दौरान विक्रम के पैर में लगी गोली लगने पर फूलन, इलाज के लिए उसे शहर (उरई) ले जाती है, जहाँ उनका सहानुभूति से शुरू हुआ प्रेम देह की यात्रा पूरी करता है। विक्रम के साथ फूलन कई डकैतियों में भाग लेती है और ब्याह के नाम पर बचपन में उसके मासूम मन को कुचलने वाले पति से प्रतिशोध लेती फूलन पति पुत्तीलाल को भी पीट-पीटकर लहूलुहान कर देती है। उसके बाद लगता है कि स्थितियाँ कुछ सहज हुईं कि उसी समय पुलिस की गोली से विक्रम मल्लाह मारा जाता है और फूलन को हिरासत में ले लिया जाता है। पुलिस के संरक्षण में उस पर फिर शारीरिक अत्याचार होते हैं। विक्रम मल्लाह से बैर रखने वाला एक ठाकुर श्रीराम (गोविन्द नामदेव) फूलन की जमानत कराता है और उन्हें बेहमई के एक गाँव लेजाकर कैद कर देता है, जहाँ कई दिनों तक फूलन ठाकुरों के सामूहिक बलात्कार का शिकार होती हैं। अधमरी अवस्था में उन्हें निर्वस्त्र कर गाँव के कुँए से पानी लाने को कहा जाता है। पानी भरने से पहले ही उन्हें निर्वस्त्र घसीट कर उनकी नुमाइश की जाती है!!!
इस अमानवीय घृणित कृत्य जो एक स्त्री के सम्पूर्ण वजूद को कुचलने का सदियों से से स्त्री पर आजमाया गया हथियार था। फूलन की जिजीविषा के आगे भोथरा पड़ जाता है। फूलन वहाँ से चलकर कुँआ-नदी नहीं तरतीं। वह अपने चाचा कैलाश के साथ बागी मानसिंह (मनोज बाजपेयी) के पास जाती हैं। मान सिंह विक्रम मल्लाह का पुराना मित्र था। वहाँ से वे दोनों मिलकर बागियों के सरगना बाबा मुस्तकीम (राजेश विवेक) के पास जाते हैं। जो फूलन देवी और मानसिंह को एक नई गैंग बनाने की सलाह देते हैं। गैंग बनती है और वहीं से शुरू हो जाती है उत्पीड़न के खिलाफ एक जंग, जिसमें वे अपने को समर्थ बनाने के लिए डकैतियाँ भी डालते हैं और लोगों की मदद भी करते हैं। इसी बीच बाबा मुस्तकीम को पता चलता है कि ठाकुर श्रीराम एक विवाह के उपलक्ष्य में बेमही गाँव में रुका हुआ है। फूलन और मानसिंह अपनी पूरी गैंग के साथ बेमही गाँव पर हमला करते हैं, लेकिन ठाकुर श्रीराम वहाँ से बच निकलता है। प्रतिशोध की आग में जलती फूलन गाँव के ठाकुरों को एक स्थान पर खड़ाकर उनसे श्रीराम का पूछती है, किन्तु वे उसका कोई सुराग नहीं देते। फूलन पूर्व में अपने ऊपर हुए उस जघन्य कृत्य के समय उपस्थित और सहयोगी रहे उन ठाकुरों को एक कतार में खड़ा करके, गोलियों से भून देती है। (फरवरी 1981)20
जिस फूलन को इतनी घोर यातनाएँ दी गईं, जिसमें पुलिस और प्रशासन बराबर का सहयोगी रहा, वही फूलन के इस कृत्य पर सचेत हो गया। उसे चंबल के बीहड़ में चारो ओर से घेरने की कबायद शुरू हो गई। दिल्ली से स्पेशल फोर्स मँगा लिया गया। पर्याप्त रसद-पानी के अभाव में चारो ओर से घिरी फूलन के गिरोह के एक-एक कर सारे साथी मारे जाने लगे। हताश फूलन देवी को फरवरी 1983 में आत्मसमपर्ण करना पड़ता है। ‘इण्डिया‘ज बैंडिट क्वीन: द ट्रू स्टोरी आॅफ फूलन देवी’ इस नाम के मालसेन के उपन्यास पर आधारित फिल्म ‘बैंडिट क्वीन’ निश्चय ही भारत में दलित स्त्री के शोषण और उत्पीड़न का महान यथार्थवादी आख्यान है।
‘टारगेट’ (1994) सत्यजीत राय के बेटे संदीप राय द्वारा निर्देशित जमींदारी उत्पीड़न पर सत्यजीत राय द्वारा लिखित अंतिम पटकथा पर बनाई गई हिंदी फिल्म है। ज़मींदार किस प्रकार दलितों और किसानों के विरुद्ध शोषण का तंत्र चलाते हैं, इस बात की बारीक चित्रकारी फिल्म में है। प्रमुख कलाकार-ओमपुरी, मोहन अगाशे, चम्पा, ज्ञानेश मुखर्जी और अंजन श्रीवास्तव। ‘हजार चैरासी की माँ’ महाश्वेता देवी के बंग्ला उपन्यास ‘हजार चैरासीर माँ’ पर आधारित गोविंद निहालिनी की यह फिल्म नक्सलवाद की पृष्ठभूमि पर बनाई गई थी। इस फिल्म में जयाबच्चन ने शीर्षक भूमिका में एक आतंकवादी काॅ. भारती की माँ की पीड़ा को सिर्फ भावनात्मक गहराइयों के जरिए उकेर कर ही आश्वस्ति नहीं ढूँड़ी थी अपितु स्थितियों के बौद्धिक तनाव को भी रेशा-रेशा उधेड़ दिया था। मुख्य कलाकर थे अनुपमखेर, सीमा बिश्वास, मिलिंद गुणाजी, भक्ति बर्वे, जाय सेनगुप्ता, नंदिता दास आदि। ‘चाची 420’ (1998) कमल हासन निर्देशित यह फिल्मा एक दलित युवक जय उर्प जयप्रकाश पासवान (कमल हासन) और भारद्वाज लड़की जानकी (तब्बू) के अन्तर्जातीय विवाहोपरांत तलाक के लिए चल रहे मुकदमे के दौरान दलित युवक जय का ससुर दुर्गाप्रसाद भारद्वाज (अमरिश पुरी) की इच्छा के विरुद्ध अपनी पत्नी और बेटी से मिलने की उत्कट जिजीविषा और उसके लिए किए गए तमाम नाटकीय जतन और उनका पुर्नमिलन इस फिल्म का मूल कथानक है। अन्य कलाकार थे जाॅनी वाकर, ओमपुरी, परेश रावल इत्यादि।
 मोहनदास’ (1999) दलितों ने आरक्षण भले ही अपने हजारों साल के शोषण और उत्पीड़न की  क्षतिपूर्ति या किश्त दर किश्त हक अदायगी का माना हो, किन्तु सामन्य वर्ग इस तथ्य को कभी स्वीकार नहीं पाया। उसे यह अपना अधिकार हनन लगता है, जो दलित-आदिवासियों को भीख के रूप में दिया दिया जा रहा है। अपने जातिय दंभ में जीता यह समाज आज भी दलितों की पढ़ाई-लिखाई को पूरी तरह स्वीकार नहीं पाया, फिर भला उसके आधार पर मिली नौकरियाँ उसे कैसे होती? वह साम, दाम, दण्ड भेद से उन्हें हथियाने में जुटा हुआ है। ...कथाकार उदयप्रकाश की कहानी ‘मोहनदास’ पर मजहर कामरान निर्देशित इसी नाम से बनी फिल्म ‘मोहनदास’ एक दलित दस्तकार युवक की सवर्णों द्वारा हक और पहचान छीन लिए जाने की मार्मिक कथा पर आधारित है। मूल कहानी के समान प्रभाव संप्रेषित न कर पाने के कारण, ‘मोहनदास’ असफल रही।  ‘समर’ (1999) यों तो भारत के हृदय स्थल मध्यप्रदेश को शांत प्रदेश कहा जाता है, किन्तु किसी प्रदेश की शांति को केवल उसकी समृद्धि और समरसता से जोड़कर देखना बेमानी होगा। हो सकता है वहाँ का दलित सर्वहारा इतना दबा-कुचला हो कि दबंगों के क्रूर अत्याचारों के चलते अपनी आवाज ही नहीं उठा पाता हो? शिक्षा और समुन्नति से दूर थाने और कोर्ट-कचहरियों भी उनके लिए ठाकुर का कुँआ ही रही हों? ऊपर से नीचे तक दबंगों का साम्राज्य हो? ऐसे में शांति किस चिड़िया का नाम होता है, यह उसका भुक्तभोगी ही समझ सकता है।
श्याम बेनेगल निर्देशित फिल्म ‘समर’ मध्यप्रदेश के बुन्देलखण्ड अंतर्गत सागर जिले के कुल्लू गाँव में 1991 को घटी एक सत्य घटना पर आधारित है। तत्कालीन सागर जिले के कलेक्टर हर्षमंदर की डायरी में लिखे संस्मरणों के आधार पर अशोक मिश्रा द्वारा लिखित इस फिल्म को वर्ष 1999 का सर्वश्रेष्ठ फीचर फिल्म का राष्ट्रीय पुरस्कार भी मिला था। कुल्लू गाँव की इस कहानी में गाँव का एक कुँआ है जिसमें उत्तर की ओर से ब्राह्मण पानी भरते हैं, पूरब की ओर से ठाकुर, पश्चिम की ओर से अहीर, नाई और धोबी पानी भरते हैं। दक्षिण के ओर से दलित पानी भरते हैं। दलितों को पानी भरने तब मिलता है जब सवर्ण पानी भर चुकते हैं। अगर इस बीच कोई दलित पानी भरने पहुँचता तो उसके इस कार्य को अपराध मानकर सवर्ण उन्हें सजा देते थे। दलित नत्थूलाल अहिरवार (रघुवीर यादव) की पत्नी दुलारी बाई (राजेश्वरी) कुँए पर पानी भरने जाती है तो उसे लोधी ठाकुर (रवि झाँकल) की पत्नी सवर्णों के साथ पानी भरने आने की वजह से पीटती है और साथ ही उसके हाथ में कोढ़ भी डायगनोस कर देती है। जब नत्थू दवाई के लिए मुआवजे के लिए ठाकुर के पास जाता है तो ठाकुर उसे डाँटकर भगा देता है।
दलितों की माँग पर सरकार हैंडपम्प खुदवाने के लिए एक अफसर को भेजती है। दलित उसे अपनी बस्ती में खुदवाना चाहते हैं और ठाकुर अपने खेत में। दलितों की बस्ती में पम्प खुदता देख ठाकुर दलितों को मारता है। फिर दलित कम मजदूरी की वजह से खेतों में काम करना बंद कर देते हैं। ठाकुर उन पर तरह-तरह के प्रतिबंध लगवाता है-मसलन, नाई उनके बाल नहीं काटेगा, बरेदी जानवर नहीं चराएगा, तिवारी अपनी आटा चक्की में उनका अनाज नहीं पीसेगा, पटेल उन्हें बीड़ी बनाने के लिए तेंदूपत्ता नहीं देगा-वगैरह।
ठाकुर के प्रतिबंधों से तंग आकर नत्थू अहिरवार बीड़ी बनाने सागर चला जाता है। वहाँ बीड़ी फैक्टरी का मालिक पैसे देकर अपने भाई के खिलाफ हरिजन-एक्ट में नत्थू से रिर्पोट दर्ज़ करवा देता है और नत्थू दो बलवान भाईयों की लड़ाई में फँस जाता है। एक दिन मौका मिलते ही वह गाँव भाग आता है। घर पर वह दुलारी को कुछ पैसा देता है। उनके घर खुशियाँ लौटती हैं। नत्थू इस खुशी के अवसर पर मंदिर में झंडा चढ़ाने जाता है। पुजारी उसे मारता है। मंदिर घुसने को अपराध माना जाता है और ठाकुर उसकी सजा तय करने के लिए पंचायत बैठाते है। पंचायत के निर्णय पर ठाकुर नत्थू के सिर पर पेशाब करता है।21
1991 में घटी इस घटना पर फिल्म बनाने मुंबई से एक फिल्म युनिट कुल्लू गांव आती है। कार्तिक (रजत कपूर) उस फिल्म के निर्देशक होते हैं। मुरली (रवि झाँकल) लोधी ठाकुर की भूमिका निभाते हैं, जबकि फिल्म के नायक किशोर (किशोर कदम) नत्थूलाल अहिरवार की भूमिका में होते हैं। नायिका दुलारी की भूमिका निभाने का जिम्मा उमा (राजेश्वरी सचदेव) पर होता है जबकि दलित नत्थूलाल की भूमिका निभाने वाला किशोर मूल रूप से दलित ही होता है। नायिका उमा ब्राह्मण है। असल फिल्म तब शुरू होती है, जब जाति विद्वेष पर फिल्म बनाने मुंबई जैसे महानगर से आई ‘सो-काल्ड’ बुद्धिजीवी कलाकारों की वह फिल्म यूनिट खुुद जाति के भ्रमजाल में या कहिए बदमाशी में फँस जाती है।
पम्प खुदवाते हुए दलितों को ठाकुर आकर पीटता है। निर्देशक, फिल्मी नत्थू (किशोर कदम) से कहता है, इस रोल को करने में तुम्हें तो कोई प्राब्लम नहीं होनी चाहिए तुम तो दलित ही हो...। फिर किशोर तुम्हारी बाॅडी से ‘दलित बाॅडी लेंग्वेज’ भी निकल रही है...। पूरी फिल्म-यूनिट भी किशोर से कहती है कि तुम्हें तो दलित का रोल बेहतर करना ही चाहिए क्योंकि तुम तो दलित ही हो। किशोर हैरान होता है कि यह ‘दलित बाॅडी लेंग्वेज’ कैसी होती है? दूसरे दृश्य में संवाद याद कर रहे किशोर से असली नत्थू कहता है, भैया किशोर तुम ने ये पहले काहे नहीं बताई कि तुम हमौरों कि जात वाले हो...आओ हमार घर आओ, तुमाई भौजी ने गुड़ के लडुआ बनाए हैं...तकन खा जाते...। किशोर नत्थू को डांटकर भगाता है। जाते-जाते नत्थू कहता है, भैया आप ही दलित का सर्पोट नहीं करोगे तब दूसरे तो दुत्कारेंगे ही...।
एक और दृश्य में यूनिट बस से सागर लौट रही होती है। मुरली कहता है, समय बिताने के लिए करना है कुछ काम, शुरू करो अंताक्षरी लेकर प्रभु का नाम...। सिया पति रामचंन्द्र की जै। पवन सुत हनुमान की जै। सारे दलितजनों कह जै...। किशोर खीजकर बस की पीछे वाली सीट पर जाकर बैठ जाता है। उमा (राजेश्वरी सचदेव) उसके पास आकर बैठती है, मैं यहाँ बैठ सकती हूँ आपको कोई एतराज तो नहीं? किशोर कहता है कि अगर आपको नही ंतो मुझे क्या हो सकता है...? उमा कहती है कि आप गलत समझ रहे हैं कि सारी यूनिट आपको अलग मानती है...। किशोर कहता है कि बिल्कुल समझती है। होटल के डयरेक्टर के लिए एसी कमरा। हीरोइन के लिए एसी कमरा। विलेन के लिए एसी कमरा और मुझे हीरो के लिए आॅर्डिनरी रूम...। सिर्फ इसलिए क्योंकि मैं दलित हूँ...। गर्मी में सो जाऊँगा...।
नहीं ऐसी बात नहीं है। उस होटल में सिर्फ तीन एसी रूम हैं। आप क्योंकि सबसे बाद में आए थे इसलिए एसी रूम आपको नहीं मिला...। उमा बात स्पष्ट करती है, लेकिन किशोर उसे अपने यानि दलितों के खिलाफ षड़यंत्र मानता है।
फिल्म में छोटे-छोटे प्रसंगों के जरिए गाँव और शहर में अंदर तक घुसी जातिवाद की शैतानी को दिखाया गया है। गाँव की दूकान का दृश्य फिल्माने निर्देशक दूकान पर जाते हैं। तभी दो महिलाएँ आकर एक पाव गुड़ और चाय पत्ती माँगती हैं। दूकानदार उन्हें सामान तो फेंककर देता है लेकिन पैसे हाथ से लेता है। निर्देशक पूछता है-ये आप पैकेट फेंककर क्यों दे रहे हैं? तो दूकानदार कहता है कि यहाँ ऐसा होता हैै साहब। अहिरवारों को सौदा हाथ में नहीं दिया जाता है...।
-लेकिन जब उन्होंने पैसे दिए तो आपने हाथ से ही ले लिए...।
-लक्ष्मी अपवित्र नहीं होत है...।
तभी फिल्म का हीरो किशोर आकर बीड़ी माँगता है। दूकानदार उसे इज्जत से बीड़ी देता है। निर्देशक यह हमारे हीरो साहब है, किशोर...। इन्हें भी हाथ से बीड़ी दे रहे हैं ना...। अरे ये भी दलित हैं...।
-क्या बात करत हो साहब। सहर के हीरो दलित तो हो ही नहीं सकत हैं....।
मतलब यह कि हर जगह दलित को बार-बार कोंच-कोंचकर यह अहसास कराया जाता है कि वह दलित है, दलित है, दलित है। और यह नश्तर चुभो रहे होते हैं, समाज के ऐसे लोग, जिन्हें कलाकार, निर्देशक, लेखक वगैरह कहा जाता है।22
इसके बाद का मुख्य दृश्य है नत्थू का सागर से आने के बाद मंदिर में झंडा चढ़ाने के ऐवज में ठाकुर द्वार नत्थू के सिर पर पेशाब करने का। इस दृश्य को फिल्माने में निर्देशक को दिक्कत यह आती है कि किशोर मुरली से अपने सिर पर पेशाब नहीं करवाने पर अड़ जाता है। वह दृश्य बदलने के लिए जोर देता है। जबकि यूनिट के और लोग इसे करवाना चाहते हैं। विकल्पों पर भी बात होती है, कुछ जमता नहीं। इस बीच असली नत्थू आकर निर्देशक से कहता है-साहब, आपका दलित अभिनेता यह दृश्य नहीं करता, तो मैं कर देता हूँ। मेरे सर पर तो सचमुच का मूता गया था-हँसी और आँसू साथ-साथ आते हैं, इस मासूमियत की वेदना और संस्कार की जड़ता पर। हारकर नत्थू के सिर पर पेशाब वाला दृश्य न फिल्माकर उसके बाद वाला दृश्य फिल्माया जाता है। जब ठाकुर नत्थू के सिर पर पेशाब कर देता है। तब नत्थू और उसकी पत्नी रोते हुए आते हैं। नत्थू मरने के लिए भागता है और दुलारी उसे रोकती है। शाट खत्म होते ही असली नत्थू (रघुवीर यादव) कहता है, जब चमक सिंह (ठाकुर) ने हमारे मूड़ पे मूतो हतो तो हमने मरने-वरने की कौनौ बात नहीं कही हती...। ऐ वाली घटना से तो हमें एक बल मिलो हतो...। गाँव के लोग उस घटना के बाद नत्थू को सलाह देते हैं कि वह इस घटना को भूल जाए। नत्थू भड़क उठता है, भूल जाएँ। चूतिया हैं। ठाकुर ने हमारे मूड़ पे नईं सारी दुनिया के मूड़ पर मूतो है...।
डीआईजी सागर (सदाशिव अमरापुरकर) फिल्म यूनिट को अपने घर लंच पर बुलाते हैं। जातिवाद पर बहुत सारी चर्चाओं के बाद बीच में ही डीआईजी साहब का बच्चा रोता हुआ आता है। कारण पूछने पर पता चलता है कि उस बच्चे को स्कूल में चमार कहा था। इस संबोधन से बच्चा अत्यधिक दुखी था। डीआईजी उससे कहते हैं, ये बताओ अगर तुम्हें किसी ने ब्राह्मण कहा होता तो तुम्हें दुख होता क्या? किसी ने तुम्हें ठाकुर कहा होता तो भी तुम रोते क्या? फिर चमार कहने पर क्यों रो रहे हो? आदमी की जाति उसके कर्म से बनती है मेरे पिता मामूली दलित थे, पर आज मैं क्या हूँ, डीआईजी हूँ...। तो सब कर्मों से बनता है...।
‘समर’ दलित विमर्श पर एक बहुकोणीय फिल्म है। खुद एक फिल्म निर्देशक होकर फिल्म वालों पर मारक व्यंग्य केवल श्याम बेनेगल की फिल्म में ही संभव था। फिल्म समाप्त कर यूनिट जब गाँव से जा रही होती है तो वे कितने बेमन से माला पहनते हैं उस बेचारे गाँव वाले से। यानि जुड़ाव महज एक्टिंग (में जान लाने) भर का था। सत्यदेव त्रिपाठी के शब्दों में कहें तो-‘यही दुनिया है। कला की। ग्लैमर की। यही रिश्ता है स्वतांत्र्योत्तर जनतंत्र का गाँव के प्रति। वह पिकनिक के लिए आता है। दलित भी आजकल प्रोजेक्ट के लिए, सेमीनार के लिए, फीचर के लिए यानि हर तरह से कैरियर के उत्थान के लिए याद आता रहा है और अब फिल्म के लिए याद आ गया।23’
‘बवंडर’ (2000) पिछड़ों द्वारा दलित उत्पीड़न की एक झलक जो हम फिल्म ‘बैंडिंट क्वीन’ में देखतें है, उसका विस्तृत रूप ‘बबंडर’ में देखने को मिलता हैं। राजस्थान के प्रसिद्ध भँवरीदेवी बलात्कार कांड पर बनी जगमोहन मूँदड़ा निर्देशित इस फिल्म में भी संयोग से बलात्कारी गुर्जर जैसी पिछड़ी जाति के ही कुछ लोग थे। राजेन्द्र यादव ने ‘हंस’ अगस्त 2004 (दलित विशेषांक) के संपादकीय में एक स्थान पर लिखा है-‘दलितों से कटा और सवर्णों से उपेक्षित पिछड़े वर्ग का न तो कोई अपना इतिहास है और न आदर्श, वे सवर्णों के ही इतिहास और महापुरुषों को अपना आदर्श मानते हैं और उन्हीं से अपनी प्रेरणाएँ ग्रहण करते हैं।’ ऐसे में संभव है कि सवर्णों की भांति पिछड़े भी दलित उत्पीड़न में भागीदार हैं/या बनते आये हैं। स्थान और नामों के बीच मामूली से परिवर्तन के साथ बनी फिल्म ‘बबंडर’ की कहानी शुरू होती है एक विदेशी पत्रकार एमी (लैला रोज़ेज़) जो राजस्थान के महल, मन्दिर और महाराजाओं पर लिखने के बजाय भँवरीदेवी पर किताब लिखने के लिए अपने मित्र और दुभाषिए (राहुल खन्ना) के साथ, साँवरी (नंदिता दास) के गाँव धावड़ी आती है। जाति से कुम्हार साँवरी देवी का पति सोहन (रघुवीर यादव) एक रिक्शा चालक है और उनकी एक लड़की है कमली। रवि और एमी के धावड़ी पहुँचने पर साँवरी उन्हें पाँच वर्ष पूर्व अपने ऊपर हुए जघन्य अत्याचार की मर्मव्यथा सुनाती है।
चार साल की अबोध उम्र में साँवरी का सोहन के साथ ब्याह हुआ था। अनपढ़ और पूरी तरह परंपरावादी सड़क मजदूर साँवरी का एक प्रमुख गुण अन्याय को सहन न करना भी था, फिर चाहे वह पनघट पर छेड़ने वाला गाँव का गूजर हो या कम मजूरी देने वाला ठेकेदार। साँवरी विरोध किए बगैर चुप न रहती । उसके जीवन में एकाएक तब मोड़ आता है जब पड़ोस की एक बालिका विधवा हो जाती है। वह सामाजिक कार्यकर्ता शोभा (दीप्ति नवल) के संपर्क ढाई सौ रुपए माह की पगार पर ‘साथिन’ संस्था की ज़मीनी कार्यकर्ता बन जाती है। ‘साथिन’ संस्था का कार्य तमाम सामाजिक बुराईयों के साथ-साथ स्त्री शिक्षा और बाल विवाह के विरूद्ध लोगों में जन-जागरुकता पैदा करना है। साँवरी इस काम को बखूबी करती अपने साहस की हद तक चली जाती है। वह गाँव में अखतीज के दिन गुर्जर समुदाय के यहाँ सम्पन्न हो रहे ‘बाल विवाह’ को भी पुलिस और ‘साथिन’ संस्था की मदद से रुकवाती है। एक नीच जाति की लुगाई गुर्जरों के शुभकार्य में विघ्न डाले, यह भला उन्हें कैसे स्वीकार होता। फलस्वरूप गाँव के पाँच गुर्जर मिलकर निकल पड़ते हैं साँवरी और उसके पति को सबक सिखाने। वे सोहन को बंधक बनाकर, बारी-बारी से असहाय साँवरीदेवी का बलात्कार करते हैं।
एक स्त्री का वज़ूद कुचलने के लिए उसे बेइज्जत करना अपना हथियार मानने वाली पुरुष प्रवृत्ति, ‘साथिन’ संस्था के माध्यम से नई दृष्टि पाई साँवरी के आगे मंद पड़ जाती है। सोहन और साँवरी मिलकर पुलिस स्टेशन रिर्पोट लिखवाने जाते हैं । लेकिन दबंगों के प्रभाव में रहने वाली पुलिस उनकी एफ. आई. आर दर्ज़ करने से माना कर देती है। मदद के लिए सामने आती हैं साथिन शोभा। वह साँवरी का मेडीकल करवाने उन्हें अस्पताल ले जाती हैं, किन्तु बगैर कोर्ट आदेश के डाॅक्टर भी साँवरी का मेडिकल करने से मना कर देते हंै। शोभा मदद लेकर अदालत का आदेश निकलवाकर साँवरी का जयपुर से मेडीकल सार्टिफिकेट बनवाती हैं और इस प्रकार घटना के दो दिन बाद उनकी रिर्पोट लिखी जाती है।
रिपोर्ट लिखे जाने के बावजूद बलात्कारियों को गिरफ्तार नहीं किया जाता। वे साँवरी के साथ किए रेप के अनुभव सुनाते खुले आम घूमते हैं। साँवरी के मामले पर राष्ट्र का व्यापक ध्यान जाता है और तब स्वयं प्रधानमंत्री इस केस की जाँच सी.बी.आई. से करवाने का आदेश देते हैं। एक महिला संगठन भी साँवरी की मदद करने आगे आता है। परिणाम स्वरूप आरोपी गिरफ्तार भी होते हैं, किन्तु एक स्थानीय विधायक धनराज मीणा (गोविंद नामदेव) और एक पुरोहित नामक वकील के प्रभाववश उनका बाल भी बाँका नहीं होता। एक गुर्जर वकील (गुलशन ग्रोवर) साँवरी के बचाव में आता भी है, किन्तु अपनी जाति के दबावों और आरोपों के चलते वह भी उन्हीं के पक्ष में चला जाता है। न्यायधीश केस को लम्बे समय के टाल देते हैं और केस का फैसला साँवरी के विरुद्ध चला जाता है। अक्षम पुलिस, भृष्ट न्याय प्रणाली और गाँव-समाज के असहयोग करने पर भी न्याय पाने के लिए साँवरी देवी  फिर आगे बढ़ती हैं, उनकी वह लड़ाई आज भी जारी है।24 राजस्थान के सांमतीय और घोर जातिवादी समाज की जड़ें खोदती फिल्म ‘बबंडर’ में ध्यानाकर्षण योग्य पात्र विधायक धनराज मीणा भी है। कहने को वह आदिवासी है, किन्तु पक्ष निबल का नहीं सबल का लेता है। क्या इससे हमें यह नहीं सीखना चाहिए कि सत्ता पाते ही व्यक्ति का वर्ण और वर्ग दोनों बदल जाते हैं। वह न दलित रहता है न सवर्ण रह जाता है तो मात्र शासक बनकर, जिसका ध्येय होता है शासन करना और उस व्यवस्था में बने रहना, फिर भले ही उसके लिए उसे अपनो की ही बलि क्यों न चढ़ानी पड़े। फिल्म में अन्य कलाकार थे-इशरत अली, यशपाल शर्मा, ललित तिवारी, रवि झाँकल, मोहन भंण्डारी इत्यादि।
‘लाल सलाम’ रूपी (नंदिता दास) और डाॅ. कन्ना (शरद कपूर) के माध्यम से आदिवासी जनजातियों की संस्कृति और उनकी जीवनशैली (मुख्तः विवाहपूर्व मुक्त यौन सम्बन्ध) को आधार बनाकर लिखी गई गगन बिहारी बोराटे निर्देशित फिल्म ‘लाल सलाम’ में आदिवासियों के मजबूरी मे नक्सलवादी बनने की कथा भी एक अंग के रूप में आई है। स्थानीय दंबग जातियो, पुलिस और प्रशासन ने उनके जीवन के रास्ते किस तरह बंद कर रखे हैं कि वे पुलिस की गोली से मारे जाने का सच जानते हुए भी नक्सलवाद की राह पकड़ने को मजबूर हैं। अन्य कलाकारों के रूप में मकरंद देश पांडे, विजय राज, राजपाल यादव, अनंत जोग, अखिलेन्द्र मिश्रा, सयाजी शिंदे इत्यादि। ‘डाॅ. बाबासाहेब अंबेडकर (2000) ममूटी और सोनाली कुलकर्णी की मुख्य भूमिकाओं वाली जब्बार पटेल निर्देशित एवं कल्याण मंत्रालय भारत सरकार के सहयोग से बनी यह फिल्म यों तो 1989 में विजय पवार निर्देशित फिल्म ‘भीम गर्जना’ से कई मामलों में भव्य और उत्कृष्ट है, किन्तु वह बाबा साहेब के जीवन की कई तल्ख सच्चाइयाँ और उनके विद्रोही व्यक्तित्व को पूर्ण रूपेण उभारने में कोताही बरती गई है। कांग्रेस के शासन में बनी इस फिल्म की अन्दरूनी सच्चाई की एक झलक हम ‘डाॅ. बाबासाहेब अंबेडकर’ फिल्म स्क्रिप्ट निर्माण समिति के चेयरमैन रहे वयोवृद्ध कांग्रेसी दलित नेता/साहित्यकार माता प्रसाद की आत्मकथा ‘झोंपड़ी से राजभवन’ में पाते हैं। उसमें उन्होंने बाबा साहेब के परिजनों की दखलंदाजियों के साथ-साथ सरकारी हस्तक्षेप की बात करते हुए, 31 दिसंबर 1995 के जनसŸाा का हवाला कुछ इस प्रकार दिया  है-‘बंबई, 30 दिसंबर। डाॅ. बाबा साहेब अंबेडकर के जीवन पर फिल्म से जुड़े सारे विवाद सुलझ गए हैं। अब फिल्म में बाबा साहेब को गांधी के विरोधी के रूप में नहीं दिखाया जाएगा। फिल्म में डाॅ. अंबेडकर के जीवन के उन प्रसंगों पर जोर दिया जाएगा, जिनसे उनके और गांधी के बेहतर संबधों का इजहार होता है। फिल्म में उनके और जगजीवन राम के प्रेमपूर्ण संबंध दिखाए जाएंगे और पूरी फिल्म का स्वरूप ऐसा होगा कि डाॅ. अम्बेडकर का समन्वयवादी स्वरूप उभरे।25’ इस तथ्य से हम अंदाज लगा सकते हैं कि फिल्म सरकारी सहयोग से बनने वाली फिल्में महान पुरुषों के व्यक्तित्व का सही आकलन न कर पार्टी के एजेंडे के अनुसार गढ़ी जाती हैं। बाबा साहब पर बनी यह फिल्म भी इसका अपवाद नहीं है।
 ‘लज्जा’ (2001) भारतीय समाज में नारी दुर्दशा को केन्द्र में रखकर बनी राजकुमार संतोषी निर्देशित यह फिल्म बताती है कि स्त्री चाहे विदेश में सर्विस कर रहे एक एन.आर. आई की पत्नी हो या किसी पिछड़े इलाके की दलित महिला, वह हर जगह उपेक्षित और अपमानित है। वैदेही, जानकी, मैथिली और रामदुलारी चार स्त्रियाँ जो स्त्रियों के भारतीय आदर्श सीता के ही अन्य रूप हैं के आधार पर चार आधुनिक स्त्रियों वैदेही (मनीषा कोइराला), जानकी (माधुरी दक्षित), मैथिली (महिमा चैधरी) और रामदुलारी (रेखा) के शोषण, उत्पीड़न और विद्रोह की कथा कहती इस फिल्म में दलित बागी ‘फुलवा’ की भूमिका में अजय देवगन की भूमिका भी सराहनीय थी। ‘लगान’ (2001) यों आशुतोष गोवारीकर निर्देशित और आमिर खान और ग्रेसी सिंह की मुख्य भूमिकाओं वाली यह फिल्म काल्पनिक इतिहास के माध्यम से लोगों के क्रिकेट जुनून को भुनाने का सफल प्रयास था, किन्तु उसके बीच में दलित पात्र कचरा (आदित्य लखिया) की भूमिका को भी इस परिपेक्ष्य में देखा जा सकता है कि दलित भले ही ब्राह्मणवाद का शिकार रहा हो, किन्तु वक्त पड़ने पर मिली छूटों में उन्होंने सवर्णों के कंधे से कंधा मिलाकर अपनी हिम्मत और बहादुरी का भी परिचय दिया है।
‘मातृभूमि’ (2003) ‘नेशन विदाउट वूमन’ मनीष झा निर्देशित यह फिल्म भी समाज में स्त्री उत्पीड़न की मार्मिक दास्तान बयान करती है। कन्या भ्रूण हत्या को केन्द्र में रखकर लिखी गई इस कहानी का प्रारंभ बेटे की इच्छा के चलते एक पिता द्वारा अपनी नवजात बेटी को दूध के टब में डालकर मार डालने के कई साल बाद (सन् 2050) की परस्थितियों का वर्णन है, जब हमारे समाज में स्त्रियाँ की संख्या न्यून हो जाएगी। फिल्म में बिहार का एक पुरूष बाहुल्य गाँव दिखया गया है, जिसमें हिंसा और पाशविकता उनकी पृवŸिा बन चुकी है। गाँव के गँवार और आक्रमक युवा; समलैंगिक और अप्राकृतिक यौन संबंधों के बाबजूद, पत्नियों के लिए बेताव हैं। कुछ लोग गलत फायदा भी उठाते हुए लड़की के भेष में लड़के को दुल्हन बनाकर, मोटी रकम ऐंठ ले जाते हैं।
गाँव में पाँच लड़कों के धनी पिता रामचरन (सुधीर पाण्डेय) अपने कुल-पुरोहित जगन्नाथ (पीयूष मिश्रा) के माध्यम से, कल्कि (ट्यूलिप जोशी) नामक युवति को पाँच लाख देकर ब्याह/खरीद लाते हैं! रामचरन कल्कि को अपने पाँचों बेटों की ही बहू नहीं बनाता, बल्कि क्रमानुसार सप्ताह में दो दिन वह भी कल्कि के साथ हमबिस्तर होता है!! इस उत्पीड़न उलट राम चरन का छोटा बेटा सूरज (सुशांत सिंह) ही कल्कि से सम्मान और कोमलता का भाव रखता है। स्वाभाविक है कि इससे कल्कि का झुकाव सूरज के प्रति बढ़ जाता है, जिससे सूरज के पिता और बड़े भाईयों को जलन होती है। वे कल्कि की उपेक्षा और सूरज का प्रेम सह नहीं पाते और सूरज की हत्या कर देते हैं!!! इस संबंध में कल्कि अपने पिता को पत्र लिखती है। खबर लगने पर घर आया पिता, विरोध के बजाय कल्कि के ससुर को भी उसका एक पति मानते हुए; एक लाख रुपए और ऐंठ ले जाता है!!! भयभीत कल्कि अपने घरेलू दलित नौकर रघु (विनम्र पंचारिया) के साथ, घर से भागने का प्रयास करती है। घर से भागकर वे किसी सुरक्षित स्थान पर पहुँच पाते, उससे पहले ही कल्कि के पाँचों पति रास्ते में रघु को घेरकर निर्मम हत्या कर देते हैं। रास्ते से पकड़कर लाई गई कल्कि को घर नहीं ले जाया जाता, बल्कि गौशाला में गाय की रस्सी से बाँधकर डाल दिया जाता है। एक दलित के साथ भागने के कारण अपवित्र हुई कल्कि कई दिनों-महीनों गौशाला में बलात्कार का शिकार होती रहती है। उसे यह सजा उसके अपने कहे जाने तथाकथित पाँचों पति ही नहीं देते, बल्कि रघु की हत्या के बाद सकते में आए रघु के दलित भाई-बंधु भी देते हैं!!! इन क्रमागत बलात्कारों के बीच कल्कि गर्भवती हो जाती है और इस बात को लेकर विवाद छिड़ता है कि कल्कि से होने वाला बच्चा किसका है। दलित सवर्णों में दंगा होता है और इस दंगे में कोई नहीं बचता, सवर्ण न दलित। शेष बचती है कल्कि, उसकी नवजात बच्ची और सुक्खा (अमीन गाजी) नामक दलित युवक जो रघु के बाद उस घर में नौकर के रूप में आया था।...बड़े शोध और साहस के साथ बनाई गई यह फिल्म स्त्री के प्रति दोयम दर्जे का व्यवहार करने वाले हर-एक वर्ग की खिचाई ही नहीं करती, अपितु यह अपील भी करती है कि स्त्री के बगैर समाज में भंयकर अराजकता और हिंसा भी फैल जाएगी, जो अंततः विनाश का ही कारण बनेगी। अन्य कलाकार थे आदित्य श्रीवास्तव, पीयूष मिश्रा, मुकेश भट्ट, पंकज झा, मुकेश कुमार इत्यादि।
‘एकलव्य: द राॅयल गार्ड’ (2005) विधु विनोद चैपड़ा निर्देशित और अमिताभ बच्चन सैफ अली खान, संजय दत्त, जैकी श्राफ, शर्मीला टैगोर और विद्या बालन की मुख्य भूमिकाओं वाली यह फिल्म पौराणिक पात्र ‘एकलव्य’ को नए संदर्भों में इस प्रश्न के साथ प्रस्तुत करती है कि क्या अपने और अपने समाज के स्वार्थों का बलिदान कर अपना अँगूठा (शक्ति) सदैव के लिए किसी को समर्पित कर देना उचित होगा? राजस्थान की राजपूती पृष्ठभूमि में एक दलित परिवार है जो नौ पीढ़ियों से एक राजपरिवार के संरक्षक का कार्य करता आ रहा है। उसी परिवार का एक किंवदंती पुरुष है एकलव्य (अमिताभ बच्चन) है, जो तमाम अन्तद्र्वन्द्वों से गुजरकर अंत में पौराणिक एकलव्य को गलत सिद्ध करता, अंत अपने पुत्र राज्यवर्धन (सैफअली खान) की रक्षा करने के रूप में अगूँठा दान करने से इंकार कर देता है। दलित पुलिस इंसपेक्टर पन्नालाल चमार की भूमिका में सजंय दत्त का रोल भी काफी विद्रोही बन पड़ा है।  
‘धर्म’ (2007) भावना तलवार निर्देशित और पकंज कपूर एवं सुप्रिया पाठक अभिनीत यह फिल्म, हिन्दू कट्टरता के बीच साम्प्रदायिक सद्भाव और मानवतावाद की खोज का एक अभिनव प्रयास है। एक उच्च प्रतिष्ठित सनातनी हिन्दू पंडित चतुर्वेदी (पकंज कपूर) का हृदय परिर्वतन तब होता है, जब वह एक मुस्लिम बच्चे के संपर्क में आता है। फिल्म में हिन्दू-मुस्लिम साम्प्रदायिकता के बीच यह भी दिखाया गया है कि जिस मानवतावाद के मार्ग पर एक धार्मिक हिन्दू बड़े गहरे अन्तद्र्वन्द्व के बाद खड़ा हो पाता है; उस मार्ग पर शास्त्र और स्मृतियों के कोढ़ से दूर दलित एवं स्त्रियाँ, पहले से ही सहज होकर चले आ रहे हैं। फिल्म में पुरोहित का हृदय परिवर्तन वेद-पुराणों के बीच किंचित मात्रा में मिले मानवतावाद के साथ-साथ, जात-पाँत विरोधी कबीर पंथी दलित साधु और अपनी पत्नी के प्रभाववश भी दिखाया गया है।
 ‘वैलकम टू सज्जन पुर’ (2008) एक षड्यंत्र के तहत और कुछ वास्तविक अर्थों में अभी तक की अधिकांश फिल्मों में, पिछड़ों को दलित विरोधी और उत्पीड़क ही चित्रित किया गया है, किन्तु यह पहला अवसर है जब श्याम बेनेगल की यह महत्वपूर्ण फिल्म दबे रूप में ही सही, दलितों के प्रति पिछड़ों का झुकाव प्रदर्शित करती है। गाँव की अहिरवार (दलित) लड़की का ठाकुर (यशपाल शर्मा) के लड़के द्वार बलात्कार और ठकुराइन द्वारा लड़की हत्या के केस में फँसे होने के परिपेक्ष्य में, नायक आँख चढ़ाकर व्यंग्य में लड़की के बदचलन होने की बात नकारता है, तब उसकी दलित पक्षधरता स्वयं सिद्ध हो जाती है। दूसरे इस फिल्म का एक अन्य एक मजबूत पक्ष दलित, आदिवासी और स्त्रियों की भाँति भारत और संभवतः हर जगह उपेक्षित ‘किन्नर’ हैं, जो हाशिए पर पड़े अन्य समाजों की भाँति अपने नागरिक अधिकारों के प्रति सचेत ही नहीं, चुनाव जीतकर सŸाा भी प्राप्त करते हैं। ‘चमकू’ (2008) कबीर कौशिक निर्देशित और बाॅबी देओल और प्रियंका चैपड़ा मुख्य भूमिकावाली इस फिल्म में एक नक्सली युवक चमकू के हिंसा के विरुद्ध हृदय परिवर्तन की कहानी है।
‘रेड अलर्ट: द वार विदइन (2009)  अनंत नारायण महादेवन निर्देशित और सुनील शेट्टी एवं समीरा रेड्डी अभिनीत यह फिल्म नरसिंहा नाम एक ऐसे आदिवासी युवक की सच्ची कहानी है, जो जंगल में आने-जाने वाले लोगों को खाना बनाकर खिलाता था। एक दिन पुलिस और नक्सलियों की मुठभेड़ में वह नक्सलियों के हाथ लग जाता है। वह न चाहते हुए भी माओवादियों के साथ हिंसात्मक कार्यवाही करने को बेवश है। अन्त में तंग आकर वह गैंग के मुखिया की हत्या कर वहाँ से भाग आता है। अन्य कलाकार थे सीमा विश्वास, भाग्यश्री, नसीरुद्दीन शाह, विनोद खन्ना, आशीष विद्यार्थी, गुलशन ग्रोवर इत्यादि।
 ‘पीपली लाइव’ (2010) अनुषा रिज़वी और महमूद फारुकी निर्देशित यह फिल्म क़र्ज़ में डूबे एक दलित किसान के आत्महत्या करने के निर्णय पर मीडिया और प्रशासन द्वारा हुल्लड़ मचाये जाने से तंग घर उसके घर से गायब हो जाने को लेकर एक व्यंग्यात्मक फिल्म है। ‘रावण’ (2010) मणिरत्नम दक्षिण के फिल्मकार हैं और दक्षिण में रावण को उत्तर की भाँति प्रतिनायक के रूप में नहीं देखा जाता है। उसने सीता का अपहरण काम वासना से प्रेरित न होकर अपनी बहन के अपमान के प्रतिशोध स्वरूप किया था। वह अंत तक सीता के साथ दुष्कृत्य नहीं करता, किन्तु राम फिर भी सीता के चरित्र पर संदेह करते हैं। नक्सलवाद की पृष्ठभूमि पर बनी इस फिल्म में रावण की भूमिका में जहाँ अभिषेक बच्चन थे तो सीता की भूमिका में उनकी पत्नी ऐश्वर्या राय। ‘आक्रोश’ (2010) मूलतः आॅनर किलिंग की एक सत्य घटना पर आधारित इस फिल्म में बिहार की घोर जातिवादी पृष्ठभूमि, सांमतीय अत्याचार, और पुलिसिया तानाशाही के बीच, एक सवर्ण युवती गीता (बिपाशा बसुु) और दलित पुलिस अफसर प्रताप कुमार के प्रेम, संघर्ष और पुर्नमिलन की सार्थक कहानी भी समानंतर दिशा में साथ-साथ चलती है। ‘आरक्षण’ (2011) प्रकाश झा निर्देशित और अमिताभ बच्चन, सैफ अली खान, मनोज बाजपेयी, दीपिका पादुकोण और प्रतीक बब्बर अभिनीत यह फिल्म ‘आरक्षण’ जैसे संवेदनशील मुद््दे को विभिन्न कोणों से दिखाती  मध्यांतर के बाद बगैर किसी निष्कर्ष पहुँचे, निजी कोचिंग प्रणाली की ओर मुड़ जाती है। कहानी म.प्र. की राजधानी भोपाल के एक काॅलेज में साथ-साथ पढ़ रहे दो घनिष्ट दलित-सवर्ण मित्र दीपक (सैफ अली खान) और सिद्धार्थ (प्रतीक बब्बर) की है। आरक्षण जैसे विवादास्पद मुद्दे पर सुप्रीमकोर्ट का निर्णय सार्वजनिक होता है और उनके बीच दरार पैदा हो जाती है और वे अपने-अपने जातिय हितों को लेकर आमने-सामने होते हैं। तमाम उतार चढ़ाव और अपनी-अपनी जातियों के प्रतिनिधियों, नेताओं और प्रशासनिक अधिकारियों की काली करतूतों के बीच अंत में समीप होते हैं डाॅ. प्रभाकर आनंद (अमिताभ बच्चन) के प्रभाववश, जो बगैर किसी भेदभाव के हर वर्ग, जाति और धर्म के विद्यार्थी को बेहतर शिक्षा मुहैया कराने को कृतसंकल्प हैं। ‘जयभीम काॅमरेड’ (2011) आनंद पटवर्धन निर्देशित यह बहुप्रशंसित फिल्म 1997 में मुम्बई की एक दलित बस्ती मेें बाबा साहेब आम्बेडकर की मूर्ति के विरूपित करने के विरोध में खड़े हुए 10 दलित युवकों की पुलिस ने गोली मारकर हत्या कर दी थी। पुलिस की इस नृशंसता और प्रशासन की चुप्पी से आहत वहाँ के एक वामपंथी दलित कवि विलास घोगड़े विरोध स्वरूप स्वयं को गोली मारकर आत्महत्या कर ली थी। फिल्म मरे हुए विलास के सीने पर जयभीम लिखा नीला झंडा मिलना इस बात का प्रतीक है कि सवर्ण बाहुल्य वामपंथ में दलित और जाति का मुद्दा आज भी उपेक्षित है और हारकर दलितों को अंत में अम्बेडकरी विचारधारा की ओर लौटने को बेवश हैं। ‘षूद्र: द राइजिंग’ (2012) अपने नाम अनुकूल यह फिल्म हिन्दी सिनेमा की एक शताब्दी बाद दलितों के फिल्म निर्माण के क्षेत्र में आगमन के रूप में कोट की जा सकती है। भारतरत्न बाबा साहेब अम्बेडकर को समर्पित और संजीव जायसवाल निर्देशित यह फिल्म प्राचीन भारत में आर्यो के आगमन के बाद शूद्रो पर लादी गई तमाम अशक्ताओं और उनके आधार पर सदियों चले जघन्य अत्याचारों की एक लोमहर्षक श्रंखला प्रस्तुत करती है। भारतीय लोकतंत्र का चैथा खंभा कहा जाने वाला मीडिया किस प्रकार दलित विरोधी है, यह इस फिल्म के निर्माण और प्रदर्शन में डाली गई सफल रुकावटों से एक बार फिर सिद्ध हो गया। वितरक फिल्म के प्रदर्शन अधिकार खरीदने को तैयार नहीं और सिनेमाघर फिल्म दिखाने को...! चक्रव्यूह (2012) भुखमरी, बेरोजगारी और विस्थापन के बीच आदिवासियों का उनके जल, जंगल, ज़मीन से बेदख़ल करना, दूसरी ओर नक्सली सफाये के नाम पर सरकार के हरित मृगया (ग्रीन हंट) अभियान में पुलिस द्वारा आदिवासियों का सफाया। ‘आरक्षण’ के बाद नक्सलवाद के प्रति हमारी दृष्टि साफ करती प्रकाश झा की इस महत्वपूर्ण फिल्म, पुलिस मुखबिर से नक्सली बने युवक कबीर (अभय देओल) के माध्यम से, अंततः लाल सलाम के पक्ष में ही अपना झुकाव प्रदर्शित करती है। अन्य कलाकार थे-अर्जुन रामपाल, मनोज वाजपेयी, अंजलि पाटिल और ईशा गुप्ता इत्यादि।
अंत में कुछ अपवादों को छोड़कर गंगा सहाय मीणा के शब्दों में कहूँ तो-‘‘दलित-आदिवासियों को सिनेमा में लाने की कोशिशें मुख्यतः सुधारवादी और रूमानी दृष्टिकोण से प्रेरित थीं। दलित जीवन की वास्तविक समस्याएँ सम्पूर्णता में आना अभी शेष है।... आए दिन दलितों के घर जलाए जा रहे हैं, आदिवासियों को उनके जल, जंगल और ज़मीन छीने जा रहे हैं, लेकिन हमारा सिनेमा इस पर मौन है। इसकी सबसे बड़ी वजह सिनेमा पर बाजार और पूँजी का नियंत्रण तो है ही, सिनेमा जगत में दलित-आदिवासियों की अनुपस्थिति भी है। जैसे स्वयं दलित-आदिवासियों ने साहित्य, राजनीति और सामाजिक आन्दोलनों के क्षेत्र में आकर अपनी आवाज बुलंद की, वैसे ही सिनेमा के क्षेत्र में भी उन्हें स्वयं आकर हस्तक्षेप करना पड़ेगा, तभी सिनेमा की वास्तविक तस्वीर बदल सकती है।26


संदर्भ:

1.शर्मा डाॅ. राम विलास-भारतीय साहित्य की भूमिका, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली-पटना, प्रथम संस्करण 1996 पृ. 211।
2.चैरसिया आनंद-सिनेमा पर हावी रहा नायिकाओं का ग्लैमर दैनिक भास्कर (नवरंग) 11 दिसंबर 1999 पृ. 2।
3.कीर धनंजय (अनु. गजानन सुर्वे)-डाॅ. बाबासाहब आंबेडकर जीवन चरित, पाॅप्युलर प्रकाशन प्रा लि. 301, महालक्ष्मी चेंबर्स भुलाभाई देसाई रोड, मुम्बई 400026 पृ. 255।
4.वही, 447।
5.वही, 449।
6.गाँधी मोहनदास कर्मचन्द-सत्य के प्रयोग अथवा आत्मकथा, सस्ता साहित्य मण्डल प्रकाशन नई दिल्ली-1 संस्करण सत्ताइसवा-2005, पृ.18।
7.भारद्वाज प्रमोद-सदी का विवादास्पद सिनेमा दैनिक भास्कर (नवरंग) 18 दिसंबर 1999 पृ.2।
8.सोंथलिया विनोद-रूढ़िवादिता के विरुद्ध न्यू थियेटर्स का सिंहनाद, वसुधा-81 (हिंदी सिनेमा बीसवीं से इक्कीसवीं सदी तक) वर्ष-6, पृ. 44।
9.भारद्वाज प्रमोद-सदी का विवादास्पद सिनेमा, वही, पृ.2।
10.वही, पृ. 2।
11.चैकसे जयप्रकाश-आधी हकीकत आधा फसाना, दैनिक भास्कर (नवरंग) 4 दिसंबर 1999 पृ.1।
12.रवि रवींद्र कुमार-सिनेमा में यथार्थ अंकन की दूसरी पहल, वसुधा-81 वही, पृ. 336।
13.ष्कपूंतष् 1975ए  तिवउ ॅपापचमकपंए जीम तिमम मदबलबसवचमकपंण्
14.ष्।ंातवेीष् ं पिसउ इल ळवअपदक छपींसंदपए डवेतइंमत ेनचंत क्अक छवण्क्भ्प्थ्ै274ष् चंतज.2ण्
15.कृष्ण संजय-तू मुखिया को मार कर दामुल पर काहे नहीं चढ़ा रे, वसुधा-81 वही, पृ. 420।
16.ष्ळनसंउपष् ं  थ्पसउ इल श्रण्च्ण् क्नजजंए डवेतइंमत टपकमव ब्क् छवण्टभ्प्थ्0016ए चंतज.1ण्
17.ष्ळनसंउपष् 1985ए  तिवउ ॅपापचमकपंए जीम तिमम मदबलबसवचमकपंण्
18.तिवारी बजरंग बिहारी-आख्यान एक दलिता स्त्री का, ए. असफल के उपन्यास ‘स्त्री का पुनर्जन्म’ की भूमिका से
19.खेतान प्रभा-स्त्री उपेक्षिता, हिन्द पाॅकेट बुक्स, प्रा.लि. नई दिल्ली प्रथम संस्करण 2004, फ्लैप से
20.ष्ठंदकपज फनममदष् 1994ए  तिवउ ॅपापचमकपंए जीम तिमम मदबलबसवचमकपं
21.मिश्र प्रदीप-कभी-कभी दीख पड़ता है ऐसा समर, वसुधा-81 वही, पृ. 487।
22.वही, पृ. 489
23.त्रिपाठी सत्यदेव-आओ, सिनेमा में दलित-दलित खेलें, वसुधा-81 वही, पृ. 493।
24.ष्ठंइंदकमतष् 2000ए  तिवउ ॅपापचमकपंए जीम तिमम मदबलबसवचमकपं
25.प्रसाद माता-झोंपड़ी से राजभवन, नमन प्रकाश नई दिल्ली, प्रथम संस्करण 2002 पृ. 390
26.मीणा गंगा सहाय-सिनेमा के दलित आदिवासी प्रश्न, जनसत्ता, 18 मई 2012।

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नौसेना विद्रोह-हंगल साहब-गांधी जी

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सुरेन्द्र मनन का यह स्मृतिरेख कथन पत्रिका में छपा है. इसमें ए के हंगल ने नौसेना विद्रोह के दौर के राजनीतिक-सामाजिक माहौल पर विस्तार से और बहुत रोचक तरीके से बात की है. यहाँ यह लेख पत्रिका की सम्पादक की अनुमति से साभार...




वह विद्रोह एक वर्ग-संघर्ष था
ए. के. हंगल
प्रस्तुति: सुरेंद्र मनन


ए. के. हंगल (पूरा नाम अवतार कृष्ण हंगल) थिएटर को समर्पित एक कलाकार, इप्टा के सक्रिय सदस्य, सुपरहिट फिल्मों के सफल चरित्र अभिनेता और अपने सरल-सौम्य व्यक्तित्व के कारण फिल्म इंडस्ट्री में ‘हंबल साहब’ के तौर पर जाने जाते थे। लेकिन उनके व्यक्तित्व का एक अन्य अत्यंत महत्त्वपूर्ण पक्ष भी था, जिसके बारे में कम लोग जानते हैं। वह पक्ष है उनकी वैचारिक प्रतिबद्धता। आजादी से पहले अविभाजित कम्युनिस्ट पार्टी के वे कर्मठ सदस्य थे और जन-आंदोलनों में उनकी सक्रिय भागीदारी रही। भारत विभाजन के बाद कराची से वे बंबई आ गये और इप्टा आंदोलन को पुनर्जीवित करने में उन्होंने प्रमुख भूमिका निभायी। फिल्म जगत में इतने वर्ष बिताने के बाद भी उनकी प्रतिबद्धता कायम रही। 

रायल इंडियन नेवी में 1946 में हुआ विद्रोह भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास का ऐसा विस्फोटक अध्याय है, जिसे अंग्रेजी हुकूमत ने दबाने, गलत ढंग से व्याख्यायित करने और नष्ट कर देने का हर संभव प्रयास किया। स्वतंत्र भारत में भी विभिन्न कारणों से यह अध्याय अनछुआ ही रहा और इतिहास में इस विद्रोह का सरसरी तौर पर ही वर्णन मिलता है, जबकि नौसैनिकों के इस क्रांतिकारी संघर्ष के बाद ही अंग्रेज यह समझ पाये कि उनके साम्राज्य की नींव हिल चुकी है और अब हिंदुस्तान में उनका और अधिक टिके रह पाना संभव नहीं।

इस विषय पर केंद्रित फिल्म बनाने के सिलसिले में मैं कुछ ऐसे व्यक्तियों की तलाश में था, जो नौसेना विद्रोह के चश्मदीद गवाह रहे हों। विद्रोह के समय हंगल साहब कराची में थे और न केवल उन घटनाओं को उन्होंने करीब से देखा था, बल्कि नौसेना के उस क्रांतिकारी कदम का खुलकर समर्थन भी किया था। मैंने उनसे संपर्क किया, तो अत्यंत व्यस्त होने के बावजूद फिल्म के लिए इंटरव्यू देने को वे तुरंत राजी हो गये। साक्षात्कार का समय एक घंटा तय हुआ था, लेकिन उस समय और उस दौर को याद करते हुए हंगल साहब स्मृतियों में इतने खो गये कि बातचीत तीन घंटे तक खिंच गयी। यहाँ उस साक्षात्कार में हंगल साहब द्वारा कही गयी बातों को उनके संक्षिप्त वक्तव्य के रूप में प्रस्तुत किया जा रहा है। उनका यह वक्तव्य भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में नौसेना विद्रोह के महत्त्व और तात्कालिक राजनीतिक परिस्थितियों के बारे में हंगल साहब की सोच और समझ को रेखांकित करता है।--सुरेंद्र मनन




आपने फोन पर जब मुझसे रायल इंडियन नेवी में हुई बगावत के बारे में बात की, तो उस समय मैं शूटिंग पर जाने के लिए तैयार हो रहा था। मैं एकदम चैंका और मुझे हैरानी हुई कि यह कौन है, जो इतना अरसा गुजर जाने के बाद इस बगावत के बारे में न सिर्फ बात कर रहा है, बल्कि फिल्म भी बनाना चाहता है। मुझे हैरानी इसलिए हुई कि इस बगावत को तो चाहे अंग्रेजी सरकार हो या आजाद हिंदुस्तान की सरकार, एक साजिश कहकर उसे भुला देना चाहती थी। फिर इस पर फिल्म कैसे बन रही है? तो यूँ समझिए कि मैं खुद आपसे मिलना चाहता था। उस दिन शूटिंग करने के बाद जब मैं सेट पर बैठा आराम कर रहा था, तो वे सब बातें याद आने लगीं। उसके बाद हर रोज वही खयाल आने लगे। बहुत-से किस्से हैं उस बगावत से जुड़े। आप इस पर रिसर्च कर चुके हैं, तो जानते होंगे कि बगावत की शुरुआत यहीं बंबई से हुई थी। ‘तलवार’ से, जो रायल इंडियन नेवी का सिग्नल स्कूल था। उसके बाद बगावत एक जहाज से दूसरे जहाज और रायल इंडियन नेवी के एक बेस से दूसरे बेस तक आग की तरह फैल गयी।

रायल इंडियन नेवी में जो बगावत हुई, उसकी ऊपरी तौर पर और फौरी वजह यह थी कि हिंदुस्तानी जहाजियों की कुछ माँगें थीं--अच्छा खाना, बेहतर सर्विस कंडीशंस और अंग्रेज अफसरों की जो बदसुलूकी थी, उसकी मुखालफत। लेकिन असल वजह यह नहीं थी। असल कारण दूसरे थे, इससे बड़े थे।

उस समय की दुनिया का हम जायजा लें, तो देखेंगे कि बड़े उथल-पुथल का दौर था वह। दूसरे विश्व युद्ध के खत्म होने से फासिज्म का खात्मा हुआ और इस स्थिति ने समाजवादी ताकतों और पश्चिमी जनतांत्रिक ताकतों को विजय दिलवायी थी। सोवियत संघ ने गठबंधन के सामने यह बात रखी थी कि अगर हमारी जीत होती है, तो हमारा यह फर्ज बनता है कि गुलाम देशों को आजादी दिलवाने में मदद करें। जनतांत्रिक ताकतों को विश्व युद्ध में जब जीत हासिल हुई, तो दुनिया भर में उस जीत का असर यह हुआ कि जितने गुलाम देश थे, उन्हें यह उम्मीद बँधी कि अब वे भी आजाद हो जायेंगे। हम हिंदुस्तानियों को भी यह लगने लगा कि अब आजादी दूर नहीं और अंग्रेजों की गुलामी से जल्द ही हमें मुक्ति मिलने वाली है। अंग्रेजों के डेलिगेशन हिंदुस्तान आते, तो जनता को तरह-तरह की उम्मीदें बँधतीं। 

दूसरी बात, जिसे लोग भूल जाते हैं, या जान-बूझकर जिसका जिक्र नहीं करते, या नहीं करना चाहते, वह यह कि हिंदुस्तान में उस समय कामगार वर्ग का आंदोलन बहुत जोरों पर था। बंगाल में किसान आंदोलन, दक्षिण भारत में अनेक प्रगतिशील और सांस्कृतिक आंदोलन जोरों पर थे। जगह-जगह हड़तालों, जुलूस, बेचैनी और गुस्से का माहौल था। इस सबके अलावा आजाद हिंद फौज के बंदियों को छुड़वाने के लिए देश भर में जनता ने जिस तरह से प्रदर्शन किये, उससे अंग्रेज हुकूमत जहाँ एक ओर डरी हुई थी, वहीं वह बहुत हिंसक भी हो उठी थी। तो यह ऐसा समय था कि छोटी-सी चिंगारी से भी आग भड़क सकती थी। ऐसे माहौल में राॅयल इंडियन नेवी के हिंदुस्तानी जहाजियों ने बगावत कर दी। वह बगावत थी तो एक चिंगारी, लेकिन उसका नतीजा बहुत बड़ा था। 

यहाँ मैं एक और बात का जिक्र करना चाहता हूँ कि बदनसीबी से उस समय हिंदुस्तान की जनता तीन धाराओं में बँटी हुई थी। एक धारा थी कांग्रेस के पक्ष में, दूसरी मुस्लिम लीग, जो विभाजन चाहती थी, और चाहती थी कि पाकिस्तान बने, और तीसरी कामगार वर्ग की धारा--जो धर्मनिरपेक्ष ताकतों का आंदोलन था, कम्युनिस्ट आंदोलन था। लेकिन तीनों धाराओं की जनता अंग्रेजों के खिलाफ भड़की हुई थी। नेवी में जब बगावत हुई, तो जहाजियों ने हर बेस पर अपने जहाजों पर तीन झंडे फहराये--कांग्रेस, मुस्लिम लीग और कम्युनिस्ट पार्टी के। यूनियन जैक उन्होंने उतार फेंका था। उनका मकसद यह था कि देश की जनता जब ये तीनों झंडे देखेगी, तो उन्हें सब धाराओं का समर्थन हासिल होगा। और वे ठीक ही थे। क्योंकि ऐसा ही हुआ। देश भर की जनता आपसी भेदभाव भूलकर जहाजियों के समर्थन में सड़कों पर उतर आयी। फ्लोरा फाउंटेन पर जबर्दस्त प्रदर्शन हुए। सारा बंबई शहर बंद। सेना और जनता दोनों की यह एकता जो अंगे्रजों के खिलाफ इस बगावत में बनी, यह अभूतपूर्व वाकया था। ऐसा पहले कभी नहीं हुआ था। हाँ, गदर के समय ऐसा हुआ था, लेकिन उसके बाद यह एकता अब बनी थी। उस समय बंबई में मेरे आर्टिस्ट मित्र थे चित्तो प्रसाद। उन्होंने इस बगावत को अपने रेखांकनों में उतारा कि कैसे नेवी के जवान जंजीरें तोड़कर अंग्रेजों के खिलाफ उठ खड़े हुए और अंग्रेज हुकूमत ने कैसे उन पर और हिंदुस्तानी जनता पर अत्याचार किये। 

मैं उस समय कराची (अब पाकिस्तान) में था और छोटा-मोटा कम्युनिस्ट लीडर था। टेªड-यूनियन आंदोलन में सरगर्म था। हमने जब रेडियो पर इस बगावत की खबर सुनी, तो कराची बंद की काल दे दी। आप हैरान होंगे यह जानकर कि हम सिर्फ बीस-पच्चीस लड़के थे, लेकिन जब काॅल दी, तो सारा कराची शहर बंद! एक पान वाले तक की दुकान न खुली। शाम को हमने ईदगाह मैदान में मीटिंग रखी थी। हिंदू, मुसलमान, सिख, ईसाई, पारसी--सब ईदगाह मैदान पहुँचे। मुझे यह कहते हुए अफसोस हो रहा है कि मुख्यधारा की जो पार्टियाँ थीं, उनके लीडरान को यह बात पसंद न थी कि जाति-धर्म-पार्टी भुलाकर जनता इस तरह से एकजुट हो। कांग्रेस और लीग के नेता भी इस मीटिंग में आये। उन्होंने मीटिंग बर्खास्त करवाने की कोशिश की और कहा कि ऐसी मीटिंग करने से अंग्रेज हुकूमत तक गलत संदेश जायेगा। मुझे अच्छी तरह याद है कि पब्लिक ने हूट किया, गो बैक के नारे लगाये और उन लीडरों को वहाँ से चले जाने पर मजबूर कर दिया। बाद में धड़धड़ाती हुई पुलिस पहुँच गयी। उसने भीड़ पर गोली चला दी। हर तरफ अफरा-तफरी मच गयी। दर्जन भर लोग इस हादसे में मारे गये। मैं बाल-बाल बचा। 

ऐसा ही एक और वाकया मुझे याद है, जब पेशावर में गोली चली और खून से लथपथ मैं घर पहुँचा था। अब्दुल गफ्फार खान और गांधी की गिरफ्तारी के विरोध में तब एक जुलूस निकाला गया था।जुलूस में ज्यादातर पठान थे। माँग यह थी कि खान और गांधी को रिहा किया जाये। किस्साखानी बाजार में जब यह सब हो रहा था, तो पुलिस आ पहुँची। पुलिस हालात पर जब काबू न पा सकी, तो फौज को बुलाया गया। पहली ट्रक जो फौज की आयी, वह थी गढ़वाली रेजीमेंट। उसे गोली चलाने का हुक्म दिया गया। उन्होंने बंदूकें उठायीं, सामने देखा और बंदूकें नीचे रख दीं। कहा कि ये निहत्थे लोग हैं, हम इन पर गोली कैसे चला सकते हैं। इस रेजीमेंट का नेता था चंद्रसिंह गढ़वाली। उस समय यह बहुत बड़ी बात थी कि अंग्रेज अफसरों की कोई हुक्मउदूली करे, वह भी फौज में। उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया और कोर्टमार्शल के बाद 14-14 साल की सजा दी गयी। 

चंद्रसिंह गढ़वाली मेरा बहुत बड़ा प्रेरणास्रोत रहा कि उस समय वह इतनी हिम्मत कर सका। हमारे इतने राष्ट्रीय सम्मान हैं, पुरस्कार हैं--पद्म विभूषण, पद्म भूषण, पद्म श्री, रत्न और जाने क्या-क्या। लेकिन चंद्रसिंह गढ़वाली के नाम कोई सम्मान नहीं। बदनसीबी से हमारे नेताओं का इस तरफ ध्यान नहीं जाता। पेशावर में यह जो कांड हुआ, उस पर गांधी जी का इंटरव्यू लंदन के एक अखबार में छपा। जब उनसे पूछा गया कि चंद्रसिंह गढ़वाली ने गोली चलाने से जो इनकार किया, उस पर उनकी क्या राय है, तो आप हैरान होंगे यह जानकर कि गांधी जी का जवाब था कि उसे अपनी ड्यूटी करनी चाहिए थी। 

इन घटनाओं का जिक्र मैं आजादी के आंदोलन के दौरान हिंदुस्तानी जनता का जो जज्बा था और नेताओं का जो रवैया था, वह बताने के लिए कर रहा हूँ। 

रायल इंडियन नेवी में जो बगावत हुई, उसे भी कांग्रेस हो या मुस्लिम लीग, दोनों पार्टियों के कार्यकर्ताओं ने, आम जनता ने, खुलकर समर्थन दिया, अपना खून बहाया, लेकिन नेताओं ने उस बगावत का समर्थन नहीं किया। सवाल उठता है कि ऐसा क्यों? ऐसा इसलिए कि नेवी की बगावत हो या दूसरे आंदोलन--यह सब एक राष्ट्रीय संघर्ष तो था ही, लेकिन साथ-साथ वर्ग-संघर्ष भी था। दोनों का मिश्रण था हमारी आजादी की लड़ाई में। अलग-अलग जगहों पर हो रहे इन आंदोलनों की बागडोर कामगार वर्ग के हाथों में जा रही थी। कम्युनिस्ट ताकतों के हाथ में जा रही थी। और हो सकता था कि इंकलाब आ जाता। भगत सिंह, राजगुरु, सुखदेव की शहादत को जनता भूल नहीं सकती थी। मुझे याद है, जिस दिन भगत सिंह को फाँसी दी गयी, पेशावर में पठान फूट-फूटकर रो रहे थे और मैं बयान नहीं कर सकता कि कैसा रोष और गुस्सा था वह। 

तो मैं कह रहा था कि अगर बागडोर कामगार वर्ग के हाथों में आ जाती, तो इंकलाब हो जाता। उस इंकलाब में आजादी का मतलब था कामगार वर्ग की आजादी। तो जाहिर है, मुख्य पार्टियों की लीडरशिप तो कामगार वर्ग की थी नहीं। वह थी उच्च वर्ग और मध्य वर्ग की। इसलिए ऐसे आंदोलनों के लिए उनकी ‘लिप सिंपैथी’ तो थी, जो उनकी मजबूरी थी, लेकिन असल में समर्थन नहीं था। इस तरह उनका दोगला चरित्र था। नेवी में हिंदुस्तानी जहाजियों ने जो बगावत की, उसके साथ भी यही हुआ। न कांग्रेस, न लीग की लीडरशिप ने उसे समर्थन दिया। और अंग्रेजों ने बेरहमी से बगावत को कुचल दिया। 

हम जानते हैं कि आजादी के बाद भी उन जहाजियों को, जिन्होंने बगावत में हिस्सा लिया था, वापस नेवी में नहीं लिया गया। आजाद हिंद फौज के जवानों को भी भारतीय सेना में वापस नहीं लिया गया। विडंबना देखिए कि नेवी के सेलर्स को तो स्वतंत्रता सेनानियों का दरजा तक नहीं मिला, जबकि नेवी में हुई बगावत के कारण ही अंग्रेजों को लगा कि अब वे हिंदुस्तान में नहीं टिक पायेंगे और आजादी दिलवाने में इस बगावत का बहुत बड़ा योगदान रहा। 

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हिंदी सिनेमा और दलित चेतना

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-जितेन्द्र विसारिया

कला और विज्ञान का अद्भुत संगम और बीसवीं सदी के कुछ विशिष्ट अविष्कारों में से एक सिनेमाने अपने शैशवकाल से ही व्यक्ति और समाज को अपने सम्मोहन में बाँध रखा है और बाँधे हुए है। कहते हैं 1857 के विद्रोह के कुछ कारणों में से एक देश में अंग्रेजों द्वारा रेलगाड़ीका लाना भी था, जो अपने आप में सभी जातियों और धर्मों के लोगों को बिठाकर एक मार्ग पर आगे बढ़ती है। इससे ब्राह्मणों का धर्म भ्रष्ट होता था और तथाकथित उच्च-जातियों के अहंकार को ठेस लगती कि इसमें अछूत और निम्न जातियों के लोग भी बगल में बैठकर यात्रा करते हैं/करेंगे। अर्थलोभी कंपनी सरकार सबको एक करना चाहती है।...पता नहीं भारत में सिनेमा के आगमन के साथ ऐसा हुआ या नहीं? क्योंकि रेल की तरह ही सिनेमा हाल का विकास भी अनचाहें ही भारत में लोकतांत्रिकता की ओर बढ़ा एक क़दम था, जो दलितों और अस्पृश्यों को टिकट खरीदवाकर उच्च जातियों के साथ बैठकर उस भगवानके दर्शन का लाभ देता था, जिसके दर्शन मंदिर में असंभव थे और जिसकी शुरूआत दादा साहब फालके ने हरिश्चन्द्र तरामती’(1913), ‘मोहिनी भस्मासुर’(1913), ‘लंका दहन’(1917), ‘कृष्ण जन्म’(1918), ‘कालिय मर्दन’(1919) जैसी धार्मिक फिल्मों के अविष्कार के साथ कर दी थी।

...इसका मूलभूत कारण भारत में रगंमच और अन्य प्रदर्शनकारी कलाओं में दलित-पिछड़ों का सर्वेसर्वा होना है और यही कारण है कि देश में दलितों की ही तरह संगीत, नृत्य और अभिनय कला को सदैव उपेक्षा की दृष्टि से देखा गया। इस उपेक्षा का शिकार भारत में नाट्य कला को जन्म देने वाले एवं नाट्यशास्त्रशास्त्र के प्रणेता भरत मुनि और उनकी संतानें भी हुई। डा. राम विलास शर्मा अपनी पुस्तक भारतीय साहित्य की भूमिकामें लिखते हैं-‘‘मनुस्मृति में हम गीत, वाद्य और नृत्य से आजीविका का निषेध देखते हैं तथा व्यवस्था पाते हैं कि सवर्णों को गीत, वाद्य और नृत्य से आजीविका का उपार्जन नहीं करना चाहिए। मनुस्मृतिसूत, मागधों और नटों को वर्णसंकरता का परिणाम बताती है...नाट्यशास्त्र’ ‘नटशापअध्याय में बताया गया है कि ऋषियों के शाप से भरतमुनि के पुत्रों का वंश शूद्राचार, अशौच एवं स्त्री-बालोपजीवी हो गया...जिस समाज में नर्तकों, गायकों, अभिनेताओं को हीन स्थिति में रखा जाये, उसमें संगीतशास्त्र का विकास कैसे हो सकता है?[1]

फिर भला सिनेमा इस उपेक्षा से कैसे बच सकता था। दादा साहब फालके ने भले ही क्राइस्ट के जीवन पर बनी फिल्म से प्रेरणा लेकर भारतीय पुर्नजागरण के उस युग में चित्रपट पर कृष्ण का जीवन सजीव करने की कल्पना की किन्तु आर्थिक अभावों के चलते जब वेहरिश्चन्द्र तारामतीफिल्म बनाते हैं, तो उसमें रानी तारामती की भूमिका के लिए कोई स्त्री तो क्या तब के सवर्ण ज़मीदार और नबाबों की मुँहलगीं एवं कोठे पर मुजरा करने वाली किसी तवायफने भी उसमें अभिनय करने से इन्कार कर दिया था। ...ऐसे में सिनेमा की बागडोर सम्हाली थी दलित, मुस्लिम और एंग्लो-इण्डियन परिवारों के स्त्री-पुरूष कलाकारों ने जिनके लिए रंगमंच और थियेटर की तरह सिनेमा भी हेय नहीं, सम्मान और आत्मगौरव की वस्तु थी। संभव है फिल्म हरिश्चन्द्र तारामतीमें रानी तारामती की भूमिका करने वाले ए. सालुंकेभी दलित ही रहे हो? दादा साहब फाल्के ने इसकी भरपाई के लिए हरिश्चन्द्र तारामतीमें जहाँ राजकुमार रोहिताश्व की बाल भूमिका में अपने बेटे बालचन्द्रको लिया था तो दूसरी फिल्म कालिया मर्दनमें अपनी बेटी मंदाकिनीको कृष्ण की भूमिका देकर पूरा किया था। 1917 में उनकी मोहिनी भस्मासुरमें मराठी नाटकों की अभिनेत्री कमला बाई गोखलेफिल्म अभिनय में आती हैं तो वह भी स्वेच्छा से नहीं, परिवार की विकट गरीबी के चलते।[2]वैसे भी दलितों की तरह स्त्री, वह भले ही उच्च या निम्न परिवार से रही हो; समाज में उसकी स्थिति दलितों जैसी ही रही है। कालिदास और भवभूति के नाटकों में सीता और अन्य स्त्री पात्र संस्कृत नहीं प्राकृत में संवाद बोलते दिखाये गए हैं, क्योंकि शूद्रों की तरह स्त्रियों के लिए भी संस्कृत पढ़ना-लिखना और बोलना वर्जित था।

और यह आश्चर्य नहीं कि वर्णव्यवस्था का समर्थन करने वाले महात्मा गाँधी फिल्मों की जनप्रियता और लोकधर्मिता को संदेह की दृष्टि से देखते थे। जबकि बाबू सुभाष चन्द्र बोस और बाबा साहेब अंबेडकर उसके दूरगामी परिणामों के प्रति पूर्ण आश्वस्त थे। बाबू सुभाष ने जहाँ कुछ राष्ट्रीय फिल्मकारों को आजाद हिन्द सेना के जीवंत दृश्य सूट करने की अनुमति दी थी, वहीं बाबा साहेब ने अपनी पहली पत्नी रमाबाई के साथ अंकल टाॅमऔर अछूत कन्याफिल्म देखीं थी। निरंजन पाल निर्मित अछूत कन्याचित्रपट उन्होंने भींगी आँखों से देखा था। वह चित्रपट अस्पृश्य जीवन की मानवता की पुकार था। वहीं अंकल टामहैरियट बीचर स्टो के कालजयी उपन्यास अंकल टाम केबिन (टाम काका की कुटिया) पर आधारित थी, जिसमें रंगभेद और गुलामी की अटूट श्रृंखलाओं में जकड़े और अमानवीय कष्ट पाते एक अमेरिकी अश्वेत टामकी हृदय विदारक त्रासदी है। डाक्टर श्रीमती सविताबाई के साथ उन्होंने आलिव्हर ट्विस्टअंग्रेजी फिल्म देखी थी। निम्नवर्ग के निकृष्ट जगत का गरीबों या पद्दलितों की जिन्दगी देखते समय उनके हृदय का कंपन बढ़ जाता था।[3] हम अपने महापुरुषों को अतिमानवीय और अति संयमी दिखाने के चक्कर में कभी-कभी उनके जीवन संस्मरण लिखते समय उनकी स्वभाविक मानवीय प्रवृतियों को दबा जाते हैं।... बाबा साहेब अंबेडकर ने सार्थक फिल्में देखी हीं नहीं बल्कि उनके मुहूर्त समारोहों में भी शामिल हुए थे। आचार्य प्र. के. अत्रे के महात्मा फुलेचित्रपट के मुहुर्त समारोह में 4 जनवरी, 1954 को फेमस पिक्चर्सकलागृह में बाबा साहेब उपस्थित रहे थे। चित्रपट का मुहुर्त उनके हाथों सम्पन्न हुआ। चित्रपट आचार्य अत्रे को शुभेच्छा देकर बाबा साहेब ने कहा, ‘आजकल जो उठता है वह राजनीति और चित्रपट के पीछे लग जाता है। किन्तु समाज सेवा का भी अधिक महत्व है, क्योंकि उसमें शीलवर्धन होता है।आचार्य अत्रे बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे। उनका श्यामची आईचित्रपट राष्ट्रपति स्वर्ण पदक से गौरवान्वित किया गया था।...महात्मा ज्योतिराव फुले के तेजस्वी और सत्य जीवन को दर्शाने वाली यह फिल्म देखकर बाबा साहेब आंबेडकर ने आचार्य अत्रे को उत्कृष्ट चित्रपट बनाने के लिए धन्यवाद था। अपने 20 जनवरी, 1955 के पत्र में आंबेडकर ने अभिप्राय व्यक्त किया है कि विषय-प्रस्तुति और दृश्य विधान की दृष्टि से वह चित्रपट उत्कृष्ट है।[4]

 फिल्म ही नहीं नाटकों का भी बाबा साहेब पर गहरा प्रभाव था और कुछ नाटक मंडलियों भी उन्हें नाटक देखेने के लिए बुलाया करती थी। 15 मार्च 1936 को बंबई में चितरंजन नाटक मंडली ने बाँबे थियेटरमें आंबेडकर का सत्कार किया। उस समय वह नाटक मंडली आप्पा साहब टिपणिस लिखित दक्खन का दियाइस लोमहर्षक नाटक के प्रयोग करती थी। उस नाटक में पेशवाई के समय अस्पृश्यों के साथ कितनी अमानुष रीति से बर्ताव किया जाता था, उस संबंध में कुछ प्रसंग रेखांकित किए गए थे। पुणे के रास्ते से जाना-आना करना हो तो महार जाति के अस्पृश्यों को गले में मिट्टी का घड़ा और कमर में पेड़ की डाली लगानी पड़ती थी। आंबेडकर नाटक का प्रयोग देखने जाने वाले हैं, यह खबर फैलते ही वहाँ काफी भीड़ लग गई। नाट्यगृह में चींटी को भी प्रवेश करने के लिए जगह नहीं थी।...सत्कार के समय अनंत हरि गद्रे प्रमुख वक्ता थे। गद्रे अत्यंत आस्थापूर्वक अस्पृश्यता निवारण का कार्य करने वाले कार्यकर्ताओं में से एक अगाड़ी के वीर, महाराष्ट के सामाजिक समता के बड़े पुरस्कर्ता थे। अपने भाषण में गद्रे ने कहा कि, ‘अस्पृश्यों के साथ पेशवा कालीन महाराष्ट्र में इतने अपमानास्पद और अमानुष रीति से बर्ताव किया जाता था कि नाटक में अभिनय करने वाले नट भी उनकी भाँति गले में मिट्टी का बर्तन बाँधकर रंगमंच पर आने के लिए शरमाते हैं।[5]’’

 यों देखा जाए तो ब्राह्मण श्रेष्ठता और वर्णव्यवस्था को हर परिस्थिति में अक्षुण्ण बनाये रखने (भले ही स्वयं या पत्नी-पुत्र को बीच बाजार में बेचना पड़ जाए।) का यशगान तो हिन्दी की पहली फिल्म हरिश्चन्द्र तारामतीसे ही प्रारंभ हो जाता है। छद्मभेषी ब्राह्मण विश्वामित्र को दिए वचन पर अटल अयोध्या का राजा हरिश्चन्द्र अपने राज्य के अतिरिक्त साठ भार सोने से उऋण होने के लिए काशी के बाजार में स्वयं और अपनी पत्नी तारामती एवं पुत्र रोहिताश्व के साथ बिक जाता है। सत्य (वर्णधर्म) पर अटल यह परिवार संकट के समय में भी एक दूसरे की मदद (कथानक में रानी तारामती कृशकाय हुए हरिश्चन्द्र का घड़ा इसलिए सिर पर नहीं रखवाती, क्योंकि वह एक ब्राह्मण की क्रीतदास है और राजा काशी के कालू नामक चांडाल (दलित) का श्मशान रक्षक।) करने से भी इन्कार कर देते हैं। अपनी आत्मकथा मेरे सत्य के प्रयोगमें गाँधी जिस सत्य हरिश्चन्द्रनाटक का अपने जीवन पर अमिट प्रभाव[6]बताते हैं, वह गुजराती नाटक और इस फिल्म का कथानक एक ही है-संकट की विकट परिस्थितियों में भी अपने जाति और वर्णधर्म पर अटल बने रहना और दलित द्वेष...। इस प्रकार दलितदृष्टिकोण से देखा जाए तो हिन्दी सिनेमा की प्रारंभिक फिल्म ही हमें निराश करती है। उसमें प्रगतिशील तत्वों की अपेक्षा प्रतिगामी तत्वों का समावेश ही प्रमुख है। जातिवाद और वर्णवाद के विरूद्ध न जाकर यह सिनेमा, उसका खुला समर्थन करता है। सामाजिक यथार्थ की अपेक्षा पौराणिक फंतासियों का पुनुरुत्पादन...।

