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ट्रेवॉन मार्टिन के बहाने नस्लवाद पर कुछ बातें

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2008में बराक ओबामा का यूएसए का राष्ट्रपति चुना जाना निश्चित ही एक ऐतिहासिक क्षण था. 20जनवरी 2009को ओबामा के शपथ ग्रहण समारोह (इनऑगरेशन सेरेमनी) का सीधा प्रसारण इन पंक्तियों के लेखक ने यूएसए के सुदूर उत्तर-पूर्वी राज्य मेन के एक शहर में बहुत सारे गोरों के साथ मिलकर देखा था और सबने ओबामा के सम्मान में खड़े होकर तालियाँ बजाई थीं. गौरतलब है कि मेन की जनसँख्या में कालों का प्रतिशत पूरे देश (लगभग साढ़े बारह फ़ीसदी) की बनिस्बत बेहद (एक फ़ीसदी से भी कम) कम है. इस राज्य के बारे में मशहूर अमेरिकी लेखिका बारबरा एरेनराइककी मज़ेदार टिप्पणी है-  “व्हेन यू गिव व्हाईट पीपल अ होल स्टेट टू देम्सेल्व्स, दे ट्रीट ईच अदर रिअल नाइस.” हाँ, ‘रेशियल डाइवर्सिटी’ की नीति के तहत कुछ सोमालियाई शरणार्थियों को वहाँ  बसाने के प्रयास सरकार ने ज़रूर किए हैं. तो इसके बाद सारे ‘रिअल नाइस’ लोगों ने  मान लिया गया था कि अमेरिकी समाज अब एक ‘पोस्ट-रेशियल’ समाज बन गया है.

इस ‘पोस्ट-रेशियल’ समाज की असलियत तो विभिन्न आँकड़ों के द्वारा जब-तब सामने आती रहती है-  चाहे वह अमेरिकी जेलों में बंदियों की संख्या में, ऋण पर लिए घरों की कुर्की (फ़ोरक्लोजर) की संख्या में, पढ़ाई छोड़ देने वाले बच्चों की संख्या में या हालिया महामंदी में अपना रोज़गार खो चुके लोगों की तादाद में कालों के अत्यधिक अनुपात की बात हो या पारिवारिक आय या संपत्ति में कालों और गोरों के बीच के बड़े फासले का मामला हो. वैसे दबी ज़बान में इन बातों के लिए कालों की अंतर्जात/अनुवांशिक अक्षमता को भी जिम्मेदार ठहराया जाता है. मगर हमारी ‘पुण्यभूमि’ में तो हमारे अपने सामाजिक डार्विनवादी दबी ज़बान में नहीं बल्कि गला फाड़-फाडकर सच्चर कमेटी की रिपोर्ट को खारिज करते हैं या दलितों, मुसलमानों और हाशिए पर पड़े अन्य समूहों की अंतर्जात/अनुवांशिक अक्षमता की बात करते हैं.

जिस तरह फिरकापरस्त समूह हमारे देश में ‘मुसलमानों की आबादी के बेहिसाब बढ़ने’ और ‘एक दिन उनकी संख्या हिंदुओं से अधिक हो जाने’ का काल्पनिक भय लंबे समय से दिखाते आ रहे हैं, कुछ उसी प्रकार का डर यूएसए की बहुसंख्यक श्वेत आबादी के मन में भी बिठाया गया है. अमेरिकी लेखक एक्टिविस्ट रैंडी शॉके अनुसार यह डर ओबामा के राष्ट्रपति निर्वाचित होने और पुनर्निर्वाचित होने के बाद कुछ और बढ़ गया प्रतीत होता है- बंदूकों की बिक्री बढ़ गई है और रिपब्लिकन नेता खुले आम कह रहे हैं कि लैटिनो आबादी अमेरिकी मूल्यों के लिए खतरा है. ‘वहाँ’ और ‘यहाँ’ में समानताएँ और भी हैं, जैसे ‘रेशियल प्रोफाइलिंग’ अर्थात सुरक्षा/कानूनी एजेंसियों द्वारा किसी व्यक्ति को उसके धर्म/जाति/नस्ल के आधार पर शक के घेरे में लाना, गैरकानूनी ढंग से गिरफ्तार करना, प्रताड़ित करना इत्यादि.

26फ़रवरी 2012की शाम को फ्लोरिडा राज्य के सैनफोर्ड शहर में ट्रेवॉन मार्टिन नामक 17वर्षीय अफ्रीकी-अमेरिकी किशोरवयीन लड़का इस रेशियल प्रोफाइलिंग का शिकार बना जब जॉर्ज ज़िमरमन नामक व्यक्ति ने अपनी निजी बन्दूक से उस पर गोली चला दी. ट्रेवॉन मार्टिन जिस गेटेड कम्युनिटी (वह रिहाइशी कालोनी जहाँ बाहरी लोगों का प्रवेश वर्जित हो) में अपने पिता से मिलने आया था जॉर्ज ज़िमरमन वहाँ नेबरहुड वॉच(रिहाइशी इलाकों की चौकसी करने वाला नागरिकों एक संगठित समूह) का समन्वयक था. ट्रेवॉन के बस्ते से मारिउआना बरामद होने पर उसे स्कूल से निलंबित किया जा चुका था, मगर आम तौर पर उसे एक शांत स्वभाव वाला लड़का बताया जाता है जो कभी किसी प्रकार की हिंसक घटना में लिप्त नहीं रहा और उस रात भी वह निहत्था था. हूडी (पीछे टोपी लगी हुई कमीज़ या जैकेट) पहने हुए एक काले टीनएजर को देखकर ज़िमरमन ने पुलिस को फोन कर संदिग्ध व्यक्ति देखे जाने की सूचना दी. प्रेस की रिपोर्टों के अनुसार हाल में ज़िमरमन ने जितने भी फोन पुलिस को किए थे वे सब उस रिहाइशी इलाके में घूमते पाए गए काले लोगों की ‘संदिग्ध व्यक्ति’ के तौर पर सूचना देने की खातिर किए थे. उस शाम फोन करने पर पुलिस ने उसे ‘संदिग्ध व्यक्ति’ का पीछा न करने की हिदायत दी जो ज़िमरमन ने नहीं मानी. ज़िमरमन का कहना है कि ट्रेवॉन ने उस पर हमला किया, दोनों में संघर्ष हुआ और ज़िमरमन की गन छीनने की कोशिश में ट्रेवॉन को गोली लग गई. अपना पक्ष रखने के लिए ट्रेवॉन मार्टिन जीवित नहीं है, मगर ज़िमरमन की कहानी अविश्वसनीय लगती है. वहीं मुक़दमे में गवाही देने वाली ट्रेवॉन की एक दोस्त के अनुसार ट्रेवॉन ने फोन पर उसे बताया था कि उसका पीछा किया जा रहा है. सच्चाई जो भी हो मगर इन तथ्यों से इनकार नहीं किया जा सकता कि ज़िमरमन पुलिस की हिदायत के खिलाफ जाकर ट्रेवॉन का पीछा कर रहा था, ज़िमरमन के पास हथियार था और ट्रेवॉन निहत्था था और ज़िमरमन का हिंसक अतीत है जो ट्रेवॉन का नहीं था.

घटना की रात गिरफ्तार किए जाने के बाद ज़िमरमन से पूछ-ताछ की गई और फिर उसे छोड़ दिया गया. सैनफोर्ड के पुलिस चीफ का कहना था कि सुबूतों के अभाव के कारण उन्हें ऐसा करना पड़ा और फ्लोरिडा और अन्य राज्यों के कुख्यात ‘स्टैंड योर ग्राउंड’ क़ानून के अनुसार उसे आत्मरक्षा के लिए किसी पर जानलेवा प्रहार करने का हक था. इसका देश भर में विरोध होना शुरू हुआ और लोग सड़कों पर उतर आए. ड्रीम डिफेंडर्सनामक युवाओं के एक समूह ने ट्रेवॉन के लिए इन्साफ की माँग उठाते हुए डेटोना शहर से सैनफोर्ड शहर तक चालीस मील लंबा मार्च किया और पुलिस स्टेशन के सामने पहुँच कर धरना दिया. आख़िरकार छह हफ़्तों बाद स्थानीय पुलिस ने ज़िमरमन पर सेकण्ड डिग्री मर्डर (गैर-इरादतन हत्या) का गुनाह दर्ज किया. यहाँ महाराष्ट्र का खैरलांजी बरबस याद आ जाता है जब 2006में हुए इस नृशंस हत्याकांड को रफा-दफा करने की कोशिशों के खिलाफ दलित जनता को सड़कों पर उतरना पड़ा था.

यूएसए की न्याय-व्यवस्था में निहित नस्ली पूर्वाग्रह फिर एक बार सामने आ गया जब मुक़दमे में 13जुलाई 2013को छह व्यक्तियों (जिनमें पाँच श्वेत महिलाएं थीं और एक लैटिनो महिला थी) की जूरी ने ज़िमरमन को निर्दोष करार दे दिया. इस पूरे मुक़दमे में इस बात पर जोर दिया जा रहा था कि यहाँ नस्ल को मुद्दा नहीं बनाया जाए. ठीक वैसे ही जैसे हमारे यहाँ दलितों के खिलाफ होने वाली हिंसा की घटनाओं के जातीय पहलू को दबाने की भरसक कोशिशें की जाती हैं. मामला दर्ज हो भी जाए तो प्रिवेंशन ऑफ़ एट्रोसिटीज़ एक्ट के प्रावधानों को दूर रखकर उसे आम फौजदारी मामला बताया जाता है, या इस एक्ट के प्रावधान लागू कर भी दिए गए तो कुछ समय बाद हटा दिए जाते हैं. ‘पोस्ट-रेशियल’ समाज और ‘पोस्ट-एट्रोसिटी’ समाज नस्ल/जाति को मुद्दा न बनने देने में बिलकुल एक जैसी बेशर्मी दिखाते हैं.

इस मुक़दमे के फैसले के खिलाफ न्यूयोंर्क, लॉस एंजिलिस, शिकागो, अटलैंटा, डिट्रॉइट और अन्य कई शहरों में भारी प्रदर्शन हुए. यूएसए के अग्रणी नागरी अधिकार संगठन एनएएसीपी (नैशनल असोसिएशन फॉर अडवांसमेंट ऑफ़ कलर्ड पीपल) ने डिपार्टमेंट ऑफ़ जस्टिस से माँग की है कि जॉर्ज ज़िमरमन के खिलाफ ट्रेवॉन मार्टिन के नागरी अधिकारों के हनन का मामला दर्ज किया जाए. इस माँग को लेकर चलाए जा रहे हस्ताक्षर अभियान में अब तक पन्द्रह लाख से भी ज्यादा लोग दस्तखत कर चुके हैं.  

यहाँ दिलचस्प बात यह है कि स्वयं ज़िमरमन की वल्दियत विशुद्ध ‘एंग्लो-सैक्सन’ नहीं है जबकि उसे देखने से यह बात समझ में नहीं आती. मगर जैसे ब्राम्हणवादी होने के लिए ब्राम्हण होना ज़रूरी नहीं वैसे ही नस्लवादी होने के लिए ‘प्योर व्हाईट ब्लड’ की आवश्यकता नहीं. मिसाल के तौर पर, यूएसए में रहने वाले अधिकाँश भारतीय (या, दक्षिण एशियाई) लोग अफ्रीकी-अमेरिकियों को लेकर खासे पूर्वाग्रहग्रस्त होते हैं और आपसी बातचीत में उनके लिए ‘कल्लू’, ‘जामुन’ या ‘श्यामलाल’ जैसे अनादरपूर्ण विशेषणों का प्रयोग करते हैं. वहाँ हम जैसे ‘ब्राउन’ लोग नस्लवाद की दुहाई तभी देते हैं जब वैसा व्यवहार हमारे साथ होता है – अपने देस की जाति-व्यवस्था के अनुरूप परदेस में हम ‘ब्राउनों’ ने अपने-आप को सामाजिक सोपानक्रम में ‘व्हाइट्स’ से नीचे और ‘ब्लैक्स’ से ऊपर मान लिया है.

विकट संयोग है कि इसी महीने (अगस्त) की 28वीं तारीख को डॉ. मार्टिन लूथर किंग जूनियर के ऐतिहासिक भाषण ‘आइ हैव ए ड्रीम’ के पचास साल पूरे होने वाले हैं. पिछली सदी में यूएसए के नागरी अधिकार आंदोलन  का यह अत्यंत महत्त्वपूर्ण क्षण था जिसमें डॉ. किंग ने नस्लवाद खत्म करने का आवाहन किया था. उसके बाद की आधी सदी में यूएसए में कालों के लिए बहुत कुछ बदला है मगर काफी कुछ ऐसा है जिसे बदला जाना शेष है. ट्रेवॉन मार्टिन का मामला यही दर्शाता है कि नागरी अधिकारों का और सामाजिक न्याय का संघर्ष अभी पूरा नहीं हुआ है. 


(समयांतर, अगस्त 2013 से साभार)


डा नरेंद्र दाभोलकर की नृशंस ह्त्या हमारी अग्रगामी चेतना की हत्या की कोशिश है

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(स्वतंत्र भारत के इतिहास में डा नरेंद्र दाभोलकर की नृशंस ह्त्या हमारी अग्रगामी चेतना की हत्या की कोशिश है. यह एक प्रगतिशील मुल्क बनाने के हमारे सपने की हत्या की कोशिश है. इसकी निंदा करना तो बस एक सड़ी हुई परम्परा का निर्वाह होगा...यह असल में हमारे ताज़ा परम्परा निर्माण की कोशिशों की हत्या है. जिस निष्ठा के साथ वह लगातार पुरातनपंथी अंधविश्वासों से लड़ रहे थे, वह इन प्रतिगामी शक्तियों के अलमबरदारों को असह्य था. वे तर्कों में उनका मुक़ाबिला नहीं कर सकते थे तो उन्हें गोली मार दी. इसके पहले भी कई बार इन ताक़तों ने उनकी आवाज़ दबाने की कोशिशेंकी थीं. लेकिन वे नहीं जानते कि व्यक्ति के मरने से विचार नहीं मरते. उन विचारों के वाहक लाखों की संख्या में हैं और कटिबद्ध हैं. 

हम सभी वैज्ञानिक चेतना को अंगीकार करने वाले लोग इस घटना से आहत हैं, संतप्त हैं, क्रुद्ध हैं. हम इसकी निंदा कठोरतम शब्दों में करते हैं और उन कायर हत्यारों तथा उनके पीछे की गलीज़ ताक़तों को बता देना चाहते हैं कि वे अपनी चाल में कभी क़ामयाब नहीं होंगे..हम होने नहीं देंगे.

यह उस पत्र का ड्राफ्ट है जो हमने मुख्यमंत्री, महाराष्ट्र सरकार को भेजने के लिए तैयार किया है. आप सभी मित्रों से सुझावों और समर्थन की दरकार है. - जनपक्ष टीम )




प्रति

 मुख्यमंत्री , महाराष्ट्र सरकार

मान्यवर,


आपको ख़ूब विदित होगा कि आप जिस राज्य का नेतृत्व कर रहे हैं , वहां प्रगतिशील विचारों की बड़ी समृद्ध परंपरा रही है . इस राज्य को शिवाजी महाराज से लेकर महात्मा फुले , सावित्री बाई फुले , डा बाबा साहब आम्बेडकर, आन्ना भाऊ साठे आदि का राजनीतिक सामजिक नेतृत्व प्राप्त हुआ है. यहाँ अंधश्रद्धा निर्मूलन के लिए समर्पित व्यक्तिव डा नरेन्द्र दाभोलकर की हत्या इस गौरवशाली परंपरा पर आघात करने का एक सुनियोजित षड़यंत्र है .