पहला उपद्रव अछूत कन्या’ (1936), से हुआ यह एक वस्तुनिष्ठ, वैज्ञानिक और ईमानदार अभिव्यक्ति थी। यह उपद्रव किसी खास दर्शक समूह में नहीं हुआ, क्योंकि इस फिल्म का मकसद किसी को सताना या चिढ़ाना कतई नहीं था। आजादी का आंदोलन था। समाज, शुद्धिकरण की प्रक्रिया में था। मनुष्य को हमेशा दूसरा नागरिक बनाने बताने वाली मान्यताओं की सींवने उधड़ रही थीं।[7]इससे पूर्व 1934 में सोलहवीं शताब्दी में हुए महाराष्ट्र के संत एक नाथ पर धर्मात्माऔर बंगाल के संत चंड़ीदास पर बनी चंडीदासफिल्म में भी अस्पृश्यता और जातिवाद पर गहरी चोट कर चुकी थीं। चंडीदाससदियों से चली आ रही ब्राह्मण वर्ग की अतिरूढ़िवादिता एवं मनमानी की प्रवृत्ति का प्रतिवाद करती है। सोलहवीं शताब्दी में बंगाल के एक गाँव में स्थित जागृत देवी बांशुली के मंदिर में वैष्णव चंडीदास ठाकुर पुरोहित के रूप में प्रतिष्ठित थे। वे आंतरिक रूप सौन्दर्य के पुजारी तथा सत्य और प्रेम के उपासक थे। प्रेम ही उनका धर्म था और प्रेम ही सत्कर्म था। वे ईश्वर को पाने का एक मात्र मार्ग, प्रेम ही मानते थे। निम्नवर्ग की रानी धोबिन में उन्हें सत्त प्रेम की छवि दिखी। रौब-दाब वाला अत्याचारी, ईष्र्यालु और बदचलन जमींदार समाज को उनके खिलाफ भड़का देता है। तमाम सामाजिक प्रतिरोध के बावजूद आदर्शवादी विश्वप्रेमी परिवर्तनप्रिय संतकवि चंडीदास को वर्गभेद, सामाजिक बंधन, धर्मान्धता-इन सबको लांघकर रानी के साथ स्वतंत्र एवं सुखी जीवन बिताने के लिए प्रेम नगर की राह पर चलने से कोई नहीं रोक पाता।[8]

चंडीदास एक ऐतिहासिक और समाज से मान्यता प्राप्त कथानक पर आधारित होने से, निर्देशक फिल्म में दलित रानी धोबिन और ठाकुर पुरोहित चंडीदास का मिलन करवा देता है! किन्तु उसी के दो वर्ष बाद तत्कालीन सामाजिक परिस्थितियों के बीच से चुनी और सत्यकथा के रूप में फिल्मायी गई अछूत कन्याका निर्देशक साहस करके भी उसमें उच्च वर्णीय ब्राह्मण युवक प्रताप (अशोक कुमार) और एक अछूत रेलवे क्रासिंग गार्ड की लड़की कस्तूरी (देविका रानी) का मिलन नहीं करवा पाता!! फिल्म के अंत में नायिका रेल दुर्घटना में हृदय विदारक मृत्यु को प्राप्त होती है!!! प्रमोद भारद्वाज के शब्दों में कहूँ तो, ‘दोनों में ही जाति का अस्वीकार था। जाति के परे प्रेम था, पर अछूत कन्या में अछूत नायिका को छोड़ने की दुर्बलता उस समय की भीषणतम सच्चाई थी।[9]प्रहलाद अग्रवाल लिखते हैं कि अछूत कन्यामें छुआछूत के अमानवीय कृत्य को बड़ी तीव्रता से उकेर कर उसकी भत्र्सना की गई थी। यह उस समय आसान बात नहीं थीं यह बीसवीं सदी का पूर्वाद्ध था और राष्ट्र इस समस्या से गहराई तक ग्रस्त था।

इन दो परिवर्तनकामी फिल्मों के बाद 1940 में सरदार चंदूलाल शाह निर्देशित और मोतीलाल गोहर मामाजीवाला द्वारा अभिनीत फिल्म अछूतप्रदर्शित होती है। यह फिल्म अछूत कन्याका थोड़ा सा परिष्कार है। इसमें भी उच्च जाति का लड़का और निम्न जाति की लड़की का प्रेम, संघर्ष और सामाजिक रूढ़ियों के चलते अंत में नायक-नायिका द्वारा अपने प्राणों का बलिदान है। बदलाव सिर्फ इतना कि फिल्म के अंत में नायक-नायिका अपने प्राणों का अंत गाँव के मंदिर में सबको प्रवेश दिलाने में करते हैं। यद्धपि फिल्म गाँधीजी के हरिजनोद्धार और मंदिर प्रवेश की पृष्ठभूमि पर निर्मित है, किन्तु उससे आगे जाकर वह यह भी संदेश देती है कि अछूतोद्धार सिर्फ दिखावे से नहीं होगा, अपितु सबको व्यवहार में समान समझना होगा और बराबर अवसर पाने के मौके देने होंगे। फिल्म में दलित लड़की लक्ष्मी एक सवर्ण पूंजीपति द्वारा गोद ली जाती है और उसे अपनी पुत्री के समान रखा जाता है, किन्तु जब दोनों लड़कियाँ एक ही व्यक्ति के प्रेम में पड़ती हैं तब पक्ष अपनी बेटी का लिया जाता है, लक्ष्मी का नहीं...! यह फिल्म इसलिए भी स्मरणीय कही जा सकती है कि इसमें सर्वप्रथम दलितों का धर्मान्तरण (फिल्म में नायिका लक्ष्मी का पिता सवर्णीय अत्याचारों से तंग आकर ईसाई धर्म ग्रहण करता है।) सवर्णों के अन्याय और अत्याचार से प्रेरित होकर दिखाया गया है न कि किसी प्रलोभवश। आश्चर्य होता है कि जो बात फिल्म अछूतका निर्देशक 1940 में समझ गया था, हिन्दुत्व के झंडावरदार उसे आज भी मानने को तैयार नहीं है।... इस फिल्म की प्रशंशा सरदार पटेल और महात्मा गाँधी ने भी थी।

इसी समय ऐसी तमाम फिल्में आयीं, जिन्होंने धर्म, जाति, वंश और मिथकीय परंपराओं और महाजनी सभ्यता के संकीर्ण अनुशासन के खूब लत्ते लिए। जैसे-महाजनी प्रथा (सावकारी पाश-1925), मूर्तिपूजा और ब्राह्मणवाद (संत तुकाराम-1936, संत दानेश्वर-1940, संतसाखू-1941), नरबलि (अमृत मंथन 1934), छुआछूत (धर्मात्मा-1934) बेमेल विवाह (दुनिया न माने-1937) विधवा विवाह (अनाथ आश्रम-1937, सिन्दूर-1947), वेश्यावृत्ति : (ठोकर-1939) दहेजप्रथा (दहेज-1950) नशा (ब्रांडी की बोतल 1939) इत्यादि विषय प्रधान फिल्मों के अलावा चालीस से पचास के दशक में दलित विमर्श से संबंधित फिल्मों का अभाव है। किन्तु दलित सर्वहारा की दृष्टि से इस दशक में नया संसार’(1942), ‘रोटी’, ‘गरीब’ (1942), नीचा नगर (1946), ‘गोपीनाथ’ (1948), आदि विषयों ने परदे पर आकर काफी विक्षोम पैदा किया, पर यह हमारे समाज का अन्र्तयुद्ध था। हम एक नए समाज के क्षितिज की तरफ प्रस्थान कर रहे थे, इसलिए हमारी परंपराओं, हमारी धूर्तताओं और जड़ताओं से यह टकराव स्वभाविक थे। यह सनसनी फैलाने या बिखेरने का संघर्ष था, पर आजादी के बाद सिने माध्यम, बजाय समाज को नया और सार्थक शिल्प देने के, समाज में हड़बड़ी, अफरातफरी फैलाने वाले तत्वों का जमाव बनकर रह गया। कुंठाएँ, संत्रास, बैचेनियाँ, अतृप्ताएँ, निर्लक्ष्य कामनाएँ, अबूझ भविष्य और रहस्यमय जीवन शैलियाँ एकाएक उभरती रहीं।[10]

 इन कारणों की गहराई में जाएँ तो हम पाते हैं कि तमाम मतभेदों के बावजूद  स्वतंत्रता के पूर्व आजादी को लेकर देश के नेताओं और जनता में एक सामूहिक स्वप्न था। स्वतंत्रता और स्वराज पाने की कामना हर एक वर्ग में थी। यद्धपि वर्चस्व की लड़ाई के बीज तब भी मौजूद थे और कोई किसी के प्रति पूर्णरूपेण विश्वस्त नहीं था; किन्तु एक सामूहिक आवेश था कि जो होगा वह देखा जाएगा, पहले हम गोरों की गुलामी से आजाद हो लें। किन्तु हम देखते हैं कि देश स्वतंत्र नहीं हो पाता और राष्ट्र को बँटवारे की गहरी त्रासदी झेलनी पड़ती है। सांप्रदायिक दंगे होते हैं और देश दो हिस्सों में विभाजित हो जाता है। सहानुभूति के आधार पर ही सही, समाज में सामूहिक परिवर्तन की इच्छा रखने वाले गांधी की हत्या होती है और संघर्ष से समानता की ओर अग्रसर होने वाले आंबेडकर को कानून मंत्री के पद से इस्तीफा देना पड़ता है। मुसलमान पाकिस्तान चले जाते हैं और दलित बौद्ध बनते हैं...।

 आजादी के इस सामूहिक स्वप्नभंग की अवस्था 1950 से 1970 के बीस वर्षों की फिल्मों पर दृष्टिपात करते हैं तो इनमें दलित सर्वहारा की दृष्टि से कुछ ही फिल्में उल्लेखनीय हैं। आवारा’ (1951) यद्धपि यह दलित विमर्श की फिल्म नहीं है किन्तु वह अपने साथ जो संदेश लिए थी कि व्यक्ति जन्मजात अपराधी नहीं होता, अपराधी उसे उसका परिवेश बनाता है फिर भले ही वह व्यक्ति किसी वंश, जाति, या गोत्र का रहा हो। उच्चकुल में जन्मा किन्तु एक अपराधी के यहाँ पलकर अपराधी बना उपेक्षित युवक राज’ (राजकपूर) द्वारा अवारा हूँगीत के रूप में जब महान दलित गीतकार शैलेन्द्र की यह पंक्तियाँ:

     घरबार नहीं संसार नहीं  मुझसे किसी  को प्यार नहीं,
     दुनिया  में  तेरे  तीर  का  या  तकदीर का मारा हूँ।

दोहराता है, तो ऐसा लगता है कि गीत में स्वयं शैलेन्द्र ने सदियों से समाज के उपेक्षित अपनी धन-धरती से वंचित दुनिया (पूँजीवाद) और तकदीर (भाग्यवाद) दोनों की मार सहते आए दलित सर्वहारा जीवन की पीड़ा ही व्यक्त की हो...। राही’(1952) कामरेड ख्वाजा अहमद अब्बास की आसाम के चाय बागानों में काम करने वाले श्रमिकों के शोषण को रूपायित करने वाली फिल्म है, जो मुल्कराज आनंद के उपन्यास  पर आधारित है। दो बीघा ज़मीन’(1953) हिन्दी सिनेमा के मील का पत्थर है। हिन्दी में प्रेमचन्द के अमर उपन्यास रंगभूमिके बाद भूमि अधिग्रहण को लेकर यदि कोई महान रचना है तो वह दो बीघा ज़मीनहो सकती है। यह एक ऐसे सीमांत किसान शंभू महतो (बलराज साहनी) और उसकी पत्नी पार्वती (निरुपाराय) की मर्मस्पर्शी दुखांत कथा है, जिसमें गाँव का जमींदार और शहर की पूँजीवादी ताकतें उसकी दो बीघा ज़मीन अधिग्रहीत कर उस स्थान पर एक मिल का निर्माण करती हैं। ऋण में गले तक डूबा बेचारा शंभू अपने अथक प्रयासों के बावजूद भी अपनी वह दो बीघा ज़मीन नहीं बचा पाता। फिल्म के अंत में बलराज साहनी के बूढ़े पिता की भूमिका में नाना पलसीकर तो एक प्रतीक बनकर खड़े हो जाते हैं उस किसान का, जिसके नसीब में उसकी ज़मीन की एक मुट्ठी धूल भी नहीं है जिसे वह माथे से लगा सके। इस फिल्म के बारे में तब मैनचेस्टर गार्जियन ने लिखा था, ‘भारत किसी अन्य प्रकार से न सही, लेकिन राजनैतिक दृष्टि से एक नव स्वतंत्र देश है। इस राष्ट्र का एक फिल्मकार अपने देश के अर्थिक विकास को इस क्रूर निराश नज़र से देखता है।[11]

बूट पालिश’(1954) राजकपूर की सर्वहारा (आवारा) से दलित विमर्श की ओर बढ़ा दूसरा कदम था। यह फिल्म भी संदेश प्रधान है कि कोई काम छोटा-बड़ा नहीं होता। भीख माँगने और चोरी करने से अच्छा है मेहनत-मजदूरी (बूट पालिस) करके जीवन यापन करना। इस फिल्म के माध्यम से राजकपूर दलितों में आत्मसम्मान की भावना जाग्रत करते प्रतीत होते हैं। भीख न माँगने की बिना पर शर्मा अनाथ आश्रममें भर्ती हुए बालक (रतन कुमार) को चंदे के नाम पर आश्रम के संचालक (जो निश्चय ही ब्रह्मण है) की अगुवायी में अन्य अनाथ बच्चों के साथ जब घर-घर, गली-गली भीख माँगनी पड़ती है, तो भीख में मिले मोतियों को ठुकराने के आदर्श पर जीने वाला वह बालक वहाँ से भागकर पुनः अपने काम (बूट पालिश) में लौट आता है। फिल्म बूट पालिशके इस दृश्य मे निश्चय ही कवि शैलेन्द्र की संगत में रहे निर्देशक राजकपूर, परजीवी एवं भिक्षाजीवी ब्राह्मणवाद के चुँगल से श्रमजीवी दलितों को दूर रहेने का महान संदेश, सायास और स्पष्ट रूप से देते प्रतीत होते हैं।  

 जिया सरहदी की हमलोग’(1951), ‘फुटपाथ’(1954) और आवाज’(1956) उनके वामपंथी रुझान और गंभीर सामाजिक सरोकारों से जुड़ी और जनसंघर्षों को विभिन्न कोणों से देखने परखने वाली फिल्में थीं। वहीं राजकपूर की श्री 420’(1955) ‘विद्या’ (ज्ञान) और माया’ (पूँजी) जैसे प्रतीक लेकर रची गई एक सामान्य फिल्म है, किन्तु अपने पीछे वह यह जो संदेश छोड़ती है कि हजारों आदमियों को भूखा रखकर एक गुलछर्रे उड़ाता है। दूसरों के खून-पसीने पर चमकदार जिंदगियाँ इतराती हैं। पर सच्चाई और ईमानदारी से कमाई गई सूखी रोटी जितनी शांति और मुहब्बत दे सकती है उतनी बेईमानी से कमाई गई करोड़ों की दौलत नहीं।वह अवश्य ही पूँजी और पूँजीवाद के विरुद्ध एक बड़ा किन्तु रोमानी संदेश है। गोगोल की कथा द ओवर कोटपर आधारित और राजेन्द्र सिंह बेदी की निर्मित और अमर कुमार निर्देशित फिल्म गरम कोट’(1955), भी एक सशक्त फिल्म थी जिसमें एक निम्नमध्यम वर्गीय परिवार में सौ के नोट के गुमने को प्रतीक बनाकर आर्थिक संकट की विभीषिका को व्यंग्यरू मिश्रित ढंग से बयान किया गया था। वहीं सीमा’(1955) परिवार और समाज द्वारा प्रताड़ित लड़की की कथा है जिसके जीवन का कलुष एक आर्दशवादी व्यक्ति द्वारा चलाए जा रहे अनाथालय में जाकर घुलता है। यह एक गंभीर यथार्थवादी सामाजिक फिल्म है।

भारतीय कृषक ऋण में जन्म लेता है, ऋण में ही पलता है और अपनी मृत्यु के बाद अपने बाल-बच्चों को विरासत में ऋण दे जाता है।भारतीय कृषक जीवन का दृश्य महाकाव्य कही जाने वाली महबूब खानकी कालजयी फिल्म मदर इण्डिया’(1957) इस वाक्य को पूर्ण रूपेण चरितार्थ करती है। फिल्म के केन्द्र में मूलतः साहूकारी प्रथा और उससे उपजे कृषक जीवन के संत्रास हैं, जिसकी कहानी गाँव की राधा’ (नर्गिस) नामक स्त्री के आसपास बुनी गयी है, जिसका पति अपाहिज होकर सदा-सदा के लिए घर छोड़ गया है और एक बेटा बिरजू’ (सुनील दत्त) गाँव के साहूकार सुख्खी लाला (कन्हैयालाल) के शोषण-उत्पीड़न के चलते डाकू बन जाता है। एक दिन जब सुक्खी लाला की लड़की का ब्याह हो रहा होता है, उस दिन बिरजू अपने अन्य साथियों के साथ गाँव पर हमला बोल देता है और लूटपाट एवं मारपीट के बाद बिरजू लाला की लड़की का अपहरण करके ले जा रहा होता है। आदर्शवादी राधाअपने बेटे बिरजू को ही गोली मार देती है।... जिस तरह अपनी तमाम अच्छाइयों के उपरांत भी गोदानका नायक होरीदलित नहीं है, उसी प्रकार ग्रामीण भारत में व्याप्त शोषण के तमाम अनछुए पहलुओं को उजागर करने वाली फिल्म मदर इण्डियाकी नायिका राधाभी दलित नहीं है। वह गरीब और विधवा होकर भी गाँव में राधा चाचीके रूप में सम्मान पाती है। सुख्खी लाला भी उससे जोर-जबरदस्ती नहीं कर सकता। यदि दलित होतीं तो राधासे रधिया होकर, सुख्खीलाला द्वारा कब की रखैल बना ली जाती...। फिल्म में राधा के गैर दलित होने का प्रमाण, पुरोहित द्वारा उसके विवाह में वैदिक मंत्रोच्चार भी है, जो एक दलित के विवाह में असंभव है।

इसी तरह नयादौर’(1957) पूँजीवाद और मशीनीकरण के विरुद्ध सामूहिक श्रम तथा स्वाबलंबन की महत्व को दर्शाती है। फिल्म में ग्रामीण अपनी मेहनत के बल पर सड़क तथा पुल का निर्माण करते हैं। यह हमारे लिए प्रेरण दायक है, क्योंकि आज छोटे-बड़े हर काम को सरकार के भरोसे छोड़ दिया गया है। हम कष्ट सहते रहते हैं, असुविधा का समाना करते हैं, लेकिन उससे निजात पाने का प्रयास नहीं करते।...रील लाइफमें नयादौर से तथा रियल लाईफमें हमें दसरथ मांझी से प्रेरणा मिलती रहेगी। मिलन’(1957) यों तो पुनर्जन्म की फंतासी पर आधारित है, किन्तु उसके यथार्थवादी चित्रण के चलते उसे, एक सामाजिक फिल्म की श्रेणी में भी रखा जा सकता है। एक ज़मीदार की युवती राधा (नूतन) और गरीब मल्लाह युवक (सुनीलदत्त) के प्रेम में किस प्रकार उनकी जाति और सामाजिक स्थिति बाधक बनती है कि जिसे सेहरा बाँधकर दूल्हे के रूप में आना चाहिए, वही मीराँसियों भांति उसके सामने खड़ा मुबारक गीत गाने को विवश है।... राधा के विधवा होने पर भी गोपी उसका जीवन साथी नहीं बन पाता। आपसी लगाव से मिली बदनामी और सामाजिक घेराव के चलते अंत में उन्हें नदी में डूबकर जल समाधी लेनी पड़ती है। पति-पत्नी के रूप में उनका मिलन दूसरे जन्म में ही हो पाता है। हिन्दी सिनेमा में संभवतः यह पहली फिल्म है जो सवर्ण युवक और दलित युवती के प्रेम की दुखांत कथा के बँधे-बँधाए ढर्रे को तोड़कर, फिल्मी पर्दे पर पहली बार निम्न जाति के लड़के और उच्चवर्ग की लड़की के प्रेम को इतने भव्य स्तर पर दिखाती है। प्रेम के पक्ष में पुनर्जन्म के मिथ को एक क्रांतिकारी मोड़ देती है, कि प्रेम जाति और ज़मीदारी से बढ़कर है और दो प्रेमी-प्रेमिका अंततः मिलकर ही रहते हैं।  

  अर्पण’(1957) हिन्दी सिनेमा की उन ऐतिहासिक दुर्लभ फिल्मों में से एक है, जिसका आधार दलित जीवन बना। गौतम बुद्ध के शिष्य आनंद (चेतन आनंद) और इतिहास प्रसिद्ध भिक्षुणी चांडालिका (प्रिया राजवंश) के प्रेम के इर्द-गिर्द बुनी गई प्रेमकथा है, जिसमें अपनी माँ के तंत्र-मंत्र और जादू के बल पर दलित युवति चांडालिका आनंद को वश में कर लेती है। बंधन में पड़कर आनंद अपना स्वाभाविक स्वरूप खो देते हैं। चांडालिका आनंद की दयनीय और विरूप स्थिति देखकर स्तब्ध रह जाती है। वह वासना भाव से ऊपर उठकर आनंद को मुक्त कर देती है और स्वयं भी अपना सारा जीवन बुद्ध के चरणों में जाकर अर्पण करती है।

 ‘सुजाता’(1959) विमलराय की यह बहुचर्चित फिल्म, दलित विमर्श पर बनी पूर्व की दो फिल्में अछूत कन्याऔर अछूतका परिष्कृत रूप है और कुछ नहीं। यहाँ भी अछूत कन्या की तरह दलित युवती (नूतन) और ब्राह्मण युवक (सुनील दत्त) है। अछूतकी तरह इसमें भी एक पिता ब्राह्मण इंजीनियर उपेन्द्रनाथ चौधरी (तरूण बोस) की दो पुत्रियाँ रमा (शशिकला) और सुजाता (नूतन) हैं, जिनमें फर्क बस इतना कि फिल्म अछूतकी लक्ष्मी दत्तक है और सुजाता अछूत कुली की लड़की जिसका पिता प्लेग की बीमारी के चलते अब इस दुनिया में नहीं है और चैधरी परिवार उसका पालन-पोषण सहर्ष नहीं दयावश किया करता है। फिल्म अछूतमें अपनी पुत्री और दलित पुत्री के बीच भेद पिता के सिर पर है, तो सुजाता में माँ पर। फिल्म में सुजाता की धर्म माँ चारू (सुलोचना) सबके बीच सुजाता को अपनी बेटीनहीं, बेटी जैसा मानती है। यह खाई तब और चैंड़ी हो जाती है, जब एक ब्राह्मण युवक अधीर (सुनील दत्त) रमा को देखने आता है किन्तु अपने परिवार की इच्छा के विरुद्ध सादगी पसंद सुजाता से विवाह का निश्चय करता है। सारा दोष सुजाता के सिर आता है। चारू के साथ-साथ सारे परिवार को दुःखी देखकर सुजाता आत्महत्या का मन बनाती है, किन्तु नदी के घाट पर खुदे महात्मा गाँधी के वाक्य मरें तो कैसे? आत्महत्या करके? कभी नहीं। अगर आवश्यकता हो तो जिंदा रहने के लिए मरें।’’  पढ़कर उसका मन बदल जाता। पढ़कर उसका मन बदल जाता।... इसी बीच चारू सीढ़ियों से गिरकर अस्पताल पहुँच जाती है। उसे रक्त की गहन आवश्यकता है। परिवार में किसी का ब्लडग्रुप उससे मैच नहीं खाता। मैच खाता है तो सुजाता का और सुजाता अपनी धर्म माँ को रक्तदान करती है। सुजाता का रक्त पाकर रमा का हृदय परिर्वतन हो जाता है और वे सुजाता को केवल माफ कर देती हैं वरन अधीर से उसकी शादी भी करवाती हैं। कथानक की दृष्टि से सामान्य फिल्म सुजाताकी महानता सुजाता के रूप में नूतनजी का अभिनय है, जिन्होंने दलित होने की हीनग्रंथि से पीड़ित युवति के चरित्र को कुछ इस विश्वसनीयता से जिया है कि वह हिन्दी सिनेमा की अमर कृति बन जाती है। तब परिवार की सहमति से अन्तर्जातिय विवाह होना भी इस फिल्म का एक प्लस प्वाइन्ट कहा जा सकता है।

परख’(1960) विमल राय निर्देशित और शैलेन्द्र के संवादों से सजी यह फिल्म, चुनाव माध्यम से लोकतंत्र में गलत व्यक्तियों के चुनकर पहुँने पर निशाना साधती है। इसी के साथ इस फिल्म में गाँव के दलित डाकिया हराधन (मोतीलाल) के माध्यम से निर्देशक ने अस्यपृश्यता और जातिवाद पर भी गहरे व्यंग्य किए हैं। गंगा जमना(1960) दिलीप कुमार के फिल्म मदर इण्डिया में न होने की टीस का परिणाम है थी इसमें भी ज़मीदार के अत्याचार और एक सामान्य किसान गंगा के बागी होने की दुखांत गाथा है, किन्तु इसमें दलित युवति धन्नो (बैजंयती माला) और गैर ब्राह्मण युवक जमुना (दिलीप कुमार) की मार्मिक प्रेमगाथ भी शामिल है। फिल्म में जमना और धन्नो के विवाह के पूर्व हाथ में जनेऊ लेकर पुरोहित जमना से यह कहता है कि यह विवाह इसलिए नहीं हो सकता कि तेरी जात धन्नो की जात से ऊँची है, उस समय गंगा का पुरोहित को भगवान के महामंत्री संबोधित करते हुए प्रतिउत्तर में यह कहना कि, ‘‘जब ऊँची जात वाले ऊकी गत बना रहे थे, तब तुम कहाँ गए थे? जब हमरी कुत्ते जैसी दशा हुय रही थी, जब हम भूखे पेट जंगल में मारे-मारे फिर रहे थे। चल-चल के हमरे पैरों में छाले पड़ गए थे, उत्ते समय हमरे सर पे हाथ रखे कोई नहीं आया। ई आई थी और तुमरे सामने खड़ी है। उस दिन हम येके काँधे पे सर रख के रोये थे...।’’ इस रूप में यह फिल्म ब्राह्मणवाद और जातिवाद के विरुद्ध जाते हुए, सामंतवाद के खिलाफ लड़ाई का हथियार भी बनती है।

फूल और पत्थर’ (1966) ओ.पी. रल्हन निर्देशित और धर्मेन्द्र और मीनाकुमारी अभिनीत इस फिल्म में धर्मेन्द्र ने एक अपराधी दलित की भूमिका निभाई थी, जिसे उच्च जाति की विधवा युवती (मीना कुमारी) से प्रेम हो जाता है। अब यह फिल्मकारों की सोच की बिडंबना ही कही जा सकती है कि एक ओर बाबा साहेब आम्बेडकर राष्ट्रीय स्तर पर डाॅ. शारदा कबीर से आपसी सहमति के आधार पर विवाह कर चुके थे और हिन्दी सिनेेमा का फिल्मकार अभी भी डरता हुआ दलित युवक और सवर्ण विधवाओं के प्रेम प्रसंग ही दर्शाने का साहस जुटा पाया था। सगीना महतो (1970) तपन सिन्हा की यह फिल्म इस दशक अन्तिम महत्वपूर्ण फिल्म है। इस फिल्म में ब्रिटिस राज के दौरान उत्तर भारत के पूर्वी क्षेत्र के एक चाय बागान के श्रमिक नेता की कहानी है। सगीना महतो ब्रिटिस मालिकों के अत्याचार का सामना करते हुए मजदूरों के अधिकार के लिए लड़ता हैं। वहीं एक युवा कम्युनिस्ट अमल है जो गरीब और पिछड़े वर्ग की जनता की सहायता करने के लिए आता है। सामाजिक पदानुक्रम में उच्च और एक बिहारी नेता के आने पर निम्नवर्गीय सगीनाअलग-थलग पड़ जाता है। इस फिल्म से पहली बार कट्र मानवतावादी दृष्टिकोण रखने वाले संगठनों के बीच में भी  (सेनामुख/आगे रहने की प्रवृत्ति) होने की अशिष्ट प्रवृत्ति का पता चलता है।

सत्तर के दशक का सिनेमा हमारे आजादी से स्वप्नभंग का समय था। इस दशक की फिल्मे अहसास कराती हैं कि आजादी के इतने वर्षों बाद भी भारत से सामंती उत्पीड़न का खात्मा नहीं हुआ है। इस उत्पीड़न से सामना हुए बगैर नये समाज का निर्माण संभव नहीं है। इसलिए इस दशक की दलित-आदिवासी विमर्श आधारित फिल्मों में ग्रामीण परिवेश रोमानियत से अलग एक कड़वी सच्चाई के रूप में प्रकट हुआ है। अंकुर’ (1973) श्याम बेनेगल की पहली फिल्म है। ग्रामीण परिवेश उसके पूरे रंग-ओ-आब के साथ सामंती मूल्यों के खिलाफ खड़ी यह फिल्म फिल्मों के बाजार में एक सशक्त चुनौती है। फिल्म में गरीब किसान (साधू मेहर) अनाज चोरी में पकड़ा जाता है। गांव का जमींदार (अनंत नाग) उसके मुँह पर कालिख पोतकर उसे पूरे गांव में गधे पर बैठाकर घुमाता है। इतना ही नहीं गांव का क्रूर जमींदार किसान की पत्नी (शबाना आजमी) को भी अपनी गिरफ्त में करता है। किसान की वह गर्भवती हुई पत्नी ज़मींदार के कहने पर भी गर्भपात नहीं कराती। गुस्साया ज़मींदार साधू को सजा देता है, इससे आहत हो उसकी पत्नी जमींदार को बहुत कोसती है। ज़मींदार दरवाजा बंद किए हुए बैचेनी से सुन रहा है। इस दृश्य में जमींदार युवक के प्रति निर्देशक की सहानुभूति का बोध खटकता है। परंतु फिल्म के अंत में एक छोटा बच्चा जमींदार के घर पर पत्थर फेंकता है। खिड़की का कांच चटक जाता है। इसका एक अभिप्राय यह है कि नयी पीढ़ी को युवक जमींदार की बेचैनी, उसकी आत्मस्वीकृति की परवाह नहीं है। नयी पीढ़ी हर घर का कांच तोड़ देगी। फिल्म इस साहस और जोखिम से टकराती है। एकल साहस, एकल जोखिम के बाद भी, फिल्म का संदेश है, नयी पीढ़ी गांव के उत्पीड़न को बर्दाश्त नहीं करेगी।[12]बाबी’ (1973) इस वर्ष की दूसरी फिल्म है जो एक मुंबई के एग्लों-इण्डियन दलित मछुआरे की लड़की बाबी (डिंपल कपाड़िया) और एक उच्चवर्गीय लड़के राज (ऋषि कपूर) के किशोर रोमांस के उपफनते प्रेम के बीच वर्ग और जाति के उपबंध तोड़ती सुन्दर प्रेम कहानी है। बहुत सारे नए आयाम लिए इस फिल्म में एक नयापन यह है, कि बदलते परिवेश में सम्पन्न हुआ दलित मछुआरा कहीं से भी दीनहीन नहीं है। वह अपनी लड़की के हक़ में किसी भी सीमा तक जाने को तैयार है। संभवतः इसका श्रेय उत्तर की अपेक्षा महाराष्ट्र में सर्वप्रथम उठी सामाजिक परिवर्तन और आर्थिक मुक्ति की लहर को दिया जा सकता है, जिसने दलितों को आर्थिक रूप से सम्पन्न और सामाजिक रूप ये सुदृढ़ होने का मार्ग सुझाया था।

निषांत’ (1975) अंकुर के बाद की श्याम बेनेगल की ही फिल्म है, जिसमें वे एक कदम आगे बढ़कर जमींदारी अत्याचारों के प्रति शोषित ग्रामीणों के सामूहिक संघर्ष को चित्रित करते हैं। फिल्म में पत्नी की मर्यादा भंग होने पर मास्टर साहब (गिरीश कर्नाड) गांव को मिलाकर संगठित रूप से जमींदार (अमरीशपुरी) के घर पर हमला करते हैं। फिल्म अच्छाई पर बुराई के संघर्ष में जमींदार की हत्या के बावजूद आवाम की जीत का अहसास पैदा नहीं कर पाती। दीवार’, (1975) दीवार यश चोपड़ा की बहुचर्चित और बहुदर्शित फिल्म है। फिल्म के मूल में मजदूर संघ के एक नेता आंनद (सत्येन कपूर) है। मिल मालिक आनंद को उसके परिवार सहित जान से मारने की धमकी देते है। बेवश आनंद मालिकों से समझौत कर लेता है। इससे मजदूरवर्ग आनंद को चोर और बेईमान मानकर उस पर जानलेवा हमला करता है। आनंद अपनी जान बचाकर भगता है। मजदूरों के कोप से आनंद का परिवार भी नहीं बचता। उसके दो बच्चे विजय (अमिताभ बच्चन) और रवि (शशि कपूर) और पत्नी (निरुपाराय) को वह स्थान छोड़कर मुंबई भागना पड़ता है। भागते हुए भी वे मजदूर विजय (अमिताभ बच्चन) के हाथ पर-मेरा बाप चोर है।लिख देते हैं। अपने हाथ पर लिखे इस अपराधी शिलालेख के चलते स्वाभिमानी विजय कहीं भी सम्मान नहीं पाता और वह अपराध की दुनिया में धँस जाता है। दूसरा भाई रवि (शशि कपूर) पुलिस अफसर बनता है। एक कानून का रखवाला है तो दूसरा भंजक। आगे की कहानी दानों भाइयों की इसी तकरार की कहानी है। फिल्म में विजय (अमिताभ बच्चन) का बचपन में बूटपालिश करना और उसी से जुड़ा उसका जवानी में बोला गया यह संवाद-मैं आज भी फेंके हुए पैसे नहीं उठाता!फिल्म दीवारको दलित स्वाभिमान अंकुरण की फिल्म बना देता है।[13]मृगया’ (1976) मृणाल सेन निर्देशित यह फिल्म बीसवीं सदी के तीसरे दशक में उड़ीसा के जंगलों में रहने वाले एक आदिवासी शिकारी घिनुआ (मिथुन चक्रवर्ती) की बहादुरी की कथा कहती है। साहूकार भुवन सरदार एक आदिवासी विद्रोही का सिर काटकर ब्रिटिश सरकार को पहुँचाकर इनाम पाता है। प्रतिशोध में नायक घिनुआ उस साहूकार का सिर काटकर ब्रिटिश सरकार के अधिकारी के पास यह कहकर पहुँचाता है कि उसने जंगल के सबसे खतरनाक जानवर का शिकार किया है। वह जो दूसरों की बहू-बेटियों को बेइज्जत कर अपनी हवस पूरी करता है, उससे बड़ा शिकारी कौन हो सकता है। उसकी बहादुरी पर अंग्रेज सरकार को भी सजा सुनाते हुए दो बार सोचना पड़ता है। उपनिवेशकालीन शोषण के विरुद्ध और प्रकारांतर से आपातकाल के विरोध में खड़ी यह बहुचर्चित फिल्म, दलितों के बाद आदिवासी जीवन और उनके कथावृत्तों का चित्रपट पर उभरने के प्रारंभिक सफल प्रयासों में से एक है। यह सब अनायास ही नहीं हुआ था उस समय तक 1969 में बंगाल के नक्सलवाड़ी गाँव से शुरू हुआ नक्सलवादी आन्दोलन देश के उत्तरपूर्वी क्षेत्रों में अपना प्रभाव पकड़ चुका था। तब बंगाली फिल्मकार मृणलसेन इसके प्रभाव से कैसे बचपाते। शोषण के विरुद्ध सार्थक हिंसा इस फिल्म का मूल स्वर है।

मंथन’ (1976) श्वेत क्रांति के जनक और गुजरात के नेशलन डेरी डेवलपमेंट कार्पोरेशन के अध्यक्ष वी. कुरियन के सहयोग से बनी और श्याम बेनेगल निदेर्शित यह फिल्म यथार्थ जीवन की कथा पर आधारित है। इसमें सहकारिता की शक्ति को प्रदर्शित किया गया है और इसके साथ ही उन बाधाओं का भी निरूपण किया गया है जो सामाजिक कार्यों के बीच आ खड़ी होती हैं। इनमें सिर्फ शोषक वर्ग ही नहीं होता अपितु जातिवाद और अस्यपृश्यता जैसी अनेक सामाजिक कुरीतियाँ और अंधविश्वास भी होते हैं जो सृजानत्मक कार्यों में अवांछित अवरोध खड़े करते हैं। गंगा की सौगंध (1976) राबिनहुड टाइप में डाकुओं पर बनने वाली तत्कालीन मसाला फिल्मों के दौर सुल्तान अहमद निर्देशित गंगा की सौंगधएक दलित युवति धनिया (रेखा) और गैर ब्राह्मण गंगा(ंगंगा) जमींदारी अत्याचारों से तंग आकर डाकू बनने और चुन-चुनकर बदला लेने की सामान्य सी कहानी है। फिल्म में ध्यान देने योग्य एक चीज़ यह है कि फिल्मकार के मुस्लिम होने के कारण इसमें दलितों के ज़मीदारी अत्याचारों से तंग आकर गाँव से पलायन का दृश्य, पूरी तरह पैगंबर हजरत मुहम्मद के मदीना से मक्का हिजरतकरने की शैली में फिल्माया गया है। जमींदारों और सवर्णीय अत्याचारों के विरुद्ध दलितों का अपना निवास छोड़ सुरक्षित स्थान की ओर हिजरत (पलायन) कर जाने का विचार गाँधी का भी था। फिल्म में यह प्रभाव मिलाजुला माना जा सकता है, क्योंकि धनिया का पिता कालू चमार(प्राण) अपनी जूते दुकान में गाँधी की तस्वीर लगाए हुए दिखाया गया है दूसरे जमींदार के अत्याचारों से पलायन अपनी जाति-बिरादरी के साथ कालू जिन उदार मुस्लिमों के यहाँ शरण पाता है वहाँ उसका स्वागत ठीक वैसे ही होता है, जैसे मदीना छोड़कर गए हजरत मुहम्मद का मक्का में स्वागत होना बताया गया है। फिल्म में प्राण का कालू चमार के रूप में विद्रोही अभिनय एक स्मरणीय हिस्सा है।  

 ‘आक्रोश’ (1980) आदिवासी विद्रोह की जो शुरूआत मृगयासे हुई थी, उसकी समकालीन समय के क्रूर यथार्थ में परणिति, गोविन्द निहालनी निर्देशित व विजय तेन्दुलकर कृत फिल्म आक्रोशमें होती है। यह फिल्म भीखू लहन्या (ओमपुरी) नामक आदिवासी की व्यथा बयान करती है जो अपनी ही पत्नी नागी लहन्या (स्मिता पाटिल) के कत्ल के जु़र्म में मुज़रिम है और अपने बचाव में एक भी शब्द नहीं बोलता! स्थानीय राजनेता, पूँजीपति और पुलिस तीनों ने मिलकर ही उसकी पत्नी से बलात्कार करने के बाद उसकी जघन्य हत्या की है। निरक्षर होने बावजूद लहन्या मूर्ख नहीं है वह जानता है कि उसे यह स्वार्थी व्यवस्था न्याय नहीं दे सकती और व्यवस्था के इस ढोंग में पड़कर अपनी पत्नी की अस्मिता की और छीछालेदर नहीं करवाना चाहता, इसलिए वह न अदालत में एक शब्द बोलता है और न सरकार द्वारा न्युक्त किए गए वकील को कुछ बतलाता है। उसे जब अपने पिता के अन्तिम संस्कार की इजाजत मिलती है तो वह मौके का फायदा उठाकर अपने पिता का अन्तिम संस्कार करने के साथ ही अपनी बहन की हत्या भी कर देता है ताकि उसकी असहाय बहन भी उसकी पत्नी की तरह ही समाज के बेईमानों की दरिंदगी का शिकार न हो। दलित-आदिवासी जीवन के नग्न यथार्थ को रूपायित करने वाली इस फिल्म में नक्सलवाद की स्पष्ट अनुगूँज है और कथा परिदृश्य में एक अनाम नक्सली (महेश एलंकुचवार) भी है जो आदिवासियों के बीच संगठन का काम करता है। वहीं दूसरी ओर भास्कर कुलकर्णी (नसीरुद्दीन शाह) है जिसका कानून और न्यायवस्था पर से अभी विश्वास छूटा नहीं है उन दोनों के निम्न संवाद से हम फिल्म आक्रोशकी पक्षधरता समझ सकते हैं-

कामरेड: दया आती है तुम्हें?

भास्कर कुलकर्णी: ये लोग सोचते क्यों नहीं, जब तक ये बोलेंगे नहीं तब तक कोई इनकी मदद नहीं कर सकता?
कामरेड: आप उन्हें साँस भी लेने दें, तब ना? दोष उनका नहीं आपकी व्यवस्था का...?
भास्कर कुलकर्णी: जी हाँ जानता हूँ, मार्क्सिस्ट लोग तो हर...।
कामरेड: हर्ट करना चाहते हो...।
भास्कर कुलकर्णी: सो सारी...!
कामरेड: मुझे घिन आती है तुम्हारे एटीट्यूड पर... तुम्हें दया आती है लेकिन जो कुछ चल रहा है उस पर गुस्सा नहीं आता। खिचाई की तो आदत बन गई है, बड़ा नाॅवेल फील कर लेते हैं आप...फिर उसके बाद कुछ करने की जरूरत ही नहीं।
भास्कर कुलकर्णी: और किया भी क्या जा सकता है...?
काॅमरेड: टिपीकल पेटी बुर्जुआ एटीट्यूड, क्रांति तो दूर इस घिनौनी परिस्थिति को बदलने का ख्याल तक नहीं आता हमें... ऐसा तो रोज़ ही होता है कहकर चुप हो जाते हैं सब... क्या हो गया हमें; हमें शर्म ही नहीं आती? गुस्सा भी नहीं आता?
भास्कर कुलकर्णी: यश! आई डू हिम वट वरी सैम....लेकिन हमारी इतनी ताकत नहीं है; मैं सिर्फ लहन्या की मदद कर सकता हूँ...।

कामरेड: लहन्या जैसे इक्के-दुक्के की की मदद करने से क्या यह समस्या हल हो जाएगी? इस व्यवस्था को जब तक जड़ से नहीं उखाड़ा जाए, तब तक कुछ नहीं होने वाला...।’’
भास्कर कुलकर्णी: लेकिन, देखिए यदि मैं एक भी गरीब आदिवासी की मदद कर सकूँ, उसे न्याय दिला सकूँ, तो कहीं तो कुछ तो फर्क पड़ेगा...।’’

कामरेड: तो तुम यह समझतो हो कि तुम्हारी इस व्यवस्था में इंसाफ मिलना मुमकिन है?
भास्कर कुलकर्णी: इंसाफ दिलाना हमार फ़र्ज़ है...।[14]

फिल्म का एक पक्ष दुसाणे वकील (अमरीश पुरी) है, जो स्वयं आदिवासी होकर भी पूँजीपति, नेताओं और वकीलों के केस लड़ता है। उन्हीं के साथ उसका उठना-बैठना है और उन्हीं की गालियाँ भी खाता है। किन्तु वह अपने को इस तरह डी-कास्ट कर चुका है कि सिर्फ केस लड़ने के अलावा उसकी न तो ह्यूमनिटी में आस्था है न ही आत्मसम्मान और खुद्दारी में। बाबा साहेब ने संभवतः ऐसे ही पढ़े-लिखे प्रशासनिक दलित-आदिवासियों को ध्यान में रखकर कहा था, कि मुझे सबसे ज्यादा धोखा पढ़े-लिखे लोगों ने ही दिया है। चक्र’ (1980) रवीन्द्र धर्मराज की इकलौती फीचर फिल्म जो मुंबई में झोपड़पट्टियों में रहने वालों के जीवन की आशा-निराशाओं की मार्मिक कथा बयान करती है। उन कारणों की ओर इशारा करती है जो उनको विपदाग्रस्त वीभत्स जीवन से बाहर नहीं निकलने देते। व्यवस्था की उनकी कुटिलताओं को भी रेखांकित करती है जो उन्हें पशुवत जीवनयापन के लिए मजबूर कर रही हैं। जयंत दलवी के मराठी उपन्यास पर आधारित इस फिल्म के मुख्य कलाकार थे नसीरुद्दीन शाह, स्मिता पाटिल, कुलभूषण खरबंदा, रंजीता चैधरी, सविता बजाज और रोहिणी हट्टंगड़ी।

अंधेर नगरी’ (1980) गुजराती लोककथा अछूत नो वेशपर आधारित केतन मेहता की यह पहली फिल्म में अछूतों की हीन दशा और उनके साथ होने वाले अमानवीय व्यवहार को दर्शाया गया है। एक राजा की दो रानियों के आपसी संघर्ष में बड़ी रानी के बेटे को छोटी रानी मरवा डालने का प्रयत्न करती है परंतु वह दलित-आदिवासियों द्वारा बचा लिया जाता है और उसके समुदाय की ही एक लड़की से प्यार करने लगता है। गुजरात के भवाईलोकनाट्य शैली में फिल्म के अंत में सूत्रधार यह संदेश देता दिखाया गया है कि यदि हम अपने अधिकारों की प्राप्ति के प्रति सचेत और सघर्षशील हो जाएँ तो अन्याय का उन्मूलन कर सकते हैं। नसीरुद्दीन शाह, मोहन गोखले, ओमपुरी, स्मिता पाटिल और दीना पाठक इसके मुख्य कलाकार थे। सदगति’ (1981) सत्यजीत राय निर्देशित और प्रेमचंद की अमर कहानी सद्गतिपर आधारित यह एक मात्र फिल्म है, जो उस अप्रतिम कथाशिल्पी के साथ न्याय करती है। जिस तरह प्रेमचन्द ने सद्गतिमें ब्राह्मणवाद पर गहरी चोट की थी उसी प्रकार सत्यजीत राय ने भी उसी तुर्श अभिव्यंजना की है। ओमपुरी, मोहन अगाशे, स्मिता पाटिल और गीता सिद्धार्थ इसके मुख्य कलाकार थे। आरोहण’ (1982) समाज में व्याप्त सामाजिक और आर्थिक गैर बराबरी से उत्पन्न वर्गसंघर्ष को केन्द्र में रखकर बनाई गई श्याम बेनेगल की यह फिल्म एक ग्रामीण हरिमंडल की कहानी है जो जमींदार के अत्याचार से उत्पीड़ित है। पुलिस और प्रशासन भी हरि की जगह जमींदार की सहायता करते हैं। हरि लेकिन तब भी हिम्मत नहीं हारता और निरंतर संघर्ष के पथ पर आगे बढ़ने को ही शोषण से मुक्ति का साधन मापता है। मुख्य कलाकार थे ओमपुरी, शीला मजूमदार, पकंज कपूर ओर विक्टर बैनर्जी। सौतन’ (1983) सावन कुमार निर्देशित और राजेश खन्ना के नायकत्व वाली इस फिल्म में टीना मुनीम के विरुद्ध सौतन के रूप में एक दलित युवति राधा की भूमिका का निर्वहन पद्मिनी कोल्हापुरे ने किया था।

 ‘दामुल’ (1984) ‘शुरू होता है जहाँ से भय और अंधेरा/शुरू होती है भय और अंधेरे को भेदने की इच्छा भी वहीं से।कुमार अंबुज की गुफाकविता की यह पंक्तियाँ प्रकाश झा निर्देशित फिल्म दामुलपर सटीक बैठती हैं। यह फिल्म आईना है बिहार का, जिसके समाजार्थिक स्थितियों का खुलासा वह करती है। वर्गीय चरित्र को परत दर परत उघाड़ती है। राजनीतिक भ्रष्टाचार से जूझते और जातिवाद के दंश झेलते उन दलितों की असाहयता को बिना किसी तर्क और लाग-लपेट के परोसती है, जिसे देखकर हिन्दू समाज की उस जड़ता को समझ सकते हैं, जहाँ आदमी जानवर होने को अभिशप्त है। दामुलहै तो एक बंधुआ मजदूर की कहानी, लेकिन कोई बंधुआ मजदूर कैसे बनता है, उसे किन-किन नारकीय परिस्थितियों से गुजरना पड़ता, न चाहते हुए भी उसे वह काम करना पड़ता है, जो वह नहीं चाहता। इसके अलावा फिल्म में ब्राह्मण और राजपूतों के आपसी वर्चस्व में हरिजन (दलित) कैसे पिसते है, यह प्रकाश झा की आँख देखती है।

बिहार के जिला मोतीहारी के बच्चा सिंह राजपूत की खुन्नस यह है कि परधानी में ब्राह्मण माधो पांड़े ही जीतते आ रहे हैं। उन्हें हराने की चाल स्वरूप वे इस वार हरिजन टोले के गोकुल को चुनाव में खड़ा कर देते हैं। बच्चा सिंह हरिजन टोले में जाकर माधो पांड़े का कच्चा चिट्ठा खोलते हैं। कहते हैं छुआछूत, भेदभाव ई बाभन लोग का बनाया हुआ है। अपनी इस चाल में बच्चा सिंह सफल तो हो जाते है, लेकिन गोकुल चुनाव नहीं जीत पाता, क्योंकि बच्चासिंह को छोड़कर सभी राजपूत टोले के लोग अपने मत का प्रयोग करने नहीं जाते। बच्चासिंह का तर्क भी कि, खड़ा किए हम, जिताएंगे हम तो राज कौन करेगा, चमार? कोई असर नहीं करता। उधर, बोगस वोट के जरिए माधो पांडे़ चुनाव जीत जाते हैं। बाहर के गुंडे को बुलाकर हरिजनों को उन्हीं के अहाते में बंधक बना देने वाले माधो पांडे़ अपनी चाल में सफल हो जाते हैं। पर, लंबे समय से चुनाव जीतने की तैयारी कर रहे बच्चा सिंह अपने ही लोगों से हार जाते हैं। मेले में उनका हरिजनों के साथ उठना बैठना, उनकी बस्तियों में आना-जाना, उनके साथ अपनापन पैदा करना सब कुछ बेकार चला जाता है। इधर गोकुल की वह आशंका भी सच साबित होती है कि इस चुनाव में बहुत खून-खराबा होगा। उनका तो कुछ नहीं बिगड़ता। लेकिन हरिजन टोला मातमी माहौल में बदल जाता है। आगजनी और हत्याओं के नंगे-नाच के बीच अंततः सारे गिले-शिकवे मिटाकर माधो पांड़े और बच्चासिंह का बाभन-राजपूती मेल हो जाता है। इसके बाद तो फिर पुलिस, नेता, कानून हरिजनों के दर्द को कैसे समझते?

गाँव की विधवा महत्माइन जिसकी जर-ज़मीन ही नहीं, माधो पाड़ें उसका शारीरिक शोषण भी करता है, एक रात वह उसकी हत्या करवा देता है। केस में फँसा दिया जाता है संजीवना। संजीवना माधो पाड़ें का बंधुआ है। कानून तो ताकतवर के लिए है। बंधुआ संजीवना के लिए महत्माइन की हत्या का झूठा केस दामुल साबित होता है। उसे इसमें फाँसी हो जाती है।...गौर करने की बात है कि जो दलित बस्ती जमींदारों के शोषण-उत्पीड़न के खिलाफ उठा खड़ा नहीं होती, उस समाज की एक औरत प्रतिकार करती है। जब माधो पांड़ें ठंड की रात में अपने गुर्गों के साथ अलाव ताप रहे थे, रजुली (संजीवना की पत्नी) गंड़ासा लेकर आती है और माधो पांड़े के गले पर प्रहार करती है। माधो कुर्सी से गिरकर छटपटाने लगता है और अंततः दम तोड़ देता है। रजुली को लोग पकड़ लेते हैं, रजुली तीव्र आक्रोश में फूट पड़ती है-तू मुखिवा को मारकर दामुल पर काहे नहीं चढ़ा रे...!यशस्वी कथाकर शैवाल की कहानी पर आधारित दामुलमें मुख्य कलाकार थे मनोहर सिंह, अन्नू कपूर, दीप्ति नवल, सीमा मजूमदार, रंजना कामथ, प्यारे मोहन सहाय इत्यादि।[15]

पार’ (1984) बिहार के गाँव-जवार में दलितों के चुनाव में खड़े होने और सवर्णीय कुचक्रों चलते मिली असफलता की जो एक हल्की सी झलक हम दामुलमें देखते हैं, उसका अगला रूप गोतम घोष निर्देशित फिल्म पारमें हमें देखने को मिलता हैं। फर्क बस इतना है कि यहाँ एक दलित को चुनाव में खड़ा करने का प्रयत्न बाभन-राजपूत नहीं, एक आर्दशवादी स्कूल मास्टर करता है।... चुनाव सफलतापूर्वक जीता जाता है। मास्टर के प्रगतिकामी विचार और गाँव में दलित राजनीति आने से जगी आशा की किरण से उत्साहित गाँव के मजदूर, स्थानीय ज़मींदार के यहाँ न्यूनतम वेतन पर मजदूरी करने से इन्कार कर देते हैं। ज़मींदार इस सब की जड़ स्कूल मास्टर को पहले तो धमकाता है और फिर न मानने पर एक रोड एक्सीडेन्ट में उसकी हत्या करवा देता है। इस घटना का प्रतिकार गाँव का विद्रोही दलित नौरंगिया (नसीरुद्दीन शाह) अपने अन्य साथियों के साथ, जमींदार के भाई की हत्या के रूप में करता है। बदले में जमींदार पूरी दलित बस्ती में आग लगावा देता है। उस दहशतज़दा माहौल में नौरंगिया और उसकी गर्भवती पत्नी (शबाना आजमी) भागकर किसी तरह कलकत्ता पहुँचते हैं। जहाँ रोजगार के स्थायी अभाव और मिलों में चल रही अनिश्चितकालीन हड़तालों के कारण, अंततः भूख से लड़ते थक-हारकर वे दलित दंपत्ति गाँव लौटने के लिए विवश होते हैं। किराये का पैसा जुटाने के लिए नौरंगिया को एक बेहूदा काम मिलता है-सुअरों के झुँड को नदी पार कराने का। सुअरों के झुँड को वे नदी पार तो पहुँचा देते हैं और पार पहुँचकर उन्हें रोटी भी मिल जाती है और पैसा भी, पर उसकी पत्नी के पेट में पलने वाला उसका बच्चा मर जाता है। दलित जीवन की भयानक त्रासदियों में से एक फिल्म पारसिद्ध करती है, कि सिनेमा भी जीवन से जुड़ी सच्चाइयों को बयान करने का एक सशक्त दृश्य माध्यम है और क्यों? इसके शुरूआती दौर से लेकर अब तक परंपरागत रूढ़िवादी तबका; इससे नाक-भौं सिकोड़ता चला आ रहा है...।

के. विश्वनाथ की जाग उठा इंसान’ (1984) इस वर्ष की एक अन्य महत्वपूर्ण फिल्म थी, जिसमें मिथुन ने एक हरिजन युवक हरिऔर श्रीदेवी ने एक ब्राह्मण युवा नर्तकी संध्याभूमिका निभाई थी। तमाम उतार चढ़ावों के बावजूद संध्या और हरि का मिलन होता है। जन्मना जयते शूद्रः कर्मणा द्विज उच्च्यतेजैसे प्रकारांतर में ब्राह्मण श्रेष्ठता को जीवित बनाये रखने वाले आर्यसमाजी विचार के तहत, युवति का पिता और भतीजा यह रिश्ता स्वीकार भी कर लेते हंै, किन्तु उसका भाई और गाँव समाज नहीं; जिनके क्रूर हमले में हरि और संध्या को अपने जीवन से हाथ धोना पड़ता हैं। सटीक अभिनय और अर्धशास्त्रीय संगीत के होते हुए भी फिल्म का दुखांत दर्शकों को भाया नहीं और फिल्म फ्लाप हुई। स्मरण रहे मिथुन चक्रवर्ती की फिल्मों का दर्शक अधिकांशतः दलित-पिछड़ा आम आदमी ही रहा है, वह अपने नायक (जो फिल्म में भी दलित है) की पराजय भला कैसे स्वीकार कर करता? ‘आदमी और औरत’ (1984) तपन सिन्हा निर्देशित, अमोल पालेकर, महुआ राय चौधरी अभिनीत मूलतः एक यह टेलीफिल्म है जो दूरदर्शन द्वारा दूरदर्शन के लिए ही बनी थी, किन्तु जाति और धर्म से परे मन और देह के धरातल पर मात्र स्त्री-पुरुष होने की कथा कहती इस फिल्म को इन्टरनेशनल फिल्म फेस्टीवलमें भी सराहा गया और अवार्ड जीते थे।
देव शिशु’ (1985) उत्पलेंदु चक्रवर्ती निर्देशित धार्मिक शोषण पर आधारित यह फिल्म एक ऐसे दलित माता-पिता रघुवर (ओमपुरी) और सीता (स्मिता पाटिल) के तीन सिर वाले बच्चे की कहानी है, जिसे अशुभ कहकर जिये महंत नामक तांत्रिक (साधू मेहर) ने उनसे छीन लिया था। गाँव में आई बाढ़ से लुटकर रघुवर और सीता जब अपने एक रिश्तेदार के गाँव पहुँते हैं, तो वे वहाँ देखते हैं कि उनका वही तीन सिर वाला शिशु एक ठेले पर रखा हुआ है और दो व्यक्ति उसे देवशिशु कहकर प्रचारित कर रहे हैं। अंधश्रद्धा में डूबे लोग भी उस पर पैसों की बौछार किए जा रहे हैं। रघुवर इसका तीव्र विरोध करता है, परिणाम स्वरूप वहाँ उपस्थित लोग उसे मार-मारकर अधमरा कर देते हैं। किसी तरह जान बचाकर भागा रघुवर अपनी पत्नी के पास आता है और अपनी पत्नी से पुनः उसी तरह का विचित्र बच्चा पैदा करने का आग्रह करता है, ताकि जिसके जरिये वह भी कमाई कर सके। अपने सम्पूर्ण अर्थ में देवशिशुएक महत्वपर्ण फिल्म है, जिसका एक दर्शन (पाठ) यह भी है कि धार्मिक अंधविश्वास के आधार होने वाले अर्थोपार्जन पर जन्मजात आरक्षण केवल सवर्ण पुरोहित, पंडे-पुजारी और संत-महंतो का ही है और वे इस क्षेत्र में भूलकर भी दलित वर्ग को प्रश्रय नहीं देना चाहते/चाहेंगे।

गुलामी’ (1985) यद्धपि वर्ग और जाति के अपने संस्कार होते हैं और उनका प्रतिबिंब व्यक्ति के व्यक्तित्व और कृतित्व पर एक छाप के रूप में अवश्य रहता है। उससे छुटकारा पाना असंभव नही ंतो आसान भी नहीं है, किन्तु जो इससे मुक्त हो जाता है वही सिद्ध पुरुष कहलाता हैं। जे.पी.दत्ता निर्देशित और उनके पिता ओ.पी दत्ता द्वारा लिखित फिल्म गुलामीएक ऐसी ही महत्वपूर्ण कृति है, जिसे फिल्मकार ने अपने तमाम पूर्वाग्रह और संस्कारों से मुक्त होकर सहज मानवीय धरातल पर स्वतंत्रता और समानता की पैरोकार प्रतिनिधि रचना के रूप में किया है। यह फिल्मकार की दृष्टि का ही विस्तार है कि जिस दलित जीवन की दुश्वारियों को महात्मा गाँधी भी सवर्णों की आम समस्याओं से अलग करके नहीं देख सके थे, गुलामी का निर्देशक फिल्म के प्रारंभ में ही सूत्रधार (अमिताभ बच्चन) के माध्यम से, उन्हें पहले ही अलग बताता हुआ आगे बढ़ता है-अंग्रेजों की हुकूमत से जूझने के लिए और गुलामी की जंजीरें तोड़ने के लिए तमाम हिन्दुस्तानी वतन के सिपाही बन चुके थे। कुछ जाने-पहचाने कुछ बेनाम और कुछ गुमनाम। आजादी का सपना तो सभी देख रहे थे, मगर एक सिपाही का सपना कुछ अपना था उसकी गुलामी की जंजीरें अलग थीं और उसकी आजादी की देवी की मूरत भी अलग थी। वह गुमनाम जरूर था मगर बेनाम न था। उसका नाम था रंजीत सिंह चौधरी।[16]

 फिल्म का प्रारंभ होता है राजस्थानी मरुधरा के एक अनाम गाँव के एक दलित लड़के रणजीत के विद्रोह से, जो ब्रिटिश सरकार के शोषण और दमन की जड़ें काटता, अपने गाँव-समाज में व्याप्त-अस्यपृश्यता, जातिवाद और जमींदारी की जड़ें काटने का प्रयास करता है। रणजीत अपने स्कूल में पीछे नहीं आगे और सवर्ण बच्चों के बगल में बैठना चाहता है। ऊँची जाति के बच्चों के लिए पृथक रखे मटकों से पानी पीकर, वह पानी-पानी का भेद मेटना चाहता है। पर यह हो नहीं पाता। स्कूल में जमींदार के लड़कों से लड़ी बराबरी की लड़ाई में, उसे हवेली बुलाकर मार पड़ती है। हवेली में अपना और अपने माता पिता का अपमान रणजीत सहन नहीं कर पाता और आगे की पढ़ाई पूरी करने अपने मामा के यहाँ चला जाता है।

रणजीत अपनी पढ़ाई पूरी कर भी नहीं पाता कि क़र्ज़ और जमींदार/महाजनों के शोषण के चलते बीमार और फिर मृत्यु को प्राप्त हुए पिता के देहांत की खबर सुनकर वह अपने गाँव लौट आता है। परंपरा अनुसार रणजीत के पिता द्वारा ज़मीदार से लिया क़र्ज़ रणजीत के सिर आता है, किन्तु विद्रोही रणजीत इससे इन्कार कर देता है। ज़मीदार पुलिस से मिलकर युवा रणजीत (धर्मेन्द्र) को जेल भिजवा देता है। घर में माँ अकेली माँ के रहते रणजीत का खेत और घर नीलाम हो जाता है और माँ विक्षिप्त। कुछ दिन बाद जमींदार की प्रगतिशील लड़की सुमित्रा (स्मिता पाटिल) के प्रयासों से रणजीत सिंह जेल से छूट आता है, किन्तु अपना घर और खेत नीलाम होने के कारण अपनी मानसिक स्थिति खो बैठी रणजीत की माँ (सुलोचना) उसके आने के साथ ही यह दुनिया छोड़ देती है। रणजीत अपनी ही  बिरादरी की मित्र लड़की मोरा (रीनाराॅय) जो उसके जेल से आने तक उसकी माँ की सरंक्षक बन रही थी, उसे अपनी पत्नी बना लेता है।

इसके बाद गाँव में क्रमशः चार घटनाएँ घटती हैं। एक के ज़मींदार के विरुद्ध जाकर रणजीत  गाँव छोड़कर जा रहे किसानों को गाँव में ही रोक लेता है और क़र्ज़ में जमींदार के कारिन्दों द्वारा खोलकर लिए जा रहे किसानों के हल-बैल वापस कराता है। दो दलितों के लिए प्रतिबंधित जमींदार के कुँए पर सामूहिक रूप से पानी भरने के लिए संघर्ष करता है। तीन दलित हवलदार गोपी (कुलभूषण खरबंदा) अपने बेटे के विवाह के अवसर पर निम्न जातियों के लिए वर्जित घुड़चढ़ी की रस्म करने के प्रयास में, अपने बेटे मोहन से हाथ धो-बैठता है। इसी क्रम में चैथी घटना अंतर्गत एक दिन रणजीत और सुमित्रा डाकुओं के बीच फँस जाते हैं। रणजीत एक शिक्षक है यह सुनकर डाकुओं का सरदार उनसे नरमी बरतता हैं। जमींदार और साहूकारी शोषण के चलते एक आम इंसान से बागी बने डाकुओं के सरदार का दृष्टिकोण पलटने के लिए, रणजीत उन्हें पढ़ने के लिए मक्सिम गोर्की का महान उपन्यास माँदेता है।

अंत में यही उपन्यास रणजीत सिंह की बर्बादी का सबब बनता है। एक मुठभेड़ में डाकुओं के डेरे से पुलिस के हत्थे यह किताब चढ़ जाती है। पुलिस जब्त की हुई पुस्तक की पहचान कर लेती है जो गाँव के पुस्तकालय में चैधरी रणजीत सिंह के नाम चढ़ी हुई थी, रणजीत एक बार फिर जेल में होता है। कटे पर नमक यह कि एसपी सुल्तान सिंह जो सुमित्रा का पति है, उसकी विवाह के बाद वहीं आकर पोस्टिंग होती है। वहाँ आकर जब उसे यह ज्ञात होता है कि नीच जात रणजीत और उसी पत्नी सुमित्रा कभी मित्र थे, तब तो वह जेल में रणजीत को और अधिक मात्रा में यातना देता है। तंग आकर रणजीत एक दिन जेल से भाग खड़ा होता है और अपनी बेटे की मृत्यु का प्रतिशोध लेने के लिए हवलदार से बागी बने गोपी दादा की गैंग में शामिल हो जाता है। इसी क्रम में एक व्यक्ति और बागी बनता है-जाबर (मिथुन चक्रवर्ती)। दलितों के प्रति सहानुभूति रखने और बागी रणजीत की हथियारों से मदद करने के कारण, पूर्व आर्मी मैन जाबर को भी एसपी सुल्तान सिंह झूठे केश में फँसा देता है।

 इधर गाँव के स्कूल मास्टर (राम मोहन) की अनाथ बेटी और जाबर की मंगेतर तुलसी (अनीता राज) हवेली में ज़मीदार के ऐयास बेटों से अपनी मर्यादा की रक्षा करती, मारी जाती है। घुड़चढ़ी की ज़िद में अपने बेटे को खो चुके गोपी दादा के सामने भी वैसा ही दृश्य पैदा होता है। थानेदार फतेसिंह (रजामुराद) अपने बेटे की बरात लेकर जा रहा होता है। प्रतिशोध की आग में जलते गोपी दादा अपनी गैंग के साथ हमला करते हैं और फतेसिंह को मार गिराते हैं, किन्तु उसके मासूम बेटे को डाकू और पुलिस की गोलियों से बचाते हुए खुद मारे जाते हैं। इस प्रकार जुल्म की इंतिहा हो जाती है।

फिल्म के अंत में चैधरी रणजीत सिंह और जाबर गैंग के साथ गाँव पर हमला बोल देते है। वे अपने ऊपर हुए अत्याचारों का चुन-चुनकर प्रतिशोध लेते, ज़मीदार और महाजनों को मारते और लूटते-पीटते हैं। तब तक एसपी सुल्तान सिंह अपने पुलिस फोर्स के साथ गाँव का घेरा डाल देता है। पुलिस और बागियों की दो तरफा फायरिंग में पहले जाबर मारा जात है और उसके बाद जमींदारों और महाजनों की हवेलियों से इक्ट्ठा किए गए बही-खातों के ढेर पर जलती लुकाठी लगा, अंत में चैधरी रणजीत सिंह भी शहीद हो जाता है। ...सामाजिक समरसता और शोषण से मुक्ति का अधूरा सपना पूर्ण होने की आशा में मरते हुए भी चैधरी रणजीत सिंह की आँखें, खुली रह जाती हैं। समाप्त होती फिल्म डूबते सूरज की पृष्ठभूमि में रणजीत की पत्नी मोरा अपने नवजात शिशु को लिए खड़ी दिखाई देती है, जो चैधरी रणजीत सिंह के सपने के बचे रहने और आशा का प्रतीक है। शिक्षक से बाग़ी बने राजस्थान के एक दलित किसान के वास्तविक जीवन-संघर्ष का आधार लेकर बनी फिल्म गुलामीको; जातिग्रस्त भारत में वर्गसंघर्ष की गतिशीलता समझने में, पाठ्यपुस्तक की तरह इस्तेमाल किया जा सकता है।[17]

आघात (1985) गोविन्द निहालिनी निर्देशित और नसीरुद्दीन शाह, ओमपुरी, पंकज कपूर, दीपासाही और सदाशिव अमरापुरकर अभिनीत यह फिल्म ट्रेडयूनियनों के विघटन और समाजवादी आन्दोलन के क्रमशः नष्ट होते जाने पर तीखा और विचारोत्तेजक व्यंग्य करती है। टेªेड यूनियनों की आपसी प्रतिद्वन्दिता किस प्रकार उनकी विश्वसनीयता को नष्ट करने का काम करती है और व्यक्तिवाद को प्रश्रय देती है, इसका अत्यंत सजीव चित्रण गोविंद निहालिनी ने इस फिल्म में किया है। मैसी साहब’ (1986) प्रदीप कृष्ण निर्देशित और रघुवीर यादव अभिनीत इस फिल्म में रघुवीर यादव ब्रिटिश शासित भारत में फ्रैंसिस मैसी नामक एक साधारण क्लर्क की कहानी है, जो अपनी अंग्रेज नस्ल के चलते लोगों पर रुवाब दिखाता है। क़र्ज़ लेता है और एक आदिवासी युवति से विवाह भी करता है। आदिवासी समाज में दहेज युवति को नहीं युवक को देना होता है। दहेज की रकम पाने के चक्कर में फ्रैंसिस से महाजन का खून हो जाता है। इस बीच उसके चहेंते अंग्रेजी नस्ल भाई विवाह के चक्कर में इंग्लैण्ड चले जाते हैं और उसके पत्नी-बच्चे को उसका आदिवासी ससुर रकम न चुका पाने के कारण, वापस घर लिवा ले जाता है। इधर जेल में पड़े कल्पना करते मैसी साहब को भरोसा है कि एक न एक दिन उसके चाल्र्स एडम्स साहब उसे जरूर आकर बचा लेंगे और उसके बेटे को अफसर बनायेंगे। पर एडम्स साहब इंग्लैण्ड से कभी नहीं लौटते और मैसी साहब को फाँसी हो जाती है। रघुवीर यादव, बैरी जान, अंरुधती राय, सुधीर कुलकर्णी, लल्लूराम, वसंत जोगलेकर इत्यादि इसके प्रमुख अभिनेता थे।
 
सुष्मन’ (1986) आंध्रप्रदेश के सिल्क कारीगरों, सरकारी अमले और सहकारी संस्थाओं के अंतःसंघर्ष को बयान करती श्याम बेनेगल की इस फिल्म में, बुनकर रामुल के माध्यम से उनकी कथा कही गई है जो इकतकी बारीक सिल्क कारीगरी करता है। पूँजीवादी शोषण और मशीनीकरण के कारण किस प्रकार कुशल कारीगर अपने हुनर से दूर चले जाते हैं। वे कारीगर जो सिर्फ अपने हाथों से नहीं  अपनी आत्मा से वस्त्रों का निर्माण करते हैं। एसोसिएशन आॅफ कोआपरेटिव्स एंड अपेक्स सोसाइटी आॅफ हेन्डलूम्स निर्मित इस फिल्म के मुख्य कलाकार थे-ओमपुरी, शबाना आज़मी, कुलभूषण खरबंदा, के.के. रैना, अन्नू कपूर, इला अरुण, मीना गुप्ता और मोहन अगाशे इत्यादि। महायात्रा (1987) गौतम घोष की एन.एफ.डी.सी द्वारा हिन्दी और बंगला में एक साथ बनी इस पीरियड फिल्म में उन्नीसवीं शताब्दी के बंगाल में गंगा तट पर शवों को जलाने वाले एक अछूत बैजू का भी वर्णन है, जो मृत्युशैया पर पड़े एक विधुर ब्राह्मण के मोक्ष के लिए खरीदकर लाई गई गरीब ब्राह्मण युवति को, सती कराने का विरोध करता है। मुख्य कलाकार थे शुत्रघन सिन्हा, शंपा घोष, बसंत चैधरी, मोहन अगाशे प्रमोद गांगुली और राॅबी घोष। बँटवारा’ (1989) राजस्थान के जातिय और साम्प्रदायिक संघर्ष को जमींदारी परिवेश के अन्तर्गत प्रस्तुत करने वाली जे.पी. दत्ता निर्देशित इस बहु सितारा फिल्म में भी अभिनेता धर्मेन्द्र ने एक बार एक दलित युवा की भूमिका निभाई थी। यह चरित्र गुलामी के रणजीत से हटकर एक अपेक्षाकृत संयमित दलित युवा है। अन्य कलाकार थे-विनोद खन्ना, डिंपल कपाड़िया, आशा पारेख, शम्मी कपूर, पूनम ढिल्लों, अमरीशपुरी, विजयेन्द्र घाटगे, नीना गुप्ता और कुलभूषण खरबंदा इत्यादि। भीम गर्जना’ (1989) बाबा साहेब आम्बेडकर के जीवनवृत्त को पहली बार चित्रपट पर दर्शाने वाली विजय पवार निर्देशित यह फिल्म अपने सार्थक अभिनेता चयन और निर्देशकीय गड़बड़ियों बावजूद भी दलित वर्ग में इसे काफी सराहना प्राप्त हुई थी। धारावी’ (1991) एन.एफ.डी.सी. और दूरदर्शन के सहयोग से बनाई गई प्रयोगधर्मी निर्देशक सुधीर मिश्रा की यह फिल्म एशिया की सबसे बड़ी झोपड़पट्टी धारावी में हिन्दुस्तान के कोने-कोने से आकर पनाह पाने वाले गरीब, दलित और बेरोजगारों की फौज के संतापों, आकांक्षाओं और स्वप्नों के बनने और टूटने की कहानी है। मुख्य कलाकार थे-ओमपुरी, शबाना आजमी, माधुरी दीक्षित, चंदू पारखी, रघुवीर यादव, सतीश खोपकर, मुश्ताकखान, प्रमोदबाला, वीरेन्द्र सक्सेना इत्यादि।

 ‘दीक्षा’ (1991) अरुण कौल निर्देशित यह फिल्म भी महा यात्राकी तरह एक काल विशेष पर आधारित है। पृष्ठभूमि है बीसवीं सदी के आरंभ का कर्नाटक, जब सुधारवादी आन्दोलनों के प्रभाववश एक प्रगतिशील ब्राह्मण शेषादि; परंपरावादियों से बैर मोल लेता अस्पृश्यों के यहाँ धार्मिक कृत्य सम्पन्न कराने लगता है। शेषाद्रि की निर्भीकता और पारंपरिक मूल्यों से हटकर चलने की सजा उसकी विधवा युवा बेटी को मिलती तब मिलती है, जब वह गाँव के एक शिक्षक के प्रेमपाश में पड़कर गर्भवती हो जाती है। शेषाद्रि, ब्राह्मण समाज के दबाव में आकर अपनी पुत्री का घटश्राद्ध (जीवित रहते शवायात्रा निकालने का दंड) करने को बेवश है। इस मनुष्यता विरोधी पाखंड के विरुद्ध तब सिर्फ अस्पुश्य कोगाही आवाज उठाता है, जिसके यहाँ शेषाद्रि ने धार्मिक आचार संपन्न किया था। प्रगतिशील ब्राह्मण और विद्रोही दलित के संयुक्त प्रयत्नों से धर्म के अन्तर्गत टूटती जड़ता का दर्शन कराने वाली, मनोहर सिंह, नाना पाटेकर और राजश्री सांवत अभिनीत दीक्षाभी एक सराहनीय फिल्म है। रूदाली’ (1992) महाश्वेता दी के उपन्यास पर आधारित कल्पना लाजिमी की यह काव्यात्मक अभिव्यक्ति सही मायनों में स्त्रीत्व को श्रद्धांजली है। फिल्म के अनुसार राजस्थान के गाँव में समृद्ध व्यक्तियों की मृत्यु पर रूदाली कहलाने वाली निम्न जाति की पेशेवर रोने वाली स्त्रियों को बुलाया जाता था। सनीचरी (डिंपल कपाड़िया) एक ऐसी ही औरत की बेटी है, जिसकी माँ बचपन में ही उसे छोड़कर चली गई थी। उसका शराबी पति विवाह के कुछ समय बाद ही मर जाता है। गाँव के ठाकुर की हवेली में वह काम करके अपना जीवन यापन करती है। वह जीवन से लड़ने वाली स्त्री है, हथियार डाल देने वाली नहीं। भले ही एक रूदाली उसकी माँ थी लेकिन वह रोना नहीं जानती। सनीचरी का बेटा बुधुआ, जो एक वेश्या से ब्याह कर लेता है, उसकी कोख में पलने वाले अपने बेटे के बच्चे की खातिर अपने घर में आश्रय देती है। लेकिन वह वेश्या गर्भपात करवाकर अपनी दुनिया में वापस लौट जाती है। हर तरफ से रूसवाई की शिकार सनीचरी हवेली के छोटे ठाकुर के भावनात्मक शोषण का भी शिकार होती है। बड़े ज़मीदार गंभीर रूप से बीमार हैं और अपने परिवार के बारे में अच्छी तरह जानते हैं कि उनकी मौत पर कोई रोने वाला नहीं होगा। भीकनी (राखी) नामक रूदाली ठाकुर को आश्वस्त करती है। वह सनीचरी के पास आती है और उसकी अंतरंग बन जाती है। एक दिन भीकनी को दूसरे गाँव में रोने के लिए जाना पड़ता है। सनीचरी कुछ समय बाद ही जान पाती है कि भीकनी उसकी खोई हुई माँ थी जो अब इस दुनिया में नहीं है। उसका पत्थर का कालजा फूट पड़ता है। इसी बीच बड़े ठाकुर की मृत्यु हो जाती है और उसे हवेली में रोने के लिए बुलाया जाता है, जहाँ सनीचरी के भीतर जिंदगी भर के जमे हुए आँसू आँखों से फूट पड़ते हैं। उसके मर्माहत कर देने वाले क्रंदन को सुनकर लोग स्तब्ध रह जाते हैं। उसके रूदन का असली मर्म उसके सिवा भला और कौन जान सकता है। मूल रूप से असम के ग्रामीण परिवेश को लिखे गए महाश्वेता देवी के इस उपन्यास को कल्पना लाजमी ने राजस्थानी पृष्ठभूमि देकर इस तरह फिल्माया है, कि वह राजपूताने की मौलिक लोककथा लगती है।

 ‘बैंडिट क्वीन’ (1994) इस फिल्म पर कुछ लिखने से पूर्व हमें दो कथन आ रहे हैं, पहला तेलुगु दलित स्त्री रचनाकार चल्लापल्ली स्वरूपारानी का यह मार्मिक कथन- सवर्ण तो हमें भोग्या समझाते हैं, दलित पुरुष भी मात्र्ा सम्पत्ति के रूप में देखते हैं। ऐसे में हम प्रेम करें तो किससे? बेहतर मानवता की उम्मीद में हम अपना प्रेम स्थगित करती हैं।[18]तो दूसरा महान फ्रैंच नारीवादी लेखिका सिमोन द बोउवार का प्रसिद्ध कथन-स्त्री पैदा नहीं होती उसे बना दिया जाता है।[19]एक सामन्य दलित पिछड़ी युवति से बागी बनी फूलन देवी (मैं उन्हें यहाँ जानबूझकर दस्यु या डाकू नहीं कह रहा, क्योंकि शोषण और अपमान के खि़लाफ़ बन्दूक लेकर बीहड़ में कूद जाने वाले व्यक्ति का,हमारे चंबल में डाकू नहीं बागी कहा जाता है!) के ऊपर यह दोनों ही पंक्तियाँ खरी उतरती हैं। उनके जीवन वृत्त को छोड़ दिया जाए और बात केवल शेखर कपूर निर्देशित इस महान यथार्थवादी फिल्म की ही की जाए तो भी हम पाते हैं कि एक अदद साइकिल और एक गाय के बदले अपने से तिगुनी उम्र के व्यक्ति पुत्तीलाल (आदित्य श्रीवास्तव) से मात्र ग्यारह वर्ष की उम्र में फूलन (सीमा विश्वास)को ब्याह दिया जाता है।

पुत्तीलाल दलित होने के साथ-साथ पुरुष भी है और वह विवाह के बाद घर आई बालिका वधू के उम्र पूरी होने का इंतजार नहीं करता। ब्याह के साथ बलात्कार करने के कानूनी हक का उपयोग वह क्रूरता के साथ करता है कि फिल्म के पर्दे पर गूँजती बालिका फूलन की मर्माहत चीखें, हमारा कलेजा चीर डालती हैं कि क्या यह वही समाज है, जिसमें हम रहते हैं। क्या यह वही माता-पिता है, जिन्हें हम शिव और गौरी का रूप मानते हैं? क्या यह वही पति है, जिसे हमारे शास्त्र ईश्वर का दर्जा देता हैं? अर्थात नहीं। और आश्चर्य, इसकी भुक्तभोगी फूलन भी यह नहीं मानती। वह ससुराल छोड़कर घर भाग आती है। परन्तु बेटी और बैल में अन्तर न समझने वाले आम भारतीय माता-पिता दान (कन्यादान) करने के बाद फिर नहीं चाहते कि उनकी बेटी ससुराल का खूँटा तोड़कर सदा-सदा के लिए फिर कभी लौटे, फिर भले ही उसक मालिक मारे-पीटे या काट कर बहा दे। लेकिन विद्रोही फूलन रूकने का प्रयास करती है। किन्तु ठाकुरों से भरे-पूरे गाँव में भला एक युवा दलित लड़की कब सुरक्षित रही है। फूलन भी इसका अपवाद रह पातीं। अर्थात नहीं। उस पर भी फब्तियाँ कसी जातीं। छेड़खानी होती। लेकिन फूलन मल्लहिनियाँ की हिम्मत देखो कि वह गाँव के ठाकुर और उस पर सरपंच के बेटे को भी तरजीह नहीं देती। उसकी यही हिम्मत उसे गाँव की पंचायत में ला खड़ा कर देती है। तब जाहिर है कि फैसला उसके पक्ष में नहीं होना था। बेटी पर पिता के सामने ही झूठा इल्जाम लगाकर, उसे गाँव से खदेड़ दिया जाता है।

फूलन के सामने अब सारे रास्ते बंद है। वह अपने चचेरे भाई मय्यादीन (सौरभ शुक्ला) के साथ उसके घर जाती है, लेकिन ससुराल से भागी और मायके से परित्यक्त स्त्री का शरण स्थल फिर कहीं स्थिर नहीं रहता। डाकुओं के साथ रहने के झूँठे लाँछन के बीच पुलिस हिरासत में पुलिस उसकी देह से खेलती है। जमानत करने वाला गाँव ठाकुर उसका उपभोग कर पाता, उससे पहले ही बागी उसे उसके घर ही धर ले जाते हैं। इसके बाद फिर शुरू होता है यातनाओं का लंबा सिलसिला। बागियों के गिरोह में बाबू गूजर (अनिरुद्ध अग्रवाल) उसके साथ बर्बरता के साथ बलात्कार करता है। बाबू पिछड़ी जाति का है किन्तु सवर्णों की भाँति उसके लिए भी फूलन मात्र देह है और उपभोग की वस्तु भी, वह भला इस बहती गंगा में हाथ कैसे न धोता? तब यहाँ फूलन का मददगार होता है विक्रम मल्लाह मस्ताना (निर्मल पाण्डेय), जो उसी की जाति का है। अब वह मात्र सहानुभूति थी या अपनी जाति की स्त्री को अपनी इज्ज़त माानने का गुरूर कि विक्रम मल्लाह आवेश में आकर बाबू गुर्जर की हत्या कर स्वयं गैंग का मुखिया बन जाता है।

एक मुठभेड़ दौरान विक्रम के पैर में लगी गोली लगने पर फूलन, इलाज के लिए उसे शहर (उरई) ले जाती है, जहाँ उनका सहानुभूति से शुरू हुआ प्रेम देह की यात्रा पूरी करता है। विक्रम के साथ फूलन कई डकैतियों में भाग लेती है और ब्याह के नाम पर बचपन में उसके मासूम मन को कुचलने वाले पति से प्रतिशोध लेती फूलन पति पुत्तीलाल को भी पीट-पीटकर लहूलुहान कर देती है। उसके बाद लगता है कि स्थितियाँ कुछ सहज हुईं कि उसी समय पुलिस की गोली से विक्रम मल्लाह मारा जाता है और फूलन को हिरासत में ले लिया जाता है। पुलिस के संरक्षण में उस पर फिर शारीरिक अत्याचार होते हैं। विक्रम मल्लाह से बैर रखने वाला एक ठाकुर श्रीराम (गोविन्द नामदेव) फूलन की जमानत कराता है और उन्हें बेहमई के एक गाँव लेजाकर कैद कर देता है, जहाँ कई दिनों तक फूलन ठाकुरों के सामूहिक बलात्कार का शिकार होती हैं। अधमरी अवस्था में उन्हें निर्वस्त्र कर गाँव के कुँए से पानी लाने को कहा जाता है। पानी भरने से पहले ही उन्हें निर्वस्त्र घसीट कर उनकी नुमाइश की जाती है!!!

 इस अमानवीय घृणित कृत्य जो एक स्त्री के सम्पूर्ण वजूद को कुचलने का सदियों से से स्त्री पर आजमाया गया हथियार था। फूलन की जिजीविषा के आगे भोथरा पड़ जाता है। फूलन वहाँ से चलकर कुँआ-नदी नहीं तरतीं। वह अपने चाचा कैलाश के साथ बागी मानसिंह (मनोज बाजपेयी) के पास जाती हैं। मान सिंह विक्रम मल्लाह का पुराना मित्र था। वहाँ से वे दोनों मिलकर बागियों के सरगना बाबा मुस्तकीम (राजेश विवेक) के पास जाते हैं। जो फूलन देवी और मानसिंह को एक नई गैंग बनाने की सलाह देते हैं। गैंग बनती है और वहीं से शुरू हो जाती है उत्पीड़न के खिलाफ एक जंग, जिसमें वे अपने को समर्थ बनाने के लिए डकैतियाँ भी डालते हैं और लोगों की मदद भी करते हैं। इसी बीच बाबा मुस्तकीम को पता चलता है कि ठाकुर श्रीराम एक विवाह के उपलक्ष्य में बेमही गाँव में रुका हुआ है। फूलन और मानसिंह अपनी पूरी गैंग के साथ बेमही गाँव पर हमला करते हैं, लेकिन ठाकुर श्रीराम वहाँ से बच निकलता है। प्रतिशोध की आग में जलती फूलन गाँव के ठाकुरों को एक स्थान पर खड़ाकर उनसे श्रीराम का पूछती है, किन्तु वे उसका कोई सुराग नहीं देते। फूलन पूर्व में अपने ऊपर हुए उस जघन्य कृत्य के समय उपस्थित और सहयोगी रहे उन ठाकुरों को एक कतार में खड़ा करके, गोलियों से भून देती है। (फरवरी 1981)[20]

जिस फूलन को इतनी घोर यातनाएँ दी गईं, जिसमें पुलिस और प्रशासन बराबर का सहयोगी रहा, वही फूलन के इस कृत्य पर सचेत हो गया। उसे चंबल के बीहड़ में चारो ओर से घेरने की कबायद शुरू हो गई। दिल्ली से स्पेशल फोर्स मँगा लिया गया। पर्याप्त रसद-पानी के अभाव में चारो ओर से घिरी फूलन के गिरोह के एक-एक कर सारे साथी मारे जाने लगे। हताश फूलन देवी को फरवरी 1983 में आत्मसमपर्ण करना पड़ता है। इण्डियाज बैंडिट क्वीन: द ट्रू स्टोरी आॅफ फूलन देवीइस नाम के मालसेन के उपन्यास पर आधारित फिल्म बैंडिट क्वीननिश्चय ही भारत में दलित स्त्री के शोषण और उत्पीड़न का महान यथार्थवादी आख्यान है।

टारगेट’ (1994) सत्यजीत राय के बेटे संदीप राय द्वारा निर्देशित जमींदारी उत्पीड़न पर सत्यजीत राय द्वारा लिखित अंतिम पटकथा पर बनाई गई हिंदी फिल्म है। ज़मींदार किस प्रकार दलितों और किसानों के विरुद्ध शोषण का तंत्र चलाते हैं, इस बात की बारीक चित्रकारी फिल्म में है। प्रमुख कलाकार-ओमपुरी, मोहन अगाशे, चम्पा, ज्ञानेश मुखर्जी और अंजन श्रीवास्तव। हजार चैरासी की माँमहाश्वेता देवी के बंग्ला उपन्यास हजार चैरासीर माँपर आधारित गोविंद निहालिनी की यह फिल्म नक्सलवाद की पृष्ठभूमि पर बनाई गई थी। इस फिल्म में जयाबच्चन ने शीर्षक भूमिका में एक आतंकवादी काॅ. भारती की माँ की पीड़ा को सिर्फ भावनात्मक गहराइयों के जरिए उकेर कर ही आश्वस्ति नहीं ढूँड़ी थी अपितु स्थितियों के बौद्धिक तनाव को भी रेशा-रेशा उधेड़ दिया था। मुख्य कलाकर थे अनुपमखेर, सीमा बिश्वास, मिलिंद गुणाजी, भक्ति बर्वे, जाय सेनगुप्ता, नंदिता दास आदि। चाची 420’ (1998) कमल हासन निर्देशित यह फिल्मा एक दलित युवक जय उर्प जयप्रकाश पासवान (कमल हासन) और भारद्वाज लड़की जानकी (तब्बू) के अन्तर्जातीय विवाहोपरांत तलाक के लिए चल रहे मुकदमे के दौरान दलित युवक जय का ससुर दुर्गाप्रसाद भारद्वाज (अमरिश पुरी) की इच्छा के विरुद्ध अपनी पत्नी और बेटी से मिलने की उत्कट जिजीविषा और उसके लिए किए गए तमाम नाटकीय जतन और उनका पुर्नमिलन इस फिल्म का मूल कथानक है। अन्य कलाकार थे जाॅनी वाकर, ओमपुरी, परेश रावल इत्यादि।

 मोहनदास’ (1999) दलितों ने आरक्षण भले ही अपने हजारों साल के शोषण और उत्पीड़न की  क्षतिपूर्ति या किश्त दर किश्त हक अदायगी का माना हो, किन्तु सामन्य वर्ग इस तथ्य को कभी स्वीकार नहीं पाया। उसे यह अपना अधिकार हनन लगता है, जो दलित-आदिवासियों को भीख के रूप में दिया दिया जा रहा है। अपने जातिय दंभ में जीता यह समाज आज भी दलितों की पढ़ाई-लिखाई को पूरी तरह स्वीकार नहीं पाया, फिर भला उसके आधार पर मिली नौकरियाँ उसे कैसे होती? वह साम, दाम, दण्ड भेद से उन्हें हथियाने में जुटा हुआ है। ...कथाकार उदयप्रकाश की कहानी मोहनदासपर मजहर कामरान निर्देशित इसी नाम से बनी फिल्म मोहनदासएक दलित दस्तकार युवक की सवर्णों द्वारा हक और पहचान छीन लिए जाने की मार्मिक कथा पर आधारित है। मूल कहानी के समान प्रभाव संप्रेषित न कर पाने के कारण, ‘मोहनदासअसफल रही।  समर’ (1999) यों तो भारत के हृदय स्थल मध्यप्रदेश को शांत प्रदेश कहा जाता है, किन्तु किसी प्रदेश की शांति को केवल उसकी समृद्धि और समरसता से जोड़कर देखना बेमानी होगा। हो सकता है वहाँ का दलित सर्वहारा इतना दबा-कुचला हो कि दबंगों के क्रूर अत्याचारों के चलते अपनी आवाज ही नहीं उठा पाता हो? शिक्षा और समुन्नति से दूर थाने और कोर्ट-कचहरियों भी उनके लिए ठाकुर का कुँआ ही रही हों? ऊपर से नीचे तक दबंगों का साम्राज्य हो? ऐसे में शांति किस चिड़िया का नाम होता है, यह उसका भुक्तभोगी ही समझ सकता है।

 श्याम बेनेगल निर्देशित फिल्म समरमध्यप्रदेश के बुन्देलखण्ड अंतर्गत सागर जिले के कुल्लू गाँव में 1991 को घटी एक सत्य घटना पर आधारित है। तत्कालीन सागर जिले के कलेक्टर हर्षमंदर की डायरी में लिखे संस्मरणों के आधार पर अशोक मिश्रा द्वारा लिखित इस फिल्म को वर्ष 1999 का सर्वश्रेष्ठ फीचर फिल्म का राष्ट्रीय पुरस्कार भी मिला था। कुल्लू गाँव की इस कहानी में गाँव का एक कुँआ है जिसमें उत्तर की ओर से ब्राह्मण पानी भरते हैं, पूरब की ओर से ठाकुर, पश्चिम की ओर से अहीर, नाई और धोबी पानी भरते हैं। दक्षिण के ओर से दलित पानी भरते हैं। दलितों को पानी भरने तब मिलता है जब सवर्ण पानी भर चुकते हैं। अगर इस बीच कोई दलित पानी भरने पहुँचता तो उसके इस कार्य को अपराध मानकर सवर्ण उन्हें सजा देते थे। दलित नत्थूलाल अहिरवार (रघुवीर यादव) की पत्नी दुलारी बाई (राजेश्वरी) कुँए पर पानी भरने जाती है तो उसे लोधी ठाकुर (रवि झाँकल) की पत्नी सवर्णों के साथ पानी भरने आने की वजह से पीटती है और साथ ही उसके हाथ में कोढ़ भी डायगनोस कर देती है। जब नत्थू दवाई के लिए मुआवजे के लिए ठाकुर के पास जाता है तो ठाकुर उसे डाँटकर भगा देता है।

 दलितों की माँग पर सरकार हैंडपम्प खुदवाने के लिए एक अफसर को भेजती है। दलित उसे अपनी बस्ती में खुदवाना चाहते हैं और ठाकुर अपने खेत में। दलितों की बस्ती में पम्प खुदता देख ठाकुर दलितों को मारता है। फिर दलित कम मजदूरी की वजह से खेतों में काम करना बंद कर देते हैं। ठाकुर उन पर तरह-तरह के प्रतिबंध लगवाता है-मसलन, नाई उनके बाल नहीं काटेगा, बरेदी जानवर नहीं चराएगा, तिवारी अपनी आटा चक्की में उनका अनाज नहीं पीसेगा, पटेल उन्हें बीड़ी बनाने के लिए तेंदूपत्ता नहीं देगा-वगैरह।

 ठाकुर के प्रतिबंधों से तंग आकर नत्थू अहिरवार बीड़ी बनाने सागर चला जाता है। वहाँ बीड़ी फैक्टरी का मालिक पैसे देकर अपने भाई के खिलाफ हरिजन-एक्ट में नत्थू से रिर्पोट दर्ज़ करवा देता है और नत्थू दो बलवान भाईयों की लड़ाई में फँस जाता है। एक दिन मौका मिलते ही वह गाँव भाग आता है। घर पर वह दुलारी को कुछ पैसा देता है। उनके घर खुशियाँ लौटती हैं। नत्थू इस खुशी के अवसर पर मंदिर में झंडा चढ़ाने जाता है। पुजारी उसे मारता है। मंदिर घुसने को अपराध माना जाता है और ठाकुर उसकी सजा तय करने के लिए पंचायत बैठाते है। पंचायत के निर्णय पर ठाकुर नत्थू के सिर पर पेशाब करता है।[21]

 1991 में घटी इस घटना पर फिल्म बनाने मुंबई से एक फिल्म युनिट कुल्लू गांव आती है। कार्तिक (रजत कपूर) उस फिल्म के निर्देशक होते हैं। मुरली (रवि झाँकल) लोधी ठाकुर की भूमिका निभाते हैं, जबकि फिल्म के नायक किशोर (किशोर कदम) नत्थूलाल अहिरवार की भूमिका में होते हैं। नायिका दुलारी की भूमिका निभाने का जिम्मा उमा (राजेश्वरी सचदेव) पर होता है जबकि दलित नत्थूलाल की भूमिका निभाने वाला किशोर मूल रूप से दलित ही होता है। नायिका उमा ब्राह्मण है। असल फिल्म तब शुरू होती है, जब जाति विद्वेष पर फिल्म बनाने मुंबई जैसे महानगर से आई सो-काल्डबुद्धिजीवी कलाकारों की वह फिल्म यूनिट खुद जाति के भ्रमजाल में या कहिए बदमाशी में फँस जाती है।

 पम्प खुदवाते हुए दलितों को ठाकुर आकर पीटता है। निर्देशक, फिल्मी नत्थू (किशोर कदम) से कहता है, इस रोल को करने में तुम्हें तो कोई प्राब्लम नहीं होनी चाहिए तुम तो दलित ही हो...। फिर किशोर तुम्हारी बाॅडी से दलित बाॅडी लेंग्वेजभी निकल रही है...। पूरी फिल्म-यूनिट भी किशोर से कहती है कि तुम्हें तो दलित का रोल बेहतर करना ही चाहिए क्योंकि तुम तो दलित ही हो। किशोर हैरान होता है कि यह दलित बाॅडी लेंग्वेजकैसी होती है? दूसरे दृश्य में संवाद याद कर रहे किशोर से असली नत्थू कहता है, भैया किशोर तुम ने ये पहले काहे नहीं बताई कि तुम हमौरों कि जात वाले हो...आओ हमार घर आओ, तुमाई भौजी ने गुड़ के लडुआ बनाए हैं...तकन खा जाते...। किशोर नत्थू को डांटकर भगाता है। जाते-जाते नत्थू कहता है, भैया आप ही दलित का सर्पोट नहीं करोगे तब दूसरे तो दुत्कारेंगे ही...।

 एक और दृश्य में यूनिट बस से सागर लौट रही होती है। मुरली कहता है, समय बिताने के लिए करना है कुछ काम, शुरू करो अंताक्षरी लेकर प्रभु का नाम...। सिया पति रामचंन्द्र की जै। पवन सुत हनुमान की जै। सारे दलितजनों कह जै...। किशोर खीजकर बस की पीछे वाली सीट पर जाकर बैठ जाता है। उमा (राजेश्वरी सचदेव) उसके पास आकर बैठती है, मैं यहाँ बैठ सकती हूँ आपको कोई एतराज तो नहीं? किशोर कहता है कि अगर आपको नही ंतो मुझे क्या हो सकता है...? उमा कहती है कि आप गलत समझ रहे हैं कि सारी यूनिट आपको अलग मानती है...। किशोर कहता है कि बिल्कुल समझती है। होटल के डयरेक्टर के लिए एसी कमरा। हीरोइन के लिए एसी कमरा। विलेन के लिए एसी कमरा और मुझे हीरो के लिए आॅर्डिनरी रूम...। सिर्फ इसलिए क्योंकि मैं दलित हूँ...। गर्मी में सो जाऊँगा...।

 नहीं ऐसी बात नहीं है। उस होटल में सिर्फ तीन एसी रूम हैं। आप क्योंकि सबसे बाद में आए थे इसलिए एसी रूम आपको नहीं मिला...। उमा बात स्पष्ट करती है, लेकिन किशोर उसे अपने यानि दलितों के खिलाफ षड़यंत्र मानता है।

 फिल्म में छोटे-छोटे प्रसंगों के जरिए गाँव और शहर में अंदर तक घुसी जातिवाद की शैतानी को दिखाया गया है। गाँव की दूकान का दृश्य फिल्माने निर्देशक दूकान पर जाते हैं। तभी दो महिलाएँ आकर एक पाव गुड़ और चाय पत्ती माँगती हैं। दूकानदार उन्हें सामान तो फेंककर देता है लेकिन पैसे हाथ से लेता है। निर्देशक पूछता है-ये आप पैकेट फेंककर क्यों दे रहे हैं? तो दूकानदार कहता है कि यहाँ ऐसा होता हैै साहब। अहिरवारों को सौदा हाथ में नहीं दिया जाता है...।

 -लेकिन जब उन्होंने पैसे दिए तो आपने हाथ से ही ले लिए...।
 -लक्ष्मी अपवित्र नहीं होत है...।

तभी फिल्म का हीरो किशोर आकर बीड़ी माँगता है। दूकानदार उसे इज्जत से बीड़ी देता है। निर्देशक यह हमारे हीरो साहब है, किशोर...। इन्हें भी हाथ से बीड़ी दे रहे हैं ना...। अरे ये भी दलित हैं...।

 -क्या बात करत हो साहब। सहर के हीरो दलित तो हो ही नहीं सकत हैं....।
मतलब यह कि हर जगह दलित को बार-बार कोंच-कोंचकर यह अहसास कराया जाता है कि वह दलित है, दलित है, दलित है। और यह नश्तर चुभो रहे होते हैं, समाज के ऐसे लोग, जिन्हें कलाकार, निर्देशक, लेखक वगैरह कहा जाता है।[22]

 इसके बाद का मुख्य दृश्य है नत्थू का सागर से आने के बाद मंदिर में झंडा चढ़ाने के ऐवज में ठाकुर द्वार नत्थू के सिर पर पेशाब करने का। इस दृश्य को फिल्माने में निर्देशक को दिक्कत यह आती है कि किशोर मुरली से अपने सिर पर पेशाब नहीं करवाने पर अड़ जाता है। वह दृश्य बदलने के लिए जोर देता है। जबकि यूनिट के और लोग इसे करवाना चाहते हैं। विकल्पों पर भी बात होती है, कुछ जमता नहीं। इस बीच असली नत्थू आकर निर्देशक से कहता है-साहब, आपका दलित अभिनेता यह दृश्य नहीं करता, तो मैं कर देता हूँ। मेरे सर पर तो सचमुच का मूता गया था-हँसी और आँसू साथ-साथ आते हैं, इस मासूमियत की वेदना और संस्कार की जड़ता पर। हारकर नत्थू के सिर पर पेशाब वाला दृश्य न फिल्माकर उसके बाद वाला दृश्य फिल्माया जाता है। जब ठाकुर नत्थू के सिर पर पेशाब कर देता है। तब नत्थू और उसकी पत्नी रोते हुए आते हैं। नत्थू मरने के लिए भागता है और दुलारी उसे रोकती है। शाट खत्म होते ही असली नत्थू (रघुवीर यादव) कहता है, जब चमक सिंह (ठाकुर) ने हमारे मूड़ पे मूतो हतो तो हमने मरने-वरने की कौनौ बात नहीं कही हती...। ऐ वाली घटना से तो हमें एक बल मिलो हतो...। गाँव के लोग उस घटना के बाद नत्थू को सलाह देते हैं कि वह इस घटना को भूल जाए। नत्थू भड़क उठता है, भूल जाएँ। चूतिया हैं। ठाकुर ने हमारे मूड़ पे नईं सारी दुनिया के मूड़ पर मूतो है...।

 डीआईजी सागर (सदाशिव अमरापुरकर) फिल्म यूनिट को अपने घर लंच पर बुलाते हैं। जातिवाद पर बहुत सारी चर्चाओं के बाद बीच में ही डीआईजी साहब का बच्चा रोता हुआ आता है। कारण पूछने पर पता चलता है कि उस बच्चे को स्कूल में चमार कहा था। इस संबोधन से बच्चा अत्यधिक दुखी था। डीआईजी उससे कहते हैं, ये बताओ अगर तुम्हें किसी ने ब्राह्मण कहा होता तो तुम्हें दुख होता क्या? किसी ने तुम्हें ठाकुर कहा होता तो भी तुम रोते क्या? फिर चमार कहने पर क्यों रो रहे हो? आदमी की जाति उसके कर्म से बनती है मेरे पिता मामूली दलित थे, पर आज मैं क्या हूँ, डीआईजी हूँ...। तो सब कर्मों से बनता है...।

 ‘समरदलित विमर्श पर एक बहुकोणीय फिल्म है। खुद एक फिल्म निर्देशक होकर फिल्म वालों पर मारक व्यंग्य केवल श्याम बेनेगल की फिल्म में ही संभव था। फिल्म समाप्त कर यूनिट जब गाँव से जा रही होती है तो वे कितने बेमन से माला पहनते हैं उस बेचारे गाँव वाले से। यानि जुड़ाव महज एक्टिंग (में जान लाने) भर का था। सत्यदेव त्रिपाठी के शब्दों में कहें तो-यही दुनिया है। कला की। ग्लैमर की। यही रिश्ता है स्वतांत्र्योत्तर जनतंत्र का गाँव के प्रति। वह पिकनिक के लिए आता है। दलित भी आजकल प्रोजेक्ट के लिए, सेमीनार के लिए, फीचर के लिए यानि हर तरह से कैरियर के उत्थान के लिए याद आता रहा है और अब फिल्म के लिए याद आ गया।[23]

बवंडर’ (2000) पिछड़ों द्वारा दलित उत्पीड़न की एक झलक जो हम फिल्म बैंडिंट क्वीनमें देखतें है, उसका विस्तृत रूप बबंडरमें देखने को मिलता हैं। राजस्थान के प्रसिद्ध भँवरीदेवी बलात्कार कांड पर बनी जगमोहन मूँदड़ा निर्देशित इस फिल्म में भी संयोग से बलात्कारी गुर्जर जैसी पिछड़ी जाति के ही कुछ लोग थे। राजेन्द्र यादव ने हंसअगस्त 2004 (दलित विशेषांक) के संपादकीय में एक स्थान पर लिखा है-दलितों से कटा और सवर्णों से उपेक्षित पिछड़े वर्ग का न तो कोई अपना इतिहास है और न आदर्श, वे सवर्णों के ही इतिहास और महापुरुषों को अपना आदर्श मानते हैं और उन्हीं से अपनी प्रेरणाएँ ग्रहण करते हैं।ऐसे में संभव है कि सवर्णों की भांति पिछड़े भी दलित उत्पीड़न में भागीदार हैं/या बनते आये हैं। स्थान और नामों के बीच मामूली से परिवर्तन के साथ बनी फिल्म बबंडरकी कहानी शुरू होती है एक विदेशी पत्रकार एमी (लैला रोज़ेज़) जो राजस्थान के महल, मन्दिर और महाराजाओं पर लिखने के बजाय भँवरीदेवी पर किताब लिखने के लिए अपने मित्र और दुभाषिए (राहुल खन्ना) के साथ, साँवरी (नंदिता दास) के गाँव धावड़ी आती है। जाति से कुम्हार साँवरी देवी का पति सोहन (रघुवीर यादव) एक रिक्शा चालक है और उनकी एक लड़की है कमली। रवि और एमी के धावड़ी पहुँचने पर साँवरी उन्हें पाँच वर्ष पूर्व अपने ऊपर हुए जघन्य अत्याचार की मर्मव्यथा सुनाती है।

चार साल की अबोध उम्र में साँवरी का सोहन के साथ ब्याह हुआ था। अनपढ़ और पूरी तरह परंपरावादी सड़क मजदूर साँवरी का एक प्रमुख गुण अन्याय को सहन न करना भी था, फिर चाहे वह पनघट पर छेड़ने वाला गाँव का गूजर हो या कम मजूरी देने वाला ठेकेदार। साँवरी विरोध किए बगैर चुप न रहती । उसके जीवन में एकाएक तब मोड़ आता है जब पड़ोस की एक बालिका विधवा हो जाती है। वह सामाजिक कार्यकर्ता शोभा (दीप्ति नवल) के संपर्क ढाई सौ रुपए माह की पगार पर साथिनसंस्था की ज़मीनी कार्यकर्ता बन जाती है। साथिनसंस्था का कार्य तमाम सामाजिक बुराईयों के साथ-साथ स्त्री शिक्षा और बाल विवाह के विरूद्ध लोगों में जन-जागरुकता पैदा करना है। साँवरी इस काम को बखूबी करती अपने साहस की हद तक चली जाती है। वह गाँव में अखतीज के दिन गुर्जर समुदाय के यहाँ सम्पन्न हो रहे बाल विवाहको भी पुलिस और साथिनसंस्था की मदद से रुकवाती है। एक नीच जाति की लुगाई गुर्जरों के शुभकार्य में विघ्न डाले, यह भला उन्हें कैसे स्वीकार होता। फलस्वरूप गाँव के पाँच गुर्जर मिलकर निकल पड़ते हैं साँवरी और उसके पति को सबक सिखाने। वे सोहन को बंधक बनाकर, बारी-बारी से असहाय साँवरीदेवी का बलात्कार करते हैं।

एक स्त्री का वज़ूद कुचलने के लिए उसे बेइज्जत करना अपना हथियार मानने वाली पुरुष प्रवृत्ति, ‘साथिनसंस्था के माध्यम से नई दृष्टि पाई साँवरी के आगे मंद पड़ जाती है। सोहन और साँवरी मिलकर पुलिस स्टेशन रिर्पोट लिखवाने जाते हैं । लेकिन दबंगों के प्रभाव में रहने वाली पुलिस उनकी एफ. आई. आर दर्ज़ करने से माना कर देती है। मदद के लिए सामने आती हैं साथिन शोभा। वह साँवरी का मेडीकल करवाने उन्हें अस्पताल ले जाती हैं, किन्तु बगैर कोर्ट आदेश के डाॅक्टर भी साँवरी का मेडिकल करने से मना कर देते हंै। शोभा मदद लेकर अदालत का आदेश निकलवाकर साँवरी का जयपुर से मेडीकल सार्टिफिकेट बनवाती हैं और इस प्रकार घटना के दो दिन बाद उनकी रिर्पोट लिखी जाती है।

रिपोर्ट लिखे जाने के बावजूद बलात्कारियों को गिरफ्तार नहीं किया जाता। वे साँवरी के साथ किए रेप के अनुभव सुनाते खुले आम घूमते हैं। साँवरी के मामले पर राष्ट्र का व्यापक ध्यान जाता है और तब स्वयं प्रधानमंत्री इस केस की जाँच सी.बी.आई. से करवाने का आदेश देते हैं। एक महिला संगठन भी साँवरी की मदद करने आगे आता है। परिणाम स्वरूप आरोपी गिरफ्तार भी होते हैं, किन्तु एक स्थानीय विधायक धनराज मीणा (गोविंद नामदेव) और एक पुरोहित नामक वकील के प्रभाववश उनका बाल भी बाँका नहीं होता। एक गुर्जर वकील (गुलशन ग्रोवर) साँवरी के बचाव में आता भी है, किन्तु अपनी जाति के दबावों और आरोपों के चलते वह भी उन्हीं के पक्ष में चला जाता है। न्यायधीश केस को लम्बे समय के टाल देते हैं और केस का फैसला साँवरी के विरुद्ध चला जाता है। अक्षम पुलिस, भृष्ट न्याय प्रणाली और गाँव-समाज के असहयोग करने पर भी न्याय पाने के लिए साँवरी देवी  फिर आगे बढ़ती हैं, उनकी वह लड़ाई आज भी जारी है।[24]राजस्थान के सांमतीय और घोर जातिवादी समाज की जड़ें खोदती फिल्म बबंडरमें ध्यानाकर्षण योग्य पात्र विधायक धनराज मीणा भी है। कहने को वह आदिवासी है, किन्तु पक्ष निबल का नहीं सबल का लेता है। क्या इससे हमें यह नहीं सीखना चाहिए कि सत्ता पाते ही व्यक्ति का वर्ण और वर्ग दोनों बदल जाते हैं। वह न दलित रहता है न सवर्ण रह जाता है तो मात्र शासक बनकर, जिसका ध्येय होता है शासन करना और उस व्यवस्था में बने रहना, फिर भले ही उसके लिए उसे अपनो की ही बलि क्यों न चढ़ानी पड़े। फिल्म में अन्य कलाकार थे-इशरत अली, यशपाल शर्मा, ललित तिवारी, रवि झाँकल, मोहन भंण्डारी इत्यादि।

लाल सलामरूपी (नंदिता दास) और डा. कन्ना (शरद कपूर) के माध्यम से आदिवासी जनजातियों की संस्कृति और उनकी जीवनशैली (मुख्तः विवाहपूर्व मुक्त यौन सम्बन्ध) को आधार बनाकर लिखी गई गगन बिहारी बोराटे निर्देशित फिल्म लाल सलाममें आदिवासियों के मजबूरी मे नक्सलवादी बनने की कथा भी एक अंग के रूप में आई है। स्थानीय दंबग जातियो, पुलिस और प्रशासन ने उनके जीवन के रास्ते किस तरह बंद कर रखे हैं कि वे पुलिस की गोली से मारे जाने का सच जानते हुए भी नक्सलवाद की राह पकड़ने को मजबूर हैं। अन्य कलाकारों के रूप में मकरंद देश पांडे, विजय राज, राजपाल यादव, अनंत जोग, अखिलेन्द्र मिश्रा, सयाजी शिंदे इत्यादि। डाॅ. बाबासाहेब अंबेडकर (2000) ममूटी और सोनाली कुलकर्णी की मुख्य भूमिकाओं वाली जब्बार पटेल निर्देशित एवं कल्याण मंत्रालय भारत सरकार के सहयोग से बनी यह फिल्म यों तो 1989 में विजय पवार निर्देशित फिल्म भीम गर्जनासे कई मामलों में भव्य और उत्कृष्ट है, किन्तु वह बाबा साहेब के जीवन की कई तल्ख सच्चाइयाँ और उनके विद्रोही व्यक्तित्व को पूर्ण रूपेण उभारने में कोताही बरती गई है। कांग्रेस के शासन में बनी इस फिल्म की अन्दरूनी सच्चाई की एक झलक हम डाॅ. बाबासाहेब अंबेडकरफिल्म स्क्रिप्ट निर्माण समिति के चेयरमैन रहे वयोवृद्ध कांग्रेसी दलित नेता/साहित्यकार माता प्रसाद की आत्मकथा झोंपड़ी से राजभवनमें पाते हैं। उसमें उन्होंने बाबा साहेब के परिजनों की दखलंदाजियों के साथ-साथ सरकारी हस्तक्षेप की बात करते हुए, 31 दिसंबर 1995 के जनसत्ता का हवाला कुछ इस प्रकार दिया  है-बंबई, 30 दिसंबर। डाॅ. बाबा साहेब अंबेडकर के जीवन पर फिल्म से जुड़े सारे विवाद सुलझ गए हैं। अब फिल्म में बाबा साहेब को गांधी के विरोधी के रूप में नहीं दिखाया जाएगा। फिल्म में डाॅ. अंबेडकर के जीवन के उन प्रसंगों पर जोर दिया जाएगा, जिनसे उनके और गांधी के बेहतर संबधों का इजहार होता है। फिल्म में उनके और जगजीवन राम के प्रेमपूर्ण संबंध दिखाए जाएंगे और पूरी फिल्म का स्वरूप ऐसा होगा कि डाॅ. अम्बेडकर का समन्वयवादी स्वरूप उभरे।[25]इस तथ्य से हम अंदाज लगा सकते हैं कि फिल्म सरकारी सहयोग से बनने वाली फिल्में महान पुरुषों के व्यक्तित्व का सही आकलन न कर पार्टी के एजेंडे के अनुसार गढ़ी जाती हैं। बाबा साहब पर बनी यह फिल्म भी इसका अपवाद नहीं है।

 ‘लज्जा’ (2001) भारतीय समाज में नारी दुर्दशा को केन्द्र में रखकर बनी राजकुमार संतोषी निर्देशित यह फिल्म बताती है कि स्त्री चाहे विदेश में सर्विस कर रहे एक एन.आर. आई की पत्नी हो या किसी पिछड़े इलाके की दलित महिला, वह हर जगह उपेक्षित और अपमानित है। वैदेही, जानकी, मैथिली और रामदुलारी चार स्त्रियाँ जो स्त्रियों के भारतीय आदर्श सीता के ही अन्य रूप हैं के आधार पर चार आधुनिक स्त्रियों वैदेही (मनीषा कोइराला), जानकी (माधुरी दक्षित), मैथिली (महिमा चैधरी) और रामदुलारी (रेखा) के शोषण, उत्पीड़न और विद्रोह की कथा कहती इस फिल्म में दलित बागी फुलवाकी भूमिका में अजय देवगन की भूमिका भी सराहनीय थी। लगान’ (2001) यों आशुतोष गोवारीकर निर्देशित और आमिर खान और ग्रेसी सिंह की मुख्य भूमिकाओं वाली यह फिल्म काल्पनिक इतिहास के माध्यम से लोगों के क्रिकेट जुनून को भुनाने का सफल प्रयास था, किन्तु उसके बीच में दलित पात्र कचरा (आदित्य लखिया) की भूमिका को भी इस परिपेक्ष्य में देखा जा सकता है कि दलित भले ही ब्राह्मणवाद का शिकार रहा हो, किन्तु वक्त पड़ने पर मिली छूटों में उन्होंने सवर्णों के कंधे से कंधा मिलाकर अपनी हिम्मत और बहादुरी का भी परिचय दिया है।

मातृभूमि’ (2003) ‘नेशन विदाउट वूमनमनीष झा निर्देशित यह फिल्म भी समाज में स्त्री उत्पीड़न की मार्मिक दास्तान बयान करती है। कन्या भ्रूण हत्या को केन्द्र में रखकर लिखी गई इस कहानी का प्रारंभ बेटे की इच्छा के चलते एक पिता द्वारा अपनी नवजात बेटी को दूध के टब में डालकर मार डालने के कई साल बाद (सन् 2050) की परस्थितियों का वर्णन है, जब हमारे समाज में स्त्रियाँ की संख्या न्यून हो जाएगी। फिल्म में बिहार का एक पुरूष बाहुल्य गाँव दिखया गया है, जिसमें हिंसा और पाशविकता उनकी प्रवृत्ति बन चुकी है। गाँव के गँवार और आक्रमक युवा; समलैंगिक और अप्राकृतिक यौन संबंधों के बाबजूद, पत्नियों के लिए बेताव हैं। कुछ लोग गलत फायदा भी उठाते हुए लड़की के भेष में लड़के को दुल्हन बनाकर, मोटी रकम ऐंठ ले जाते हैं।

गाँव में पाँच लड़कों के धनी पिता रामचरन (सुधीर पाण्डेय) अपने कुल-पुरोहित जगन्नाथ (पीयूष मिश्रा) के माध्यम से, कल्कि (ट्यूलिप जोशी) नामक युवति को पाँच लाख देकर ब्याह/खरीद लाते हैं! रामचरन कल्कि को अपने पाँचों बेटों की ही बहू नहीं बनाता, बल्कि क्रमानुसार सप्ताह में दो दिन वह भी कल्कि के साथ हमबिस्तर होता है!! इस उत्पीड़न उलट राम चरन का छोटा बेटा सूरज (सुशांत सिंह) ही कल्कि से सम्मान और कोमलता का भाव रखता है। स्वाभाविक है कि इससे कल्कि का झुकाव सूरज के प्रति बढ़ जाता है, जिससे सूरज के पिता और बड़े भाईयों को जलन होती है। वे कल्कि की उपेक्षा और सूरज का प्रेम सह नहीं पाते और सूरज की हत्या कर देते हैं!!! इस संबंध में कल्कि अपने पिता को पत्र लिखती है। खबर लगने पर घर आया पिता, विरोध के बजाय कल्कि के ससुर को भी उसका एक पति मानते हुए; एक लाख रुपए और ऐंठ ले जाता है!!! भयभीत कल्कि अपने घरेलू दलित नौकर रघु (विनम्र पंचारिया) के साथ, घर से भागने का प्रयास करती है। घर से भागकर वे किसी सुरक्षित स्थान पर पहुँच पाते, उससे पहले ही कल्कि के पाँचों पति रास्ते में रघु को घेरकर निर्मम हत्या कर देते हैं। रास्ते से पकड़कर लाई गई कल्कि को घर नहीं ले जाया जाता, बल्कि गौशाला में गाय की रस्सी से बाँधकर डाल दिया जाता है। एक दलित के साथ भागने के कारण अपवित्र हुई कल्कि कई दिनों-महीनों गौशाला में बलात्कार का शिकार होती रहती है। उसे यह सजा उसके अपने कहे जाने तथाकथित पाँचों पति ही नहीं देते, बल्कि रघु की हत्या के बाद सकते में आए रघु के दलित भाई-बंधु भी देते हैं!!! इन क्रमागत बलात्कारों के बीच कल्कि गर्भवती हो जाती है और इस बात को लेकर विवाद छिड़ता है कि कल्कि से होने वाला बच्चा किसका है। दलित सवर्णों में दंगा होता है और इस दंगे में कोई नहीं बचता, सवर्ण न दलित। शेष बचती है कल्कि, उसकी नवजात बच्ची और सुक्खा (अमीन गाजी) नामक दलित युवक जो रघु के बाद उस घर में नौकर के रूप में आया था।...बड़े शोध और साहस के साथ बनाई गई यह फिल्म स्त्री के प्रति दोयम दर्जे का व्यवहार करने वाले हर-एक वर्ग की खिचाई ही नहीं करती, अपितु यह अपील भी करती है कि स्त्री के बगैर समाज में भंयकर अराजकता और हिंसा भी फैल जाएगी, जो अंततः विनाश का ही कारण बनेगी। अन्य कलाकार थे आदित्य श्रीवास्तव, पीयूष मिश्रा, मुकेश भट्ट, पंकज झा, मुकेश कुमार इत्यादि।

एकलव्य: द राॅयल गार्ड’ (2005) विधु विनोद चैपड़ा निर्देशित और अमिताभ बच्चन सैफ अली खान, संजय दत्त, जैकी श्राफ, शर्मीला टैगोर और विद्या बालन की मुख्य भूमिकाओं वाली यह फिल्म पौराणिक पात्र एकलव्यको नए संदर्भों में इस प्रश्न के साथ प्रस्तुत करती है कि क्या अपने और अपने समाज के स्वार्थों का बलिदान कर अपना अँगूठा (शक्ति) सदैव के लिए किसी को समर्पित कर देना उचित होगा? राजस्थान की राजपूती पृष्ठभूमि में एक दलित परिवार है जो नौ पीढ़ियों से एक राजपरिवार के संरक्षक का कार्य करता आ रहा है। उसी परिवार का एक किंवदंती पुरुष है एकलव्य (अमिताभ बच्चन) है, जो तमाम अन्तद्र्वन्द्वों से गुजरकर अंत में पौराणिक एकलव्य को गलत सिद्ध करता, अंत अपने पुत्र राज्यवर्धन (सैफअली खान) की रक्षा करने के रूप में अगूँठा दान करने से इंकार कर देता है। दलित पुलिस इंसपेक्टर पन्नालाल चमार की भूमिका में सजंय दत्त का रोल भी काफी विद्रोही बन पड़ा है।  

धर्म’ (2007) भावना तलवार निर्देशित और पकंज कपूर एवं सुप्रिया पाठक अभिनीत यह फिल्म, हिन्दू कट्टरता के बीच साम्प्रदायिक सद्भाव और मानवतावाद की खोज का एक अभिनव प्रयास है। एक उच्च प्रतिष्ठित सनातनी हिन्दू पंडित चतुर्वेदी (पकंज कपूर) का हृदय परिर्वतन तब होता है, जब वह एक मुस्लिम बच्चे के संपर्क में आता है। फिल्म में हिन्दू-मुस्लिम साम्प्रदायिकता के बीच यह भी दिखाया गया है कि जिस मानवतावाद के मार्ग पर एक धार्मिक हिन्दू बड़े गहरे अन्तद्र्वन्द्व के बाद खड़ा हो पाता है; उस मार्ग पर शास्त्र और स्मृतियों के कोढ़ से दूर दलित एवं स्त्रियाँ, पहले से ही सहज होकर चले आ रहे हैं। फिल्म में पुरोहित का हृदय परिवर्तन वेद-पुराणों के बीच किंचित मात्रा में मिले मानवतावाद के साथ-साथ, जात-पाँत विरोधी कबीर पंथी दलित साधु और अपनी पत्नी के प्रभाववश भी दिखाया गया है।

 ‘वैलकम टू सज्जन पुर’ (2008) एक षड्यंत्र के तहत और कुछ वास्तविक अर्थों में अभी तक की अधिकांश फिल्मों में, पिछड़ों को दलित विरोधी और उत्पीड़क ही चित्रित किया गया है, किन्तु यह पहला अवसर है जब श्याम बेनेगल की यह महत्वपूर्ण फिल्म दबे रूप में ही सही, दलितों के प्रति पिछड़ों का झुकाव प्रदर्शित करती है। गाँव की अहिरवार (दलित) लड़की का ठाकुर (यशपाल शर्मा) के लड़के द्वार बलात्कार और ठकुराइन द्वारा लड़की हत्या के केस में फँसे होने के परिपेक्ष्य में, नायक आँख चढ़ाकर व्यंग्य में लड़की के बदचलन होने की बात नकारता है, तब उसकी दलित पक्षधरता स्वयं सिद्ध हो जाती है। दूसरे इस फिल्म का एक अन्य एक मजबूत पक्ष दलित, आदिवासी और स्त्रियों की भाँति भारत और संभवतः हर जगह उपेक्षित किन्नरहैं, जो हाशिए पर पड़े अन्य समाजों की भाँति अपने नागरिक अधिकारों के प्रति सचेत ही नहीं, चुनाव जीतकर सŸाा भी प्राप्त करते हैं। चमकू’ (2008) कबीर कौशिक निर्देशित और बाॅबी देओल और प्रियंका चैपड़ा मुख्य भूमिकावाली इस फिल्म में एक नक्सली युवक चमकू के हिंसा के विरुद्ध हृदय परिवर्तन की कहानी है।

रेड अलर्ट: द वार विदइन (2009)  अनंत नारायण महादेवन निर्देशित और सुनील शेट्टी एवं समीरा रेड्डी अभिनीत यह फिल्म नरसिंहा नाम एक ऐसे आदिवासी युवक की सच्ची कहानी है, जो जंगल में आने-जाने वाले लोगों को खाना बनाकर खिलाता था। एक दिन पुलिस और नक्सलियों की मुठभेड़ में वह नक्सलियों के हाथ लग जाता है। वह न चाहते हुए भी माओवादियों के साथ हिंसात्मक कार्यवाही करने को बेवश है। अन्त में तंग आकर वह गैंग के मुखिया की हत्या कर वहाँ से भाग आता है। अन्य कलाकार थे सीमा विश्वास, भाग्यश्री, नसीरुद्दीन शाह, विनोद खन्ना, आशीष विद्यार्थी, गुलशन ग्रोवर इत्यादि।

 ‘पीपली लाइव’ (2010) अनुषा रिज़वी और महमूद फारुकी निर्देशित यह फिल्म क़र्ज़ में डूबे एक दलित किसान के आत्महत्या करने के निर्णय पर मीडिया और प्रशासन द्वारा हुल्लड़ मचाये जाने से तंग घर उसके घर से गायब हो जाने को लेकर एक व्यंग्यात्मक फिल्म है। रावण’ (2010) मणिरत्नम दक्षिण के फिल्मकार हैं और दक्षिण में रावण को उत्तर की भाँति प्रतिनायक के रूप में नहीं देखा जाता है। उसने सीता का अपहरण काम वासना से प्रेरित न होकर अपनी बहन के अपमान के प्रतिशोध स्वरूप किया था। वह अंत तक सीता के साथ दुष्कृत्य नहीं करता, किन्तु राम फिर भी सीता के चरित्र पर संदेह करते हैं। नक्सलवाद की पृष्ठभूमि पर बनी इस फिल्म में रावण की भूमिका में जहाँ अभिषेक बच्चन थे तो सीता की भूमिका में उनकी पत्नी ऐश्वर्या राय। आक्रोश’ (2010) मूलतः आॅनर किलिंग की एक सत्य घटना पर आधारित इस फिल्म में बिहार की घोर जातिवादी पृष्ठभूमि, सांमतीय अत्याचार, और पुलिसिया तानाशाही के बीच, एक सवर्ण युवती गीता (बिपाशा बसुु) और दलित पुलिस अफसर प्रताप कुमार के प्रेम, संघर्ष और पुर्नमिलन की सार्थक कहानी भी समानंतर दिशा में साथ-साथ चलती है। आरक्षण’ (2011) प्रकाश झा निर्देशित और अमिताभ बच्चन, सैफ अली खान, मनोज बाजपेयी, दीपिका पादुकोण और प्रतीक बब्बर अभिनीत यह फिल्म आरक्षणजैसे संवेदनशील मुद््दे को विभिन्न कोणों से दिखाती  मध्यांतर के बाद बगैर किसी निष्कर्ष पहुँचे, निजी कोचिंग प्रणाली की ओर मुड़ जाती है। कहानी म.प्र. की राजधानी भोपाल के एक काॅलेज में साथ-साथ पढ़ रहे दो घनिष्ट दलित-सवर्ण मित्र दीपक (सैफ अली खान) और सिद्धार्थ (प्रतीक बब्बर) की है। आरक्षण जैसे विवादास्पद मुद्दे पर सुप्रीमकोर्ट का निर्णय सार्वजनिक होता है और उनके बीच दरार पैदा हो जाती है और वे अपने-अपने जातिय हितों को लेकर आमने-सामने होते हैं। तमाम उतार चढ़ाव और अपनी-अपनी जातियों के प्रतिनिधियों, नेताओं और प्रशासनिक अधिकारियों की काली करतूतों के बीच अंत में समीप होते हैं डाॅ. प्रभाकर आनंद (अमिताभ बच्चन) के प्रभाववश, जो बगैर किसी भेदभाव के हर वर्ग, जाति और धर्म के विद्यार्थी को बेहतर शिक्षा मुहैया कराने को कृतसंकल्प हैं। जयभीम काॅमरेड’ (2011) आनंद पटवर्धन निर्देशित यह बहुप्रशंसित फिल्म 1997 में मुम्बई की एक दलित बस्ती मेें बाबा साहेब आम्बेडकर की मूर्ति के विरूपित करने के विरोध में खड़े हुए 10 दलित युवकों की पुलिस ने गोली मारकर हत्या कर दी थी। पुलिस की इस नृशंसता और प्रशासन की चुप्पी से आहत वहाँ के एक वामपंथी दलित कवि विलास घोगड़े विरोध स्वरूप स्वयं को गोली मारकर आत्महत्या कर ली थी। फिल्म मरे हुए विलास के सीने पर जयभीम लिखा नीला झंडा मिलना इस बात का प्रतीक है कि सवर्ण बाहुल्य वामपंथ में दलित और जाति का मुद्दा आज भी उपेक्षित है और हारकर दलितों को अंत में अम्बेडकरी विचारधारा की ओर लौटने को बेवश हैं। षूद्र: द राइजिंग’ (2012) अपने नाम अनुकूल यह फिल्म हिन्दी सिनेमा की एक शताब्दी बाद दलितों के फिल्म निर्माण के क्षेत्र में आगमन के रूप में कोट की जा सकती है। भारतरत्न बाबा साहेब अम्बेडकर को समर्पित और संजीव जायसवाल निर्देशित यह फिल्म प्राचीन भारत में आर्यो के आगमन के बाद शूद्रो पर लादी गई तमाम अशक्ताओं और उनके आधार पर सदियों चले जघन्य अत्याचारों की एक लोमहर्षक श्रंखला प्रस्तुत करती है। भारतीय लोकतंत्र का चौथा खंभा कहा जाने वाला मीडिया किस प्रकार दलित विरोधी है, यह इस फिल्म के निर्माण और प्रदर्शन में डाली गई सफल रुकावटों से एक बार फिर सिद्ध हो गया। वितरक फिल्म के प्रदर्शन अधिकार खरीदने को तैयार नहीं और सिनेमाघर फिल्म दिखाने को...! चक्रव्यूह (2012) भुखमरी, बेरोजगारी और विस्थापन के बीच आदिवासियों का उनके जल, जंगल, ज़मीन से बेदख़ल करना, दूसरी ओर नक्सली सफाये के नाम पर सरकार के हरित मृगया (ग्रीन हंट) अभियान में पुलिस द्वारा आदिवासियों का सफाया। आरक्षणके बाद नक्सलवाद के प्रति हमारी दृष्टि साफ करती प्रकाश झा की इस महत्वपूर्ण फिल्म, पुलिस मुखबिर से नक्सली बने युवक कबीर (अभय देओल) के माध्यम से, अंततः लाल सलाम के पक्ष में ही अपना झुकाव प्रदर्शित करती है। अन्य कलाकार थे-अर्जुन रामपाल, मनोज वाजपेयी, अंजलि पाटिल और ईशा गुप्ता इत्यादि।

अंत में कुछ अपवादों को छोड़कर गंगा सहाय मीणा के शब्दों में कहूँ तो-‘‘दलित-आदिवासियों को सिनेमा में लाने की कोशिशें मुख्यतः सुधारवादी और रूमानी दृष्टिकोण से प्रेरित थीं। दलित जीवन की वास्तविक समस्याएँ सम्पूर्णता में आना अभी शेष है।... आए दिन दलितों के घर जलाए जा रहे हैं, आदिवासियों को उनके जल, जंगल और ज़मीन छीने जा रहे हैं, लेकिन हमारा सिनेमा इस पर मौन है। इसकी सबसे बड़ी वजह सिनेमा पर बाजार और पूँजी का नियंत्रण तो है ही, सिनेमा जगत में दलित-आदिवासियों की अनुपस्थिति भी है। जैसे स्वयं दलित-आदिवासियों ने साहित्य, राजनीति और सामाजिक आन्दोलनों के क्षेत्र में आकर अपनी आवाज बुलंद की, वैसे ही सिनेमा के क्षेत्र में भी उन्हें स्वयं आकर हस्तक्षेप करना पड़ेगा, तभी सिनेमा की वास्तविक तस्वीर बदल सकती है।[26]


सम्पर्क
ठ-15 गौतम नगर साठ फीट रोड
थाठीपुर ग्वालियर-474011 (म.प्र.)
मोबाइलः 91-989337530
       




[1]शर्मा डाॅ. राम विलास-भारतीय साहित्य की भूमिका, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली-पटना, प्रथम संस्करण 1996 पृ. 211
[2]चौरसिया आनंद-सिनेमा पर हावी रहा नायिकाओं का ग्लैमर दैनिक भास्कर (नवरंग) 11 दिसंबर 1999 पृ. 2
[3]कीर धनंजय (अनु. गजानन सुर्वे)-डाॅ. बाबासाहब आंबेडकर जीवन चरित, पाॅप्युलर प्रकाशन प्रा लि. 301, महालक्ष्मी चेंबर्स भुलाभाई देसाई रोड, मुम्बई 400026 पृ. 255
[4]वही, 447
[5]वही, 449
[6]गाँधी मोहनदास कर्मचन्द-सत्य के प्रयोग अथवा आत्मकथा, सस्ता साहित्य मण्डल प्रकाशन नई दिल्ली-1 संस्करण सत्ताइसवा-2005, पृ.18

[7]भारद्वाज प्रमोद-सदी का विवादास्पद सिनेमा दैनिक भास्कर (नवरंग) 18 दिसंबर 1999 पृ.2
[8]सोंथलिया विनोद-रूढ़िवादिता के विरुद्ध न्यू थियेटर्स का सिंहनाद, वसुधा-81 (हिंदी सिनेमा बीसवीं से इक्कीसवीं सदी तक) वर्ष-6, पृ. 44

[9]भारद्वाज प्रमोद-सदी का विवादास्पद सिनेमा, वही, पृ.2
[10]वही, पृ. 2
[11]चौकसे जयप्रकाश-आधी हकीकत आधा फसाना, दैनिक भास्कर (नवरंग) 4 दिसंबर 1999 पृ.1

[12]रवि रवींद्र कुमार-सिनेमा में यथार्थ अंकन की दूसरी पहल, वसुधा-81 वही, पृ. 336
[13]diwar’ 1975,  from Wikipedia, the free encyclopedia.
[14]Aakrosh’ a film by Govind Nihalani, Mosrbaer supar Dvd No.DHIFS274’ part-2.
[15]कृष्ण संजय-तू मुखिया को मार कर दामुल पर काहे नहीं चढ़ा रे, वसुधा-81 वही, पृ. 420
[16]‘Gulami’ a  Film by J.P. Dutta, Mosrbaer Video CD No.VHIF0016, part-1.

[17]Gulami’ 1985,  from Wikipedia, the free encyclopedia
[18]तिवारी बजरंग बिहारी-आख्यान एक दलिता स्त्री का, ए. असफल के उपन्यास स्त्री का पुनर्जन्मकी भूमिका से
[19]खेतान प्रभा-स्त्री उपेक्षिता, हिन्द पाॅकेट बुक्स, प्रा.लि. नई दिल्ली प्रथम संस्करण 2004, फ्लैप से

[20]Bandit Queen’1994,  from Wikipedia, the free encyclopedia

[21]मिश्र प्रदीप-कभी-कभी दीख पड़ता है ऐसा समर, वसुधा-81 वही, पृ. 487

[22]वही, पृ. 489
[23]त्रिपाठी सत्यदेव-आओ, सिनेमा में दलित-दलित खेलें, वसुधा-81 वही, पृ. 493
[24]Bavander’2000,  from Wikipedia, the free encyclopedia

[25]प्रसाद माता-झोंपड़ी से राजभवन, नमन प्रकाश नई दिल्ली, प्रथम संस्करण 2002 पृ. 390
[26]मीणा गंगा सहाय-सिनेमा के दलित आदिवासी प्रश्न, जनसत्ता, 18 मई 2012

आस्कर’– फ़िल्म के पुरस्कार या विदेश नीति के हथियार

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 रामजी तिवारीने पिछले दिनों फिल्म समीक्षा की दृष्टि से महत्वपूर्ण काम किये हैं. खासतौर से हालीवुड की चर्चित तथा पुरस्कृत फिल्मों की जो राजनीतिक समीक्षा उन्होंने प्रस्तुत की है, वह  सांस्कृतिक साम्राज्यवाद के हथियार के रूप में हालीवुड की भूमिका की गहरी पड़ताल है. हाल  ही में आई उनकी पुस्तक  आस्कर अवार्ड्स : यह कठपुतली कौन नचावे'  हिंदी सिनेमा लेखन की एक विशिष्ट उपलब्धि है.
'इसी क्रम में उनका यह आलेख इस वर्ष की आस्कर विजेता फिल्म 'आर्गो' पर केन्द्रित है. समयांतर में प्रकाशित इस लेख को हम जनपक्ष पर भी प्रस्तुत कर रहे हैं.  




‘आस्कर’ पुरस्कारों को लेकर अपने देश में ‘मोह और भ्रम’ से आगे बढ़कर ‘पागलपन’ की स्थिति बनती दिखाई दे रही है , और जो इधर के वर्षों में काफी बढ़ गयी है | ‘स्लमडाग मिलेनियेर’ फिल्म को ही लीजिये | उसे भारत में इस तरह से प्रचारित किया गया , गोया वह कोई भारतीय फिल्म हो , या वह भारतीय समाज को प्रतिविम्बित ही करती हो | वही ‘पागलपन’ इस साल भी ‘लाइफ आफ पाई’ के लिए दिखाया गया | खैर .... पुरस्कारों की घोषणा हुयी , और उम्मीद के मुताबिक़ ही ‘आर्गो’ फिल्म को इससे नवाजा गया | स्वतंत्र प्रेक्षक इस बात को पहले ही मान चुके थे , कि इस बार ‘आर्गो’ या ‘जीरो डार्क थर्टी’ में से ही किसी एक फिल्म को आस्कर दिया जाएगा | कारण साफ़ था | ‘आर्गो’ ईरान में घटित 1979 की इस्लामी क्रांति के दौरान अमेरिकी राजनयिकों के बंधक बनाये जाने , और उनमे से 6 को सी.आई.ए. के गुप्त मिशन के द्वारा छुड़ा लिए जाने की घटना पर आधारित है , जबकि ‘जीरो डार्क थर्टी’ ओसामा बिन लादेन की खोज और उसके पाकिस्तान में मारे जाने की घटना को दिखाती है | जाहिर है , ऐतिहासिक घटनाओं पर आधारित फिल्मों में चुनाव के दौरान उस फिल्म के हाथ में बाजी लगी , जिसमें अमेरिका अपने भविष्य की संभावनाएं देखता है | इन अर्थों में एक दशक पहले की अपेक्षा , चार दशक पहले की घटनाओं में गोते लगाने को अप्रत्याशित नहीं माना जाना चाहिए |

हैरानी की बात यही है , कि एक तरफ जहाँ दुनिया में इन पुरस्कारों को लेकर ‘मोह और भ्रम’ का यह वातावरण बना हुआ है , वहीँ दूसरी तरफ हालीवुड का फिल्म उद्योग इन पुरस्कारों के माध्यम से अमेरिकी विदेश नीति के हथियार के रूप में काम करता है | इस साल के पुरस्कारों से यह बात और स्पष्ट रूप से हमारे सामने आती है , कि साम्राज्यवादी और विस्तारवादी देशों की नीतियाँ अपने हिसाब से कलाओं को भी नियंत्रित करती हैं , और जिन कलाओं-विधाओं के ऊपर उस समाज को दिग्दर्शित करने की जिम्मेदारी आयत होती है , वही कलाएं और विधाएं उन विस्तारवादी नीतियों के हाथों में खेलने लगती हैं | अन्यथा अकादमी के सामने दो बेहतरीन फिल्मों  - ‘लिंकन’ और ‘ला मिजरेबल्स’ - का विकल्प तो था ही , जिनके आधार पर वह अपने चेहरे को चमका सकती थी , लेकिन उसने अपने इतिहास को दुरुस्त करने के बजाय , पूर्व की भाति ही इन फिल्मों को कूड़ेदान के हवाले कर दिया | तो आईये पहले यह जानने की कोशिश करते हैं , कि इस साल की आस्कर विजेता फिल्म ‘आर्गो’ आखिर दिखाती क्या है , और अंततः इस फिल्म से कौन सा सन्देश ध्वनित होता है ?

‘बेन अफलेक’ द्वारा निर्देशित यह फिल्म ‘आर्गो’ ईरान में इस्लामी क्रांति के दौरान हुयी उस ‘वास्तविक घटना’ को लेकर बनाई गयी है , जिसमें 4 नव. 1979 को एक अतिवादी मुस्लिम गिरोह द्वारा अमेरिकी दूतावास पर हमला किया जाता है , और दूतावास के 60से अधिक कर्मचारियों को बंधक बना लिया जाता है | संयोगवश इनमे से 6 लोग किसी तरह से भागकर बगल के कनाडाई दूतावास में छिप जाते हैं | इन्ही 6 लोगों को सी.आई.ए. एक गुप्त मिशन के सहारे ईरान से सुरक्षित निकालने की योजना बनाती है | योजना के अनुसार एक ‘विज्ञान-फैंटेसी फिल्म’ बनाने वाली कम्पनी के रूप में सी.आई.ए. के अधिकारी यह कहते हुए ईरान में दाखिल होते हैं , कि उन्होंने इस देश को अपनी फिल्म की लोकेशन के लिए चुना है | बाद में कनाडाई दूतावास में छिपे उन सभी 6 लोगों को कनाडा का फर्जी पासपोर्ट देकर , फिल्म बनाने वाली उसी कंपनी का सहयोगी दिखा दिया जाता है | और एक नाटकीय अंदाज में 28 जन. 1980 को उन्हें सुरक्षित निकाल भी लिया जाता है | जाहिर है कि यह फिल्म उस मानसिकता को ध्यान में रखकर बनाई गयी है , जिसमें अमेरिकी लोग अपने आपको ‘हीरो’ जैसे दिखाना चाहते हैं |

फिल्म को वास्तविक दिखाने के लिए ऐतिहासिक पात्रों और टी.वी. दृश्यों का भरपूर प्रयोग किया गया है | जाहिर है ‘थ्रिलर’ फिल्मों को दिखाने में हालीवुड के पास अपनी महारत तो है ही | और इस फिल्म में जब ऐतिहासकिता के साथ उसे जोड़ा गया है , तो वह और अपीलिंग बन गया है | लेकिन इसी चक्कर में फिल्म एक-पक्षीय और प्रोपेगंडा-फिल्म की तरह से बन गयी है | इसमें ईरानी लोगों को असभ्य दिखाया गया है , और ऐतिहासिक संदर्भो की अपनी व्याख्या की गयी है | यह फिल्म न सिर्फ सी.आई.ए. को महिमामंडित करती है , वरन उस समूचे परिदृश्य को नजरअंदाज भी करती है , जिसमे यह घटना घटी थी | फिल्म कनाडा और न्यूजीलैंड के राजनयिकों द्वारा निभाई गयी भूमिका को भी महत्वहीन बनाने का काम करती है , जबकि ऐसा माना जाता है , कि उन 6 व्यक्तियों की रिहाई का मूल विचार कनाडा का ही था | तभी तो फिल्म को देखने के बाद कनाडा ने अपनी क्रुद्ध प्रतिक्रया दी | उसके अनुसार ‘यह फिल्म सी.आई.ए. के लिए लिखी गयी है , और हमारी भूमिका को महत्वहीन बनाती है |’ इन आपत्तियों के बाद इस फिल्म में कनाडा के लिए भी कुछ जोड़ा गया | वहीँ न्यूजीलैंड की आपत्ति का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है , कि फिल्म को आस्कर दिए जाने के बाद 12 मार्च 2013 को वहां की प्रतिनिधि सभा ने यह प्रस्ताव पारित किया , कि ‘इस फिल्म के सहारे हमारे राजनयिकों की मेहनत और साहस को कमतर करने का प्रयास किया गया है |’

लेकिन सबसे तीखी प्रतिक्रया ईरान द्वारा दिखाई गयी | उसका कहना था , कि इस फिल्म में ईरान के पक्ष को बिलकुल भी नहीं दिखाया गया है और ऐतिहासिक घटनाओं को तोड़-मरोड़कर प्रस्तुत किया गया है | ईरान का यह भी मानना है , कि इसे पुरस्कृत करके हालीवुड ने अमेरिकी प्रचार युद्ध को ही पोषित किया है | इस फिल्म को लेकर आपत्तियां और भी हैं , जिसमें तथ्यों के साथ छेड़छाड़ और एकपक्षीय बनाने की बात शामिल है | लेकिन इन आपत्तियों से आगे बढ़कर उन मूल बिन्दुओं की तरफ नजर दौडाना उचित होगा , जिन्हें ध्यान में रखकर हालीवुड ने इस फिल्म को पुरस्कृत किया है | और जाहिर है , कि ऐसा करने के लिए उस समूचे परिदृश्य को समझना आवश्यक हो जाता है |

शीत युद्ध के दौर में गुप्तचर संस्थाओं की मदद से महाशक्तियों ने विभिन्न देशों में तख्तापलट कराया था | 1953 का ईरान हमारे सामने इसी उदाहरण के रूप में है | जब अमेरिकी गुप्तचर संस्था सी.आई.ए. और ब्रिटिश गुप्तचर संस्था एम.आई. 6 ने मिलकर डा. मोहम्मद मुसद्देह की जनता द्वारा चुनी गयी लोकप्रिय सरकार को सत्ताच्युत कर दिया गया था, और अपने पसंद के ‘शाह’ की सरकार को सत्तासीन | डा. मोहम्मद मुसद्देह उन साम्राज्यवादी ताकतों की आँखों में इसलिए खटक रहे थे , क्योंकि उन्होंने अपने देश की तेल संपदा का राष्ट्रीयकरण कर दिया था | उनकी जगह पर जब ‘शाह’ को सत्ता मिली , तो वे उन साम्राज्यवादी शक्तियों की गोद में बैठ गए , जो ईरान को दोनो हाथों से लूट रही थी | लगभग तीन दशकों तक ईरान में अमेरिकी समर्थित ‘शाह’ की सरकार चलती रही | इस दौरान अमेरिकी तेल कंपनियों को ईरान में तेल उत्पादन की खुली छूट मिली गयी थी , और वहाँ के पाकृतिक संसाधनों को दोनों हाथों से लूटा जा रहा था | उधर ईरानी जनता तमाम तरह के कष्टों को झेल रही थी | ‘शाह’ अपने देश में लगातार अलोकप्रिय होते जा रहे थे , और कुल मिलाकर लोगों के बीच यह धारणा बन गयी थी , कि ईरान की इस बदहाली की जिम्मेदारी अमेरिकी हस्तक्षेप और लूट के कारण पैदा हुयी है | 1967 और 1973 के अरब-ईजराईल संघर्ष में भी ईरान इसी वजह से किनारे खड़ा रहा , जबकि वह युद्ध पूरे क्षेत्र में फैला हुआ था | ऐसे में वहां अयातुल्लाह खुमैनी के नेतृत्व में इस्लामी क्रान्ति हो गयी , और ‘शाह’ को देश छोड़कर अमेरिका भागना पड़ा | इसी अफरातफरी और अमेरिका विरोधी माहौल में 4 नव. 1979 को एक इस्लामिक गुट द्वारा अमेरिकी दूतावास पर कब्जा कर लिया गया , और साठ से अधिक लोगों को बंधक भी बना लिया गया था |

आरम्भ में उस इस्लामिक गुट की मंशा एक तात्कालिक मांग और प्रदर्शन तक ही सीमित थी  , और जिसे अयातुल्लाह खुमैनी द्वारा हतोत्साहित भी किया जाता रहा , क्योकि उससे ईरान की पूरी दुनिया में बदनामी हो रही थी | लेकिन जैसे-जैसे समय बीतने लगा , और अमेरिका द्वारा ईरान को अस्थिर करने की कोशिशे की जाने लगी , इस्लामिक नेतृत्व वाली ईरानी सरकार का रवैया भी बदलने लगा | वह उस पूरी घटना को अपनी सरकार को मजबूती प्रदान करने के लिए इस्तेमाल करने लगी , और अमेरिका के सामने कुछ ऐसी मांगे रखी गयी , जिनसे दुनिया भर में ईरान की गिरती हुयी छवि को बचाया जा सके | एक – ‘शाह’ को ईरान को सौंपा जाए | दो – अमेरिका ईरान में हुए 1953 के तख्तापलट के लिए माफ़ी मांगे | और तीन – ईरान की अमेरिका में जब्त और संचित राशि को लौटाया जाए | जाहिर है , कि ये मांगे अयातुल्लाह को सूट करती थी , और इससे अपने देश में उनकी पकड़ मजबूत भी होने लगी थी | एक लम्बी और थका देने वाली वार्ता के परिणामस्वरूप अंततः इन बंधकों को 444 दिनों बाद 20 जन.1981 को रिहा किया गया , जिसकी मध्यस्थता अल्जीरिया ने की थी | बदले में अमेरिका ने ईरान की कुछ संपत्ति को तो लौटाया ही , साथ ही साथ दुनिया को यह आश्वासन भी दिया , कि वह भविष्य में उसके आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप नहीं करेगा | इस पूरे बंधक संकट में दो बड़ी घटनाएं और हुयी थी | एक - जैसा कि इस फिल्म में दिखाया गया है , कि 6 कर्मचारियों को एक गुप्त अभियान के तहत छुड़ा लिया गया था , जिसमे कनेडियन दूतावास की बड़ी भूमिका थी |  और दो – 24 अप्रैल 1980 को एक दूसरा गुप्त सैन्य-अभियान असफल भी हो गया था , और जिसमें अमेरिका के आठ सैनिक मारे गए थे |

फिल्म को देखने और उसके वास्तविक ऐतिहासिक परिदृश्य को समझ लेने के बाद शायद ‘आस्कर पुरस्कारों’ की इस राजनीति को समझा जा सकता है | पहली बात तो यह कि ‘आर्गो’ उस समूचे परिदृश्य को नहीं पकडती , वरन चयनित तरीके से अपने ख़ास हितों की घटनाओं को पकड़ कर आगे बढ़ती है | दूसरे , वह जिन चयनित घटनाओं को पकडती भी है ,उन्हें भी तोड़-मरोड़कर पेश करती है | और तीसरे यह कि , इसका परिणाम यह होता है , कि उस समूचे परिदृश्य की समझ लगभग उलट सी जाती है | क्योंकि जिस सी.आई.ए. की वजह से ईरान में तख्तापलट होता है , और जिसके सहयोग से एक भ्रष्ट व्यवस्था को तीन दशक तक ईरानी लोगों पर थोपा जाता है , वही सी.आई.ए. इस फिल्म में हीरो की भूमिका में आ जाती है | वहीँ दूसरी तरफ , उन कठिन दिनों को झेलने वाला ईरानी समाज खलनायक बन जाता है | और इन सबसे बढ़कर यह भी , कि इसके द्वारा अमेरिका ने ईरान पर एक तरह का ‘कूटनीतिक हमला’ भी किया है | आज अमेरिका की नजर ईरान पर है , और समूचे खाड़ी-क्षेत्र में वही एक ऐसा देश है , जो अमेरिकी नीतियों को चुनौती देता आया है | संयुक्त राष्ट्र-संघ और यूरोपीय संघ के साथ मिलकर अमेरिका ने ईरान पर प्रतिबंधो के सारे हथियार आजमा लिए हैं | अब इस फिल्म के सहारे सांस्कृतिक मोर्चे पर दुनिया भर में यह भ्रम फैलाया जा रहा है , कि ईरानी लोग असभ्य होते हैं , इसलिए उन्हें सबक सिखाया ही जाना चाहिए , और यह सबक ‘छल, बल और कल’ किसी भी तरीके से सिखाया जा सकता है | हालीवुड फिल्म उद्योग ने इस ‘आस्कर पुरस्कार’ के द्वारा अमेरिकी विदेश नीति के इन्हीं लक्ष्यों को संरक्षित किया है , न कि कला का सम्मान |

अमेरिका का प्रत्येक उद्योग इसी तरह से संचालित होता है , गोया दुनिया की सारी जिम्मेदारी उन्ही के ऊपर आयत होती हो | हालीवुड भी इससे अछूता नहीं है | वहां की फिल्मों में पूरी दुनिया को देखने का चलन बहुत पुराना है | वे इसे अपनी जिम्मेदारी भी मानते हैं | लेकिन जब उस दुनियावी दखल में अमेरिकी भूमिका की बात आती है , तो उनकी फिल्मे मौन साध लेती हैं | और जब कोई फिल्म यह साहस दिखाती है , तो उसे किनारे कर दिया जाता है | ‘आस्कर’ पुरस्कारों के 85 वर्षों की समूची सूची इस बात की गवाही देती है , कि उसने किस तरह से उन फिल्मों को किनारे किया है , जिनमे अमेरिका की दुनियावी दखल का खुलासा होता है | और साथ ही साथ यह भी , कि किस तरह से उन फिल्मों को पुरस्कृत किया गया है , जिन्होंने बदनाम अमेरिकी चेहरे को चमकाने का काम किया है | एक सवाल यहाँ यह खड़ा हो सकता है , कि आप अमेरिकी फिल्म उद्योग से यह अपेक्षा ही क्यों करते हैं , कि वह अपने देशहित को छोड़कर एक निष्पक्ष नजरिये का प्रदर्शन करे | उसका फिल्म उद्योग यदि अपने देश के चेहरे को चमकाता है , तो इसमें गलत क्या है ?  बिलकुल .... इसमें कुछ भी गलत नहीं है |  लेकिन दुनिया भर में यह ‘मोह और भ्रम’ क्यों पाया जाता है , कि ये पुरस्कार श्रेष्ठ फिल्मों को प्रदान किये जाते हैं , और भारत जैसे देशों में टी.वी.चैनलों पर लाइव दिखाकर , तथा समाचार पत्रों में उनकी खबरे पाटकर यह ‘पागलपन’ क्यों दिखाया जाता है ? यह ठीक है , कि अमेरिका में बनने वाली फिल्म अमेरिकी दृष्टि से ही निर्मित होगी , लेकिन यदि वह दृष्टि ‘इतिहास के निरस्तीकरण’ और ‘फिल्म द्वारा पुनर्लेखन’ तक पहुँच जाए , तो उसे बेनकाब किया जाना चाहिए | ऐसे में यह जरूरी है , कि हालीवुड फिल्म उद्योग के इस खेल को न सिर्फ समझा जाए , जो वह ‘आस्कर’ के माध्यम से खेलती आयी है , वरन उसे ख़ारिज भी किया जाए | ‘आर्गो’ नामक फिल्म इसी खेल का हिस्सा है , और इसलिए इसे हतोत्साहित किया जाना चाहिए |
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रामजी तिवारी
कवितायें, संस्मरण लेख तथा फिल्म समीक्षाएं प्रकाशित
मो.न. 09450546312



   

                         


'विचारधारा, शक्तिकेंद्र, प्रतिमानीकरण: लेखन और जीवन'

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(एक फेसबुक बहस: 18 अप्रैल 2013 - 4 मई 2013)


इस बहस के बारे में दो शब्द


करीब एक पखवाड़े (18 अप्रैल 2013 से 4 मई 2013 तक) की अवधि में फेसबुक पर एक (महा )बहस चली जिसकी शुरुआत हिंदी कवि कमलेश के 'समास' पत्रिका में प्रकाशित एक साक्षात्कार में दिए गये इस बयान से हुई कि मानवता को सी. आई. ए. का ऋणी होना चाहिएऔर जो रचना और विचारधारा/जीवन के अंतर्संबंधों, साहित्य और कला के शक्ति संबंधों और समीकरणों और कला एवं जीवन की सामान्य नैतिकताओं पर एक बहस में बदल गयी.बहस की शुरुआत गिरिराज किराडू ने एक स्टेटस लिख कर की. बहस में एक तरफ थे अशोक कुमार पांडेय, गिरिराज किराडू, वीरेन्द्र यादव, मंगलेश डबराल, प्रभात रंजन और कई मित्र और दूसरी तरफ थे मुख्यतः जनसत्ता संपादक ओम थानवी, कुलदीप कुमार और उनके समर्थक. यह बहस यहाँ तिथिक्रमवार प्रस्तुत है . इसे आपके सामने प्रस्तुत करने का एकमात्र उद्देश्य यह है कि इस बहस को लेकर हो सकने वाले, शायद अभी से हो रहे दुष्प्रचार के बरक्स इच्छुक पाठक मूल पाठ पढ़ सकें. यहाँ पूरी बहस क्रमवार, तिथिवार है, अविकल नहीं. जो बातें बहस को दोनों में किसी भी तरफ आगे बढ़ा रही थीं उन्हें शामिल किया गया है. इसका शीर्षक हमने विचारधारा, शक्तिकेंद्र, प्रतिमानीकरण: जीवन और लेखन (एक फेसबुक बहस) रक्खा है जो इसमें शामिल चीज़ों का ठीक अनुमान देता है. यह बहस हिंदी साहित्य के नये पब्लिक स्फीयर फेसबुक के संजीदा उपयोग का एक उदहारण है और उसके बारे में अपरीक्षित धारणाओं का एक सशक्त प्रतिवाद भी. फेसबुक पर बहस लाईव होती है, कोई बोलता नहीं है, सब लाईव लिखते हैं. हिंदी में लिखने के उपकरण ऐसे हैं कि रोमन में टाईप किया देवनागरी में रूपांतरित होता है तो वर्तनी के अनचाहे विचलन इस पाठ में हैं. उन अशुद्धियोंके साथ ही पाठक पढ़ें, इस बात का ध्यान हमने जानबूझकर रखा है.


गिरिराज किराडू - अशोक कुमार पाण्डेय  
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बहस में शरीक

अख़लाक उस्मानी,अशोक कुमार पांडेय,आराधना चतुर्वेदी,आशुतोष कुमार,ओम थानवी,ओम निश्चल,कर्ण सिंह चौहान,के.सच्चिदानंदन,गिरिराज किराडू,जगदीश्वर चतुर्वेदी,दीपचंद साँखला,प्रकाश के रे,प्रभात रंजन,प्रियंकर पालीवाल,बटरोही,बोधिसत्व,मंगलेश डबराल,मोहन श्रोत्रिय,रामजी यादव,वीरेंद्र यादव,शिरीष कुमार मौर्य,संतोष कुमार पांडेय,सतीश चन्द्र सत्यार्थी,सत्यानंद निरूपम,हरे प्रकाश उपाध्याय

वीरेन्द्र यादव, आशुतोष कुमार, मंगलेश डबराल, ओम थानवी 








गिरिराज किराडू की फेसबुक टाइमलाइनः 18 अप्रैल 2013





मूल पोस्ट: गिरिराज किराडू: “भंते, यह साहित्य के विश्व इतिहास में उल्लेखनीय है. वह कौनसा प्रसिद्ध लेखक है जिसने कहा है कि मानवता को सी.आई.ए.का ऋणी होना चाहिए. क्लू यह है कि कारनामा एक वरिष्ठ हिंदी लेखक के किया हुआ है”. 
(आगामी यू.जी.सी. जे.आर.एफ. नेट हिंदी के प्रश्न पत्र में आने की प्रबल संभावना) 

बहस

प्रभात रंजन: वे पुरुष नहीं महापुरुष हैं. क्या ज़माना आ गया है. एक दौर था कि उनके हाथ से पुरस्कृत होना वाम से विचलन माना जाता था, आज वाम-अति वाम सब उनके हाथों पुरस्कृत होकर धन्य हुए जा रहे हैं. यह साहित्य का प्रहसन काल है भंते!

आशुतोष दुबे:  अगर नेट मैंने दी होती, तो अज्ञान का खमियाज़ा फेल होकर चुकाना पड़ता.

गिरिराज किराडू: लगता है आप समास पत्रिका नहीं पढ़ते भाई, इस बयान का शोध सन्दर्भ वहीं है.

अशोक कुमार पांडेय: लीजिये बता देता हूँ मैं ही : कमलेश जी. कल महाकाव्यों पर व्याख्यान देंगे बनारस में. आप लोगों का हिंदी का मास्टर होना बेकार है. अंग्रेजी का एक मास्टर भारी पड़ा सब पर.

 (Prabhat Ranjan से )-प्रहसन काल या विलाप काल? वाम ने जिसे सेलीब्रेट किया वह घुटनों के बल अशोक वाटिका में चरने चला गया. अब आदरणीय विष्णु खरे अपने इन अंतर्राष्ट्रीय शिष्यों के सम्मान में क्या कहेंगे? वैसे अब इन्हें खरे की कोई ज़रुरत है ही नहीं..हमें तो खैर न खरे की ज़रुरत है न ही वाटिका के फल-फूल की.

हम पर बरसने वाले लोगों में से कोई रज़ा फाउन्डेशन से पौने दो लाख के रिसर्च प्रोजेक्ट के लाभार्थी प्रखर वामपंथी युवा कवि के महाकाव्यात्मक आयोजन में कमलेश जी के बुलाने के निहितार्थों, अभिधा-व्यंजना पर कुछ न बोलेगा. न जसम. न कोई और. आखिर अशोक जी के बिना किसी का काम नहीं चलता.



गिरिराज किराडू :शताब्दी वर्ष में तो उपलब्धि ही यह रही कि वाम आँगन अज्ञेयमय हो गया और उसका असल श्रेय Om Thanvi का है. अज्ञेय अपने अंतिम वर्षों में जिस तरह उपेक्षित किये गये उसके बरक्स उनके पुनरुत्थान का श्रेय ओम जी को जाना चाहिए.

ओम थानवी: (१) कमलेशजी की विचारधारा, यहाँ तक कि उनकी कविता के कथ्य से भी जब-तब असहमति अनुभव की जा सकती है,  लेकिन कवि वे उम्दा हैं. (२) मैं उनकी कविता पर बात कर सकता हूँ, बाकी चीजों की उनकी समझ से उनकी कविता पर कोई फर्क नहीं पड़ता, इसलिए कवि के मामले में इस प्रश्न को अप्रासंगिक मानता हूँ. वे सीआइए के समर्थन में भी कविता लिख दें तो पहले यह देखूंगा कि कविता कैसी रची गई है. कविता अच्छी लगे तो कविता को अच्छा कहूँगा और उसमें व्यक्त विचारों से अपनी असहमति प्रकट करूंगा. (३) रज़ा फाउंडेशन का विरोध पढ़ने में आया. किसलिए, यह समझ नहीं पड़ रहा. एक कलाकार अपने चित्रों की कमाई से कला ही नहीं, साहित्य के क्षेत्र में भी कुछ करे तो उसमें आपत्ति कैसी? महज इसलिए कि उसका काम अशोक वाजपेयी देख रहे हैं? वाजपेयीजी की दृष्टि कई परदानशीं मतवादी लेखकों से बहुत उदार है; आज ही कभी-कभार में ऋतुराज की कविताओं पर उनकी मुक्तकंठ प्रशंसा पढ़ी जा सकती है. हिंदी साहित्य में कट्टरपंथियों का तो हाल यह है कि मैनेजर पाण्डेय अज्ञेय जन्मशती पर शिरकत करें (नामवर सिंह, केदारनाथ सिंह, विश्वनाथ त्रिपाठी, राजेंद्र यादव से लेकर पंकज बिष्ट तक किस ने नहीं की; कुछ नहीं तो अज्ञेय पर व्याख्यान देकर या संस्मरण लिखकर ही?) या प्रणय कृष्ण अज्ञेय पर किताब लिखें तो अज्ञेयवादी कहकर पुकारे (दुत्कारे?) जाते हैं. साहित्य में तंग नजर का दौर चुक गया है, जो इस बात को समझने से कतराएंगे और वही लकीर पीटेंगे, वे शायद अपना ही नुकसान कर रहे होंगे. कोई दकियानूसी अज्ञेय को न पढ़े, या दूसरी तरफ का दकियानूसी नागार्जुन को न पढ़े, तो इससे अज्ञेय या नागार्जुन का क्या बिगड़ जाएगा?