यद्यपि आप और आपके साथ राज्य के सभी नेताओं ने इस हत्या की घोर निंदा की है और त्वरित कारवाई की इच्छाशक्ति जतलाई है .आपने हत्यारों के बारे में जानकारी देने वालों को १० लाख रुपये की इनाम राशि भी घोषित की है . लेकिन स्पष्ट और घृणित इरादे के साथ की गई इस हत्या के पीछे के षड्यंत्रकारियों की पहचान इतना जटिल भी नहीं है . डा दाभोलकर और उनके संगठन अंध श्रद्धा निर्मूलन समिति    (अनस ) को राज्य भर में पर्याप्त जनसमर्थन हासिल था , जिसके कारण राज्य सरकार अंध श्रद्धा और काला जादू के खिलाफ कानून लाने के लिए विवश हो रही थी . आपको खूब ज्ञात है कि इस क़ानून का कहाँ से और कौन सी शक्तियां विरोध कर रही थी . इस तरह यह भी ज्ञात होना चाहिए कि हत्या का सूत्र कहाँ से जुड़ता है. यहाँ यह बता देना ग़लत न होगा कि एक दक्षिणपंथी हिन्दू संगठन सनातन संस्था ने दो महीने पहले मुंबई के आज़ाद मैदान में अपनी सभा में यह कहा था कि, 'डा डाभोलकर ने अपनी कार्यवाहियाँ नहीं रोकीं तो उनका भी वही हश्र होगा जो महात्मा गाँधी का हुआ था.


हम लेखक, कलाकार, सांस्कृतिक कार्यकर्ता, सोशल मीडिया यूजर्स और वैज्ञानिक चेतना से जुड़े आम जनों का आपसे आग्रह है कि आप अपनी सरकार को डा दाभोलकर के हत्यारों की गिरफ्तारी के साथ साथ वे सारे प्रभावी कदम उठाने का निर्देश दें , जो डा दाभोलकर के अभियान के खिलाफ काम कर रहे व्यक्तियों और उनके संगठनों के षड्यंत्र को जाहिर कर सके और उनपर प्रतिबन्ध लगा सके .इस सन्दर्भ में सरकार एक श्वेत पत्र जारी करे कि किन कारणों से , किन परिस्थितियों में अंधश्रद्धा निर्मूलन क़ानून बनाने में सरकार असफल रही है . इसके साथ ही हम सभी आपसे आग्रह करते हैं कि अंधश्रद्धा और काला जादू के खिलाफ क़ानून लाकर और उनकी हत्या के स्थल पर उनकी प्रमिका लगाकर डा दाभोलकर को सच्ची श्रद्धांजलि दें .



हस्ताक्षर  
१-संजीव चन्दन
२-उमाशंकर सिंह
३-पंकज मिश्र
४-अशोक कुमार पाण्डेय
५-मनोज पाण्डेय
६-डा मोहन श्रोत्रिय
७-गिरिराज किराडू
८-आनंद कुमार द्विवेदी
९-गिरिजेश तिवारी
१०-आशीष मिश्रा
११-नूर मोहम्मद नूर
१२-कैलाश वानखेड़े
१३-दिगंबर
१४-प्रकाश के रे
१५-समर अनार्य
१६- सईद अयूब
१७-विमल चन्द्र पाण्डेय
१८-राजेश उत्साही
१९-ओमेश लखवार
२०-देवयानी भारद्वाज
२१-संजय सामंत
२२-अशोक वर्मा
२३-केशव तिवारी
२४-निलय उपाध्याय
२५-चन्दन कुमार मिश्र
२६-राजीव पाण्डेय'
२७- अनीता कुमार
२८-आशुतोष कुमार
२९ प्रोफ़ेसर गिरीश मिश्र
३०- आशीष देवराड़ी

शास्त्र सम्मत नहीं है अयोध्या की चौरासी कोस की परिक्रमा

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(अरुण जी का यह लेख आज आगरा से निकलने वाले दैनिक कल्पतरु एक्सप्रेस में प्रकाशित हुआ है. यह लेख धर्म के अपने टूल्स से हालिया घटनाक्रम की विवेचना कर स्पष्ट बताता है कि किस तरह इस कथित धार्मिक यात्रा का उपयोग आगामी लोकसभा चुनाव में धार्मिक ध्रुवीकरण के लिए किया जा रहा है)






अरुण कुमार त्रिपाठी



 विश्व हिंदू परिषद की तरफ से प्रस्तावित अयोध्या की चौरासी कोस की परिक्रमा न तो शास्त्र सम्मत है न ही वह 18 वीं सदी  में शुरू हुई परंपरा के अनुरूप।  उसका मकसद गलत समय पर गलत परंपरा डालना है और आगामी लोकसभा चुनाव को ध्यान में रखकर राजनीतिक ध्रुवीकरण करना है। इसलिए यह परंपरा के नाम पर एक नया विवाद खड़ा करने की कोशिश  है।  यह बात  धर्माचार्यों  और राजनीतिज्ञों ने महसूस की है। 

ब्रजाचार्य पीठाधीश गोस्वामी स्वामी दीपकराज भट्ट का मानना है कि अयोध्या के चौरासी कोस की परिक्रमा की परंपरा न तो प्राचीन है न ही शास्त्र सम्मत।  इसे 18 वीं सदी में रामानंद संप्रदाय के लोगों ने शुरू किया। जब से कुंभ में नागा साधुओं के स्नान की परंपरा शुरू हुई और अयोध्या में हनुमान गढ़ी की स्थापना हुई लगभग उसी से जुड़ कर निकली अयोध्या के चौरासी कोस की परिक्रमा।  ब्रज उद्धारक नारायण भट्ट की 18 वीं पीढ़ी के आचार्य दीपक राज जी का कहना है कि  रामनंदियों और रामानुजों ने न सिर्फ अयोध्या की चौरासी कोस की परिक्रमा शुरू करवाई बल्कि मिथिला की में भी इसी तरह की परिक्रमा शुरू की।  आज लोकजीवन में किसी को इसका स्मरण भीनहीं है।  अयोध्या की भी परिक्रमा को भी किसी धर्माचार्य की मान्यता नहीं है।  नारायण भट्ट जी, माधवाचार्य जी और बल्लभाचार्य जी किसी ने भी इसे मान्यता नहीं दी है।  दरअसल चौरासी कोस परिक्रमा की परंपरा ब्रज में रही है।  वही प्राचीन है और वही शास्त्र सम्मत है। इसका जिक्र ग्राउस, ग्रियर्सन और गिलक्राइस्ट ने भी किया है।  तवारीखे फिरोजशाही में भी इसका वर्णन है। यह परंपरा कृष्ण के प्रपौत्र बज्रनाथ ने शुरू की थी।  दीपक राज भट्ट जी का मानना है कि राम नाम का महत्व तो  प्राचीन समय से रहा है लेकिन अयोध्या के राजा दशरथ के पुत्र राम को भगवान की मान्यता बहुत बाद में मिली है।  चौरासी कोस की यह परिक्रमा उसी राम के ईश्वरीय महत्व को स्थापित करने का प्रयास था।  अयोध्या की इस परिक्रमा का महत्व उसी तरह का नहीं बन नहीं पाया जैसे तमाम साईं हुए लेकिन सिरडी वाले के अलावा सभी का वैसा महत्व नहीं बना।  पहले तो यह महज पांच कोस की होती थी और बाद में सात फिर चौदह कोस की हो गई।  यह सब धर्मांधता बढ़ने और धर्म में राजमनीति का घालमेल होने से हुआ। जबकि अयोध्या नए घाट के निवासी धर्माचार्य रघुनाथ दास त्रिपाठी का कहना है कि अयोध्या की चौरासी कोस परिक्रमा का जिक्र अयोध्या महात्म्य में है।  यह अनादिकाल से भगवान राम से जुड़ी है।  श्री त्रिपाठी का कहना है कि वह परंपरा तो अक्षय तृतीया से जानकी नवमी के बीच होती है।  वह इस साल 25 अप्रैल से 20 मई के बीच  संपन्न हो चुकी है।  यह परिक्रमा फैजाबाद, बस्ती, गोंडा से गुजरती है। इसकी शुरुआत बस्ती जिले के मखौड़ा नामक स्थान  से होती है और रास्ते में परशुरामपुर और  विक्रमजोत वगैरह इसके पड़ाव हैं।  इसमें व्यापक तौर पर संत समाज शामिल होता है और थोड़े बहुत गृहस्थ भी।  विहिप अभी जिस परिक्रमा की बात कर रही थी उसका मकसद अलग है। राज्यमंत्री और अयोध्या के पूर्व विधायक जयशंकर पांडे का कहना है कि विहिप की इस प्रस्तावित परिक्रमा पर रोक लगाकर ठीक किया गया, क्योंकि यह धार्मिक नहीं, राजनीतिक यात्रा थी।  यह भारतीय दर्शन और परंपरा को छोड़कर नई परंपरा शुरू करने का प्रयास था। बल्कि विहिप के ज्ञापन में ही लिखा था कि वे राम मंदिर निर्माण के लिए जनजागरण के मकसद से यह करना चाहते हैं।  उनका प्रयास इस इलाके में पड़ने वाले फैजाबाद, गोंडा, बस्ती आंबेडकर नगर समेत चार-पांच लोकसभा क्षेत्रों को प्रभावित करने का है।  पर यह तो बड़बोलापन है। आखिर कोई काम शास्त्र सम्मत ही किया जाएगा ? अब कार्तिक पूर्णिमा अमावस्या के दिन तो नहीं पड़ेगी।  रामनवमी कृष्ण जन्माष्टमी के दिन नहीं पड़ेगी।  चौदह कोसी परिक्रमा संत समाज की  है उसमें गृहस्थ नहीं जाते रहे हैं।  अब उसे आम जनता से जोड़ने का उद्देश्य कुछ और है।  सवाल उठता है कि जब भाजपा की सरकार थी, तब विहिप ने क्यों नहीं की यह परिक्रमा। दूसरी तरफ शहीद शोध संस्थान फैजाबाद के प्रबंध निदेशक सूर्यकांत पांडे का कहना है कि मुलायम सिंह और मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने एक तो विहिप के नेता अशोक सिंघल से मिलकर गलती की और फिर इस परिक्रमा पर पाबंदी लगाकर।  अब रोक लगाने से विहिप अपने  मकसद  में कामयाब हो गई है।  सपा को इस काम में अपने कार्यकर्ताओं को लगा देना था। इसके विहिप विफल हो जाती।  उनका कहना है कि यह परिक्रमा उस समय से हो रही है जब भगवान राम का जन्म होने वाला था और संतों को उसका अहसास हो गया था, लेकिन इसमें आम जन नहीं जाता।  इसकी खत्म होने की तारीख तय है, इसलिए इसे हर समय नहीं किया जा सकता। जाहिर है विहिप का उद्देश्य मंदिर आंदोलन को फिर से गरमाना है।

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लेखक जाने माने पत्रकार हैं और लोहियावादी विचारक. सम्प्रति कल्पतरु एक्सप्रेस के सम्पादक हैं.

संपर्क - tripathiarunk@gmail.com

इस मुरदा-घर में उम्मीद की किरणें कहाँ से आएँगी?

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(यह आलेख कुछ दिनों पहले 'स्त्री मुक्ति' के लिए लिखा गया था. आज आप सबके लिए)

चित्र यहाँ से साभार 




कुछ दिनों पहले कवि और प्रकाशक अरुण चन्द्र राय ने एक वाकया सुनाया. दिल्ली के पास एक फैक्ट्री के सर्वे के समय उन्हें कुछ किशोर वय के मज़दूर लडके मिले. फैक्ट्री में उनके काम करने के घंटे दस से बारह थे. सब यमुना पार की झुग्गियों में बेहद अमानवीय परिस्थितियों में रहते थे, बिहार और उत्तर प्रदेश के ग्रामीण इलाक़ों से आये इन किशोरों की औसत आय रोज़ के सौ रुपये के आस-पास थी. इनके पास मनोरंजन का न तो कोई साधन था न ही कोई समय. बस एक चीज़ थी. चाइना के सस्ते मोबाइल और उन सबके मोबाइल पर पोर्न क्लिप्स भरे हुए थे. काम के बीच में थककर बीड़ी-तम्बाकू पीते हुए वे इन क्लिप्स को देखा करते थे. अमूमन कड़ाई से काम कराने वाले मालिक और सुपरवाइजर इस बात पर कोई एतराज़ नहीं करते थे. पूछने पर उन्होंने बताया कि इस से रिफ्रेश होकर लड़के फिर पूरे जोश से काम करते हैं’ !हाँ एक और चीज़ थी उनके पास काम के बाद रिलेक्स होने के लिए – ड्रग्स और शराब!

बहुत पहले कहीं परसाई जी को पढ़ा था जहाँ उन्होंने एक घटना बयान की थी जिसमें एक ऐसे जवान लड़के का वाकया बयान किया गया था जिसने किसी शो रूम के शीशे में लगे एक महिला के बुत को गुस्से में तोड़ डाला था और वज़ह पूछने पर बताया कि साली बहुत सुन्दर लगाती थी’! इन दो घटनाओं को जोड़कर देखते हुए पिछले दिनों देश के अलग-अलग इलाकों में हुई बलात्कार की घटनाएं जेहन में घूम गयीं. ऐसा नहीं कि बलात्कार की ये घटनाएं ग़रीब और वंचित लोगों द्वारा ही घटित हुईं लेकिन इन घटनाओं में इस वर्ग के लोगों की संलिप्तता भी अनेक बार पाई गयी.  इसलिए इन्हें थोडा अलग से और थोड़ा सबके साथ जोड़कर देखे जाने की ज़रुरत है.

थोड़ा पीछे जाकर देखें तो इस देश में योरप की तरह कभी कोई बड़ी सामाजिक क्रान्ति नहीं हुई. सामंती शासन व्यवस्था से सत्ता छीन कर जो औपनिवेशिक व्यवस्था यहाँ आई उसका मूल उद्देश्य अपने पितृदेश के लिए अधिकतम संभव मुनाफ़ा कमाना था. 1857 के बाद से तो अंग्रेज़ी शासन ने किसी सामाजिक सुधार की जगह पूरी तरह से यहाँ की उत्पीड़क सामाजिक संस्थाओं का दोहन अपने पक्ष में करना शुरू कर दिया. यह समाज को धार्मिक तथा जातीय आधारों पर बाँटे रहने का सबसे मुफ़ीद तरीक़ा था. आप देखेंगे कि जहां पूरे योरप के साथ-साथ इंग्लैण्ड में उस दौर में सामाजिक-सांस्कृतिक-राजनीतिक परिवर्तनों की बयार चल रही थी, भारत में अंग्रेज़ी शासन के अंतर्गत ऐसी कोई बड़ी पहल इस दौर में संभव नहीं हुई. सती प्रथा विरोध जैसे जो कुछ समाज-सुधार आन्दोलन 1857 के पहले थे भी वे बाद के दौर में नहीं दीखते. सामाजिक संरचना पूरी तरह से सामंती मूल्य-मान्यताओं पर आधारित रही. देश में पूंजीवाद आया भी तो औपनिवेशिक शासक के हितों के अनुरूप कमज़ोर और बीमार. यह किसी सक्रिय क्रान्ति की उपज नहीं था जो अपने साथ सामाजिक संरचना को भी उथल-पुथल कर देती. दक्षिण में रामास्वामी पेरियार के नेतृत्व में और फिर फुले तथा अम्बेडकर के नेतृत्व में जातिगत भेदभाव विरोधी आन्दोलन चले भी लेकिन जेंडर को लेकर कोई बहुत मज़बूत पहल कहीं दिखाई नहीं दी. आप देखेंगे कि उपनिवेशवाद विरोधी संघर्ष की मुख्यधारा में शामिल अधिकाँश लोगों के भाषणों, आचार-व्यवहार और नीतिगत निर्णयों में पितृसत्तात्मक तथा ब्राह्मणवादी नज़रिया साफ़-साफ़ झलकता है. कांग्रेस के सबसे प्रमुख नेताओं मोहनदास करमचंद गाँधी, बाल गंगाधर तिलक, राजेन्द्र प्रसाद से लेकर हिंदूवादी नेताओं जैसे मदन मोहन मालवीय तक में यह स्वर कभी अस्पष्ट तो कभी मुखर रूप से दिखाई देता है.  इस दौरान पनपे हिन्दू तथा मुस्लिम दक्षिणपंथी संगठनों में तो यह स्वाभाविक ही था कि महिलाओं को लेकर बेहद संकीर्ण दृष्टि अपनाई जाती. उदाहरण के लिए आर एस एस के दूसरे सरसंघचालक गोलवरकर आर्गेनाइज़र के 2 जनवरी 1961 के अंक के पेज़ 5 पर कहते हैं आजकल संकर प्रजाति के प्रयोग केवल जानवरों पर किये जाते हैं। लेकिन मानवों पर ऐसे प्रयोग करने की हिम्मत आज के तथाकथित आधुनिक विद्वानों में भी नहीं है। अगर कुछ लोगों में यह देखा भी जा रहा है तो यह किसी वैज्ञानिक प्रयोग का नहीं अपितु दैहिक वासना का परिणाम है। आइये अब हम यह देखते हैं कि हमारे पुरखों ने इस क्षेत्र में क्या प्रयोग किये।मानव नस्लों को क्रास ब्रीडिंग द्वारा बेहतर बनाने के लिये उत्तर के नंबूदरी ब्राह्मणों को केरल में बसाया गया और एक नियम बनाया गया कि नंबूदरी परिवार का सबसे बड़ा लड़का केवल केरल की वैश्य, क्षत्रिय या शूद्र लड़की से शादी कर सकता है। एक और इससे भी अधिक साहसी नियम यह था कि किसी भी जाति की विवाहित महिला की पहली संतान नंबूदरी ब्राह्मण से होनी चाहिये और उसके बाद ही वह अपने पति से संतानोत्पति कर सकती है। आज इस प्रयोग को व्याभिचार कहा जायेगा, पर ऐसा नहीं है क्योंकि यह तो पहली संतान तक ही सीमित है.ब्राह्मणवाद और पितृसत्तात्मक सोच का इससे क्रूर उदाहरण क्या हो सकता है?फिर इस बात पर क्या आश्चर्य किया जाय कि ऐसे गुरु के शिष्य आज भी बलात्कार की वजूहात स्त्रियों के पहनावे से लेकर उनके आचार-व्यवहार, नौकरी और सौन्दर्य तक में तलाश करते हैं? खैर, इस तरह आज़ादी की पूरी लड़ाई मर्दों की लड़ाई बनी रही. औरतों की बेहद मानीखेज़ भागीदारी के बावजूद उनके मुद्दे हमारे नेतृत्वकारी निकाय के सामने कभी बहुत महत्त्वपूर्ण नहीं रहे. नतीजतन सामाजिक संरचना मोटे तौर पर सामंती बनी रही और विद्यालयों से लेकर परिवारों तक में पितृसत्तात्मक मूल्य आदर्श की तरह स्थापित किये जाते रहे.