अशोक कुमार पांडेय: माफ़ कीजिए ओम जी, सी आई ए के समर्थन और उस पर लिखी कविता में भी अच्छे तत्वों को ढूंढ निकालना सच में बड़ा 'महान समन्वयकारी' काम है, वह आप जैसे विद्वान ही कर सकते हैं. वैसे यहाँ कवि के रूप में उनका ज़िक्र कोई कर भी नहीं रहा. सवाल साफ़ था कि 'मानवता को सी आई ए का ऋणी होने' का उद्घोष करने वाला एक प्रखर वामपंथी के लिए इतना ग्राह्य कैसे हो गया? आपसे भी साफ़ सवाल था कि "सी आई ए को लेकर उनकी समझ के बारे में क्या कहेंगे?". इसमें कविता कहीं शामिल न थी. लेकिन उन रेशमी शब्दों में इस सवाल को छिपा देना बहुतों के लिए मुफीद रहा है और आपके लिए भी है. आपकी काल्पनिक असहमति भी 'अगर' की ढाल के पीछे आई. सी आई ए की यह स्वीकार्यता अद्भुत है.
अज्ञेय को लेकर आपका भाव और आपकी भक्ति दोनों से परिचित हूँ और आपसे कोई शिकायत करने की आवश्यकता भी महसूस नहीं करता, हाँ यहाँ बात रजा फाउंडेशन या अशोक बाजपेयी के विरोध की थी ही नहीं, बात उनकी थी जिनके लिए कल तक अशोक वाजपेयी अस्पृश्य थे, कलावाद के प्रतीक थे और पिछले दिनों में अत्यंत प्रिय बन गए. सवाल उन वजूहात का था जिससे यह घटित हुआ कि भारत भवन का विरोध करने वाले, अशोक वाजपेयी को वहां का अल्शेशियन बताने वाले उनसे एक लाख का सम्मान लेने लगे, जन्म दिन पर विरुदावलियाँ पढने लगे. सवाल उन वजूहात का है जो घोषित अज्ञेय विरोधियों (व्यक्ति नहीं विचार) को उस खेमे में ले जाता है. सवाल उस समझ का है जो 'बूढ़ा गिद्ध क्यों पंख फैलाए' लिखने वाले को अज्ञेय स्तुति करवाता है. सवाल मैनेजर पाण्डेय से है कि अज्ञेय के खिलाफ लिखा लेख किसी किताब में शामिल करने से उन्हें कौन सी चीज़ रोकती है? सवाल उन समझौतों का था जो एक कवि को विष्णु खरे से अशोक बाजपेयी तक भटकाता है. क्या इनकी वजूहात शुद्ध साहित्यिक और समन्वय की किसी तलाश से निकली हैं? अज्ञेय पर पांच-पांच और नागार्जुन या केदार या शमशेर पर एक कार्यक्रम न करना भी एक तरह का कट्टरवाद है. आपकी अपनी पसंद है, दूसरों की क्यों न हो? सवाल हम आपसे नहीं उनसे पूछ रहे हैं जिन्हें 'अपना' समझते थे. इसीलिए वाम आँगन में अज्ञेय के प्रवेश का श्रेय मैंने आपको नहीं उन आंगनों को ही दिया था. वैसे कोई अहर्निश अज्ञेय की करताल बजाये तो उससे भी अज्ञेय का बन भी क्या जाएगा? 

"दुर्भाग्य" से सारे विपर्यय के बावजूद साहित्य के दौर अब भी आप नहीं तय करते..हम भी नहीं. इतिहास आज और यहीं ख़त्म नहीं हो रहा. समय इतिहास उनके भी लिखेगा जो तटस्थ रहे, उनके भी जिन्होंने यह या वह पक्ष चुना.

ओम थानवी: यह 'महान' काम मैंने विजयदेव नारायण साही से सीखा, जिन्होंने साफ़ लिखा था कि नीत्शे की कृति "जरथुस्त्र उवाच" विचारों के हिसाब से ऐसी समाज-विरोधी है कि जला देने के काबिल है; मगर साहित्य के नजरिये से महान रचना है जिसकी एक प्रति अपने पास रखता हूँ और एक आपको भी पास रखने की गुजारिश करता हूँ. स्मृति से लिख रहा हूँ; साही जी के उन शब्दों में मामूली फर्क हो सकता है, भाव ठीक-ठीक यही है जो मैंने लिखा. वैसे आपको पता हो न हो, फासीवाद के खुल्लमखुल्ला समर्थक एज़रा पाउंड को भी, समाज-विरोधी विचारधारा के बावजूद, संसार में 'महान' कवि माना जाता है.

अशोक कुमार पांडेय: आप साहित्यिक कृतियों की बात कर रहे हैं और मैं स्टैंड की. क्या किसी ने कमलेश के अच्छे या बुरे कवि होने की बात की? बात सी आइ ए पर उनके स्टैंड की है. जिसे आप कविता के आवरण में नज़रंदाज़ कर रहे हैं. क्या उस पर बोलना इतना मुश्किल है.

ओम थानवी: Ashok Kumar Pandey क्या आप समझते हैं अशोक वाजपेयी दक्षिणपंथी हैं? शायद आपको मालूम नहीं कि गुजरात के दंगों के खिलाफ दिल्ली के लेखकों (वाम लेखक भी शामिल, अगर लेखकों को जाति से पहचानने की गरज हो) को मंडी हाउस पर त्रिवेणी में एक अकेले अशोक वाजपेयी के आह्वान ने जमा किया था. वह आन्दोलन बहुत लम्बा चला, अशोक जी लेखकों को एक करने गुजरात भी गए. नरेन्द्र मोदी के नरसंहार के खिलाफ मंडी हाउस से राष्ट्रपति भवन की तरफ लेखकों का जुलूस निकला, यह अदना पत्रकार भी उसमें मौजूद था और कह सकता हूँ कि मैंने विभिन्न मत वाले लेखकों का उतना बड़ा सामूहिक विरोध पहले नहीं देखा. डॉ विनायक सेन की रिहाई में भी अशोक जी बहुत सक्रिय थे. जन्तर मंतर वाली सभा में जाकर बोले भी थे. डॉ सेन के समर्थन में सरकार विरोधी उग्र सभा उनकी लिखित अनुमति से ललित कला अकादमी के मैदान में हुई थी, जिसके अशोक जी अध्यक्ष थे. मान लेते हैं कि आप बड़े 'लेफ्टिस्ट' हैं, पर हर नापसंद लेखक को एंटीलेफ्ट मत घोषित कीजिए; साम्प्रदायिकता विरोधी हमारी जमात पहले ही फिरकों में बंटी है, आप इसी मतांधता में जकड़े रहे तो उसे और कमजोर करने का ही काम कर रहे होंगे (२) इसी मतान्धता ने पहले अज्ञेय जैसे लेखक को नाहक बदनाम करने अभियान चलाया और विफल हुए. अब अशोक वाजपेयी निशाने पर हैं. ये नहीं समझते कि अपनी ही दुनिया को और छोटा कर रहे हैं. अगर अज्ञेय एंटी-लेफ्ट होते तो चार सप्तकों में सब नॉन-लेफ्ट कवि न भरे होते? दिनमान आदि में प्रगति-पसंद लेखक क्यों जगह पाते? अशोक वाजपेयी ने पूर्वग्रह में अज्ञेय के जीते-जी उन पर कभी विशेषांक नहीं निकाला, नामवरजी पर निकाला. क्यों भला? ... मुश्किल यह है कि साहित्य में बड़े-बड़े फतवे देने का काम वे करते हैं जो साहित्य में विफल हो गए और मौके-बेमौके इसी तरह अपनी ओर ध्यान खींचने का जतन करते है. जैसे पुकार लगाते हों, कि हम भी पड़े हैं राहों में! ऐसी कराह के मेरी प्रति मैं सहानुभूति ही जाहिर कर सकता हूँ. (३) जहाँ तक मैं जानता हूँ कमलेशजी ने कोई रचना सीआइए के बारे में आज तक नहीं लिखी है. उनका यह कहना गलत नहीं कि एक दौर में सीआइए ने अनेक महान लेखकों को (प्रताड़ित रूसी लेखकों पास्तरनाक, सोल्जेनित्सीन, जोजेफ ब्रोड्स्की आदि के अनेक नाम तो जगजाहिर हैं) मदद की. और सीआइए ने दुनिया का महान साहित्य (नोबल रचनाओं सहित) भी सस्ती दरों पर दुनिया में उपलब्ध करवाया. मगर यह काम तो केजीबी भी तो करती थी. चेखव-तोल्स्तोय सस्ते में उपलब्ध कराते-कराते कौड़ियों के मोल स्तालिन के विचार भी सुन्दर जिल्दों में परोस दिए जाते थे! फिर भी अगर कोई आज कहे कि केजीबी की बदौलत ही सही, हमें महान रूसी साहित्य वक्त पर और सस्ते में सुलभ हो गया जो बहत अच्छा काम हुआ, तो क्या इसे केजीबी का समर्थन करना ठहरा देंगे? (४)  बहरहाल, मेरे इस बहस में पड़ने का एक ही सबब है कि कमलेशजी ने क्या कहा उस पर इतना कुढेंगे तो एक वक्त के बाद उनकी कविता का आनंद कभी नहीं ले पाएंगे जो सचमुच अच्छा काव्य है. एक रचनाकार के मामले में वही महत्त्वपूर्ण है. वे सीआइए की नौकरी करने लगें तब भी मैं यह बात इसी तरह कहूँगा.

अशोक कुमार पांडेय: ओम जी क्या एक दक्षिणपन्थी को मैं आदरणीय प्रतिपक्ष कहूँगा? दिक्कत यह है कि आप अपने पूर्वाग्रहों के चलते प्रतिपक्षी होने को अनिवार्य रूप से बहिष्कार में तब्दील कर दे रहे हैं. यह तो लोकतंत्र का तकाज़ा है कि प्रतिपक्ष से लगातार सम्वाद चलाया जाए. आख़िर 'बूढा गिद्ध क्यों पन्ख फैलाये' लिखते हुए अशोक जी भी अग्येय से सम्वाद ही तो कर रहे थे न! मैंने कभी उनके बहिष्कार की बात नहीं की बल्कि कविता समय के अलावा भी कम से कम तीन आयोजनों में उनके साथ शिरक़त की है. सवाल आपसे, उनसे या रज़ा फाउंडेशन से नहीं उस अवसरवाद से है जिसका ज़िक्र मैंने पिछले कमेन्ट में किया है. लोकतंत्र का कोई अनुवाद अवसरवाद नहीं होता. जहाँ तक मेरा सवाल है, मैं किसी मानवता को किसी गुप्तचर एजेंसी का ॠणी नहीं मानता. न सी आई ए, न के जी बी, न आई बी, न आई एस आई. (२) और ओम जी, सिर्फ कविता के आनन्द में ऐसे सबकुछ भुलाते रहे तो एक दिन सी आई ए के सौजन्य से बची कविताएँ ही पढ पायेंगे. यह निरपेक्ष आनंद कहीं का न छोड़ेगा.

ओम थानवी: मेरा तो इतना निवेदन ही था की कमलेश जी मूलतः कवि हैं, विचारक या दार्शनिक आदि नहीं. तो उनकी रचना से ही उन्हें नापा जाना चाहिए, विचारों से नहीं. किताबें एजेंसियां बँटवाती थीं, यह सच्चाई है. हम सब ने वे सस्ती किताबें- अच्छी और बुरी - देखी हैं, खरीदी हैं. अच्छी के लिए पढ़ाकू समाज ऋणी अनुभव करे इसमें मैं कोई पाप भरा वक्तव्य नहीं देखता हूँ. इस कशमकश में कवि का पाठ क्या करेंगे, यह दुविधा है. सयोग से मैं कमलेश की नया संग्रह 'बसाव' (वाणी) पढ़ रहा हूँ. कविताओं में भी असहमति के बिंदु निकल आ सकते हैं, पर कवि वे ऊँचे हैं. (२) यह कुछ लोगों के साथ मुश्किल है कि सब कुछ विचारधारा की छाया में देखते-सूंघते-तौलते हैं. कहीं सीआइए का जिक्र आया नहीं कि कान खड़े हो जाते हैं. अज्ञेय या निर्मल वर्मा का नाम सुन लें, पेट मरोड़ उठ पड़ती है. जो पसंद नहीं वह जैसे वर्ग-शत्रु है. उसका रचना-लोक गया भाड़ में. हम स्तालिनकालीन रूस में रह रहे हैं या भारत गणतंत्र में? कमलेशजी हिंदी के सबसे 'वेल रेड' कवियों में भी हैं, इसलिए मैं उनका और सम्मान करता हूँ. हालांकि मेरी किताब में सिन्धु घाटी मामले में भगवान सिंह आदि की आलोचना पढ़ कर वे खफा हुए थे, पर उससे क्या!

अशोक कुमार पांडेय: ओम थानवी जी : कौन किसका मित्र-शत्रु है, यह तय हो जाएगा. कुछ बातें साफ़ कर लेते हैं. 
आपने कहीं सफलता-असफलता की बात की थी इसी थ्रेड में उस पर बात कर लेते हैं. महान लोग या यों कहें कि सत्ता से नाभिनालबद्ध डोमाजी की बरात जिसके पीछे चले क्या उसे अपने आप महान होने का वह सर्टिफिकेट मिल जाता है कि उसके बाद किसी को बोलने का हक नहीं? क्या महाजने येन पथे गन्ता का सिद्धांत साहित्य में चलता है या उसे चलाने की कोशिश की जा रही है? नामवर जी तो एक पुलिस अधिकारी को मुक्तिबोध के बाद सबसे बड़ा कवि बता चुके हैं तो क्या उसे स्वीकार कर लेना चाहिए? और बड़ा होना होता क्या है? सत्ता में होना? जे एन यू का प्रोफ़ेसर होना? पूर्व आई ए एस होना? एक मरणासन्न अखबार का धनी सम्पादक होना? जोड़-तोड़ से सारे पुरस्कारों की पीठ पर सवार होना? ये सफलताएं/असफलताएं एक लेखक का चयन भी होती हैं. ज़रूरी नहीं कि सब इन सफलताओं के पीछे भाग रहे हों. 

समयांतर में पंकज बिष्ट अज्ञेय की आलोचना करते हैं या मंगलेश उनकी कविताओं के सहारे उनके जनविरोधी रूप तक पहुँचते हैं या असद जैदी उनकी मूल प्रवृति का अवलोकन करते हैं या अजय सिंह अपने तरीके से अज्ञेय को लेकर जसम की आलोचना करते हैं...या ऐसे तमाम लोग उन समारोहों की करताल से निकलते भक्ति से ओत-प्रोत क्रंदन पर ताली बजाने से इनकार करते हैं तो यह अगर किसी को'राह में पड़े लोगों' का विलाप लगता है तो किसी को अज्ञेय के नाम पर बड़े-बड़े आयोजन कर उनकी अकुंठ माला जपना भी किसी का साहित्य में साहित्येतर और लेखनेतर तरीके से जगह बनाने और सफल होने का भ्रम पालने का प्रयत्न लग सकता है. कुछ की सफलता के पैमाने ऐसे ही होते हैं, ज़रूरी नहीं कि सबकी.

वाम मैं हूँ कि नहीं यह मेरे लिए चिंता का विषय नहीं. यह फैसला समय करेगा. हाँ 'वर्ग-संघर्ष' और द्वंद्वात्मक भौतिकवाद के स्वीकार के बिना कोई वाम हो सकता है कि नहीं यह कोई मुश्किल सवाल नहीं. अगर मैं अशोक  जी को अपना यानि वाम का सम्माननीय प्रतिपक्ष मान रहा हूँ तो यह आपके लिए अपमानजनक हो सकता है जो कि अज्ञेय जैसे घोषित वामविरोधी के प्रतिष्ठापन के लिए अंतत नामवर जी या फिर मैनेजर पाण्डेय या प्रणय कृष्ण जैसे 'घोषित' वामपंथियों का सर्टिफिकेट प्रस्तुत कर जंग को जीती हुई समझ कर हमेशा विजेता की मुद्रा में होने के भ्रम में होते हैं और इस सवाल पर कोई जवाब नहीं देते कि इन बदले हुए स्टैंड्स के बरक्स 'बूढ़े गिद्ध' के पंखों तले 'एकांत का वैभव' तलाश लेने की जो गैरवामपंथी कलाबाजी भी है क्या उसकी वजूहात सिर्फ साहित्यिक हैं? लेखक के लिए वर्तमान का वर्तमान बोध नहीं भविष्य का इतिहासबोध महत्त्वपूर्ण होता है. ऐसी तमाम फौरी 'जीतों' का हश्र हमने पहले भी देखा है. 

और सबके बाद ...हम 'असफल लोगों' को आपके महान लोकतंत्र में अपनी बात कहने का हक है कि नहीं? या हॉब्सबाम सही कहता है कि यह 'सफ़ल लोगों का लोकतंत्र है जिसमें असफल और हारे हुए लोगों के पास अपनी आवाज़ रखने की कोई जगह नहीं होती' (स्मृति के आधार पर, कहेंगे तो कोट कर दूंगा ओरिजिनल से, घर पहुँचने के बाद)

हरे प्रकाश उपाध्याय: बहुत बोर बहस है. अशोक जी कवि अच्छे हैं और रजा फाउंडेशन भी अच्छा है और व्योमेश तो बहुत प्यारे कवि हैं. कमलेश जी की कविता की किताब तो मैं हरदम आजकल साथ लेकर घूम रहा हूं...क्या दिक्कत है इसमें. कोई सीआईए का एजेंट है तो वह कविता नहीं लिखेगा क्या..मनुष्य की भावनाओं, व्यक्तिक सुख-दुख और प्रेम-अप्रेम पर उसके भी तो कुछ विचार होंगे...सुनना चाहिए. अभिव्यक्ति का अधिकार सबको है. न सुनना हो मत सुनिए. अशोक वाजपेयी, कमलेश या व्योमेश कहां आपको जबरन अपनी कविता पढ़ने, सराहने या स्वीकारने पर मजबूर कर रहे हैं. न वे कोई ऐसा सरकारी एजेंडा थोप रहे हैं जिसे मानने के लिए जनता बाध्य हो, फिर क्या दिक्कत है भाई..उन्हें बांटने दीजिए फेलोशिप, लिखने दीजिए अपने ढंग से अपनी किताबें..किताबों में जो लिखा जाएगा...उसकी समीक्षा आप लोग अपने ब्लॉगों पर लिखिए. किसी को कोई नहीं रोकेगा. अशोक जी, कमलेश जी और व्योमेश जी मेरे कोई रिश्तेदार नहीं हैं कि मैं उनका पक्ष ले रहा हूँ, बल्कि उन सबसे मेरे रिश्ते बहुत खराब हैं और मैं उसे सुधारना भी जरूरी नहीं समझता, पर उनकी अधिकांश कविताएं मुझे अच्छी लग रही हैं, तो लग रही हैं, कुछ वैसी कविताएं भी इधर मुझे अच्छी लग रही हैं जो पहले अच्छी नहीं लगती थीं. मुझे अपनी ही बहुत सारी कविताएं बहुत बेकार लग रही हैं जो छपने के पहले इतनी अच्छी लगती थीं कि उनकी कोई बुराई करता था तो मैं झगड़ा कर लेता था, पर वे बुरी कविताएं मेरी हैं तो हैं...मैं अब क्या कर सकता हूँ. वे कविताएं बाजाप्ता मेरी किताब में हैं और मेरी किताब का दूसरा संस्करण शायद कभी आये भी नहीं कि मैं उन्हें उस संस्करण में बाहर कर सकूँ और उनकी जगह कोई दूसरी कविताएं रख सकूँ. क्या पता मैं जिन कविताओं को रखने का विचार कर रहा होऊँ, वे और ज्यादा खराब हों. पर मैं क्या कर सकता हूँ. आप सब लोगों से निवेदन है कि आप सब लोग अपने-अपने ब्लॉगों पर खराब कविताओं की निंदा करें और फेसबुक पर निंदा प्रस्ताव पास करें. हां बुरी कविताओं के साथ भी यही सलूक करें. या जो मन चाहे सो करें. पर रजा फाउंडेशन को फेलोशिप आदि बांटने दें. वैसे ही हिन्दी लेखन के लिए फेलोशिपों का इतना अभाव है कि मैं खुद ही एक फेलोशिप शुरू करने की सोच रहा हूँ मगर दिक्कत यह है कि मेरे पास देने के लिए पैसे नहीं हैं, वैसे सरकारों से निवेदन तो कर ही सकता हूँ कि हिन्दी के लेखकों को फेलोशिप दिया जाय. फेलोशिप के बदले पैसे की जगह जमीन दिया जाना ज्यादा श्रेयस्कर होगा ताकि उस जमीन पर लेखक खेती भी कर सकें. वैसे हिन्दी का लेखक बहुत काइंयां जीव होता है वह खेती की जमीन पर बंगला भी बना सकता है. मेरी मूल चिंता यही है आजकल और मजूरों के बारे में इधर महीनों से मैंने कुछ नहीं सोचा तो क्या मैं मार्क्सवादी नहीं हूं, मार्क्स जिंदा होते तो क्या इसकी सजा मुझे कविता लिखने के मेरे मौलिक अधिकार पर प्रतिबंध लगाकर देते, आप बतायें कृपया...नहीं भी बताएंगे तो कोई बात नहीं, सबको बताने और नहीं बताने दोनों का हक है...आप मनमोहन सिंह तो हैं नहीं कि नहीं बताने पर मीडिया नाराज हो जाएगा...

मंगलेश डबराल: कमलेश जी कुल मिलाकर एक रूमानी कवि हैं, जिनकी कविता पर विदेशी कवियों का बहुत साफ़ असर रहा है. उनका प्रारम्भिक दौर काफी अच्छा था और उत्तर छायावादी, रोमांचक भाषा और विन्यास उन्होंने विकसित किया था. एक भाषाई सवर्णात्मकता , जो कुछ रोमांचित करती थी. लेकिन परवर्ती कमलेश बेहद निराशाजनक हैं. मार्क्सवाद के बारे में उनका सोच और उनकी समझ, दोनों बहुत पिछड़े हुए हैं और शीतयुद्धकालीन हैं, उनका आज के पूंजीवाद और मार्क्सवाद की वैचारिकी में आये बदलावों से कोई दूर का भी रिश्ता नहीं. अब उन्हें कोई महाकवि कहे या महा विचारक, इससे कविता और विचार, दोनों पर आज कोई फर्क नहीं पडता, हाँ कुछ तात्कालिक चर्चा वगैरह तो हो सकती है. या कुछ धुंधलका फ़ैल सकता है, जैसे भगवान सिंह की किताब के बहाने डी डी कोशाम्बी पर उनके बचकाने और अतार्किक प्रहार या कुलदीप कुमार को दिए गए कुंठित जवाब से चंद लम्हों के लिए फैली. (२) पोलिश कवि मिलोश के अशोक वाजपेयी द्वारा संपादित चयन का नाम 'खुला घर' है तो कमलेश जी के संग्रह का नाम 'खुले में आवास' है, और फिर अगला कमज़ोर संग्रह है 'बसाव'. और ये सभी नाम सचमुच के महाकवि पाब्लो नेरुदा के 'रेसीडेन्स आन अर्थ' --- रेसिदेंसिया एन ला तियेरा - के फालआउट्स हैं, तो हिंदी में यह सब चलता है तात्कालिक और क्षणिक महानताओं के नाम पर.

रामजी यादव :बड़े आश्चर्य की बात है वामपंथ को बुरा-भला कहनेवाले भी अपने जेनुइन कामों को वामपंथी ही समझते हैं . सेकुलरिज़्म ऐसा ही हथियार है . यह आसानी से अपने को सुर्खरू बनाने के काम आ जाता है . लेकिन वामपंथ से भी चमकदार सेकुलरिज़्म कांग्रेस का रहा है . वह दशकों से इसी की सत्ता पाती रही है . क्या इस नाते कांग्रेस को वामपंथ माना जा सकता है ?

ओम थानवी की टाइमलाइनः 22 अप्रैल 2013

मूल पोस्ट:ओम थानवी: कलाकार सैयद हैदर रज़ा को राष्ट्रपति ने आज पद्मविभूषण से नवाजा. दूसरी तरफ फेसबुक पर आज ही किसी अन्य बहस में रज़ा फाउंडेशन का विरोध पढ़ने में आया. किसलिए, यह साफ समझ नहीं पड़ रहा. एक कलाकार अपने चित्रों की कमाई से कला ही नहीं, साहित्य के क्षेत्र में भी कुछ करे तो उसमें आपत्ति कैसी? महज इसलिए कि उसका काम अशोक वाजपेयी देख रहे हैं? वाजपेयीजी की दृष्टि कई परदानशीं मतवादी लेखकों से बहुत उदार है; आज ही 'कभी-कभार' (जनसत्ता) में ऋतुराज की कविताओं पर उनकी मुक्तकंठ प्रशंसा पढ़ी जा सकती है. हिंदी साहित्य में कट्टरपंथियों का तो हाल यह है कि मैनेजर पाण्डेय अज्ञेय जन्मशती पर शिरकत करें (नामवर सिंह, केदारनाथ सिंह, विश्वनाथ त्रिपाठी, राजेंद्र यादव से लेकर पंकज बिष्ट तक किस ने नहीं की; कुछ नहीं तो अज्ञेय पर व्याख्यान देकर या संस्मरण लिखकर ही?) या प्रणय कृष्ण अज्ञेय पर किताब लिखें तो अज्ञेयवादी कहकर पुकारे (दुत्कारे?) जाते हैं. 

साहित्य में तंग नजर का दौर चुक गया है, जो इस बात को समझने से कतराएंगे और वही लकीर पीटेंगे, वे शायद अपना ही नुकसान कर रहे होंगे. कोई दकियानूसी अज्ञेय को न पढ़े, या दूसरी तरफ का दकियानूसी नागार्जुन को न पढ़े, तो इससे अज्ञेय या नागार्जुन का क्या बिगड़ जाएगा? अज्ञेय की किसी वक्त चौतरफा उपेक्षा होती थी, उससे भी अज्ञेय का कोई नुकसान नहीं हुआ, उनके पाठक और बढ़ते चले गए. इस बात को लगता है नामवर सिंह या मैनेजर पाण्डेय तो समझ गए. लेकिन कुछ हैं जो अब भी नहीं समझना चाहते और हवाई तलवारें भांज रहे हैं! कहना न होगा, रज़ा फाउंडेशन के बहाने लगता है हमला अशोक वाजपेयी पर है और यह भी वैसी ही संकीर्ण जमाते-मतवादी कारस्तानी है.

बहस

ओम निश्चल: अज्ञेय अब जो भी हैं वे सब के सामने हैं. जो विरोध करते हैं वे भी जानते हैं कि किसका विरोध किसलिए कर रहे हैं. उन्‍हें यह अधिकार है कि वे किसे चाहें या न चाहें या बिना चाहे भी जो चाहे वे करें. हिंदी विवेक तमाम कारणों से लामबंद होता है. वे अक्‍सर बहुत संकीर्ण वजहें होती हैं. अशोक वाजपेयी का रास्‍ता कुछ कुछ अज्ञेय की रुचियों कार्यो से मेल खाता है. साहित्‍य में सांगठनिक उत्‍तरदायित्‍व निभाने वाले कम हैं. जो भी इस रास्‍ते पर आगे चलेगा वह कुछ की निदा या प्रशंसा का पात्र होगा. पर यह सुविदित है कि अज्ञेय का कद उनका काम उनका लेखन उनकी साहित्‍यिक चिंताऍं बड़ी हैं वे ओछी रणनीतियों से प्रेरित नही रही हैं.

आखिरकार अशोक वाजपेयी भी किसी रणनीति के तहत नही, अपने भीतर के साहित्‍यिक अनुराग के चलते ही दीगर विचारधाराओं के कवियों लेखकों कलाकारों के अच्‍छे कामों की तारीफ करते हैं. यही उनकी विशेषता है. यह बात कभी नरेश सक्‍सेना जी के घर हुई एक आत्‍मीय बैठक में मैंने ज्ञानरंजन जी से कही और यह बात उन्‍होंने स्‍वीकार की. ऐसा कोई अन्‍य उदाहरण मैंने नही देखा . लोग कम से कम अशोक जी के साहित्‍यिक अवदान की नहीं, तो उनके इस औदात्‍य और समावेशी चित्‍त की ही सराहना करें. वरना उनकी कविताओं या आलोचना में बहुत कुछ ऐसा है जिसने साहित्‍य के बुनियादी चरित्र पर असर डाला है. वह असर आज के अनेक युवा लेखकों में दीखता है. भाषा को आधुनिक और नुकीला बनाने में उन्‍होंने किसी बढ़ई से कम काम नही किया हे जो रंदा दे दे कर लकड़ी को एक उपयोगी सामान में बदलता है. अशोक वाजपेयी बेशक अपने मत पर टिके रहने वाले इंसान हैं, इस मायने में कम से कम, विरोधों में भी वे अपनी बात से नहीं डिगते. उनका अंत:करण इस अर्थ में विशाल है. इसीलिए प्रगतिशील धारा के अच्‍छे कवियों की कविताओं के गुणसूत्र पर वे खुलेपन से बतियाते रहे हैं. बेशक प्रगतिशीलों को इतने निर्बंध भाव से अपने से अलग विचारधारा के कवियों लेखकों की सराहना करते मैंने विरल ही सुना है. वे होंगे पर हैं विरल ही. 

रही बात फाउंडेशन के रज़ा साहब की, तो उन्‍होंने तो अपना संपूर्ण जीवन ही कला और साहित्‍य को समर्पित कर दिया है. अशोक वाजपेयी के इस विज़न पर शायद ही कोई संशय खड़ा किया जा सके कि किससे क्‍या काम बेहतर ढंग से कराया जा सकता है. साहित्‍य में वे जिस सख्‍य भाव से काम कर रहे हैं उसका घेरा निश्‍चय ही उत्‍तरोत्‍तर बड़ा होगा,ऐसी आशा है. इन विरोधों से भी उन्‍हें कोई खिन्‍न नही कर सकता. वे अपना रथ उसी धुन से जोते रहने वाले इंसानों में हैं.

अफसोस होता है कि खेमेबंदियों ओर संपर्कवाद के तंग घेरों से हम तनिक भी बाहर नही निकल पाते जब कि हम लगातार बड़ी से बड़ी बातें करते रहते हैं.

कर्ण सिंह चौहान: यह कहना उचित नहीं है कि अज्ञेय या नागार्जुन की उपेक्षा हुई . दोनों ही हमेशा से साहित्य में प्रतिष्ठित रहे हैं और हिंदी पाठकों के विशाल समूह के प्रिय रहे हैं . इनका साहित्य विचारों के आरपार पढ़ा जाता रहा है.

जहां तक मूल्यांकन का और उसके आधारों का सवाल है, वह बड़ा सौंदर्यशास्त्रीय या कहें सैद्धांतिक-दार्शनिक सवाल है और उसे चलताऊ अखबारी तर्कों से निपटाया नहीं जा सकता . दोनों तरफ . वे सवाल जीवन, जगत, वर्तमान-अतीत और भविष्य, रचना के वस्तु और रूप, विचार और दर्शन, व्यक्तित्व और कृतित्व आदि के न जाने कितने धरातलों को अपने में समेटे होते हैं . इनसे टकराए बिना कोई भी मूल्यांकन अधूरा, इकतरफा, भावावेगपूर्ण और सतही ही होगा.

विचारों और विचारधारा से शून्य व्यक्ति या समाज नहीं होता है . कला और समाज को लेकर अज्ञेय के अपने 
ठोस विचार रहे हैं . ऐसा जमाना रहा है जब दुनिया में शीतयुद्ध और हिंदी में कलावादी आग्रहों का जोर रहा और उसमें अज्ञेय समेत उन तमाम लेखकों को अतिरिक्त वाहवाही मिली जिनसे यह पक्ष मजबूत होता था . ऐसा जमाना रहा जिसमें समाजवाद एक प्रमुख एजेंडा था और साहित्य में नागार्जुन और वैसी रचनाशीलता को अतिरिक्त प्रशंसा मिली . आज का हमारा जमाना वैचारिक महागाथाओं का जमाना नहीं है . यह स्वायत्त अस्मिताओं के उभार और वर्चस्व का जमाना है . इसलिए जब हम हर तरह की कट्टरता से मुक्ति और हृदय की मुक्तावस्था की गुहार लगाते हैं तो वह आज के इस समय की संगति में होता है . 

यह पहले की कट्टरताओं की तरह ही एक नई कट्टरता है, कोई सर्वमान्य और सार्वभौम स्थिति नहीं . इसलिए इस स्थिति को आज ज्यादा समर्थन मिल रहा है. बस इतनी सी बात है . अंत में एक बात और . सार्त्र को मार्क्सवादी लेखक तो दुनिया में किसी ने नहीं माना. हां सार्त्र की अनेक प्रतिक्रियाओं का उपयोग मार्क्सवादी या उनके विरोधी समय-समय पर करते रहे हैं .
प्रभात रंजन, शिरीष कुमार मौर्य, बटरोही, आराधना चतुर्वेदी 


गिरिराज किराडू की टाइमलाइनः २२ अप्रैल 2013 

मूल पोस्ट: गिरिराज किराडू: अवसरवाद के विरोध को रजा फाउन्डेशन का विरोध बना दिया गया. अति-वाम अभियानात्मकता से शुरू करने वाले जल्द ही अपना स्वर और रुख बदल लेते हैं तो लगता है उनके लिए सब कुछ करियर है :वाम भी करियर, गैर-वाम भी करियर (एडवर्ड सईद ने किसी को उद्धृत किया है: ईस्ट इज अ करियर). अशोक वाजपेयी का विरोध भी एक तथाकथित वाम विरासत है और उनके साथ रहना भी. भारत भवन के बहिष्कार से लेकर उनके साथ संवाद करने वालों को लांछित करने को हिंदी का कॉमन सेन्स बनाने की कोशिश करने वाले ही जाने यह सब. हम तो अशोक जी और उनके फाउन्डेशन का समर्थन करने के लिए भी विरोध झेल चुके हैं और अब तथाकथित विरोध करने के लिए भी. जिस चीज़ का विरोध कर रहे हैं वह है अवसरवादिता और करियरिज्म. और रही बात सी. आइ. ए. को मानव कल्याणकारी मानने की तो एक वरिष्ठ हिंदी कवि के इतिहासबोध पर दुःख ही व्यक्त किया जा सकता है.

बहस

बोधिसत्व: हम पर तो अशोक जी का पक्षधर होने का आरोप सतत लगता रहा है. लेकिन उनके जैसा सक्रिय हिंदी वाला कौन है. और वाम के लोग उनके यहाँ सबसे अधिक आम खाते रहे हैं. एक पूरा इतिहास है. जाने दीजिए. लोगों के पास लंबी सी जबान है. चलाते रहेंगे.

हरेप्रकाश उपाध्याय:  मार्क्स ने कहा था कि वाम साहित्यकार आम जरूर खाएं...आम खाने से अच्छी कविता बनती है. आम खाकर कविता लिखने से कर्मकांड और प्रगतिशीलता दोनों का पुण्य प्राप्त होता है. फेलोशिप आदि तो मिल ही जाती हैं, एकता कपूर का प्यार भी मिलता है...अब क्या करेंगे कि आम के बगीचे सब अशोक  वाजपेयी के एकाधिकार में हैं...एकाधिकारवाद मुर्दाबाद कहेंगे आप और जो आम खा रहे हैं, हो सकता है आम खाने के बाद कभी आपके साथ भी यही नारे लगाने आ जाएं और सफाई में बस इतना कहें कि यार आम बहुत खट्टे थे, पता नहीं किस कार्बाइड से पकाया था...

मोहन श्रोत्रिय : "और रही बात सी. आइ. ए. को मानव कल्याणकारी मानने की तो एक वरिष्ठ हिंदी कवि के इतिहासबोध पर दुःख ही व्यक्त किया जा सकता है."

(इस बिंदु पर मूल इंटरव्यू की मांग की गयी, और उसे गिरिराज किराडू ने स्कैन  रूप में अपने यहाँ पोस्ट किया, जिस पर आगे की बहस है. पाठक वह स्कैन यहाँ क्लिक करके डाउनलोड कर सकते हैं) 

गिरिराज किराडू की टाइमलाइन 22 अप्रैल 2013 

मूल पोस्ट: कमलेश के साक्षात्कार का स्कैन: ओम थानवी के सौजन्य से

ओम थानवी: मैं समझता हूं सीआइए और केजीबी दोनों की कारगुजारियों से ऐसी-ऐसी जानकारियां और किताबें समाज में वितरित हुई हैं कि समाज दोनों के प्रति ऋणी हो सकता है; वरना हम एक ही दुष्प्रचार के शिकार होकर रह जाते.

आशुतोष कुमार: कमलेशजी मानवजाति की ओर से जिस सी आइ ए के ऋणी हैं , अच्छा होता कि पिछली सदियों में , एशिया-अफ्रीका से ले कर लातीनी अमरीका में (दुनिया भर में) लोकतांत्रिक समाजवादी सरकारों को पलटने , नेताओं और लेखकों को खरीदने , उनकी हत्या कराने , से ले कर खूनी सैनिक क्रांतियां /जनसंहार कराने तक की उस की करतूतों के बारे में भी दो शब्द कह देते . सोवियत विकृतियों की आलोचना की सुदृढ़ परम्परा खुद कम्युनिस्ट आंदोलन के भीतर ट्रोट्स्की से ले कर माओ और उस के बाद तक मौजूद रही है. सोवियत संघ के और दुनिया भर के स्वतंत्र मार्क्सवादी/ नव-मार्क्सवादी लेखकों ने लिखा है. सी आइ ए की सुनियोजित प्रचार सामग्री इस लिहाज से कतई भरोसे लायक नहीं हो सकती . उसके प्रति कृतज्ञता केवल वे लोग महसूस कर सकते हैं, जिन्हें कम्युनिस्ट विरोधी साहित्य की सख्त जरूत थी . वो चाहे जहां से मिले, जैसी मिले . वे जो यों तो किसी विचार के 'पश्चिमी' होने मात्र से आशंकित हो जाते हैं, और भारत पर उस का प्रभाव पड़ते देख पीड़ित, लेकिन हर उस पश्चिमी लेखक के मुरीद हो जाते हैं, जो कम्युनिस्ट विरोधी हो. इन पन्नों को पढ़ कर तो यही लगता है कि कमलेश जी की कृतज्ञता ज्ञान के विस्तार के कारण नहीं, बल्कि कम्युनिस्ट-विरोध के कारण है. उन्हें अपनी कृतज्ञता जाहिर करने से कौन रोक सकता है, लेकिन उसे '' मानवजाति की कृतज्ञता '' के रूप में स्थापित करने की कोशिश पाखंडपूर्ण तो है ही , हास्यास्पद भी है.

ओम थानवी: रसूल हमज़ातोव ने आलोचना करने वालों को 'मेरा दाग़िस्तान' में उत्तम सलाह दी है कि जो लिखा गया है उसकी बात करो, जो नहीं लिखा गया है उसकी नहीं. रामायण लिखने वाले से पूछेंगे कि महाभारत क्यों नहीं लिखा और महाभारत वाले से रामायण का गिला करेंगे! कोई बात हुई? खैर, मुझे भरोसा है हमज़ातोव की सलाह आपको नहीं जंचेगी.

आशुतोष कुमार: Om Thanvi, जी , हमजातोव की सलाह तो नेक और कीमती है , लेकिन काश ये फर्क रामायण- महाभारत जैसा होता ! यहाँ तो ये है कि कोई रावण की उसकी शिव-भक्ति के लिए डूब कर इतनी सराहना करे कि उनके दूसरे कथित अपराधों की तरफ सुनने वालों का ध्यान ही न जाये ! 'कथित' इसलिए कि कह रहा हूँ कि इस बात को उदाहरण के रूप में ही लिया जाए. रावण के बारे में मेरा मूल्यांकन न समझा जाए )

ओम थानवी: और सुनने वाला यह भी भूल जाए कि शिव भक्ति के पीछे रावण का इरादा असल में था क्या . मुझे नहीं लगता कि यह सब छोड़ कर रावण की शिव भक्ति को भी ठीक ठीक समझा जा सकता है .. (२) Ashutosh Kumar वही समझिए जो समझना चाहते हैं.

अशोक कुमार पांडेय : देखने को सती प्रथा में भी पत्नी का अगाध प्रेम और समर्पण, परंपरा का अप्रश्नेय निर्वाह देखा जा सकता है, बल्कि देखा गया है. नज़र की ज़रुरत को बार-बार यों ही रेखांकित नहीं किया गया है. पंक्तियों के बीच का लिखा पढ़ना अखबारों में चाहे गैरज़रूरी हो, साहित्य में एक बेहद ज़रूरी चीज़ है.

साक्षात्कार पढ़ कर कोई भी अंदाजा लगा सकता है कि सी आई ए के प्रति यह श्रद्धा सिर्फ और सिर्फ कम्युनिज्म विरोध के चलते छलक रही है, और इस श्रद्धा में अमेरिका और सी आई ए के नरसंहारों, तख्तापलटो की ज़रुरत किसे थी? मजेदार बात यह है कि इसे ढंकने के लिए कमलेश की कविताओं का सहारा लिया जा रहा था, उनके 'अच्छे' कवि होने का, जबकि चर्चा में शुरू से आखिर तक किसी ने उनकी कविताओं का ज़िक्र भी नहीं किया, कवि रूप की बात भी नहीं की. लोकतंत्र की दुहाई सिर्फ तब दी जाती है जब कम्युनिस्टों पर निशाना साधना हो.



(इसके बाद गिरिराज किराडू ने यह स्टेट्स लगाया जो ज़ाहिर तौर पर ओम थानवी के उस आभिजात्य पर टिप्पणी थी , जिसमें उन्होंने हिंदी साहित्य में विचारधार की दस दस  थडियां लगाए बैठे असफल साहित्यकारों जैसी भाषा में व्यंग्य किया था )

गिरिराज किराडू की टाइमलाइनः 22 अप्रैल 2013 

मूल पोस्ट: गिरिराज किराडू: “जो किसी सरकार के साहेब हैं या जिनके पास साधन और ताकत है जैसे कि किसी सेठ का अखबार या पत्रिका उनके आगे पीछे घूमने वालों और उनकी खूबियाँ तो जाने दीजिये मूर्खताओं की भी तारीफ़ करने वाले अगर बहुत हैं तो किम् आश्चर्यम? लेकिन याद रहे, "वे हर तरह के इस्टैब्लिशमेंट से अपने लिए जगह ले लेंगे, छीन लेंगे. क्यूंकि वह लड़का/लड़की जो आपका बैग उठा रहा है, आपके लिए शाम का इंतजाम कर रहा है, चार ऐसे 'फैन' साथ जुटा रहा है जो आपको इतनी बार सर सर करेंगे कि आप थोडा और स्थापित हो जायेंगे, जो आपको स्टेशन तक छोड़ के आएगा और आपके सब तरह के संस्मरणों पर भी खूब प्रभावित हो रहा है ऐसा दिखायेगा वह यकीन मानिए आपका उतना सम्मान नहीं करता जितना वह दिखा रहा है -- आप उससे बच के रहिये वह आपकी जगह ही खा जायेगा." 
(संवैधानिक चेतावनीः हिन्दी साहित्य थड़ियों का जनपद है शोरूम वाले, मॉल वाले और उनके कृपाकांक्षी बच के) 


बहस



Prakash K Ray:  Why it is so that the most of the discourses in Hindi is centered around targeting individuals, calling names, giving fatwas, tagging them with adjectives?

Giriraj Kiradoo: I must say you must be exposed more to know what 'most' of the 'discourse' is like. Facebook banters and battles are not all that happens in Hindi.

Ashok Kumar Pandey:  दुष्यंत का शेर सुनिए प्रकाश भाई:
मत कहो आकाश में कुहरा घना है
यह किसी की व्यक्तिगत आलोचना है

Giriraj Kiradoo: And it's a battle like anywhere else: are we going to let the powerful rule the literary space just as we have allowed everything else to be ruled by politicians, bureaucrats, capitalist and their staff?

Prakash K Ray: Giriraj Ji, yes, I share your views, but the bitterness at such a level can be fatal. The arrival of parallel publishers, sharing of thoughts, small events (certainly not Lit Fests) etc. are great steps in asserting the space. Regarding your earlier point, I concede that I may not be aware of Most of the debates, but let me tell you I assert that Hindi writers and journalists complaint too much, and mostly it is against individuals. I consider the activities on social media a serious sample in this regard.
Ashok Bhai, I am reminded of a quote from Cioran that goes like this: Criticism is a misconception: we must read not to understand others but to understand ourselves.

Giriraj Kiradoo: Trust me, Prakashji, there is no bitterness. We are doing what we have been doing. And my friends from English tell me the English circles are perhaps worse.
Read this piece by Akshay Pathak.

Ashok Kumar Pandey:  Prakash K Ray: An English quote is not necessarily better than a Hindi one! I just don't agree with Cioran (by the way, rightist of every language, creed and nation speak similar things in similar tone) and shall always like to call a spade a spade. its not about tagging a label, its dare to tell the truth, when most of the others prefer silence.

गिरिराज किराडू की टाइम लाइनः 27 अप्रैल 2013

मूल पोस्ट: गिरिराज किराडू: मंगलेशजी फेसबुक पर हैं लेकिन उतने सक्रिय नहीं रहते है. कमलेशजी वाले स्टेटस पर उन्होंने देर से, कल, रोमन हिंदी में जो लिखा उसका देवनागरी रूपः 

"कमलेश जी कुल मिलाकर एक रूमानी कवि हैं, जिनकी कविता पर विदेशी कवियों का बहुत साफ़ असर रहा है. उनका प्रारम्भिक दौर काफी अच्छा था उत्तर छायावादी रोमांचक भाषा और विन्यास उन्होंने विकसित किया. एक भाषाई सवर्णात्मकता जो कुछ रोमांचित करती थी. लेकिन परवर्ती कमलेश बेहद निराशाजनक हैं. मार्क्सवाद के बारे में उनका सोच और उनकी समझ दोनों बहुत पिछड़े हुए हैं और शीतयुद्धकालीन हैं, उनका आज के पूंजीवाद और मार्क्सवाद की वैचारिकी में आये बदलावों से कोई दूर का भी रिश्ता नहीं. अब उन्हें कोई महाकवि कहे या महाविचारक, इससे कविता और विचार, दोनों पर आज कोई फर्क नहीं पडता. हाँ कुछ तात्कालिक चर्चा वगैरह तो हो सकती है. या कुछ धुंधलका फ़ैल सकता है, जैसे भगवान सिंह की किताब के बहाने डी डी कोशाम्बी पर उनके बचकाने और अतार्किक प्रहार या कुलदीप कुमार को दिए गए कुंठित ब्राह्मणवादी जवाब से चंद लम्हों के लिए फैली.

पोलिश कवि मिलोष के अशोक वाजपेयी द्वारा संपादित चयन का नाम
'खुला घर' है तो कमलेश जी के संग्रह का नाम 'खुले में आवास' है, और फिर अगला कमज़ोर संग्रह है 'बसाव'. और ये सभी नाम सचमुच के महाकवि पाब्लो नेरुदा के 'रेजीडेन्स आन अर्थ' - रेसिदेंसिया एन ला तियेरा - के फालआउट्स हैं. तो हिंदी में यह सब चलता है तात्कालिक और क्षणिक महानताओं के नाम पर." 

बहस

शिरीष कुमार मौर्य: समास के बाद से ही उनकी कविता से परिचित होने के बावजूद मैं भी पूछना चाहता हूं कि यं कमलेश कौन हैं.... या शायद होते कौन हैं ... किस देशकाल में रहते हैं ..... हमारे देश, हमारी राजनीति, हमारे समाज के बारे में इतना अनर्गल मैंने कभी कुछ नहीं पढ़ा..... हमारे पहाड़ में ऐसे लोगों से कहते हैं ऐल हिटौ....

अशोक कुमार पांडेय : ने भी पढ़ा यहाँ-वहाँ ढूंढ के. और कतई यह अफ़सोस नहीं हुआ की कभी गौर से नहीं पढ़ा था उन्हें. कितने 'वेल रेड' हैं यह तो भगवान् सिंह वाली किताब पर उनकी बहस के दौरान जवाब देने में विफलता से उपजी मिमियाहट से ही पता चल गया था. लगता है आजकल 'एंटी' 'वेल' का पर्याय हो गया है.

शिरीष कुमार मौर्य: अशोक वाजपेयी से वैचारिक मतभिन्‍नता हर पीढ़ी के कवियों को रही है....हमारी भी है, खूब है पर उनके लिए एक सम्‍मान भी है....वे एक प्रतिपक्ष हैं, हमारी जिरह उन तक पहुंचती है....हम उन्‍हें प्रश्‍नांकित करते रह सकते हैं....वे भी 'हिरना समझबूझ बन चरना' को हमेशा ध्‍यान में रखते हैं, गरिमा में बने रहते हैं......पर कमलेश प्रसंग में ही मैं पूछना ये भी चाहता हूं कि ये उदयन वाजपेयी कौन हैं....



अशोक कुमार पांडेय: इसीलिए मैं उन्हें "सम्माननीय प्रतिपक्ष" कहता हूँ. सम्मान करता हूँ.



शिरीष कुमार मौर्य:कमलेश का जिक्र चला तो पिपरिया वासी एक घोर लोहियावादी....लोहिया-साहित्‍य-विद् से पुष्टि की....तुम किस नदी के हो....यह वाक्‍य लोहिया का है....वे अकसर लोगों से पूछ बैठते थे....जैसे मुक्तिबोध पालिटिक्‍स पूछते थे....अब पालिटिक्‍स पीछे छूट गई....नदी आगे आ गई....वैसे मैं क्‍या कहूं.... मैं तो उत्‍तराखंड में एक छोटे पहाड़ी झरने का हूं, जो मौसम के हिसाब से जीता मरता रहता है....मंगलेश जी इस बारे में बेहतर जानते हैं..... कोई रेगिस्‍तान का है....कोई समुद्र का है....क्‍या फर्क पड़ता है..... अशोक कुमार पांडेय  के शब्‍दों में ही कहूं तो हमारे लिए लोहिया भी सम्‍माननीय प्रतिपक्ष ही थे, जिनकी संताने बाद में फासिस्‍टों की गोद में खेलती पलती बढ़ती रहीं हैं.... अब कोई समझाए कि हम समझाएं क्‍या...

गिरिराज किराडू: क्या प्यारे भूल गये उदयन वाजपेयी हिन्दी के 'अप्रतिम कवि' हैं और वह भी 'निराला की परंपरा' के! ये दोनों बयान 'कब' 'किसने' दिये थे यह शोध करने पर और भी रौशन होगी यह बहस. कोई भी भविष्यवक्ता हो जाय सहज सम्भाव्य है को समझने के लिये यह शोध आप भी कर डालिये,Avinash Mishra. (२) वे कुछ को Well-read मानते हैं और कुछ को सिर्फ़ Red वाला चुटकुला चला दिया जाये, अशोक कुमार पांडेय ?

अशोक कुमार पांडेय:भैये. सीधी बात है कि अब वाम होना मलाई खाने के लिए मुफीद कलाबाजी नहीं रह गयी. जब थी तो तमाम लोग जीभ लपलपाते इधर चले आये थे, संगठन वगैरह बना लिया था, कुछ नहीं तो चुप मार के बैठ गए थे. अब 'रहिमन विपदा हूँ भली' के दिन आये हैं तो कोशिशें ज़ारी रहें कि अच्छे दिन फिर आयेंगे. वैसे जब भी आयेंगे, हें-हें करते यही प्रसाद की लाइन में फिर सबसे आगे होंगे.

वीरेन्द्र यादव:इन दिनों जब हिन्दी के एक कवि-बुद्धिजीवी सी आई ए और अमेरिका की सेवाओं के प्रति समूची मानव जाति को ऋणी करार दे रहे हैं तब न्यूयार्क टाईम्स के पत्रकार Mark Mazzetti का यह कहना ध्यान देने योग्य है कि : "The CIA is no longer a traditional espionage service, devoted to stealing the secrets of foreign governments. The CIA has become a killing machine, an organization consumed with man-hunting ".मार्क मज़ेटी ने अपने यह निष्कर्ष अपनी नयी पुस्तक "The way of the knife" में व्यक्त किये हैं . सचमुच यह स्तब्द्ध्कारी है की जब समूची मानवता सी आई ए की मनुष्यविरोधी भूमिका पर क्रुद्ध है तब हिन्दी का एक कवि -बुद्धिजीवी समूची मानव जाति को सी आई ए का ऋणी बता रहा है . सी आई ए और अमेरिका के प्रति इस कवि की प्रतिबद्धता सचमुच अद्वितीय है .मुक्तिबोध ने सही ही यह सवाल पूछा था कि " पार्टनर ,तुम्हारी पालिटिक्स क्या है ?"

(वीरेन्द्र यादव की इस टिप्पणी को अशोक कुमार पांडेय  कुमार पाण्डेय ने स्टेटस बनाया और उस पर चली बहस इसी क्रम में)

अशोक कुमार पांडेय  की टाइम लाइनः  30 अप्रैल 2013

मूल पोस्ट: अशोक कुमार पांडेय : वीरेंद्र यादव की उपरोक्त टिप्पणी

बहस

शिरीष कुमारमौर्य: क्‍यों उन्‍हे बार-बार कवि'बुद्धिजीवी कहा जा रहा है........ मानवजाति को सी आई ए का ऋ़णी बताने वाला मेरे लेखे न कवि हो सकता है, न बुद्धिजीवी....बल्कि ऐसी धारणा रखते हुए वह तो मनुष्‍य भी नहीं हो सकता....खुफिया ऐजेंसिया चाहे जहां की हों अपने कृत्‍यों में मनूष्‍यता से गिरती हैं, उनमें साहित्‍य की भलाई के स्‍त्रोत खोजना विक्षिप्‍तता की निशानी है.....मुझे अपने कठोर शब्‍दों के लिए खेद है पर मामला हत्‍यारी संस्‍थाओं का हो तो ये शब्‍द जरूरी हो जाते हैं.

गिरिराज किराडू: हम सोचते थे सी आई ए को मानव कल्याणकारी मानने की ट्रेनिंग सी आई ए में ही मिलती है. एक जमाने में कुछ हिन्दी लेखकों पर सी आई ए से संबंध का जो आरोप लगता था उसे कमलेशजी के इस बयान के बाद नया बल मिला है.

वीरेन्द्र यादव: यहाँ यह तथ्य ध्यान देने योग्य है कि कमलेश उन जार्ज फर्नांडीज के सचिव थे जिनके बारे में विकीलीक्स ने पिछले दिनों खुलासा किया था की उन्होंने सी आई ए से आपत्काल के दौरान सरकार उखड फेंकने के लिए मदद मांगी थी .

गिरिराज किराडू (स्वतंत्र स्टेट्स में ) : न्यूयार्क टाईम्स का यह लेखकहता है पूरे संसार में खरी खरी कहने वाले लेखकों कलाकरों को शांति भंग करने वालो की तरह देखने, उन पर संदेह करने की नयी प्रवृति पनप रही है. भारत से भी हुसैन प्रसंगादि का जिक्र है. अपना हिन्दी साहित्य कहाँ पीछे, यहाँ कोई कु़छ भी करे आप बस लाईक का बटन दबाते रहिये. और चुप रहिये वर्ना वही 'माहौल ख़राब हो रहा है' यानि अपने लेखन और विचारों को एक बिकाऊ कमोडिटी में बदल देना सत्तावान के आगे पीछे घूमना उसके हर खरे खोटे के साथ होना सब ठीक बस उस पर कुछ कहना गलत, बढिया है! 

(दफ़्तर में ईमानदार कर्मचारी का मज़ाक उड़ाने वाले, यह कहने वाले कि सब चोर हैं कौन होते हैं इसका पता लगाने के लिये किसी फैलोशिप की जरूरत नहीं है, भंते)


ओम थानवी की फेसबुक टाइमलाइनः 1 मई 2013

मूल पोस्ट: ओम थानवी:  आपके विचार मेरे विचारों से नहीं मिलते तो आप जो सोचते हैं, वह कूड़ा है; आप कविता लिखते हैं तो वह चोरी की है; आपकी भाषा खराब है; आप अपने आपको प्रगतिशील या सेकुलर दिखाने का स्वांग करते हैं जबकि अमेरिकी एजेंट हैं; आप कलावादी हैं, जो सांप्रदायिक होता है ...
अपने से अलग मत रखने वाले के प्रति इस तरह का संकीर्ण या अतिवादी रवैया आजकल फिर देखने में आने लगा है. यह एक तरह का निपट जातिवाद है. आप मेरी जाति के नहीं इसलिए आपसे बात नहीं; आपकी बेटी मेरे घर में नहीं आएगी; अगर कोशिश की तो 'ऑनर किलिंग' होगी. साहित्य में होगा चरित्र हनन. आपकी रचना हमारी बिरादरी में नहीं पढ़ी जाएगी, न समझी जाएगी. आप अपनी रचना अपने यहाँ पढ़वाइए. हम अपनी अपने यहाँ पढ़वाएंगे ...
इस सिलसिले में कवि और समाजवादी मजदूर नेता विजयदेवनारायण साही के ये अनमोल विचार मुझे हिंदी साहित्य के जातिवादी दौर में अक्सर याद आते हैं:

"शेली महान् क्रांतिकारी कवि था, इसलिए उसको चाहता हूं; लेकिन उसके नेतृत्व में क्रांतिकारी होना नहीं चाहता. बाबा तुलसीदास महान संत कवि थे, लेकिन वे संसद के चुनाव में खड़े हों तो उन्हें वोट नहीं दूंगा. नीत्शे का 'जरदुस्त्र उवाच' सामाजिक यथार्थ की दृष्टि से जला देने लायक है, पर कविता की दृष्टि से महान् कृतियों में से एक है. उसकी एक प्रति अपने पास रखता हूं और आपसे भी सिफारिश करता हूं."
रचना और विचार में भेद करने का कितना उदात्त और सुलझा हुआ नजरिया है.


बहस 



ओम निश्चल: इसे कहते है: समावेशिता. इसीलिए आज कविता के मर्मज्ञ कम होते गए हैं, विचारों के आधार पर अपनी सरणि अलग कर लेने वालों की खेमेबंदियॉं जितना मजबूत हुई हैं, उतना ही साहित्‍य जनता से दूर हुआ है. आज प्रगतिशीलों में भी एका नहीं है, महत्‍वाकांक्षा ने एक एक घर में चार चूल्‍हे कर दिये हैं. हमने गत शताब्‍दी समारोहों में देखा कि अज्ञेय इस पार्टी के हैं नागार्जुन उस पार्टी के. ऐसी स्‍थिति में साही का उक्‍त मंतव्‍य ग्राह्य है. यही वजह है कि पिछले दिनों बनारस में पीडब्‍लूए के काव्‍यपाठ में जहां नरेश सक्‍सेना और अष्‍टभुजा शुक्‍ल थे, काशीनाथ सिंह भी, चौथीराम यादव भी, एक कवि प्रकट हुए ओर ओजपूर्ण शैली में कहा यहॉं श्रोता कौन है कोई नहीं, हाल में जो बीस पचीस लोग हैं वे सब कवि हैं . एक दूसरे की सुनने नहीं अपनी सुनाने आए हैं. यह विडंबना चाहे सुनने में बुरी लगी हो पर है तो यथार्थ ही. हम इस संकीर्ण घेर को तोड़ कर जब तक भॉंति भॉंति के कवियों को सरस्‍वती के आंगन की शोभा नहीं समझेंगे, अपने से अलग मत रखने वाला कवि-कथाकार-उपन्‍यासकार हमारे लिए हमेंशा त्‍याज्‍य रहेगा. 
यह अस्‍पृश्‍यता वास्‍तव में उसी सामंती सोच का शिकार है, जिसके अहेरी दलित वंचित जनता को अब तक अछूत समझते आए हैं. जब सामाजिक यथार्थ की दृष्‍टि से जला देने लायक रचना होने के बावजूद दर जरथुष्‍ट्र स्‍पोक कविता की लिहाज से संग्रहणीय हो सकती है तो मतभेद के बावजूद हमारे कवि लेखक अपने क्‍यों नहीं हो सकते. यह संकीर्णतावादी अलगाववादी रवैया है जो भारत की सामासिक संस्‍कृति के विपरीत पल्‍लवित और पुष्‍पित हुई है.

अखलाक उस्मानी: लानत भेजिए ऐसे लोगों पर. ओम थानवी को नहीं साबित करना है कि वो किसी मिट्टी के हैं. अपनी कमज़ोरियों और गुनाहों की फ़हरिस्त बनने से डरने वाले पहले ही अपने हाथ आपके कुर्ते पर पोंछकर निकल जाने के जुगाड़ में रहते हैं. सेकुलरवादियों में भी मैंने एक तरह की साम्प्रदायिकता देखी है. आप बेफ़िक्र मस्त रहिए सर. इस गर्मी के मौसम में दिमाग़ तर रखने को कोई शरबती उपाय हो तो बताइये सर. प्यास बहुत लग रही है.

गिरिराज किराडू की टाइम लाइनः 1 मई 2013

मूल पोस्ट: गिरिराज किराडू: अपनी आलोचना करने वाले एक लेख से नाराज हो कर सालों एक सार्वजनिक संस्था का बहिष्कार करने वाले अज्ञेय से क्या सहिष्णुता, औदात्य और खुलापन सीखने पडेंगे? सप्तक में वामपंथी एक मजबूरी थी क्यूंकि 'उत्कृष्ट' लिखने वाले प्रायः वामपंथी थे. उनके प्रशंसकों का संसार कितना विस्तृत है यह इसी से स्पष्ट है कि उनका अधिकांश समय अज्ञेय सुमिरन में ही बीतता है. पर अब अज्ञेय पर सचमुच दया आने लगी है, खुद उन्हें यह ख़राब ही लगता कि एक लेखक की महानता को इतनी कोशिश करके, मरणोपरांत, लगभग रोज, एक पत्रकार को साबित करना पड़ रहा है. जिसे इतना साबित करना करवाना पड़े उसमे कोई तो लोचा होगा ना भंते!

बहस

प्रियंकर पालीवाल: पंडित ! काहे पीछे पड़े हो अज्ञेय जी के और ज्ञेय जी के. बेचारे अपने मिशन में लगे हैं . आपका क्या बिगाड़ रहे हैं . सहमत नहीं हैं तो न होइये पर कम से कम उस हनुमान-भाव का तो सम्मान करिये जो राम के लिए एकनिष्ठ है.

अशोक कुमार पांडेय: ओम थानवी जब भी बहस में नहीं टिक पाते हैं तो सहिष्णुता और लोकतंत्र सिखाने लगते हैं. आज कुलदीप कुमार का बेहद हड़बड़ी में लिखा कमलेश की किताब का एक अखबारी रिव्यू ले आये. 

यह 'सहिष्णुता' वह किसे सिखा रहे हैं? हिंदी में हमेशा से विभिन्न विचारों के लेखकों के बीच संवाद रहा है. विवाद भी रहे हैं. होने भी चाहिए. सर्वसहमति जैसी कोई शाश्वत अवधारणा केवल तानाशाही में संभव है. क्या रघुवीर सहाय, धूमिल, विजयदेव नारायण साही जैसे तमाम गैर वामपंथी कवि वामपंथी आलोचकों द्वारा सेलीब्रेट नहीं किये गए? कौन सी ऐसी साहित्यिक पत्रिका है जिसने सिर्फ वामपंथियों को छापा? इन सब के बीच बहिष्कार भी होते रहे. जब जनसत्ता ने सती प्रथा के समर्थन में छापा तो कई लेखकों ने बहिष्कार किया. कई लेखकों ने भारत भवन का बहिष्कार किया. कुलपति:ज्ञानोदय प्रकरण ज्ञानपीठ तथा हिंदी विवि का बहिष्कार किया गया. इन सबके साथ अज्ञेय द्वारा भारत भवन के बहिष्कार का तथ्य है ही. (जिसकी जड़ में शुद्ध वैयक्तिक कारण थे कि अशोक  जी ने उनकी आलोचना कर दी थी, कुछ ज्यादा ही कड़ी)

किसी भी पढ़े लिखे भिन्न विचार वाले समाज में आलोचना, बहिष्कार, बहस और खेमे बनना तय है. जब लेखक बनने को आतुर एक पत्रकार अज्ञेय पर आयोजनों की झड़ी लगाता है और उनके अलावा किसी पर एक आयोजन नहीं करता तो यह भी एक खेमे का चयन ही है, असहिष्णुता ही है. 

क्या आलोचना असहिष्णुता होती है? सी आई ए को मानवता पर उपकार करने वाला क्या वह सिर्फ किताबें उपलब्ध कराने के लिए मान रहे हैं? और यह कुख्यात गुप्तचर एजेंसी अगर बुक वेंडर का काम कर रही थी तो क्या उसके उद्देश्य नहीं थे? मानवता पर यह एहसान क्या निरपेक्ष था? अगर नहीं तो उसकी प्रसंशा जार्ज फर्नांडीज का यह पूर्व सचिव यों ही नहीं कर रहा. अगर उसका कम्युनिस्ट विरोध इस कुत्सा की हद तक है कि वह मानवता के शत्रु और हत्यारी संस्था की वंदना करे तो उसकी कठोर से कठोर आलोचना करने का हक हमें क्यों नहीं है? उसकी मानवता के प्रति इस असहिष्णुता की तुलना उस व्यक्ति के प्रति हमारी असहिष्णुता से करिए और देखिये कि कौन अधिक घातक है.
कमलेश की कविता पर हमने बात नहीं की थी. मंगलेश जी ने बात की थी और एक वरिष्ठ कवि तथा गंभीर अध्येता (Red भी और Well Read भी) होने के नाते उन्हें किसी पत्रकार या प्रोफ़ेसर के बरक्स कहीं अधिक अधिकार है कि वह किसी कवि को अपनी तरह से मूल्यांकित करें. उनसे सहमत-असहमत होना एक बात है. मैंने जितना कमलेश को पढ़ा है, मैं मंगलेश जी से पूरी तरह सहमत हूँ. अगर कोई सम्पादक सोचता है कि उसने जिसे महान बता दिया उस पर किसी और की आलोचना असहिष्णुता है, तो यह उसकी खुशफहमी है और हमें उसकी खुशफहमियां बनाए रखने की कलाबाजियां करने की कोई मजबूरी नहीं है. जिनकी है, वे गुलाटियां दिखाते रहें.

(ओम थानवी ने अपने एक स्टेट्स में , जिसका अभी इस बहस के बाद ज़िक्र होगा, अशोक कुमार पांडेय  की इस टिप्पणी को हटा लेने का आरोप लगाया. जबकि यह कभी और कहीं से नहीं हटाया गया था. इसमें एडिट भी कुछ किया गया है. क्यों और कैसे, वह थोडा रूककर)

संतोष कुमार पाण्डेय:Giriraj Kiradooआप पाठक की हैसियत से अज्ञेय की डेस्टिनी को कैसा समझते हैं?

गिरिराज किराडू: मुझे उनका लिखा निजी रूप से तो कभी पसंद नहीं आया. अज्ञेय थोड़े पुराने पड़ चुके लेखक हैं, उनके लिखे में अब नये लोगों की दिलचस्पी बहुत मुश्किल है. अब वे एक अपठित महानता की तरफ जा रहे हैं, वैसे ही जैसे कोई स्कूली बच्चा कह देता है शेक्सपियर महान लेखक थे, बिना पढ़े वैसी ही कुछ. वैसे यह स्थिति एक मरहले के बाद के बाद बहुत सारे लेखकों की नियति है, निराला को आज तीस से कम उम्र के कितने लोग पढ़ रहे हैं अपनी प्रेरणा से कहना मुश्किल है.

वीरेन्द्र यादव: ओम थानवी दूसरों को अज्ञेय से सहिष्णुता की जिस सीख का पाठ पढ़ाना चाहते हैं .काश खुद भी उन्होंने उससे कुछ सीखा होता .अज्ञेय के 'शिविर शिष्य 'होने के नाते वे उनके व्यक्तित्व व् कृतित्व को लेकर कभी कोई तार्किक बहस नहीं करते ,उनकी मनमाफिक छवि गढ़ते हैं .इस छवि को तनिक भी धूमिल होते देख वे अपना संतुलन खो देते हैं .वामपंथ उनके लिए वैसा ही है जैसा सांड के लिए लाल कपड़ा .लेकिन दिलचस्प यह है की यदि कोई वामपंथी ज्ञात-अज्ञात कारणों से अज्ञेय के प्रति कोई सकारात्मक टिप्पड़ी कर देता है तो वह उनके लिए QUOTABLE QUOTE हो जाता है .यदि किसी को टैगोर के बाद अज्ञेय ही प्रासंगिक लगते हैं तो यह उनके लिए ब्रेकिंग न्यूज हो जता है लेकिन यदि उनको यह याद दिला दिया जाए कि एक हिन्दी पत्रिका के सर्वेक्षण कि "प्रेमचंद के बाद सबसे बड़ा लेखक कौन ?" के जवाब में यशपाल ,मुक्तिबोध ,रेणु, नागार्जुन ,परसाई आदि के नाम तो लिए गए लेकिन अज्ञेय का नाम किसी ने नहीं लिया तो उनकी बौखलाहट देखी जा सकती है .उन्हें इस बात की शिकायत है की लोग अज्ञेय को अभिजात लेखक क्यों कहते हैं ? आप उन्हें याद दिला दीजिये की अज्ञेय ने तो खुद ही लिखा था कि "मेरी तबियत रईसी है ,लेकिन यह रईसी ब्राह्मण की रईसी है , बनिया की नहीं " तो वे अपना आपा खो देंगें . इस तरह के जाने कितने मुद्दों पर मैंने उन्हें तार्किक जवाब सवाल किये . लेकिन वही हुआ जो वो कर सकते थे .अज्ञेय की उनकी मनमानी छवि खंडित न हो और दूसरों की नजरों में वे अज्ञेय के अंधभक्त न सिद्ध हो जाएँ इसलिए उन्होंने संवाद का सिलसिला समाप्त कर दिया यानि वे अन्फ्रेंड हो गए और पेज को भी ब्लाक कर लिया .जो तर्कों से इतना भयभीत हो वो सहिष्णुता का पाठ पढाये .सचमुच Devil quoting the scriptures..

ओम थानवी की फेसबुक टाइम लाइनः 1 मई 2013
जगदीश्वर चतुर्वेदी, के सच्चिदानंदन, रामजी यादव, प्रकाश के रे 


मूल पोस्ट: ओम थानवी: “कमलेशजी ने इतिहास और सभ्यता की ऊटपटांग व्याख्या करने वाले डा. भगवान सिंह की किताब 'कोशंबी' की 'जनसत्ता' में प्रशंसा की. वरिष्ठ पत्रकार कुलदीप कुमार ने 'द हिंदू' में कमलेश को मार्क्सवादी इतिहासकार की संकीर्ण व्याख्या के लिए कोसा. फिर 'जनसत्ता' में बहस चली. कमलेशजी ने कुलदीप कुमार के कथन को "मार्क्सवादी पैंतरेबाजी" कहा तो कुलदीपजी ने अपने जवाब में कमलेशजी के विवेचन को "ब्राह्मणवादी पैंतरेबाजी" बताया. 

कुलदीप कुमार ने गए रविवार कमलेश के नए कविता संग्रह "बसाव" की समीक्षा 'नेशनल दुनिया' में की है. उसका लिंक देता हूं. कुलदीपजी के हाथ अच्छा मौका था, लेकिन उस कटु संवाद के बावजूद उन्होंने कमलेशजी की कविता की प्रशंसा (वह जितनी भी हो) कर सम्यक दृष्टि की एक मिसाल कायम की है. एक चरम असहिष्णु दौर में. अपनी साम्यवाद-विरोधी प्रचार-सामग्री को ओट देने के लिए अमेरिका और सीआइए ने चालाकी में जो उच्च कोटि का साहित्य भी किसी जमाने में उपलब्ध करवा दिया, उसके लिए पढ़ाकू कमलेशजी ने एक लम्बे इंटरव्यू के बीच अत्यंत कृतज्ञ भाव जाहिर किया था. श्रेष्ठ रूसी साहित्य भी हमें ऐसे भी उपलब्ध हुआ था. बहरहाल, उसके बाद कमलेशजी को "कवि नहीं, बुद्धिजीवी नहीं, मनुष्य भी नहीं" प्रमाण-पत्र दे दिया गया है. मंगलेश डबराल सत्तर के दशक में साप्ताहिक प्रतिपक्ष में थे, तब कमलेश उनके संपादक थे. कमलेश-वध के उन्माद के बीच मंगलेशजी का अचानक उठ खड़े होना भले आश्चर्यजनक घटना हो, कुछ के लिए जैसे वह अतिरिक्त नैतिक बल का संचार साबित हुई है. एक मार्क्सवादी लेखक ने लिखा है कि जैसे करज़ई ने अमेरिका से पैसे लेने की बात स्वीकार की, कमलेशजी को भी स्वीकारनी चाहिए, वे किताबों का बहाना क्यों कर रहे हैं?

ऐसे माहौल में मार्क्सवादी कुलदीप कुमार की यह समीक्षा साहीजी के उस आदर्श की याद दिलाती है, जिसका हवाला मैंने कल दिया था. कुलदीपजी ने कमलेश को प्रचलित मुहावरे या फैशन से हटकर लिखने वाला "अनूठा और उत्कृष्ट" कवि बताया है. मेरी समझ में यह ईमानदारी से की गई समीक्षा है, संतुलन साधने की कवायद नहीं."


ओम थानवी की टाइम लाइन 2मई 2013

मूल पोस्ट: ओम थानवीःकल ही मैंने लिखा था, हाल यह हो गया है कि किसी से असहमत होने पर अब उसे खराब लेखक, अमेरिकी एजेंट, कम्युनल कुछ भी कहा जा सकता है. कल ही मैंने एक अलग और अच्छे उदाहरण के बतौर मार्क्सवादी कुलदीप कुमार की लिखी समीक्षा का जिक्र भी किया था, जो उन्होंने मार्क्सवाद-विरोधी कवि कमलेश के कविता-संग्रह पर नेशनल दुनिया नामक अखबार में लिखी.

इस पर एक नए बड़बोले कथित मार्क्सवादी ने लिखा है कि अज्ञेय जो करते थे अब क्या उससे हम सहिष्णुता, उदारता और खुलापन सीखेंगे? वाह, क्या बचाव है. क्या मैंने कल कहीं अज्ञेय का जिक्र किया था? और अज्ञेय जो करते थे, उसके लिए मेरी क्या जवाबदेही बनती है? अज्ञेय मेरे गुरु थे, बस इसलिए सोच लिया गया कि उन पर हमला करें तो मुझ पर चोट गिरेगी. पर मुझे जवाब देने के लिए अज्ञेय जैसे कृती साहित्यकार पर कीचड़-उछाल? जो स्वयं सहिष्णुता और विनयशीलता के लिए प्रसिद्ध थे! (इसके लिए पढ़ें 'अपने अपने अज्ञेय' में रेणु, केदारनाथ सिंह, जानकीवल्लभ शास्त्री, रघुवीर सहाय, विश्वनाथ त्रिपाठी, विजयमोहन सिंह, गंगाप्रसाद विमल, राजेश जोशी, रामशरण जोशी आदि के अज्ञेय पर लिखे संस्मरण). कहना न होगा कुछ मार्क्सवादियों के लिए अज्ञेय उस लाल कपड़े के समान हैं जिसे देखते ही सांड (हमारे बीकानेर में कहते हैं 'गोधा') बिफर उठता है!

और दूसरी प्रतिक्रिया तो और विचित्र है. ग्वालियर के एक वाचाल मार्क्सवादी कहते हैं कि कुलदीप कुमार से वह समीक्षा (पराए अखबार में!) मैंने कोई 'सौदा' कर लिखवाई है. अपनी ही बिरादरी के एक वरिष्ठ कवि और पत्रकार की लिखी एक नापसंद समीक्षा के लिए उन पर भी कीचड़-उछाल? इतना ही नहीं यह भी लिखा है कि रघुवीर सहाय, धूमिल और साही वामपंथी कवि ही नहीं थे. ये नए-नए फतवे कैसे?

लगता है आजकल के कुछ स्वयंभू मार्क्सवादी अब उनको ही वामपंथी मानते हैं जो किसी कम्युनिस्ट पार्टी के अनुयायी हों. मार्क्सवाद, साम्यवाद, वामपंथ उनके लिए जैसे पर्यायवाची शब्द बन गए हैं. जबकि हम तो अब तक जातिवाद-साम्प्रदायिकता और पीड़ितों-वंचितों की फिक्र करने वाले गाँधी, मार्क्स, अम्बेडकर को ही नहीं, आचार्य नरेन्द्र देव, लोहिया, जयप्रकाश, मधु लिमये आदि को भी वामपंथी ही मानते आए थे, (इसलिए अपने आप को भी!) उनके सबके तरीके जुदा होंगे, लेकिन प्रगतिशील सरोकार तो हरगिज नहीं.

(यहाँ  पहला रिफरेन्स गिरिराज किराड़ू के लिये का और दूसरा अशोक कुमार पांडेय के लिए है. ज़ाहिर है ऐसी चीजों का जवाब कोई क्यों दे? लेकिन इसी बीच उन्होंने आरोप लगाया कि अशोक कुमार पांडेय ने वह कमेन्ट हटा लिया है. इसका जवाब दिया गया)

बहस

कुलदीप कुमारः इस बहस में यह मेरी अंतिम टिप्पणी है. श्री गिरिराज किराडू और श्री अशोक कुमार पाण्डेय की जानकारी के लिए लिख रहा हूँ. साप्ताहिक पत्र 'प्रतिपक्ष' में, जिसके प्रधान संपादक जॉर्ज फर्नांडीस और संपादक कमलेश थे और जिसके संपादकीय विभाग में गिरधर राठी और मंगलेश डबराल थे, कुछ उपन्यासों और संभवतः कुछ कविता संग्रहों की मेरी लिखी समीक्षाएं वर्ष 1973-1975 में प्रकाशित हुई थीं. इसी दौर में सव्यसाची द्वारा संपादित 'उत्तररार्ध' (और बाद में नए नाम से निकली 'उत्तरगाथा') में मेरी कविताएं भी प्रकाशित हुईं. 1976 में नामवर सिंह द्वारा संपादित पत्रिका 'आलोचना' में मेरी कविताएं छपी थीं. उसके बाद 'पहल' के समकालीन कविता विशेषांक, 'साक्षात्कार', 'वाम', 'नवभारत टाइम्स' और 'जनसत्ता' में भी कविताएं प्रकाशित हुईं. फिर भी मैं मानने को तैयार हूँ कि श्री किराडू और श्री पाण्डेय जैसी साहित्यिक समझ मेरी नहीं है और मैंने कविता पर लिखकर अनधिकार चेष्टा की है. नैतिकता के मामले में भी मैं तो खाई में गिरा पड़ा हूँ जबकि वे नैतिकता के माउंट एवरेस्ट पर हैं. खैर, जब उन्हें 'सौदे' का पता ही है, तो सबको यह तो बता दें कि इसकी शर्तें क्या थीं और मुझे क्या हासिल होने वाला है? बहरहाल, मैं अब इस बहस में वापस नहीं आऊँगा. जिसको जो कहना हो कहे, जो मानना हो माने. सभी बंधुओं को नमस्कार.

गिरिराज किराडूःकुलदीपजीः मैंने ना तो 'सौदेबाजी' कहा है ना आपकी समझ पर कोई संदेह व्यक्त किया है। हमारे मित्र अशोक ने एक जगह किया है। उसी रेफरेंस में बहस की पारदर्शिता के लिये आपसे गुजारिश की थी। आपने जवाब दिया इसके लिये आपका बेहद शुक्रिया। आप समीक्षा के क्षेत्र में 38 बरस बाद लौटे हैं, आपका स्वागत है। कविताओं के लिंक के लिये जगदीशजी का शु्क्रिया। आपने कमलेशजी से जो प्रेरक बहस की है इस समीक्षा से ठीक पहले, उसके बाद आपके रचनाकार पक्ष से परिचित होना बहुत अच्छा लगेगा।

अशोक कुमार पांडेय: स्वतन्त्र स्टेट्स

दिल्ली के एक मरणासन्न अखबार के सम्पादक इन दिनों बहुत बेचैन हैं. बेचैनी में जाने क्या-क्या बक रहे हैं. कह गए धूमिल, रघुवीर सहाय आदि को वह वामपंथी मानते हैं! उनका क्या है वह तो खुद को भी 'वामपंथी' मानते हैं! 
यह वामपंथ न तो किसी पार्टी का ग़ुलाम है, न किसी अखबार का. यह कोई सडक किनारे का मंदिर भी नहीं है. कबीर कहते थे न ..खाला का घर नाहीं ..तो जनाब वामपंथी होने का अर्थ है द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद पर विश्वास. अगर हिंदी का इतिहास नहीं जानते तो उसका सार्वजनिक हास्यास्पद प्रदर्शन करने से कौन रोक सकता है? हमारा इतिहास वैचारिक विरोधियों के बीच तीखे मगर सहिष्णु संघर्ष और बहस का रहा है. जिसमें रघुवीर सहाय या धूमिल जैसे घोषित लोहियावादी समाजवादी भी रहे हैं और भैरव प्रसाद गुप्त, रामविलास शर्मा जैसे घोषित वामपंथी भी. 
और हम पर तो आप स्टालिन के भी दोष मढना चाहते हैं, खुद अपने "गुरु" की जिम्मेवारी लेने से भी ऐसी पतली गली ढूँढने की कोशिश! 

और लिखे हुए को हटाना मेरी फितरत नहीं है. जो जहां था वहीँ हैआप न देख पायें तो खता आपकी है हुज़ूर. (इसी से मिलता जुलता कमेन्ट भी ओम थानवी के स्टेट्स पर किया गया)

बटरोहीःओम थानवी जी, कुलदीप कुमार जी और जगदीश्वर चतुर्वेदी जी! मैंने यह बहस आधे से शुरू की थी, इसलिए सन्दर्भ नहीं पकड़ पाया था. अभी पूरी बहस को एक घंटा खर्च करके नए सिरे से पढ़ा. पूरी बहस को पढने के बाद जितने विनीत, जनतांत्रिक और तर्कपूर्ण अशोक कुमार पाण्डेय और गिरिराज किराडू की बातें लगीं, आप लोगों की नहीं. पहले स्पष्ट कर दूं कि मैं व्यक्तिगत रूप से न अशोक पाण्डेय को जानता, न गिरिराज को. विचार और लेखन की बातें शेयर करने के लिए यह जरूरी भी नहीं मानता. थानवी जी को पढ़ते हुए सातवें दशक के धर्मवीर भारती याद आये, जिनके साथ उनके विचारों से विरोधी लेखक का मिल पाना असम्भव था. जगदीश्वर जी का एक सूत्री कार्यक्रम था, अपने मित्र कुलदीप कुमार का कवच बनना. वैचारिक बहस में इस बात से किसी को क्या मतलब है कि फलां मेरा जूनियर था या बढ़िया भाषण देता था. और कुलदीप जी तो सिर्फ अपना स्पष्टीकरण ही देते रह गए. सबसे शर्मनाक बात तो यह है कि बहस के अंत में मानो थानवी जी द्वारा दूध पीने के लिए भेजे गए दो-तीन लठैत अशोक और गिरिराज को ढूंढते हुए अखाड़े में वापस आए मगर यह देखकर निराश हो गए कि वहां समझौता हो गया था. फिर भी वे रणक्षेत्र के कोने में भुनभुना ही रहे हैं.

कुलदीप कुमारः एक बात और....'द हिन्दू' में विगत 1 मार्च से मेरा एक पाक्षिक कॉलम शुरू हुआ है 'हिंदीबेल्ट'। पहले कॉलम में ही मैंने कमलेश की कविताओं की तारीफ की है। जिसे इच्छा हो, पढ़ सकता है। डी डी कोसंबी पर भगवान सिंह की किताब की कमलेश द्वारा की गई समीक्षा 10 मार्च को जनसत्ता में छपी। इस पर 'द हिन्दू' में अपने अगले कॉलम में, जो 15 मार्च को छपा, मैंने कमलेश की समीक्षा और कोसंबी संबंधी विचारों की तीखी आलोचना की। कमलेश से विवाद शुरू होने से काफी पहले, 1 मार्च को अपने 'द हिन्दू' के कॉलम में मैं कमलेश की कविता की तारीफ कर चुका था। वह कौन सा बैलेंस साधने के लिए थी? तब तो मेरा उनसे विवाद शुरू भी नहीं हुआ था।

नोट : कुलदीप कुमार जिस कालम की बात कर रहे हैं, वह यहाँ  पढ़ा जा सकता है.

[दरअसल, अशोक कुमार पांडेय ने मूल पोस्ट पर यह आरोप लगाया था कि कुलदीप कुमार की कमलेश की किताब पर लिखी समीक्षा (जो उनके द्वारा किसी कविता संकलन की अडतीस साल बाद लिखी पहली समीक्षा है) मैनेज की हुई है. इस पर जगदीश्वर चतुर्वेदी जी ने कहा – “अशोक कुमार पांडेय जी, आप समझदार वामपंथी हैं,आप वाम विचारधारा के पक्ष में लगातार लिखते रहे हैं,हम सब आपके लेखन की कद्र करते हैं. कुछ बातें हैं जो कुलदीप कुमार के संदर्भ में जो जाननी जरूरी हैं. वे मेरे वरिष्ठ रहे हैं जेएनयू में और सालों उन्होंने एसएफआई के सदस्य के तौरपर काम किया है. साहित्य के वे बेहतरीन विद्यार्थी रहे हैं और उनकी साहित्यिकमेधा का लोहा छात्रजीवन में नामवर सिंह भी मानते थे.यह ठीक है उन्होंने साहित्य समीक्षाएं कम लिखी हैं.लेकिन इससे कोई फर्क नहीं पड़ता.वे आज भी साहित्य के सवालों पर आपस में जब भी बोलते हैं तो निर्भीकभाव से बोलते हैं. मेरी जानकारी में वे अकेले पत्रकार रहे हैं जिन्होंने पत्रकारिता की लेखकीय पेशेवर निष्ठा को अपने माकपा के साथ कमिटमेंट के सामने भी झुकने नहीं दिया और किसी भी किस्म के दबाब को नहीं माना. संडे ऑब्जर्वर,टेलीग्राफ,हिन्दू,इकोनॉमिक टाइम्स,जनसत्ता,अमरउजाला आदि तमाम दैनिकों में विगत तीन दशक सेलिख रहे हैं. निजीतौर पर हमारे मित्र हैं,हम साथ पढ़ें और करीब से उनको जानते हैं. इस प्रसंग में किसी भी किस्म का सरलीकरण नहीं किया जाना चाहिए. और यह कि “अशोक कुमार पांडेय जी, आपने कमलेशजी की सही जगह आलोचना की है. लेकिन कुलदीप के बारे में मूल्य निर्णय करना सही नहीं है. मैं स्वयं ओम थानवी की अनेक मर्तबा आलोचना कर चुका हूँ. मैं ओम थानवी की साहित्य संबंधी आलोचना को गौण मानता हूँ. वे बुनियादी तौर पर पत्रकार हैं और उसी रूप में उनको देखता हूँ.उनकी भाषा उत्तेजित करने वाली होती है .“ इस पर उनकी सलाह मानते हुए मैंने वह आरोप वापस ले लिया, अब आगे]

गिरिराज किराडू : अफ़सोस के साथ कहना पड़ रहा है ओम थानवी हिंदी में स्वतन्त्र आवाजों के 'वध' में लगे हैं. हर ताकतवर की तरह वे अपनी या अपने आराध्यों की हर आलोचना को 'प्रतिष्ठा' (ऑनर) का प्रश्न बना लेते हैं इसलिए उन्हें वह आलोचना ऑनर-किलिंग लगती है. वे ऑनर किलिंग जैसा संवेदनशील पद इस्तेमाल करने से इसलिए नहीं चूकते क्यूंकि उन्हें इसकी जटिल हिंसक सामाजिकी से कोई मतलब नहीं (आखिर सती समर्थक अखबार में जो हैं). बस हिसाब बराबर हो जाए किसी तरह. उनसे ज़्यादा असहिष्णु कौन होगा जो अपनी आलोचना को 'ऑनर किलिंग' कहे.

(गिरिराज किराड़ू ने इसे स्वतन्त्र स्टेट्स - गिरिराज किराडू की टाइमलाइन 3 मई 2013  भी बनाया, उस पर आयी टिप्पणियाँ संगति के लिये यहीं शामिल)

ओम थानवी: मैंने अपनी आलोचना को 'ऑनर किलिंग' कहा है? वाह! जो चाहें अर्थ निकालें, आपका विवेक है. मैंने पूरे हिंदी साहित्य जगत में होने वाले चरित्र हनन को 'ऑनर किलिंग' से जोड़ा है. उसकी हिंदी में लम्बी 'परंपरा' है. मैं तो साहित्यकार हूँ भी नहीं; पर साहित्य चरित्र हत्या आपको क्या कम 'संवेदनशील' मामला लगता है?
शायद न लगता हो. तभी तो एक पत्रिका के संपादक होकर भी आप किसी समीक्षक को भ्रष्ट (सौदे में लिखने वाला) बताने की तरफदारी ही नहीं कर रहे, उससे उसकी लिखने की योग्यता के प्रमाण मांग रहे हैं. अगर किसी ने पहले कोई समीक्षा न भी लिखी हो तो इसका क्या यह मतलब निकालेंगे कि पहली समीक्षा अनिवार्यतः "सौदेबाजी" में लिखी गई है? सौदेबाजी जैसे संगीन लांछन का प्रमाण पहले आप लोग क्यों नहीं देते? मामला समीक्षा की गुणवत्ता का नहीं था, उन पर (साथ में मुझ पर भी) लगाए गए आरोप का था. पाण्डेयजी मुझे कहते हैं उनका सौदेबाजी वाला कमेन्ट अपनी जगह पर मौजूद है, इसलिए मैं माफी मांग लूँ! क्या सीनाजोरी है! हम माफी मांग लें और आप किसी वरिष्ठ कवि और समीक्षक:पत्रकार और संपादक को एक अदद समीक्षा के भ्रष्टाचार में लिप्त बता कर इतराते रहें. 
और मैं अकिंचन अब वध करने वाला भी. यानी हत्यारा. वध तो बड़ा संवेदनशील शब्द होता होगा जो आपको प्रिय हुआ?


गिरिराज किराडू : इस बहस में 'ऑनर किलिंग' जैसा पद लाने का गैर-जिम्मेवार काम उन्हीं का है जिनकी वाल पर हम बात कर रहे हैं. मैं उन्हें उद्धृत करता हूँ : "आपके विचार मेरे विचारों से नहीं मिलते तो आप जो सोचते हैं, वह कूड़ा है; आप कविता लिखते हैं तो वह चोरी की है; आपकी भाषा खराब है; आप अपने आपको प्रगतिशील या सेकुलर दिखाने का स्वांग करते हैं जबकि अमेरिकी एजेंट हैं; आप कलावादी हैं, जो सांप्रदायिक होता है...

अपने से अलग मत रखने वाले के प्रति इस तरह का संकीर्ण या अतिवादी रवैया आजकल फिर देखने में आने लगा है. यह एक तरह का निपट जातिवाद है. आप मेरी जाति के नहीं इसलिए आपसे बात नहीं; आपकी बेटी मेरे घर में नहीं आएगी; अगर कोशिश की तो 'ऑनर किलिंग' होगी. साहित्य में होगा चरित्र हनन. आपकी रचना हमारी बिरादरी में नहीं पढ़ी जाएगी, न समझी जाएगी. आप अपनी रचना अपने यहाँ पढ़वाइए. हम अपनी अपने यहाँ पढ़वाएंगे .." मेरी बात में इसी स्टेटस का संदर्भ है. और पूरी बहस का संदर्भ यह है कि श्री कमलेश जो वरिष्ठ हिन्दी लेखक हैं उन्होंने एक साक्षात्कार में कहा कि पूरी मानवता को अमेरिकी गुप्तचर एजेंसी सी आई ए का कर्जदार होना चाहिये. ओमजी से बहस इतनी है कि यह मानने वाले और इसके साथ इतिहास से लेकर साहित्य में दक्षिणपंथी, ब्राहम्णवादी रूझान रखने वाले लेखक को 'महान या उत्कृष्ट कवि' मानना हमें ठीक नहीं लगता जो ओमजी को लगता है.

ओम थानवी: मुझे हैरानी है कि विजयमोहन सिंह से लेकर मंगलेश डबराल तक लम्बी और अन्तरंग दोस्ती निभाने वाले कुलदीपजी, जो कल ही भगवान सिंह की किताब पर कोशम्बी के हक़ में कमलेशजी से मोर्चा लिए बैठे थे और मार्क्सवादी समुदाय की प्रशंसा पा रहे थे, अचानक दो कथित मार्क्सवादी युवक उन्हें कमलेश की कविता पर कुछ अच्छा (सारा नहीं) लिखने के लिए अचानक सौदेबाज अर्थात भ्रष्ट बता रहे हैं और ललकार रहे हैं कि बताओ आपकी दूसरी समीक्षा कहाँ है; हमें बताओ, यहीं बताओ और फिर हमसे अपनी रिहाई का प्रमाण-पत्र ले जाओ. साहित्य की दुनिया में कैसे-कैसे लोग सामने आने लगे हैं. हम भाषा की संवेदनशीलता की बात करें तो फतवा देते हैं कि ये भाषा के दरोगा हैं, सम्यक आलोचना का पक्ष लें तो सौदेबाज और षड्यंत्रकारी, साहित्यकारों की चरित्र-हत्या की बात करें तो हमीं हत्यारे. इन्हीं को क्यों इतना कष्ट हो रहा है, यह समझ नहीं पड़ता. क्या सारे मार्क्सवाद का बोझ इन्हीं के सिर पर आ पड़ा है?

जगदीश्वर चतुर्वेदी: गिरिराज जी, हम मन से आपको पढ़ते हैं और अशोक कुमार पांडेय  को भी.पसंद भी करते हैं,लेकिन इस पूरे प्रसंग में आप जान लें कि मैं ओम थानवी जी की बेहद तीखी आलोचना करता रहा हूँ और उनके बाण भी झेलता रहा हूँ,इसके बावजूद मैं उनके साथ कभी आरोप की भाषा में नहीं बोलता, हम यह भी जानते हैं कि कमलेशजी इन दिनों भगवान की उपासना में मगन हैं, लेकिन जब किसी कृति पर बातें हो तो कृति पर ही केन्द्रित हों तो बेहतर होता है. कुलदीप ने अपने तरीके से यह काम किया है. हिन्दी आलोचना की मुश्किल यह है कि वहां कृति पर बातें कम और कृति से इतर चीजों पर बातें ज्यादा होती हैं.


अशोक कुमार पांडेय: Jagadishwar Chaturvedi : आदरणीय साथी, यह बताइये कि कमलेश जी के इस कथन से आप सहमत हैं कि "मानवता को सी आई ए का ऋणी होना चाहिए"?



सारा मामला यह है कि "हमने कमलेश जी नामक कवि के इस कथन की आलोचना की कि "मानवता को सी आई ए का ऋणी होना चाहिए". इस पर जनसत्ता सम्पादक ओम थानवी जी ने कमलेश जी को महान कवि बताते हुए लम्बी बहस की और कहा कि सी आई ए ने किताबें उपलब्ध कराईं इसलिए ऋणी होना चाहिए. फिर मंगलेश जी ने कमलेश जी की कविताओं की आलोचना की तो ओम जी ने हम सबको असहिष्णु वगैरह कहते हुए साही जी को कोट किया. मैंने लिखा कि हिंदी में वाम-गैर वाम के बीच हमेशा से संवाद रहा है. इसी क्रम में उदाहरण दिया कि धूमिल या सहाय बाबू वामपंथी नहीं थे, लेकिन उन्हें वामपंथी आलोचकों ने भरपूर सेलीब्रेट किया. तो अब वह यह वितंडा फैला रहे हैं कि हम 'धूमिल, सहाय जी आदि को वामपंथी न होने का फतवा दे रहे हैं."

जगदीश्वर चतुर्वेदी: अशोक कुमार पांडेय जी, आपने कमलेशजी की सही जगह आलोचना की है. लेकिन कुलदीप के बारे में मूल्य निर्णय करना सही नहीं है. मैं स्वयं ओम थानवी की अनेक मर्तबा आलोचना कर चुका हूँ. मैं ओम थानवी की साहित्य संबंधी आलोचना को गौण मानता हूँ. वे बुनियादी तौर पर पत्रकार हैं और उसी रूप में उनको देखता हूँ.उनकी भाषा उत्तेजित करने वाली होती है .

अशोक कुमार पांडेय: वामपंथ के मसले पर एक सवाल :

यह थानवी जी ने ही कहा है गिरिराज किराडू के एक स्टेट्स पर 

अगर अज्ञेय एंटी-लेफ्ट होते तो चार सप्तकों में सब नॉन-लेफ्ट कवि न भरे होते? दिनमान आदि में प्रगति-पसंद लेखक क्यों जगह पाते?

यानी सप्तकों कुछ 'लेफ्ट' थे कुछ 'नान लेफ्ट'. इसका आधार क्या है? क्या यहाँ जो नान लेफ्ट हैं वे 'राइटिस्ट' हैं? क्या ठीक उसी आधार पर हम रघुवीर सहाय आदि को "नान लेफ्ट", सोशलिस्ट कह रहे हैं ..लेकिन अपनी तानाशाही से उन्होंने बना दिया फार्मूला की जिसे हम लेफ्ट नहीं मानते उसे राईट मानते हैं!

और बकौल Ramji Yadav (कमलेश संबंधी विवाद शुरू करने वाली पोस्ट पर उनका कमेन्ट)

बड़े आश्चर्य की बात है वामपंथ को बुरा-भला कहनेवाले भी अपने जेनुइन कामों को वामपंथी ही समझते हैं . सेकुलरिज़्म ऐसा ही हथियार है . यह आसानी से अपने को सुर्खरू बनाने के काम आ जाता है . लेकिन वामपंथ से भी चमकदार सेकुलरिज़्म कांग्रेस का रहा है . वह दशकों से इसी की सत्ता पाती रही है . क्या इस नाते कांग्रेस को वामपंथ माना जा सकता है ?

मोहन श्रोत्रिय : पिछले दिनों उनके द्वारा शुरू की गई तमाम बहसों में विमति के अस्वीकार का ही नहीं, बल्कि उसके तिरस्कार का स्वर भारी से और अधिक भारी होता चला गया है. मामला चाहे वीरेंद्र यादव का हो या आशुतोष कुमार का, यह वृत्ति एक परिघटना का रूप धारण करती जा रही है. प्रचंड के स्वागत-संबंधी दोनों स्टेटसों में उकसाने-भडकाने की ध्वनियाँ साफ़ थीं. मार्क्सवादियों का उल्लेख जिस तरह होने लगा है, वह स्वस्थ बहस के लिहाज़ से इतना नकारात्मक है कि कुछ भी कहने का कोई अर्थ नहीं रह जाता. जिन्हें उन्होंने अपना विरोधी मान लिया है, उनपर वह जो व्यंग्य करते हैं, वह तत्वतः खुन्नस से उपजा बयान होता है. असहिष्णुता बरत कर सहिष्णुता कैसे पैदा की जा सकती है? फ़ेसबुक को यदि सद्भाव को बढ़ाने वाले मंच के रूप में विकसित करने में हम सहयोग नहीं कर सकते, तो उसे तोड़ने का माध्यम क्यों बनाएं? कोई मन की सी बात करे तो कहा जाए कि "उन्हें समझ आ गई है", अपने आप में बहुत कुछ कह देता है. साहित्य के मसले संख्या-बल से तय नहीं होते, मेरी अल्प समझ तो यह है.



आराधना चतुर्वेदी : मैंने पूरी बहस पढ़ी थी. एक-एक टिप्पणी भी. मुझे लगता है कि बात बहुत सीधे-साधे तरीके से एक रचनाकार के 'राजनीतिक स्टैंड' से शुरू हुयी थी. उनकी रचनाधर्मिता पर बहस बिल्कुल नहीं थी. अगर ये समझा जाता है कि किसी भी रचनाकार की रचनाधर्मिता उसके राजनीतिक स्टैंड से बिल्कुल अलग होती है, तो आप ज़रूर कह सकते हैं कि इससे क्या फर्क पड़ता है कि अमुक कवि का राजनीतिक स्टैंड क्या है, उसकी कविताएँ तो अच्छी होती हैं. 

जिस कवि के राजनीतिक विचारों की आलोचना से बहस शुरू हुयी थी, उनकी रचनाओं को मैंने नहीं पढ़ा और न कविता की इतनी अधिक समझ मुझमें है, लेकिन उनके राजनीतिक विचारों से यह बिल्कुल स्पष्ट हो रहा था कि उन्होंने सी.आई.ए. के पक्ष में एकतरफा बयान जारी किया था और वामपंथ को सिर्फ इसलिए खारिज कर दिया क्योंकि सोवियत संघ में वामपंथ विरोधियों पर कठोर अत्याचार हुए थे. उनका कहना था कि वामपंथ ने अपने विरोधी अनेक साहित्यकारों की रचनाओं को बाहर नहीं आने दिया, जिसे शीतयुद्ध काल में बाहर लाकर सी.आई.ए. ने मानवता का बड़ा उपकार किया.

प्रश्न यही है कि क्या वास्तव में सी.आई.ए. ने ऐसा कोई महान कार्य किया और मान लीजिए कि कुछ साहित्यकारों की रचनाओं को वह सामने लाई, तो क्या बिना किसी स्वार्थ के. सभी लोग सी.आई.ए. के खूनी इतिहास को जानते हैं. और वही क्यों, कोई भी जासूसी की संस्था नैतिक आधारों पर नहीं चलती. उसके लिए "राष्ट्रहित" सर्वोपरि होता है. बातें भले बड़ी-बड़ी करते हों, लेकिन उनका मानवता से कुछ लेना-देना नहीं होता.

बात यहीं से शुरू हुयी थी कि ये माना गया कि कवि महोदय ने किस आधार पर सी.आई.ए. को मानवता के लिए महान कार्य करने वाला घोषित कर दिया? क्या इस आधार पर उनकी आलोचना करना किसी भी तरह की दादागिरी है? क्या ये उन कवि महोदय की साहित्यिक हत्या है? सहिष्णुता का क्या ये मतलब है कि वैचारिक मतभेद हों ही न? 
माना कि ये ज़रूरी नहीं कि कवि को किसी राजनीतिज्ञ की भांति किसी एक विचारधारा का समर्थक होना ही चाहिए, लेकिन क्या रचनाकर्म का सरोकारों से सच में कोई मतलब नहीं

अशोक कुमार पांडेय : मज़ेदार बात यह है कि जब कोई मार्क्सवादी आलोचना करता है तो वह "आनर किलिंग" हो जाती है ...और जब कोई मार्क्सवादी प्रकारांतर से भी कुछ अनुकूल कह देता है तो उसे दस जगह आप्त वचन की तरह चिपकाया जाता है!

वीरेन्द्र यादव : Ashok Kumar Pandey आप ठीक कह रहे हैं .पिछले दिनों इन्ही "शिविर शिष्य "संपादक को फेसबुक की मेरी एक टिप्पणी इतनी भा गयी की उन्होंने अपने अखबार में प्रकाशित अपने एक लेख में उससे सहमति जताई और बोल्ड टाईप में हाईलाईट किया क्योंकि उसमें मैंने कुछ ऐसा आत्मालोचनात्मक भाव अपनाया था जिसका इस्तेमाल वे अपने पक्ष में कर सकते थे. बाद में वही मैं इतना गर्हित की संवाद का सिलसिला ही समाप्त हो गया ...

सतीश चन्द्र सत्यार्थी : ये वाद-पंथ वगैरह का तो नहीं पता पर अभी कुछ दिन पहले मैंने भाषा से जुडी एक बहस में भाषाविज्ञान के विद्यार्थी के नाते बड़े शालीन शब्दों में अपनी असहमति रखी.. और आदरणीय थानवी जी ने पांच मिनट के अन्दर न सिर्फ मेरी टिप्पणी को डिलीट कर दिया बल्कि मुझे ब्लॉक ही कर दिया  इतने विद्वान लोग भी ऐसी असहिष्णुता दिखाएँगे तो बाकी लोगों से क्या उम्मीद की जायेगी..

अशोक कुमार पांडेय: यह सहिष्णुता बेहद सीमित दायरे में है. अगर आप वामपंथी हैं और अज्ञेय स्तुति के यग्य में समिधा देते हैं,तो आप सहिष्णु. अगर आप आलोचना करते हैं, तो असहिष्णु!

वीरेन्द्र यादव : इतना ही नहीं यदि आप उनके द्वारा झाड़ पोछकर बनाई गयी अज्ञेय की मनमाफिक मूरत को अज्ञेय के ही कथन -उद्धरण से प्रश्नांकित करते हैं तो भी आप असहिष्णु .सच तो यह है कि अज्ञेय को स्वयं भी अपने "शिविर शिष्य "द्वारा कल्पित इस "वाम सहिष्णु " छवि पर खीज ही होती क्योंकि वाम और धर्मनिपेक्षता जैसे मूल्यों और विचारों के प्रति उनकी अपनी सुनिश्चित सोच और शंका थी .

गिरिराज किराडू की टाइमलाइन  2 मई 2013

कुलदीप कुमार, ओम निश्चल, सत्यानन्द निरुपम, संतोष कुमार पाण्डेय 


गिरिराज किराडूः मूल पोस्टःलाखों लोगों की हत्याओं का समर्थन करना अगर महान या उत्कृष्ट लेखक समझ लिये जाने को बाधित नहीं करता तो तैयार रहिये एक नये लेखक का 'मूल्यांकन' करने के लिये. यह जनसंहारों का सिर्फ समर्थन नहीं करता, इस पर जनसंहार करने का आरोप है. कल गुजरात यूनिवर्सिटी के पुस्तक मेले में नरेंद्र मोदी की गुजराती कविताएँ रिलीज हुई हैं. तीन और किताबें रिलीज हुई हैं (कुल मिलाकर दसेक किताबें गुजराती, हिंदी, अंग्रेजी में) जो 'विद्वानों' ने सम्पादित की है और उनमें डॉ डी एम भादरेसरिया द्वारा सम्पादित 'वार्तासर्जक नरेंद्र मोदी' भी शामिल है. पुस्तकें, अफसोस के साथ कहना पड़ रहा है खूब बिकीं, बिकेंगी. आयोजन स्थल पर स्टार लेखक के कटआऊट पाये गये थे.
बहस

मोहन श्रोत्रिय : हत्यारा कवि बन जाएगा, और लोग यह कहकर उसे बड़ा कवि घोषित कर देंगे कि एक बुरा आदमी भी बड़ा कवि तो हो ही सकता है. यह नई कसौटियों को लोकप्रिय बनाने का काल है.



ओम थानवी : Mohan Shrotriya मोदी फूटी कौड़ी के कवि नहीं. लेकिन एज़रा पाउंड हत्यारों के समर्थक कवि थे और ज्यां जेने संगीन अपराधी, मगर (पुरानी कसौटियों में भी) दोनों की लेखकीय प्रतिष्ठा में उनके अपराध आड़े नहीं आए. मार्क्सवादी ज्यां पॉल सार्त्र ने तो जेने की रिहाई के लिए मुहिम चलाई, जेने पर किताब (जीवनी) लिखी और उसका नाम रखा -- 'संत जेने'. सो साहित्य की उदात्त कसौटियां अपनी जगह रहेंगी और गुनहगारों के गुनाह अपनी जगह. मोदी कविता में क्या खाकर जगह पाएंगे जो अपने पर कई किताबें लिखवाकर वाजपेयी भी नहीं हथिया सके.

गिरिराज किराडू :एक फासिस्ट को महत्वपूर्ण लेखक कौन और कैसे मानता है, मनवाता है इसे समझे बिना, एजरा पाउंड को एक बड़ा लेखक न मानने की लम्बी अकादमिक और वैचारिक परंपरा को समझे बिना (पाउंड के फासिज्म पर अब तक लगातार अध्ययन हो रहे है और उनके जितना पहले समझा जाता था उससे कहीं ज्यादा संगीन फासिस्ट और रेसिस्ट - एंटी-सेमेटिक, यहूदी-विद्वेषी - होने के प्रमाण सामने आये हैं, उनकी बेटी अभी दो साल पहले यह लड़ाई लड़ रही थी कि पाउंड के नाम से ही एक नवफासीवादी समूह ने अपना नाम रख लिया है) एक नजीर की तरह उनके मामले को उद्धृत करना जानकारी व अध्य्यन की कमी के साथ समझ का भी कुछ पता देता है. ज्यां जने जिनके अपराधों में चोरी, बदलचलनी, हेराफेरी के साथ साथ समलैंगिकता भी शामिल थी को सार्त्र द्वारा कैननाईज (दोनों अर्थों में) करने का मामला पाउंड के मामले से अलग है और दोनों को मिलाना एक गैर-डायलेक्टिकल समझ का ही प्रमाण है . जेल से छुड़ा लिये जाने के बाद जने कभी अपराध की तरफ नहीं गये. डाकू से लेखक बनना स्वीकार्य है अपने यहाँ भी. और पत्रकार से लेखक बनना भी.

मोहन श्रोत्रिय : भारत मे एज़रा पाउंड के समर्थकों की संख्या खुद उनके गढ़ की तुलना में कहीं ज़्यादा है, पर किस वर्ग में? ये वही लोग हैं जो रचना और विचार में फांक के पक्षधर हैं. यहां तो इलियट को भी बीसवीं सदी का सबसे बड़ा कवि मानने वालों की कमी नहीं है. यह अलग बात है कि खुद इलियट के समकालीन बड़े आलोचक उन्हें "major poet among minor poets" कहने में भी कोई संकोच नहीं बरतते थे. उन्नीस सौ तीस के दशक के इंग्लैंड के बौद्धिक-रचनात्मक माहौल पर व्यवस्थित दृष्टिपात जिन्होंने किया है, वे बेहतर जानते हैं. उस पर नज़र डाल लेंगे तो फ़तवेबाज़ी से बचना बेहतर लगने लगेगा. Om Thanvi

ओम थानवी: @Mohan Shrotriya: हमारा फतवा फतवा आपका दास कैपिटल!

मंगलेश डबराल– हिंदी में आलोचना एक लगभग असंभव शब्द है,हालांकि आलोचक बहुतेरे हैं.कमलेश जी के बारे में ऐसा कहा जा रहा है जैसे यही उनका एकमात्र और अनन्तिम संग्रह हो.सवाल यह है कि क्या एक कवि के विकास को देखा जाय या नहीं. एक कवि के जीवन को उसके सबसे नयें संग्रह में विसर्जित कर दिया जाय? हिन्दी में स्मृति-क्षरण एक भयानक दुर्घटना है, जिससे हर कोई आँख या कलम चुरा रहा है. मैंने कमलेश जी के बारे में इसी नज़रिए से कुछ कहा था. एक समय सम्मोहक कविता लिखने वाले कवि अगर इतनी ख़राब कविता- जिसके संकेत कुलदीप ने दिए भी है, कुछ डरते हुए ही सही- लिखने लगे तो क्या यह कहना किसी के वध में शामिल होना है...और आज तो हर कोई वाम है, दक्षिणपंथी भी खुद को वाम कहता है. यह ऐसा ही समय है. so, back to ideology.

मंगलेश डबराल– इन तमाम तथाकथित आलोचकों-समीक्षकों को यह समझना चाहिए कि वे सिर्फ जनसंपर्क का काम कर रहे हैं और हिंदी के एक अनिर्मित बाज़ार की सेवा में उपस्थित हैं. कविता अपने को सबसे बचा लेगी, अगर उसमें कोई सच्चाई हुई तो, वरना वह भी इस स्मृति विहीनता के व्यापक रोग का शिकार हो जायेगी. वह चर्चा में भले ही रहे, स्मृति में नहीं रहेगी.

मंगलेश डबराल– हिंदी में जो तथाकथित आलोचकों का जो आतंक है, या साहित्य को कंट्रोल करने की जो क्षुद्र महात्वाकांक्षा दिखती है, वे भारत और विश्व की किसी और भाषा में नहीं है. हम कवि लोग विश्व की भाषाओं के साथ हैं.

मोहन श्रोत्रिय : मैंने आपसे आग्रह किया कि देखें दुनिया भर में आज, और उनके समकालीनों के बीच एज़रा पाउंड का क्या मूल्यांकन रहा है. आप नहीं देखना चाहते, न देखें. ऐसा तो नहीं ही हो सकता कि वस्तु जगत से कोई वास्ता न रखते हुए जो मूल्यांकन आप प्रस्तुत करें, उसे सारी दुनिया वैध मान ले. जिन चीज़ों का कहीं उल्लेख नहीं होता, वे बहुत नागवार लग जाती हैं आपको, जैसे यहां दास केपिटल का उल्लेख. "फतवे" के अलावा जो कुछ भी कहा है मैंने अपनी टीप में, उस पर ध्यान देने से बात बढ़ सकती थी. पर वैसा होना नहीं था. Om Thanvi

ओम थानवी: एज़रा पाउंड ने मुसोलिनी के फासीवाद का खुला समर्थन किया था, हिटलर के भी समर्थक थे. ये तथ्य तो अपनी जगह ऐसे ही रहेंगे. फिर भी उनकी कविता अच्छी मानी जाती है. मेरा निवेदन बस इतना सर.

मंगलेश डबराल: एजरा पाउंड ने करीब ७० वर्ष पहले मुसोलिनी के रेडिओ से प्रसारण किये थे. क्या हम इतिहास के अँधेरे से कुछ नहीं सीख पाए, जो आज मानवता के शत्रुओं के “ऋणी’ हो रहे हैं ? पाउंड के कुकृत्य के कारण भी परिचित हैं - एक, अर्थशास्त्री डगलस के विचारों का प्रभाव जो सूदखोरी और वित्तीय पूँजी को अपराध की जड़ मानता था. पाउंड बैंक्स के विरोधी थे और मानते थे कि इंग्लैण्ड की डेमोक्रेसी बैंक और सूदखोरी पर प्रभुत्व रखने वाले ज्यूज के हाथ में है. लेकिन क्या हम भूल जाते हैं कि पाउंड के 'anti-antisemitism' का कितना तीखा, उग्र विरोध हुआ, पाउंड खुद पागल होकर जेल, हास्पीटल में वर्षों तक रहे और अंत में भयानक पश्चाताप में गले. उनके कुछ जाने-माने वाक्य हैं --'i was stupid, suburban anti-semaiic,.. i spoiled everything i touched.. i've always blundered..i was not a lunatic, but a moron." इस विलाप को देखते हुए पाउंड के काम को आज के किसी वक्तव्य को उचित ठहराने के लिए कैसे इस्तेमाल किया जा सकता है? जब पाउंड जैसी प्रतिभा की निंदा हुई तो कमलेश जी की थोड़ी सी आलोचना उनका वध करार दी जायेगी? किस तर्क से?we have let people like modi and others to make a room for their hatred and monstrous presence in the society, without any checks.

मंगलेश डबराल : history repeats itself. first time as a tragedy, second time as a farce(marx). .we live in second time.!

K. Satchidanandan: Hitler was a painter too. Brecht used to call him 'the house painter'.Several Gujarati writers are vocal or silent supporters of Modi. Immediately after the genocide, I went there with Mahaswetadevi. We asked the writers to resist. The response was one of fear or collusion. Some were busy writing poems for eternity. What a shame!

गिरिराज किराडू की टाइमलाइन 4 मई 2013

गिरिराज किराडूः मूल पोस्टः और भी गहरे अफ़सोस के साथ कहना पड़ रहा है ओम थानवी अपने स्टैंड की आलोचना करने वाले अपने से आधी उम्र के लोगों का चरित्र हनन कर रहे हैं, उन्हें हत्यारे और ऑनर किलर बता रहे हैं. और जिनके चरित्र का वे बचाव कर रहे हैं उनके और इन युवा लोगों के चरित्र का साधारण परीक्षोपयोगी तुलनात्मक अध्ययन भी कर लेते तो पत्रकार महोदय इस शर्मनाक प्रकरण से बच जाते. मेरे पास वेतनभोगी सहायक नहीं फेसबुक पर आत्मप्रचार और दूसरों का चरित्र हनन करने के लिए, छुट्टी लेकर बेटे की तीमारदारी कर रहा हूँ. पर आप के जैसे लोगों से हिंदी का चरित्र हम बचा के रहेंगे. 
(आक्यूपाई हिंदी पट्टी, जोर से लगे यह नारा भंते)

सत्यानंद निरुपमःकभी-कभी किसी रचनाकार के कुकृत्यों पर उसकी किसी रचना का सुविचार भारी जरुर पड़ जाता है, लेकिन यह सामान्य बात नहीं है. बड़ी रचना बड़े जीवन और व्यापक जीवन-दृष्टि से ही संभव मानी गई है. वाल्मीकि ने रामायण लिख दिया, इसलिए लोग यह नहीं कहते कि वाल्मीकि मुनि ने कभी कोई चोरी नहीं की, बल्कि यही कहा जाता है कि पहले वे चोर थे, फिर मुनि और कवि बने. कमलेश जी के कवि-व्यक्तित्व की आलोचना उनकी कविता के आधार पर ही हो, यह मांग वाजिब है, लेकिन वो मानवता को सीआईए का ऋणी होने के लिए कहें और कोई उनकी इस बात के लिए आलोचना न करे, यह मांग ज्यादती है.

(इस बिंदुके बाद ओम थानवी समूचे प्रसंग को कमलेश, कुलदीप कुमार और स्वयं का ‘चरित्र हनन’ करने का प्रयास बताते रहे जिसमें बौद्धिक बहस के लिये कोई गुंजाईश नहीं थे लेकिन हिन्दी कथाकार प्रभात रंजन द्वारा अपनी टाइमलाइन पर निजी जानकारियों के आधार पर कमलेश के ‘चरित्र का वर्णन’ किये जाने के बावजूद ओम थानवी ‘रचना’ और ‘जीवन’/’विचार’ के बीच भेद की अपनी जिद पर अड़े रहे.)

प्रभात रंजन की टाइमलाइन 4 मई 2013

प्रभात रंजनः मूल पोस्टःकवि कमलेश को मैं तब से जानता हूँ जब वे जॉर्ज फर्नांडीज के लिए काम करते थे. मैं दिल्ली में अपने स्थानीय अभिभावक हरिकिशोर सिंह(पूर्व विदेश मंत्री) के दरबार में उनको अक्सर देखा करता था. मुझे बहुत बाद में पता चला कि वे हिंदी के कवि भी हैं. कुछ लोगों की छवियाँ जरुरत से ज्यादा धवल बना दी जाती हैं. आदरणीय संपादक जी, आप जिस कवि कमलेश का चरित्र बचाना चाहते हैं पहले उसके चरित्र को तो जान लें.

बहस

दीपचंद साँखलाःनिहायत व्यक्तिगत ना हो तो खोल दिया जाना चाहिए, क्यों कि देखा गया है कि सामान्य मानवीय कमजोरियां सभी में होती है, उनमे भी जो कर्ता के भाव से वाकिफ होते हैं..

प्रभात रंजनःकमलेश शुक्ल एक साधारण कवि हैं. कान्यकुब्ज ब्राह्मणों का एक गुट अशोक वाजपेयी के नेतृत्व में उनको असाधारण बताने पर तुला हुआ है. मेरा सवाल है कि अगर वे इतने ही असाधारण कवि हैं तो अब तक उनके ऊपर किसी का ध्यान क्यों नहीं गया. व्यक्ति और कवि को अलग करके देखा जाना चाहिए, फिर तो आनंद मोहन की कविताओं पर भी चर्चा होनी चाहिए. क्या हुआ अगर वह हत्या के आरोप में सजायाफ्ता है. कमलेश एक जमाने में नेताओं के भ्रष्ट पैसों को ठिकाने लगाया करते थे. बड़े-बड़े डील करवाया करते थे. तो क्या हुआ वे विद्वान् हैं. अशोक जी की तो ऐसे लोगों से पुरानी सांठ-गाँठ रही है, लेकिन उसको लेकर अपने प्रिय संपादक की निर्लज्जता से मैं हतप्रभ हूँ. मुझे लगता है कमलेश ने उनको भी अपने सम्प्रदाय में दीक्षित कर लिया है. असल में कमलेश जी विश्वनाथ प्रसाद तिवारी के बेहद निकट हैं. कहीं ये साहित्य अकादेमी पुरस्कार के लिए गठजोड़ तो नहीं है?

ओम थानवीः प्रभातजी, मैंने कहाँ कमलेशजी के चरित्र पर बात की है, जरा बताएँगे? मैंने अनेक उदहारण (एज़रा पाउंड, ज्यां जेने) देकर यही कहना चाहा है कि किसी का चरित्र या विचार पतित हों फिर भी वह बेहतर रचनाकार हो सकता है, साहित्य में एक कवि की कविता पर बात होनी चाहिए क्योकि कमलेशजी कोई विचारक नहीं हैं. कमलेशजी को निजी तौर पर ज्यादा नहीं जानता, कभी उनके यहाँ गया भी नहीं. चरित्र के बारे में न जानकारी है, न कभी पता करने की कोशिश की. पर पता हो भी तो उसमें और रचना में भेद करूंगा. ऐसे कई कई भेद Prakash K Ray भी प्रसिद्द उदाहरणों से बता चुके हैं. नीचे आपकी सुविधा के लिए मेरे वे कथन मौजूद हैं. हो सकता है कमलेशजी की कविता बुरी हो, मेरी पसंद भी बुरी हो सकती है. लेकिन चरित्र की बात आप मेरे हवाले से कहाँ से ले आए

प्रभात रंजनःसर ये भी आपका ही वक्तव्य है- "कमलेशजी के खिलाफ जो अभियान चल रहा है वह चरित्र-हनन की श्रेणी में ही आएगा. और मेरे सन्दर्भ में सती काण्ड को याद करना? और कुलदीप कुमार पर (और साथ में मुझ पर भी) सौदा कर कमलेशजी की तारीफ का आरोप, जो इतनी लम्बी बहस के बाद वापस लिया गया? ... छोड़िए." मित्र Satyanand Nirupam जी की वाल पर. आप जिसके 'चरित्र हनन' की बात कह रहे हैं उस महापुरुष के चरित्र को आप जानते हैं क्या? अगर वह इतने ही महान कवि होते तो तो ४०-४५ सालों में कविता में उनका वैसा कद क्यों नहीं बना, जैसा कि 'समास' के उस अंक में उनको बताया गया है. तमाम विरोधों के बावजूद अज्ञेय जी का अपने जीते जी साहित्य में शीर्ष व्यक्तित्व बना या निर्मल जी का?

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पूरी बहस की पी डी ऍफ़ यहाँ से डाउनलोडकी जा सकती है.


1857 और भारतीय मुसलमान

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यह लेख अभी नेशनल बुक ट्रस्ट से आये शांतिमय रे की किताब के मेरे अनुवाद का हिस्सा है. 10 मई को हमने इस महान भारतीय विप्लव की वर्षगाँठ मनाई है. यह उसी महान परम्परा की याद में 





1857 का महान विद्रोह जो मेरठ में 10 मई को सिपाही विद्रोह के रूप में शुरू हुआ था, वह एक महान ऐतिहासिक महत्व की घटना है. हालांकि, जहाँ तक भारतीय मुसलमानों के संदर्भ का सवाल है यह अलग से विवेचना की मांग करता है, यहाँ यह जिक्र करना ज़रूरी है कि यह तथाकथित बलवा उस समय के कुछ अपदस्थ देशी भारतीय शासकों के प्रेरणादायी नेतृत्व में जल्द ही भारतीय जन के एक शक्तिशाली विद्रोह में तब्दील हो गया और कई जगहों पर स्थानीय नेतृत्व निरपवाद रूप से वहाबियों के बीच से आया[1]
ब्रिटिश शासन की पारम्परिक मुखालिफत की पराकाष्ठा 1857 के विद्रोह के रूप में सामने आई जिसमें लाखों किसानों, शिल्पकारों और सैनिकों ने भाग लिया. 1857 का विद्रोह अंग्रेजी शासन की जड़ों को हिला देने वाला था
वर्तमान उत्तर प्रदेश, बिहार, हरियाणा, दिल्ली, राजस्थान और मध्यप्रदेह जैसे इलाकों और साथ में पंजाब, गुजरात, महाराष्ट्र तथा पूर्वी भारत के हिस्सों के भी लोगों का वह महान शक्तिशाली उभार था.[2]  ब्रिटिश सेना से सीधी लड़ाई में हजारों देशभक्तों ने अपने प्राण गंवाए. मुकदमों के बाद या फिर बिना मुकदमें के ही लगभग 10000 लोग फांसी के फंदों पर चढ़ा दिए गए या तोपों के मुंह से बांधकर उड़ा दिए गए. उनमें से बड़ी संख्या मुस्लिम समुदाय से आती थी नवाबों से लेकर किसानों तक ; स्वाभाविक रूप से उन्हें भी अपने हिन्दू बंधु-बांधवों के साथ-साथ उत्पीड़न झेलना पड़ा.
इसलिए, यह गुलामी के खिलाफ लगभग एक राष्ट्रीय विद्रोह था, जैसा कि उन परिस्थितियों में हो सकता था[3]  पारम्परिक इतिहासकार नाना साहब, तात्या टोपे, झांसी की रानी लक्ष्मीबाई और कुंअर सिंह का नाम वीर योद्धाओं के रूप में लेते हैं. जाहिर तौर पर उन्हें भुलाया नहीं जा सकता. मंगल पांडे को, जिन्होंने बंगाल में विद्रोह का झंडा उठाया था, उन्हें भी याद किया जाता है. लेकिन बहुत कम लोग फैजाबाद के शहरकाजी मौलवी अहमदुल्लाह को याद करते हैं जिन्होंने 1857 में ब्रिटिश शासन के खिलाफ विद्रोह संगठित करने में प्रमुख भूमिका निभाई. उनके नेतृत्व में क्रांतिकारी सेनाओं ने अंग्रेजों को इतना गहरा नुक्सान पहुँचाया कि उन्होंने उनके ज़िंदा या मुर्दा पकडवाने पर 50,000 रुपये का ईनाम घोषित कर दिया. पंवई के राजा ने एक बड़ी धनराशि के लिए उन्हें धोखा दिया. उन्हें मार दिया गया और उनका सर काट के राजा ने अपने अँगरेज़ मालिक के पास भिजवा दिया.
एक और महत्वपूर्ण व्यक्तित्व महान राजनीतिज्ञ अजीमुल्लाह खान थे जिन्होंने 1834 में कानपुर के नाना साहब के लिए वकील की भूमिका निभाई. भारत में लौटने के बाद पश्चिमी राजनीति के पाने ज्ञान के साथ उन्होंने भारतीयों के बीच ब्रिटिश-विरोधी भावनाओं का प्रचार किया और 1857 के महान विद्रोह में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई. वह नाना साहेब के साथ नेपाल के जंगलों में भाग गए लेकिन 1859 में भयावह अभावों में बीच मौत के शिकार हुए.
रानी लक्ष्मीबाई का साहस हिन्दुस्तान भर में घर-घर में जाना जाने लगा वैसा ही अवध के अपदस्थ शासक वाजिद अली शाह की पत्नी बेगम हजरत महल का भी होना चाहिए था. रानी लक्ष्मीबाई जैसी ही परिस्थिति में वह 1857 में ब्रिटिश शासन के खिलाफ विद्रोह में उठ खड़ी हुईं और बहुत जल्दी फौजाबाद के मौलवी अहमदुल्लाह, तात्या टोपे और नाना साहब के साथ प्रमुख नेताओं में शामिल हो गयीं. शासक (रीजेंट) के रूप में वास्तविक सत्ता हासिल करने के बाद वह क्रांतिकारी फौजों को संगठित करने में सर्वाधिक सक्रिय थीं. उन्होंने महारानी विक्टोरिया की घोषणा के जवाब में राजकुमारों और बहुसंख्यक समुदाय के सम्मान और अधिकार की रक्षा के बाबत जवाबी घोषणा जारी की. उन्होंने न्यायालय चलाया और नाना साहब और अहमदुल्लाह के साथ अपनी रणनीति के संयोजन द्वारा उन्नीसवीं सदी के सामंती ढाँचे की सीमाओं के भीतर युद्ध के प्रयासों को सघन किया.
उन्होंने बेहतर शक्ति-संपन्न ब्रिटिश सेना के खिलाफ लखनऊ की रक्षा के महान युद्ध में व्यक्तिगत रूप से हिस्सेदारी की. पराजय के बाद वह लखनऊ से भाग गयीं और फैजाबाद के अहमदुल्लाह की सेना के साथ मिल गयीं और शाहजहांपुर की लड़ाई में शामिल रहीं. चारों तरफ से ब्रिटिश सेना से घिर जाने के बाद उन्होंने नेपाल की तराई की तरफ पलायन का हिम्मत भरा कदम उठाया जहाँ नाना साहब की बची-खुची क्रांतिकारी सेना पुनर्गठित होने की प्रतीक्षा कर रही थी. कठोर कष्टों और परेशानियों से जूझते हुए उन्होंने शायद नेपाल के पहाड़ी क्षेत्र में अपनी अंतिम साँसें लीं. उनकी स्मृति आज भी गीतों और लोकगीतों के माध्यम से पूरे उत्तर-प्रदेश में बूढ़े और जवान सभी लोगों में जीवित है और वह आज भी भारतीय स्वाधीनता आंदोलन के महान शहीदों में से एक की तरह मानी जाती हैं.      


[1]देखें,श्री त्रैलोक्य चक्रवर्ती का 1 जुलाई,1969 को लिया गया साक्षात्कार 
[2]देखें, फ्रीडम स्ट्रगल इन इंडिया, त्रिपाठी, बरुण डे और विपन चंद्रा
[3]देखें, वही 

अलविदा असग़र साहब!

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कारवां दुनिया और इंसानियत के वजूद, पहचान और बेहतरी के वास्ते जब तलक चलता रहेगा, तब तक मौत का कोई फरिश्ता उन्हें छू भी नहीं सकता!

  • पलाश विश्वास


प्रख्यात मुस्लिम विद्वान, प्रतिशील चिंतक, लेखक और दाऊदी बोहरा समुदाय के सुधारवादी नेता असगर अली इंजीनियर का लम्बी बीमारी के बाद यहां मंगलवार को निधन हो गया!

मुंबई के सांताक्रुज रेलवे स्टेशन के एकदम नजदीक न्यू सिल्वर स्टार के छठीं मंजिल पर स्थित सेंटर आफ स्टडी आफ सोसाइटी एंड सेकुलरिज्म के दफ्तर में अब उनके बेटे इरफान इंजीनियर और तमाम साथियों के लिए सबकुछ कितना सूना सूना लग रहा होगा, यह कोई कल्पना करने की बात नहीं है, वहीं सूनापन, वहीं सन्नाटा हम सबके, इस देश के सभी धर्मनिरपेक्ष लोकतांत्रिक नागरिकों के दिलोदिमाग में छोड़ कर यकायक चल बसे हमारे सहयोद्धा, हमारे सिपाहसालार असगर अली इंजीनियर!


आजीवन अपने विचारों और सक्रियता से वे दुनियाव्यापी एक विशाल कारवां पीछे छोड़ गये हैं, जिसमे हमारे जैसे तमाम लोग हैं और हमारे पास उसी कारवां के साथ चले चलने के सिवाय कोई दूसरा रास्ता नहीं है। कल ही उनका अंतिम संस्कार हो जाना है, जैसा कि परिजनों ने बताया लेकिन उनके बनाये हुए कारवां में उनके साथ संवाद का सिलसिला शायद कभी खत्म नहीं होगा और यह कारवां दुनिया और इंसानियत के वजूद, पहचान और बेहतरी के वास्ते जब तलक चलता रहेगा, तब तक मौत का कोई फरिश्ता उन्हें छू भी नहीं सकता। यकीनन यह हम पर है कि हम उन्हें कब तक अपने बीच जिंदा और सक्रिय रख पाते हैं! यह देशभर के लोकतांत्रिक औऱ धर्मनिरपेक्ष लोगों के लिए चुनौती है और शायद उनके लिए भी जो अपने को गांधी का अनुयायी कहते हैं।जिस गांधीवाद का अभ्यास इंजीनियर साहब करते थे , वह सत्ता हासिल करने वाला गांधीवाद नहीं है, दुनिया को गांव देहात और आम आदमी की सहजता सरलता से देखने का गांधीवाद है। 

इंजीनियर साहब न मौलवी थे न कोई मुल्ला और न ही उलेमा। पर इस्लामी मामलों में अरब देशों में भी उनकी साख बनी हुई थी। उन्होने साम्य, सामाजिक यथार्थ और इंसानियत के जब्जे से लबालब एक वैश्विक मजहब, जिसका आधार ही भाईचारा और जम्हूरियत में है, कट्टरपंथ में नहीं, समझने और आजमाने की नयी दृष्टि, नया फिलसफा देकर हमें उनका मुरीद बना दिया।गांधी ने यह प्रयोग बेशक किया कि धर्म से देश जोड़ने का काम करते रहे वे तजिंदगी और उनके जीते जी धर्म के ही कारण देश टुकड़ों में बंट भी गया। लेकिन फिरभी उनके पक्के अनुयायी हमें बताते रहे कि मजहब को फिरकापरस्ती के खिलाफ मजबूत हथियार कैसे बनाया जा सकता है।

मुझे बहुत संतोष है कि मुंबई में असगर साहब और राम पुनियानी जी की छत्रछाया में मेरे बेटे एक्सकैलिबर स्टीवेंस को काम करने का मौका मिला। सेक्युलर प्रेसपेक्टिव दशकों से हम लोगों के पाठ्य में अनिवार्यता बनी हुई थी। इस बुलेटिन में जो जबर्दस्त युगलबंदी असगर साहब और पुनियानी जी की हो रही थी, उसकी झलक हमारे सोशल माडिया के ब्लागों में इधर चमकने ही लगी थी , बल्कि धूम मचाने लगी थी कि असगर साहब चले गये।पहले तो हम अंग्रेजी में ही उन्हे पढ़ पाते थे, लेकिन इन ब्लागों के जरिये हरदोनिया साहब के अनुवाद मार्फत हमें असगर साहब और पुनियानी जी दोनों को पढ़ने को मिलता रहा है। हाल में पुनियानी जी से इस लेखन के दक्षिण भारतीय भाषाओं में प्रसार पर भी बात हुई, ऐसा कुछ किया जाता कि असगर साहब चले गये।

इसी बीच संघ पिरवार के राम मंदिर आंदोलन फिर शुरु करने और बांग्लादेश में लोकतांत्रिक धर्मनिरपेक्षक्ष आंदोलन के सिलसिले में कई दफा इरफान साहब और पुनियानी जी से बातें हुई और उनके मार्फत हमने असगर साहब से एक अविराम अभियान भारत में धर्मनिरपेक्ष संयुक्त मोर्चा बनाने के लिए छेड़ने का आग्रह करते रहे। पर आज जब असगर साहब के निधन की खबर मिली तो इराफान को तुरंत फोन मिलाया , वे घर में थे पर फोन पर बात करने की हालत में नहीं थे। परिवार की एक महिला ने बताया कि असगर साहब तो महीनों से बीमार चल रहे थे। इससे बड़े अफसोस की बात नहीं हो सकती। हम मार्च में ही मुंबई के दादर इलाके में हफ्तेभर थे और बहुत नजदीक सांताक्रुज में अपने घर में हमारे बेहद अजीज असगर साहब बीमार पडे थे। हम हाल पूछने भी न जा सकें।इससे ज्यादा अफसोस क्या हो सकता है?

पिछले दशकों में ऐसा ही होता रहा है। अपनी सेहत, परेशानियों और निजी जिंदगी को उन्होंने अपने सामाजिक जीवन में से बेरहमी से काटकर अलग फेंका हुआ था।वे पेशे से इंजीनियर थे और मुंबई महापालिका में काम करते थे।जहां से वे रिटायर हुए। जहां ऐसी भारी समस्याओं से रोजना वास्ता पड़ता था कि कोई मामूली शख्स होते तो उसी में मर खप गये होते हमारे इंजीनियर। पर वे अपने कार्यस्थल पर तमाम दिक्कतों से जूझते रहे और कभी अपने सामाजिक कार्यकलाप में उसकी छाया तक नहीं पड़ने दी। यह उनकी शख्सियत की सबसे बड़ी खूबी थी। अपने रचनाकर्म के प्रति तठस्थ किसी क्लासिक कलाकार की तरह।

छात्रजीवन से उत्तराखंड संघर्ष वाहिनी से जुड़े होने के कारण सत्तर के दशक से लगातार अविच्छिन्न और अंतरंग संबंध रहा है असगर साहब केसाथ। हिमालय और पूर्वोत्तर भारत, आदिवासीबहुल मध्य भारत के प्रति नस्ली भेदभाव से वे वाकिफ थे। वे पक्के गांधीवादी थे और गांधीवादी तरीके से देश और दुनिया को देखते थे। गांधीवाद के रास्ते ही वे समस्याओं का समाधान सोचते थे। लेकिन सत्तर के दशक के ज्यादातर सामाजिक कार्यकर्ता जो उनसे आजतक जुड़े हुए हैं, ज्यादातर वामपंथी से लेकर माओवादी तक रहे हैं। वे उत्तराखंड आदोलन, झारखंड आंदोलन और छत्तीसगढ़ आंदोलन से हम सबकी तरह जुड़े हुए थे और पर्यावरण आंदोलन के संरक्षक भी थे। हिमालय से उनका आंतरिक लगाव था। पूर्वोत्तर में सशस्त्र सैन्य बल अधिनियम के खिलाफ निरंतर जारी संगर्ष के साथ भी थे वे। वे महज विचारक नहीं थे। विचार और सामाजिक यथार्थ के समन्वय के सच्चे इंजीनियर थे।

हमने सीमांत गाधी को नहीं देखा। पर हमने एक मुसलमान गांधी को अपने बीच देखा . यह हमारी खुशकिस्मत है। खास बात यह है कि गांधीवादी होने के बावजूद जो हिंदुत्व गांधीवादी विचारधारा का आधार है, उसके उग्रतम स्वरुप हिंदू राष्ट्र, हिंदू साम्राज्यवाद और हिंदुत्व राजनीति के खिलाफ उलके विचार सबसे प्रासंगिक हैं।

इस लिहाज से सांप्रदायिक कठघरे से गांधीवाद को मुक्ति दिलाने का काम भी वे कर रहे थे। लेकिन गांधीवादियों ने शायद अभी इसका कोई मूल्यांकन ही नहीं किया।शायद अब करें!

जिस गांधीवाद की राह पर असगर साहब और उनके साथी चलते रहे हैं, वह बहुसंख्य बहुजनों के बहिस्कार के विरुद्ध सामाजिक आंदोलन का यथार्थ है। 

गांधीवाद के घनघोर विरोधियों के भी असगर साहब के साथ चचलने में कभी कोई खास दिक्कत नहीं हुी होगी। हम जब पहली बार मेरठ में मलियाना नरसंहार के खिलाफ पदयात्रा के दौरान मुखातिब हुए, तब उनके साथ शंकर गुहा नियोगी और शमशेर सिंह से लेकर इंडियन पीपुल्स फ्रंट के तमाम नेता कार्यकर्ता, मशहूर फिल्म अभिनेत्री शबाना आजमी समेत तमाम लोग थे, जो गांधीवादी नहीं थे।

हमारा भी गांधीवाद से कोई वास्ता नहीं रहा है और न रहने की कोई संभावना है। असगर साहब यह भली भांति जानते थे। पर लोकतांत्रिक धर्मनिरपेक्ष मोर्चा बनाने में वे किसी भी बिंदु पर कट्टर नहीं थे।

आज जो ढाका में शहबाग आंदोलन के सिलसिले में लोकतांत्रिक ताकतों को जो इंद्रधनुषी संयुक्त मोर्चा कट्टरपंथी जमायत और हिफाजत धर्मोन्मादियों के जिहाद से लोहा ले रहे हैं, उसे असगर साहब के विचारों का सही प्रतिफलन बताया जा सकता है।

हम नहीं जानते कि हम अपने यहां ऐसा नजारा कब देखेंगे जब यह देश धर्मोन्मादी राष्ट्रवाद के खिलाफ मोर्चाबद्ध होगा!

इस सिलसिले में पिछली दफा मराठा पत्रकार परिषद, मुंबई में पिछले ही साल राम पुनियानी जी की एक पुस्तक के लोकार्पण के सिलसिले में जब मुलाकात हुई तो वे सिलसिलेवार बता रहे थे कि भारत के लोकतांत्रिक ढांचे की अनिवार्य शर्त इसकी धर्मनिरपेक्षता है, जिसकी हिफाजत हर कीमत पर करनी होगी।उनकी पुख्ता राय थी कि इसी लोकतांत्रिक धर्मनिरपेक्ष संयुक्त मोर्चा के जरिये ही समता और सामाजिक न्याय की मंजिल तक पहुंचने का रास्ता बन सकता है।

क्या हम उनके दिखाये रास्ते पर चलने को तैयार हैं?

बेस्ट सेलर्स के बहाने कुछ जरूरी सवाल

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किताबों के न बिकने के सतत प्रकाशकीय रुदन के बीच एक प्रकाशक का अपनी एक किताब को बेस्ट सेलर घोषित कर दो महीने के भीतर उस पर तीसरा आयोजन स्वागतेय तो है, लेकिन यह उल्लास कुछ सवाल खड़े करता है. उस कार्यक्रम की सूचना पर दीवानगी का यह हाल है कि एक प्रवासी कहानीकार ने यहाँ तक कह दिया कि हिंदी में तीस हज़ार से ज़्यादा कोई किताब बिकी ही नहीं है. प्रेमचंद की तमाम किताबों से लेकर आपका बंटी, राग दरबारी, नीला चाँद, मुझे चाँद चाहिए जैसी अनेक कृतियों के बारे में उनकी मालूमात संभव है, सूचना के स्तर पर भी न हो, खैर यह किसी की चिंता का विषय भी नहीं. इस सूचना को लेकर हुई व्यक्तिगत, अति-उल्लास या फिर भर्त्सनापूर्ण टिप्पणियों के आगे युवा आलोचक राकेश बिहारी की यह टिप्पणी कुछ ज़रूरी सवालों को तो उठाती ही है, साथ में एक बहस के लिए दरवाज़े भी खोलती है. जनपक्ष अपने पाठकों का इस बहस में भागीदारी का आह्वान करता है. 
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  • राकेश बिहारी



एक ऐसे समय में जब लिसी लेखक को यह ठीक-ठीक पता भी नहीं चल पाता कि उसके प्रकाशक ने उसकी किताब की कितनी प्रतियां छापी और बेची है, वाणी प्रकाशन द्वारा प्रकाशित ज्योति कुमारी के प्रथम कहानी-संग्रह ‘हस्ताक्षर तथा अन्य कहानियां’ की दो महीने में 1000 प्रतियां बिक जाना और उसके दूसरे संस्करण का प्रकाशित हो जाना हिन्दी साहित्य-जगत के लिये एक बड़ी, महत्वपूर्ण और स्वागत योग्य घटना है. इसके लिये ज्योति कुमारी और वाणी प्रकाशन दोनों को हृदय से बधाई दी जानी चाहिये.

भले ही इस स्तर पर दूसरे प्रकाशन गृहों द्वारा प्रचारित न किया गया हो पर किसी पुस्तक के कई-कई संस्करणों का प्रकाशित होना नई बात नहीं है. ज्योति कुमारी की किताब के दूसरे संस्करण के प्रकाशन को, राजकमल प्रकाशन द्वारा प्रकाशित किस्सा कोताह (राजेश जोशी), मड़ंग गोरा नील कंठ हुआ (महुआ माजी), जुगनी (भावना शेखर), खाकी में इंसान (अशोक कुमार), भारतीय ज्ञानपीठ द्वारा प्रकाशित युवा कथाकारों यथा - शशि भूषण द्विवेदी, अल्पना मिश्र, कविता, पंखुरी सिन्हा, कुणाल सिंह, चन्दन पांडे, कुणाल सिंह, राकेश मिश्र, मनोज कुमार पांडे, प्रत्यक्षा आदि लेखकों के पहले-दूसरे कथा-संग्रहों, आधार प्रकाशन द्वारा प्रकाशित भरतीय उपन्यास और आधुनिकता (वैभव सिंह), कलिकथा वाया वाइपास (अलका सरावगी), शिल्पायन द्वारा प्रकाशित 1857 और नवजागरण के प्रश्न (प्रदीप सक्सेना), अनकही (जयश्री रॉय), हनिया तथा अन्य कहानियां (विवेक मिश्र), सामयिक प्रकाशन द्वारा प्रकाशित आवां (चित्रा मुद्गल), मिलजुल मन (मृदुला गर्ग), इतिहास गढ़ता समय (प्रियदर्शन) आदि पुस्तकों की परंपरा की अगली कड़ी के रूप में ही देखा जाना चाहिये. यदि यहां पुराने लेखकों की उन किताबों का जिक्र न भी किया जाये जिनके वर्षों से नए संस्करण होते रहे हैं तो भी, अनुपम मिश्र की किताब `आज भी खड़े हैं तालाब’का जिक्र जरूरी है जिसकी लाख से ज्यादा प्रतियां बिक चुकी हैं और जिसे लेखक द्वारा रायल्टी मुक्त कर दिये जाने के कारण लगभग सारे बड़े प्रकाशक छाप चुके हैं। 

विभिन्न प्रकाशन गृहों द्वारा प्रकाशित कई किताबों के एकाधिक संस्करण और दो महीने में एक किताब की एक हज़ार प्रतियों के बिक जाने के इस सुखद सच के सामानान्तर एक चिंताजनक सच यह भी है कि कई महत्वपूर्ण किताबों के ढाई-तीन सौ प्रतियों के संस्करण भी कई-कई वर्षों में नहीं बिक पाते हैं. किसी किताब के बहुत ज्यादा बिकने और किसी किताब के नहीं बिक पाने के बीच के फासले के पीछे आखिर क्या कारण हैं? मुझे लगता है, इस महत्वपूर्ण मौके पर बेस्ट सेलर्स की अवधारणा, या किन्हीं अवांतर प्रसंग आदि की चर्चा करने के बजाय इस प्रश्न पर विचार किया जाना ज्यादा जरूरी है कि किसी किताब के बिकने या न बिकने के क्या कारण हो सकते हैं. चूंकि तत्कालीन चर्चा ज्योति कुमारी की किताब की है, इसलिये मैं अपनी बात इसी सन्दर्भ के हवाले से करूंगा.

किसी किताब के बिकने के कारणों की पड़ताल करते हुये जो पहली बात ध्यान में आती है वह है किताब की गुणवत्ता. दो महीने में 1000
 प्रतियो के बिकने की सुखद सूचना जिस उत्सवधर्मिता के साथ हमारे बीच आई है क्या उसका अर्थ यह लगाया जाय कि ज्योति कुमारी की कहानियां कथात्मक रचनाशीलता और प्रतिभा का एक ऐसा विस्फोट है जिसे पाठकों ने हाथों हाथ लिया? इसे सच मान लेने में यह खतरा है कि इसका अर्थ यह निकलेगा कि वाणी प्रकाशन से प्रकाशित अन्य लेखकों की किताबें तुलनात्मक रूप से कम अच्छी हैं. इस तरह के निष्कर्ष निकालना न तो उचित होगा नही सर्वमान्य या बहुमान्य. तो फिर दूसरा प्रश्न यह उठता है कि क्या कम समय में इतनी बड़ी बिक्री का महत्वपूर्ण कारण किताब का विज्ञापन है? यदि हां तो इससे जुड़ा एक और प्रश्न मुझे परेशान करता है कि यदि विज्ञापन किसी किताब की बिक्री में इतनी बड़ी भूमिका निभाता है तो फिर प्रकाशक अपने सभी किताबों का उसी तरह विज्ञापन क्यों नहीं करते? हो सकता है, विज्ञापन की यह परम्परा हिन्दी साहित्य जगत के लिये एक नई शुरुआत हो. तो क्या यह उम्मीद रखी जाये कि अन्य पुस्तकों के भी इसी तरह विज्ञापन किये जायेंगे? इस पुस्तक के साथ आई अन्य किताबों के प्रचार-प्रसार, लोकार्पण-परिचर्चा आदि को देखते हुये ऐसी उम्मीद करने का कोई ठोस कारण नहीं दिखता. ऐसे में इस बड़ी बिक्री के जिस तीसरे कारण की तरफ ध्यान जाता है, वह है - इस पुस्तक के प्रकाशन से जुड़ी अवांतर प्रसंगों और विवादों का. यदि इस किताब की बिक्री का कारण यह है तो क्या यह माना जाये कि अब हिन्दी साहित्य की वे ही किताबें अच्छी मात्रा में बिकेंगी जिसके मूल में कोई विवाद होगा? कहने की जरूरत नहीं कि इस तरह के प्रश्न उत्साह को नहीं चिंता को जन्म देते हैं.

इन चिंताओं और उत्कंठाओं के बहाने हम फिर अपने मूल बिंदु पर आते हैं कि ज्योति कुमारी के किताबों की उत्साहवर्द्धक बिक्री का उत्सव जरूर मनाना चाहिये लेकिन यह इस बात पर भी सोचने का समय है कि किसी किताब के बिकने और न बिकने के क्या कारण हैं? इससे किसी को इंकार नहीं हो सकता कि विवाद या प्रायोजन सफलता के स्थाई कारण नहीं हो सकते, अत: आज जरूरत है पुस्तक की गुणवता और उसके विज्ञापन के मेल से बने एक ऐसी प्रविधि के खोज की ताकि बहुत बिकनेवाली किताबों और न बिक पानेवाली किताबों के बीच का फासला न्यूनतम हो सके. ‘बेस्ट सेलर्स’ की घोषणा, उसका सेलिब्रेशन, और दावा की गई बिक्री की संख्या के अनुरूप लेखकों को रॉयल्टी दिये जाने की इस शुरुआत को इसी महती दिशा में बढे एक छोटे कदम के रूप में देखा जाना चाहिये. हम उम्मीद करते हैं कि वाणी प्रकाशन ने दो महीने की बिक्री के आधार पर बेस्ट सेलर घोषित करने की जो परंपरा शुरु की है उसकी अगली कड़ियां हमें हर दूसरे महीने देखने को मिलेंगी. यह सिलसिला ऐसे ही चलता रहा तो वह दिन दूर नहीं जब इस तरह के आयोजनों और उत्सवों की खबरें हमें दूसरे प्रकाशन गृहों से भी मिलने लगें

सी आई ए का भूत, वर्तमान और एक ‘सु’कवि को सम्पादक का साथ : आभासी दुनिया की एक वास्तविक बहस

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·        यह लेख समयांतर के ताज़ा अंक में प्रकाशित हुआ है.पूरी बहस आपने जनपक्ष परपहले पढ़ी ही है. इस बीच अर्चना वर्मा का भी एक आलेखइस मुद्दे पर कथादेश में छपा है. मजेदार बात यह है कि इस लेख में कमलेश जी की वह आप्त पंक्ति जिस पर सारी बहस केन्द्रित थी ( ‘शीतयुद्ध के दौरान इस सत्य का सहधर्मी साहित्य धीरे-धीरे उपलब्ध होने लगा. यह सब शीतयुद्ध के दौरान अपने कारणों से अमेरिका और सी आई ए ने उपलब्ध कराया. इसके लिए मानव जाति अमेरिका और सी आई ए की ऋणी है.) गायब कर दी है या फिर यों कहें कि तीन बिन्दुओं (...) की 'सांकेतिक' भाषा में व्यक्त की है. उनका सारा ज़ोर इस बात पर था कि 'कम्युनिस्ट विरोधियों को इस विरोध का हक होना चाहिए', उनसे यह पूछा जा सकता है कि आखिर 'कम्युनिस्टों को अपने विरोधियों का जवाब देने का हक है या नहीं? खैर यह लेख ज़ाहिर तौर पर एक स्वतन्त्र आलेख है और इसे उसी रूप में पढ़ा जाना चाहिए.
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पिछला महीनाफेसबुक के साहित्यिक समुदाय के बीच काफ़ी हंगामाखेज़ रहा. यों तो इस आभासी दुनिया में गर्मागर्म और मीठी बहसें लगातार चलती रहती हैं और इस रूप में यह कस्बाई नुक्कड़ में तब्दील होता जा रहा है लेकिन यह हंगामा अब तक कि तमाम बहसों से अलग इसलिए कहा जा सकता है कि इसने लम्बे अरसे बाद वामपंथी और वामपंथ विरोधियों को एकदम स्पष्ट दो खेमों में बाँट दिया. एक तरफ मंगलेश डबराल, वीरेन्द्र यादव, आशुतोष कुमार, शिरीष कुमार मैरी, गिरिराज किराडू और इन पंक्तियों के लेखक सहित वाम-लिबरल धारा के तमाम लोग तो दूसरी तरफ की कमान मुख्यतः ओम थानवी ने संभाली तथा उनके साथ ओम निश्चल, अख़लाक़ उस्मानी जैसे लोग रहे. मुआमला शुरू हुआ गिरिराज किराडू के एक स्टेट्स से जिसमें उन्होंने लिखा “भंतेयह साहित्य के विश्व इतिहास में उल्लेखनीय है. वह कौनसा प्रसिद्ध लेखक है जिसने कहा है कि मानवता को सी.आई.ए.का ऋणी होना चाहिए. क्लू यह है कि कारनामा एक वरिष्ठ हिंदी लेखक के किया हुआ है.”


ज़ाहिर है यह ‘कारनामा’ स्तब्ध करने वाला था. भारत में शीतयुद्ध काल में सी आई ए द्वारा वित्तपोषित ‘कांग्रेस फार कल्चरल फ्रीडम’ की उपस्थिति और उसमें अज्ञेय और उनके अनुयायियों की सक्रिय भागीदारी से परिचित हिंदी समाज भी अमेरिका की कुख्यात जासूसी संस्था सी आई ए के खुले समर्थन की इस मुद्रा से अब तक अपरिचित था. इसका अंदाज़ा उस पोस्ट के बाद आये कमेंट्स से लग जाता था जिसमें कवि आशुतोष दुबे से लेकर आशीष त्रिपाठी सहित तमाम लोग इस सूचना पर अविश्वास से भरी टिप्पणियाँ करते हुए उस महानुभाव का नाम पूछ रहे थे. वह महानुभाव थे कवि कमलेश! समास पत्रिका में दिए गए अपने एक साक्षात्कार में उन्होंने कहा कि ‘मानव जाति को सी आई ए का ऋणी होना चाहिए.’ कारण बताया उस संस्था की ‘बुक वेंडर’ की भूमिका जिसके तहत उसने शीत युद्ध काल में तमाम मार्क्सवाद विरोधी पुस्तकें उपलब्ध कराईं. समास -5 के पेज 6 पर जनाब फरमाते हैं ‘शीतयुद्ध के दौरान इस सत्य का सहधर्मी साहित्य धीरे-धीरे उपलब्ध होने लगा. यह सब शीतयुद्ध के दौरान अपने कारणों से अमेरिका और सी आई ए ने उपलब्ध कराया. इसके लिए मानव जाति अमेरिका और सी आई ए की ऋणी है.’इसके बाद इस लम्बे साक्षात्कार में कम्युनिस्ट विरोधी चिर-परिचित विषवमन है. अमेरिका और सी आई के इस पुण्य काम के पीछे के ‘कारणों’ पर न कोई बात है, न उसके दूसरे मानव जाति विरोधी कारनामों की कोई चर्चा. अभी हाल में विकीलीक्स के एक खुलासे में सी आई ए से कांग्रेस सरकार पलटने में मदद माँगने वाले पूर्व समाजवादी , अज्ञेय के प्रसंशक और इन दिनों अशोक वाजपेयी खेमे के ‘सेलीब्रेटेड’ कवि (हाल में न केवल उनकी दो किताबें आईं बल्कि उनका विमोचन अशोक वाजपेयी रज़ा फाउंडेशन में किया, फिर यह लंबा साक्षात्कार छापने वाली समास तो उनकी पत्रिका है ही)  के कमलेश का यह साक्षात्कार शीत युद्ध काल में लोहियावाद के करीब रहे कुछ साहित्यकारों के सी आई ए के उन दिनों चल रहे वाम-विरोधी अभियान के हाथों संचालित होने की पुरानी आशंका को पुष्ट करने वाला है. खैर, इसके बावजूद अज्ञेय जैसे कांग्रेस फार कल्चरल फ्रीडम के करीब रहे लोगों ने भी कभी इस तरह खुल्लमखुल्ला सी आई ए का अहसान नहीं जताया था. ज़ाहिर है कि इस पर तीखी प्रतिक्रिया हुई. लेकिन ऐसी परिस्थिति में उनकी रक्षा के लिए आगे आये जनसत्ता संपादक और इन दिनों साहित्य-सत्ता के खेल में संलग्न ओम थानवी!


यों भी ओम थानवी जनसत्ता के पन्नों से लेकर आभासी जगत तक में इन दिनों वाम विरोधी साहित्यिक समूह के सबसे वाचाल प्रवक्ता के रूप में उभरे हैं. पाठकों को याद होगा कि मंगलेश डबराल के सन्दर्भ में उठे एक विवाद में वह फेसबुक की बहस को न केवल जनसत्ता के पन्नों पर ले गए बल्कि इसका प्रयोग वामपंथ पर धूल फेंकने  तथा उदय प्रकाश के आदित्यनाथ के हाथों पुरस्कृत होने की घटना पर  धूल-गर्द डालने के लिए किया. जब उनके उस असत्य तथा अर्धसत्य पर आधारित एकतरफा लेख का जवाब दिया गया तो उन्होंने उसे जनसत्ता में छापने से इंकार कर दिया. साहित्य के कुछ अफसरान और मठाधीशों को अपनी पत्रकार वाली हैसियत से उपकृत करते रहने ( अभी कुछ दिनों पहले फेसबुक पर बहुत इमोशनल होते हुएउदयप्रकाशने लिखा था कि ओम थानवी के सहयोग से उन्हें अपने बड़े बेटे की शादी के लिए इंडिया इंटरनेशल सेंटर बहुत सस्ते दामों पर मिल गया जिससे वह शादी ‘अभिजात भव्यता’ के साथ संपन्न हुई. साथ ही उन्होंने इसके लिए थानवी जी के प्रति अपने पूरे परिवार की ‘आभार’ भावना का ज़िक्र किया है. मजेदार बात यह है कि इसके तुरत बाद उन्होंने अपने द्वारा साहित्य अकादमी के एक समारोह में अज्ञेय को वामपंथी कवि बताये जाने और उससे अभिभूत होकर थानवी जी द्वारा उनके खीसे में अपनी कलम खोंस दिए जाने का ज़िक्र किया है. गोया इन दिनों वह अपने नहीं थानवी जी के ‘कलम’ से ही लिख रहे हैं) के अलावा ओम थानवी का हिंदी में कुल जमा योगदान एक लघु यात्रा वृत्तांत और अज्ञेय वंदना की सारी हदें पार कर लेने का ही रहा है. अज्ञेय जन्म शताब्दी वर्ष में दिल्ली से कोलकाता तक उन्होंने जो ‘अभिजात भव्यता’ वाले आयोजन कराये, अपने अखबार (जिसमें इन दिनों जन की नहीं अभिजन साहित्य की चर्चा ही अधिक होती है) के पन्ने भर डाले, उन पर संस्मरणों की भारी-भरकम पोथी तैयार कर दी उसके बावज़ूद साहित्य जगत में अज्ञेय को लेकर किसी सकारात्मक हलचल की अनुपस्थिति ने उनमें कुंठा का एक भाव पैदा किया हो तो किमाश्चर्यम? आखिर छोटे शहरों, कस्बों और महानगरों तक में नागार्जुन, शमशेर और केदार नाथ अग्रवाल पर अक्सर संस्थाओं की मदद के बिना सामूहिक पहलों से जो कार्यक्रम हुए, पत्रिकाओं के अंक निकले, उनकी कविताओं के पुनर्पाठ हुए, अशोक वाजपेयी और थानवी जी के भरपूर प्रयास के बावजूद वह अज्ञेय को कहाँ नसीब हुआ?

खैर, बात हो रही थी सी आई ए के सम्बन्ध में कमलेश जी के बयान की. ओम थानवी ने इस बहस में भागीदारी करते हुए कहा कमलेश के ‘अच्छे कवि’ होने की बात की और कहा कि हमें उनकी कविता पर बात करनी चाहिए, न कि उनके विचारों पर क्योंकि वह मूलतः विचारक नहीं कवि हैं. यहाँ तक कि अगर वे सी आई ए के समर्थन में भी कविता लिख दें तो मैं देखूँगा कि वह कैसी कविता है. ज़ाहिर है उनकी किसी बात की तरह यह बात भी ‘राग अज्ञेय’ के बिना पूरी कैसे हो सकती थी, तो उन्होंने अज्ञेय जन्मशताब्दी वर्ष में शिरकत करने वालों का नाम भी गिनाया और मार्क्सवादियों की आलोचना का धर्म भी निभाते हुए लोकतंत्र और आवाजाही के कुछ सबक दिए. यहाँ तक कि अपनी बात में वज़न डालने के लिए विजयदेव नारायण साहीका वह वक्तव्य भी दुहराया कि मैं नीत्शे की किताब जरथुस्त्र उवाच को समाज विरोधी मानता हूँ लेकिन साहित्य के दृष्टि से महान रचना मानता हूँ और उसकी एक प्रति अपने पास रखता हूँ. बार-बार पूछे जाने पर पहले तो वह सी आई एक पर कुछ बोलने को तैयार न होते हुए उसे एक गौण मुद्दा बताने पर तुले रहे और फिर कहा “उनका यह कहना गलत नहीं कि एक दौर में सीआइए ने अनेक महान लेखकों को (प्रताड़ित रूसी लेखकों पास्तरनाक, सोल्जेनित्सीन, जोजेफ ब्रोड्स्की आदि के अनेक नाम तो जगजाहिर हैं) मदद की. और सीआइए ने दुनिया का महान साहित्य (नोबल रचनाओं सहित) भी सस्ती दरों पर दुनिया में उपलब्ध करवाया. मगर यह काम तो केजीबी भी तो करती थी. चेखव-तोल्स्तोय सस्ते में उपलब्ध कराते-कराते कौड़ियों के मोल स्तालिन के विचार भी सुन्दर जिल्दों में परोस दिए जाते थे! ....बहरहाल, मेरे इस बहस में पड़ने का एक ही सबब है कि कमलेशजी ने क्या कहा उस पर इतना कुढेंगे तो एक वक्त के बाद उनकी कविता का आनंद कभी नहीं ले पाएंगे जो सचमुच अच्छा काव्य है. एक रचनाकार के मामले में वही महत्त्वपूर्ण है. वे सीआइए की नौकरी करने लगें तब भी मैं यह बात इसी तरह कहूँगा...मेरा तो इतना निवेदन ही था की कमलेश जी मूलतः कवि हैं, विचारक या दार्शनिक आदि नहीं. तो उनकी रचना से ही उन्हें नापा जाना चाहिए, विचारों से नहीं. ” 

ज़ाहिर है यह बहस दो व्यक्तियों या समूहों भर की नहीं रह गयी थी. यह उस पुरानी बहस की पुनरावृत्ति थी जिसमें एक पक्ष जीवन और रचना के बीच में गहरे अंतर्संबंध की बात को स्वीकार करता है तो दूसरा पक्ष वास्तविक जीवन में ली गयी पक्षधरताओं को दरकिनार कर रचना को उसके विशुद्ध सौंदर्यवादी नज़रिए से प्राप्त निकष के आधार पर देखने को कहता है. ये स्पष्ट रूप से दो भिन्न विश्व दृष्टियों का सवाल है. कविता को उसके सौन्दर्य के आधार पर देखने की इस ज़िद के पीछे भी आलोचना का कितना स्वीकार था यह तब समझ में आ गया जब मंगलेश डबरालने कमलेश के कवि रूप पर केन्द्रित होते हुए कहा कि  कमलेश जी कुल मिलाकर एक रूमानी कवि हैं, जिनकी कविता पर विदेशी कवियों का बहुत साफ़ असर रहा है. उनका प्रारम्भिक दौर काफी अच्छा था और उत्तर छायावादी, रोमांचक भाषा और विन्यास उन्होंने विकसित किया था. एक भाषाई सवर्णात्मकता , जो कुछ रोमांचित करती थी. लेकिन परवर्ती कमलेश बेहद निराशाजनक हैं. मार्क्सवाद के बारे में उनका सोच और उनकी समझ, दोनों बहुत पिछड़े हुए हैं और शीतयुद्धकालीन हैं, उनका आज के पूंजीवाद और मार्क्सवाद की वैचारिकी में आये बदलावों से कोई दूर का भी रिश्ता नहीं. अब उन्हें कोई महाकवि कहे या महा विचारक,इससे कविता और विचार, दोनों पर आज कोई फर्क नहीं पडता, हाँ कुछ तात्कालिक चर्चा वगैरह तो हो सकती है. या कुछ धुंधलका फ़ैल सकता है, जैसे भगवान सिंह की किताब के बहाने डी डी कोशाम्बी पर उनके बचकाने और अतार्किक प्रहार या कुलदीप कुमार को दिए गए कुंठित जवाब से चंद लम्हों के लिए फैली. (२) पोलिश कवि मिलोश के अशोक वाजपेयी द्वारा संपादित चयन का नाम 'खुला घर' है तो कमलेश जी के संग्रह का नाम 'खुले में आवास' है, और फिर अगला कमज़ोर संग्रह है 'बसाव'. और ये सभी नाम सचमुच के महाकवि पाब्लो नेरुदा के 'रेसीडेन्स आन अर्थ' --- रेसिदेंसिया एन ला तियेरा - के फालआउट्स हैं, तो हिंदी में यह सब चलता है तात्कालिक और क्षणिक महानताओं के नाम पर.”  इसे एक स्वस्थ आलोचना की तरह लेने या फिर उनकी कविताओं के आधार पर इसका सम्यक प्रतिउत्तर देने की जगह इसे  विचारधारा से इतर कवि को खारिज़ करने की साजिश की तरह प्रसारित किया गया. ज़ाहिर है कि ओम थानवी की आवाजाही और उनके  लोकतंत्र का एकमात्र अर्थ उनके कहे का अप्रश्नेय स्वीकार है.  इसका सबसे बड़ा उदाहरण फेसबुक का ही है जहाँ अज्ञेय पर ज़ारी बहस में असहमति के कारण उन्होंने वीरेन्द्र यादव, हिमांशु पंड्या और प्रियंकर पालीवाल जैसे लोगों को उन्होंने ब्लाक कर दिया तो भाषा सम्बन्धी के विवाद में अपना झूठ पकडे जाने पर (आशुतोष कुमार का प्रतिवाद न छापने के लिए ओम थानवी ने सफाई दी थी कि वह तय शब्द सीमा से अधिक का है, जबकि कम्प्युटर से गिने जाने पर वह तय शब्द सीमा में ही निकला और अंततः एक आधे-अधूरे जवाब के साथ उसी स्पेस में प्रकाशित हुआ) उन्होंने गिरिराज किराडू, अमलेंदु उपाध्याय, आशुतोष कुमार और मुझ सहित अनेक लोगों को ब्लाक कर दिया.