इसी के साथ उस दौर की औपनिवेशिक आर्थिक नीतियों से जिस तरह आर्थिक और क्षेत्रीय विषमताओं में वृद्धि हुई वह आज़ादी के बाद भी बदस्तूर चलती रही. बिहार, उत्तर प्रदेश, मध्यप्रदेश, उडीसा जैसे पिछड़े क्षेत्रों के भयानक वंचना के शिकार लोग विस्थापित होकर महानगरों में आने को मज़बूर हुए जहाँ की चकाचौंध वे देख तो सकते थे लेकिन उसमें प्रवेश वर्जित था. इन महानगरों में उन्हें मिली नारकीय झुग्गी-झोपड़ियों की रिहाइश, अमानवीय रोज़गार स्थितियाँ और दोयम दर्जे की नागरिकता जहाँ उन्हें कोई भी अपमानित कर सकता था, प्रताड़ित कर सकता था. अपराधी मानसिकता के फलने-फूलने में ये परिस्थितियाँ कैसी भूमिका निभाती हैं इसे अस्सी के दशक में लिखे गए जगदम्बा प्रसाद दीक्षित के उपन्यास ‘मुरदा घर’ में तो हाल में आये अरविन्द अडिगा के उपन्यास ‘द व्हाईट टाइगर’ में देखा जा सकता है. नब्बे के दशक के बाद ये प्रक्रिया और बढ़ी. आर्थिक असमानता की खाई तो चौड़ी हुई ही साथ में सामाजिक सुरक्षा के नाम पर जो थोड़ी-बहुत इमदाद मिलती थी वह भी बंद हो गयी. आवारा पूंजी से भरे बाज़ार ने एक तरफ चकाचौंध को कई गुना बढ़ा दिया तो दूसरी तरह मज़दूरों को मिलने वाली सुरक्षा धीरे-धीरे ख़त्म की जाने लगी. खेती नष्ट हुई और गाँवों से रोज़गार की संभावनाएं भी. नतीजतन गाँवों और छोटे कस्बों से शहरों की तरफ पलायन बढ़ा और बड़ी संख्या में लोग उन्हीं परिस्थितियों में रहने और काम करने को मज़बूर हुए जिसका ज़िक्र मैंने पहले वाकये में किया है.     

इसके बरक्स दूसरी दुनिया में समृद्धि ही नहीं आई बल्कि पूरा सांस्कृतिक परिवेश भी बदल गया. उदाहरण के लिए फिल्मों को देखें. आदर्श वे कभी नहीं रहीं. लेकिन आवारा पूंजी के बेरोकटोक आगमन के बाद उनके चरित्र में बहुत बदलाव आया. अश्लीलता और नारी देह के कमोडीफिकेशन को एक मूल्य की तरह स्थापित किया गया. आइटम सांग के रूप में जिन बोलों के साथ बेहद अश्लील नृत्य प्रस्तुत किये जाते हैं उनकी लोकेशंस को जरा गौर से देखिये. अक्सर आपको वह पैसे लुटाते लोगों के सामने खुद को प्रस्तुत करती स्त्री का है. साथ में है भव्य विदेशी लोकेशंस पर उच्च-मध्यवर्गीय या फिर उच्च-वर्गीय जीवन का स्वप्नजगत जो ललचाता है, सपने जगाता है और सीख देता है कि पैसे से कुछ भी ख़रीदा जा सकता है और पैसे कमाने के लिए कुछ भी किया जा सकता है. स्त्री यहाँ कोई सकर्मक रोल अदा करने की जगह एक ऐसे लक्ष्य की तरह है जिसे या तो पैसे या फिर ताक़त की तरह प्राप्त किया जा सकता है और उसे ऐसा बनाया जाता है मानों वह खुद को प्रस्तुत करने के लिए सदा तैयार है, बस पात्र के भीतर इन दोनों में से कोई एक योग्यता हो. याद कीजिए डियो का वह विज्ञापन जिसमें लडकियाँ बैगपाइपर के पीछे भागते चूहों की जगह ले लेती हैं. और इस सांकेतिकता के बरक्स अधिक फैला हुआ संसार है पोर्न फिल्मों और वीडियो क्लिप्स का. इंटरनेट ऐसी सामग्री से भरा पडा है. हमने उस वाकये में देखा कि किस तरह वह इस अशिक्षित, विस्थापित, वंचित और शोषित समूह के लिए अफीम का काम करता है. लेकिन यहाँ यह ध्यान देना ज़रूरी होगा कि ऐसा सिर्फ उनके साथ नहीं है. संपन्न घरों के मित्र और लक्ष्य विहीन बच्चों से लेकर बड़ों तक यह असर साफ़ दिखाई देता है. एक तरफ सामंती पारिवारिक संरचना जिसमें स्त्री को दोयम दर्जे का नागरिक समझा जाता है तो दूसरी तरफ ऐसा सांस्कृतिक परिवेश जिसमें स्त्री को सिर्फ देह, वह भी किसी भी तरह पाई जा सकने वाली देह बनाकर पेश किया जाता है. यह सब मिलकर स्त्री के प्रति एक हिंसक मानसिकता को जन्म देता है जिसका परिणाम हम कभी खाप पंचायत के रूप में देखते हैं, कभी बलात्कारों के रूप में तो कभी कश्मीर से उत्तर पूर्व तक के ‘डिस्टर्ब’ क्षेत्रों में लोगों के आत्मसम्मान को कुचलने के लिए सैनिकों द्वारा महिलाओं पर किये गए अत्याचार के रूप में.  और इन सबके बीच होती है अपनी रोज़ाना की जद्दोजेहद में लगी औरत.  घर से निकलती हुई, अपने हकूक के लिए ही नहीं सर्वाइवल के लिए भी जद्दोजेहद करती, इस बाज़ार में अपने लिए काम तलाशती, इस थोड़ी सी आज़ादी को सेलीब्रेट करती और इस सारी प्रक्रिया में पुरुष के साथ प्रतियोगिता में उतरती तो घर के भीतर अपनी पारम्परिक भूमिका के साथ कभी एडजस्ट तो कभी विरोध करती तथा रोज़ ब रोज़ इस मानसिकता की आँखों में काँटा बनती!  मुक्ति की तलाश में नौकरी से लेकर प्रेम तक वह जहाँ भी जाती है उसे अक्सर इसी मानसिकता का सामना करना पड़ता है.

ज़रा उस वर्ग के लिहाज से इन सब चीजों को एक साथ रखकर देखें जिसपर मैं यह लेख केन्द्रित करना चाहता हूँ. एक तरफ़ निजी जीवन में सौन्दर्य का पूर्ण अभाव बल्कि कहें तो कुरूपता का वर्चस्व. गंदे घर, पहनने को अच्छे कपडे नहीं, कारखानों, होटलों, बंगलों और दुकानों में हाड़तोड़ मेहनत और अपमान वाला नारकीय जीवन, विस्थापन और दारिद्र्य तो दूसरी तरफ चारों ओर फ़िल्मों और विज्ञापनों के बिलबोर्डों पर बिखरा, उन्हीं कारखानों के मालिकों और बड़े कारकूनों के यहाँ दिखता, सड़क पर मंहगी कारों और दुकानों तथा होटलों में मुक्त भाव से पैसे लुटाता और घरों में ऐश्वर्य के सारे साधन जुटाता सौन्दर्य. इन सबके साथ मुक्तिदाता मनोरंजन के रूप में उपलब्ध पोर्न और नशा. क्या यह सब उस सौन्दर्य के प्रति नफरत पैदा कर देने के लिए काफ़ी नहीं? क्या यह सब उन्हें अमानवीय बना देने के लिए काफ़ी नहीं? इस अमानवीयता के परिणाम के रूप में उनका एक रूप बलात्कारी की तरह नज़र आता है तो इसमें आश्चर्य कैसा? अगर यह अमानवीयता मध्यवर्गीय निर्भया से लेकर उन्हीं झुग्गी-झोपड़ी में रहने वाली मासूम लड़कियों के साथ ऐसे अत्याचार के रूप में आ रहा है तो क्या सिर्फ दोषियों को कड़ी से कड़ी सज़ा देकर इस पर पाबंदी लगाई जा सकती है? ज़ाहिर है कि इसका इलाज़ पट्टियाँ और टहनियां कतरने में नहीं जड़ पर प्रहार करने में है. उन अमानवीय स्थितियों को दूर करने में है.

लेकिन दिक्कत यह है कि इनकी जड़ें बहुत गहरे इस व्यवस्था के समृद्ध और प्रभावी लोगों से जुडी हैं जिनके व्यापारिक तथा सांस्कृतिक हित नशे और पोर्न के व्यापार से तथा ऐसी फ़िल्मों और ग़ैरबराबरी की ऐसी व्यवस्था से जुड़े हैं. यह सब मिलकर उनके मुनाफ़े को बढ़ाते हैं तथा उनके वर्चस्व को बनाए रखते है. इसलिए वे कभी नहीं चाहेंगे कि इन जड़ों पर सवाल उठे. तो वे एक तरफ ज़ोर-शोर से ‘फांसी दो’ का उन्माद पैदा करते हैं तो दूसरी तरफ बिहारियों-उत्तर प्रदेशियों के ख़िलाफ़ इसे एक क्षेत्रीय मुद्दा बनाकर उन्हें निकाले जाने की मांग करते हैं. इस आड़ में वह मूल समस्या को तो धुंधला करते ही हैं साथ में अमीरजादों की ऐसी ही हरकतों या फिर परिवार के भीतर हो रही ऐसी घटनाओं पर भी पर्दा डालने की कोशिश करते हैं. बलात्कार कोई भी करे या किसी के साथ भी हो, एक भयावह रूप से संगीन घटना है और इसके अपराधी को सज़ा मिलनी चाहिए, इस तथ्य से कौन इनकार कर सकता है? लेकिन यह हद से हद फौरी उपाय हो सकता है. यह याद रखना होगा कि बलात्कार केवल एक यौन अपराध नहीं है. इसके सामाजिक-सांस्कृतिक और आर्थिक पक्ष भी हैं. इसीलिए इसका कोई भी दीर्घकालिक तथा स्थाई निराकरण समाज के भीतर से अमानवीकरण के लिए जिम्मेदार परिस्थितियों तथा स्त्रीविरोधी पितृसत्तात्मक मानसिकता से एक फैसलाकुन जंग लड़े बिना मुमकिन नहीं है.    




हम सब दाभोलकर ! सुभाष गाताडे

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अंधश्रद्धा के खिलाफ संघर्षरत एक संग्रामी की शहादत




‘‘जिन्दगी जीने के दो ही तरीके मुमकिन हैं। पहला यही कि कोई भी चमत्कार नहीं। दूसरा, सबकुछ चमत्कार ही है’’
- अलबर्ट आइनस्टाइन

लब्जों की यह खासियत समझी जाती है कि वे पूरी चिकित्सकीय निर्लिप्तता के साथ ग्राही/ग्रहणकर्ता के पास पहुंचते हैं। यह ग्राही पर निर्भर करता है कि वह उनके मायने ढंूढने की कोशिश करे। बीस अगस्त की अलसुबह पुणे की सड़क पर अंधश्रद्धा विरोधी आन्दोलन के अग्रणी कार्यकर्ता डा नरेन्द्र दाभोलकर की हुई सुनियोजित हत्या की ख़बर से उपजे दुख एवं सदमे से उबरना उन तमाम लोगों के लिए अभीभी मुश्किल जान पड़ रहा है, जो अपने अपने स्तर पर प्रगति एवं न्याय के संघर्ष में मुब्तिला हैं।

पुणे के निवासियों के एक बड़े हिस्से के लिए मुला मुठा नदी के किनारे बना आंेकारेश्वर मंदिर वह जगह हुआ करती रही है जहां लोग अपने अन्तिम संस्कार के लिए ले लाए जाते रहे हैं। इसे विचित्रा संयोग कहा जाएगा कि उसी मन्दिर के ऊपर बने पूल से अल सुबह गुजरते हुए डा नरेन्द्र दाभोलकर ने अपनी झंझावाती जिन्दगी की चन्द आखरी सांसें लीं। एक जुम्बिश ठहर गयी, एक जुस्तजू अधबीच थम गयी। मोटरसाइकिल पर सवार हत्यारे नौजवानों द्वारा दागी गयी चार गोलियों में से दो उनके सिर के पिछले हिस्से में लगी थी और वह वहीं खून से लथपथ गिर गए थे।

अपनी मृत्यु के एक दिन पहले शाम के वक्त मराठी भाषा के सहयाद्री टीवी चैनल पर उपस्थित होकर वह जातिपंचायतों की भूमिका पर अपनी राय प्रगट कर रहे थे। उस वक्त किसे यह गुमान हो सकता था कि उन्हें सजीवअर्थात लाइव सुनने का यह आखरी अवसर होनेवाला है। यह पैनल चर्चा नासिक जिले की एक विचलित करनेवाली घटना की पृष्ठभूमि में आयोजित की गयी थी, जहां किसी कुम्हारकर नामक व्यक्ति द्वारा अपनी जाति पंचायत के आदेश पर अपनी बेटी का गला घोंटने की घटना सामने आयी थी। वजह थी उसका अपनी जाति से बाहर जाकर किसी युवक से प्रेमविवाह। चर्चा में हिस्सेदारी करते हुए डा दाभोलकर बता रहे थे कि किस तरह उन्होंने हाल के दिनों में अन्तरजातीय विवाह को बढ़ावा देने के लिए सम्मेलन का आयोजन किया था और इसी मसले पर घोषणापत्र भी तैयार किया था।

एक बहुआयामी व्यक्ति - प्रशिक्षण से डाक्टरी चिकित्सक, अपनी रूचि के हिसाब से देखें तो लेखक-सम्पादक एवं वक्ता और एक आवश्यकता की वजह से एक आन्दोलनकारी, यह कहना अनुचित नहीं होगा कि पूरे मुल्क के तर्कशील आन्दोलन के लिए वह एक अद्भुत मिसाल थे और अपने संगठन एवं उसकी 200से अधिक शाखाओं के जरिए सूबा महाराष्ट्र, कर्नाटक एवं गोवा में जनजागृति के काम में लगे थे। बहुत कम लोग जानते थे कि अपने स्कूल-कालेज के दिनों में वह जानेमाने कब्बडी के खिलाड़ी थे, जिन्होंने भारतीय टीम के लिए मेडल भी जीते थे। हालांकि उन्होंने अपने सामाजिक जीवन की शुरूआत डाक्टरी प्रैक्टिस से की थी, मगर जल्द ही वह डा बाबा आढाव द्वारा संचालित एक गांव, एक जलाशय (पाणवठा)नामक मुहिम से जुड़ गए थे। विगत दो दशक से अधिक समय से वह अंधश्रद्धा के खिलाफ मुहिम में मुब्तिला थे।

डा दाभोलकर की प्रचण्ड लोकप्रियता का अन्दाज़ा इस बात से लगाया जा सकता है कि उनके मौत की ख़बर सुनते ही महाराष्ट्र के तमाम हिस्सों में स्वतःस्फूर्त प्रदर्शन हुएऔर उनके गृहनगर सातारा में तो जुलूस में शामिल हजारों की तादाद ने जिन्दगी के सत्तरवें बसन्त की तरफ बढ़ रहे अपने नगर के इस प्रिय एवं सम्मानित व्यक्ति को अपनी आदरांजलि दे दी। 21अगस्त को पुणे शहर में सभी पार्टियों के संयुक्त आवाहन पर बन्द का आयोजन किया गया।

राजनेताओं से लेकर सामाजिक कार्यकर्ताओं तक सभी ने डाॅक्टर दाभोलकर को अपनी श्रद्धांजलि अर्पित की है। उन्हें किस हद तक विरोध का सामना करना पड़ता था इस बात का अन्दाज़ा इस तरह लगाया जा सकता है कि विगत अठारह साल से महाराष्ट्र विधानसभा के सामने एक बिल लम्बित पड़ा रहा है जिसका फोकस जादूटोना करनेवाले या काला जादू करनेवाली ताकतों पर रोक लगाना है। रूढिवादी हिस्से के विरोध को देखते हुए इस बिल में आस्था क्या है या अंधआस्था किसे कहेंगे इसको परिभाषित करने से बचा गया था और सूबे में व्यापक पैमाने पर व्यवहार में रहनेवाली अंधश्रद्धाओं को निशाने पर रखा गया था। ऐसी गतिविधियां संज्ञेय एवं गैरजमानती अपराध के तौर पर दर्ज हों, ऐसे अपराधों की जांच के लिए या उन पर निगरानी रखने के लिए जांच अधिकारी नियुक्त करने की बात भी इसमें की गयी थी।

महाराष्ट्र प्रीवेन्शन एण्ड इरेडिकेशन आफ हयूमन सैक्रिफाइस एण्ड अदर इनहयूमन इविल प्रैक्टिसेस एण्ड ब्लैक मैजिकशीर्षक इस बिल का हिन्दु अतिवादी संगठनों ने लगातार विरोध किया है, पिछले दो साल से वारकरी समुदाय के लोगों ने भी विरोध के सुर में सुर मिलाया है। और इन्हीं का हवाला देते हुए इस अन्तराल में सूबे में सत्तासीन सरकारों ने इस बिल को पारित नहीं होने दिया है। आप इसे डा दाभोलकर की हत्या से उपजे जनाक्रोश का नतीजा कह सकते हैं या सरकार द्वारा अपनी झेंप मिटाने के लिए की गयी कार्रवाई कह सकते हैं कि कि इस दुखद घटना के महज एक दिन बाद महाराष्ट्र सरकार के कैबिनेट में इस बिल को लेकर एक अध्यादेश लाने का निर्णय लिया गया है।

निःस्सन्देह उनकी हत्या के पीछे एक सुनियोजित साजिश की बू आती है। आखिर किसने ऐसे शख्स की हत्या की होगी जिसने महाराष्ट्र की समाजसुधारकों की - ज्योतिबा फुले, महादेव गोविन्द रानडे या गोपाल हरि आगरकर - विस्मृत हो चली परम्परा को नवजीवन देने की कोशिश की थी ?

कई सारी सम्भावनाएं हैं। यह सही है कि उनके कोई निजी दुश्मन नहीं थे मगर अंधश्रद्धा के खिलाफ उनके अनवरत संघर्ष ने ऐसे तमाम लोगों को उनके खिलाफ खड़ा किया था, जिनको उन्होंने बेपर्द किया था। तयशुदा बात है कि ऐसे लोग कारस्तानियों में लगे होंगे। राजनीति में सक्रिय यथास्थितिवादी शक्तियों के लिए भी उनके काम से परेशानी थी। पुलिस ने कहा कि वह इन आरोपों की भी पड़ताल करेगी कि इसके पीछे सनातन संस्था और हिन्दू जनजागृति समिति जैसी अतिवादी संस्थाओं का हाथ तो नहीं है, जिसके सदस्य महाराष्ट्र एवं गोवा में आतंकी घटनाओं में शामिल पाए गए हैं। इस बात को रेखांकित करना ही होगा कि कई भाषाओं में प्रकाशित अपने अख़बार सनातन प्रभातके जरिए इन संस्थाओं ने डा दाभोलकर के खिलाफ जबरदस्त मुहिम चला रखी थी, इतनाही नहीं उन्होंने दाभोलकर के ऐसे फोटो भी प्रकाशित किए थे, जिसे लाल रंग से क्रास किया गया था, जिसमें उनकी सांकेतिक समाप्ति की तरफ इशारा था।

डा दाभोलकर को दी अपनी श्रद्धांजलि में लेखक एवं राजनीतिक विश्लेषक आनन्द तेलतुम्बडे लिखते हैं कि ((http://www.countercurrents.org/teltumbde230813.htm)
 ‘..दाभोलकर की हत्या के बाद भी सनातन संस्था ने उनके प्रति अपनी घृणा के भाव को छिपाया नहीं बल्कि अगले ही दिन जबकि पूरा राज्य दुख एवं सदमे में था, उन्होंने अपने मुखपत्रा में लिखा कि यह ईश्वर की कृपा थी कि दाभोलकर की मृत्यु ऐसे हुई। गीता को उदधृत करते हुए लिखा गया कि जो जनमा है, उसकी मृत्यु निश्चित है, जन्म एवं मृत्यु हरेक की नियति के हिसाब से होते हैं। हरेक को अपने कर्म का फल मिलता है। बिस्तर पर पड़े पड़े बीमारी से मरने के बजाय, डा दाभोलकर की जो मृत्यु हुई वह ईश्वर की ही कृपा थी।’..इतनाही नहीं इस हत्या से अपने सम्बन्ध से इन्कार करने के लिए बुलायी गयी प्रेस कान्फेरेन्स में उन्हें यह कहने में भी संकोच नहीं हुआ कि वह दाभोलकर की लाल रंग से क्राॅस की गयी तस्वीर की तरह कई अन्यों की तस्वीरें भी प्रकाशित करेंगे। कहने का तात्पर्य कि जो दाभोलकर की राह चलेगा उन्हें वह नष्ट करेंगे।

ऐसा नहीं था कि डा दाभोलकर को इस बात का अन्दाजा नहीं था कि ऐसी ताकतें किस हद तक जा सकती हैं। उनके परिवार के सदस्यों के मुताबिक उन्हें अक्सर धमकियां मिलती थीं, लेकिन उन्होंने पुलिस सुरक्षा लेने से हमेशा इन्कार किया। उनके बेटे हामिद ने कहा कि ‘‘वे कहते थे कि उनका संघर्ष अज्ञान की समाप्ति के लिए है और उससे लड़ने के लिए उन्हें हथियारों की जरूरत नहीं है।’’ उनके भाई ने अश्रुपूरित नयनों से बताया कि जब हम लोग उनसे पुलिस सुरक्षा लेने का आग्रह करते थे, तो वह कहते थे कि अगर मैंने सुरक्षा ली तो वे लोग मेरे साथियों पर हमला करेंगे। और यह मैं कभी बरदाश्त नहंीं कर सकता। जो होना है मेरे साथ हो।’’

विभिन्न बाबाओं के खिलाफ एवं साध्वियों के खिलाफ भी उन्होंने महाराष्ट्र अंधश्रद्धा निर्मूलन समितिके बैनरतले आन्दोलन चलाया था। एक किशोरी के साथ कथित बलात्कार के आरोपों के चलते इन दिनों सूर्खियां बटोर रहे आसाराम बापू ने पिछले दिनों होली के मौके पर नागपुर में अपने शिष्यों के साथ होली के कार्यक्रम का आयोजन किया था। काफी समय से सूखा झेल रहे महाराष्ट्र में इस कार्यक्रम के लिए लाखों लीटर पीने के पानी के टैंकरों का इन्तजाम किया गया था। समिति के बैनरतले डा दाभोलकर ने इस कार्यक्रम को चुनौती दी और अन्ततः यह कार्यक्रम नहीं हो सका। चर्चित निर्मल बाबा के खिलाफ भी डा दाभोलकर ने पिछले दिनों अपना मोर्चा खोला था। यू टयूब पर आप चाहें तो डा दाभोलकर के भाषण को सुन सकते हैं निर्मल बाबा: शोध आणि बोध। यह वही निर्मल बाबा हैं जिनका कार्यक्रम एक साथ 40विभिन्न चैनलों पर चलता है जहां लोगों को उनकी समस्याओं के समाधान के नाम पर ईश्वरीय कृपा की सौगात दी जाती है। उनकी समागम बैठकों में 2000रूपए के टिकट भी लगते हैं।

वर्ष 2008में डा दाभोलकर एवं अभिनेता एवं समाजकर्मी डा श्रीराम लागू ने ज्योतिषियों के लिए एक प्रश्नमालिका तैयार की और कहा कि अगर उन्होंने तर्कशीलता की परीक्षा पास की तो उन्हें पुरस्कार मिल सकता है। अभी तक इस पर दांवा ठोकने के लिए कोई आगे नहीं आया। वर्ष 2000में अपने संगठन की पहल पर उन्होंने राज्य के सैकड़ो महिलाओं की रैली अहमदनगर जिले के शनि शिंगणापुर मन्दिर तक निकाली जिसमें महिलाओं के लिए प्रवेश वर्जित था। न केवल रूढिवादी तत्वों ने बल्कि शिवसेना एवं भाजपा के कार्यकर्ताओं ने परम्परा एवं आस्था की दुहाई देते हुए महिलाओं के प्रवेश को रोकना चाहा, उनकी गिरफ्तारियां भी हुईं और फिर मामला मुंबई की उच्च अदालत पहुंचा और सुनने में आया है कि मामला पूरा होने के करीब है।


अपने एक आलेख रैशनेलिटी मिशन फार सक्सेस इन लाइफमें जिसमें उनका मकसद आवश्यक बदलाव के लिए लोगों को प्रेरित करना हैउन्होंने लिखा था:

'परम्पराओं, रस्मोरिवाज और मन को विस्मित कर देनेवाली प्रक्रियाओं से बनी युगों पुरानी अंधश्रद्धाओं की पूर्ति के लिए पैसा, श्रम और व्यक्ति एवं समाज का समय भी लगता है। आधुनिक समाज ऐसे मूल्यवान संसाधनों को बरबाद नहीं कर सकता। दरअसल अंधश्रद्धाएं इस बात को सुनिश्चित करती हैं कि गरीब एवं वंचित लोग अपने हालात में यथावत बने रहें और उन्हें अपने विपन्न करनेवाले हालात से बाहर आने का मौका तक न मिले। आइए हम प्रतिज्ञा लें कि हम ऐसी किसी अंधश्रद्धा को स्थान नहीं देगें और अपने बहुमूल्य संसाधनों को बरबाद नहीं करेंगे। उत्सवों पर करदाताओं का पैसा बरबाद करनेवाली, कुम्भमेला से लेकर मंदिरों/मस्जिदों/गिरजाघरों के रखरखाव के लिए पैसा व्यय करनेवाली सरकारों का हम विरोध करेंगे और यह मांग करेंगे कि पानी, उर्जा, कम्युनिकेशन, यातायात, स्वास्थ्यसेवा, प्रायमरी शिक्षा और अन्य कल्याणकारी एवं विकाससम्बन्धी गतिविधियों के लिए वह इस फण्ड का आवण्टन करें।'

उनके जीवन की एक अन्य कम उल्लेखित उपलब्धि रही है, विगत अठारह साल से उन्होंने किया साधनानामक साप्ताहिक का सम्पादन, जिसने अपनी स्थापना के 65साल हाल ही में पूरे किए। जानकार बताते हैं कि जब उन्होंने सम्पादक का जिम्म सम्भाला तो सानेगुरूजी जैसे स्वतंत्राता सेनानी एवं समाजसुधारक द्वारा स्थापित यह पत्रिका काफी कठिन दौर से गुजर रही थी, मगर उनके सम्पादन ने इस परिदृश्य को बदल दिया और आज भी यह पत्रिका तमाम परिवर्तनकामी ताकतों के विचारों के लिए मंच प्रदान करती है।

ठीक ही कहा गया है कि डा दाभोलकर की असामयिक मौत देश के तर्कवादी आन्दोलन के लिए गहरा झटका है। देश में दक्षिणपंथी ताकतों के उभार के चलते पहले से ही तमाम चुनौतियों का सामना कर रहे इस आन्दोलन ने अपने एक सेनानी को खोया है। मगर अतिवादी ताकतों के हाथ उनकी मौत दरअसल उन सभी के लिए एक झटका कही जा सकती है जो देश में एक प्रगतिशील बदलाव लाने की उम्मीद रखते हैं। अब यह देखना होगा कि उनकी मृत्यु से उपजे प्रचण्ड दुख एवं गुस्से को ऐसी तमाम ताकतें मिल कर किस तरह एक नयी संकल्पशक्ति में तब्दील कर पाती हैं ताकि अज्ञान, अतार्किकता एवं प्रतिक्रिया की जिन ताकतों के खिलाफ लड़ने में डा दाभोलकर ने मृत्यु का वरण किया, वह मशाल आगे भी जलती रहे।

प्रतिक्रियावादी तत्व भले ही डा दाभोलकर को मारने में सफल हुए हों, लेकिन हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि जिस तरह से उनकी हत्या हुई है उसने तमाम नए लोगों को भी दिमागी गुलामी के खिलाफ जारी इस व्यापक मुहिम से जोड़ा भी है। यह अकारण नहीं कि महाराष्ट्र के विभिन्न स्थानों पर हुई रैलियों में तमाम बैनरों, पोस्टरों में एक छोटेसे पोस्टर ने तमाम लोगों का ध्यान अपनी ओर आकर्षित किया था जिस पर लिखा था आम्ही सगले दाभोलकर’ (हम सब दाभोलकर)।

  • जादू टोना विरोधी विधेयक में यह माना जाएगा अपराध
  • भूत भगाने के नाम पर किसी को मारना या पीटना, पर किसी तरह का मंत्र पढ़ने पर पाबन्दी नहीं होगी।
  • चमत्कार के नाम पर दूसरों को धोखा देना या पैसा लेना
  • किसी की जिन्दगी को खतरे में डाल कर अघोरी तरीके का इस्तेमाल करना
  • भानामती, करणी, जारणमरण, गुप्तधन के नाम से अमानवीय काम करना या नरबलि देना
  • दैवी शक्ति का दावा होने के नाम पर डर फैलाना
  • पिछले जन्म में पत्नी, प्रेमिका या प्रेमी होने का दावा कर या बच्चा होने का आश्वासन देकर संबंध बनाना
  • उंगली से आपरेशन का दावा करना
  • गर्भवती महिलाओं के लिंग परिवर्तन का दावा करना
  • भूत पिशाच का आवाहन करते हुए डर फैलाना
  • कुत्ता, बिच्छू, सांप काटने पर दवा देने से मना करके मंत्रा द्वारा ठीक करने का दावा करना
  • मतिमंद व्यक्ति में अलौकिक शक्ति का दावा कर उस व्यक्ति का इस्तेमाल धंधे या व्यवसाय के लिए करना

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सुभाष गाताडे 

जाने माने लेखक और प्रतिबद्ध सामाजिक कार्यकर्ता , अंग्रेजी में दो किताबें और हिन्दी में एक किताब प्रकाशित. कुछ अनुवाद भी. हिंदी, अंग्रेजी के अलावा मराठी में भी लेखन. 'न्यू सोशलिस्ट इनिशिएटिव' से सम्बद्ध. 