सी आई एक वाले मुद्दे पर बहस आगे चली. लगभग डेढ़ महीने चली यह पूरी बहस जनपक्ष ब्लॉग पर है और हू-ब-हू पुनर्प्रस्तुत करना स्थानाभाव में संभव न होगा. किताबें छापने की सी आई ए की भूमिका पर दिगंबर ओझा ने पद्मा सचदेवद्वारा संकलित इब्ने इंशाके लेखों की किताब ‘दरवाज़ा खुला रखना’ के हवाले से लिखा, ‘"बेऐब ज़ात तो खुदा की है, लेकिन अफसानातराजी कोई हमारे मगरबी मुसन्निफों से सीखे. चीन के मुतल्लिक अकेले अमरीका में इतनी किताबें छप चुकी हैं कि ऊपर-तले रखें तो पहाड़ बन जाए. लेकिन अक्सर उनमें से वासिंगटन और न्यू यार्क में बैठ कर लिखी गयी हैं. वहाँ ऐसे रिसर्च के अदारे हैं, ज्यादातर सी.आई.ऐ. के ख्वाने-नेमत से खोशा चीनी करनेवाले जो आपकी तरफ से वाहिद मुतकल्लिम में चश्मदीद हालात लिखकर देने को तैयार हैं. आप फकत इस पर अपना नाम दे दीजिए. बाज़ पब्लिशिंग हाउस (मसलन प्रायगर) तो चलते ही सी.आई.ए. के पैसे से हैं. मशहूर रिसाला एनकाउण्टर भी इन्हीं इदारों से सांठ-गाँठ रखता है. कीमत इसकी ढाई-तीन रूपए है लेकिन कराची के बुकस्टालों पर एक रुपए में मिल जाता है. मालूम हुआ कि पाकिस्तान में इल्म का नूर फ़ैलाने के लिए इसकी कीमत खास तौर पर रखी गयी है. हम चाहते हैं कि चीजें सस्ती हों लेकिन ऐसा भी नहीं कि कलकलाँ अफीम सस्ती हो जाए तो खाना शुरू कर दें और जहर की कीमत चौथाई रह जाए तो मौका से फायदा उठाकर ख़ुदकुशी कर लें. आठ-आठ दस-दस आने की किताबों का सैलाब भी आया और बराबर आ रहा है. जिनको स्टूडेंट एडिशन का नाम दिया जाता है. प्रोपेगंडे की किताबों में चंद किताबें बेजरर किस्म की भी डाल दी जाती हैं कि देखिये हमारा मकसद तो फकत इसाअते तालीम है.’  आशुतोष कुमारने ओम थानवी के एक सवाल के जवाब में कहा कि ‘ कमलेशजी मानवजाति की ओर से जिस सी आइ ए के ऋणी हैं , अच्छा होता कि पिछली सदियों में , एशिया -अफ्रीका से ले कर - लातीनी अमरीका में -- दुनिया भर में-- लोकतांत्रिक समाजवादी सरकारों को पलटने , नेताओं और लेखकों को खरीदने , उनकी हत्या कराने , से ले कर खूनी सैनिक क्रांतियां /जनसंहार कराने तक की उस की करतूतों के बारे में भी दो शब्द कह देते . सोवियत विकृतियों की आलोचना की सुदृढ़ परम्परा खुद कम्युनिस्ट आंदोलन के भीतर ट्रोट्स्की से ले कर माओ और उस के बाद तक मौजूद रही है . सोवियत संघ के और दुनिया भर के स्वतंत्र मार्क्सवादी/ नव-मार्क्सवादी लेखकों ने लिखा है . सी आइ ए की सुनियोजित प्रचार सामग्री इस लिहाज से कतई भरोसे लायक नहीं हो सकती . उसके प्रति कृतज्ञता केवल वे लोग महसूस कर सकते हैं , जिन्हें कम्युनिस्ट विरोधी साहित्य की सख्त जरूत थी . वो चाहे जहां से मिले , जैसी मिले . वे जो यों तो किसी विचार के 'पश्चिमी' होने मात्र से आशंकित हो जाते हैं , और भारत पर उस का प्रभाव पड़ते देख पीड़ित , लेकिन हर उस पश्चिमी लेखक के मुरीद हो जाते हैं , जो कम्युनिस्ट विरोधी हो . इन पन्नों को पढ़ कर तो यही लगता है कि कमलेश जी की कृतज्ञता ज्ञान के विस्तार के कारण नहीं , बल्कि कम्युनिस्ट -विरोध के कारण है . उन्हें अपनी कृतज्ञता जाहिर करने से कौन रोक सकता है , लेकिन उसे '' मानवजाति की कृतज्ञता '' के रूप में स्थापित करने की कोशिश पाखंडपूर्ण तो है ही , हास्यास्पद भी है .” लेकिन इन सवालों का कोई जवाब देने की जगह पूरी बहस को पटरी से उतारने , कम्युनिस्टों को लोकतंत्र के खिलाफ कहने, एजरा पाउंड तथा ज्यां जेनेके बहाने लेखन और जीवन को दो लग-अलग खांचों में देखने की वक़ालत की गयी. जब मंगलेश डबराल, गिरिराज किराडू और वीरेन्द्र यादव ने एजरा पाउंड को महान बताने वालों पर सवाल उठाये और खुद एजरा के फासीवाद समर्थन को लेकर अपराधबोध से ग्रस्त होने की बात की तो ज़ाहिर है जवाब इसका भी नहीं था. गिरिराज किराडूका यह सवाल कि ‘एक फासिस्ट को महत्वपूर्ण लेखक कौन और कैसे मानता है,मनवाता है इसे समझे बिना, एजरा पाउंड को एक बड़ा लेखक न मानने की लम्बी अकादमिक और वैचारिक परंपरा को समझे बिना (पाउंड के फासिज्म पर अब तक लगातार अध्ययन हो रहे है और उनके जितना पहले समझा जाता था उससे कहीं ज्यादा संगीन फासिस्ट और रेसिस्ट - एंटी-सेमेटिक, यहूदी-विद्वेषी - होने के प्रमाण सामने आये हैं,उनकी बेटी अभी दो साल पहले यह लड़ाई लड़ रही थी कि पाउंड के नाम से ही एक नवफासीवादी समूह ने अपना नाम रख लिया है) एक नजीर की तरह उनके मामले को उद्धृत करना जानकारी व अध्य्यन की कमी के साथ समझ का भी कुछ पता देता है. ज्यां जने जिनके अपराधों में चोरी, बदलचलनी, हेराफेरी के साथ साथ समलैंगिकता भी शामिल थी को सार्त्र द्वारा कैननाईज (दोनों अर्थों में) करने का मामला पाउंड के मामले से अलग है और दोनों को मिलाना एक गैर-डायलेक्टिकल समझ का ही प्रमाण है . जेल से छुड़ा लिये जाने के बाद जने कभी अपराध की तरफ नहीं गये. डाकू से लेखक बनना स्वीकार्य है अपने यहाँ भी. और पत्रकार से लेखक बनना भी.”  औरमंगलेश डबरालका यह सवाल एजरा पाउंड ने करीब ७० वर्ष पहले मुसोलिनी के रेडिओ से प्रसारण किये थे. क्या हम इतिहास के अँधेरे से कुछ नहीं सीख पाए, जो आज मानवता के शत्रुओं के ऋणीहो रहे हैं ? पाउंड के कुकृत्य के कारण भी परिचित हैं - एक, अर्थशास्त्री डगलस के विचारों का प्रभाव जो सूदखोरी और वित्तीय पूँजी को अपराध की जड़ मानता था. पाउंड बैंक्स के विरोधी थे और मानते थे कि इंग्लैण्ड की डेमोक्रेसी बैंक और सूदखोरी पर प्रभुत्व रखने वाले ज्यूज के हाथ में है. लेकिन क्या हम भूल जाते हैं कि पाउंड के 'anti-antisemitism' का कितना तीखा, उग्र विरोध हुआ, पाउंड खुद पागल होकर जेल, हास्पीटल में वर्षों तक रहे और अंत में भयानक पश्चाताप में गले. उनके कुछ जाने-माने वाक्य हैं --'i was stupid, suburban anti-semaiic,.. i spoiled everything i touched.. i've always blundered..i was not a lunatic, but a moron." इस विलाप को देखते हुए पाउंड के काम को आज के किसी वक्तव्य को उचित ठहराने के लिए कैसे इस्तेमाल किया जा सकता है? जब पाउंड जैसी प्रतिभा की निंदा हुई तो कमलेश जी की थोड़ी सी आलोचना उनका वध करार दी जायेगी? किस तर्क से?अनुत्तरित ही रहा. इसके बदले में इस पूरी बहस को चरित्र हनन बताने का शोर मचता रहा.    
     
 सवाल यह है कि आखिर वह कौन सी वजूहात हैं कि आज शीत युद्ध के इतने वर्षों बाद कमलेश जैसा व्यक्ति सी आई ए के प्रति समर्थन जताता है और ओम थानवी जैसे अज्ञेय भक्त उसके बचाव में सारी सीमाएं पार करते हैं? शीत युद्ध के दौरान सी आई ए की सांस्कृतिक क्षेत्र में सक्रियता अब सर्वज्ञात तथ्य है. कांग्रेस फार कल्चरल फ्रीडम के साथ साम्यवाद विरोधी लेखकों की एक टोली अज्ञेय के नेतृत्व में सक्रिय थी ही. उसी के एक सदस्य के हवाले से लिखा शंकर शरण का कुत्सा प्रचार का अनमोल नमूना ओम थानवी जनसत्ता के सम्पादकीय पन्नों पर पेश कर ही चुके हैं. ज़ाहिर है कि अपने उस पुराने आका के प्रति कृतज्ञता का भाव बार-बार सामने आता ही है. बहुत संभव यह भी है कि दुनिया भर में छाये आर्थिक संकटों और योरप सहित अलग-अलग जगहों पर सामने आये जन उभारों के मद्देनज़र सी आई ए को एक बार फिर अपने पुराने झंडाबरदारों की ज़रुरत महसूस हो रही हो. व्यक्तिगत तौर पर देखें तो ओम थानवी अपनी इकलौती साहित्यिक ‘उपलब्धि’ अज्ञेय वंदना को लेकर सी आई ए का नाम आने भर से असुरक्षित महसूस कर रहे हों तो इसमें आश्चर्य की कोई बात नहीं. आखिर बरास्ता  कांग्रेस फार कल्चरल फ्रीडम सी आई ए का भूत अज्ञेय वन्दकों को सताता तो होगा ही न?        

   

मुद्दा विचारधारा विरोध है - वीरेन्द्र यादव

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फेसबुक पर सी आई की भूमिका को लेकर जो बहस चलीथी उसे आप जनपक्ष पर पढ़ चुके हैं. सी आई ए के ऋणी कवि कमलेश के उत्कट समर्थक और इन दिनों वाम विरोधी तथा सी आई ए द्वारा कांग्रेस फार कल्चरल फ्रीडम की 'विचाधाराहीनता' वाले मूल्यों के सबसे वाचाल और उत्कट समर्थक जनसत्ता संपादक ओम थानवी इस बहस को नितांत एकपक्षीय तरीके से अपने अखबार में ले गए थे और तर्कों पर बात करने की जगह उन्होंने निजी आरोप लगाने, कीचड़ उछालने तथा तथ्यों को तोड़-मरोड़ कर पेश करने की कुत्सा प्रचार वाली जानी मानी राह चुनी. गोएबल की तरह शायद उन्हें भी भरोसा है कि वह लगातार झूठ बोलकर उसे विश्वसनीय बना सकते हैं. कांग्रेस फार कल्चरल फ्रीडम के साम्राज्यवादी तथा षड्यंत्रकारी रवैये से उनकी कितनी समानता है यह इस तथ्य से जानी जा सकती है कि उन्हें अपने इस भयावह मिथ्या कथन का प्रतिवाद छापने का भी साहस नहीं ठीक वैसे जैसे सी सी ऍफ़ की पत्रिका ने अपने ही एक पूर्व सम्पादक माइक डोनाल्ड का लेख सिर्फ़ इसलिए छापने से इनकार कर दिया था कि वह अमेरिका के रवैये पर सवाल उठाता था. मेरे भेजे गए प्रतिवाद को उन्होंने 'चार सौ शब्दों' में भेजने को ही नहीं कहा बल्कि उसके 'सम्पादन' का अधिकार भी जताया. वह यह भूल गए कि जिस बहस में वह खुद प्रतिपक्ष हैं उसमें उन्हें सम्पादन का अधिकार कैसे हो सकता है और जिस झूठ को उन्होंने तीन चौथाई पन्ने में पसारा है उसका प्रतिवाद चार सौ शब्दों में कैसे हो सकता है? 

जाने-माने आलोचक वीरेन्द्र यादव के ११०० शब्दों के प्रतिवाद को उन्हें दो-चार लाइनों का बना कर 'सम्पादक के नाम पत्र (चौपाल) में छापा. हम उनके इस कुत्सा प्रचार की गोएबेलियन नीति, अखबार को अपनी निजी महत्वाकांक्षाओं की पूर्ति के लिए जागीर की तरह इस्तेमाल करने की प्रवृति और प्रतिवाद न छापने की भयावह अलोकतांत्रिक पद्धति की कठोर आलोचना करते हैं. पाठकों तक दूसरा पक्ष पहुंचाने के लिए हम वीरेन्द्र जी का प्रतिवाद यहाँ दे रहे हैं.

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 मुद्दा विचारधारा विरोध है                          

                 

यह वास्तव में दिलचस्प है कि जब न सोवियत संघ रहा और न शीतयुद्ध की बहसें तब 'साहित्य में फिर सी
आई ए ' की गढ़ंत की जा रही है .जाहिर है इस गढ़ंत में तथ्यों और तर्कों का क्या औचित्य ! वामपंथ विरोध के इस 'महायज्ञ' में मेरी आहुति देते हुए ओम थानवी जी ने स्वयं को मिले एक पुरस्कार का उल्लेख करते हुए लिखा  है कि ,"..कुछ कट्टर मार्क्सवादियों को मेरा चयन खल गया .इनमें एक वीरेन्द्र यादव कार्यक्रम में तो नहीं बोले, पर घर लौटकर फेसबुक पर शमशेर सम्मान के संस्थापक प्रतापराव कदम को उन्होंने इस तरह कोसा "..क्या कोई साझा मंच साम्प्रदायिकों और सी आई ए के समर्थकों का भी बनाना चाहिए ?" अब इस 'सादगी ' पर कौन न मर जाय या खुदा ! सच यह है कि १२ मई को लखनऊ में आयोजित शमशेर सम्मान के इस आयोजन की स्वागत समिति का मैं सदस्य था ,निमंत्रणपत्र पर मेरा नाम घोषित वक्ताओं की सूची में था .आयोजन में  मैं थानवी जी के साथ मंच पर था . मुझे कवि नरेश सक्सेना के बारे में वक्तव्य देना था उन्हें भी इस सम्मान से सम्मानित किया गया था .नरेश सक्सेना पर बोलने के पूर्व अपने वक्तव्य में मैंने मंच से सार्वजानिक रूप से ओम थानवी को सम्मान हेतु बधाई दी.समारोह के पहले भी मेरी उनसे अन्य लेखक मित्रों के साथ मुलाकात हुयी और मंच पर भी अन्य लोगों के साथ बैठे हम दोनों के बीच सहज संवाद  हुआ .लेकिन इस सब पर उन्होंने धूल डालकर यह कह दिया कि मैं वहां तो चुप रहा लेकिन 'घर लौटकर' सम्मान के संस्थापक को कोसा .अब घर तो मैं उसी दिन लौटा था लेकिन प्रताप राव कदम से ओम थानवी को सम्मान दिए जाने के बाबत उस दिन से लेकर आज तक न तो फेसबुक पर कोई चर्चा हुयी और न ही फोन पर .




                      
 ओम थानवी जी ने जिस आधे वाक्य को मेरे द्वारा स्वयं को'कोसने' के लिए उधृत किया है वह  समारोह के १३ दिन बाद २५ मार्च की फेसबुक की  उस बहस का हिस्सा है जिसका प्रसंग मनसे के पदाधिकारी की संस्था में अशोक वाजपेयी के काव्यपाठ से सम्बद्ध है .हुआ यह कि जब कुछ लोगों द्वारा साम्प्रदायिक लोगों के मंच से अशोक वाजपेयी के काव्यपाठ को प्रश्नांकित किया गया तो प्रताप राव कदम ने साझा मंच पर 'अपनी बात ' कहने की दलील दी थी. इस पर मेरी टिप्पणी थी कि ,".साझा मंचों पर अक्सर शालीनता की दरकार होती है जैसा की आपके मंच पर लखनऊ में मैंने स्वयं महसूस किया .था. जरा सोचिये कि जब आप अपने मंच पर ओम थानवी का सम्मान कर रहे थे और जब वे मंच से अपने पिता जी का हवाला देकर स्वयं को वाम मित्र बता रहे थे और जब हमारे मित्र रमेश दीक्षित थानवी जी की जनतांत्रिकता की पताका लहरा रहे थे ,तब यदि मैं उसी मंच का सहभागी होने के कारण 'अपनी बात ' कहते हुए उनकी जनतांत्रिकता की धज्जियां उड़ा देता ,तो क्या होता आपके कार्यक्रम का ? मैं यह कर सकता था क्योंकि वे वहां सोसल मीडिया पर अपनी आलोचना की चर्चा कर रहे थे .और उसके पहले ही अज्ञेय पर बहस के चलते मुझे ब्लाक कर चुके थे .इसलिए यह स्वीकार करने में कोई दिक्कत नहीं होनी चाहिए की साझा मंचों की अपनी सीमाएं हैं .फिर क्या कोई साझा मंच सम्प्रदयिकों और सी आई ए के समर्थकों से भी बनाना चाहिए ?" यहाँ ओम थानवी की चर्चा उनके  उन  'जनतांत्रिक '  दावों को लेकर थी जो उन्होंने उस आयोजन में किये थे ,वह भी  इस कारण कि इसके पूर्व  अज्ञेय पर हुयी बहस के कारण वे मुझे फेसबुक पर ब्लाक कर चुके थे  . यहाँ साम्प्रदायिक से तात्पर्य मनसे के कार्यकर्ता से था और ओम थानवी का सम्मान प्रसंग इस बहस में कहीं भी  लक्षित नहीं था लेकिन  उन्होंने  यह गढ़ंत पेश कर दी, जैसे कि मेरी यह टिप्पणी उनके इस पुरस्कार के चयन से सम्बद्ध  थी .इसके  साथ उन्होंने यह अनैतिकता भी बरती कि जिसे वे फेसबुक पर ब्लाक कर चुके थे उसकी  फेसबुक  टिप्पणी को अपने लेख में प्रसंग से काटकर पेश कर रहे थे .

दरअसल जब सब कुछ काले उजले में बांटकर देखा जाता है तब ऐसा ही होता है . आखिर 'कट्टर मार्क्सवाद ' और 'जनतांत्रिक आवाजाही ' के  एक साथ संभव होने की कल्पना भी कैसे की जा सकती है ! मार्क्सवादी यदि किसी कार्यक्रम में न जाएँ तो यह उनकी संकीर्ण गोलबंदी और यदि जाएँ तो उसके मनमाना  भाष्य ,शायद यही अब जनतांत्रिकता का तकाजा शेष है .खैर ,यह तो अपनी अपनी जनतांत्रिकता है ,इसका क्या गिला !वैसे इस समूची बहस में यह शिकायत सही है कि कवि कमलेश का वह बहुचर्चित वाक्य ठीक से उधृत नहीं किया गया क्योंकि ऋणी सिर्फ सी आई ए का ही नहीं बल्कि अमेरिका के भी होने की बात कही गयी थी .पूरा वाक्य इस प्रकार था ,"...शीतयुद्ध के दौरान इस सत्य का सहधर्मी साहित्य धीरे धीरे उपलब्द्ध होने लगा .यह सब शीतयुद्ध के दौरान अपने कारणों से अमरीका और  सी आई ए ने उपलब्द्ध कराया ,इसके लिए मानव जाति अमरीका और सी आई ए की ऋणी है ." 
              
यह स्वीकार करना होगा कि मार्क्सवादी हों या मार्क्सवाद विरोधी हिन्दी में  अब पढने -पढ़ाने की परम्परा क्षीण से क्षीणतर होती जा रही है .वरना बहस इस बात पर भी होनी चाहिए थी कि जिन कमलेश ने मानव जाति को अमरीका और सी आई ए  का ऋणी होने की बात कही है उन्होंने ही यह भी  क्यों कहा कि हिटलर के दार्शनिक गुरु हाइडेगर नाजीवादी पार्टी के सदस्य तो थे लेकिन   ' ...वैचारिक स्तर पर उनका चिंतन नात्सी विचारधारा से अलग ही नहीं था ,बल्कि उसका गंभीर प्रत्याख्यान भी था .' यह सचमुच दिलचस्प है कि जिन दिनों  हाइडेगर के नाजी संबंधों को  लेकर सायेमन हेफर की   'हिटलर'र्ज सुपरमैन 'और इमनेल फाई की पुस्तक 'हाइडेगर -दि इंट्रोडक्सन आफ नाजिज्म इन्टू फिलासफी ' सरीखी पुस्तकें   समूचे विश्व के बुद्धिजीवियों के बीच गंभीर चर्चा के केंद्र में हों तब हिन्दी का एक विचारक बुद्धिजीवी कवि हाइडेगर की औचित्यसिद्धि कर रहा हो . यह महज संयोग नहीं है कि उनके ये विचार भी 'समास 'पत्रिका के ही अंक ६ में प्रकाशित हैं . ध्यान देने की बात है कि 'समास ' के प्रकाशक रजा फाऊंडेशन के न्यासी अशोक वाजपेयी हैं और उसके संपादक उदयन वाजपेयी हैं .

              
अशोक वाजपेयी ने यह याद दिलाकर कि वे 'विचारधारा विरोधी' हैं इस समूची बहस को सार्थकता प्रदान कर दी है .कमलेश जी को भी   लगता है कि अमरीका और सी आई ए द्वारा  इतना साहित्य उपलब्द्ध होने के बाद भी यदि 'लोग कम्युनिस्ट हो  सकते हैं तो यह भारतवर्ष में फैले हुए अज्ञान के घोर अँधेरे में ही संभव है '. ओम थानवी जी भी भोपाल के वनमाली समरोह 
में यह कह ही  चुके  हैं कि 'साहित्य को विचारधारा से मुक्त रखना होगा '. अतः मसला' विचारधारा बनाम विचारधारा विरोध' का विचारधारा द्वारा फैलाये गए 'घोर अँधेरे 'को मिटाने का है   . विचारधारा के विरोधी अपनी मुहीम में एकजुट हैं लेकिन जो विचारधारा के पक्षधर हैं वे साम्प्रदायिकता विरोध की चोरगली से अभी भी 'आवाजाही ' के नाम पर कुछ भ्रम बनाये हुए हैं .जरूरत है आत्मावलोकन की ,क्योंकि  बकौल  धूमिल यह कब तक संभव है कि " मुठ्ठी भी तनी रहे और कांख भी ढकी रहे !"

  
वीरेन्द्र यादव , सी  855, इंदिरा नगर ,लखनऊ -226016.  मो. 09415371872.  

इशरत जहाँ पर लाल्टू की एक कविता

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इशरत पर कविता लाल्टू ने लिख तो ली थी २००४ में ही पर छपी २००५ में, दैनिक भाष्कर में. किसी भी तात्कालिक घटना पर, वह भी इतने सेंसेटिव विषय पर कविता लिखना हमेशा खतरों से भरा होता है. खतरा दोनों स्तर पर होता है विषय के चुनाव के स्तर पर भी और कविता के स्तर पर भी कि कहीं यह तात्कालिक टिपण्णी बन कर न रह जाए. लाल्टू के कवि की सबसे बड़ी विशेषता है संजीदापन. यह संजीदापन महज भावुकता भरा नहीं है बल्कि विचारधारात्मक संजीदापन है, जो उनके किसी भी कविता में देखा जा सकता है, इस कविता में भी. तमाम खतरों के बावजूद कवि का कर्तव्य सताए जा रहे लोगों का पक्षधर होना है, भले ही इसके लिए बाद में उसे निर्मम आलोचना का ही सामना क्यों न करना पड़े. यह प्रतिबद्धता से आती है, क्योंकि प्रतिबद्धता ही पक्षधर होना भी सिखाती है और दूर तक देखने का हूनर भी देती है साथ ही महज पिच्चकारी से कविता को मुक्त भी रखती है. तभी तो यह कविता आज इशरत के लिए चल रहे न्याय की लड़ाई में शरीक होने के लिए हमें निमंत्रित भी कर रही है और हौसला भी बरज रही है. बहरहाल कविता को पढ़ें और आगे बढ़ें- राजीव कुमार 

'इशरत'



एक 

इशरत!
सुबह अँधेरे सड़क की नसों ने आग उगली 
तू क्या कर रही थी पगली !
लाखों दिलों की धड़कन बनेगी तू 
इतना प्यार तेरे लिए बरसेगा 
प्यार की बाढ़ में डूबेगी तू 
यह जान ही होगी चली! 
सो जा 
अब सो जा पगली.

दो 

इन्तज़ार है गर्मी कम होगी 
बारिश होगी 
हवाएँ चलेंगी 

उँगलियाँ चलेंगी 
चलेगा मन

इन्तज़ार है 
तकलीफें कागजों पर उतरेंगी 
कहानियाँ लिखी जाएँगी 
सपने देखे जाएँगे 

इशरत तू भी जिएगी 
गर्मी तो सरकार के साथ है .

तीन 


एक साथ चलती हैं कई सड़कें .
सड़के ढोती हैं कहानियाँ .
कहानियों में कई दुःख . 
दुखों का स्नायुतंत्र .
दुखों की आकाशगंगा
प्रवाहमान.

इतने दुःख कैसे समेटूँ 
सफ़ेद पन्ने फर-फर उड़ते .
स्याही फैल जाती है 
शब्द नहीं उगते. इशरत रे !


(साभार फेसबुक)

अराजनीति का दर्शन यथास्थितिवाद का दर्शन है !

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साहित्य ही नहीं समाज में भी 'नो पालिटिक्स प्लीज़' एक लुभावना और प्रचलित नारा बन गया है इधर. या यों कहें कि यह फ्रेज़ इन दिनों फैशन में है. अराजनीतिक होने को बेहतर होने की तरह देखा-सुना जा रहा है. विश्वविद्यालयों को राजनीति से मुक्त करने की कमान कुलपतियों और प्राध्यापकों ने संभाली है तो साहित्य से राजनीति को बाहर करने की कमान 'कला कला के लिए' के पुराने अलंबरदारों ने. ऐसे में 'अराजनीति की राजनीति' पर केन्द्रित कथन के इस अंक से हम सबको उम्मीद है कि पवित्र शब्दों के सहारे फैलाए जा रहे कुहासे को भेदने में यह अपनी भूमिका निभाएगा. अभी इसी अंक में प्रकाशित मेरा एक आलेख.

मैं बात की शुरुआत एडिनबर्ग वर्ड राइटर्स कांफ्रेंस, त्रिनिदाद में मुख्य वक्ता के तौर पर दिए गए ओलिव सीनियर के वक्तव्य से करना चाहूँगा. वह कहती हैं, “राजनीति! व्यग्रता इस पद के संकीर्ण उपयोग से पैदा होती है. हम अक्सर राजनीति को पार्टीगत राजनीति, चुनावी राजनीति, राजनैतिक नेतृत्व और इनसे जुड़े विवादों और टकरावों के रूप में समझाते हैं और इसीलिए बहुत से लोग यह कहते हुए इससे खुद को अलग करते हैं कि ‘मेरा राजनीति से कोई लेना-देना नहीं. ... लेकिन राजनीति अपनी बेहद आरम्भिक परिभाषा में ही राज्य चलाने की कला से जुडी है...मैं कहना चाहती हूँ कि देश की वृहत्तर राजनीति पालने से लेकर कब्र तक अपरिहार्य रूप से हमारा सबकुछ निर्धारित करती है. रोटी की क़ीमत या बंदूकों की उपलब्धता राजनीति तय करती है और यह भी कि कोई समृद्ध जीवन जियेगा या फिर किसी रिफ्यूजी कैम्प में सड़ेगा...वृहत्तर राजनीति उस दुनिया को जिसमें हम पैदा होते हैं और हमारे दैनंदिन पर्यावरण को निर्धारित करती है और उस ‘राजनीति’ के लिए रास्ता बनाती है जो जीवन के हर क्षण में हमारे उन व्यक्तिगत निर्णयों में अन्तर्निहित है जिन्हें लेने के लिए हम अचेतन या सचेतन तौर पर लेने के लिए बाध्य होते हैं.” इस अर्थ में देखा जाय तो ‘अराजनीति की जो राजनीति’ है वह दरअसल इस वृहत्तर राजनीति से लोगों को लगातार असम्बद्ध बनाते जाने की है.

किसी भी समय का प्रचलित सहजबोध दरअसल उस समय की वर्चस्वशाली राजनीतिक विचारधारा का उत्पाद होता है. यह सहजबोध रोज़-ब-रोज़ की ज़िन्दगी के विश्वासों, मनोरंजन के साधनों और साहित्य तथा संस्कृति में भी परिलक्षित होता है. ज़ाहिर है, एक धारा अगर राजनीतिक विचारधाराओं को खारिज़ करते हुए ‘कोई नृप होय हमें का हानि’ का जो दर्शन पेश करती है, तो वह असल में उस समय की वर्चस्वशाली विचारधारा के लिए पैदा हो रही चुनौतियों को खारिज़ कर रही होती है. इस रूप में अराजनीति का यह दर्शन वस्तुतः यथास्थितिवाद का दर्शन होता है. बड़े सामाजिक-राजनीतिक परिवर्तनों के दौर में साहित्य से लेकर दर्शन तक में इस तरह के विचार देखे जा सकते हैं. जब सामंतवाद की योरप से विदाई हो रही थी तो हमने बिशप बर्कले और इम्मानुएल कांट को अपने-अपने तरीके से यथास्थितिवाद को बनाए रखने के लिए संघर्ष करते ही नहीं देखा है बल्कि हेगल जैसे क्रांतिकारी दार्शनिक को भी अपने क्रांतिकारी दर्शन को प्रशा के शासक के राज्य की अप्रश्नेयता स्थापित करने के लिए उपयोग करते देखा है. यथास्थितिवाद परिवर्तन की संभावनाओं को रोकने के लिए हमेशा से ऐसे नए-नए उपकरण लाता रहा है जो प्रथम दृष्टया बहुत पवित्र और मासूम नज़र आते हैं लेकिन थोड़ा गहराई में जाकर विवेचना करने पर अपने नाखून और पंजो समेत साफ़ दिखाई देने लगते हैं. अराजनीति की राजनीति साम्राज्यवादी शासन व्यवस्था का हथियार है. यह दर्शन हवा में नहीं उपजा. अगर इतिहास में थोड़ा पीछे जाकर हम शीतयुद्धकालीन राजनीति को देखें तो अब सार्वजनिक रूप से उपलब्ध सी आई ए की फाइलों में ही वह पूरा सन्दर्भ मिल जायेगा जिसमें अराजनीति की राजनीति को प्रोत्साहित किया गया था.

रूसी क्रान्ति के बाद के दौर ने पूरी दुनिया को उद्वेलित किया था. खासतौर पर लेखकों और बुद्धिजीवियों के बीच समाजवाद एक विकल्प और प्रेरणास्रोत के रूप में सामने आया था. समाजवादी यथार्थवाद ने उन्हें आम जनता के दुःख-दर्द और उनसे मुक्ति के लिए संघर्ष की राह दिखाई थी. पूंजीवादी विश्व के भीतर भी लेखकों, कलाकारों, फिल्मकारों और विचारकों के बीच मार्क्सवाद बेहद प्रचलित होता जा रहा था. राजनीतिक और आर्थिक क्षेत्र में प्रभुसत्ता जमाये पूंजीपति वर्ग के लिए यह खतरे की घंटी थी. उसके लिए इसे बर्दाश्त करना मुमकिन न था. आरम्भ में दमन के सारे प्रयास किये गए.रूसी क्रांति के तुरत बाद १९१८ में अमेरिका में ओवरमैन कमिटी बनी थी जिसका काम अमेरिका के भीतर बोल्शेविक तत्वों की निगरानी था. इसी क्रम में १९३८ में बनी  अमेरिका की कुख्यात ‘हॉउस कमिटी आन अन-अमेरिकन एक्टिविटीज़’ का इतिहास सब जानते हैं जिसने वामपंथ की और झुकाव रखने वाले तमाम कलाकारों, लेखकों और बुद्धिजीवियों को काली सूची में डाल दिया, मुकदमें चले और सज़ाएँ भी हुईं. चार्ली चैपलिन, आर्सन वैलेस, पाल राबसन, बर्तोल्त ब्रेख्त जैसे तमाम लेखकों/ कलाकारों को अमेरिका छोड़ने पर मज़बूर कर दिया गया तो बिम्बर्मैन, डैशियल हेमलेट जैसे कितने ही कलाकार जेलों में सड़े.लेकिन इस दमन के बावज़ूद पूँजीवादी शोषण के खिलाफ जनता की राजनीतिक चेतना अमेरिका में ही नहीं पूरे योरप और तीसरी दुनिया के देशों में लगातार बढती गयी और मज़दूरों, किसानों और छात्रों के आंदोलन विस्तारित होते गए. दुनिया भर में फ़ैल रही इस प्रतिरोध की संस्कृति और उससे उपजी जनता की जनतांत्रिक तथा परिवर्तनकामी चेतना को दमन से रोका जाना संभव नहीं था. ऐसे में इसे कुंद करने के लिए साम्राज्यवाद ने नई चाल चली. यह साहित्य-संस्कृति-कला के क्षेत्र में अपनी विजय सुनिश्चित करने के लिए भेजा गया ‘ट्रोजेन हार्स’ था – कांग्रेस फार कल्चरल फ्रीडम’!

1949-50 के दौरान बर्लिन में मार्क्सवादियों की बहुतायत वाले लेखकों के एक शान्ति सम्मलेन से अलग होकर  कुछ लेखकों के जिस प्रयास को शुरुआत में एक लोकतांत्रिक पहल और लेखकीय अस्मिता की रक्षा जैसे भारी-भरकम विशेषणों से सुशोभित किया गया था वह असल में अमेरिका की गुप्तचर एजेंसी सी आई ए द्वारा वित्तपोषित अभियान निकला. जैसन एप्सटिन में ‘द सी आई ए एंड द इंटेलेक्चुअल्स’ में लिखा है कि 1950 के दशक में संगठित मार्क्सवाद विरोधी लेखन एक धंधा बन गया था. इसकी शाखाएं योरप, एशिया, अफ्रीका सहित सारी दुनिया में फ़ैली थीं और सी आई ए जो इसके लिए पैसे दे रही थी उससे रियायती दरों की पत्रिकाएं और किताबें सर्वत्र उपलब्ध थीं. लेकिन कांग्रेस फार कल्चरल फ्रीडम जैसी संस्था केवल मार्क्सवाद विरोधी साहित्य छापने या रूस से निकले/निकाले हुए कुछ लेखकों की ‘आपबीती’ को प्रसारित करने तक सीमित नहीं थी. इसने समाजवादी जीवन मूल्यों के बरक्स नए तरह के साम्राज्यवादी जीवन मूल्य तथा सांस्कृतिक आचरण के प्रचार-प्रसार करने तथा पूरी दुनिया में उसका वर्चस्व स्थापित करने का प्रयास किया. एप्सटिन आगे कहते हैं कि ‘सी आई ए और फोर्ड फाउंडेशन जैसी संस्थाओं ने ऐसे बुद्धिजीवियों को शीत युद्ध में अपनी वैचारिक स्थिति के समर्थन के लिए धन दिया, जिससे वह एक ऐसा विकल्प बना सकें जिसे ‘मुक्त बुद्धिजीवी बाज़ार’ कहा जा सकता है, जहाँ विचारधारा को निजी प्रतिभा और उपलब्धि से कमतर चीज़ समझा जाय और जहाँ स्थापित प्रतिबद्धताओं पर शक़ हर तलाश का प्रस्थान बिंदु हो...यह केवल लेखकों को खरीदने और अपने पक्ष में करने का मामला नहीं था, बल्कि स्वेच्छाचारी और कृत्रिम मूल्यों की स्थापना का प्रयास था.’  इसे समझने के लिए फ्रेंसिस स्टोनर सांडर्स की एक किताब ‘हू पेड द पाइपर्स : द सी आई एएंड द कल्चरल कोल्ड वारऔर उस पर मंथली रिव्यू में लिखी जेम्स पेट्रास की समीक्षा भी महत्वपूर्ण है. जेम्स लिखते हैं, ‘सी आई ए द्वारा वित्तपोषित इन बुद्धिजीवियों के बारे में विचित्र बात केवल उनकी राजनीतिक सम्बद्धता नहीं है बल्कि उनका यह बहाना भी है कि वे सत्य के निर्लिप्त शोधक हैं, मूर्तिभंजक मानवतावादी हैं, मुक्त बुद्धिजीवी या कला कला के लिए के साधक हैं.’ ये विशेषण आपको आज भारत में भी कला के हर क्षेत्र में सुनने को मिल जायेंगे. हिंदी साहित्य के वाम-विरोधी कैम्प में ‘स्वतंत्रता’ और ‘कला’ की यह चीख-पुकार आपको कांग्रेस फार कल्चरल फ्रीडम से सम्बद्ध रहे अज्ञेय से हमारे समय के कलावाद तथा विचारधारा विहीनता के सबसे बड़े प्रवक्ता अशोक वाजपेयी के यहाँ ही नहीं बल्कि एकदम नयी पीढ़ी के रचनाकारों में एकदम साफ़-साफ़ सुनाई देगी. उस दौर में इसका उपयोग अमेरिकी संस्कृति और राजनीति के वर्चस्व को स्थापित करने के लिए किया गया था और इसे एक हद तक हासिल भी किया गया. सांडर्स की पूर्वोद्धरित किताब में उन्होंने विस्तार से बताया है कि किस तरह समाजवादी यथार्थवाद के बरक्स अमूर्तन को एक उच्चतर कला-कसौटी की तरह पेश किया गया जिसमें राकफेलर सोसायटी ने अकूत धन लगाया. पेरिस में उनकी माँ द्वारा स्थापित कला दीर्घा अमूर्तन और प्रभाववादी कलाकारों को प्रोत्साहित करने का प्रमुख केंद्र बनी.माडर्न आर्ट पूरी तरह से सी आई ए का हथियार था. इस अभियान में अराजक अवाँ गार्द आन्दोलन से लेकर ग़ैर कम्यूनिस्ट समाजवादी आन्दोलनों को भी शामिल कर लिया गया. अराजनीति को स्वाधीनता का पर्याय बनाया जाना साम्राज्यवादी सत्ता के खिलाफ उठने वाली आवाजों को मद्धम और निराकार बना देने और इस रूप में यथास्थितिवाद को सुदृढ़ करने का महत्त्वपूर्ण औज़ार बना. यह यों ही नहीं है कि आज भी मार्क्सवादी प्रतिबद्धता के विरूद्ध इन्हीं तर्कों को हथियार बनाया जाता है. ज़ाहिर है अमूर्तन तथा विचारधाराहीनता के इन मूल्यों ने दुनिया भर के साथ-साथ भारत में भी अराजनीतिकरण को स्थापित करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है.   
भारतीय लोकतंत्र के सन्दर्भ में देखा जाय तो इन सांस्कृतिक नीतियों के साथ-साथ नब्बे के दशक के बाद के एकध्रुवीय विश्व और नवउदारवादी नीतियों का जनता के इस अराजनीतिकरण में भारी योगदान है. आजादी की लम्बी लड़ाई के दौरान उपनिवेशवाद से तीखे संघर्ष के दौर में विकसित हुई राजनीतिक चेतना को सबसे करारा झटका तो 1947 के साम्प्रदायिक विभाजन के दौरान ही लगा जब धर्मनिरपेक्षता और भाईचारे की वह नींव ही दरक गयी जिस पर इस आन्दोलन को ईंट दर ईंट खड़ा किया गया था. तीस के दशक से सक्रिय धार्मिक कट्टरपंथ राजनीतिक क्षेत्र में भले पैर न जमा पाया हो लेकिन समाज के भीतर उसका प्रभाव बढ़ता गया और शासन व्यवस्था में भले लोकतान्त्रिक संस्थाएं विकसित होती गयीं लेकिन समाज में सामंती मूल्य-मान्यताएं जड़ जमाए रहीं और जाति तथा जेंडर जैसी उत्पीड़क सामाजिक संरचनाओं का प्रभाव बना रहा. शीतयुद्ध के दौरान समाजवाद का जिस तरह का प्रभाव हमारे यहाँ था उसके चलते अस्सी के दशक तक एक तरह की सक्रिय और सकर्मक राजनीतिक चेतना स्पष्ट दिखाई देती है. साहित्य और संस्कृति के क्षेत्र में अमेरिकी साम्राज्यवाद के भरपूर प्रयास के बाद भी प्रतिबद्धता एक वर्चस्वशाली मूल्य की तरह स्थापित हुई. लेकिन नब्बे का दशक शुरू होते-होते अमेरिकी वर्चस्व राजनीति से लेकर अर्थनीति और साहित्य-संस्कृति के क्षेत्र में बिलकुल साफ शुरू होता है और इसी के साथ अराजनीतिकरण की प्रक्रिया भी. असल में नव उदारवादी मुक्त बाज़ार व्यवस्था का जो माडल संरचनात्मक पुनर्संयोजन के नाम से अपनाया गया वह अपने आप में लोकतंत्र के मूल मूल्यों के खिलाफ है. एरिक हाब्स्बामने अपने लेख ‘द प्रास्पेक्ट आफ डेमोक्रेसी’ में लिखा है कि ‘बाज़ार की संप्रभुता  आदर्श उदार लोकतंत्र के लिए पूरक नहीं है बल्कि इसका विकल्प है. वस्तुतः यह किसी भी तरह की राजनीति का विकल्प है क्योंकि यह किसी भी तरह के राजनैतिक निर्णय को खारिज़ करता है. राजनीतिक निर्णय शुद्ध रूप से निजी अधिमान्यताओं को पाने की कोशिश कर रहे व्यक्तियों के चुनावों, पसंदगियों या किसी अन्य चीज़  के योग से अलग सामूहिक हित या समान हितों से सम्बद्ध होते हैं.’ज़ाहिर है कि बाज़ार ऐसी किसी सामूहिकता की जगह व्यक्तिवाद को प्रोत्साहित करता है जहाँ चुनाव की आज़ादी का अर्थ केवल इस या उस उत्पाद में से किसी एक को चुनना होता है. यहाँ हर व्यक्ति एक उपभोक्ता है और इस रूप में अगर एक प्रसिद्ध उत्पाद की विज्ञापन पंक्तियों का सहारा लें तो ‘उसका गर्व पड़ोसी की इर्ष्या’ ही हो सकता है. ऐसे में हाब्स्बाम पाते हैं कि जो राष्ट्र राज्य की परिकल्पना पूँजीवाद के आरम्भिक दौर में जन्मी थी वह लगातार कमज़ोर होती चली जाती है. सुखवाद का एक ऐसा भ्रमजाल फैलता चला जाता है जहाँ मनुष्य किसी सामूहिकता से दूर लगातार अकेला... और अकेला होता जाता है. इसे हम आज अपने समाज में बहुत स्पष्ट तौर पर देख सकते हैं. सामूहिकता का यह लोप अंततः मनुष्य को अराजनीतिक उपभोक्ता और पूंजीपति के काम आने वाले मानव-संसाधन में तब्दील कर रहा है. जिसे आम तौर पर कैरियरवाद कहा जाता है, वह इसी लक्ष्य की ओर बढ़ता कदम है. यहाँ यह ज़िक्र भी समीचीन होगा कि राजनीतिक क्षेत्र में दक्षिणपंथ का वर्चस्व बढ़ने का भी दौर यही रहा है.
यही नहीं, हाब्सबाम दुनिया भर में पवित्र और अप्रश्नेय शासन व्यवस्था की तरह व्यवहृत उदार लोकतंत्र के दूसरे पहलुओं को भी प्रश्नांकित करते हैं. वह बताते हैं कि जहाँ सारी वयस्क जनता को मतदान का अधिकार इस लोकतंत्र में मिलता है, वहीँ सरकार के वास्तविक निर्णयों में जनता की कोई भूमिका नहीं होती. उदारता के इस आवरण में सरकारें लगातार वर्चस्वशाली आर्थिक वर्ग के हितों से संचालित होती हैं और उपलब्ध राजनैतिक विकल्पों में से प्रत्येक इसी काम को अलग-अलग नारों के साए में अंजाम देता है. यह लोकतंत्र कुल मिलाकर समर्थों के लोकतंत्र में तब्दील होता है जहाँ उन आवाजों की कोई सुनवाई नहीं होती जिनकी पहुँच सत्ता प्रतिष्ठानों तक नहीं होती. इसे भारत जैसे देश के सन्दर्भ में देखा जा सकता है, जहाँ जल-जंगल-ज़मीन की लूट ही नहीं जारी है बल्कि जनता का एक बड़ा तबका लगातार बदहाली का शिकार होता जा रहा है लेकिन लोकतंत्र में उसकी आवाज़ के लिए कोई जगह बनती नहीं दिखती और विकल्प के रूप में मौजूद राष्ट्रीय और प्रादेशिक दलों के बीच इस तरह की नीतियों को लेकर कोई अंतर्विरोध दिखाई नहीं देता. यह प्रक्रिया लम्बे समय में लोगों के मन में सत्ता व्यवस्था के लिए या तो एक उग्र प्रतिरोध के रूप में सामने आती है, जैसा माओवादी सशस्त्र विद्रोह के रूप में देखा जा रहा है, या फिर लोकतांत्रिक शासन व्यवस्था के प्रति उदासीनता के रूप में, जिसका ज़िक्र हाब्सबाम ने पूरे योरप में घटते हुए मतदान प्रतिशतों के रूप में किया है और भारत में भी यह देखा जा सकता है. यह उदासीनता और विकल्पहीनता ही ‘सारे चोर हैं’ जैसे हताश नारों में तब्दील होती है जो वस्तुतः सत्ता वर्ग के लिए अनुकूल ही है. वास्तविक और वृहत्तर राजनीति से उदासीन इस जनता के समक्ष सत्ता वर्ग जाति, धर्म और क्षेत्रीयता के सवालों को ज़ोर-शोर से उठाकर आर्थिक शोषण के सवाल को इसकी धूल-गर्द में दबाने की कोशिश करता है और इस तरह दक्षिणपंथी उभार की ज़मीन तैयार होती है.  
जनता के प्रतिरोध को भोथरा बनाने के लिए उनके अराजनीतिकरण और यथास्थितिवाद का सबसे ताज़ा हथियार हैं एन जी ओ. इन्हें वित्त उपलब्ध कराने वाली संस्थाओं का चरित्र वही है जो फोर्ड फाउन्डेशन जैसी संस्थाओं का था. पूंजीपतियों के फंड से समाजसेवा का दावा करने वाली इन संस्थाओं की असल भूमिका जनता के गुस्से को दबाने वाले सेफ्टी वाल्व की है. इन हालात में अगर हाल में हुए भ्रष्टाचार विरोधी आन्दोलन को देखेंगे तो यह स्पष्ट है कि नव उदारवादी नीतियों के चलते समाज में पैदा हुई विसंगतियों के चलते उपजे गुस्से के प्रतिफल इन आन्दोलनों के एजेंडे पर कोई मूलभूत परिवर्तन नहीं था. भ्रष्टाचारऔर काला धनजैसे मुद्दे सीधे-सीधे अपील करते हैं. जब हम नई आर्थिक नीतियों की बातें करते हैं तो वे इतनी लोक-लुभावन तरीके से नहीं की जा सकतीं. एक टैक्टिस के रूप में इन मुद्दों पर आन्दोलन शुरू तो किया जा सकता है लेकिन इस समस्या की जड में उपस्थित नवउदारवादी आर्थिक नीतियों के विकल्प की प्रस्तुति और उसे लागू करने वाली राजनीतिक व्यवस्था के निर्माण की लड़ाई ही इनके खिलाफ कोई फैसलाकुन लड़ाई हो सकती है. लेकिन ये आन्दोलन अपनी इच्छाशक्ति और अपनी वर्गीय संरचना के कारण कहीं से भी इस लक्ष्य की पूर्ति के लिए गंभीर नहीं दिखते और कुल मिलाकर भ्रष्टाचार विरोध के नारे के भीतर दरअसल पूंजीपतियों के एजेंडे को ही आगे बढाते हैं. यही वजह है कि ये आन्दोलन एक सीमा तक आगे बढ़ने के बाद भटक गए. यह भटकाव भी सत्ता व्यवस्था और पूंजीपति वर्ग के हित में है. लम्बे समय बाद सड़क पर उतरा मध्यवर्ग फिर एक हताशा से ग्रस्त है और यह दौर निर्मम नीतियों को बेरोकटोक लागू करने के लिए बिलकुल उचित है. इसके खिलाफ किसी बड़े आन्दोलन की कोई संभावना फिलहाल दिखाई नहीं दे रही.

ज़ाहिर है कि ये सारे हालात जनता की किसी सामूहिक पहलकदमी के खिलाफ हैं. कम्यूनिस्ट पार्टियाँ जिन्हें जनता के राजनीतिकरण और व्यापक तथा आमूलचूल परिवर्तनों का वाहक होना था वे अपने भरपूर प्रयासों के बावज़ूद कोई विकल्प देती नहीं दिखाई दे रहीं. इसकी वज़ह उनकी अक्षमता से अधिक इस तथ्य में ढूंढी जानी चाहिए कि क्या उनके पास इस नव-उदारवादी व्यवस्था का कोई संवहनीय विकल्प है? पूँजीवाद आज अपने उस रूप से पूरी तरह बदल चुका है जिसके खिलाफ़ शुरूआती दौर में लड़ाइयाँ लड़ी गयीं थी. आज वह एक मज़बूत और गतिशील व्यवस्था के रूप में ही सामने नहीं है बल्कि उसने सांस्कृतिक, राजनीतिक और आर्थिक क्षेत्र में पूरी तरह अपना प्रभुत्व स्थापित कर लिया है. ऐसे में जनता उसके खिलाफ किसी फैसलाकुन लड़ाई में तभी शामिल हो सकती है जब उसके सामने एक ऐसा विकल्प हो जो आज के पूँजीवाद की तुलना में बेहतर जीवन दे सकने की स्थिति में लगता हो. आज यह एक कटु सत्य है कि संसदीय तथा क्रांतिकारी वाम ऐसे किसी स्पष्ट विकल्प की रूपरेखा प्रस्तुत कर पाने में असफल हैं. इसीलिए सबसे बड़ी जिम्मेदारी यह है कि पूँजीवाद की निर्ममतम संभव आलोचना के साथ एक ऐसा मार्क्सवादी विकल्प तैयार किया जाय.
और यह जिम्मेवारी केवल राजनीतिक पार्टियों की नहीं बल्कि हम लेखकों, संस्कृतिकर्मियों, बुद्धिजीवियों, कलाकारों सभी की है कि संस्कृति और साहित्य से लेकर राजनीति तक में एक तरफ कलावाद और अराजनीति के नाम पर फलने-फूलने वाली ताक़तों और उनके षड्यंत्रों का पुरजोर मुकाबिला किया जाय तो दूसरी तरफ इस मानवविरोधी व्यवस्था के मानवीय विकल्पों के निर्माण में पूरी ताक़त के साथ लगा जाय. यह सवाल दरअसल मनुष्यता के अस्तित्व से जुड़ा हुआ है. 

अराजनीति के इस भयावह दौर में महेश्वर की ये पंक्तियाँ याद रखी जानी चाहिए - 

तुम मारे जाओगे
मारे जाओगे 
क्योंकि
जीवन में कहाँ सीखी तुमने
आदमी के अकेलेपन में
आदमी के साथ हिस्सा बँटाने की राजनीति! 

       

भूमंडलीय परिवर्तन का परिप्रेक्ष्य प्रदान करने वाली दो महत्त्वपूर्ण पुस्तकें

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 समीर अमीन की दो किताबों - 'द वर्ल्ड वी विश टू सी' और  'फ्राम कैपिटलिज्म टु सिविलाइजेशन' के बहाने वरिष्ठ कहानीकार तथा गंभीर अध्येता रमेश उपाध्याय ने पूँजीवाद के वर्चस्व जमाते जाने के साथ आये भूमंडलीय परिवर्तनों का मानीखेज़ अध्ययन किया है. यह लेख भारत भारद्वाज द्वारा संपादित 'पुस्तक वार्ता' के ताज़ा अंक में प्रस्तुत है. हम इसे जनपक्ष के पाठकों के लिए साभार प्रस्तुत कर रहे हैं.

रमेश उपाध्याय


समाजवाद के विरोधी कुछ भी कहें, जब तक दुनिया में पूँजीवाद है, तब तक समाजवाद के भविष्य पर विचार और पुनर्विचार चलता रहेगा। दुनिया में ऐसे विचारकों की कमी नहीं है, जो समाजवाद को आवश्यक और संभव मानते हैं तथा अपनी रचनाओं से समाजवाद की संभावनाओं पर विचार करने का एक सही परिप्रेक्ष्य भी प्रदान करते हैं। ऐसे विचारकों में अन्यतम हैं समीर अमीन।


मिस्र में 1931में जन्में समीर अमीन का बचपन पोर्ट सईद में बीता। पढ़ाई के लिए पेरिस गये और सोलह साल की उम्र में ही वहाँ के कम्युनिस्ट आंदोलन में शामिल हो गये। पढ़ाई पूरी करके 1957में काहिरा लौटे और आते ही मिस्र की कम्युनिस्ट पार्टी के सदस्य बन गये। अरब राष्ट्रवाद के नेता अब्दुल नासिर के शासनकाल में उन्होंने मिस्र के आर्थिक सलाहकार के रूप में काम शुरू किया। नासिर जवाहरलाल नेहरू की तरह प्रगतिशील विचारों के थे और नेहरू के साथ गुटनिरपेक्ष देशों के आंदोलन में शामिल थे। वे मिस्र की राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था को मजबूत बनाने के लिए सार्वजनिक क्षेत्र का विकास करने के हिमायती थे, लेकिन उनकी सरकार में ऐसे लोग भरे हुए थे, जो आमूल परिवर्तन की माँग करने वाले कम्युनिस्टों के विरोधी थे। अतः नासिर की तमाम प्रगतिशीलता के बावजूद उनकी सरकार के कई फैसले गैर-जनतांत्रिक किस्म के होते थे और उनकी कई योजनाएँ असफल हो जाती थीं।

अंततः नासिर की सरकार कम्युनिस्टों के दमन पर उतर आयी और समीर अमीन के कई मित्रों को जेल में डाल दिया गया। समीर किसी तरह बच निकले और 1960में उन्होंने पेरिस में शरण ली। 1963में वे अफ्रीकन इंस्टीट्यूट फार इकानामिक प्लैनिंग एंड डेवलपमेंटमें प्रोफेसर बने और 1970से 1980तक उसके निदेशक रहे। साथ ही वे कई अरब और अफ्रीकी देशों के आर्थिक सलाहकार भी रहे। 1997से वे वल्र्ड फोरम फाॅर आॅल्टरनेटिव्सनामक संस्था के संचालक तथा उसकी पत्रिका के संपादक हैं।

लेखक के रूप में यों तो समीर अमीन अपनी कई पुस्तकों के लिए प्रसिद्ध हैं, जैसे इंपीरियलिज्म एंड अनईवन डेवलपमेंट’, ‘यूरोसेंट्रिज्म’, ‘क्लास एंड नेशन’, ‘दि एंपायर आफ केआस’, ‘एंपायर एंड मल्टीट्यूड’, ‘बियोंड यू.एस. हेजेमनीइत्यादि  (वे स्वयं को स्वाधीन मार्क्सवादीकहते हैं और उनकी आत्मकथात्मक पुस्तक का नाम है अ लाइफ लुकिंग फारवर्ड: मेमायर्स आॅफ एन इंडिपेंडेंट मार्क्सिस्ट’),  लेकिन आज की दुनिया में परिवर्तन के परिप्रेक्ष्य को स्पष्ट करने वाली उनकी छह पुस्तकों की शृंखला विशेष रूप से प्रसिद्ध है।

सोवियत संघ के विघटन के बाद हुए पूँजीवादी भूमंडलीकरण से दुनिया में जो परिवर्तन हुए हैं, उनके कारणों और संभावित परिणामों पर विचार करते हुए समीर अमीन ने क्रमशः छह पुस्तकें लिखी हैं, जिनके पीछे एक साझा विचार-सूत्र यह रहा है कि आज मानव सभ्यता के समक्ष जो चुनौतियाँ उपस्थित हैं, उनको कैसे पहचाना जाये और कैसे विश्लेषित किया जाये। समीर अमीन अपनी इन सभी पुस्तकों में आज के बर्बरतापूर्ण पूँजीवाद या साम्राज्यवाद का मानववादी विकल्प खोजते और बताते दिखायी पड़ते हैं। अतः आज जो लोग एक बेहतर दुनिया का सपना देखते हैं और उसे साकार करने के लिए प्रयत्नशील हैं, उनके बीच ये पुस्तकें बहुत लोकप्रिय हुई हैं। मैं इन पुस्तकों का संक्षिप्त परिचय देने के बाद उनकी दो पुस्तकों पर विस्तार से विचार करूँगा।

पहली पुस्तक स्पेक्टर्स आफ कैपिटलिज्म’ (1998) में समीर अमीन ने अपने मार्क्सवादी होने को परिभाषित करते हुए कहा था कि मार्क्सवादी वह है, जिसका प्रस्थान-बिंदु मार्क्स हैं, लेकिन वह मार्क्स पर ही अथवा लेनिन और माओ पर ही रुका नहीं रह जाता। इस संदर्भ में उन्होंने ऐतिहासिक भौतिकवाद को एक नये ढंग से पढ़ने का प्रस्ताव किया था, जो दृष्टांतों की स्वायत्ततापर आधारित होगा, क्योंकि दृष्टांत अपने ही एक आंतरिक तर्क के आधार पर विकसित होते हैं और आज जो इतिहास हमारे सामने है, उसका निर्माण करते हैं। समीर अमीन के अनुसार इतिहास कोई स्थिर, स्थायी अथवा निर्विकल्प वस्तु नहीं है। इतिहास में हमेशा विभिन्न संभावनाएँ मौजूद रहती हैं। अतः इतिहास पर निरंतर पुनर्विचार करना तथा निरंतर उसका पुनर्लेखन किया जाना जरूरी है। अन्य इतिहासों की तरह पूँजीवाद के इतिहास पर भी यह बात लागू होती है।

दूसरी पुस्तक आब्सोलेसेंट कैपिटलिज्म(2003) में समीर अमीन ने बीसवीं सदी के अंतिम और इक्कीसवीं सदी के पहले दशक के बीस वर्षों में स्थापित नये पूँजीवाद का अपना अध्ययन प्रस्तुत करते हुए सिद्ध किया कि पूँजीवाद पुराना पड़ चुका है, बेकार हो चुका है और इसकी जगह दुनिया में जब तक एक बेहतर व्यवस्था कायम नहीं हो जाती, तब तक यह मनुष्य, प्रकृति और समूची जनसंख्याओं के विनाश का कारण बना रहेगा। पूँजीवाद के समर्थक कुछ भी कहें, वह अपने विकास की समस्त संभावनाएँ खोकर एक मृत और जड़ व्यवस्था बन चुका है, जिससे आज की दुनिया में तरह-तरह की बीमारियाँ और महामारियाँ फैल रही हैं।

तीसरी पुस्तक दि लिबरल वायरस’ (2004) में आधुनिक काल की राजनीतिक संस्कृति पर विचार करते हुए समीर अमीन यूरोपीय और अमरीकी राजनीतिक संस्कृति की भिन्नता को सामने लाते हैं। उनके विचार से यूरोप की राजनीतिक संस्कृति वामपंथ और दक्षिणपंथ के परस्पर-विरोध पर आधारित है, इसलिए यूरोपीय राजनीति की विशेषता यह रही है कि उसका एक रूपांतरकारी पक्ष हमेशा मौजूद रहा है; जबकि अमरीका की राजनीतिक संस्कृति कंसेंसस’ (सहमति) पर आधारित होने के कारण राजनीति के रूपांतरकारी पक्ष को नष्ट कर देती है। लेकिन अब यूरोप की राजनीतिक संस्कृति का भी अमरीकीकरण हो गया है और उदारवाद का वायरस सर्वत्र फैल रहा है।

चौथी पुस्तक बियोंड यू.एस. हेजेमनी’ (2006) में दुनिया की एकध्रुवीयता की धारणा का खंडन करते हुए उसकी बहुधु्रवीयता की जरूरत पर जोर दिया गया है। अमरीका के भूमंडलीय वर्चस्व, उसकी आर्थिक तथा सैनिक शक्ति, उसके साम्राज्यवादी इरादों और अखिल भूमंडल पर शासन करने के मंसूबों और प्रयासों पर विचार करते हुए समीर अमीन एकध्रुवीयता का विरोध और बहुधु्रवीयता का समर्थन करते हुए बताते हैं कि इससे दुनिया के जनगणों को वे जरूरी हाशिये हासिल होंगे, जिनमें क्रांतिकारी प्रगति की संभावना होगी।

पाँचवीं पुस्तक दि वर्ल्ड वी विश टु सी(2008) में समीर अमीन ने दुनिया में अब तक चले समाजवादी आंदोलनों, अब तक हुई समाजवादी क्रांतियों और उनके बाद बनी व्यवस्थाओं की सीमाओं की आलोचना की है और पूँजी के भूमंडलीय आधिपत्य के विरुद्ध ‘‘जनगण के अंतरराष्ट्रीयतावाद’’ के निर्माण की जरूरत पर जोर देते हुए उसकी संभावनाओं पर विचार किया है।

छठी पुस्तक फ्राम कैपिटलिज्म टु सिविलाइजेशन(2010), जिसका उपशीर्षक  रिकंस्ट्रक्ंिटग दि सोशलिस्ट पर्सपेक्टिवहै, इक्कीसवीं सदी में समाजवाद के लिए किये जाने वाले संघर्ष की रणनीति पर विचार करते हुए बताती है कि दुनिया में अब तक रहे विभिन्न प्रकार के समाजवादों से इक्कीसवीं सदी का समाजवाद भिन्न होगा।

भूमंडलीय परिवर्तन के परिप्रेक्ष्य और उसकी संभावना को समझने के लिए पाँचवीं और छठी दोनों पुस्तकों को एक साथ पढ़ना अधिक उपयोगी हो सकता है। अतः मैं इन दोनों पर किंचित् विस्तार से विचार करना चाहता हूँ।

दि वर्ल्ड वी विश टु सी

इस पुस्तक की मूल स्थापना यह है कि ‘‘पूँजीवाद एक विश्व-व्यवस्था है, अतः इसके शिकार लोग इसकी चुनौतियों का सामना भूमंडलीय स्तर पर संगठित होकर ही कर सकते हैं।’’ लेकिन इसके लिए दुनिया के विभिन्न जनगणों के बीच जो अंतरराष्ट्रीय एकजुटता होनी चाहिए, उसमें पूँजी का भूमंडलीय विस्तार और उससे जुड़ा असमान विकास हमेशा मुश्किलें पैदा करता रहा है। इसी कारण पूँजीवाद को अभी तक कोई गंभीर चुनौती नहीं दी जा सकी है और उसका प्रभुत्व कायम है। प्रश्न यह है कि इस विश्व-व्यवस्था को बदलने के लिए दुनिया के विभिन्न जनगणों के बीच एकजुटता कैसे हो। प्रस्तुत पुस्तक में समीर अमीन ने इसी प्रश्न पर विचार किया है और एक वैकल्पिक बेहतर दुनिया बनाने के उपाय भी सुझाये हैं।


यदि पूँजीवाद एक विश्व-व्यवस्था है, तो समाजवाद भी एक विश्व-व्यवस्था ही है। आज की शब्दावली में कहें, तो यदि पूँजीवादी भूमंडलीकरण संभव है, तो समाजवादी भूमंडलीकरण भी संभव है। यह कोई नया विचार नहीं है और समाजवादी विश्व-व्यवस्था बनाने के प्रयास भी नये नहीं हैं। उनका एक इतिहास है। यह अंतरराष्ट्रीयतावाद का तथा इंटरनेशनलनामक संगठनों का इतिहास है। अतः प्रस्तुत पुस्तक में समीर अमीन पहले इस इतिहास को ही सामने लाते हैं, ताकि वर्तमान परिस्थिति में उससे जरूरी सबक लिये जा सकें।

पहला इंटरनेशनल’ (1864-76) बनने से पहले यूरोप में लीग आॅफ जस्टनामक एक संगठन बना था, जिसका नारा था ‘‘सभी आदमी भाई हैं’’। जब 1847में माक्र्स और एंगेल्स उस संगठन में शामिल हुए, तो उसका पुनर्गठन किया गया। उसका नाम बदलकर लीग आॅफ कम्युनिस्टरखा गया और नारा दिया गया--‘‘दुनिया के मजदूरो एक हो!’’ माक्र्स-एंगेल्स ने इसके लिए 1848में एक घोषणापत्र लिखा, जो आज सारी दुनिया में कम्युनिस्ट घोषणापत्रके नाम से विख्यात है। इसके अनुसार पूँजीपति और सर्वहारा दो ऐसे वर्ग हैं, जो राष्ट्रीय होने के साथ-साथ अंतरराष्ट्रीय भी हैं।
अतः साम्यवादी समाज बनाने के लिए सर्वहारा वर्ग को स्थानीय पूँजीपति वर्ग के विरुद्ध संघर्ष करने के साथ-साथ अंतरराष्ट्रीय पूँजीपति वर्ग के विरुद्ध भी संघर्ष करना होगा और इन दोनों प्रकार के संघर्षों में कोई अंतर्विरोध नहीं है। इस विचार को व्यावहारिक रूप देने के लिए 1864में इंटरनेशनल वर्किंगमैन्स एसोसिएशन’ (अंतरराष्ट्रीय श्रमिक संघ) नामक एक संगठन बना, जिसमें माक्र्स और एंगेल्स ने नेतृत्वकारी भूमिका निभायी। यह पहला इंटरनेशनलकहलाता है। यह संगठन यूरोप में हुई औद्योगिक क्रांति से उत्पन्न विभिन्न देशों के सर्वहारा वर्ग को--अर्थात् उसके विभिन्न दलों, संगठनों तथा आंदोलनों को--आपस में जोड़ने का एक प्रयास था। हालाँकि यह साम्यवादियों का संगठन था, पर इसमें अन्य विचारधाराओं वाले दल, संगठन और आंदोलन भी शामिल थे। दूसरे शब्दों में, इसमें ‘‘विविधता के लिए जनतांत्रिक आदर’’ का सिद्धांत अपनाया गया था। समीर अमीन का कहना है कि आज के समय में अंतरराष्ट्रीय एकजुटता के लिए इससे एक जरूरी सबक सीखा जा सकता है।

दूसरा इंटरनेशनल’ (1889-1914) बिलकुल भिन्न सिद्धांतों पर आधारित था। इसमें जो दल और संगठन शामिल थे, वे अंतरराष्ट्रीयतावाद पर कम और राष्ट्रवाद पर ज्यादा जोर देते थे। राष्ट्रवाद का समर्थन करते-करते वे साम्राज्यवाद का समर्थन करने लगते थे। मसलन, यदि उनका देश साम्राज्यवादी है, तो वे साम्राज्यवाद को यह कहकर उचित ठहराते थे कि इससे उपनिवेशों के जनगणों को उनके पिछड़ेपनसे निकालकर पूँजीवादी आधुनिकता के दायरे में लाया जा सकता है और वहाँ से उन्हें समाजवादी दिशा में आगे बढ़ाया जा सकता है। वे इसी को प्रगतिमानते थे। मगर इतिहास ने उन्हें गलत साबित किया।

दूसरे इंटरनेशनलकी दूसरी बड़ी खामी यह थी कि इसमें ‘‘विविधता के लिए जनतांत्रिक आदर’’ के सिद्धांत को छोड़कर अंतरराष्ट्रीय एकजुटता के लिए ‘‘एक देश में एक ही पार्टी सही हो सकती है’’ का संकीर्णतावादी सिद्धांत अपनाया गया और सबसे सही लाइनलेकर चलने वाली पार्टी को ही संगठन में शामिल करने पर जोर दिया गया। इससे अंतरराष्ट्रीयतावाद मजबूत होने के बजाय कमजोर हुआ और साम्यवादी आंदोलन में जो संकीर्णतावादी प्रवृत्तियाँ पैदा हुईं, वे पूँजीवाद और साम्राज्यवाद की सहायक सिद्ध हुईं।

तीसरे इंटरनेशनल’ (1919-1943) में साम्राज्यवाद के विरुद्ध मजदूर वर्ग की अंतरराष्ट्रीय एकजुटता पर जोर देकर दूसरे इंटरनेशनलकी खामियों को दूर करने की कोशिश की गयी। लेकिन ‘‘सारी दुनिया के मजदूरों’’ की एकता के सिद्धांत को व्यावहारिक रूप देने में एक दिक्कत यह थी कि पश्चिमी देशों में हुई औद्योगिक क्रांति से जैसा मजदूर वर्ग वहाँ पैदा हुआ था, पूर्व के देशों में नहीं था, जहाँ औद्योगिक क्रांति नहीं हुई थी। अतः ‘‘पश्चिम के मजदूरों’’ और ‘‘पूर्व के किसानों’’ को एक करने की नीति अपनायी गयी और फिर उनमें ‘‘दुनिया के तमाम देशों के उत्पीड़ितों’’ को भी जोड़कर अंतरराष्ट्रीयतावाद के दायरे का विस्तार किया गया।

लेकिन तब तक दुनिया पूँजीवादी और समाजवादी दो खेमों में बँट चुकी थी और समाजवादी खेमे का नेतृत्व दुनिया का पहला समाजवादी देश सोवियत संघ कर रहा था। इस परिस्थिति में तीसरे इंटरनेशनलको ‘‘सारी दुनिया में समाजवाद’’ की जगह ‘‘एक देश में समाजवाद’’ के सिद्धांत को अपनाकर तथा पूँजीवादी खेमे के विरुद्ध समाजवादी खेमे के पक्ष में खड़े होकर ‘‘प्रथम समाजवादी देश’’ को तथा पूरे समाजवादी खेमे को बचाने की नीति पर चलना पड़ा। इससे कई देशों के साम्यवादी दल ही नहीं, स्वयं सोवियत संघ में त्रात्स्की जैसे नेता भी सहमत नहीं थे। इसी मतभेद के चलते त्रात्स्की ने 1938में चैथे इंटरनेशनलकी स्थापना की, लेकिन वह चल नहीं सका।

उस समय एशिया, अफ्रीका और लैटिन अमरीका के अनेक नव-स्वतंत्र देश, जो औपनिवेशिक शासन से मुक्त होकर अपना स्वाधीन विकास करना चाहते थे, इस या उस खेमे में शामिल होने के बजाय दुनिया की एकध्रुवीयताके विरुद्ध बहुध्रुवीयतामें अपना हित देख रहे थे, ताकि वे दोनों खेमों से मोल-तोल कर सकें। इसके लिए 1955में एशिया और अफ्रीका के देशों का एक सम्मेलन बांडुंग में हुआ, जिससे गुटनिरपेक्ष आंदोलनका आरंभ हुआ। इसके नेताओं में भारत के नेहरू और मिस्र के नासिर जैसे लोग थे। इन देशों ने अपने आर्थिक विकास के लिए पूँजीवादी और समाजवादी तरीकों में से कोई एक तरीका चुनने के बजाय मिश्रित अर्थव्यवस्थावाला तरीका अपनाया, जो काफी हद तक सफल रहा। फिर 1966में हवाना में एशियाई, अफ्रीकी और लैटिन अमरीकी देशों का एक सम्मेलन हुआ, जिसमें से पुराने इंटरनेशनलोंकी तर्ज पर एक ट्राइकांटिनेंटलनामक गठबंधन बना। उधर शीतयुद्ध के चलते पूँजीवादी और समाजवादी दोनों खेमों की कोशिश यह थी कि इन देशों को आर्थिक और तकनीकी सहायता देकर अपनी ओर खींचा जाये। इससे गुटनिरपेक्ष आंदोलन में एक प्रकार का अवसरवाद पैदा हुआ और उसके नेताओं में सिद्धांतहीन समझौते करने की प्रवृत्ति बढ़ी।

शीतयुद्ध में पूँजीवादी खेमे की सफलता यह रही कि उसने गुटनिरपेक्ष देशों को पूँजीवादी विकासके रास्ते पर डाल दिया, जिसका नतीजा यह हुआ कि इन देशों में स्वाधीनता की जगह परनिर्भरता की, जनतंत्र की जगह तानाशाही की, मिश्रित अर्थव्यवस्था की जगह एकाधिकारी पूँजीवाद को बढ़ावा देने की, सार्वजनिक क्षेत्र को सीमित करके निजी क्षेत्र को बढ़ाने आदि की प्रवृत्तियाँ पैदा हुईं। यही कारण था कि जब सोवियत संघ का विघटन हो जाने पर पूँजीवादी खेमे ने शीतयुद्ध में स्वयं को विजयी घोषित करते हुए कहा कि दुनिया एकध्रुवीयहो गयी है और अब सारी दुनिया में हमेशा पूँजीवाद ही चलेगा, तो इन देशों के पास इसे सच मानकर पूँजीवाद से समझौता कर लेने तथा साम्राज्यवाद के आगे घुटने टेक देने के सिवा कोई चारा नहीं रहा। इसी परिस्थिति में निजीकरण और उदारीकरण की नीतियों वाला वह पूँजीवादी भूमंडलीकरण शुरू हुआ, जो आज सारी दुनिया का भयानक सिरदर्द बना हुआ है।

फिर भी समीर अमीन 1955से 1980तक के समय को ‘‘संघर्षों के प्रथम भूमंडलीकरण’’ का समय मानते हैं, जिसमें ‘‘पूँजीवाद के इतिहास में पहली बार पृथ्वी के प्रत्येक क्षेत्र में और प्रत्येक राष्ट्र के अंदर ऐसे संघर्ष हुए, जिन्होंने पूँजीवाद के विकास की दिशा में परिवर्तन का आरंभ किया’’। इस दौरान केंद्रके देशों ने परिधिके देशों की माँगों से अपना समायोजन किया, लेकिन 1980के बाद इसका उलटा होने लगा। अर्थात् परिधि के देश केंद्र के देशों की माँगों के अनुसार अपना समायोजन करने लगे। मगर जल्दी ही तथाकथित उभरते हुए देशों (खासकर चीन, भारत और ब्राजील) में राष्ट्रीय पूँजीवादी विकास की संभावनाएँ पैदा हो गयीं और दुनिया की एकध्रुवीयता का दावा खोखला मालूम होने लगा।

समीर अमीन ने गुटनिरपेक्ष आंदोलन को निकट से देखा है और तीसरी दुनिया के अनेक देशों के आर्थिक सलाहकार के रूप में इस यथार्थ को बखूबी समझा है कि गुटनिरपेक्षता सच्ची गुटनिरपेक्षता नहीं थी। इतना ही नहीं, पूँजीवादी और समाजवादी नाम के जो खेमे थे, उनमें समाजवादी खेमा भी सच्चा समाजवादी नहीं था, क्योंकि उसमें समाजवाद के नाम पर जो व्यवस्था बनायी गयी, वह एक प्रकार की पूँजीवादी व्यवस्था ही थी, जिसे स्टेट कैपिटलिज्म’ (राज्य का पूँजीवाद) कहा जा सकता है। दूसरे, स्वयं को समाजवादी कहने वाले इन देशों ने भी विकास का वही माॅडल अपनाया, जो पूँजीवादी देशों ने तीसरी दुनिया के देशों के सामने रखा था। वह माडल मानो यह कहता था कि केंद्रके देश विकास की दौड़ में आगे निकल चुके हैं और परिधिके देशों को अब अपना विकास करके उनके समकक्ष पहुँचना है।

समाजवादी तथा गुटनिरपेक्ष आंदोलन वाले देशों को समझना चाहिए था कि विकास का यह रास्ता पूँजीवादी रास्ता है, जिस पर चलकर वे कभी भी उन देशों के समकक्ष नहीं पहुँच पायेंगे। उनके सामने विकल्प यह था कि वे कुछ और करें। अर्थात् पूँजीवादी रास्ते से भिन्न किसी और रास्ते पर चलकर समाजवाद का निर्माण करें। समीर अमीन इसे ‘‘कैचिंग अप’’ (समकक्ष पहुँचने) और ‘‘डूइंग समथिंग एल्स’’ (कुछ और ही करने) में से एक को चुनने की स्थिति बताते हुए कहते हैं कि समाजवादी और गुटनिरपेक्ष दोनों तरह के देशों ने अपने विकास के लिए ‘‘कुछ और ही करने’’ के बजाय ‘‘समकक्ष पहुँचने’’ वाला तरीका चुना। इसी का परिणाम है सोवियत संघ का विघटन और पूँजीवादी भूमंडलीकरण।

आज समाजवाद की ओर जाने वाला रास्ता लंबा और कठिन है, जबकि पूँजीवादी विकल्प चुनना आसान; लेकिन इन दोनों के बीच का संघर्ष समाप्त नहीं हो गया है। समीर अमीन के विचार से ‘‘सभ्यताओं का संघर्ष’’ वास्तव में समाजवाद और पूँजीवाद के बीच का संघर्ष है और यह संघर्ष परिधिके अधीनस्थ देशों में ही नहीं, बल्कि केंद्रके प्रभुत्वशाली देशों में भी लगातार चल रहा है। माओ ने इस वैश्विक या भूमंडलीय संघर्ष की सही परिकल्पना की थी और इससे निकलने वाले निष्कर्षों को एक चीनी ढंग की अद्भुत सूक्ति में इस प्रकार पिरोया था कि ‘‘देशों को स्वाधीनता चाहिए, राष्ट्रों को मुक्ति चाहिए, और जनगण को क्रांति चाहिए’’। लेकिन भूमंडलीय पूँजीवाद का भूमंडलीय समाजवाद में रूपांतरण एक लंबी--बहुत लंबी--प्रक्रिया है, यह बात उन लोगों, दलों और संगठनों को याद रखनी चाहिए, जो समाजवादी क्रांति को अविलंब आवश्यक और संभव मानते हैं। दूसरी तरफ यह बात उन लोगों को भी याद रखनी चाहिए, जो इस रूपांतरण को अनावश्यक और असंभव मानते हैं।

भूमंडलीय पूँजीवाद का भूमंडलीय समाजवाद में रूपांतरण क्यों आवश्यक और संभव है, इसके कारण बताते हुए समीर अमीन कहते हैं कि सोवियत संघ के विघटन और पूँजीवादी भूमंडलीकरण से एक नया युग शुरू हुआ है, जिसने सारी दुनिया के सामने नयी चुनौतियाँ पेश कर दी हैं। इस नये युग की शुरुआत के साथ दूसरे विश्वयुद्ध के बाद दुनिया में बनी तीनों प्रभुत्वशाली व्यवस्थाओं--अर्थात् पूँजीवादी (कल्याणकारी राज्य वाली व्यवस्था), समाजवादी (सोवियत संघ वाली व्यवस्था) और राष्ट्रीय-लोकवादी (तीसरी दुनिया के नव-स्वतंत्र देशों वाली व्यवस्था)--का अस्तित्व समाप्त हो गया है। इनकी जगह नव-उदार पूँजीवाद की जो भूमंडलीय व्यवस्था बनी है, उसमें उत्पादन का तरीका, श्रम का स्वरूप और सामाजिक वर्गों तथा समूहों का स्तरविन्यास बदल गया है।

इससे सामाजिक रूपांतरण के लिए किये जाने वाले स्थानीय तथा भूमंडलीय संघर्षों के लिए नयी चुनौतियाँ और साथ ही नयी संभावनाएँ भी पैदा हो गयी हैं। चुनौतियों में सबसे बड़ी चुनौती यह है कि खत्म होता पूँजीवाद संपूर्ण मानवता का शत्रु बन गया है। हालाँकि संपूर्ण भूमंडल पर अपना प्रभुत्व स्थापित करने की उसकी नव-उदारवादी परियोजना सफल होने वाली नहीं है; क्योंकि वह तर्कहीन, ऊलजलूल और अयथार्थ है; फिर भी पूँजीवादी भूमंडलीकरण के रूप में वह सारी दुनिया में जोर-शोर से चलती नजर आ रही है। कारण यह है कि इससे पहले की तीनों व्यवस्थाएँ--कल्याणकारी राज्य वाली व्यवस्था, सोवियत संघ वाली व्यवस्था और राष्ट्रीय-लोकवादी व्यवस्था--ध्वस्त हो चुकी हैं। इसी कारण दुनिया को देखने, समझने और व्यवस्थित रखने के अब तक के तमाम तौर-तरीके पुराने और लगभग बेकार हो चुके हैं। उदाहरण के लिए, अब मूल अंतर्विरोध पूँजीपति और सर्वहारा के बीच नहीं रहा, बल्कि पूँजीवाद और संपूर्ण मानवता के बीच का हो गया है, क्योंकि पूँजीवाद संपूर्ण मानवता के अस्तित्व के लिए खतरा बन गया है।

समीर अमीन इसे पूँजीवाद के लुप्तप्रायहोने की अवस्था कहते हैं। उनके अनुसार पूँजीवाद का कोई भविष्य नहीं है, सिवा इसके कि वह एक दूसरी दुनिया के लिए रास्ता छोड़ दे, जिसका निर्माण संभव है। लेकिन वह स्वतः ही दूसरी दुनिया के लिए रास्ता छोड़कर हट जायेगा, इसकी संभावना नहीं है। वह खुद तो डूबेगा ही, संपूर्ण मानवता, प्रकृति और पृथ्वी को भी ले डूबेगा। अतः उसके लुप्तप्रायहोने का यह अर्थ नहीं है कि वह स्वतः ही लुप्त हो जायेगा। इसका अर्थ यह है कि उसकी जगह एक दूसरी, बेहतर दुनिया संभव है और उसको संभव करने के लिए इस लुप्तप्राय पूँजीवाद को हटाना जरूरी है और उसे हटाने के लिए संपूर्ण मानवता को एक लंबी और कठिन लड़ाई लड़नी होगी।

जाहिर है, यह लड़ाई दुनिया के किसी एक देश या कुछ देशों में, अथवा किसी एक क्षेत्र या कुछ क्षेत्रों में नहीं, बल्कि सारी दुनिया में लड़ी जायेगी और पूँजीवादी विश्व-व्यवस्था की जगह एक नयी विश्व-व्यवस्था कायम करने के लिए लड़ी जायेगी।  उस नयी विश्व-व्यवस्था का नाम, जब वह बनेगी, कुछ और भी हो सकता है, लेकिन फिलहाल उसका नाम समाजवाद ही है। अतः यह लड़ाई भूमंडलीय पूँजीवाद के विरुद्ध भूमंडलीय समाजवाद के लिए लड़ी जाने वाली लड़ाई है। और यह लड़ाई आज की दुनिया में सर्वत्र विभिन्न प्रकार के अनेक दलों, संगठनों तथा आंदोलनों के द्वारा लड़ी जा रही है।

इतना ही नहीं, दुनिया भर के इन दलों, संगठनों और आंदोलनों को आपस में जोड़ने की एक प्रक्रिया भी शुरू हो गयी है, जिसका सबसे स्पष्ट रूप वल्र्ड सोशल फोरममें दिखायी दे रहा है। हालाँकि इसका नाम इंटरनेशनलनहीं है, लेकिन यह उसी तरह का एक अंतरराष्ट्रीयतावादी प्रयास है। फर्क, जो वर्तमान परिस्थिति की भिन्नता से पैदा हुआ है, यह है कि ‘‘दुनिया के मजदूरो एक हो!’’ की जगह यह लुप्तप्रायपूँजीवाद के विरुद्ध संपूर्ण मानवता के एक होने का आह्वान कर रहा है। समीर अमीन ने प्रस्तुत पुस्तक में ‘वर्ल्ड सोशल फोरमके बारे में विस्तार से विचार किया है तथा उसकी संभावित शक्तियों और सीमाओं को स्पष्ट किया है।