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समयांतर के सितम्बर-२०१३ अंक से साभार 





किस्सा दो-प्याजा

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प्याजनेफिरसेरुलानाशुरूकरदियाहै।इतनाज्यादाकिबाहरबूंदाबांदीकीआवाजसुनकरसमझमेंनहीआताकिबारिशहोरहीहैयाकोईसस्तेप्याजकेदिनोंकोयादकररोरहाहै!

वैसेअगरसचमुचऐसाहोतोमैइसेकोईअनहोनीनहीकहूंगा।दो-चारदिनपहलेखबरथीकिदिल्ली-जयपुरराजमार्गपर 40 टनप्याजसेलदेट्रककोलुटेरेअगवाकरलेगए।पुलिसनेबड़ीमुश्किलसेप्याजसेभरेट्रककोखोजामगरलुटेरेअभीभीफरारहैं।मुझेतोउनलुटेरोंसेसहानुभूतिहै।इतनाखतरामोललियामगरप्याजहाथनहीलगी।

देशकेकृषिमंत्रीशरदपवारनेभीहाथखड़ेकरलिएहैं।मंत्रीजीनेबयानदियाहैकिउन्हेनहीपताकिप्याजकेदामकबकमहोंगे।मंत्रीजीकीमजबूरीहमेंसमझनीचाहिए।प्याजकेदामपहलेभीबढ़तेरहेहैं, तबमंत्रियोंनेक्याकरलिया? बेचारेपवारपरउंगलीउठानाठीकनहीहोगा।कुछजानकारकहतेहैंकिमहाराष्ट्रकेबड़ेकिसानोंसेलेकरबड़े-बड़ेबिचौलियोंकीपूरीजमातकाख्यालमंत्रीजीकोरखनाहोताहै।औरअबतोहमारादेशवैश्विकगांवकाहिस्साहै, समंदरपारकाकोईलठैतइशाराकरताहैतोइधरवालोंकीसांससरकजातीहै।यहअनायासतोनहीहैकिजबसेअर्थव्यवस्थामेंसुधारआयाहैप्याजकामहत्वबढ़गयाहै।मुझेतोपक्कायकीनहोचलाहैकिदेशकेपिछले 20-25 सालोंकेराजनीतिकअर्थशास्त्रमेंप्याजकाकेंद्रीयस्थानहै।लेकिनमैअल्पज्ञानीहूं।किसीविद्वानकोइसपरशोधकरनाचाहिए।हमारेविद्वानप्रधानमंत्रीशायदइसमेकुछमददकरें।

प्याजकीकीमतोंकोलेकरराजनीतिकसरगर्मियांतेजहोगईहैं।अखबारोंमेंखबरथीकिदिल्लीमेंविपक्षीदलोंनेसस्तेदामोंपरप्याजबेंचनाशुरूकरदियाहै।इनदलोंमेंजनताकेदर्दकोलेकरबड़ागुस्साहै।वैसेगुस्साइसबातकाभीहोसकताहैकिप्याजकेदामबढ़रहेहैंऔरवेसत्तामेंनहीहैं।वेशायदइसीलिएसस्ताप्याजबेंचरहेहैंकिअगलीबारप्याजकीकीमतेंउछलेतोकुर्सीपरवेबैठेहों! सोइनकीसस्तीप्याजसेभीजनताकोसावधानरहनाचाहिए।इनकीप्याजआजभलेरुलाए, कलकीकुछकहनहीसकतें।

परखासबातयहभीहैकिइनकीसस्तीप्याजभीकुछखाससस्तीनहीहै।इतनीतोकतईनहींकिकभीरोटीकेसाथप्याजखानेवालेइसेखासकें।सूखीरोटियांइनसस्तेप्याजोंकेबावजूदसूखीहुईहीहैं।परचिंताकीकोईबातनही।सरकारकहतीहैकिअबसूखीरोटियांखानेवालोंकीसंख्यादेशमेंबहुतकमहोगईहै।देशनेआखिरबहुतप्रगतिकरलीहै।हिंदूरेटऑफग्रोथकीबैलगाड़ीकोछोड़अबदेशविकासकेसुपरहाइवेपरफर्राटेसेदौड़रहाहै।सूखीरोटीकेसाथप्याजखानेवालों! देशकेविकासकेलिएतुम्हेप्याजछोड़नापड़ेगा।शाइनिंगइंडियाकोमुर्गदो-प्याज़ाखानाहै।घबराओमत, तुम्हेभीमिलेगा।इंतज़ारकरो।दो-प्याजारिसतेहुएतुम्हारेपासभीआएगा।तबतुमभीप्याजकाआनंदलेना।तबतकदेशकेलिएथोड़ात्यागकरो।त्यागतोहमारीशाश्वतपहचानहै।शाश्वतपरंपराकेउत्तराधिकारीप्याजकेलिएपरेशाननहीहोते।

लेकिनक्याकरें।देशकीजनताअक्सरभूलजातीहैइसशाश्वतपरंपराको।तबबड़ीउथल-पुथलमचजातीहै।आखिरसरकारइतनाबड़ाखतराक्योंमोललेरहीहै? कुछदिनप्याजसचमुचसस्ताकरबेचदेनेमेंक्यानुकसान।आखिरइसप्याजमेंऐसीक्यामायाहैकिसरकारइसपरअपनीसत्ताकोदांवपरलगानेकोतोतैयारहैलेकिनसस्ताप्याजबेंचनेकोनही?

वास्तवमेंप्याजकीमायाअपरंपारहै।कृषिमंत्रीपवारनेकहाहैकिघरेलूबाजारमेंदामबढ़नेकेबावजूदप्याजकेनिर्यातपररोकलगानाठीकनहीहोगाक्योंकिइससेअंतरराष्ट्रीयबाजारमेंदेशकीइमेजखराबहोगी।यानीबढ़तीकीमतेंअपनीजगहहैऔरदेशकिछविअपनीजगह।यहीतोमायाहै।देशसेज्यादामहत्वपूर्णदेशकिइमेजहै।सरकारबाहरसेप्याजआयातकरनेकोतैयारहैलेकिननिर्यातपररोकनहीलगसकती।देशकीइमेजकासवालहै।

सरकारइतनेसालोंसेदेशकीइमेजचमकानेमेंलगीहुईहै।बड़ीमेहनतकाकामहै।पक्ष-विपक्षसबमिलकरझाड़-पोछकररहेहैं।थोड़ासुस्तातेहैंतोअमेरिकाकीत्यौंरियांचढ़जातीहै।अभीइमेजपूरीनहीचमकीहै! फिरलगजातेहैं।बीच-बीचमेंवर्ल्डबैंकबतातारहताहैअबइसतरफचमकाओ! इधरथोड़ीधूलअभीभीबाकीहै! देशकेइमेजकोचमकानेकीहोड़हीलगगईहै।कोईअर्थव्यवस्थाकीइमेजचमकारहाहै, कोईचरित्रकी! कोईविकासकीक्षणभंगुरतासेचिंतितहै, कोईशाश्वतपरंपराओंकेक्षरणसेदोनोमिलकरदेशकीइमेजचमकानेमेंलगेहैं।

लेकिनअपनीआंखेअभीप्याजकीमारीहैं।औरअगरप्याजहोतातोकुछऔरहोता।गालिबनेयूंहीतोनहीकहाथा,
घरहमारा, जोरोतेभी, तोवीरां[1]होता
बह्र[2], गरबह्रहोता, तोबयाबां[3]होता


- लोकेशमालतीप्रकाश
   (इसलेखकासंपादितसंस्करण 26 अगस्त 2013 कोप्रदेशटुडेमेंप्रकाशितहुआथा।)





[1]वीरांवीरान, उजाड़
[2]बह्र- समुद्र
[3]बयाबांरेगिस्तान, उजाड़

हम अपनी खामोशियों के गुनाहगार रहे/ वे जूनून बन के सब के सर पे सवार रहे.

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(मुजफ्फरनगर दंगों के बाद एक अपील)




लहू का आदिम खेल फिर ज़ारी है. फिर ज़ारी है अफवाहों का वलवला और पतित राजनीति के षड्यंत्रों का सिलसिला. धरम के नाम पर फिर हथियार निकल गए हैं और इंसानी लाशों की पहचान उनके धार्मिक निशानों की बिना पर कर उन पर अपनी-अपनी रोटियाँ सेंकने का कारोबार ज़ारी है. गोरख लिख गए थे - इस साल दंगे बहुत हुए हैं/ ख़ूब हुई है खून की बारिश/ अगले साल अच्छी होगी/ फ़सल मतदान की - तो २०१४ से ठीक पहले यह होना दुखी भले करे, चिंता में भले डाले, गुस्से से भले भर दे लेकिन आश्चर्यचकित तो नहीं ही कर रहा है. 

मुजफ्फरपुर में क्या हुआ...कैसे हुआ..पहले हिन्दू मरा कि मुसलमान. मेरे लिए यह सब कोई मानी नहीं रखता. मानी इस बात का है कि दंगे हो रहे थे और प्रशासन अनुपस्थित रहा. जनता के पैसों से चलने वाला शासन जनता के लहू को बेभाव बहने से रोकता नज़र नहीं आया. सत्ता की अदम्य लालसा से पूरा संघ गिरोह किसी भी हाल में दिल्ली का तख़्त-ओ-ताज़ हासिल करने पर लगा है. उसकी ये हरक़तें लाज़िम हैं. लेकिन खुद को सेकुलर कहे जाने वाली ताक़तें अगर उसकी हरक़तों पर बंदिश नहीं लगा पातीं तो यह गुनाह में शामिल होना क्यों न माना जाय? आखिर साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण दुधारी तलवार है जो दोनों मज़हबों को ध्रुवीकृत कर जनता के असली मुद्दों को कूड़ेदान में डालने का काम करता है. 

इतनी मंहगाई, इतनी बदहाली और देखते देखते एक एक करके जनता के सारे मुस्तक़बिल को बाज़ार के हवाले कर दिए जाने का कोई विरोध संभव नहीं होता. ज़िन्दगी भर के श्रम के बाद हासिल पेंशन हमारे सामने सामने पूंजीपतियों के जूए के लिए मूलधन बन गयी और हम सब ख़ामोश! लेकिन धर्म के नाम पर सबके हाथों में तलवारें आ जाती हैं. हर कोई पत्रकार, हर कोई रिपोर्टर, हर कोई नेता और हर कोई योद्धा! 

तो सोचना तो हमें भी होगा कि यह मज़हबी जूनून हमारी इतनी कमज़ोर नस कैसे बनता चला जाता है कि हमारे गले पर जकड़ी हथेलियाँ इसे धीरे से दबाती हैं और हम उन्हीं की भाषा बोलने लगते हैं?आज से लेकर अगले चुनावों तक यह मसअला बार-बार सामने आना है. सोचना हमें है कि हमें क्या करना है? क्या हम इस मज़हबी जूनून की बीमारी के इतने एडिक्ट हो चुके हैं कि अब कोई इलाज़ नहीं? क्या लहू हमारे नेताओं के साथ साथ हमारे भी मुंह लग गया है...या कभी हम हाथ में हाथ डालकर इसके खिलाफ़ आवाज़ भी लगायेंगे? 

बकौल पाश 

आदमी के ख़त्म होने का फैसला वक़्त नहीं करता 
हालात नहीं करता वह खुद करता है 
हमला और बचाव 
दोनों आदमी ख़ुद करता है 

जनसत्ता के झूठ और चंचल चौहान का जवाब

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अपनी वाम विरोधी और अब तो कहा जा सकता है कि दक्षिण समर्थक मुहिम में जनसत्ता नामक अखबार के महत्त्वाकांक्षी, दम्भी और अलोकतांत्रिक सम्पादक ने पत्रकारिता के तमाम मानक बिसरा दिए हैं. वह बिना ठोस सबूतों के घटिया और व्यक्तिगत हमले करते हैं और फिर जवाब छापने की हिम्मत नहीं जुटा पाते. ऐसा पिछले कुछ महीनों में कई बार हुआ है. शंकर शरण को दिया नन्द किशोर नीलम का जवाब नहीं छापा गया, झूठे आरोपों की धज्जीयाँ उड़ाता गिरिराज किराडू का ज़वाब नहीं छापा गया, मेरा खुद का जवाब मिलने पर उसे 'चार सौ शब्दों' में संक्षिप्त करने की मांग की गयी (जबकि उनका खुद का लेख आधे पन्ने का था) और कुछ अन्य मित्रों के साथ भी यही हुआ. ज़ाहिर है कि उनकी रूचि बहस में नहीं सिर्फ अपने आकाओं की नज़र में कुछ प्वाइंट्स हासिल कर लेने में है जिसका फ़ायदा उस पार्टी के सत्ता में आने पर लिया जा सके जिसके पक्ष में थोड़ा माहौल फेसबुक जैसी साइट्स पर बनता देख सम्पादक महोदय ने अपने धर्मनिरपेक्षता के दावों को ताक पर रख दिया है. कुछ छपास की बीमारी और कुछ दूसरे स्वार्थों से अंधे खुद के वाम होने का दावा करने वाले और अब तक बिला शक़ धर्मनिरपेक्ष रहे लोग भी उनकी इस मुहिम में जाने-अनजाने शामिल ही नहीं हो रहे बल्कि उसे खाद पानी भी उपलब्ध करा रहे हैं.

खैर, जनपक्ष ने लगातार इस मुहिम की मुखालिफ़त की है. पहले के प्रतिवाद आप यहाँ पढ़ सकतेहैं. आज इसी क्रम में जनवादी लेखक संघ के महासचिव चंचल चौहान जी का प्रतिवाद.

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प्रेमचंद पर एक और झूठमिश्रित टिप्पणी


चंचल चौहान



जनसत्ता के 25 अगस्त 2013 के दिल्ली संस्करण में एक धुरदक्षिणपंथी सांप्रदायिक फासीवादी विचारधारा के भगवे रंग में रंगे लेखक की झूठमिश्रित टिप्पणी के साथ प्रेमचंद के एक बहुत ही यथार्थपरक लेख, "राज्यवाद और साम्राज्यवाद" की पुनर्प्रस्तुति कुछ इस तरह की गयी थी गोया प्रेमचंद उन्हीं की तरह घोर कम्युनिस्ट- विरोधी रचनाकार थे। मैंने जब झूठ का पर्दाफाश करते हुए अपनी टिप्पणी ओम थानवी के पास ईमेल से भेजी तो उन्होंने उसे छापना उचित नहीं समझा, संपादक भी ‘सांच कहौ तो मारन धावै’, इसलिए उस टिप्पणी को मैंने 1 सितंबर को अपने ब्लाग पर डाल दिया। 8 सितंबर को एक और झूठमिश्रित टिप्पणी एक लोहियावादी पत्रकार की लिखी छपी। ये महाशय तो कम्युनिस्टविरोध की मुहिम में उस संघी लेखक से भी दो कदम आगे निकल गये। उन्होंने मुक्तिबोध को भी प्रेमचंद वाली बहस में घसीट लिया और पाठकों को यह बताया कि मुक्तिबोध ने एक पत्र अंग्रेजी में ई एम एस नंबूदिरीपाद को लिखा था जिसका जवाब उन्हें नहीं मिला। इस 'मुदियापे' को क्या कहा जाये। मुक्तिबोध का लिखा यह पत्र कहां है, मिस्टर खोजीपत्रकार? उनकी रचनावाली के खंड 6 में एक पत्र अंग्रेजी में लिखा भारत भूषण अग्रवाल के नाम से छपा है, एक पत्र अमृतपाद डांगे के नाम है जिसमें हिंदी साहित्य के परिदृश्य पर सटीक टिप्पणी और नयी कविता के रचनाकारों के प्रति कुछ मार्क्सवादी आलोचको के संकीर्णतावादी रवैये की ओर उनका ध्यान दिलाया गया है, और कुछ प्रलेस के बारे में रचनात्मक सुझाव दिये गये हैं, कहीं भी उसमें वह सब नहीं है जिसे इस खोजीपत्रकार ने झूठ का सहारा लेकर दिखाने की कोशिश की है। ये पत्रकार महोदय कहते हैं कि प्रेमचंद अगर कम्युनिस्ट होते तो मुक्तिबोध की तरह अपनी पार्टी से पूछते 'कि कामरेड आपकी पालिटक्स क्या है'। मुक्तिबोध ने यह सवाल पार्टी से नहीं, उन तमाम मध्यवर्गीय अवसरवादी रचनाकारों से पूछा था जो उस दौर में तय नहीं कर पा रहे थे कि "पथ कौन सा है"। आज की ही तरह उस समय भी बहुत से लेखक सर्वनिषेधवादी विचारों की जकड़बंदी में फंसे थे, जो ‘कोउ नृप होउ हमहिं का हानी’ की मंथर बुद्धि के शिकार थे। 

इसके बाद इस खोजी पत्रकार के झूठ को देखिए, वे फरमाते हैं : ' कुछ इसी विह्वलता से मुक्तिबोध ने उस समय के उच्चतम कम्युनिस्ट नेता ईएमएस नंबूदरीपाट को एक सुदीर्घ पत्र लिखा था - अंग्रेजी में, ताकि वे समझ सकें।----' क्या समझ सकें, यह बताना वे भूल गये या उन्हें उस पत्र में कहीं मिला नहीं। शरारतन हरकिशन सिंह सुरजीत का नाम भी घसीट लिया है जिसका लेख से कोई ताल्लुक नहीं है। क्या खोजीपत्रकार महोदय ईएमएस नंबूदिरिपाद के नाम लिखे उस पत्र की फोटोकापी हम पाठकों को दिखा सकते हैं, मूल तो वे भला कहां से लायेंगे, या अपने झूठ पर शर्मशार हो कर पाठकों से माफी मांगेंगे कि उन्हें खामख्वाह गुमराह किया। हम जानते हैं कि ऐसी हिम्मत ओछे और बोदे जिगरे में नहीं होती। कायराना हमले करना ऐसे दिमागों की फितरत ही होती है। ईएमएस और सुरजीत, दोनों मार्क्सवादी पार्टी के नेता जरूर थे, उनके प्रति इस तरह का रवैया दिखाने और उन्हें इस बहस में घसीट लेने के पीछे क्या मंशा है? लेख के शुरू में खोजी पत्रकार महोदय ने “कम्युनिस्ट नैतिकता” के बरक्स जो उपदेश पाठक को दिया कि ‘हम व्यक्तियों से घृणा नहीं करते, उनकी विकृतियों से जरूर घृणा करते हैं,’ पैराग्राफ के अंत तक झूठ पर आधारित व्यक्तिगत घृणा पर ही खुद उतर आते हैं। नसीहत दूसरों के लिए, अपने आचरण के लिए नहीं।

लेख के अंत तक इस खोजीपत्रकार ने अपना छिपा एजेंडा जाहिर कर दिया, 25 अगस्त के संघी लेखक के झूठ को ज्यों का त्यों उधार ले कर इन महाशय ने भी लिख दिया कि प्रेमचंद ने “बोल्शेविक उसूलों'” के कायल होने की बात बाद में ‘एक बार भी नहीं दुहरायी, बल्कि कम्युनिस्टों की आलोचना ही की।‘ हे खोजी पत्रकार महोदय, यह ‘कम्युनिस्टों की आलोचना’ आपने प्रेमचंद के लेखन में कहां पढ़ ली, प्रेमचंद के लेखन में से कोई मनगढंत सबूत ही पेश कर देते तो आपके इस झूठ पर पाठक विश्वास कर भी लेते, जैसे ईएमएस के नाम लिखे पत्र का झूठ गढ़ लिया, आप क्या नहीं कर सकते, कवि हुए बगैर भी वहां पहुंच सकते हैं जहां न पहुंचे रवि। धन्य हैं आप, आपको धिक्कार है, सब जान गये हैं आपको झूठ पर आश्रित “महाजनी सभ्यता” से ही प्यार है।

मुंशी प्रेमचंद के समय में भारत के कम्युनिस्ट एक पार्टी के रूप में संगठित हो ही रहे थे, मजदूरवर्ग की उभरती हिरावल राजनीतिक शक्ति बनते ही 1920 से 1925 के दौर में उसने मजदूरों के बीच काम करना शुरू किया कि तभी ब्रिटिश हुकूमत ने मेरठ षड्यंत्र केस के नाम से पार्टी के नेतृत्वकारी साथियों को जेल में डाल दिया जो 1929 से 1933 तक सजा भुगतते रहे, उसके बाद पूरे देश मे वामपंथ की लहर दौड़ गयी, मजदूरों से ले कर किसान, महिलाएं, युवक, छात्र, कवि, रचनाकार, कलाकार,सभी संगठित होने लगे। सज्जाद जहीर तथा मुल्कराज आनंद ने लेखकों को संगठित करने की जो पहल की, उसका स्वागत प्रेमचंद ने किया, उन्होंने उनके दस्तावेज प्रलेस के गठन से पहले ही हंस में छापे। रेखा अवस्थी की पुस्तक, "प्रगतिवाद और समानांतर साहित्य" में मुंशी प्रेमचंद के सहयोग के तमाम सबूत मौजूद हैं जिन्हें पढ़ कर कोई भी इस झूठ को पहचान सकता है कि "प्रेमचंद ने कम्युनिस्टों की आलोचना ही की"। सच्चाई यह है कि उस दौर मे कम्युनिस्टों की आलोचना केवल ब्रिटिश सरकार के फरमानों में ही दर्ज है, जो उपलब्ध हैं, किसी भारतीय लेखक की कलम से लिखी हुई नहीं मिलेगी, तो यह आलोचना प्रेमचंद के किस लेखन में इस खोजी पत्रकार को मिल गयी। सन् 1930 से 1936 तक का दौर तो पूरी दुनिया में कम्युनिस्ट विचारों के प्रसार और वैचारिक सैलाब का दौर था, इसी उभार ने संसार को महानतम उपन्यासकार, कवि, लेखक, आलोचक, कलाकार, नाटककार दिये। मगर जब झूठ ही प्रसारित करना हो, तो इस सब को देखने जानने की जरूरत ही कहां रह जाती है।
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चंचल चौहान 

जाने माने आलोचक और जलेस के राष्ट्रीय महासचिव. 'नया पथ' का संपादन 

यह लेख उनके ब्लॉग से साभार.

अनंतमूर्ति का बयान और उसके विरोधों के निहितार्थ

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फासीवाद की एक प्रमुख विशेषता यह होती है कि वह अफवाह फैलाता है. जैसा कि संघ परिवार ने मेरे साथ किया. एक कन्नड़ अखबार है 'कन्नड़ प्रबाह' जिसने मेरे बारे में अफवाहें और गन्दी चीजें प्रकाशित कीं. ऐसी चीजें कि मुझे मर जाना चाहिए. यही हिटलर के समय में हुआ था. मेरा शोध इसी पर है. 
अनंतमूर्ति, एक साक्षात्कार में 




वरिष्ठ कन्नड़ लेखक अनंतमूर्ति के  बयान के बाद सोशल मीडिया सहित तमाम जगहों पर बवाल मचा है . ज़ाहिर है कि मोदी को लकड़ी के लाल किले से असली वाले लाल किले तक पहुँचाने की कोशिश में लगे संघ गिरोह और उसके समर्थकों को यह बुरा लगता. ज़ाहिर है कि वे उन्हें देश से चले जाने की सलाहें देने भर से संतुष्ट नहीं होते और उनकी ह्त्या तक की बात करते, लेकिन जो लोग मोदी के समर्थक नहीं हैं वे भी इस बयान से खासे नाराज़ ही नहीं नज़र आ रहे बल्कि उन्हें भगोड़ा और कायर भी कह रहे हैं. रवीश कुमार जैसे समझदार और उदार समझे जाने वाले पत्रकार भी इस मुद्दे पर जिस तरह ‘जनमत’ के नाम पर उनके प्रति अपमानजनक टिप्पणियाँ कर रहे हैं वह सच में हैरान करने वाला है. यहाँ यह भी समझने की ज़रुरत है कि उनकी प्रयुक्त शब्दावली थी, 'आई डीड ना वांट टू लिव इन अ कंट्री रुल्ड बाई मोदी'. लिव रहना ही नहीं होता, जीना भी होता है. उन्होंने कहीं विदेश जाने की बात नहीं की हैं. वह कह रहे हैं कि ऐसे देश में वह जीना नहीं चाहेंगे जिसका प्रधानमंत्री मोदी हो. वह कह रहे हैं कि वह इस धक्के से मर जाएँगे. (मूलबयान यहाँ पढ़ा जा सकता है)

 फिर भी चलिए मान लेते हैं कि वह विदेश जाने की ही बात कर रहे हैं. तो भी एक अस्सी साल के लेखक के प्रति जिस तरह की असहिष्णुता दिखाई जा रही है, वह यह तो बिलकुल साफ़ करती है कि कम से कम भारत में लेखकों को लेकर न्यूनतम सम्मान वाली स्थिति भी नहीं है, वरना शायद इस शोरगुल का एक हिस्सा अनंतमूर्ति की उस चिंता के लिए भी होता जो उस वक्तव्य में उन्होंने एक फासिस्ट सरकार आने की दशा में भारत के सेकुलर और सहिष्णु ताने बाने को लेकर जताई है. एक ऐसे देश में जहाँ मध्यवर्ग का सबसे बड़ा सपना अपने बच्चों या मुमकिन हो तो खुद अपने लिए अमेरिका या किसी अन्य पश्चिमी देश में एक अदद नौकरी हासिल कर लेना हो, मोदी जिस प्रदेश से आते हैं वहां तो अमेरिका और कनाडा जाने के लिए क़ानूनी-ग़ैरक़ानूनी तरीक़े अपनाना एकदम रोजमर्रा की बात है, एक ऐसे देश में जहाँ ‘इम्पोर्टेड’ अब भी एक पवित्र शब्द हो वहां एक लेखक के इस बयान पर इतना शोर! 



न जाने क्यों मुझे ऐसे में गुजरात के उस मुसलमान युवक की याद आ रही है जिसका दंगाइयों के सामने हाथ जोड़े फ़ोटो उस दौर में गुजरात दंगों की त्रासदी का प्रतीक बन गया था. वह गुजरात से कोलकाता चला गया था! एक प्रोफ़ेसर बंदूकवाला थे जो एक नयी और आधुनिक रिहाइश में अपने हिन्दू दोस्तों के बीच रहने चले आये थे उन दंगों के पहले और फिर उन्हें वहाँ दंगों के दौरान इतना परेशान किया गया कि वह लौटकर पुरानी मुस्लिम बस्ती में चले गए. विभाजन के समय यहाँ से वहाँ और वहाँ से यहाँ आये लोगों का क़िस्सा तो पुराना हुआ अभी मुजफ्फरपुर दंगों के बाद कितने लोग अपना गाँव छोड़कर किसी और सुरक्षित ठिकाने पर चले गए! देश न छोड़ सके तो देस छुडा दिया गया. हिटलर के राज में , जिससे अनंतमूर्ति सहित तमाम लोग नरेंद्र मोदी की तुलना करते हैं,  ब्रेख्त सहित कितने लोगों को देश छोड़ना पड़ा और सी आई ए ने किस तरह चार्ली चैपलिन को देश छोड़ने पर मज़बूर किया ये किस्से इतने भी पुराने नहीं (चाहें तो इसमें सोवियत संघ से देश छोड़ने वाले, कश्मीर से देश छोड़ने वाले, पाकिस्तान और इरान से देश छोड़ने वाले, फलस्तीन से देश छोड़ने वाले तमाम जाने अनजाने लोगों को जोड़ लें, मैं बख्श किसी को नहीं रहा, सिर्फ उदाहरणों की भीड़ लगाने की जगह प्रतिनिधि उदाहरण प्रस्तुत कर दे रहा हूँ). क्या कहेंगे आप इन सब लोगों को? भगोड़ा? कायर? देशद्रोही? कह लीजिये कि अभी आप ऐसे हालात से नहीं गुज़रे.

अनंतमूर्ति . कर्नाटक में रहकर कन्नड़ में लिखते हैं. उस कर्नाटक में जहाँ दक्षिणी राज्यों में पहली बार बी जे पी सत्ता में आई और श्रीराम सेने के उत्पातों के रूप में शिवसेना और बजरंग दल के उत्पातों का प्रयोग हुआ. जहाँ उनका मशहूर उपन्यास ‘संस्कारम’ लगातार विवाद में रहा.जो उन्हें जानते हैं वह शायद यह भी जानते होंगे कि एक लेखक की तरह सिर्फ लिखकर ही नहीं एक कार्यकर्ता की तरह सड़क पर आकर भी उन्होंने साम्प्रदायिक शक्तियों की मुखालिफत की. इमरजेंसी के खिलाफ स्टैंड लिया. चौरासी के दंगों पर तीखी प्रतिक्रिया दी और एक लोकसभा चुनाव इस घोषणा के साथ लड़ा कि वह ‘ भारतीय जनता पार्टी के ख़िलाफ़ लड़ने के मुख्य वैचारिक उद्देश्य से ही चुनाव लड़ रहे हैं’. यही नहीं उन्होंने चुनाव में देवेगौडा का दिया टिकट तब ठुकरा दिया जब देवेगौड़ा ने बीजेपी के साथ समझौता कर लिया. वह वामपंथी भी नहीं हैं. लोग जानते ही हैं कि बेंगलोर को बेंगलुरु नाम देने के आन्दोलन में वह बेहद सक्रीय रहे हैं. असल में वह एक ओर ब्राह्मणवादी संस्कारों और विचारों के कट्टर विरोधी रहे हैं तो साथ में देशज आधुनिकता के समर्थक हैं. इस रूप में वह शब्दवीर भर नहीं कि उन्हें शोशेबाज़ी का शौक हो. वह सक्रिय राजनैतिक लेखक रहे हैं जिन्होंने ऐसी ताक़तों के खिलाफ लगातार लड़ाई लड़ी है. वह राममनोहर लोहिया, जयप्रकाश नारायण, शान्तावेरी गोपाल गौड़ा जैसे समाजवादी नेताओं के साथ नजदीकी से जुड़े रहे हैं.  ऐसे में अगर वह मोदी के आने के बाद देश छोड़ने की बात कह रहे हैं तो उसे समझा जाना चाहिए. एक सक्रिय वयोवृद्ध लेखक  यह कह भर नहीं रहे हैं, यह कहते हुए कर्नाटक में ‘धुंडी’ पर लगे प्रतिबंध और उसके लेखक योगेश मास्टर की गिरफ्तारी के खिलाफ सक्रिय हैं.तो यह पलायन नहीं है. इस उम्र में वह अपने शरीर और अपने हौसलों की सीमा जानते हैं. वह जानते हैं कि देश में साम्प्रदायिक शक्तियों के हाथ में ताक़त आने के बाद उन जैसे लेखकों के विरोध का अधिकार किस तरह छीना जाने वाला है. उम्र भर जिन ताक़तों के ख़िलाफ़ एक लेखक खड़ा रहा उनके ताक़तवर होते जाने से एक हताशा भी पैदा होती है, निराशा भी, खीझ भी. बहुत दिन नहीं हुए जब मराठी के ख्यात नाटककार विजय तेंदुलकर ने कहा था कि 'मेरे पास पिस्तौल हो तो मैं सबसे पहले मोदी को गोली मार दूँगा'. यह कोई हिंसक कोशिश नहीं थी, एक लेखक की हताशा थी. इस हताशा में हत्याएं तो नहीं लेकिन तमाम लेखकों की आत्महत्याएं हमने देखी हैं.