समीर अमीन की यह पुस्तक उस उथल-पुथल को समझने में काफी सहायक है, जो आज बृहत्तर मध्य-पूर्व के क्षेत्र में जारी है। इसमें दिखाया गया है कि इस क्षेत्र में तीन शक्ति-समूहों के बीच राजनीतिक संघर्ष चल रहा है। एक वे, जो अपने राष्ट्रवादी अतीत की दुहाई देते हैं, लेकिन वास्तव में राष्ट्रीय-लोकवादी युग (जैसे भारत के नेहरू युगकी तरह मिस्र में नासिर युग’) की नौकरशाहियों के पतनशील तथा भ्रष्ट उत्तराधिकारी हैं। दूसरे वे, जो राजनीतिक इस्लाम की दुहाई देते हैं। और तीसरे वे, जो आर्थिक उदारवाद से मेल खाने वाली जनतांत्रिकमाँगों के आधार पर स्वयं को संगठित करते हैं। (‘‘जनतंत्र की माँग’’ पिछले दिनों मिस्र तथा अन्य अरब-अफ्रीकी देशों में तानाशाहियों के विरुद्ध चले आंदोलनों में देखने में आयी। लेकिन ये आंदोलन अपनी वांछित परिणति, अर्थात् जनतांत्रिक व्यवस्था की स्थापना तक नहीं पहुँच सके।) वाम भी एक चौथे शक्ति-समूह के रूप में वहाँ मौजूद है, लेकिन वह कमजोर है। वाम चूँकि आम जनता के हितों को ध्यान में रखता है, इसलिए उक्त तीनों शक्ति-समूहों में से कोई भी अपनी सत्ता मजबूत कर ले, यह उसे स्वीकार नहीं है। उसे मालूम है कि ये तीनों शक्ति-समूह उन कंप्राडोर वर्गों का हित-साधन करते हैं, जो वर्तमान साम्राज्यवादी व्यवस्था से जुड़े हुए हैं। अमरीकी कूटनीति अपने लाभ के लिए इन तीनों शक्ति-समूहों को आपस में लड़ाती रहती है।

बृहत्तर मध्य-पूर्व के शासक कमोबेश अमरीका के हाथ की कठपुतली हैं। लेकिन वहाँ के वाम की दिक्कत यह है कि वह इन शासकों के विरुद्ध उक्त तीनों शक्ति-समूहों से गठबंधन नहीं कर सकता, इसलिए इनके मुकाबले शासकों को बेहतर समझता है। समीर अमीन के विचार से वहाँ वाम को आम जनता के आर्थिक और सामाजिक हितों की रक्षा के लिए, जनतंत्र के लिए तथा राष्ट्रीय संप्रभुता के लिए संघर्ष चलाना चाहिए। ये तीनों चीजें परस्पर अभिन्न रूप से जुड़ी हुई हैं।
बृहत्तर मध्य-पूर्व का क्षेत्र आज केंद्रीय महत्त्व का क्षेत्र इस अर्थ में है कि वहाँ जो संघर्ष हो रहा है, वह कोई स्थानीय संघर्ष नहीं है। इसे केवल यहाँ के तानाशाहों के विरुद्ध यहाँ की जनता के संघर्ष के रूप में न देखकर आज के साम्राज्यवाद के सरगना और बाकी सारी दुनिया के जनगणों के बीच के संघर्ष के रूप में देखा जाना चाहिए। इस क्षेत्र पर उसका काबिज रहना सारी दुनिया के लिए खतरनाक है, अतः इस क्षेत्र में उसको हराना सारी दुनिया के स्वतंत्रता, संप्रभुता और वास्तविक जनतंत्र चाहने वाले जनगणों के लिए जरूरी है। इराक पर किये गये अमरीकी हमले और कब्जे को समीर अमीन ने ‘‘इस सदी का उसका पहला आपराधिक आक्रमण’’ कहा है। लगभग उसी तरह दूसरा आपराधिक आक्रमण उसने लीबिया पर किया। और पूरी आशंका है कि ऐसे आक्रमण आगे भी जारी रहेंगे, क्योंकि समीर अमीन के अनुसार अमरीका और नाटोकी शक्तियाँ पूरी पृथ्वी पर अपना सैनिक नियंत्रण कायम करना चाहती हैं।

प्रश्न उठता है: ऐसी स्थिति में क्या किया जाये? समीर अमीन ने प्रस्तुत पुस्तक में एक अध्याय इसी प्रश्न का उत्तर देने के लिए लिखा है और उसमें एक नये इंटरनेशनलकी, अर्थात् पाँचवें इंटरनेशनलकी प्रस्तावना की है। उनका कहना है कि आज की दुनिया में पूँजी का प्रभुत्व है और प्रभुत्वशाली पूँजी अपनी रणनीतियों का भूमंडलीकरण कर रही है। इसका जवाब इसके शिकार लोग अपने संघर्षों का भूमंडलीकरण करके ही दे सकते हैं।

‘‘तो क्यों न एक नया इंटरनेशनलबनाया जाये, जो पूँजी के विरुद्ध किये जा रहे दुनिया के तमाम जनगणों के संघर्षों की एकता के लिए एक कारगर ढाँचा उपलब्ध करा सके?’’ समीर अमीन इस प्रश्न का उत्तर हाँमें देते हैं, मगर इस शर्त पर कि पाँचवाँ इंटरनेशनलदूसरे, तीसरे और चैथे इंटरनेशनलजैसा नहीं, बल्कि पहले इंटरनेशनलकी तरह बनाया जाना चाहिए। अर्थात् यह केवल राजनीतिक पार्टियों का और वह भी ‘‘एक देश की एक ही सही पार्टी’’ को शामिल करके बनाया गया संगठन नहीं होना चाहिए, बल्कि इसमें पूँजीवाद के विरुद्ध प्रतिरोध और संघर्ष करने वाले तमाम व्यक्तियों, समूहों, संगठनों और आंदोलनों को एकत्र होना चाहिए। फिर उनका जो भी मोर्चा या संगठन बने, उसमें ‘‘विविधता के लिए जनतांत्रिक आदर’’ की भावना अवश्य रहनी चाहिए।

इस संदर्भ में समीर अमीन दो प्रकार की राजनीतिक संस्कृतियों की बात करते हैं--कंसेंसस’ (मतैक्य) वाली दक्षिणपंथी संस्कृतियाँ और काॅन्फ्लिक्ट’ (मतभेद) वाली वामपंथी संस्कृतियाँ। नया इंटरनेशनलबनाने के लिए मतभेद वाली संस्कृतियों को पहचानना, उन्हें आपस में जोड़ना और उनका ऐसा संगठन बनाना जरूरी है, जिसमें सब साथ चल सकें, लेकिन अपनी-अपनी विशिष्ट परिस्थितियों के अनुसार भिन्न विचार रखने तथा भिन्न कार्यक्रम लेकर चलने की आजादी भी सबको रहे।

इस प्रकार की आजादी समीर अमीन को वल्र्ड सोशल फोरमके मंचों पर नजर आती है। उन्होंने लिखा है कि इन मंचों पर होने वाली बहसें पहले इंटरनेशनलमें हुई बहसों की याद दिलाती हैं। अतः आकस्मिक नहीं कि समीर अमीन ने वल्र्ड सोशल फोरमके बामाको सम्मेलन में की गयी अपीलको पाँचवें इंटरनेशनलके निर्माण का आधार बताया है। बामाको पश्चिम अफ्रीकी देश माली की राजधानी है। यहाँ 2006में आयोजित वल्र्ड सोशल फोरममें जो अपील की गयी थी, वह बामाको अपीलकहलाती है। यह विस्तार से लिखा गया एक विचारणीय दस्तावेज है, जो अपने मूल और संपूर्ण रूप में ही पढ़ा जाना चाहिए। अतः यहाँ उसका संक्षिप्त सार प्रस्तुत करने के बजाय उसमें से उभरने वाली उस दूसरी या बेहतर दुनिया की एक झलक ही देख लेना उचित होगा:

वह दुनिया समस्त मनुष्यों तथा जनगणों की एकजुटता के आधार पर बनेगी।

वह दुनिया पूरी तरह और समूचे तौर पर नागरिक तथा लैंगिक समानता पर आधारित होगी।

उस दुनिया में एक ऐसी सार्वभौम सभ्यता होगी, जो जीवन के सभी क्षेत्रों में सर्जनात्मक विकास की पूरी संभावनाएँ प्रस्तुत करेगी।

उस दुनिया में प्रकृति, पृथ्वी के संसाधन तथा कृषि-भूमि विक्रय की वस्तु नहीं होंगे।

उस दुनिया में कला, साहित्य, संस्कृति, विज्ञान, शिक्षा और स्वास्थ्य भी क्रय-विक्रय की वस्तु नहीं होंगे।

उस दुनिया में जीवन की समस्त गतिविधियाँ पूरी तरह जनतांत्रिक होंगी और उसकी नीतियाँ सभी समाजों, राष्ट्रों तथा जनगणों की स्वायत्तता की रक्षा करते हुए उनकी प्रगति को सुनिश्चित करेंगी।

समीर अमीन का दृढ़ विश्वास है कि यह बेहतर दुनियाअथवा दूसरी दुनियाबनाना जरूरी है और बनायी जा सकती है। इस प्रकार समीर अमीन क्रांति की दो मूलभूत पूर्वापेक्षाओं जरूरीऔर संभवको आज की दुनिया में मौजूद वास्तविकताओं के रूप में देखते हैं। बेहतर या दूसरी दुनिया से उनका अभिप्राय है भूमंडलीय समाजवाद, जिसे वे सर्वथा आवश्यक और संभव मानते हैं। इसी विचार को वे अपनी दूसरी पुस्तक फ्राॅम कैपिटलिज्म टु सिविलाइजेशनमें आगे बढ़ाते हैं।

फ्राम कैपिटलिज्म टु सिविलाइजेशन


यह पुस्तक इक्कीसवीं सदी में भूमंडलीय समाजवाद की आवश्यकता के साथ-साथ उसकी संभावना भी बताती है, लेकिन उसके बारे में कोई भविष्यवाणी नहीं करती। समाजवाद संबंधी भविष्यवाणियाँ प्रायः माक्र्स द्वारा की गयी पूँजीवाद की इस परिभाषा के आधार पर की जाती हैं कि इस व्यवस्था में उत्पादन के साधनों में निरंतर सुधार होता रहता है, जिससे उत्पादन की शक्तियों का निरंतर विकास होता रहता है। इस परिभाषा से ‘‘पनचक्की ने सामंतवाद दिया, भाप के इंजन ने पूँजीवाद दिया’’ जैसी बातें निकलती हैं, जिनके आधार पर कहा जाता है कि आज की प्रौद्योगिकी पूँजीवाद को चला रही है, कल की बेहतर प्रौद्योगिकी इससे बेहतर व्यवस्था (समाजवाद) बनायेगी और उसे चलायेगी।


समीर अमीन इसे टेक्नोलाॅजिज्म’ (प्रौद्योगिकीवाद) कहते हैं, जिसके आधार पर यह माना जाता है कि उत्पादन की शक्तियों का विकास एक ऐसी बाहरी शक्ति है, जो एकतरफा ढंग से सामाजिक संबंधों को गढ़ती है। लेकिन समीर अमीन का कहना है कि यह अतीत के और आज के प्रभुत्वशाली बुर्जुआ चिंतन की विशेषता है और यह प्रौद्योगिकीवादआज उत्तर-आधुनिकतावाद के रूप में प्रचलित है, जो यह बताता है कि पूँजीवाद भविष्य में नये-नये रूप धारण करता रहेगा, लेकिन दुनिया में रहेगा हमेशा पूँजीवाद ही।

समीर अमीन ऐसी भविष्यवाणियों के विरुद्ध अंतर्विरोधों के द्वंद्ववादके आधार पर आज के भूमंडलीय यथार्थ का विश्लेषण करते हुए यह बताते हैं कि ‘‘भविष्य हमेशा खुला हुआ है’’ और ‘‘स्वयं इतिहास के पहले इतिहास के कोई नियम नहीं होते’’, अतः किसी भी समय विभिन्न विकल्पों की संभावनाएँ मौजूद रहती हैं। मार्क्स के इस कथन से कि ‘‘हमें दुनिया को सिर्फ समझना नहीं है, हमें तो इसे बदलना है’’ समीर अमीन पूरी सहमति व्यक्त करते हुए कहते हैं कि इसमें मौजूदा दुनिया को बदलकर जो दुनिया बनायी जानी है, उसका खाका या नक्शा भी शामिल है, जिसके आधार पर नयी दुनिया को बनाया जाना है। और इसमें यह बात भी शामिल है कि उस दुनिया को बनाने वाले मनुष्य ‘‘इतिहास की वस्तु’’ नहीं, बल्कि ‘‘इतिहास के निर्माता’’ हैं।

प्रस्तुत पुस्तक में मार्क्स' के बारे में प्रचलित कई भ्रमों का खंडन करते हुए माक्र्स को नये ढंग से पढ़ने की जरूरत पर जोर दिया गया है। उदाहरण के लिए, मार्क्सवाद को प्रायः श्रमिक वर्गों की विचारधारामाना जाता है और श्रमिक वर्गोंमें प्रायः उत्तरके अर्थात् पूँजीवादी देशों के श्रमिक वर्गों को ही गिना जाता है। इस प्रकार माक्र्सवाद पूँजीवादी व्यवस्था के प्रमुख केंद्रों में स्थित औद्योगिक सर्वहाराद्वारा की जाने वाली क्रांति और परिणामस्वरूप उसी की मुक्ति का विचार बनकर रह जाता है, जबकि मार्क्स ने दुनिया के सभी देशों के सभी शोषित-उत्पीड़ित लोगों की मुक्ति की बात की थी और इसके लिए वैश्विक पूँजीवादी व्यवस्था को ही बदलने का विचार प्रस्तुत किया था। समीर अमीन इस संदर्भ में आज के पूँजीवाद के बारे में कहते हैं कि यह केवल श्रमिक वर्ग के शोषण-उत्पीड़न की व्यवस्था नहीं, बल्कि मानवता के ही विनाश की व्यवस्था बन गया है, अतः इसके परे जाना आवश्यक हो गया है।

पूँजीवाद आरंभ से ही एक भूमंडलीय व्यवस्था है। इस ऐतिहासिक तथ्य को रेखांकित करते हुए समीर अमीन पूँजीवाद के बारे में, माक्र्सवादियों के बीच भी, प्रचलित कई भ्रमों का खंडन करते हैं। पहला भ्रम विकास की अवस्थाओंसे संबंधित है, जिसके कारण यह मान लिया जाता है कि दुनिया दो तरह के देशों में बँटी हुई है। एक तरफ विकसित देशहैं, जो केंद्रमें हैं और दूसरी तरफ पिछड़े हुए देशहैं, जो अभी परिधिपर पड़े हुए हैं, लेकिन चूँकि पूँजीवादी व्यवस्था विकास की एक अनिवार्य और अपरिहार्य अवस्था है, इसलिए परिधिके देशों को अनिवार्यतः केंद्रके देशों की भाँति विकसितदेश बनना है। मानो यह कोई दौड़ है, जिसमें ‘‘पिछड़ गये’’ देशों को तेजी से दौड़कर ‘‘आगे बढ़े हुए’’ देशों को जा पकड़ना है!

विकास का यह रूपक पूँजीवाद के भूमंडलीय रूप साम्राज्यवाद द्वारा गढ़ा गया है और माक्र्सवाद से इसका कोई लेना-देना नहीं है। यह रूपक दुनिया के देशों के बीच अगड़े-पिछड़े का भेद पैदा करता है। यह पूँजीवादी व्यवस्था को आदर्श व्यवस्था मानकर चलता है। यह अन्य देशों को विकसित पूँजीवादी देश बनकर अपना पिछड़ापन दूर करने के लिए कहता है। यह पूँजीवाद को निर्विकल्प बताता है और  पूँजीवादी विकास के रास्ते पर चलना तथा केंद्रके देशों का अनुसरण करना परिधिके देशों के लिए अपरिहार्य बताता है।

समीर अमीन विकास की इस पूँजीवादी अवधारणा को नकारते हुए पूँजीवाद को एक ऐसी विश्व-व्यवस्था मानते हैं, जो शुरू से ही ‘‘भूमंडलीय पैमाने पर पूँजी के संचय’’ पर आधारित रही है। इस प्रक्रिया में कुछ देशों ने दूसरे देशों को लूटकर अपना विकासकिया है और लूटे गये देशों को पिछड़ाबनाया है। इस प्रकार विकासऔर पिछड़ापनएक ही सिक्के के दो पहलू हैं। अतः जब तक दुनिया में पूँजीवादी व्यवस्था कायम है, यह स्थिति बदलने वाली नहीं है। और इस भूमंडलीय व्यवस्था में चूँकि पिछड़ेदेशों के लोगों का शोषण-उत्पीड़न कम होने के बजाय बढ़ना ही है, उनके मानवीय तथा प्राकृतिक संसाधनों के अपहरण और विध्वंस का सिलसिला उत्तरोत्तर अधिक विनाशकारी रूपों में जारी रहना ही है; इसलिए इस पूँजीवादी व्यवस्था को आज और अभी बदलने का प्रयास करना संपूर्ण मानवता के सामने उपस्थित एक ऐतिहासिक रूप से आवश्यक और अनिवार्य कर्तव्य है।

पूँजीवाद की इस भूमंडलीय व्यवस्था को बदलकर जिस वैकल्पिक भूमंडलीय व्यवस्था के निर्माण की बात समीर अमीन करते हैं, उसे वे समाजवाद ही कहना जरूरी समझते हैं। लेकिन वे उसे ‘‘इक्कीसवीं सदी का समाजवाद’’ कहते हुए समाजवाद के उन रूपों से अलगाते हैं, जो अब तक अस्तित्व में रहे हैं। वे यह नहीं बताते कि इक्कीसवीं सदी का समाजवाद ‘‘कैसा होगा’’ या ‘‘कैसा होना चाहिए’’। उनका कहना है कि वह कोई बनी-बनायी बौद्धिक परियोजनानहीं है, जिसे सिर्फ लागू किया जाना या अमल में लाया जाना हो। वह तो दुनिया भर के शोषित-उत्पीड़ित वर्गों के संघर्षों का परिणाम ही होगा और वे संघर्ष कैसे चलेंगे, उनके क्या रूप होंगे, यह भविष्य ही बतायेगा।

लेकिन इसका अर्थ यह नहीं है कि समीर अमीन भाग्यवादियों की तरह सब कुछ भविष्य पर छोड़ देना चाहते हैं। वे एक 
ऐसी दुनिया बनाने का प्रस्ताव करते हैं, जो सभी मनुष्यों और जनगणों की एकजुटता पर आधारित हो; जो पूर्णतः नागरिक तथा लैंगिक समानता पर आधारित हो; जो ऐसी सार्वभौम सभ्यता को जन्म दे, जिसमें जीवन के समस्त क्षेत्रों में सर्जनात्मक विकास की पूरी संभावनाएँ हों, जिसमें लोगों का समाजीकरण जनतांत्रिक ढंग से हो; जिसमें पृथ्वी के समस्त प्राकृतिक संसाधनों को बाजार से अलग रखा जाये; जिसमें सांस्कृतिक उत्पादों, वैज्ञानिक ज्ञान, शिक्षा और स्वास्थ्य को भी बाजार से अलग रखा जाये; जिसमें राष्ट्रों तथा जनगणों की स्वायत्तता का सम्मान करते हुए पूर्ण जनतंत्रीकरण तथा सामाजिक प्रगति की नीतियों को बढ़ावा दिया जाये; और जिसमें उत्तरतथा दक्षिणके समस्त जनगण साम्राज्यवाद-विरोधी अंतरराष्ट्रीयतावाद के आधार पर एकजुट हों।

इस प्रकार समीर अमीन पूँजीवाद की बर्बर व्यवस्था के विरुद्ध समाजवादी (बल्कि साम्यवादी) सभ्यता के निर्माण का प्रस्ताव करते हैं और इसके लिए वर्तमान भूमंडलीय यथार्थ को समाजवादी परिप्रेक्ष्य में देखने की जरूरत पर जोर देते हुए जनगणों के अंतरराष्ट्रीयतावाद के पुनर्निर्माण का उपाय बताते हैं। उनके अनुसार आज का भूमंडलीय यथार्थ और उसमें निहित इक्कीसवीं सदी के समाजवाद की संभावनाएँ इस प्रकार हैं:

आज की दुनिया सैनिक शक्ति के लिहाज से एकध्रुवीय है और वह उत्तरके कुछ देशों के सामूहिक साम्राज्यवाद के शिकंजे में जकड़ी हुई है, जिनका नेता अमरीका है। लेकिन यह सामूहिक साम्राज्यवाद कोई अभेद्य दीवार नहीं है। इसमें दरारें हैं, इसलिए इसमें अमरीका निर्णायक रूप से हमेशा लाभ उठाते रहने की स्थिति में नहीं है। अतः वह अपनी आर्थिक कमियों और कमजोरियों को दूर करने के लिए संपूर्ण पृथ्वी पर अपना सैनिक नियंत्रण कायम करना चाहता है। उसकी इस परियोजना से दक्षिणके समस्त जनगणों को खतरा है। लेकिन दक्षिणके देशों ने पूँजीवादी विकास को ही विकास का एकमात्र रास्ता या तरीका मानकर अमरीकी नेतृत्व वाले सामूहिक साम्राज्यवाद के शिकंजे में जकड़े रहने को ही अपनी नियति मान लिया है। आवश्यकता इस बात की है कि दक्षिणके देश इस सामूहिक साम्राज्यवाद की गुलामी से मुक्त हों। और वे मुक्त हो सकते हैं, यदि वे उन उदारवादी विभ्रमों से मुक्त हो सकें, जिनके चलते उन्होंने स्वयं को पिछड़ाहुआ मानकर आगे बढ़े हुएदेशों के समकक्ष पहुँचने की दौड़ में शामिल मान लिया है और यह भी मान लिया है कि इसके सिवा कोई विकल्प नहीं है। मगर विकल्प है। वे इन विभ्रमों से मुक्त होकर इस विश्व-व्यवस्था से अपना नाता तोड़ सकते हैं और अपने-अपने ढंग से अपना विकास कर सकते हैं।

लेकिन ऐसा करने के लिए उन्हें अपना एक मजबूत मोर्चा बनाना होगा और वह तभी बन सकता है, जब उनके जनगण इस प्रक्रिया में शामिल हों और वे ऐसा मोर्चा बनाने की जिम्मेदारी केवल अपने राज्यों पर न डाल दें। दक्षिणके जनगणों का ऐसा मजबूत मोर्चा यूरोप, एशिया, अफ्रीका और लैटिन अमरीका के भी समस्त जनगणों को एक नये अंतरराष्ट्रीयतावाद की ओर ले जा सकता है। इससे दुनिया एकध्रुवीय की जगह बहुध्रुवीय बन सकती है और भूमंडलीय पूँजीवाद की जगह भूमंडलीय समाजवाद कायम करना संभव हो सकता है।

लेकिन इन संभावनाओं के मौजूद होने का मतलब यह हर्गिज नहीं है कि यह सब आसानी से हो जायेगा। भूमंडलीय पूँजीवाद से भूमंडलीय समाजवाद की ओर जाने का रास्ता विकट बाधाओं और चुनौतियों से भरा होगा। लेकिन यदि उन चुनौतियों का सामना आज के भूमंडलीय यथार्थ को इक्कीसवीं सदी के समाजवाद के परिप्रेक्ष्य में देखते-समझते हुए किया जाये, तो रास्ते की समस्त बाधाओं को दूर किया जा सकता है। इसके बारे में समीर अमीन ने प्रस्तुत पुस्तक में कुछ सुझाव दिये हैं, जो इस प्रकार हैं:

लगभग तीन दशकों से अमरीकी नेतृत्व वाला साम्राज्यवादी तिगड्डा (अमरीका, यूरोप, जापान) दुनिया के तमाम जनगणों के विरुद्ध, जिनमें इस तिगड्डे के जनगण भी शामिल हैं, एक जबर्दस्त आक्रामक रुख अपनाकर जनतांत्रिक संस्थाओं और व्यवस्थाओं को नष्ट कर रहा है, जनतांत्रिक अधिकारों का हनन कर रहा है और जन-आंदोलनों का बर्बर दमन कर रहा है। वह अपने विरुद्ध विद्रोह कर सकने वाले देशों की सरकारों को खरीद रहा है या सैनिक आक्रमणों के जरिये उन्हें हटाकर वहाँ के जनगणों पर अपनी कठपुतली सरकारें थोप रहा है, जो अपने जनगणों के विरुद्ध देशी-विदेशी पूँजीपतियों की सेवा करती हैं। इस जबर्दस्त और सर्वतोमुखी आक्रमण के प्रतिरोध में जनगण जागरूक होकर संघर्ष करने लगे हैं। लेकिन अभी तक इन संघर्षों का स्वरूप स्थानीय और प्रतिरक्षात्मक ही है तथा उनमें आपसी तालमेल भी नहीं है। मसलन, भारत में दलितों, आदिवासियों, स्त्रियों, अल्पसंख्यकों आदि के अधिकारों के लिए किये जाने वाले आंदोलन, किसानों और मजदूरों के आंदोलन, पर्यावरण की रक्षा आदि के लिए किये जाने वाले आंदोलन अलग-अलग चल रहे हैं। जरूरत है कि वे एकजुट होकर आज के पूँजीवाद और साम्राज्यवाद के विरुद्ध संघर्ष करें और प्रतिरक्षात्मक नहीं, बल्कि आक्रामक रुख अपनायें।

जन-आंदोलन चलाने वाले संगठन जनतांत्रिक आधार पर एकजुट होकर परस्पर सहयोग करें और अपने-अपने सीमित लक्ष्यों के साथ-साथ सामाजिक रूपांतरण के बड़े लक्ष्य को भी ध्यान में रखें। वह बड़ा लक्ष्य इक्कीसवीं सदी के समाजवादके रूप में सबके सामने स्पष्ट होना चाहिए। चूँकि वह भूमंडलीय पूँजीवाद की जगह लेने वाला भूमंडलीय समाजवाद होगा, इसलिए स्थानीय तथा राष्ट्रीय आंदोलनों को दुनिया के समस्त जनगणों की एकजुटता के आधार पर एक अंतरराष्ट्रीय आंदोलन खड़ा करना चाहिए।

इस व्यापक परिप्रेक्ष्य में आज के भूमंडलीय यथार्थ को देखते हुए विभिन्न देशों के स्थानीय जन-आंदोलनों को अपना जनतांत्रिक राजनीतिकरण करना चाहिए और मिथ्या आंदोलनों द्वारा पैदा किये जाने वाले विभ्रमों तथा भटकावों के प्रति सावधान रहना चाहिए। उदाहरण के लिए, ‘सिविल सोसाइटीके नाम पर चलाये जाने वाले उन आंदोलनों से, जो सभी तरह की राजनीति को गंदी या भ्रष्ट बताते हुए राजनीति से अलग रहने की बात करते हैं। अथवा उन भूमंडलवादीलोगों के विचारों से, जो कहते हैं कि दुनिया एक ग्लोबल गाँव बन गयी है, इसलिए अब राष्ट्र-राज्यों की कोई जरूरत नहीं रह गयी है।

इक्कीसवीं सदी के समाजवाद के लिए जरूरी है सारी दुनिया के जनगणों का ऐसा अंतरराष्ट्रीयतावाद, जो सभी देशों तथा उनके जनगणों की संप्रभुता और स्वायत्तता का आदर करने वाला अंतरराष्ट्रीयतावाद हो। भूमंडलीय समाजवाद भूमंडलीय पूँजीवाद की तरह सारी दुनिया को एक जैसा बनाने वाली व्यवस्था नहीं, बल्कि एक ऐसी व्यवस्था होगा, जिसमें सब देशों की संस्कृतियाँ और विशिष्ट जीवन-शैलियाँ सुरक्षित रहें तथा सृजनशील ढंग से अपने-आपको विकसित और समृद्ध बना सकें।

पूँजीवाद पतनशीलता और बर्बरता की ओर ले जाने वाली व्यवस्था है। शीत युद्ध के दौरान यह मिथ्या प्रचार किया गया था कि समाजवाद में जनतंत्र नहीं हो सकता। उस समय की समाजवादी कहलाने वाली व्यवस्था ने, जो वास्तव में सच्ची समाजवादी व्यवस्था नहीं थी, इस मिथ्या प्रचार को पुष्ट भी किया। लेकिन सोवियत संघ के विघटन और शीत युद्ध की समाप्ति के बाद यह बात स्पष्ट से स्पष्टतर होती गयी है कि पूँजीवाद ही जनतंत्र का शत्रु है और सच्चा जनतंत्र समाजवाद में ही संभव है। समाजवाद की सच्ची जनतांत्रिक व्यवस्था ही दुनिया को बर्बरता से सभ्यता की ओर ले जा सकती है।
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रमेश उपाध्याय 

हिंदी के वरिष्ठ कथाकार तथा प्रतिष्ठित पत्रिका कथन के संस्थापक. 
संपर्क - rameshupadhyaya@yahoo.co.in

अर्चना वर्मा के कथादेश में छपे लेख पर वीरेन्द्र यादव का प्रतिवाद

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समास में दिए गए साक्षात्कार में कवि कमलेश के सी आई ए समर्थन वाले बयान और उसके बाद चली बहस से आप परिचित हैं ही. इसी क्रम में अर्चना वर्मा ने उस पूरी बहस को 'बचकाना' जैसा बताते हुए और कमलेश के बयान को 'पासिंग रिमार्क' तथा 'कृतज्ञता के अतिरेक में एक असतर्क, असावधान क्षण में' की गयी भावुक अभिव्यक्ति ही नहीं  साबित किया बल्कि इस बहस में भागीदार लोगों की उम्र का मज़ाक उड़ाते हुए इसे 'युवकोचित उत्साह' भी कहा . अब हम अपनी उम्र वक़्त से पहले तो नहीं ही बढ़ा सकते लेकिन सी आई ए के समर्थन की परतें खोलने के लिए वयोवृद्ध होने की भी प्रतीक्षा भी नहीं कर सकते. खैर. उनके लेख के निहितार्थों और इस पूरी बहस के असली उद्देश्यों की पड़ताल करते हुए वरिष्ठ आलोचक वीरेन्द्र यादवने यह प्रतिवाद लिखा है, जो कथादेश के ताज़ा अंक में प्रकाशित है. इसे हम पूरी क्रोनोलाजी के साथ यहाँ प्रस्तुत कर रहे हैं. साथ ही जनसत्ता में नहीं छापे गए मेरे और गिरिराज किराडू के प्रतिवाद भी इसी क्रम में जनपक्ष पर छापे जायेंगे.

और यह प्रतिवाद 

सी आई ए के प्रति ऋण बनाम ‘अज्ञान का अन्धेरा ‘

           

   
'असहमति और विवाद की संस्कृति '  (कथादेश ,जून २०१३) शीर्षक लेख में अर्चना वर्मा का यह कथन आश्वस्तकारी है कि ,"एकवीय विश्व में समतोल या प्रतिभार की जो भूमिका जरूरी है और थोड़ी बहुत निभायी जा सकती है उसके लिए संगठित प्रतिपक्ष का ,चाहे कितना भी अपर्याप्त ,विकल्प वामपंथ ही है ."  लेकिन ज्यों ही वे कमलेश जी के 'समास -५' के  अमरीका और सी आई ए विषयक कथन को 'सिर्फ एक पासिंग रिफरेन्स ' बताती हैं त्यों ही वे अपना तयशुदा पक्ष उजागर कर देती हैं .दरअसल सच यह है कि कमलेश का यह कथन महज 'एक पासिंग रिफरेन्स ' न होकर उनकी  उस सुचिंतित सोच का परिणाम है जिसकी धुरी कम्युनिज्म और वामपंथ विरोध पर टिकी है और इसे वे सुस्पष्ट भी करते हैं . दिक्कत कमलेश के उन समर्थकों की है जो  अमरीका और सी आई ए के पक्ष में दिए गए  उनके कथन का बचाव करते हुए निर्लज्ज रूप से उसके पक्ष में दीखना   नहीं चाहते क्योंकि ऐसा करना 'पोलिटिकली करेक्ट ' नहीं होगा .कमलेश का कथन कुछ यूं है ,"शीतयुद्ध के दौरान इस सत्य का सहधर्मी साहित्य धीरे धीरे उपलब्द्ध होने लगा .यह सब शीतयुद्ध के दौरान अपने कारणों से अमरीका और  सी आई ए ने उपलब्द्ध कराया ,इसके लिए मानव जाति अमरीका और सी आई ए की ऋणी है .भारतवर्ष को यह बौद्धिक खुराक शायद ही उपलब्द्ध होती अगर अमरीका और सी आई ए इस दिशा में सक्रिय नहीं होते .हमारा दुर्भाग्य है कि हिन्दी में नयी पीढी के अधिकांश लेखकों को सोवियत संघ के इन भयंकर अपराधों का ज्ञान भी नहीं है." और यह भी कि ,"इन जानकारियों के बाद भी लोग कम्युनिस्ट रह सकते हैं ,यह भारतवर्ष में फैले हुए अज्ञान के घोर अँधेरे में ही संभव है ."
               
दरअसल कमलेश की मुख्य चिंता कम्युनिज्म द्वारा फैलाये गए 'अज्ञान के घोर अँधेरे ' से मुक्ति और अभी भी भारत में कम्युनिस्टों के वजूद के बने   रहने से है . अर्चना वर्मा के 'विकल्प वामपंथ ही है’  की सदेच्छा और कमलेश की कम्युनिज्म द्वारा फैलाये गए  'अज्ञान के घोर अँधेरे’ व कम्युनिस्टों से मुक्ति पाने की मुहीम के बीच नट-संतुलन के निहितार्थों को पढ़ा जाना चाहिए . क्या ही अच्छा होता यदि अर्चना जी ने 'समास -६' में प्रकाशित कमलेश के  उन विचारों को भी पढ़ लिया होता जिनमें उन्होंने नात्सीवाद  के समर्थक जर्मन दार्शनिक हाइडेगर का यह कहकर बचाव किया  है कि भले ही वे नात्सी  पार्टी के सदस्य रहे हों लेकिन "वैचारिक स्तर पर उनका चिंतन नात्सी विचारधारा से अलग ही नहीं था ,बल्कि उसका गंभीर प्रत्याख्यान भी था.” ज्ञातव्य है कि नाजी विचारों के समर्थन के ही  कारण जर्मन विश्वविद्यालय में उनके अध्यापन पर रोक लगा दी गयी थी  .कमलेश  हाइडेगर को महात्मा गांधी के 'हिन्द स्वराज ' के निकट भी पाते हैं . उन्हें हाइडेगर के चिंतन में वह 'लोकोन्मुख राष्ट्रवाद ' दीखता है जिसके प्रतीक पुरुष के रूप में इन दिनों नरेंद्र मोदी को प्रस्तुत किया जा रहा है .आखिर ऐसा क्यों है कि जब जर्मनी सहित समूची दुनिया में हाइडेगर को हिटलर के समर्थक  दार्शनिक  के रूप में पढ़ा और समझा जा रहा है तब कमलेश उनमे गांधी से  सादृश्य तलाश रहे हैं . यह सचमुच गंभीर विचार का विषय  है कि जिन दिनों  हाइडेगर के नाजी संबंधों को  लेकर साएमन हेफर की   'हिटलर'र्ज सुपरमैन’ और इमनेल फाई की  'हाइडेगर -दि इंट्रोडक्सन आफ नाजिज्म इन्टू फिलासफी’  सरीखी पुस्तकें   समूचे विश्व के बुद्धिजीवियों के बीच गंभीर चर्चा के केंद्र में हों तब हिन्दी का एक  बुद्धिजीवी  हाइडेगर की औचित्यसिद्धि कर रहा हो . 
                 
अभी पिछले दिनों कमलेश ने  मार्क्सवादी इतिहासकार डी डी कोसंबी को अपना कोपभाजन इसलिए बनाया कि वे ब्राह्मणवाद को प्रश्नांकित करते हैं .कमलेश का कहना है कि "कोसंबी ब्राह्मणों पर ऐसे आरोप लगाते हैं जो नात्सियों द्वारा यहूदियों पर लगाये गए आरोपों से समान्तर है .इसके बाद 'फाइनल साल्युशन ' ही बच जाता है ,जिसके लिए राज्य पर मार्क्सवादियों का कब्ज़ा आवश्यक है” .(जनसत्ता ,१० मार्च २०१३) काजी जी ,दुबले क्यों शहर के अंदेशे से ! यानि वे मार्क्सवादी आन्दोलन को ब्राह्मणवाद  के लिए  बड़े खतरे के रूप में देखते हैं .यही कारण है कि वे साफगोई के साथ अपने इस निष्कर्ष को प्रस्तुत करते हैं कि ,"मार्क्सवादी इतिहासकार ,कम्युनिस्ट पार्टियाँ ,ईसाई प्रचारतंत्र ,ईसाई समर्थित दलित आन्दोलन सभी ब्राह्मण विरोधी प्रचार में लगे हैं ." (जनसत्ता ,२४ मार्च २०१३ ) दरअसल जिसे कमलेश ‘ब्राह्मण विरोधी’ प्रचार बताते हैं  उसे ही डॉ.आंबेडकर ‘दलितों की मुक्ति’ की युक्ति मानते थे .डॉ. आंबेडकर की दो टूक सोच थी कि, “असमानता ब्राह्मणवाद का आधिकारिक सिद्धांत है और समानता की चाहत रखने वाले निम्न वर्गों का दमन व उन्हें नीचा दीखाना उनका पश्चाताप रहित पवित्र कर्तव्य रहा है”.कमलेश जिस ईसाई समर्थित दलित आन्दोलन को ब्राह्मण विरोधी करार देकर उसके द्वारा अपनाई गयी ‘धर्मान्तरण’ की प्रक्रिया को  ख़ारिज करते हैं उसे ही दलित अपनी   सामाजिक ,आर्थिक और धार्मिक स्वतंत्रता और समता का माध्यम मानते रहे हैं  .  आश्चर्य की क्या बात यदि कमलेश के निशाने पर वे इतिहासकार ,कम्युनिस्ट पार्टियाँ और दलित आन्दोलन हों जो ‘ब्राह्मणवाद’  को बपर्दा करते हों .!अर्चना वर्मा को कमलेश जी की यह वैचारिक पृष्ठभूमि 'आधुनिक भारतीय मानस की औपनिवेशिक बनावट के बरक्स भारतीय मेधा की मौलिकता के अनेक परतीय विश्लेषणलगती है तो यह उनका ‘उदारवादी’ दृष्टिकोण ही है .कमलेश के बचाव में अर्चना जी का यह तर्क सचमुच दिलचस्प है  कि ,  “ जो कम्युनिस्ट नहीं है उसे कम्युनिस्ट विरोधी होने का हक़ है” . इसी तर्क के आधार पर यह भी तो कहा जा सकता है कि जो ब्राह्मण है उसे ब्राह्मणवाद समर्थक होने का हक़  है . कमलेश  के सन्दर्भ में तो यह काफी कुछ सच भी है. कहना न होगा कि ब्राह्मणवाद को बचाने, नात्सी दार्शनिक के समर्थन और अमरीका व सी आई ए के प्रति कृतज्ञता ज्ञापन की यह  मुद्रा महज एक 'पासिंग रिफरेन्स ' नहीं है . यह एक सोची समझी विचारसारिणी  का हिस्सा है .वामपंथ के विरुद्ध कमलेश के  मन-मस्तिष्क में  कितनी रोगमूलक वितृष्णा है इसका अनुमान कुलदीप कुमार द्वारा  फेसबुक (९ मई )पर लिखी इस आपबीती से लगाया जा सकता है ,"कमलेश कवि अच्छे हैं, लेकिन उनके विचार निकृष्टतम कोटि के हैं। शुक्रवार (७ मई) को 'द हिन्दू' में बलराज साहनी पर छपे मेरे स्तंभ को पढ़कर वे इतने उत्तेजित हो गए कि मेरे एक मित्र से मेरा फोन नंबर लेकर जीवन में पहली बार (और आशा है अंतिम बार भी) उन्होंने मुझे फोन किया। लगभग आधे घंटे तक वे मुझे लताड़ते रहे, बेहद अपमानजनक भाषा और टोन में। इसी क्रम में उन्होंने यह भी कहा कि बलराज साहनी के पुत्र परीक्षित साहनी ईसाई प्रचारक  हो गए हैं और लोगों को ईसाई बनाते हुए घूम रहे हैं। मैंने पूछताछ की तो पता चला कि यह सफ़ेद झूठ है। 'समास' में छपे अपने विवादास्पद इंटरव्यू में कमलेश लोहिया के समाजवाद से अपने दूर होने की बात कह चुके हैं। दरअसल वे पूरी तरह से ब्राह्मणवादी, अतीतोन्मुखी और वाम-विरोधी हैं। उनकी कुछ कविताओं में उनका पुराणप्रेम और सनातनधर्मी चेतना मुखर होकर व्यक्त भी हुई है जिसकी ओर मैंने 400 शब्दों की एक अति-संक्षिप्त समीक्षा में इशारा भी किया था। ... मुझे भेजे एक ई-मेल में उन्होंने मेरे बलराज साहनी वाले स्तंभ के हवाले से मुझ पर "घृणित झूठ" फैलाने का आरोप लगाया है। परीक्षित के बारे में उनका यह झूठ किस श्रेणी में रखा जाएगा?" कुलदीप कुमार के इस कथन को संदिग्ध इसलिए नहीं माना जा सकता क्योंकि  ‘ ओम थानवी   २ जून के  ‘जनसत्ता’ के अपने स्तम्भ में  'साहित्य में फिर सी आई ए ' शीर्षक लेख में उन्हें 'स्वतंत्रचेता लेखक ' होने की सनद दे चुके हैं .
                   
कमलेश की इस वैचारिक पृष्ठभूमि को दृष्टिगत रखते हुए उनका सी आई ए और अमेरिका के प्रति नतमस्तक होना स्वाभाविक है .लेकिन जिस तत्परता  और उत्साह के साथ ' ओम थानवी  ने उनके पक्ष में  मोर्चाबंदी की है ,वह वास्तव में दिलचस्प  है .अर्चना वर्मा को 'उदारवादी '  और उनके  लेख को 'सुविचारित ,अकाट्य तथ्यों  व मिसाल कायम करने वाला'  करार देते हुए उन्होंने कमलेश जी को 'भावुक इंसान’ बताया और उनके विरुद्ध किये जा रहे 'क्षुद्र अभियान ' को नेस्तनाबूद करने के लिए शिखा बाँध ली .यानि अमरीका और सी आई ए के प्रति कृतज्ञता ज्ञापन उद्दात्तता और इसे प्रश्नांकित करना छुद्रता. अर्चना वर्मा और ओम थानवी दोनों ने ही  बात मुद्दों से भटकाकर उम्र पर टिका दी गोया कि बहस के प्रतिभागी दूधपीते बच्चे हों ,बिना इस बात का ख्याल किये कि उस बहस में शामिल  कईयों की उम्र लगभग उनके बराबर या कुछ की तो अधिक ही थी .
                    
अर्चना वर्मा 
प्रश्न यह है कि  अमरीकी साम्राज्यवाद और सी आई ए के विरोध के लिए  वामपंथियों  की यह लानत मलामत क्यों ? आज जब एशिया , अफ्रीका ओर लातिनी अमरीका के सल्वादर आयेंदे ,शेख मुजिबुर्र रहमान और सद्दाम हुसैन सहित कई राष्ट्राध्यक्षों के खून का अपराध अमरीका और सी आई ए के  .रक्तरंजित हाथों पर हो और जब सी आई ए के  गुप्तचर ही  इसका खुलासा कर रहे हों तब हिन्दी के एक कवि ,एक संपादक और एक लेखिका द्वारा सी आई ए का यह बचाव क्यों ?याद किया जाना चाहिए अमेरिकी नाटककार हेराल्ड पिटर के वर्ष   2005 के उस नोबेल पुरस्कार भाषण को जिसमें उन्होंने बौद्धिकों की  'नैतिक संवेदना ' का प्रश्न उठाते हुए इस तथ्य को रेखांकित किया था कि द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद जहाँ सोवियत संघ के राजनीतिक अपराध चर्चा का विषय बनते रहे हैं वहीं अमरीका की हत्यारी भूमिका पर पर्दा क्यों डाल दिया जाता है ?निकारगुआ ,चिली , इंडोनेशिया ,ग्रीक, उरुग्वे,ब्राजील,परागुवे ,हायती ,टर्की,फिलिपाईन्स ,ग्वाटेमाला ,एल साल्वाडोर आदि देशों में अमेरिका द्वारा किये गए तख्तापलट को याद करते हुए उनका सवाल था कि अमेरिका के अपराधों को दर्ज करने के लिए अभी कितना खून बहना शेष है ! जिन सोलझ्नित्सिन  ने अमरीका में शरण ले रही थी उन्होंने हार्वर्ड विश्वविद्यालय के 1979 के अपने भाषण में अमरीकी जनतंत्र ,प्रेस  की स्वतंत्रता और अभिव्यक्ति की आजादी का काफी कुछ मिथक भेदन करते हुए उसे सोवियत संघ के मुकाबले आदर्श  विकल्प मानने से इन्कार कर दिया था .  याद  किया जाना चाहिए अमेरिकी खुफिया अधिकारी फिलिप एगी की उस “सी आई ए डायरी” को जिसके प्रकाशन से अस्सी के दशक में समूचे विश्व में सी आई ए की भूमिका को लेकर हंगामा खडा हो गया था. फिलिप एगी का कहना था कि ,  “ ..संपादक ,राजनेता ,व्यवसायी घराने व अन्य लोग सी आई ए के प्रचारक , यहाँ तक कि पैसे के लिए भी ,हो सकते हैं बिना यह जाने कि उनके आका कौन हैं !” सी आई ए की कारगुजारियों का खुलासा करते हुए फिलिप का कहना था कि ,   “ क्रांतिकारी संगठनों में घुसपैठ की योजनाओं के साथ ही साथ मनोवैज्ञानिक और अर्धसैनिक कारगुजारियां  भी अंजाम दी जाती हैं .इनमें सार्वजानिक मीडिया में कम्युनिस्ट विरोधी प्रचार ,पार्टी पदाधिकारियों को फर्जी मामलों   में पुलिस द्वारा गिरफ्तार कराना , गुंडों के समूहों द्वारा धमिकियाना आदि शामिल हैं” . अभी इन्ही दिनों पुलित्जर पुरस्कार से सम्मानित  न्यूयार्क टाईम्स के पत्रकार मार्क मज़ेटी ने  अपनी नयी पुस्तक ‘ दि वे आफ दि नाईफ’ में शीतयुद्धोतर दौर में  सी आई ए की  बदलती हिंसक   भूमिका का खुलासा करते हुए लिखा है कि ,  “ सी आई ए अब  विदेशी सरकारों के दस्तावेजों को चुराने वाली पारंपरिक गुप्तचर सेवा भर न रह गयी है .सी आई ए अब हत्यारी मशीन सरीखी ऐसी संस्था बन गयी है जिसमें इंसानी जिदगियों का शिकार किया जा रहा है .”   
             
              
 यह सचमुच हैरत की बात है जब  सी आई ए के निशाने पर भारत सहित समूची दुनिया के देश हों और जब सोसल मीडिया सहित भारतीय नागरिकों की निजी स्वतन्त्रता पर उसकी तेज निगहबानी हो  और भारत का बौद्धिक और नागरिक समाज इसको लेकर उद्विग्न हो , तब हिन्दी के लोकवृत में  अमरीका और सी  आई ए के प्रति समूची मानवता के ऋणी होने की  सदाशयता व्यक्त की जा रही है . देश की शीर्ष बौद्धिक पत्रिका ‘इकोनोमिक एंड पोलटिकल वीकली ‘ने अभी अपने २२  जून के अंक में अमेरिकी गुप्तचरी के इस अभियान को नागरिक स्वतंत्रता का हनन मानते हुए इसके विरुद्ध नागरिक और राजनीतिक समाज द्वारा प्रभावी प्रतिरोध दर्ज करने का आह्वान किया है .  सी आई ए और अमरीका के प्रति कृतज्ञताज्ञापन  का यह अभियान और भी विस्मयकारी इसलिए  है कि न तो इन दिनों  हिन्दी में साठ के दशक सरीखी शीतयुद्धकालीन बहसे हैं और न ही  भारत में  वामपंथी विचारधारा का कोई नया विस्फोट . बल्कि इसके उलट जब स्वयं ओम थानवी के ही अनुसार डॉ.नामवर सिंह ,मैनेजर पण्डे से लेकर प्रणय कृष्ण  आदि  तक  ‘संकीर्ण मतवाद’ से मुक्त हो चुके हों तब इसकी क्या जरूरत !
               
यहाँ यह तथ्य दिलचस्प है कि कमलेश के सुर में सुर मिलाते हुए अर्चना वर्मा ने सी आई ए के प्रति ऋणी होने की औचित्यसिद्धि के लिए अन्ना अख्मातोवा, ओसिप मंदेल्स्ताम .मारिना त्स्वेतायेवा ,निकोलोई बोलोस्की, बुल्गाकोव ,युरी ओलेशा ,आइजक बाबेल अदि के साहित्य के प्रकाशन  का श्रेय सी आई ए को दे दिया .और साथ ही दूदिनेत्सेव के  उपन्यास ‘नाट बाई ब्रेड अलोन’ और सोल्झेनित्सिन के ‘वन डे इन दि लाईफ आफ इवानोविच’   के  प्रकाशन का सेहरा भी सी आई ए के सिर बाँध दिया ,जबकि इन दोनों पुस्तकों का पहला प्रकाशन सोवियत संघ में ही हुआ था . इन दोनों उपन्यासों को सोवियत प्रकाशन ‘.नोवी मीर’ ने क्रमशः १९५६ और   १९६२  में प्रकाशित किया. सोल्झेनित्सिन को  तो  ‘वन डे इन..’ के लिए रायल्टी के रूप में सामान्य से दुगनी राशि भी दी  गयी थी . यह सही है कि स्टालिन के व्यक्तिपूजा के दौर  और बाद में भी  अख्मातोवा , मन्देल्स्ताम  और पास्तनाक सहित कई लेखकों की कुछ रचनाएँ सोवियत सेंसर की शिकार हुईं और इनका विदेशों में प्रकशन हुआ .इनमें से कुछ लेखकों की रचनाएँ  पहली बार फ़्रांस ,ज़र्मनी ,ब्रिटेन और इटली के प्रकाशकों द्वारा  भी छापी गयीं . अमेरिका में भी कई चर्चित पुस्तकें प्रकाशित हुईं  , लेकिन यह कहना कि ये सारे प्रकाशन सी आई ए द्वारा संचालित थे उन प्रकाशनों  के लिए अपमानजनक है.   नहीं ,अर्चना जी  सी आई ए के आगे जहाँ और भी हैं . ओम थानवी आपके जिस ‘शोध’ पर मुग्ध हैं ,काश वह सचमुच शोध होता बकौल आपके ‘पूछताछ से मिली सूचनाओं’ पर न टिका होता . याद यह भी  रखना चाहिए कि जिन अख्मातोवा  को १९४६ में स्टालिन का कोपभाजन होना पड़ा उन्हें ही  १९५५ में उच्च स्तर की सुविधाएँ प्रदान कर ससम्मान पुनर्स्थपित किया गया .उनकी कविताओं का प्रथम चयन १९५८ में और वृहत संचयन १९६१ में सोवियत संघ  में ही प्रकाशित हुआ .१९६६ में उनकी मृत्यु के बाद भी उनकी रचनाएँ तत्कालीन सोवियत   संघ में प्रकाशित होती रही थीं .इसी प्रकार बुल्गाकोव ,खेल्बिनिकोव,ओलेशा,प्लातोनोव और सेवेतायेवा अदि सहित कई ऐसे लेखक थे जिन्हें उत्तर-स्टालिन दौर में पुनर्प्रतिष्ठित किया गया और इन सभी लेखकों की रचनाओं को प्रकाशित भी किया गया . इन सारे तथ्यों की पुष्टि के लिए फिलहाल रोनाल्ड हिन्गले के पुस्तक ‘राशियन राईटर्स एंड सोवियत सोसाईटी’ और विटाली शेन्तिलान्स्की की ‘दि के जी बी आर्काविव्स’ को पढ़ा जा सकता है .
          
दरअसल कमलेश और अर्चना वर्मा की रूचि उन्ही पुस्तकों में है जो सी आई ए द्वारा कम्युनिस्ट विरोधी प्रचार के लिए भारत में सस्ते दामों में छापी गयी थीं . वरना वे त्रात्सकी की आत्मकथा ‘ माई लाईफ’ और स्टालिन की बेटी स्वेतलाना की पुस्तकों ‘ट्वेंटी लेटर्स टू ए फ्रेंड’ और ‘ओनली वन ईअर’ का जिक्र जरूर करते जिनमें स्टालिनकालीन सोवियत संघ का  अन्तरंग  और प्रामाणिक खुलासा होता है .क्या ही अच्छा होता यदि  अपने समय के विश्वविख्यात पत्रकार और स्टालिनकालींन दौर के विशेषज्ञ आईसक  दुएश्चर की पुस्तकों को भी इस सन्दर्भ में याद कर लिया जाता .स्टालिन और त्रात्सकी की शाहकार  जीवनी लिखने के साथ साथ उन्होंने ‘रशिया आफ्टर स्टालिन’, ‘हेरेटिक्स एंड रेनेगेड्स’ ,  ‘आयरनीज आफ हिस्ट्री’ सरीखी स्थाई महत्व की पुस्तकें लिखीं ,जिन्हें संदर्भित किये बिना स्टालिनकालीन रूस की कोई भी प्रामाणिक चर्चा  आज भी अधूरी  रहती है .  मंतव्य यदि सोवियत समाज के सच को जानने और कम्युनिस्ट तंत्र को आलोचनात्मक दृष्टि से समझने का ही हो तो यह सूची किंचित लम्बी हो सकती है. लेकिन यह अवश्य है कि इन सभी पुस्तकों का प्रकाशन सी आई ए की मदद द्वरा न किया जाकर विश्वप्रसिद्ध प्रकाशन गृह ‘पेंग्विन’ द्वारा किया गया है .स्वाभाविक है सी आई ए का शुक्रगुजार होने के लिए तो उन्ही पुस्तकों की चर्चा की जानी थी जो सस्ते दामों में छपकर प्रचार सामग्री के रूप में फुटपाथों पर बिकती थीं .
            
कमलेश को इस बात पर हैरत है कि सी आई ए द्वारा इतना कम्युनिस्ट विरोधी प्रचार साहित्य मुहैय्या कराने के बाद भी ‘लोग कम्युनिस्ट रह सकते हैं’ !दरअसल  ब्राह्मणवाद की जिस जमीन पर  आज कमलेश खड़े हैं वहां से यही सोचा  जा सकता है . इस प्रसंग में याद आते हैं इतिहासकार एरिक हाब्स्बाम . हाब्स्बाम से जब उनके अंतिम दौर में यह पूछा गया कि वे अंत तक कैसे कम्युनिस्ट पार्टी के सदस्य बने हुए हैं  तो उन्होंने कहा कि , “ मुझे उन पूर्व-कम्युनिस्टों की  संगत में रहने का विचार  अत्यंत विकर्षक लगता रहा जो दुराग्रह  की हद तक  कम्युनिस्ट विरोधी हो गए थे और जो   ‘असफल देवता’ (गॉड दैट फेल्ड) की सेवा से तभी मुक्त हो सके थे जब  उन्होंने उसे  दानव में तब्दील कर दिया था. शीतयुद्ध के दौर में ऐसे लोग बहुतायत में थे”. शीतयुद्ध के इसी दौर में स्टीफेन स्पेंडर ,आर्थर कोसलर सहित बुद्धिजीवियों  को बड़ी जमात ‘कांग्रेस फार कल्चरल फ्रीडम ‘ के बैनर तले अमरीका के  कम्युनिस्ट विरोधी अभियान का हिस्सा बनी थी .भारत में इस अभियान की  बागडोर उन दिनों ‘कांग्रेस फार कल्चरल फ्रीडम’ की भारतीय शाखा के सचिव  प्रभाकर पाध्ये के हाथों  में थीं . अज्ञेय किस तरह इस अभियान से जुड़े थे इसका खुलासा ‘परिमल’ के केशव चन्द्र वर्मा ने अपने उस संस्मरण में किया है जो ओम थानवी द्वारा दो खण्डों में सम्पादित पुस्तक ‘अपने अपने अज्ञेय’ के दूसरे खंड में शामिल है . ‘परिमल’ के  १९५७ के ‘साहित्य और राज्याश्रय’ विषय पर आयोजित सम्मेलन का उल्लेख करते हुए  केशव चन्द्र वर्मा ने लिखा है  , “ उस सम्मलेन में दो कड़वी बातें हुईं –एक तो यह कि वात्स्यायन ने बिना परिमल की संयोजन समिति से स्वीकृति लिए एक मराठी लेखक प्रभाकर पाध्ये को निमंत्रित कर दिया जो ,उस समय ‘कांग्रेस फार कल्चरल फ्रीडम’ वाली अमेरिकी एजेंसी के एक सक्रिय कारकुन माने जाते थे .उन्होंने इस आयोजन के लिए कुछ रकम देने की बात भी वात्स्यायन के जरिये कहलाई .बस फिर क्या था इस पर ‘नकचढ़े परिमल दिमाग’ ने न केवल थू थू की ,बल्कि प्रकारांतर से पाध्ये को अपमानित भी किया . .पाध्ये का अपमान ,प्रस्ताव पास करने का विरोध और और परिमल के भीतर से ऊभरता हुआ अपने को मुक्त करने का अंदाज वात्स्यायन को कहीं गहरे स्तर पर काट गया .उन्हें सदा आँखें मूंदकर साथ चलने वालों की तलाश थी ,जो परिमल से उन्हें अंततः नहीं मिला”.(अपने अपने अज्ञेय खंड २ –सं. ओम थानवी ,पृष्ठ ६१७-६१८)
             
दरअसल ‘अज्ञेय पंथ’ की  शीतयुद्ध के  दौर की  यही वह  विरासत है जिसे अज्ञेय के ‘शिविर शिष्य’ ओम थानवी आज भी ढो रहे हैं . यहाँ दिलचस्प यह भी है कि अमेरिकी मदद को नकारने की ‘थू थू’  का ‘परिमालियन’ दायित्व भी आज केवल उन वाम मतवादियों का रह गया है जो पहले से ही इसके लिए प्रतिज्ञाबद्ध थे .अर्चना वर्मा  जिसे  ओम थानवी द्वारा   फेसबुक पर   ‘मजा लेते से अंदाज में कोंचना’ कह रही हैं वास्तव में वह अज्ञेय के महिमामंडन का ऐसा  ‘राजसूय यज्ञ’ है जिसमें वामपंथी विचारधारा को यज्ञ की समिधा के रूप में स्वाहा किया जा रहा है . इस यज्ञ के दोषपूर्ण मन्त्राचार को जब प्रश्नांकित किया जाता है तब ओम थानवी उन्हें ‘मतवादी ,शोहदे ,मनचले और पण्डे’ जैसी उपाधि देकर संवाद के कपाट बंद कर देते हैं . इतना ही नहीं वे फेसबुक के अपने अभियान को ‘साहित्य में फिर सी आईए’ जैसी सनसनी के साथ ‘जनसत्ता’ में परोस देते हैं  और कुतर्कों व मिथ्या तर्कों का प्रतिवाद किये जाने पर उसे प्रकाशित तक करने की जनतांत्रिकता का निर्वाह नहीं करते . यह सचमुच विस्मयकारी है कि अर्चना वर्मा इस सब की अनदेखी करके ‘दलबद्ध आयोजन बनाम एकाकी योद्धा’ का रूपक गढ़ती हैं . क्या सचमुच उन्हें कमलेश ,अशोक वाजपेयी ,ओम थानवी और उदयन वाजपेयी की जुगलबंदी नहीं सुनायी दे रही है ? क्या यह अनायास है कि ज्यों ही  कमलेश का सी आई ए और अमेरिका के प्रति शुक्राने का साक्षात्कार अशोक वाजपेयी द्वरा प्रकाशित रज़ा फाऊंडेशन की  पत्रिका ‘समास’ में प्रकाशित होकर विवादित होता है त्यों ही ओम थानवी पहले फेसबुक पर फिर ‘जनसता’ के पृष्ठों पर मोर्चा संभाल लेते हैं !  ‘प्रतिलिपि’ पत्रिका  की कथित खरीद पर  ओम थानवी की गलतबयानी को लेकर ज्यों ही  उन्हें घेरा जाता है , अशोक वाजपेयी उनके बचाव में ‘नरो वा कुंजरो’ की शैली में  बयान के साथ प्रस्तुत हो जाते हैं . कमलेश के विचारों और कविता पर जव  फेसबुक पर प्रसंगवश मंगलेश डबराल सवाल उठाते हैं तो क्या यह यूं ही  है कि ‘समास’ के संपादक उदयन वाजपेयी ‘जनसत्ता’ में नया मोर्चा खोल देते हैं , और कम्युनिज्म को विदेशी विचारधारा कहकर ख़ारिज करते हैं .क्या कमलेश के दो-दो कविता संग्रहों का रजा फाऊंडेशन के तत्वावधान में अशोक वाजपेयी द्वारा विमोचन महज एक संयोग है ? आखिर ऐसा क्यों है कि जब महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना के उपाध्यक्ष की संस्था के कार्यक्रम में अशोक वाजपेयी के एकल कविता पाठ पर सवाल उठाये जाते हैं तो उनके बचाव में ओम थानवी यह ढाल लेकर खड़े हो जाते हैं कि उन्हें ‘कवि’ जगदम्बा प्रसाद दीक्षित ने आमंत्रित किया था ? अब यह कौन ,कैसे कहे कि न तो जगदम्बा प्रसाद दीक्षित कवि हैं और न उन्होंने अशोक वाजपेयी को आमंत्रित किया था . जगदम्बा प्रसाद दीक्षित शिव सेना के मुखपत्र ‘सामना’  के स्तंभकार रहे हैं और शिव सेना से अपनी वैचारिक नजदीकियों के ही चलते ‘मनसे’ के साहित्यिक मंच से सम्बद्ध  हैं . हाँ, एक समय उन्होंने ‘मुर्दाघर’ सरीखा बहुचर्चित उपन्यास  और ‘गंदगी और जिन्दगी’ सरीखी कुछ कहानियां हिन्दी में  जरूर लिखी थीं . अर्चना वर्मा उपरोक्त  सारे सहकार की अनदेखी करती हैं तो क्यों ? कहीं इसलिए  तो नहीं कि वे स्वयं भी अज्ञेय की ‘वत्सल निधि’ के लेखक शिविरों की सहभागी रही हैं?  

 दो टूक बात तो यह है कि अज्ञेय के  शताब्दी  समारोह के अंतर्गत किये जाने वाले आयोजनों के बहाने ओम थानवी ने अज्ञेय की पुनर्प्रतिष्ठा का जो अभियान शुरू किया था , अब विचारधारा और वामपंथ विरोध के रूप में यह उसकी तार्किक परिणति है . कमलेश ने तो कन्युनिस्टों को नेस्तनाबूद करने के लिए   धूनी रमा ही ली है . इस सिलसिले में वे अब  ‘रूसी संस्कृति के उद्भव और विनाश’ की चर्चा के  बहाने कम्युनिस्टों की खबर लेंगें .अशोक वाजपेयी ने भी गिरिराज किराडू को लिखे पत्र में स्वयं के विचारधारा विरोधी होने का फिर से ऐलान कर दिया है .ओम थानवी भी भोपाल के ‘वनमाली समारोह’ में साहित्य को विचारधारा से अलग रखने की अपनी मंशा प्रकट कर चुके हैं . और अर्चना जी तो सी आई ए का साथ मकतल तक देने को प्रस्तुत ही हैं .कहने की आवश्यकता नहीं कि यह ‘विचारधारा के विरोधियों’ द्वारा वामपंथी ‘ अज्ञान के अँधेरे’ को मिटाने की नयी मुहीम  है . यह सचमुच दुर्भाग्यपूर्ण  है कि जब दुनिया के बुद्धिजीवी नागरिक स्वतन्त्रता के विरुद्ध अमेरिकी साम्राज्यवाद और उसकी  गुप्तचर संस्था  की हत्यारी  भूमिका को लेकर चिंतित हों तब हिन्दी की दुनिया में कुछ लोगों द्वारा  वामपंथ और विचारधारा का बिजूका खड़ाकर अमेरिकी साम्राज्यवाद  के पक्ष में सहमति  का वातावरण बनाया जा रहा है . काश इन योद्धाओं को यह समझ होती कि इन्होने जिनके जिरिह- बख्तर  पहन रखे हैं वे ही इनके देश और समाज पर हमलावर  हैं ! सचमुच ग़ालिब ने इन्ही वक्तों के लिए लिखा था कि 

          “दे  और  दिल उनको, जो  न दे मुझको जुबाँ और !”

सी -855.इंदिरा नगर ,लखनऊ -226016. मो.09415371872. email: virendralitt@gmail.com





           


पढ़िए गीता बनिए सीता: साक्षरता एवं जेंडर अनुपात के परिसंबंध - प्रज्ञा जोशी

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स्त्री सशक्तीकरण की प्रक्रिया में शिक्षा की भूमिका प्रेरक, साधन और साध्य तीनों ही दृष्टि से महत्वपूर्ण मानी गयी है. उसी तरह समाज के विकास में भी शिक्षा का अहम स्थान है. समाज और देशों की भौतिक उनत्ति में ही नहीं बल्कि सामाजिक विकास में भी शिक्षा भूमिका निभाती है. हालांकि जब मानवीय चेहरे के विकास की बात उठ रही हो और विकास की संकल्पना कई प्रश्नचिह्नों से घिरी हो तो जाहिर है कि इस प्रश्न के कई सिरे सामने आयेंगे. विकास के अनेक आयामों के साथ शिक्षा की प्रकृति, पद्धति और पहुँच ये सभी धागे उलझते नज़र आयेंगे. इस लेख में राजस्थान में महिला साक्षरता व बाललिंगानुपात इन दो सिरों को गूंथकर कुछ सवाल उठाने का प्रयास किया गया है. इन दो पक्षों को आमने सामने रखते हुए यह जानने का प्रयास है कि साक्षरता जिसे शिक्षा का एक पक्ष माना जाता है, उसका समाज में स्त्रियों की प्रस्थिति, जिसका एक सूचक बाललिंगानुपात है उससे किस प्रकार का संबंध है. २०११ की जनगणना के आंकड़े मार्च में प्रकाशित हुए उन्हें आधार बनाते हुए पिछले दशक में इन सबंधों में आए परिवर्तन को प्रस्तुत किया जा रहा है. इन परिवर्तनों की व्याख्या करते हुए यह समझने की कोशिश की गयी है कि शिक्षा और खासकर स्त्री शिक्षा जेंडरगत चेतना का समाज में संचार कर पाती है या वह पितृसत्तात्मक विकास के एजेंडा संरचनात्मक स्तर पर लागू करने का एक ज़रिया बनकर रह जाती है.

विकास, शिक्षा और स्त्रियाँ: राष्ट्र-निर्माण और चेतना के स्वर.

१९ वीं शताब्दी में भारत में जब स्त्रियों के लिए सार्वजनिक शिक्षा के द्वार खोल दिए गए तो ज्ञानोदय की रोशनी में वह राह राष्ट्रीयता, मध्यम वर्गीय और जातिगत चेतना के घुमावदार मोडों से होकर गुज़रती थी. यहाँ तक कि स्त्री के शिक्षित होने को राष्ट्रनिर्माण में शिक्षित और संस्कारित राष्ट्रवीरों की परवरिश करने के लिए माओं को शिक्षित करने की गरज के तौर पर देखा गया था. ऐसे में स्त्री चेतना या स्त्री मुक्ति के चिह्न शिक्षा में ढूँढना मुश्किल ही था. परन्तु फिर भी स्त्री शिक्षा से उठते चेतना के कई स्वर उस समय में भी देखे जा सकते है. जैसे जैसे विकास में स्त्री शिक्षा का महत्व अधोरेखित किया जाने लगा वैसे वैसे स्त्री शिक्षा की मुहिम सार्वत्रीकरण की ओर बढने लगी. स्त्रियाँ शिक्षा से रोज़गार के क्षेत्र में आयीं. यह इस दृष्टि से महत्वपूर्ण था कि स्त्रियों के श्रम सार्वजनिक क्षेत्र में अवैतनिक नहीं रहे. शिक्षा ने स्त्रियों के लिए औपचारिक उद्योगों और ज्ञान के क्षेत्र में पैर जमाने के रास्ते बना दिए. विकास मेंस्त्रियों को दृश्यमान बनाने की कोशिश में हमने केवल शिक्षित स्त्रियों  की संख्या बढाने पर जोर दिया. पर सवाल आज भी कायम है की क्या शिक्षा जेंडर संवेदनशील चेतना का विकास कर पाई है?

विकास को नापने के लिए जब पैमाने निर्धारित किए जा रहे थे तब मानव विकास सूचकांक १९९० में तैयार किया गया और उसके पांच साल बाद ही (1995) इसे जेंडर संबंधित विकास सूचकांक (GDIGDI) तथा जेंडर सशक्तीकरण मानदंड (GEMGEM) की जोड़ दी गयी ताकि मानवीय क्षमता और ‘समृद्धि’ का सर्वांगीण आलेख प्रस्तुत किया जा सके. जहाँ GDIGDI स्त्री-पुरुषों के बीच जीवन-प्रत्याशा, आय और स्कूली नामांकन तथा वयस्क साक्षरता के आधार पर तुलना प्रस्तुत करता हैं वहीं GEMGEMस्त्रियों की आर्थिक और राजनैतिक सहभागिता के पैमाने पर विकास को परखता है. यहाँ यह दर्ज करना ज़रूरी है कि इसी दौरान बीजिंग संम्मेलन में सभी देशों ने महिला सशक्तीकरण की वकालत करते हुए महिलाओंकी की सहभागिता और निर्णय क्षमता को प्रोत्साहित करने पर जोर दिया था और उसके लिए शिक्षा की प्रेरक के भूमिका को चिन्हित किया था (सक्सेना, साधना १९९५). यह परिप्रेक्ष्य में परिवर्तन था. विकास में महिलाएं (WIDWomen in Development) और महिला और विकास (WADWomen and Development) इन दो परिप्रेक्ष्यों से हटकर यह परिप्रेक्ष्य जेंडर आधारित मुद्दों को विकास के विमर्श में मुख्यधारा में लाने के सन्दर्भ में दृढ़ था.इसी दौर में आशियाई देशों में एक तरफ ‘कार्य’ के परिभाषा में परिवर्तन लाकर महिलाओं के श्रम को मुख्यधारा में दृश्यमान करने के प्रयास हो रहे थे और दूसरी तरफ में औद्योगिकीकरण और आर्थिक उदारीकरण की तेज और व्यापक प्रक्रियाओं के बरक्स वहाँ बालालिंगानुपात का पौरूषीकरण बढता जा रहा था. जनसंख्या से ‘गुमशुदा लडकियाँ’ एक आशियाई परिघटना के रूप में सामने आयी. अमर्त्य सेन कहते है कि जब सामान्यतः सभी समान परिस्थितियां रखने पर लड़कों के मुकाबले लडकियों की जीवन प्रत्याशा अधिक होती है तो गिरता हुआ बालालिंगानुपात और वहाँ से झांकती ‘100 मिलियन गुमशुदा लडकियां’ विकास के अलग ही आयाम पेश कर देती हैं. (सेन, अमर्त्य 1990) ऐसे में आशियाई समाजों में आर्थिक (अ)विकास के चलते क्षमतावर्धन ही नहीं बल्कि ज़िंदा रहने के अवसर लडकियों के हिस्से में असमान आते हो वहाँ शिक्षा की उपलब्धता और अनुपलब्धता उनके अस्तित्व, प्रस्थिति और चेतना पर कैसे प्रभाव डाल रही है इसकी पडताल जरूरी हो जाती है.

विकास की राजनीति की पार्श्वभूमि में आशियाई देशों में विकास के केन्द्र (Centre) और परिधि (Periphary) के प्रदेशों में इन प्रभावों की तीव्रता तथा बुनावट अलग होगी. एक रिपोर्ट के अनुसार पूरी दुनियाँ से 10 करोड बच्चियां गायब हैं उसमें से एशिया से गायब 6 करोड लडकियों में से 3.05 करोड चीन से, भारत से 2.28 करोड,पाकिस्तान से 31 लाख, बांग्लादेश से 16लाख, और नेपाल से 2 लाख लडकियां गायब है. अगर इन देशों के 2011 केमानव विकास सूचकांक के आंकड़े ( अनुक्रम से 0.687, 0.547, 0.504, 0.500, और 0.458) देखें तो यह बात चीन का अपवाद को छोड़कर उभरकर आती है कि कैसे विकास और जेंडर प्रस्थिति में नकारात्मक सहसंबंध है.  इस लेख में राजस्थान की चर्चाइसी दृष्टिकोण से की जा रही है. मानव विकास के आधार पर राजस्थान मध्यम स्तर के सब से नीचले पायदान पर 0.537 अंकों के साथ 35 राज्यों और केंद्रशासितप्रदेशों में 28 वें स्थानपर है. आर्थिक दृष्टी से देखा जाएँ तो राजस्थान में प्रति व्यक्ति घरेलु सकल उत्पाद 43,641.2 रुपये है और आय सूचकांक 0.640 है.वहीं शिक्षा का सूचकांक 0.755 तो स्वास्थ्य संबंधी 0.735 है. इन सभी दृष्टी से राजस्थान को प्रसिद्ध जनांकिकीविद् आशीष बोस ने ‘बीमारू’ राज्यों की कोटी में रखा था. अब इन राज्यों को थोडा परिष्कृत संबोधन दिया गया है: ‘एम्पावर्ड एक्शन ग्रुप’ (EAG)[i]. संबोधन बदलने से परिस्थिति में परिवर्तन नहीं आता. उसके लिए ज़रूरत होती है, नज़रिया बदलने की और उसके आधार पर प्राथमिकताएं निर्धारित करने की. इस समय जब राजस्थान की पाठ्यचर्या निति बन रही है तब यह पडताल और भी सामायिक बन जाती है कि शिक्षा और जेंडर सूचकांक में कैसा परस्पर संबंध है.

2011 की जनगणना: भारत के सन्दर्भ में कुछ तथ्य
          
भारत में 2011 की जनगणना में जनसंख्या की दशकीय वृद्धि १९५१-६१ के बाद से सब से कम (१७.६४) रही है. परन्तु 2001 की जनगणना में साक्षरता दर में आये उछाल को बरकरार रखने में हम असफल रहें हैं. साक्षरता में जेंडर अंतराल को निरंतर रूप से कमी आयी है. दूसरी तरफ भले ही पिछले दो दशकों सेस्वास्थ्य सेवाओं के सुधार से कुल जनसंख्या के लिंगानुपात में निरंतर बढोत्तरी हो रही है[ii], परन्तु 1961 से लगातार बालालिंगानुपात गिर रहा है.  होना तो यह चाहिए था कि साक्षरता में जेंडर अंतराल कम होने के साथ समाज में जेंडर आधारित अन्य असमानताएं कम होनी चाहिए थी. परन्तु 2011 की जनगणना के आंकड़े कुछ और ही कहानी बयान करते हैं. हालांकि यह चित्र केवल राजस्थान का ही नहीं पुरे भारत के सन्दर्भ में लागू होता है.

इन दोनों मानदंडों के सन्दर्भ में विषयान्तर का खतरा उठाते हुए यह बात जोड़ देना चाहूंगी कि  जनगणना की मुख्य तालिकाएं जब प्रकाशित हुई तो पहली बार जनसंख्या वृद्धि, साक्षरता और लिंगानुपात के साथ बाललिंगानुपात के आंकड़े एक साथ प्रस्तुत किए गए. यह अनायास ही नहीं था. दरअसल शासन साक्षरता में हुई प्रगति को उजागर करने के लिए यह चाहता था कि साक्षरता दर में +7 की जनसंख्या की साक्षरता दर को प्रधानता से दिखाया जाए. ऐसे में 0-6 उम्र की जनसंख्या और उनके अनुपात को प्रस्तुत करना आवश्यक था सो प्राथमिक तालिका में सामने आया बाललिंगानुपात का गिरता ग्राफ. निचली तालिका में यह बात स्पष्ट है कि 1981-91 के दशक में बाललिंगानुपात में 17 बिंदुओं की गिरावट दर्ज हुई थी और लिंगानुपात में 7 बिंदुओं की. इसी समय साक्षरता दर में हो रही वृद्धि की रफ़्तार कम हुई थी (1961 से लेकर 2011 तक साक्षरता दर में दशकीय परिवर्तन अनुक्रम से इस प्रकार है:  6.15, 9.12, 8.64, 12.62 और 10.81) इसलिए साक्षरता कार्यक्रमों को 1991 के बाद प्राथिमिकता दी गयी थी ताकि साक्षरता दर को बढ़ाया जा सके. स्वाभाविक है कि सरकार के लिए शिक्षा के क्षेत्र में हासिल की गयी उन्नत्ति को दर्ज करना पहली प्राथमिकता थी. चूँकि लिंगानुपात में वृद्धि थी तो इसका अर्थ था कि स्त्रियों की मृत्यु दर जिसमें सब से अधिक हिस्सा मातृत्व मृत्यु का होता है उसे कम करने में भी शासन सफल रहा है. जनसंख्या की वृद्धि दर को घटाने में भी सफलता पायी गयी है. परन्तु शासन 1991 में बाललिंगानुपात में आयी भारी गिरावट के प्रति उदासीन था[iii]. ऐसे में शासकीय नीतियों और योजनाओं से हासिल हुए विकास और उन्नत्ति की राह पर गुमशुदा हुई लडकियां खामोशी में ही दर्ज कर गयी अपने गुमशुदा होने की रिपोर्ट.

            तालिका १: भारत में साक्षरता दर व जनसंख्या के जेंडर अनुपात तथा उनके दशकीय परिवर्तन.

साक्षरता दर
साक्षरता दर में दशकीय परिवर्तन
जेंडर अंतराल
(Gender Gap)
लिंगानुपात
लिंगानुपात
में दशकीय परिवर्तन
बाललिंगानुपात
(0-6)
बाललिंगानुपात
में दशकीय परिवर्तन
पुरुष
स्त्री
पुरुष
स्त्री
1951
27.16
08.86
-----*
-----*
18.30
946
01
----*
------*
1961
40.4
15.35
13.24
06.49
25.05
941
-05
976
------*
1971
45.96
21.97
05.56
06.62
23.98
930
-11
964
-08
1981
56.38
29.76
10.42
08.79
26.62
934
04
962
-02
1991
64.13
39.29
07.75
09.53
24.84
927
-07
945
-17
2001
75.26
53.67
11.13
14.38
21.59
933
06
927
-18
2011
82.14
65.46
06.88
11.79
16.68
940
07
914
-13
1.   1951, 1961 और 1971  में साक्षरता दर  पांच साल और उससे ज्यादा उम्र की जनसंख्या का है जब की 1981, 1991, 2001 और 2011 की जनगणना में सात साल और उससे अधिक उम्र की जनसंख्या के आधार पर नापी गयी है.
2.   1981के साक्षरता के दर में असम के साक्षरता दर शामिल नहीं है. 1991की जनगणना में जम्मू-कश्मीर के आंकड़े शामिल नहीं है.
3.   --------* आंकड़े उपलब्ध नहीं है.

जनसांख्यिकी और शिक्षाविदों ने पुरजोर ढंग से सरकार का ध्यान इस तथ्य पर लाया कि 2001 की जनगणना के आधार पर गिरता हुआ बालालिंगानुपात यह शिक्षित वर्ग में दिखनेवाली परिघटना है. यही कारण है कि जब राष्ट्रीय पाठ्यचर्या की रूपरेखा (रापारू) बनाई गयी तो शिक्षा के माध्यम से जेंडर संवेदनशीलता निर्माण करने पर जोर दिया गया. रापारू में इस तथ्य को रेखांकित किया गया कि शिक्षा नीति में पिछले तीन दशकों से जेंडर समानता लाने के लक्ष्य को रखा जाने के बावजूद शिक्षा की पहुँच अभी भी जेंडर असमानता बरकरार रख रही है. दूसरी तरफ पाठ्यचर्या से जेंडर के मुद्दे नादारद है और यह भ्रान्ति बना दी गयी है कि जेंडर के मुद्दे यानी महिलाओं के मुद्दे है पुरे समाज के मुद्दे नहीं. ( राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसंधान और प्रशिक्षण परिषद, 2006) जिस तरह यह मान लिया जाता है कि असमान लिंगानुपात और बाललिंगानुपात यह केवल महिलाओं का प्रश्न है, पुरे समाज या देश के विकास से इसका ताल्लुक नहीं है. अगला सेक्शन इस भ्रान्ति को दूर करने का एक प्रयास है. शिक्षा, विकास और समताधिष्टित तथा हिंसा मुक्त समाज यह परस्पर गुथे हुए प्रश्न है. खासकर उन समाजों में ये प्रश्न और भी महत्वपूर्ण बन जाते हैं, जहां सामंती संरचना के अंदर असमान विकास कि एकरेखीयसोच शिक्षा को शोषण, दमन और हिंसक मूल्यों को समाज में पनपाने का जरिया बन जाती है.

राजस्थान 2011 जनगणना: जेंडर संरचना

2011 की जनगणना के अनुसार राजस्थान का लिंगानुपात 1901 (905) के बाद से सब से अधिक रहा है. राष्ट्रीय स्तर पर सामने आयी प्रवृत्ति का प्रतिबिंब राजस्थान की जनगणना के लिंगानुपात में भी दीखता है, पिछले दो दशकों से लिंगानुपात बढ़ा है. पर राष्ट्रीय औसत से 14 अंक नीचे राजस्थान (926) EAG राज्यों में बिहार (916) और उत्तर प्रदेश (908) के बाद तीसरे स्थान पर है. इस जनगणना में ग्रामीण और शहरी लिंगानुपात का अंतर भारत और राजस्थान दोनों में ही 21 अंकों से घटा है. परन्तु इस वृद्धि के बावजूद यह बात दर्ज करनी होगी कि पिछली जनगणना में दो जिले- डूंगरपूर और राजसमन्द में लिंगानुपात 1000 से अधिक था परन्तु इस दशक में किसी भी जिले का लिंगानुपात 1000 के आंकड़े को छू नहीं पाया. यहाँ तक कि राष्ट्रीय प्रवृत्ति के विपरीत डूंगरपुर, जालोर राजसमन्द, उदयपुर, चुरू, सीकर और सिरोही इन 7 जिलों में लिंगानुपात में गिरावट आयी है. चिंता की बात यह है कि इनमें से अधिकतर वे जिले हैं जो अपने ज्यादा लिंगानुपात के लिए जाने जाते रहे हैं. और यह गिरावट मामूली अंकों की नहीं है. जैसे डूंगरपुर, जो पिछली जनगणना में लिंगानुपात में सब से शीर्ष स्थान पर रहा है वहाँ 32 अंकों की गिरावट दर्ज हुई है. इसका अर्थ है कि इन जिलों में विकास के असमान प्रतिरूपों के चलते हुए पलायन, कुपोषण, स्वास्थ्य सेवाओं की अनियमित पहुँच और उपलब्धता इनके परिणाम स्वरुप लिंगानुपात गिरा है. इन जिलों में से सीकर और चुरू को छोड़ बाकी पांच जिलों में स्वास्थ्य सूचकांक न्यूनतम दर्जे का रहा है जिसमें डूगरपुर का सूचकांक 0.282 तो दूसरी तरफ जालोर का 0.497 रहा है. (आर्थिक एवं सांख्यिकीय निदेशालय तथा विकास अध्ययन संस्थान, जयपुर 2008)

          राजस्थान में बाललिंगानुपात 1981 के बाद 71 अंक गिरकर 883 पर आया है. न्यूनता की तरफ बाललिंगानुपात जाने की प्रवृत्ति राजस्थान के कई जिलों में फ़ैल चुकी है 2001 की जनगणना में केवल गणगानगर, धौलपुर और हनुमानगढ ये तीन जिले थे जिनका बाललिंगानुपात न्यूनतम श्रेणी यानी 862 से नीचे था जबकि 2011 की जनगणना में 10 जिले इस श्रेणी में आ चुके हैं. राज्य के औसत के आधार पर विभाजन देखें तो 2001 की जनगणना में उस समय के 32 जिलों में से 23 जिले राज्य के औसत से अधिक बाललिंगानुपात रखते थे और 2011 में केवल 9 जिले राज्य के औसत से ऊपर की रेखा को छू पा रहे हैं. (देखे तालिका २)

            2011 की जनगणना के आधार पर राजस्थान में अंतर-राज्यीय स्तर पर बाललिंगानुपात के सन्दर्भ में निम्न प्रवृत्तियां देखने को मिलती हैं:

Ø  राजस्थान के आदिवासी आँचल के सभी जिले जिनमे वैसे तो उच्चतम बाललिंगानुपात का स्तर दीखता हो पर इस सभी जिलों में बाललिंगानुपात में पिछले दशक में खांसी गिरावट हुई है. देश के अन्य आदिवासी इलाकों में भी यह प्रवृत्ति इस जनगणना में उभरकर आयी है.


तालिका २: राजस्थान बालालिंगानुपात और महिला साक्षरता दर : दशकीय परिवर्तन

जिले का नाम
बाललिंगानुपात
(०-६ वर्ष  की उम्र के बच्चों के सन्दर्भ में)
बाललिंगानुपात में दशकीय परिवर्तन
महिला साक्षरता दर
महिला साक्षरता दर में दशकीय परिवर्तन

2001
2011
2001-11
2001
2011
2001-11

कुल
ग्रामीण
शहरी
कुल
ग्रामीण
शहरी
कुल
कुल
ग्रामीण
शहरी
कुल
ग्रामीण
शहरी
कुल
राजस्थान
909
914
934
883
886
869
-26
43.85
37.33
64.67
52.66
46.25
71.53
8.81
गंगानगर
850
861
814
854
859
841
+4
52.44
47.19
67.81
60.07
55.65
71.78
7.63
हनुमानगढ़
872
876
854
869
875
845
-3
49.56
46.27
62.57
56.91
53.48
70.76
7.35
बीकानेर
916
921
917
902
902
901
-14
42.45
30.27
64.76
53.77
44.81
70.12
11.31
चुरु
911
910
898
896
897
893
-15
54.36
52.37
59.14
54.25
51.13
62.00
-0.11
झुंझुनु
863
865
852
831
825
852
-32
59.51
59.25
60.53
61.15
59.86
65.54
1.64
अलवर
887
894
837
861
864
844
-26
43.30
38.56
70.35
56.78
52.69
75.22
13.48
भरतपुर
879
882
864
863
867
840
-16
43.56
39.06
60.95
54.63
50.85
69.43
11.07
धौलपुर
860
863
839
854
858
837
-6
41.84
38.89
54.19
55.45
53.23
63.51
13.67
करौली
873
871
890
844
842
855
-29
44.43
42.81
53.78
49.18
47.05
60.79
04.75
.माधोपुर
902
901
906
865
866
862
-37
35.17
29.52
58.45
47.8
42.65
67.80
12.63
दौसा
906
908
880
859
861
842
-47
42.25
39.95
61.58
52.33
49.85
69.14
10.08
जयपुर
899
911
884
859
865
852
-40
55.52
43.86
67.13
64.63
52.07
75.82
09.11
सीकर
885
882
898
841
836
860
-44
56.11
55.27
59.34
58.76
56.75
65.26
02.65
नागौर
915
916
913
888
886
894
-27
39.67
36.85
53.41
48.63
45.92
60.03
08.96
जोधपुर
920
926
902
890
889
895
-30
38.64
24.75
64.34
52.57
41.99
71.85
13.93
जैसलमेर
869
870
860
868
868
871
-1
32.05
27.26
58.10
40.23
36.06
66.81
08.18
बाडमेर
919
920
896
899
900
891
-20
43.45
42.04
60.22
41.03
38.92
67.45
-02.42
जालोर
921
922
910
891
891
888
-30
27.80
26.18
47.80
38.73
37.03
57.32
10.93
सिरोही
918
931
847
890
895
859
-29
37.15
31.29
64.12
40.12
33.02
67.41
02.97
पाली
925
927
914
895
899
876
-30
36.48
31.65
54.65
48.35
43.74
64.55
11.87
अजमेर
922
930
906
893
898
883
-29
48.90
32.66
72.15
56.42
41.87
77.48
07.52
टोंक
927
929
920
882
882
887
-45
32.15
25.66
56.03
46.01
40.14
65.54
13.86
बूंदी
912
916
888
886
886
887
-26
37.79
32.46
60.04
47.00
41.56
68.16
9.21
भीलवाडा
949
959
903
916
921
894
-33
33.43
26.16
61.97
47.93
41.08
73.40
14.5
राजसमन्द
936
939
911
891
893
880
-45
37.68
33.10
68.29
48.44
43.77
72.95
10.76
डूंगरपुर
955
959
877
916
919
850
-39
31.77
28.86
67.82
46.98
44.75
78.29
15.21
बांसवाड़ा
964
967
868
925
928
863
-39
29.22
25.05
76.59
43.47
40.47
80.28
14.25
चित्तोडगढ
929
930
904
903
907
881
-26
35.99
28.95
68.87
46.98
40.68
74.80
10.99
कोटा
912
922
901
889
899
881
-23
60. 43
49.85
69.39
66.32
54.23
74.28
05.79
बाराँ
919
921
910
902
906
887
-17
41.56
37.66
60.33
52.48
48.24
68.25
10.92
झालावाड़
934
941
885
905
909
888
-29
40.02
35.25
68.16
47.06
42.01
72.84
07.04
उदयपुर
948
957
879
920
927
872
-28
44.49
36.26
77.49
49.10
40.46
82.02
04.61
प्रतापगढ़
953
959
876
926
929
883
-17
31.77
27.48
73.54
42.40
39.05
77.61
10.63

Ø  दूसरी तरफ 2001 की जनगणना में जिन जिलों में बाललिंगानुपात का न्यूनतम स्तर था वहाँ गिरावट में तेज़ी की प्रक्रिया कम हुई है. यहाँ तक कि गगानगर में बाललिंगानुपात में बढोत्तरी हुई है हालांकि उसके बावजूद वहाँ बाललिंगानुपात का स्तर काफी कम है.

Ø  जनसंख्या में दशकीय वृद्धि जिन तीन जिलों में सब से कम है; गंगानगर (10.06), झुंझुनू (11.81) और पाली (11.99) वे बाललिंगानुपात के स्तर पर न्यूनतम श्रेणी में आते हैं. यानि हमारी जनसंख्या नियंत्रण के लिए हो रहे परिवार नियोजन हमारे बाललिंगानुपात असंतुलित कर रहा है.

Ø  पिछली जनगणना में शहरी क्षत्रों में बाललिंगानुपात अधिक गिरा था परन्तु इस जनगणना में यह प्रवृत्ति ग्रामीण इलाकों में अपने पैर पसार रही है. हालांकि राज्य स्तर पर देखें तो शहरी क्षत्र में 65 अंकों की गिरावट है तो ग्रामीण क्षेत्र में 28 अंक. ग्रामीण क्षेत्र में 30 अंकों से अधिक गिरावट बाललिंगानुपात में दर्ज करने वाले जिलों की संख्या 20 है जब कि शहरी क्षेत्र में ऐसे जिलों की संख्या केवल 8 है. गंगानगर में तो शहरी क्षेत्र में 27 अंकों की बढोत्तरी है. सिरोही (12), जैसलमेर (11)और अलवर (09)इन जिलों के भी शहरी क्षेत्र में बाललिंगानुपात में बढोत्तरी दर्ज हुई है.
Ø  वह जिले जिनमें साक्षरता की दर ज्यादा हैं वहाँ बाललिंगानुपात तेज़ी से गिर रहा है जैसे जयपुर, झुंझुनू, और सीकर. दूसरी तरफ वे जिलें हैं,जहां साक्षरता की दर कम है और बाललिंगानुपात अधिकतम है जैसे प्रतापगढ़, डूंगरपुर, और बांसवाडा. पर ध्यान लेने लायक बात यह है कि इस दशक में जिन जिलों में महिला साक्षरता दर में सर्वाधिक वृद्धि पायी गयी है वहाँ बाललिंगानुपात तेज़ी से गिर रहा है जैसे डूंगरपुर (15.21) और बांसवाडा (14.25).

Ø  मानव विकास सूचकांक जिन जिलों में सर्वाधिक रहा हैं वहाँ बाललिंगानुपात का स्तर न्यूनतम रहा है जैसे गंगानगर, हनुमानगढ, झुंझुनू और अलवर. ये ध्यान देने लायक है कि ये जिले पारंपरिक रूप से असंतुलित लिंगानुपात और बाललिंगानुपातके लिए कुप्रसिद्ध जिले नहीं है जैसे जैसलमेर, धौलपुर, भरतपुर, करौली  या  सवाई माधोपुर- जहां लिंगानुपात कभी 900 के आंकड़े को पार नहीं कर पाता हो. ये वे जिलें हैं जहां आर्थिक सूचकांक, साक्षरता का सूचकांक और स्वास्थ्य सूचकांक उच्च स्तरीय रहा है. इसका अर्थ स्पष्ट है कि ज्यों समृद्धि और शिक्षित मध्यम वर्ग का इन जिलों में विस्तार हुआ है बाललिंगानुपात का स्तर गिर गया है.


साक्षरता दर के संबंध में 2011 की जनगणना में राजस्थान का परिवेश:

साक्षरता दर के सन्दर्भ में राजस्थान ने पिछले पचास सालों में काफी प्रगति हासिल की है. राष्ट्रीय स्तर की तरह यहाँ भी १९९१-२००१ के दशक में जो प्रगति हसिल की गयी वह अभूतपूर्व थी. परन्तु इस दशक में राज्य का निरक्षरता को मिटाने के सन्दर्भ में सर्वाधिक नकारात्मक योगदान (-3. 41) रहा है. पुरुषों की साक्षरता दर के सन्दर्भ में राजस्थान का स्थान देश के 35 राज्यों एवं केंद्र शासित प्रदेशों में २७ वां है परन्तु जैसे ही महिला साक्षरता दर की बात आती है, राजस्थान सबसे नीचले स्थान पर खडा मिलता है.यह संयोग नहीं है कि 2001 में बाललिंगानुपातके सन्दर्भ में देश में सब से निम्न श्रेणी में आंठवे स्थान को प्राप्त करनेवाला यह राज्य 2011 में 26 अंकों की गिरावट के साथ पांचवे स्थान पर आ जाता है. हरियाणा, पंजाब, जैसे राज्य और चंडिगढ़, दिल्ली जैसे केंद्रशासित प्रदेश भले ही बाललिंगानुपात में न्यूनतम स्तर हो पर पिछले दशक में उन्होंने अपने स्तर को सुधरा है. जबकि राजस्थान में यह स्तर और भी नीचे गिरा है.जैसे ही जेंडर असमानता की बात आती है वैसे ही राजस्थान का विकास का भ्रम काफूर हो जाता है. शहरी क्षेत्रों में साक्षरता का जेंडर अंतराल (Gender Gap)पिछले दशक में 4.15 से कम हुआ वहीं ग्रामीण क्षेत्र में यह अंतराल कम (3.58) होने की प्रक्रिया अभी भी थोड़ी धीमी है. यही वजह है कि इन दोनों क्षेत्रो में साक्षरता वृद्धि के जेंडर अनुपात पर होने वाले परिणाम अलग अलग दिखाई देते हैं.

            ग्रामीण क्षेत्र में जहां झुंझुनू, सीकर और कोटा साक्षरता दर के मामले में क्रमश: शीर्ष स्थानों पर हैं वहीं शहरी क्षेत्र की साक्षरता दर में राजस्थान के दक्षिणी क्षेत्र ने बढ़त ली है इस श्रेणी में क्रमश: उदयपुर, बासवाडा और डूंगरपुर में शीर्षस्थ हैं. यह थोड़ा उलझन पैदा करता है क्योंकि शिक्षा को शहरी से ग्रामीण क्षेत्र की तरफ विस्तार के रूप में आम तौर पर देखा जाता है तो जिन क्षेत्र में ग्रामीण इलाके साक्षरता में उन्नत्ति कर रहे हो वहाँ के शहरी क्षेत्र में साक्षरता दर फैलाव उतनी तेज़ी से क्यों नहीं रह पाता? और कैसे फिर इन्ही ग्रामीण सुशिक्षित क्षेत्र में बाललिंगानुपात घटता है? कैसे कम बाललिंगानुपात के लिए कुख्यात जिलों के साथ डूंगरपुर के शहरी क्षेत्र का बाललिंगानुपात न्यूनता की श्रेणी में जा बैठता है? यहाँ पर शिक्षा के समता और चेतना लाने के उद्देश्यों पर प्रश्नचिन्ह लग जाता है.

ऐसे कहा जाता है कि आदीवासी समाजों में प्रकृति के सहअस्तित्व पर टिकी न्यूनतम जीवन निर्वाह आधारित अर्थव्यवस्था में सरलतम श्रम विभाजन के चलते विषमतामूलक जेंडर संबंध कम पाए जाते हैं और यहीं कारण है कि जिन जिलों में आदिवासी जनसंख्या का बाहुल्य है, वहाँ लिंगानुपात तथा बाललिंगानुपात में असंतुलन कम पाया जाता है. परन्तु इन क्षत्रों में साक्षरता प्रसार के साथ ही जब गिरते बाललिंगानुपात के साक्ष्य मिलते हैं तो लगता है कि या तो आदिवासी समाज में जेंडर समतामूलकता के मूल्य होना यह एक मिथक है अथवा हमारी शिक्षा में जेंडर विषमता फैलानेवाले तत्त्व कूटकूटकर भरे हैं जिन्होंने आदिवासी मूल्य व्यवस्था का ह्रास किया है.  

शहरी क्षेत्र में साक्षरता और खासकर महिला साक्षरता में न्यूनतम परिवर्तन दिखता है. तीन कारण है- एक तो यहाँ पहले ही साक्षरता दर का स्तर ऊँचा है तो इसके फैलाव की गुजाइश कम है और इसका अर्थ है कि साक्षरता का सार्वत्रीकरण हमेशा ही एक दिवास्वप्न रहने वाला है. दूसरा यह कि नगरीकरण की प्रक्रिया के कारण शहरों का फैलाव ग्रामीण क्षेत्र में जिस तेज़ी से हो रहा है उतनी तेज़ी से नागरी मूल्य व्यवस्था (urbanism) का फैलाव नहीं हो रहा है. या फिर यूं कहे कि नगरीकरण आजीविका का केंद्र बनता हुआ हमेशा पलायन को बढ़ावा देता है और यह पलायन करनेवाले समूह कि निरक्षरता शहरी क्षेत्र के साक्षरता दर को नीचे खींचती है. पर ये तीनों ही कारण कुलमिलाकर विकास, आजीविका और साक्षरता के बीच सह्संबधों पर प्रश्नचिन्ह लगाते है. 

           साक्षरता बराबर विकास और आधुनिकीकरण का संरचनावाद से प्रेरित सिद्धांत तब चित हो जाता है जब साक्षरता के जरिए विषमता और सामंती पितृसत्तात्मक मूल्य अपनी जड़े मज़बूत कर लेते हैं. या विकास का पहिया उल्टा घुमने लगता है. झुंझुनू, सीकर और जयपुर इन जिलों में बाललिंगानुपात की गिरावट का सिलसिला पिछले दो दशकों से निरंतर रूप से चला आ रहा है. और इसका प्रभाव इस दशक में सामने आ रहा है. अब यहाँ जनसंख्या से लडकियां केवल गायब ही नहीं हो रही आपतु शिक्षा से भी महरूम होती जा रही हैं. झुंझुनू और सीकर के ग्रामीण क्षेत्र में महिला साक्षरता दर पिछले दशक में मात्र 0.61 और 1.48 बड़ी है. फिर से याद कर ले, ये दोनों ही वे जिलें है जहां शिक्षा सूचकांक काफी ऊँचा यानि क्रमश: 0.850 और 0.837 रहा है.(डीईएस और आयडीएस, 2008) 1991 में इन जिलों की ग्रामीण क्षेत्र में महिला साक्षरता दर अनुक्रम में 22. 00 और 15.47 तो 2001 में यहीं दर अनुक्रम में 59.25 तथा 55.27 रही है. इसका अर्थ है कि जब 2001 में इन जिलों के बाललिंगानुपात में भारी गिरावट आने का चलन शुरू हुआ तभी ग्रामीण क्षेत्र की महिला साक्षरता दर में तेज़ी से वृद्धि आयी पर 2011 में यह रफ़्तार ही लगभग रुक गयी. जब कि झुंझुनू में शहरी क्षेत्र में जहां बाललिंगानुपात में कोई गिरावट नहीं हुई वहीं महिला साक्षरता की दर में पांच अंक की वृद्धि दर्ज हुई. यहीं चित्र बाड़मेर और सिरोही में दिखता है जहां 2011 में ग्रामीण क्षेत्र में बाललिंगानुपात के गिरने के साथ महिला साक्षरता दर में गिरावट आयी या वृद्धि न्यूनतम थी परन्तु शहरी क्षेत्र में जहां बाललिंगानुपात में गिरावट का अनुपात तुलनात्मक दृष्टी से कम था वहाँ उसी अनुपात में महिला साक्षरता में वृद्धि पायी गयी है.


ये साक्ष्य किसी भी सामान्यीकरण और निष्कर्ष पर पहुँचाने के लिए न काफी है यह मानते हुए भी इन तथ्यों से अनदेखी नहीं की जा सकती. वे भविष्य में संभावित प्रवृत्तियों की और इशारा कर रहे हैं. राजस्थान मानव विकास रीपोर्ट बताती है कि जिन जिलों में मानव विकास सूचकांक सबसे अधिक है वहाँ पर भी अधिकतम 35 प्रतिशत स्कूलों में लडकियों के लिए शौचालय की व्यवस्था है. हमारे विकास की दृष्टि में ये प्राथमिकताएं नहीं है. मूलभूत सुविधाओं में इतनी विषमता रखकर हम कैसे साक्षरता को पा सकते हैं और ऐसी पायी साक्षरता स्वाभाविक ही समता मूलक खासकर जेंडर समतामूलक चेतना का विकास नहीं कर पायेगी.


मूलभूत सुविधाओं के साथ ही शिक्षा के विषयवस्तु की पडताल होना आवश्यक है. स्कूली शिक्षा और अधिकाधिक रूप से उच्च शिक्षा जेंडर विषमताओं को पाटने में नाकामियाब रही है. पूर्वाग्रह के आरोप लगने के खतरे को उठाते हुए भी यहाँ कहना होगा कि हमारी शिक्षा तकनिकी के ऐसे प्रयोग का प्रसार करने का माध्यम बनती जा रही है जिसमें लडकियां जन्म से पूर्व लिंगाधारित गर्भपात से इसलिए खत्म की जाती हैं क्योंकि उनका जन्मना परिवार के लिए घाटे का सौदा है. जब परिवार नियोजन एक जीवन मूल्य की तरह प्रचारित हो रहा है वहाँ लिंगाधारित नियोजन एक सामान्य भाव बनता जा रहा है.  दूसरे बच्चे के जन्म के सन्दर्भ में पारिस्थितिक बाललिंगानुपात के एक अध्ययन अनुसार जब पहला बच्चा लडकी थी तो बाललिंगानुपात में खासी गिरावट दर्ज की गयी. सर्वाधिक चिंता का विषय यह था कि यह गिरावट उन माताओं के सन्दर्भ में कहीं अधिक थी जिन्होंने 10 या उससे अधिक साल तक शिक्षा पायी थी बनिस्पत उन माताओं के जो निरक्षर थी. और इसी तर्ज पर यह गिरावट गरीब परिवारों की अपेक्षा समृद्ध परिवारों में कहीं अधिक थी. जब कि अगर पहला बच्चा लडका था तो दूसरे बच्चे के समय किसी भी लिंगपरिक्षण की भी आवश्यकता परिवार महसूस नहीं करते थे और न ही किसी प्रकार की उल्लेखनीय गिरावट बाललिंगानुपात में देखी गयी (झा, 2011)

ऐसे में सीरे से विचार करना होगा कि विकास की दिशा क्या है और उस में शिक्षा की भूमिका क्या रहेगी. जेंडर समता व न्याय के बिना न शिक्षा अपनी सार्थक भूमिका निभा पायेगी और ना ही विकास अपने लक्ष्यों को प्राप्त कर सकेगा.  जेंडर आधारित मुद्दों को महिलों के प्रश्न के रूप में विमर्श की दहलीज़ के बाहर एक झरोके से उन्हें केवल झांकने की अनुमति देकर प्रतीकात्मक उपस्थिति से न ही इन समस्यों का हल निकलेगा और न ही विकास का रथ आगे जा पायेगा. हमें राज्य के स्तर पर इसे प्राथमिकता देनी होगी कि जेंडर न्याय व समता के मूल्यों को पाठ्यचर्या और शिक्षा की आधारभूत संरचना में कैसे शामिल किया जाए ताकि जेंडर संवेदनशीलता एक जीवन शैली की रूप में समाज के हर एक तबके पनपे. साक्षरता शिक्षा का एक चरण है वैसे ही प्री कन्सेप्शन प्री नटाल डायग्नोस्टिक टेस्ट एक्ट  (PCPNDT Act) को सख्ती से लागू करना गिरते बाललिंगानुपात के असंतुलन को कम करने की तरफ एक कदम भर है. राजस्थान के समाज में जहां संरचान्त्म्क र्रोप से इन कुप्रथाओं की जड़े हो वहाँ शिक्षा और विकास के अन्य घटकों को अपनी जिम्मेवारी उठानी होगी. समाज में स्त्रियों के लिए अगर सम्मान होगा, समान अवसर होंगे, समान मूल्य होंगे हिंसा रहित जीवन होगा तभी विकास और सशक्तीकरण की संभावनाएं अपने आकाश और जमीन पा सकेंगी.



[i]EAG राज्यों में बिहार,उत्तर प्रदेश,उत्तराखंड, राजस्थान,उडीसा,मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ ये सात राज्य शामिल है.  
[ii]संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा जारी किए गए आंकड़ों के अनुसार भारत में महिलाओं में जीवन प्रत्याशा 1990 में 59.6 से बढकर 2011 में  65.4 हो गयी है. साथ ही यह भी दर्ज करना होगा जब भारत में मातृत्व मृत्यु दर (301– 2006 )में कमी आयी है. चिकित्सा सेवाओं का विस्तार और स्वास्थ्य सेवाओं की पहुँच में वृद्धि के कारण यह संभव हुआ है जिसका सीधा प्रभाव लिंगानुपात में निरंतर दो दशकों में आयी वृद्धि के र्रोप में देखा जा सकता है.
[iii]भारत सरकार के योजना आयोग के द्वारा प्रकाशित 11 वी योजना के दस्तावेजों में जब लक्ष्य निर्धारित किए जा रहे थे तो स्वस्थ्य संबंधी लक्ष्यों में कहीं भी गिरते हुए बाललिंगानुपात से संबधित लक्ष्य नहीं है. लिंगानुपात बढ़ाना है, मातृत्व मृत्यु दर में कमीं लाना है. गिरते बाललिंगानुपात को बढाने का लक्ष्य आता है महिला और बाल विकास के मुद्दों में. साफ़ है कि इसे सरकार स्वास्थ्य संबंधित प्रश्न नहीं मानती और चूँकि इसे अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर केवल आशियाई समस्या के रूप में देखा जा रहा है तो सरकार पर विकास संबंधित लक्ष्य निर्धारित करने में साक्षरता दर बढ़ाना, लिंगानुपात बढ़ाना, जनसंख्या वृद्धि कम करना, मातृत्व मृत्यु दर कम करना इन मुद्दों पर जैसा अंतर्राष्ट्रीय दबाव है वैसा दबाव इस प्रश्न पर नहीं है.
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सन्दर्भ सूची:         
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प्रज्ञा जोशी 
स्त्री मुद्दों पर सक्रिय सामाजिक कार्यकर्ता हैं.

भूमंडलीय यथार्थवाद की पृष्ठभूमि

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वरिष्ठ कथाकाररमेश उपाध्यायका यह लेख कथन के ताज़ा अंक में प्रकाशित है. हमारे अनुरोध पर उन्होंने इसे जनपक्ष के पाठकों के लिए उपलब्ध कराया है.
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हिंदी साहित्य में, खास तौर से 1970 और 1980 के दशकों में, ‘‘प्रेमचंद की यथार्थवादी परंपरा’’ का जाप तो बहुत हुआ, लेकिन उसे समझने और आगे बढ़ाने के प्रयास कम ही हुए। यदि आधुनिकतावादी लेखकों तथा आलोचकों ने उसका मजाक उड़ाया, तो कई प्रगतिशील-जनवादी कहलाने वाले लेखकों तथा आलोचकों ने उस पर तरह-तरह के सवाल उठाकर उसे खारिज करने के प्रयास किये। मसलन, किसी ने कहा कि प्रेमचंद ग्रामीण यथार्थ के लेखक थे, आज के महानगरीय यथार्थ का चित्रण उनकी परंपरा में नहीं किया जा सकता; किसी ने कहा कि प्रेमचंद का समय और था, हमारा समय और है और इस बदले हुए समय में प्रेमचंद का आदर्शोन्मुख यथार्थवाद संभव नहीं है; तो किसी ने कहा कि प्रेमचंद आदर्शवादी थे, यथार्थवादी तो वे अपनी अंतिम कुछ रचनाओं में ही हुए थे!  

दूसरी तरफ उत्तर-आधुनिकतावादियों ने अपने विखंडनवाद से यथार्थवाद के मूल आधार समग्रता का ही खंडन किया, तो जादुई यथार्थवादियों ने यथार्थवाद के सभी पुराने रूपों को वर्तमान समय के लिए बेकार हो चुका बताया और उत्तर-आधुनिकतावादियों के ‘‘मार्क्सवादोत्तर’’ और ‘‘यथार्थवादोत्तर’’ के नारों से उसका तालमेल बिठाकर वर्तमान में (अर्थात् सोवियत संघ के विघटन के बाद और पूँजीवादी भूमंडलीकरण के वर्तमान दौर में) उसी को एकमात्र सही और संभव यथार्थवाद बताया। 

आश्चर्य की बात यह है कि हिंदी साहित्य में वामपंथी लेखकों और लेखक संगठनों की संख्या कम न होने पर भी यथार्थवाद पर कोई बड़ी बहस नहीं चली, जबकि उनको ही साहित्य में यथार्थवाद की जरूरत सबसे ज्यादा थी। उत्तर-आधुनिकतावाद के संदर्भ में फ्रेडरिक जेमेसन का नाम अवश्य लिया जाता रहा, लेकिन इस पर ध्यान नहीं दिया गया कि उन्होंने आज के पूँजीवाद के दौर में यथार्थवाद के नये रूपों के आविष्कार की जरूरत के बारे में क्या कुछ कहा था। 

पश्चिम के साहित्य में यथार्थवाद का विरोध आधुनिकतावाद के दौर में ही होने लगा था। आधुनिकतावाद की यथार्थवाद-विरोधी प्रवृत्ति को उत्तर-आधुनिकतावाद ने विभिन्न प्रकार की नयी रणनीतियों से आगे बढ़ाया। उनमें सबसे बड़ी रणनीति थी समग्रता का विरोध, जिसे उत्तर-आधुनिकतावाद के जनक जैसे माने जाने वाले ल्योतार ने ‘‘वार अगेंस्ट टोटैलिटी’’ (समग्रता के विरुद्ध युद्ध) कहा। इस युद्ध में जिस ब्रह्मास्त्र का प्रयोग किया गया, वह था विखंडन। 

लेकिन 1990 के बाद से ‘‘लेट कैपिटलिज्म’’ (आज के पूँजीवाद) ने भूमंडलीकरण के रूप में एक ऐसी आर्थिक-राजनीतिक प्रक्रिया शुरू की, जिससे एक नये ढंग के साम्राज्यवाद की वापसी हुई और उसके साथ ही एक नयी बात यह हुई कि सारी दुनिया को एक नये ढंग की गुलामी का अहसास होने लगा, जिससे वह एक नये रूप में मुक्ति के लिए छटपटाने लगी। इस छटपटाहट को व्यक्त करने वाली किताबें आने लगीं, जैसे डेविड हार्वी की ‘दि न्यू इंपीरियलिज्म’ (2003), गोपाल बालकृष्णन द्वारा संपादित ‘डिबेटिंग एंपायर’ (2003) और एलेक्स कोलिनिकाॅस की ‘दि न्यू मैंडेरिंस आफ अमेरिकन पावर’ (2005)। उत्तर-आधुनिकतावाद ने माक्र्सवाद और यथार्थवाद के अंत की ही नहीं, इतिहास के अंत की भी घोषणा कर दी थी। मगर अब उन घोषणाओं को गलत साबित करने वाली किताबें भी आने लगीं, जैसे अंस्र्ट ब्रायसाख की ‘आन दि फ्यूचर आफ हिस्टरी: दि पोस्टमाडर्न चैलेंज एंड इट्स आफ्टरमैथ’ (2003), डेविड हार्वी की ‘स्पेसेज आॅफ होप’ (2003), फ्रेडरिक जेमेसन की ‘आर्कियोलाजीज आफ दि फ्यूचर: दि डिजायर काल्ड यूटोपिया एंड अदर साइंस फिक्शंस’ (2005), मैथ्यू ब्यूमोंट द्वारा संपादित ‘एडवेंचर्स इन रियलिज्म’ (2007) इत्यादि। 

सोवियत संघ के विघटन और शीतयुद्ध की समाप्ति के बाद पूँजीवाद की ओर से बड़ी विजयोल्लसित घोषणाएँ की गयीं कि पूँजीवाद जीत गया, समाजवाद हार गया, अब सारी दुनिया में और हमेशा पूँजीवाद ही चलेगा। उत्तर-आधुनिकतावादियों ने तो पहले ही कला, साहित्य और सौंदर्यशास्त्र में एक नये युग के आगमन की घोषणा कर रखी थी--मार्क्सवादोत्तर युग! यथार्थवादोत्तर युग! 

एक यथार्थवादी लेखक के रूप में मुझे लगा कि अब एक नये यथार्थवाद के लिए संघर्ष करना जरूरी है। मैं एक रचनाकार के रूप में तो यह संघर्ष अपनी कहानियों में नये यथार्थ को नये यथार्थवादी रूपों में सामने लाकर कर ही रहा था, अब मैं एक लेखक, प्राध्यापक और पत्रकार के रूप में भी यह संघर्ष अपने लेखों, व्याख्यानों और अपनी पत्रिका ‘कथन’ के अंकों के जरिये करने लगा। मैंने कुछ नये प्रश्न उठाने शुरू किये, जैसे--यदि पूँजीवाद एक विश्व-व्यवस्था है, तो क्या समाजवाद भी एक विश्व-व्यवस्था नहीं है? यदि पूँजी का भूमंडलीकरण संभव है, तो श्रम का क्यों नहीं? जब पूँजीवादी भूमंडलीकरण हो सकता है, तो समाजवादी भूमंडलीकरण क्यों नहीं हो सकता? 

इन प्रश्नों के उत्तर खोजते हुए मैं इस निष्कर्ष पर पहुँचा कि जब तक समाजवाद एक संभावना है, तब तक मार्क्सवाद भी जरूरी है, यथार्थवाद भी जरूरी है। अलबत्ता यह एक नया मार्क्सवाद होगा, एक नया यथार्थवाद होगा। ऐतिहासिक परिस्थितियों के बदलने के साथ-साथ इतिहास के नये बोध के साथ बदलता और विकसित होता मार्क्सवाद और यथार्थवाद।

और यह देखकर मैं बहुत प्रेरित तथा उत्साहित हुआ कि मैं ही नहीं, आज की दुनिया में बहुत-से लोग इसी तरह सोच रहे हैं। उस नये चिंतन को सामने लाने के लिए मैंने ‘कथन’ के अंकों को नये-नये विषयों पर केंद्रित करना शुरू किया, जैसे--‘नयेपन की अवधारणा’, ‘यूटोपिया की जरूरत’, ‘आशा के स्रोतों की तलाश’, ‘श्रम का भूमंडलीकरण’, ‘सांस्कृतिक साम्राज्यवाद’, ‘बाजारवाद और नयी सृजनशीलता’ इत्यादि। इसी क्रम में मैंने अंग्रेजी में प्रकाशित होने वाली सामग्री के अनुवादों के जरिये, जरूरी किताबों की विस्तृत चर्चाओं के जरिये, साक्षात्कारों और परिचर्चाओं के जरिये तथा हिंदी में मौलिक रूप से लिखे और लिखवाये गये लेखों के जरिये आज के भूमंडलीय यथार्थ को सामने लाते हुए उस पर विभिन्न विद्वानों (जैसे रामविलास शर्मा, नामवर सिंह, एजाज अहमद, विपिन चंद्र, ज्याँ डेªज, उमा चक्रवर्ती, मैनेजर पांडेय, मनोरंजन महांति, गौहर रजा, गोपाल गुरु आदि) से विस्तृत बातचीत की और उन साक्षात्कारों का एक संकलन प्रकाशित किया ‘बेहतर दुनिया की तलाश में’ (2007)।

सोवियत संघ के विघटन और शीतयुद्ध की समाप्ति से पहले मार्क्सवाद और यथार्थवाद में बदलाव और विकास की बात करना गलत और खतरनाक माना जाता था। लेकिन इसके बाद यह बात खुलकर होने लगी। कई ऐसी चीजें सामने आने लगीं, जो दबी रह गयी थीं। उदाहरण के लिए, 1930 के दशक में जर्मनी में यथार्थवाद संबंधी एक ‘‘महान बहस’’ चली थी, जिसमें अंस्र्ट ब्लाॅख, जाॅर्ज लुकाच, बर्टोल्ट ब्रेष्ट, वाल्टर बेंजामिन और थियोडोर एडोर्नो ने भाग लिया था। यह बहस 1980 में ‘एस्थेटिक्स एंड पालिटिक्स’ नामक संकलन में प्रकाशित हुई थी। उसका ‘उपसंहार’ फ्रेडरिक जेमेसन ने लिखा था, जिसमें उन्होंने ‘‘उत्तर-मार्क्सवादों’’ की चर्चा करते हुए कहा था कि इतिहास की उपेक्षा करने वाले ही उसे दोहराने के लिए अभिशप्त नहीं होते, पिछले दिनों जो तरह-तरह के ‘‘उत्तर-मार्क्सवाद’’ सामने आये हैं, वे भी इसी सत्य को सामने लाते हैं। ‘‘माक्र्सवाद के परे’’ जाने के प्रयासों का अंत ‘‘माक्र्सवाद के पहले’’ की स्थितियों में लौट जाने के रूप में सामने आ रहा है। ‘‘दबा दी गयी चीजों की वापसी’’ का जैसा नाटकीय रूप यथार्थवाद और आधुनिकतावाद के झगड़े की वापसी के रूप में दिख रहा है, अन्यत्र कहीं नहीं दिखता। लेकिन उस झगड़े में पड़े बिना हम नहीं रह सकते, चाहे आज हमें उसमें शामिल दोनों पक्षों में से एक भी पूरी तरह स्वीकार्य न लगता हो।

जेमेसन ने यह भी कहा था कि यथार्थवाद चीजों को समग्रता में देखता था, जबकि आधुनिकतावाद चीजों को विखंडित करके उन्हें ‘‘अपरिचित’’ बनाकर ‘‘नयी’’ बनाता था। मगर नयापन पैदा करने की यह आधुनिकतावादी तकनीक आज उपभोक्ताओं को पूँजीवाद से तालमेल बिठाकर चलना सिखाने की जानी-पहचानी तकनीक बन गयी है। उसमें कोई नयापन नहीं रहा। इसलिए अब नया कुछ करने के लिए विखंडन को भी ‘‘अपरिचित’’ बनाने का प्रयास किया जा रहा है। लगता है, अमूर्तन का एक चक्र पूरा हो चुका है और उसकी जगह यथार्थवाद की वापसी का समय आ गया है। मगर यथार्थवाद का भी ऐतिहासिक आधार संदिग्ध हो गया है, क्योंकि आधारभूत अंतर्विरोध स्वयं इतिहास के भीतर है और उसकी वास्तविकताओं को समझने के लिए हम जिन अवधारणाओं से काम लेते हैं, वे चिंतन के लिए एक पहेली बन जाती हैं। इससे जो संदेह पैदा होता है, बहुत मूल्यवान है। हमें उसी को पकड़ना चाहिए, क्योंकि उसी की संरचना में इतिहास का वह मर्म छिपा है, जिसे हम अभी तक समझ नहीं पाये हैं। जाहिर है, यह संदेह हमें यह नहीं बता सकता कि यथार्थवाद की हमारी अवधारणा क्या होनी चाहिए; फिर भी इसका अध्ययन हमारे ऊपर यह जिम्मेदारी अवश्य डालता है कि हम यथार्थवाद की एक नयी अवधारणा का आविष्कार करें। आज इस जिम्मेदारी को महसूस न करना असंभव है। 

जेमेसन जिस नये यथार्थवाद की जरूरत पर जोर दे रहे थे, वह उनके विचार से उपभोक्ता समाज की उस शक्ति का प्रतिरोध करने वाला यथार्थवाद होना चाहिए था, जो मनुष्य और उसकी पूरी दुनिया को वस्तुओं में बदल देती है। उपभोक्ता समाज में यह शक्ति होती है कि वह मनुष्य के शारीरिक और मानसिक श्रम से उत्पन्न तमाम चीजों के साथ-साथ मनुष्य के विचारों, भावनाओं तथा संपूर्ण जड़ और चेतन जगत से उसके संबंधों को भी बेची और खरीदी जाने वाली चीजें बना दे। इस शक्ति का प्रतिरोध समग्रता में ही किया जा सकता है। आज के मानवीय जीवन तथा सामाजिक संगठन के सभी स्तरों पर चल रहे विखंडन को व्यवस्थित रूप से समाप्त करने के लिए चीजों को समग्रता में देखना और उन्हें समग्र रूप से बदलना आवश्यक है। नये यथार्थवाद की अवधारणा समग्रता की कोटि के आधार पर ही की जा सकती है; क्योंकि यही वह चीज है, जो वर्गों के बीच के संरचनात्मक संबंधों को सामने ला सकती है। 

लगभग दो दशकों के बाद जेमेसन ने अपनी पुस्तक ‘अ सिंग्यूलर माडर्निटी: एस्से आन ओंटोलाजी आफ प्रेजेंट’ (2002) में पुनः लिखा कि ‘‘प्रत्येक यथार्थवाद नया ही होता है...और यही कारण है कि समूचे आधुनिकतावादी युग में और उसके बाद भी दुनिया के कई हिस्सों तथा सामाजिक समग्रता के कई अंशों में नये और जीवंत यथार्थवादों की आहटें सुनायी पड़ती रही हैं, जिन्हें सुनना और पहचानना जरूरी रहा है। ...प्रत्येक नया यथार्थवाद न केवल अपने से पहले के यथार्थवादों की सीमाओं से असंतोष होने के कारण उत्पन्न होता है, बल्कि इस कारण भी, तथा अधिक आधारभूत रूप में इसी कारण से ही, उभरकर सामने आता है कि आम तौर पर यथार्थवाद स्वयं आधुनिकता की ठीक वही गतिशील नवीनता लिये रहता है, जिसे हम आधुनिकतावाद की अद्वितीय विशेषता मानते आये हैं।’’



इसके बाद ‘आर्कियोलाजीज आफ दि फ्यूचर: दि डिजायर काल्ड यूटोपिया एंड अदर साइंस फिक्शंस’ (2005) में उन्होंने ‘‘भूमंडलीकरण के बाद के नयी पीढ़ी के तमाम वामपंथियों’’ को संबोधित करते हुए यथार्थवाद की उन समस्याओं को उठाया, जो नये सिरे से उठ खड़ी हुई थीं और जिन पर तुरंत ध्यान दिया जाना जरूरी था। 

भूमंडलीकरण का वर्तमान दौर शुरू होते ही उत्तर-आधुनिकतावाद अपनी फैशनेबल चमक-दमक खोने लगा था और एक नये यथार्थवाद की जरूरत महसूस की जाने लगी थी। देखते-देखते यथार्थवाद संबंधी नयी पुस्तकें सामने आने लगीं, जैसे पीटर ब्रुक्स की ‘रियलिस्ट विजंस’ (2005) और मैथ्यू ब्यूमोंट द्वारा संपादित ‘एडवंेंचर्स इन रियलिज्म’ (2007)। यथार्थवाद की इस वापसी में समकालीन पूँजीवाद की बदलती संरचना से उत्पन्न समस्याओं का बड़ा हाथ था, जिन्होंने यथार्थ को समझने तथा उसे कला और साहित्य में चित्रित करने के नये तरीके निकालने के लिए एक तरफ चिंतकों तथा आलोचकों को और दूसरी तरफ कलाकारों और साहित्यकारों को प्रेरित किया। पूँजीवाद में आये बदलाव का ही शायद यह नतीजा था कि जहाँ पहले यथार्थवाद की चर्चा में इतिहास पर जोर दिया जाता था, अब राजनीतिक अर्थशास्त्र पर जोर दिया जाने लगा। भूमंडलीकरण ने इतिहास को नये ढंग से पढ़ना जरूरी बनाया, जिससे ‘‘इतिहास का भूमंडलीकरण’’ हुआ और ‘‘भूमंडलीकरण का इतिहास’’ सामने आया। इन दोनों चीजों का असर साहित्य पर और उसमें किये जाने वाले यथार्थ-चित्रण तथा आलोचनात्मक विवेचन पर पड़ना स्वाभाविक था। 

उत्तर-आधुनिकतावादियों का सबसे ज्यादा जोर विखंडन पर रहा। उन्होंने जीवन, समाज और दुनिया को समग्रता में देखने, समझने और साहित्य में चित्रित करने के यथार्थवादी प्रयासों को इस आधार पर गलत, अनुचित और अवांछित बताया कि ऐसा करना असंभव है। उन्होंने कहा कि जीवन, समाज और दुनिया को ही नहीं, जिस कला और साहित्य में ये चित्रित या प्रतिबिंबित होते हैं, उसे भी विखंडन से या खंड-खंड करके ही समझा जा सकता है।

मार्कसवादी रचनाकारों, आलोचकों तथा सिद्धांतकारों ने विखंडनवाद का खंडन करते हुए बार-बार कहा है कि द्वंद्ववाद के अनुसार एक समग्रता के भीतर जो अंतर्विरोध होते हैं, वे ही उस समग्रता को बनाते और बदलते हैं। मार्क्स ने समाज और विश्व की कल्पना एक ऐसी समग्रता के रूप में की थी, जिसमें मुख्य और ऐतिहासिक अंतर्विरोध शोषक और शोषित वर्गों के बीच है, इन वर्गों के बीच संघर्ष है और वह संघर्ष समाज और विश्व को बदल रहा है। अंततः यह बदलाव वहाँ तक जा सकता है, जहाँ समाज या विश्व नामक समग्रता में न वर्ग होंगे, न वर्ग-संघर्ष। फिर वह एक नयी ही समग्रता होगी, जिसके अपने नये अंतर्विरोध और संघर्ष हो सकते हैं, लेकिन वे वर्तमान पूँजीवादी विश्व-व्यवस्था के आमूलचूल बदल जाने के बाद के नये ही अंतर्विरोध और संघर्ष होंगे। 

वर्तमान पूँजीवादी भूमंडलीकरण ने ज्यों ही यह संभावना दुनिया के लोगों के सामने रखी कि पूँजीवाद की ही तरह समाजवाद भी एक विश्व-व्यवस्था है और उसका भी भूमंडलीकरण हो सकता है, पूँजीवादी व्यवस्था के पैरोकारों ने एक तरफ समाजवाद के अंत, मार्क्सवाद के अंत, यथार्थवाद के अंत आदि की अलग-अलग घोषणाओं के साथ-साथ समग्र रूप में ‘‘इतिहास के अंत’’ की घोषणा कर दी, तो दूसरी तरफ समग्रता के विचार के ही विरुद्ध जंग छेड़ दी। 

लेकिन 1990 के बाद से, जब से भूमंडलीकरण की प्रक्रिया और उसके आर्थिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक आदि तमाम पक्षों पर ध्यान दिया जाने लगा, विभिन्न देशों के वामपंथी विद्वान भूमंडलीय यथार्थ को समग्रता में समझने की जरूरत पर जोर देने लगे। इससे पूँजीवाद और साम्राज्यवाद के बारे में नया विचार-मंथन शुरू हुआ और एक ‘‘बेहतर दुनिया की तलाश’’ के प्रयासों के साथ-साथ यह आशाजनक नारा भी सामने आया कि ‘‘दूसरी और बेहतर दुनिया मुमकिन है’’। इससे यथार्थवाद को, जिसे उत्तर- आधुनिकतावादियों ने मृत घोषित कर दिया था, फिर से जीवंत और विचारणीय माना जाने लगा। यह विचार जोर पकड़ने लगा कि पूँजीवाद भूमंडलीय है, तो समाजवाद भी भूमंडलीय है। और अब ‘‘एक देश में समाजवाद’’ की जगह ‘‘संपूर्ण विश्व में समाजवाद’’ के बारे में सोचा जाना चाहिए तथा उसके लिए यथार्थवादी रणनीतियाँ बनायी जानी चाहिए। 

आकस्मिक नहीं था कि मार्क्सवाद में लोगों की रुचि नये सिरे से पैदा होने लगी, सोवियत संघ के विघटन के संदर्भ में समाजवाद पर पुनर्विचार होने लगा, सोवियत समाजवाद की ऐतिहासिक भूलों और गलतियों से सबक लेते हुए सच्चे समाजवाद की दिशा में आगे बढ़ने की बातें होने लगीं और यथार्थवाद पुनः चर्चा का विषय बन गया। 

उत्तर-आधुनिकतावाद ने साहित्य में यथार्थवाद के विरुद्ध विखंडन की जो रणनीति अपनायी, वह आलोचना के स्तर पर पाठ विश्लेषण की विखंडनवादी प्रवृत्ति के रूप में तथा रचना के स्तर पर अस्मितावादी राजनीति के रूप में काफी सफल रही। स्त्रियों, कालों, अल्पसंख्यकों, दलितों, आदिवासियों आदि के लेखन को अलग और विशिष्ट बनाने के प्रयासों में एक तरफ अनुभववाद पर जोर देकर यथार्थवाद को, दूसरी तरफ भिन्नता पर जोर देकर समग्रता के विचार को और तीसरी तरफ स्थानीयता पर जोर देकर भूमंडलीयता के नये यथार्थ को खारिज किया गया। मगर अब रचना और आलोचना, दोनों स्तरों पर अपनायी गयी इस रणनीति की वास्तविकता इसके पीछे छिपे साम्राज्यवादी इरादों के साथ उघड़कर सामने आने लगी। बीसवीं सदी के अंतिम दशक में कई वामपंथी भी यह समझने लगे थे कि उत्तर-संरचनावाद और विखंडनवाद उनके भी सरोकार हैं, अस्मितावादी राजनीति उनकी भी राजनीति है, लेकिन अब उनमें से कुछ  महसूस करने लगे कि ये तो नव-उदार पूँजीवाद या बाजारवाद की भूमंडलीकरण से पहले की तैयारियों के उपक्रम थे। 

कनाडाई पत्रकार नाओमी क्लाइन ने अपनी चर्चित पुस्तक ‘नो लोगो’ (2000) में व्यंग्यपूर्वक लिखा कि ‘‘हम दीवार पर प्रक्षेपित तस्वीरों का विश्लेषण करने में इतने व्यस्त थे कि खुद वह दीवार कब की बेची जा चुकी थी, यह देख ही नहीं पाये।’’ उत्तर-आधुनिकतावाद ने साहित्य, संस्कृति, विचार और राजनीति सभी स्तरों पर होने वाले प्रतिरोध को इस प्रकार विखंडित किया कि भूमंडलीय पूँजीवाद और अमरीकी साम्राज्यवाद के हौसलों का बुलंद हो जाना स्वाभाविक था। डेविड हार्वी ने ‘दि न्यू इंपीरियलिज्म’ (2003) में ‘न्यूयार्क टाइम्स’ के एक मुख्य समाचार का शीर्षक उद्धृत किया है--‘‘अमेरिकन एंपायर: गैट यूज्ड टु इट!’’ मानो अमरीका सारी दुनिया के लोगों से कह रहा हो कि हाँ, मैं हूँ अमरीकी साम्राज्यवाद! तुम मेरा कुछ नहीं बिगाड़ सकते, इसलिए मेरे अधीन रहने की आदत डालो! 

ऐसी स्थितियों के निर्माण में भूमंडलीकरण से पहले की उस शीतयुद्ध वाली राजनीति का भी बड़ा हाथ था, जिसके चलते यथार्थवाद और आधुनिकतावाद वैश्विक राजनीति की शतरंज के ऐसे घिसे-पिटे मोहरे बन गये थे कि उनके नाम पर साहित्य, कला और संस्कृति में कोई नवोन्मेष हो पाना असंभव हो गया था। पूँजीवादी खेमे में पश्चिम के यथार्थवादी लेखकों को भी आधुनिकतावादी घोषित किया जाता था, जबकि समाजवादी   खेमे में पूर्व के आधुनिकतावादी लेखक भी यथार्थवादी माने जाते थे। फिर, वहाँ ‘समाजवादी यथार्थवाद’ का राजनीतिक इस्तेमाल तो किया गया (जैसे उसके समर्थक लेखकों को मान-सम्मान देना और उसके विरोधियों को दंडित करना), लेकिन रचना और आलोचना से उसका कोई सच्चा संबंध नहीं बनाया गया। अतः सोवियत संघ के विघटन के बाद ही यथार्थवाद का मार्क्सवादी विश्लेषण फिर से शुरू हो पाया और चूँकि यह वर्तमान भूमंडलीकरण के आरंभ होने का समय था, इसलिए यथार्थवादी लेखकों का ध्यान स्थानीय यथार्थ के साथ-साथ भूमंडलीय यथार्थ पर भी गया और जब यह स्पष्ट दिखने लगा कि स्थानीय यथार्थ भूमंडलीय यथार्थ का ही अंग है, तो समग्रता के विचार ने जोर पकड़ा और उत्तर-आधुनिकतावादी विखंडनवाद की माक्र्सवादी आलोचना ने उसकी सीमाएँ और असंगतियाँ उजाकर करना शुरू कर दिया। 

समग्रता की अवधारणा में भी इस बीच काफी बदलाव और विकास हुआ था। हालाँकि मार्क्सवादी चिंतन में पूँजीवादी विश्व-व्यवस्था की जगह भविष्य की समाजवादी विश्व-व्यवस्था का विचार पहले से मौजूद था (जिसकी अभिव्यक्ति सर्वहारा अंतर- राष्ट्रीयतावाद के सिद्धांत और ‘‘दुनिया के मजदूरो एक हो’’ के नारे में होती थी), लेकिन सोवियत शासन के दौरान ‘‘एक देश में समाजवाद’’ के विचार ने अंतरराष्ट्रीयतावाद की जगह राष्ट्रवाद पर अनावश्यक और ऐतिहासिक रूप से गलत जोर डालकर समग्रता की अवधारणा को सीमित कर दिया था। सोवियत संघ के विघटन और वर्तमान पूँजीवादी भूमंडलीकरण ने समग्रता की सीमित (राष्ट्रीय अथवा ‘स्थानीय’) अवधारणा को पुनः व्यापक (अंतरराष्ट्रीय अथवा ‘भूमंडलीय’) बना दिया। इस प्रकार यथार्थ को ‘स्थानीय’ से आगे बढ़ाकर ‘भूमंडलीय’ के रूप में देखना जरूरी और संभव हो गया।
फ्रेडरिक जेमेसन ने समग्रता की ‘‘वापसी’’ के साथ-साथ यथार्थ की ‘‘व्याप्ति’’ का विचार भी फिर से प्रस्तुत किया, जिसे वे ‘मार्क्सिज्म एंड फार्म’ (1971) में पहले ही व्यक्त कर चुके थे। उनका कहना था कि ‘‘यथार्थवाद इतिहास के किसी खास क्षण में परिवर्तन की शक्तियों तक पहुँचने की संभावना पर निर्भर करता है।’’ हालाँकि वे भूमंडलीकरण को एक ऐसी स्थिति मानते हैं, जो इस संभावना को बाधित करती है, लेकिन उनके विचार से आज नहीं तो कल यह संभावना साकार हो सकती है। 

इसका अर्थ यह हुआ कि पूँजीवादी भूमंडलीकरण ही यथार्थ नहीं है, एक संभावना के रूप में समाजवादी भूमंडलीकरण भी यथार्थ है। यथार्थवाद की इस समझ से साहित्य की रचना में ‘‘यथार्थवादी पद्धति’’ को ही अपनाना (अर्थात् यूटोपिया, डिस्टोपिया, रूपक, फैंटेसी वगैरह को यथार्थवादी रचना के लिए त्याज्य समझना) आवश्यक नहीं रहता और यथार्थवादी रचना उन रूपों में भी की जा सकती है, जो आधुनिकतावादी माने जाने के कारण यथार्थवादियों के लिए त्याज्य समझे जाते थे। जेमेसन ने ‘‘समकालीन विश्व के थके हुए यथार्थवाद’’ की तुलना में ‘साइंस फिक्शन’ (विज्ञान कथाओं) को ‘‘अधिक विश्वसनीय सूचना लौटाकर लाने वाला’’ बताकर रचना के रूप के स्तर पर नये यथार्थवाद की संभावनाओं की ओर संकेत किया। मगर इसका मतलब न तो यह  था कि वर्तमान भूमंडलीकरण के दौर में यथार्थवाद के सभी पुराने रूप ‘‘थके हुए यथार्थवाद’’ के रूप हो चुके हैं और न यह  कि आधुनिकतावादी सभी रूप यथार्थवादी रचना के लिए स्वीकार्य हो गये हैं। हाँ, इसका यह मतलब जरूर था कि भूमंडलीकरण के वर्तमान दौर में यथार्थवाद पुराने ढंग का यथार्थवाद नहीं, एक नये ही ढंग का यथार्थवाद होगा और होना भी चाहिए। 

मार्क्सवादी आलोचना और सौंदर्यशास्त्र के सामने आज प्रश्न यह है कि इक्कीसवीं सदी के भूमंडलीकरण के सामने यथार्थवाद- विरोधी तमाम साहित्यिक प्रवृत्तियों के विरुद्ध यथार्थवाद की क्या भूमिका और क्या रणनीति होनी चाहिए। यथार्थवादी रचनाकार और माक्र्सवादी आलोचक आज इस प्रश्न का एक ही उत्तर देते दिखते हैं: यथार्थवाद में एक नवोन्मेष जरूरी है। यह नवोन्मेष कब और कैसे होगा, कहा नहीं जा सकता, लेकिन यह एक सतत प्रक्रिया है, जो यथार्थवाद के उदय से आज तक निरंतर जारी है। 

टेरी ईगल्टन ने ‘मार्क्सिस्ट लिटरेरी थियरी’ (1996) में मार्क्सवादी आलोचना के चार परंपरागत क्षेत्र बताये थे--1. मानव- विज्ञानी आलोचना, 2. राजनीतिक आलोचना, 3. विचारधारात्मक आलोचना, और 4. आर्थिक आलोचना। इन सभी क्षेत्रों में काम करने वाले विद्वानों ने अपने-अपने ढंग से यथार्थवादी चिंतन को आगे बढ़ाया है, लेकिन फ्रेडरिक जेमेसन शायद अकेले ऐसे विद्वान हैं, जिन्होंने यथार्थवाद की अपनी अवधारणा इन चारों क्षेत्रों में विकसित की गयी यथार्थवाद की समझ से निर्मित की है। उनके यथार्थवाद संबंधी चिंतन में माक्र्सवादी आलोचना के ये सभी रूप एक साथ शामिल हैं। इसीलिए उससे (1) यथार्थवाद के ऐतिहासिक प्रादुर्भाव, (2) यथार्थवाद की सौंदर्यशास्त्रीय तथा ज्ञानमीमांसात्मक शक्तियों, (3) यथार्थवाद के राजनीतिक उपयोगों तथा उनकी सीमाओं-संभावनाओं और (4) इतिहास के किसी खास दौर में उत्पादन के तरीके के अनुसार बनते-बदलते सांस्कृतिक परिदृश्य में यथार्थवाद की स्थिति और भूमिका से जुड़े सभी सवाल एक साथ सामने आते हैं, जिन पर विचार करना आज यथार्थवाद के विकास के लिए अत्यंत आवश्यक है। 
जेमेसन ने यथार्थवाद पर अलग से कोई विशेष अध्ययन प्रस्तुत नहीं किया, लेकिन लगभग तीन दशकों तक अपने लेखन में जगह-जगह यथार्थवाद से संबंधित सवालों से जूझते हुए उसकी नयी संभावनाओं का पता लगाया। इसके लिए वे बार-बार जार्ज लुकाच के पास गये, उनसे प्रेरित हुए, उनसे सीखा और उनसे टकराये भी; क्योंकि लुकाच ने साहित्य के रूपों और ऐतिहासिक शक्तियों के संबंध को समग्रता में देखा था और यथार्थवाद का एक सामान्य सिद्धांत निर्मित करने का प्रयास किया था। जेमेसन समग्रता की अवधारणा को जाँचने-परखने और विकसित करने के लिए रह-रहकर उसकी ओर लौटे और उन्होंने पाया कि समग्रता के आधार पर ही रचना और आलोचना में यथार्थवादी होना संभव है। 

समग्रता का अर्थ यह नहीं है कि यथार्थ में जो कुछ है, या जितना दिखता है, वह सब चित्रित कर दिया जाये। यह असंभव है और आवश्यक भी नहीं। अतः समग्रता यथार्थवादी रचना के रूप या उसकी शैली (अथवा चित्रण की पद्धति) में नहीं, बल्कि रचनाकार की दृष्टि में होती है। वह यथार्थ का चाहे एक छोटा- सा अंश ही प्रस्तुत करे--जैसे किसी एक चरित्र के रूप में--लेकिन उसकी नजर उसे समग्रता में देखने वाली होनी चाहिए। अर्थात् रचना में चित्रित यथार्थ का एक अंश संपूर्ण यथार्थ के अंश के रूप में चित्रित होना चाहिए, न कि उस संपूर्णता को खंडित करके पाये गये उसके एक अंश को ही संपूर्ण मानकर। 

उदाहरण के लिए, वर्तमान समाज या उसके किसी प्रातिनिधिक चरित्र को चित्रित करते समय रचनाकार उसके वर्तमान को तो देखता ही है, ऐतिहासिक दृष्टि से उसके अतीत और भविष्य को भी देखता है। आधुनिकतावादी तथा उत्तर-आधुनिकतावादी लोगों के लिए उस चरित्र के अतीत का कुछ अर्थ भले ही हो, उसके भविष्य का कोई अर्थ नहीं होता; क्योंकि उनके लिए भविष्य तो अनागत है और जो अभी आया ही नहीं है, जिसका अस्तित्व ही नहीं है, वह यथार्थ कैसे हो सकता है! भविष्य के बारे में सोचने, उसकी कल्पना करने, उसका कोई आदर्श सामने रखकर उसकी प्राप्ति के प्रयास करने या साहित्य में उसे चित्रित करने को वे एक ‘यूटोपिया’ (अयथार्थ, कल्पनालोक या असंभव आदर्श) मानते हैं। लेकिन लुकाच और जेमेसन दोनों यथार्थवाद को समग्रता में अर्थात् अतीत-वर्तमान-भविष्य को एक साथ ध्यान में रखने से बनी दृष्टि के रूप में देखते हैं। लुकाच ने यथार्थ के चित्रण में ‘‘समग्रता के प्रश्न की निर्णायक भूमिका’’ बतायी थी। जेमेसन ने उसमें एक नैतिक आयाम भी जोड़ा और ‘यूटोपिया’ को अयथार्थ नहीं, बल्कि यथार्थ ही मानते हुए ‘मार्क्सिज्म एंड फार्म’ में कहा:

‘‘मानव जीवन का अंतिम लक्ष्य तो उस ‘यूटोपिया’ तक ही पहुँचना है, जहाँ जीवन और उसका अर्थ पुनः अविभाज्य हो जायेंगे, इसमें मनुष्य और विश्व एकमत हो जायेंगे। लेकिन यह भाषा अमूर्त है और ‘यूटोपिया’ कोई विचार नहीं, बल्कि एक ‘विजन’ (दृष्टि) है। अतः वह अमूर्त चिंतन नहीं, बल्कि स्वयं आख्यान ही है, जो समस्त ‘यूटोपियाई’ गतिविधि को प्रमाणित करने का आधार है, और महान उपन्यासकार ‘यूटोपिया’ की समस्याओं का ठोस निरूपण प्रस्तुत करते हैं।’’ 

लुकाच ने आख्यान और समग्रता के बीच का संबंध खोजा था। जेमेसन ने उस खोज को आगे बढ़ाते हुए ‘यूटोपिया’ को भावी समाजवादी विश्व-व्यवस्था के रूप में देखा और बताया कि आज जो ‘यूटोपिया’ अयथार्थ, कल्पनालोक या असंभव आदर्श लगता है, उसके भविष्य में साकार होने की संभावना को यथार्थ मानकर चलना यथार्थवादी लेखकों का एक राजनीतिक कार्यभार ही नहीं, बल्कि एक नैतिक दायित्व भी है।

जेमेसन ने काल की अवधारणा से जुड़े यथार्थवाद को ‘‘ऐतिहासिक यथार्थवाद’’ कहा है। इससे उनका आशय उन्नीसवीं सदी के बाल्जाक, स्काॅट, डिकेंस आदि के कथासाहित्य में पाये जाने वाले यथार्थवाद से है। जेमेसन के सामने ही नहीं, पश्चिम के प्रायः सभी मार्क्सवादी आलोचकों के सामने यह समस्या रही है कि बुर्जुआ वर्ग के सत्तारोहण के समय की क्रांतिकारी परिस्थिति में उदित हुए उस यथार्थवाद की परंपरा को वर्तमान समय में कैसे आगे बढ़ाया जाये। ‘‘ऐतिहासिक यथार्थवाद’’ के उदय के पहले तक यह माना जाता था कि सामाजिक यथार्थ का चित्रण करने वाले साहित्य का संबंध ज्ञानमीमांसा से तो है, किंतु सौंदर्यशास्त्र से नहीं। दूसरे शब्दों में, यथार्थवादी साहित्य ‘ज्ञान’ तो दे सकता है, ‘आनंद’ नहीं दे सकता। ‘‘ऐतिहासिक यथार्थवाद’’ ने दावा किया, जिसे बाल्जाक, स्काट, डिकेंस आदि के साहित्य ने सत्य भी सिद्ध किया कि वह निरा ज्ञानात्मक नहीं, सौंदर्यात्मक भी है। 

हिंदी में प्रेमचंद ने आदर्शोन्मुख यथार्थवाद की अवधारणा के जरिये तथा मुक्तिबोध ने  ज्ञानात्मक संवेदन और संवेदनात्मक ज्ञान की अपनी कोटियों के जरिये यही दावा पेश किया था और अपनी रचनाओं में चरितार्थ भी किया था।

जेमेसन ने ‘दि पालिटिकल अनकांशस: नैरेटिव ऐज अ सोशली सिंबालिक एक्ट’ (2002) में यथार्थवाद की ज्ञानात्मक और सौंदर्यात्मक दोनों तरह की उपलब्धियों को देखा। यह मानते हुए भी कि उन्नीसवीं सदी का-सा ‘‘ऐतिहासिक यथार्थवाद’’ बीसवीं सदी के पूँजीवाद के अंतर्गत संभव नहीं है, उन्होंने उसकी परंपरा को नये रूप में आगे बढ़ाना संभव, उचित और आवश्यक बताया। परंपरा को आगे बढ़ाने का मतलब पुराने लेखकों की रचना-पद्धति या शैली की नकल करना नहीं है। वर्तमान परिस्थिति में यदि कोई ‘‘ऐतिहासिक यथार्थवाद’’ की माँग करता है, तो उसे ‘‘वल्गर लुकाचवादी’’ ही कहा जा सकता है। इस माँग का मजाक उड़ाते हुए ब्रेष्ट ने अपने लेख ‘आन दि फार्मलिस्टिक कैरेक्टर आफ दि थियरी आफ रियलिज्म’ में व्यंग्यपूर्वक कहा था--‘‘बाल्जाक जैसे बनो--मगर अपटूडेट बाल्जाक!’’ जेमेसन ने ‘‘लेट कैपिटलिज्म’’ के दौर में पुराने ‘‘ऐतिहासिक यथार्थवाद’’ की तुलना भाप के इंजन से करते हुए टर्बाइन के दौर में नये यथार्थवाद की जरूरत बतायी। 

जेमेसन का यह ‘‘टर्बाइन का दौर’’ उत्तर-आधुनिकतावाद का दौर था। इस दौर के बारे में उन्होंने एक प्रकार की निराशा व्यक्त करते हुए कहा कि आज की दुनिया इतनी ‘केआटिक’ (अस्तव्यस्त) हो गयी है कि उसे समग्रता में देखना और चित्रित करना असंभव हो गया है। लेकिन उन्होंने नये यथार्थवादों के पैदा होने की संभावना बताते हुए अपने आशावाद का परिचय तो दिया ही, उत्तर-आधुनिकतावादी विखंडन के विरुद्ध समग्रता की अवधारणा में विश्वास भी व्यक्त किया। उन्होंने नये यथार्थवादों की संभावना ही नहीं, आवश्यकता भी बतायी और कहा कि आज के पूँजीवादी भूमंडलीकरण के दौर में यथार्थवाद को एक राजनीतिक लक्ष्य और कार्यक्रम के रूप में देखा जाना चाहिए। इसके लिए उन्होंने यथार्थवाद के नवीनीकरण की बात की और कहा कि आज का यथार्थवाद अपनी पुरानी परंपरा से बहुत कुछ ग्रहण करते हुए भी एक नया यथार्थवाद होगा। बल्कि एक नहीं, अनेक यथार्थवाद होंगे, जिनका आविष्कार किया जाना है। 

मगर कैसे? इस प्रश्न का उत्तर खोजते हुए जेमेसन उत्तर-आधुनिकतावाद के संदर्भ में भूमंडलीकरण की जाँच-पड़ताल करते हैं और यहाँ उन्हें उत्तर-आधुनिकतावादी विखंडन की काट करने वाली समग्रता दिखायी देती है। साथ ही दिखायी देते हैं ‘साइंस फिक्शन’ और ‘साइबर पंक’ में यथार्थवाद के नये रूप। विज्ञान कथाएँ उन्हें भूमंडलीकरण के समग्र रूप को सामने लाने में और कंप्यूटर के ज्ञान से अनोखे काम कर डालने की कहानियाँ ‘‘उभरते भूमंडलीकरण के सत्य की लगभग पूरी अभिव्यक्ति’’ करने में समर्थ लगती हैं।

लेकिन मेरे विचार से नये यथार्थवाद या यथार्थवादों का आविष्कार इतना आसान नहीं है। जेमेसन ने ‘साइंस फिक्शन’ और ‘साइबर पंक’ में, उदाहरण के तौर पर ही सही, उसकी जो संभावना व्यक्त की है, वह ज्यादा विश्वसनीय नहीं है; क्योंकि एक तो वह वर्तमान भूमंडलीय यथार्थ को बदलने की जरूरत और संभावना के आधार पर नहीं, बल्कि वह जैसा भी है, उसी में नये यथार्थ के आविष्कार की बात करती है; दूसरे, वह रचना के रूप तक ही सीमित है, उसके वस्तुतत्त्व की बात नहीं करती। ‘साइंस फिक्शन’ और ‘साइबर पंक’ के रूपों में यथार्थवादी ही नहीं, यथार्थवाद-विरोधी रचनाएँ भी बड़े मजे में की जा सकती हैं। उदाहरण के लिए नवीनतम तकनीक वाली विज्ञान कथाओं तथा अमरीकी फिल्मों को देखा जा सकता है। अतः नये यथार्थवाद के आविष्कार के प्रश्न को रचना के रूप तक सीमित करके नहीं, बल्कि उसके वस्तुतत्त्व और परिप्रेक्ष्य तक फैलाकर देखना जरूरी है। 

मैंने भूमंडलीय यथार्थ के बारे में तभी से सोचना शुरू कर दिया था, जब अपनी पुस्तक ‘आज का पूँजीवाद और उसका उत्तर- आधुनिकतावाद’ (1999) में संकलित निबंध लिखे थे। उसके बाद लिखे गये मेरे निबंध जैसे ‘साहित्य में फैशन और नवोन्मेष’, ‘आदर्शोन्मुख यथार्थवाद की जरूरत’, ‘रूढ़ सोच के साँचों को तोड़ना जरूरी’, ‘आगे की कहानी’, ‘हिंदी में विज्ञान कथाएँ क्यों नहीं हैं?’ इत्यादि भूमंडलीय यथार्थ को ही ध्यान में रखकर लिखे गये थे। अंततः ‘भूमंडलीय यथार्थवाद’ नामक निबंध में भूमंडलीय यथार्थवाद की मेरी अवधारणा विकसित होकर सामने आयी। (ये सभी निबंध 2008 में प्रकाशित मेरे साहित्यिक निबंधों के संग्रह ‘साहित्य और भूमंडलीय यथार्थ’ में संकलित हैं।) भूमंडलीय यथार्थवाद की मेरी अवधारणा संक्षेप में यह है:

आज की दुनिया का सबसे अहम प्रश्न है: क्या पूँजीवाद की वैश्विक व्यवस्था की जगह कोई और वैश्विक किंतु बेहतर व्यवस्था संभव है? यदि हाँ, तो उसकी रूपरेखा क्या है और वह व्यवस्था किन आधारों पर, किन शक्तियों के द्वारा और किन तरीकों से बनायी जा सकती है? इस प्रश्न का उत्तर भूमंडलीय यथार्थवाद के आधार पर ही दिया जा सकता है, क्योंकि इसका उत्तर देने के लिए यह आवश्यक है कि आज की दुनिया के यथार्थ को भौगोलिक के साथ-साथ ऐतिहासिक दृष्टि से भी देखा जाये और ऐतिहासिक दृष्टि को केवल अतीत को देखने वाली दृष्टि नहीं, बल्कि वर्तमान और भविष्य को भी देखने वाली ऐसी सर्जनात्मक दृष्टि मानकर चला जाये, जो आने वाले कल की बेहतर दुनिया बनाने के लिए हमें आज ही प्रेरित और सक्रिय कर सके।

हिंदी साहित्य में यह मान्यता न जाने कब से और क्यों चली आ रही है कि यथार्थ और कल्पना परस्पर-विरोधी हैं। मेरा कहना यह है कि यथार्थवाद कल्पना का निषेध नहीं करता। सृजनशील कल्पना तो यथार्थवादी रचना के लिए अपरिहार्य है, क्योंकि वह जिस ‘यूटोपिया’ अथवा भविष्य के स्वप्न को साकार करने के लिए की जाती है, वह सृजनशील कल्पना के बिना साकार हो ही नहीं सकता--न रचना में, न यथार्थ में। कारण यह है कि यथार्थवादी रचना के लिए इतिहास का बोध, वर्तमान का अनुभव और भविष्य का स्वप्न आवश्यक है। और आवश्यक है वह परिप्रेक्ष्य, जो इन तीनों के मेल से बनता है। जाहिर है कि ऐसा यथार्थवाद--रचनाकार के जाने या अनजाने, चाहे या अनचाहे--एक समाजवादी परियोजना है, क्योंकि भविष्य का स्वप्न पूँजीवादी व्यवस्था में समाजवाद ही हो सकता है। चाहे भविष्य में उसका नाम और रूप कुछ और ही हो जाये, आज वह पूँजीवाद का निषेध है और उसके परे जाने का प्रयत्न।



ठीक इसी कारण आज का पूँजीवाद यथार्थवाद का विरोधी है। यथार्थवाद के विकास को तरह-तरह से बाधित करना, उसे तरह-तरह से बदनाम करना, यथार्थवादियों को उपेक्षित या दंडित करना तथा तमाम प्रत्यक्ष और परोक्ष तरीकों से उनका दमन करना पूँजीवादी राजनीति का आवश्यक अंग है। 

मगर यह राजनीति अक्सर अराजनीतिक प्रतीत होने वाले रूपों में की जाती है। मसलन, यथार्थवाद की जगह अनुभववाद पर जोर देना, यूटोपिया का मजाक उड़ाना, उसे असंभव बताकर खारिज करना, भविष्य के स्वप्न देखने-दिखाने वाले यथार्थवादियों को स्वप्नजीवी, आदर्शवादी या गैर-यथार्थवादी सिद्ध करना, साहित्य को ‘‘वादमुक्त’’ तथा ‘‘राजनीति से दूर’’ रखने की सलाहें देना इत्यादि। ये अराजनीति की राजनीति के विभिन्न रूप हैं। लेकिन इसके बावजूद आज दुनिया भर में जो साहित्य लिखा जा रहा है, वह अधिकांशतः यथार्थवादी है और नये-नये यथार्थवादी रूपों में लिखा जा रहा है। 

कुछ लोग इसे ‘‘यथार्थवाद की वापसी’’ कह रहे हैं। लेकिन वह कहीं चला नहीं गया था। बस, यथार्थवाद-विरोध के शोर-शराबे में उसकी आवाज कुछ कम सुनायी पड़ रही थी। मगर अब जबकि वह शोर-शराबा कम हुआ है, उसकी आवाज साफ सुनायी पड़ रही है। हाँ, उसका रूप कुछ बदला-बदला और नया-नया-सा दिखता है, क्योंकि इस बीच बदलते रहे यथार्थ के मुताबिक उसका रूप भी बदलता रहा है। 

फेसबुक और अभिव्यक्ति का जोखिम - वीरेन्द्र यादव

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कँवल भारती की गिरफ़्तारी और उसके बाद अभिव्यक्ति की आज़ादी को लेकर लेखकों के प्रतिरोध के क्रम में वीरेन्द्र यादव का यह लेख शुक्रवार के ताज़ा अंक में प्रकाशित है.




फेसबुक पर टिप्पणी लिखने के कारण विगत सप्ताह चर्चित दलित लेखक कँवल भारती की गिरफ्तारी ने जहाँ  सत्ता मद में डूबे राजनेताओं के अहंकार को बेपर्दा  किया है वहीं सोशल मीडिया के बढ़ते प्रभाव को भी उजागर  किया है . पिछले वर्ष शिवसेना प्रमुख बाला साहब ठाकरे संबंधी  टिप्पणी के कारण मुम्बई में दो छात्राओं की गिरफ्तारी के बाद  फेसबुक टिप्पणी के चलते राजनेताओं की शह पर पुलिसिया कारवाई की यह दूसरी बड़ी घटना है..गनीमत यह है कि दोनों ही घटनाओं में न्यायिक हस्तक्षेप ने अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की रक्षा की है . उ.प्र. के रामपुर जिले के मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट ने फेसबुक पर टिप्पणी लिखे जाने को अपराध न मानते हुए कँवल भारती को तुरंत जमानत पर रिहा कर दिया .लेकिन हैरत और चिंता की बात यह है कि उ.प्र.सरकार के जिस बडबोले काबीना मंत्री के समर्थकों के रोष का शिकार कँवल भारती हुए हैं वे  अब पुलिस पर दबाव बनाकर उन्हें राष्ट्रीय सुरक्षा कानून में गिरफ्तार किये जाने की मांग कर रहे हैं .
     
दरअसल इस पूरे मसले की शुरुवात नोएडा की निलंबित आई ए एस अधिकारी दुर्गा शक्ति नागपाल के पक्ष में बनते जन दबाव का परिणाम है .कँवल भारती ने 4अगस्त को  फेसबुक पर यह टिप्पणी  लिखी  कि ,आरक्षण और दुर्गाशक्ति नागपाल इन दोनों ही मुद्दों पर अखिलेश यादव की समाजवादी सरकार पूरी तरह फेल हो गयी है. अखिलेश, शिवपाल यादव, आज़म खां और मुलायम सिंह (यू.पी. के ये चारों मुख्य मंत्री) इन मुद्दों पर अपनी या अपनी सरकार की पीठ कितनी ही ठोक लें, लेकिन जो हकीकत ये देख नहीं पा रहे हैं, (क्योंकि जनता से पूरी तरह कट गये हैं) वह यह है कि जनता में इनकी थू-थू हो रही है, और लोकतंत्र के लिए जनता इन्हें नाकारा समझ रही है. अपराधियों के हौसले बुलंद हैं और बेलगाम मंत्री इंसान से हैवान बन गये हैं. ये अपने पतन की पट कथा खुद लिख रहे हैं. सत्ता के मद में अंधे हो गये इन लोगों को समझाने का मतलब है भैस के आगे बीन बजाना.''
  
इसके पूर्व 2 अगस्त की टिप्पणी में उन्होंने लिखा था कि ,   “आपका "आज तक" कैसे सबसे तेज है? आपको तो यह ही नहीं पता कि रामपुर में सालों पुराना मदरसा बुलडोजर चलवा कर गिरा दिया गया और संचालक को विरोध करने पर जेल भेज दिया गया जो अभी भी जेल में ही है. अखिलेश की सरकार ने रामपुर में तो किसी भी अधिकारी को सस्पेंड नहीं किया. वह इसलिए कि रामपुर में आज़म खां का राज चलता है, अखिलेश का नहीं.उनको रोकने की मजाल तो खुदा में भी नहीं है”.
        
कँवल भारती रामपुर के ही हैं जहाँ आज़म खां की मर्जी सर्वोपरि है . दुर्गा शक्ति नागपाल के मामले के समानान्तर रामपुर में मदरसा गिराने के सच को उजागर करना ही कँवल भारती की गिरफ्तारी और उत्पीड़न के मूल में है .फेसबुक की प्रकृति और खुलेपन को देखते हुए कँवल भारती की टिप्पणी में अपने जनतांत्रिक मत की अभिव्यक्ति ही की गयी  है . सैकड़ों लोगों ने इस टिप्पणी को ‘लाईक’ और शेयर  भी किया है .उ.प्र. में आरक्षण और दुर्गा शक्ति नागपाल के मसले पर सरकार को अख़बारों  और फेसबुक की  सैकड़ों टिप्पणीयाँ के माध्यम से पहले ही प्रश्नांकित किया जा चुका है .इसलिए कँवल भारती पर कारवाई के मूल में रामपुर की स्थानीय राजनीति और आज़म खां के समर्थकों का सत्ता मद ही है .यह अनायास नहीं है कि कँवल भारती के विरुद्ध पुलिस में प्राथमिकी आज़म खां के स्थानीय मीडिया प्रभारी द्वारा ही दर्ज कराई गयी है . उल्लेखनीय यह भी है कि भारतीय दंड संहिता की जिन धारा 153  व 295 ए के अंतर्गत कँवल भारती के विरुद्ध मामला दर्ज किया गया है ये वही धाराएँ हैं ,जिनके अंतर्गत वरुण गांधी के विरुद्ध साम्रदायिक विद्वेष फ़ैलाने का मामला दर्ज किया गया था . जबकि कँवल भारती की फेसबुक टिपण्णीयों में किसी धर्म और सम्प्रदाय का न तो कोई उल्लेख है और न कोई उत्तेजक कथन . निश्चित रूप से  गिरफ्तारी की यह पुलिसिया कारवाई राजनीतिक दबंगों की प्रशासन से आपराधिक सांठ गाँठ का ही नमूना है . यह वास्तव में चिंता की बात है कि राजनीतिक दबंगई का सहारा लेकर उत्तर  प्रदेश ही नही देश के अन्य हिस्सों में भी प्रतिरोध की  जनतांत्रिक आवाजों का दमन किया जा रहा है .  भय का ऐसा वातावरण बनाने के दुष्प्रयास जारी  हैं ताकि लिखने पढने वालों का  जोखिम के इलाके में हस्तक्षेप दूभर हो जाये.
     
यह  दुर्भाग्यपूर्ण है कि इस समूचे घटनाक्रम में कँवल भारती के रूप में एक ऐसे धर्मनिरपेक्ष और वाम चेतना से लैस अम्बेदकरवादी  बुद्धिजीवी की घेरेबंदी की गयी है जिसकी दलित विमर्श में एक हस्तक्षेपकारी भूमिका रही है.संकीर्ण राजनीतिक नजरिये से दूर कँवल भारती ने ‘कांशीराम के दो चेहरे’ सरीखी पुस्तक तब लिखी थी जब मायावती का शासन था और वे स्वयं राजकीय सेवा में थे .अपनी एक दर्ज़न से अधिक पुस्तकों में उन्होंने वर्णाश्रमी ब्राह्मणवाद का क्रिटीक रचते हुए एक समतावादी समाज का विकल्प प्रस्तावित किया है .उन्होंने अपने लेखन में दलित अतिवाद का भी विरोध किया है .यही कारण है कि समूचा बुद्धिजीवी समाज आज उनके पक्ष में एकजुट है .सोशल मीडिया पर भी उनके पक्ष में व्यापक एकजुटता देखने को मिल रही है .मानवाधिकार कार्यकताओं ने भी इस मसले पर मानवाधिकार आयोग के हस्तक्षेप की मांग की है .

    
यह आश्वस्तकारी है कि देश के तीनों बड़े लेखक संगठन प्रगतिशील लेखक संघ ,जनवादी लेखक संघ और जनसंस्कृति मंच सहित  स्वतंत्र लेखकों ,बुद्धिजीवियों और संस्कृतिकर्मियों ने भी इसे अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर गंभीर हमला मानते हुए अपना रोष और प्रतिरोध दर्ज कराया है और प्रदेश सरकार से कँवल भारती पर से तुरंत मुकदमा हटाने और माफी मांगने की मांग की है . एक अहंकारी मंत्री के समर्थकों के चलते कँवल भारती की गिरफ्तारी का  यह प्रकरण दुर्गाशक्ति नागपाल के निलंबन की घटना के बाद उ.प्र. सरकार की जनतांत्रिक छवि पर बडा कलंक है .उम्मीद की जानी चाहिए कि प्रदेश सरकार अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार की  रक्षा करते हुए अपनी दिनोदिन गिरती शाख को और अधिक गिरने से बचायेगी .

संपर्क : 09415371872.
  

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