इस इंटरव्यू के बाद उठे विवाद की रौशनी में दिए गए एक इंटरव्यू में वह कहते हैं,
मैं नेहरू और इंदिरा के प्रति आलोचनात्मक हो गया. मैं आपातकाल के खिलाफ़ था. इसके लिए मेरी आलोचना हुई मुझे ऐसे गालियाँ कभी नहीं दी गयीं जैसी आज दी जा रही हैं. इस आदमी के पीछे कारपोरेट जगत की ताकत है और अधिकाँश मीडिया की भी. और इसके सभी प्रसंशक एक साहित्यिक आदमी की टिप्पणी से परेशान हो गए. आखिरकार मैं वही हूँ, एक लेखक. . यहाँ तक कि मैं अंग्रेजी में भी नहीं लिखता. यह दिखाता है कि साहित्य में अब भी ताक़त है. जब एक सर्वसत्तावादी सत्ता में आता है तो जो आज चुप हैं वे और चुप हो जायेंगे. इसलिए मैं एक ऐसी दुनिया में नहीं रहना चाहता जहाँ मोदी प्रधानमंत्री हो.गौर कीजिए वह यहाँ ‘देश’ नहीं ‘दुनिया’ कह रहे हैं. साहित्य की भाषा से परिचित लोग जानते हैं कि दुनिया का मतलब वह दुनिया ही नहीं होता जिसका राजा आज अमेरिका है. दुनिया भावभूमि के रूप में प्रयुक्त होती है, जैसे लेखकों की दुनिया, कवियों की दुनिया, कलाकारों की दुनिया. तो देश भी सिर्फ भौगोलिक सीमा नहीं होता, वह मानसिक और वैचारिक निर्मिति भी होता है. इस भारत कहे जाने वाले भौगोलिक देश में एक मोदी की दुनिया रहती है जहाँ विरोध के लिए कोई जगह नहीं, जहाँ सहिष्णुता कोई जीवन मूल्य नहीं, जहाँ संविधान की कोई क़ीमत नहीं, जहाँ लेखक का पर्यायवाची चारण है. चाहें तो दो साल पहले हुए गुजरात साहित्य अकादमी के उर्दू कवि के साथ व्यवहार को याद कर लें. चाहें तो सरूप ध्रुव जैसी गुजराती लेखिका से पूछ लें. जो होशियार हैं वे चुप हैं, आहिस्ता आहिस्ता जबानें बदल रहे हैं जो नहीं हैं वे अनंतमूर्ति की तरह साफ़ बोल रहे हैं और गालियाँ सुन रहे हैं. उनकी दिक्कत यह है कि वह अपनी वैचारिक नागरिकता के प्रति प्रतिबद्ध हैं, चाहे इसके लिए उन्हें अपनी भौगोलिक नागरिकता त्यागनी पड़े.

लेकिन लोग इसे समझना नहीं चाहते. वे अस्सी साल के लेखक से, जो आज भी सड़क पर खड़ा है अपने एक साथी की किताब पर प्रतिबंध लगाए जाने के ख़िलाफ़, ‘वीरता’ के उच्चतम मानदंडों की उम्मीद करते हैं लेकिन ख़ुद उसकी चिंताओं पर सोचने को भी तैयार नहीं. वे उन हालात को रोकने के लिए लड़ाई में उतरने को तैयार नहीं. उनके पास अनंतमूर्ति को देने के लिए यह आश्वासन नहीं कि आपको कहीं नहीं जाना पड़ेगा, हम हिटलर के इस अवतार को सत्ता में आने ही नहीं देंगे. वे उनके ‘पलायन’ को प्रश्नांकित करते हैं और इस तरह उनके संघर्षों और उनकी चिंताओं को परदे के पीछे भेज दिए जाने में मदद करते हैं. मुझे डर है कि वे अपनी भौगोलिक नागरिकता बचाने के लिए अपनी वैचारिक नागरिकता त्यागने की तैयारियाँ मुकम्मिल करने में लगे हैं. अगर नहीं तो उन्हें समझना चाहिए कि यह एक लेखक की कातर पुकार नहीं चुनौती है अपने नागरिकों के प्रति.

बहिष्कार भी समर्थन की तरह एक राजनीतिक हथियार है : सन्दर्भ हंस का सम्पादकीय

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यह लेख भोपाल की एक पत्रिका के कहने पर लिखा गया था. छपा या नहीं छपा यह पता नहीं, क्योंकि कोई सूचना नहीं आई. अब इस महीने का हंस का सम्पादकीय पढने के बाद इसे यहाँ पोस्ट कर रहा हूँ.
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हंस और विवादों का रिश्ता नया नहीं है. पत्रिका में लिखे को लेकर तो कभी पत्रिका के बाहर राजेन्द्र जी और उनकी मंडली के कारनामों पर विवाद होते ही रहे हैं. इस बार यह विवाद प्रेमचंद जयंती पर हंस के वार्षिक आयोजन को लेकर है. इस आयोजन में गोविन्दाचार्य, अशोक वाजपेयी, अरुंधती राय और वरवरराव के आने तथा ‘अभिव्यक्ति और स्वतंत्रता’ विषयक व्याख्यानमाला में उनकी हिस्सेदारी की सूचना थी. लेकिन कार्यक्रम में अरुंधती नहीं आईं और वरवर राव ने दिल्ली आने के बाद भी कार्यक्रम में हिस्सेदारी से इंकार कर दिया. उनके बहिष्कार को लेकर सवाल उठने शुरू हुए तो उन्होंने इंटरनेट पर एक पत्र ज़ारी किया और फिर हिंदी के साहित्यिक विवादों के ‘प्रसंस्करण केंद्र’ जनसत्ता में इसे लेकर उनकी लानत-मलामत करता हुआ एक सम्पादकीय और अपूर्वानंद की एक टिप्पणी प्रकाशित हुई, जिसके उत्तर में उन्होंने एक और पत्र ज़ारी किया. संभव है आगे और वाद-प्रतिवाद आयें. फेसबुक और सोशल मीडिया पर अशोक वाजपेयी कैम्प के तमाम स्वनामधन्य साहित्यकार और जनसत्ता सम्पादक ओम थानवी तो लगातार तलवारें भांज ही रहे हैं.

देखना होगा कि वरवरराव या अरुंधति के हंस के इस सालाना उत्सव में न आने के क्या मानी हो सकते हैं? यहाँ यह याद दिला देना भी बेहतर होगा कि इसके पहले छत्तीसगढ़ के तत्कालीन पुलिस प्रमुख विश्वरंजन और महात्मा गांधी अंतर्राष्ट्रीय विश्वविद्यालय के कुलपति विभूति नारायण राय की उपस्थिति के कारण अरुंधती ने पहले भी हंस के ही एक आयोजन का बहिष्कार किया था. उसकी वजूहात क्या थीं? ज़ाहिर है कि छत्तीसगढ़ में जिस तरह सलवा जुडूम के नाम पर राज्य दमन ज़ारी था (जो अब भी एक भिन्न रूप में रुका तो नहीं ही है) उसकी अगुवाई कर रहे व्यक्ति के साथ मंच शेयर करना आदिवासियों के दमन के खिलाफ लगातार लिख रही अरुंधती ने उचित नहीं समझा था. मुझे नहीं याद कि उसे लेकर तब किसी तरह का कोई विवाद मचा था. आज लोकतंत्र और आवाजाही के सिद्धांत पेश कर रहे लोग तब शायद इसलिए भी चुप थे कि अशोक वाजपेयी खुद विश्वरंजन और विभूति नारायण राय के बहिष्कार (छिनाल प्रकरण के बाद) में शामिल थे. मजेदार बात यह है कि तब वर्धा विश्विद्यालय और छतीसगढ़ के प्रमोद वर्मा स्मृति संस्थान (जिसके सर्वे सर्वा विश्वरंजन थे) के  बहिष्कार को सही बताने वाले और उसमें शामिल होने वाले लोग आज बहिष्कार की पूरी अवधारणा पर प्रश्न खड़े कर रहे हैं और इसे ‘लोकतांत्रिक मूल्यों’ के ख़िलाफ़ बता रहे हैं. ओम थानवी सवाल उठाते हैं कि ‘अगर ‘लोकतंत्र में सभी मंच एकतान हो गए तो जिस वैचारिक और सांस्कृतिक बहुलता को हम अपने लोकतंत्र का असली आधार मानते हैं, वह समाप्त हो जायेगी’ तो अपूर्वानंद कहते हैं ‘भारत में, जो अब भी एक-दूसरे से बिलकुल असंगत विचारधाराओं और विचारों के तनावपूर्ण सहअस्तित्व वाला देश है , किसी विचार को चाह कर भी सार्वजनिक दायरे से अपवर्जित करना संभव नहीं है.’ सवाल वही है कि यह लोकतंत्र ‘वर्धा’ या ‘प्रमोद स्मृति संस्थान’ में लागू क्यों नहीं होता है? क्यों यह थानवी साहब के अखबार में अपने विरोधियों के प्रतिवाद को स्थान देने के क्रम में लागू नहीं होता? (सी आई ए को लेकर लम्बे चले विवाद में थानवी ने वीरेन्द्र यादव, मेरे या गिरिराज किराडू के प्रतिवाद छापने से शब्द सीमा निर्धारण के नाम पर इंकार कर दिया था) 

सवाल यहाँ यह भी है कि वाकई हंस कोई ऐसा आयोजन कर रहा था जिसमें किसी बहस-मुबाहिसे की गुंजाइश थी? ज़ाहिर है कि यह कोई पैनल डिस्कशन या परिचर्चा नहीं, व्याख्यानमाला थी. इस व्याख्यानमाला में सबको अपने-अपने भाषण देने थे और किसी तरह की बहस की कोई गुंजाइश नहीं थी. ऐसे में यह तर्क कि वहां वैचारिक विरोधियों से बहस की जानी चाहिए थी, बिना नींव का है. साम्प्रदायिकता के धुर विरोधी अशोक वाजपेयी ने वहाँ कट्टर साम्प्रदायिक गोविन्दाचार्य से क्या बहस की? फिर यह हंस का आयोजन था जिसे आमतौर पर एक वामपंथी मैगजीन की तरह जाना जाता रहा है. उसके उत्सव में एक धुर वामपंथ विरोधी बुर्जुआ और एक कट्टर साम्प्रदायिक को मंच पर क्यों होना चाहिए था? और अगर उत्सव में वे शामिल थे तो फिर वहां एक घोषित नक्सलवादी वामपंथी वरवरराव और आदिवासी अधिकारों की प्रवक्ता तथा कार्पोरेट विरोधी अरुंधती राय को क्यों होना चाहिए था? संसद में सबके साथ बैठने का उदाहरण देने वाले बताएँगे कि कौन सी पार्टी अपने घरेलू समारोहों में विपरीत विचारधारा के लोगों को बुलाती है? कब ऐसा होता है कि कांग्रेस के किसी समारोह में मुख्य वक्ता भाजपा या कम्युनिस्ट पार्टी का होता है? समारोह के मंच के भागीदार आपके वैचारिक हमसफ़रों की घोषणा होते हैं. ज़ाहिर है हंस अपने मंच पर इन लोगों को बुलाकर कुछ और साबित करना चाहता था तो फिर किसी वरवर राव को उससे खुद को अलग करने का हक क्यों न हो? क्या भारत और विश्व के साहित्यिक परिदृश्य में बहिष्कार पहले नहीं हुए हैं? क्या सार्त्र ने नोबेल का बहिष्कार नहीं किया था? क्या एक समय में अज्ञेय ने भारत भवन का बहिष्कार नहीं किया था? क्या अरुंधती ने साहित्य अकादमी नहीं ठुकराया? क्या फोर्ड फाउंडेशन जैसे स्रोतों का लम्बे समय तक (और अब भी) तमाम जनपक्षधर साहित्यकारों और कलाकारों ने बहिष्कार नहीं किया? क्या अमेरिका ने चार्ली चैपलिन जैसे कलाकार को देशनिकाला नहीं दिया? क्या ब्रेख्त को अमेरिकी साम्राज्यवाद और हिटलर के फासीवाद के विरोह की क़ीमतें तमाम देशों से दर-ब-दर होकर नहीं चुकानी पड़ीं? और क्या आज लोकतंत्र की दुहाई दे रहे वाजपेयी कैम्प ने अपने किसी आयोजन में वरवर राव या ग़दर जैसे कलाकारों को बुलाया? क्या यह एक तरह का अघोषित बहिष्कार नहीं था/ है? फिर वरवर राव अगर साम्प्रदायिक गोविन्दाचार्य और वाम विरोधी अशोक वाजपेयी के साथ एक समारोह में मंच शेयर नहीं करना चाहते तो इतनी चिल्ल-पों क्यों? बहिष्कार भी समर्थन की तरह एक राजनीतिक हथियार है और एक लेखक को इसके प्रयोग का पूरा अधिकार है. 

वरवर राव अशोक वाजपेयी को कारपोरेट कल्चर का समर्थक कहते हैं और इस रूप में अपना वैचारिक विरोधी कहते हैं. इसे लेकर बहुत शोरगुल मचाया गया और अशोक वाजपेयी के सेकुलर होने का उदाहरण पेश किया गया. सवाल यह है कि कौन उनके सेकुलर होने पर सवाल खड़ा कर रहा है? लेकिन बुर्जुआ वर्ग सेकुलर होता ही है, इससे उसका कारपोरेट विरोधी हो जाना तो सिद्ध नहीं होता? आखिर कांग्रेस, सपा, बसपा जैसी सभी पार्टियां ही नहीं हमारी फिल्म इंडस्ट्री के तमाम कलाकार और कारपोरेट भी धर्मनिरपेक्षता का दावा करते हैं और उनमें से काफी हैं भी. एक दौर में राजनीति में कारपोरेट कल्चर के सबसे बड़े प्रतिनिधि के रूप में उभरे अमर सिंह तो उस नरेंद्र मोदी के बेहद कटु आलोचक रहे जिसके खिलाफ लेखकों को इकट्ठा करने के वाजपेयी जी के प्रयास को रेखांकित कर उनके आलोचकों पर सवाल उठाये जा रहे हैं. साफ है कि साम्प्रदायिकता का विरोध और कारपोरेट का विरोध दो अलग-अलग चीजें हैं. अशोक वाजपेयी का पूरा लेखन और जीवन सबके सामने है और अगर उसमें कारपोरेट कल्चर या पूंजीवाद का विरोध नहीं है तो वरवर राव को उसे रेखांकित करने और उसके आधार पर उन्हें अपना वैचारिक शत्रु घोषित करने का हक है. लगातार शासन और निजी तंत्र के गठजोड़ के हाथों उत्पीडन और दमन झेल रहे लोगों के साथ सक्रिय वरवर राव का नज़रिया आई आई सी और हैबिटाट में बैठकर साहित्यिक षड्यंत्र रचने और पद-पुरस्कार-फेलोशिप-यात्रा की जुगाड़ में लगे लोगों से अलग तो होना ही है.
इस देश के लोकतंत्र और फिर उसमें  ‘बिलकुल असंगत विचारधाराओं और विचारों के तनावपूर्ण सहअस्तित्व’ की बात करने वाले लोग वरवर राव की विचारधारा के साथ सत्ता और उसके प्रतिनिधि साहित्यकारों के सुलूक को किस आसानी से भुला देते हैं. क्या सच में तनावपूर्ण ही सही, उस विचारधारा को किसी तरह का सह अस्तित्व मयस्सर होता है इस लोकतंत्र में? क्या उनके प्रति किसी तरह की कोई सहानूभूति या समानुभूति सत्ता और उसके प्रतिनिधि लेखकों-संपादकों के यहाँ दिखती है? अगर नहीं तो उनसे यह उम्मीद क्यों? और क्या यह सच नहीं है कि क्रांतिकारी वामपंथ के अलावा इस ‘बहुलता वादी’ देश के सभी वैचारिक समूह कारपोरेट लूट के मसले पर नव आर्थिक उदारवाद की विचारधारा के साथ ‘एकतान’ हो चुके हैं और यह सेकुलर और साम्प्रदायिक दोनों विचारों की प्रतिनिधि राजनीतिक संरचनाओं की सामान आर्थिक नीतियों के परिप्रेक्ष्य में स्पष्ट तौर पर देखा जा सकता है.

दरअसल लोकतंत्र की यह दुहाई अक्सर अपने दमनकारी विचारों और अवसरवाद को लोक मानस में स्वीकार्यता दिलाने के लिए दी जाती है. इसका एक उदाहरण हंस से ही. जब हंस ने उत्तराखंड के तत्कालीन मुख्यमंत्री की एक कहानी हंस में छापी तब ऐसे ही एक सालाना आयोजन में एक युवा पाठक के सवाल उठाने पर राजेन्द्र जी लोकतंत्र की ही दुहाई देते हुए कहानी के छपने का औचित्य साबित किया. खैर..मुख्यमंत्री महोदय ने मुख्यमंत्री पद से हटने के बाद कोई ऐसी कहानी नहीं लिखी शायद जिसे अपने भरपूर लोकतंत्र के बावजूद राजेन्द्र जी हंस में छाप पाते!   


भगत सिंह के जन्मदिवस पर उनके नाम प्रो लाल बहादुर वर्मा का एक ख़त

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प्यारे दुलारे भगत,

ख़त में एक दूरी तो है पर यह ख़त हम तुम्हारे मार्फ़त खुद को लिख रहे हैं- तुम से जुड़कर तुम्हे अपने से जोड़ रहे हैं ..

तुमे हम क्या कहकर पुकारे यह तय करना बाकी है , क्योकि तुमसे जन्म का रिश्ता तो है नहीं कर्म का रिश्ता है और तुम्हे जो करना था कर गए , हमें जो करना है वह कितना कर पाते है यह इसे भी तय होगा की हम तुम्हे कैसे याद करते हैं .बहरहाल इतना तो तय ही है की तुम्हें ''शहीदे आज़म'' कहना छोड़ दिया है . इसमें जो दूरी , जो परायापन था वह पास आने से रोकता रहा है . तुम्हें अनूठा ,असाधारण ,निराला बनाकर हम बचते रहे की तुम जैसा और कोई हो ही नहीं सकता . आखिर क्यों नहीं हो सकता? आखिर तुमने ऐसा क्या किया है जो दूसरा नहीं कर सकता ? तुमने देश से प्रेम किया , समाज को बदलना चाहा . घर परिवार को समाज का अंग मान समाज को आज़ाद और बेहतर बनाना चाहा , आखिर तभी तो घर परिवार आज़ाद और बेहतर हो सकते थे ..तुमने अनुभव और अध्ययन से जाना और लोगों को बताया कि शोषण और जुल्म करने वालों में देशी-विदेशी का अंतर बेमानी होता है , तुमने कितनी आसानी से समझा दिया कि तुम नास्तिक क्यों हो गए थे ? तुमने कुर्बानी दी पर कुर्बानी देने वालों की तो कभी कमी नहीं रही है .आज भी कुर्बानी देने वाले हैं . हाँ तुम्हारी चेतना का विकास और व्यापक पहुँच असाधारण थी,पर कोई करने आमादा हो जाय तो ये सब मुश्किल भले ही हो पर असंभव तो नहीं होना चाहिए!

पर हाँ , तुम्हारी तरह लगातार अपने साथ आगे बढ़ते जाने का जज्बा और कोशिश तो चाहिए ही . 

तुमने जब अपने वक्त को और उसी से जोड़कर अपने को जाना पहचाना . तो हिन्दुस्तान पर बर्तानिया के हुक्मरानों की हुकूमत बेलौस और बेलगाम हो चुकी थी . आज अमरीकी निजाम उसी रास्ते पर है , वह ज्यादा ताकतवर, ज्यादा बेहया और ज्यादा बेगैरत है . उसे हर हाल में अपनी जरूरतें पूरी करनी हैं .पर दूसरी तरफ दुनिया तो पहले से ज्यादा जागी हुई है . खुद अमेरिका में ही लाखों लोग अपने ही देश में अमन और तहजीबो-तमददुन के दुश्मनों के खिलाफ बगावत पर आमादा हैं . यह सच है की दुनिया को भरमाने और तरह तरह के लालचों के जाल में फसाकर न घर न घाट का कुता बना देने के ढेरों औजार और चकाचौध पैदा करने वाली फितरतें हैं हुक्मरानों के पास . लोगों को तरह तरह से बाट कर रखने के उपाय हैं पर आम लोग भी तो पहले की तरह भेड़ बकरी नहीं रहे .आज ठीक है कि ज्यादातर लोग सम्मान पूर्वक रोटी दाल भी नहीं खा रहे और पढ़े लिखे लोग रोटी पर तरह तरह के मक्खन और चीज चुपड़ने में ही मरे जा रहे हैं पर यह भी तो सच है कि ऐसे लोगों की तादाद बढ़ रही है जो जानने समझने लगे है कि जो कुछ उनका है वह उन्हें क्यों नहीं मिल पा रहा है ? आज आदमी के हक़ छीने जा रहे हैं यहाँ तक की हवा पानी के हक़ भी .. जो कुदरत ने हर किसी को दे रखा है . पर हकों की पहचान भी तो बढ़ रही है . आज इन्साफ की उम्मीद नहीं रही . पर इन्साफ के लिए खुदा नहीं ,इंसान को जिम्मेदार ठहराने की तरकीबें बढ़ रही हैं . इंसान धरती सागर ही नहीं अन्तरिक्ष को भी रौंद रहा है पर उसकी इंसानियत खोती जा रही है . पर साथ ही बढ़ रहा है हैवानियत से शर्म का अहसास , बढ़ रहे हैं भारी पैमाने पर लालच बेहयाई और बर्बरता ..पर क्या गुस्सा नहीं बढ़ रहा?

तो भगत ! हम तुम्हारे अनुयायी नहीं ,तुमसा बनना चाहते हैं बल्कि तुमसे आगे जाना चाहते हैं .क्योकि तुमसा बनने से भी काम नहीं चलेगा . तुम रूमानियत से उबरते जा रहे थे ,पर क्या पूरी तरह ? आज के हालात में भी रूमानियत जरूरी है पर दाल में नमक भर ...

दुखी मत होना यह जानकर कि अब तो सफल होने में जुटे लोगों के लिए तुम प्रासंगिक नहीं रहे . आज़ादी के फ़ौरन बाद शैलेन्द्र ने लिखा था कि ''भगत सिंह इस बार न लेना काया भारतवासी की ,देश भक्ति के लिए आज भी सजा मिलेगी फांसी की'' .
 
मैं जानता हूँ, तुम्हें इतिहास से कितना प्रेम था .इत्मीनान रखना कि अनगिनत लोग तुमसे यानी अपने इतिहास से प्रेम करते हैं . वे इतिहासबोध से लैस हो रहे हैं . तुम्हारी मदद से,इतिहास की मदद से वे दुनिया बदलने पर आमादा हैं .हम पुराने हथियारों पर लगी जंग छुडा उन्हें और धारदार बनायेंगे और लगातार नए नए हथियार भी ढूढते जायेंगे .दोस्त दुश्मन की पहचान तेज करेंगे , हम समझने की कोशिश कर रहे हैं कि तुम आज होते तो क्या क्या करते ? हमें तुम्हारे बाद पैदा होने का फायदा भी तो मिल सकता है . एक भगत सिंह से काम नहीं चलने वाला , हमसब को 'तुम' भी बनना होगा 

यह सब लिख पाना भी आसान काम नहीं था , बरसों लग गए यह ख़त लिखने में , जो कुछ लिखा है उसे कर पाने में तो और भी ना जाने कितना वक्त लगे ....!

तुम्हारा , लाल बहादुर 
इतिहासबोध
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थू करने के लिए नही है मेरी जबान पर थूक - कैलाश वानखेड़े

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अभी ज्यादा दिन नहीं हुए जब धार ज़िले से ख़बर आई थी कि एक तहसीलदार ने दलित बच्चों से जाति प्रमाणपत्र के लिए जानवरों की खाल उतारते हुए अपनी तस्वीरें प्रस्तुत करने के लिए कहा था! हम सब क्रोधित थे...पर शायद हुआ कुछ नहीं! मुझे याद है कि कभी धार के एस डी एम रह चुके कैलाश वानखेड़े को जब मैंने नागपुर से फ़ोन लगाया था तो उनकी आवाज़ काँप रही थी. एक तरफ़ 'जाति अब कहाँ है'जैसी बातें तो दूसरी तरफ समाज में ज़िम्मेदार पदों पर बैठे लोगों की ऐसी जातिवादी कुत्सित मानसिकता. संक्रमण का यह दौर अभी बीता नहीं है.
आज कैलाश भाई ने यह कविता भेजी तो लगा कि वह गुस्सा भीतर की आँच से पककर निकला है..
तस्वीर यहाँ से साभार 




बकवास करते है आप
 ,जाति कहाँ है ?

बीच बाजार में घसीटकर 
लटका दिया उल्टा
वही जहाँ है फव्वारे और खिलने की प्रतीक्षा में
 ढेर सारे फूल
ठीक उसी सड़क पर जो हवाई अड्डे से
 औद्योधिक केंद्र को खींचती है 
जिसका दूसरा हाथ बिग बाजार के माल के नीचे रखा हुआ है
 
वही पर
 
गरदन को धड से अलग करने के लिए
 
तलवार से काटा गया
 
खून निकला और वही जिसे कली कहकर
 मुस्कुराते हो 
फूल बनने से पहले उसके भीतर चला गया
 
किसी को पता ही नहीं चला
 
काले शीशे से लाल रंग तो दिखता नहीं लाल
 
और हीरो होंडा बजाज से निगाह आगे की तरफ होती है
 
उनकी नजर में भी घुस न सका खून
राहगीर नहीं है कोई उसकी राह निगल गया
फुटपाथ को तो घेरकर शर्मा स्वीट सेंटर ने कंजूमर के हवाले कर दिया 

उसी वक्त सुपारी के कारखाने में जल रहा है कुछ तो भी
 
भट्टी के नीचे
 
सुपारी को सेंकने के लिए और फ़ैल रहा है धुआँ
जो जाता है सीधे आँखों में
 
मसलते है और आगे बढ़ जाते है कि उनके पास नहीं है वक्त
 
गाली देने के लिए भी
कि जबान मोबाइल पर बोलने की प्रतीक्षा में है 
तभी किसी आवाज से कोई समाचार आता है
 
दिमाग के भीतर भट्टी में
 ...
पहाड़ियों में गड्डों से जाता नहीं हर कोई डही
जहाँ फरमान हुआ है
 

तस्दीक करनी है उसी जाति के तो हो लेकिन
 वही काम करते हो ?

भरोसा ही नहीं होता मनुष्य को देखकर
 
कागज़ पंचनामा रिकार्ड शपथपत्र
सब हो सकते है फर्जी
 

बनाया जा सकता है आदमी को भी फर्जी
 
जाति प्रमाण पत्र तो सदियों से बनाए जाते रहे है
 
सदियों से करते आ रहे है यही कामधंधा हमारे पुरखे
 
तब शिवाजी की जाति के लिए बनारस से बनवाये गया था रिकार्ड
 

अब कलयुग में ऊँची जात का नहीं चाहिए प्रमाण
 
वो तो रोटी बेटी से कर लेते है
 
बार बार हजार बार सरेआम कहते है
 
कभी अपने गरीब होने के
 पुच्छ्ले को जोड़कर तो कभी मूंछ पर ताव देकर 
कहते हो ही ही करते हुए बनिया आदमी हूँ
 

तय कर देते हो
 खुद को
गर सामने वाला भूल गया हो तो याद कर ले अपनी जाति 

कोटा
 ,आरक्षण रिजर्वेशन मेरिट प्रतिभा पलायन देश दुनिया 
राजनीती वोटबैंक गंदगी कचरा फिल्म हिरोइन एसएमएस
 एमएमएस वाट्स अप नीली फिलिम गाने ....बाय करते हो 
कि भोत काम बाकि है
 
ये जिन्दगी भी कोई जिन्दगी है
 
ये देश भी कोई देश है ...

उस बच्चे से जिसे भगवान का रूप बोलते हुए किसी को शर्म नहीं आती
 
कहते हो पाना हो स्कालरशिप तो ले आओं मरे हुए जानवर के साथ
अपना फोटो...
गाँव ,पटवारी,पंचायत ,स्कूल के प्रमाण के बाद भी जरुरी बना देते हो 
संतुष्टि के लिए फोटो .


ढाई सौ किलोमीटर दूर जब सुनता हूँ
 
तो अपने को किसी
 मंत्रोच्चार की गुफा में पाता हूँ 
सन्न
 हूँ 
कि कितने कुत्सित विचार है तुम्हारे
 
कि मानसिकता की सडन के बाद भी तुम अभी भी हो
 
उसी गटर के कीड़े जो रेंगता है गंदगी छोड़ता है और सड़ जाता है
 
थू करने के लिए नही है मेरी जबान पर थूक
 

बस बचे है मेरे पास शब्द जिन्हें वापरता हूँ
 
कि चूल्हा जलाने के काम आ जाए
 
कि कक्षा नौ के पाठ की तरह अपने बेटे को पढ़ा सकूँ
 
जब कोई मांगे तुमसे इस तरह का प्रमाण
 
तो मेरी
 तरह खुद का क़त्ल मत होने देना
मेरे बेटे उससे कहना अंकल जी मेरे पास है एट्रोसिटी का कागज
 
घर में है संविधान


सदाचार की गठरी : हिमांशु पांड्या

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हिन्दी की युवा कहानीकार ज्योति कुमारी द्वारा दर्ज यौन दुर्व्यवहार की शिकायत के बाद उठे विवाद में ताज़ा कड़ी में हमारी भाषा के एक समर्थ लेखक अनिल कुमार यादव का लेख एक साथ दो ब्लोग्स पर शाया हुआ है.इन दोनों में से कम से कम एक ब्लॉग इससे पहले खुलकर ज्योति कुमारी के समर्थन में आया था और इसके मॉडरेटर ने ज्योति की बहादुरी को सलाम किया था. अनिल यादव का लेख घोषित रूप से हिन्दी पट्टी में सेक्सुअलिटी को लेकर छाई घनघोर चुप्पी पर सवाल उठाता है , इसी चुप्पी को महिलाओं के साथ होने वाले यौन दुर्व्यवहारों के लिए उत्तरदायी मानता है और इसे मिटा देने का आव्हान करता है. अनिल जी हिसाब से इसका सबसे मुफीद तरीका ये है कि ‘स्त्री विमर्श’ के पुरोधा राजेन्द्र यादव से उनके जीवन में सेक्स और सृजनात्मकता के अंतर्संबंधों पर बात की जाए , उनके जीवन में आयी ‘महिला लेखिकाओं और सेक्स और क्रियेटिविटी’ पर बात की जाए. हालांकि अनिल जी की इच्छा ‘पुरानी लेखिकाओं’ पर बात करने की थी पर बात ज्योति कुमारी पर केन्द्रित हो जाती है और फिर बड़ी चतुराई से राजेन्द्र यादव को कठघरे में खडा करने का ऊपरी दिखावा करते हुए यह बातचीत एक युवा लेखिका के शाब्दिक गरिमा हनन में जुट जाती है. वह सारा हिस्सा आपइन लिंक्स पर जाकर पढ़ सकते हैं , मेरी उद्धृत करने की कोइ इच्छा नहीं है , मैं इस लगभग पोर्नोग्राफिक पूर्वार्ध पर नहीं उत्तरार्ध पर बात करूंगा जो ज्योति कुमारी के ‘हमदर्द’ अनिल कुमार यादव द्वारा उन्हें सलाह के रूप में लिखा गया है.
वे लिखते हैं ,"अस्मिता बचाने के साहसिक अभियान पर निकली ज्योति कुमारी सबको बता रही हैं कि राजेंद्र यादव उन्हें बेटी की तरह मानते थे. और इसके अलावा कोई रिश्ता नहीं था. वह ऐसा करके एक कल्पित नायिका स्टेटस और शुचिता की उछाल पाने के लिए एक संबंध और अपने जीवन को ही मैन्यूपुलेट कर रही हैं. "ठीक , मान लिया. तो क्या अनिल ये कह रहे हैं कि ज्योति को अपने संबंधों का ऐलानिया स्वीकार बेहिचक करके अपने साहस का परिचय देना चाहिए था . ( इसमें ये तो आ ही गया कि राजेन्द्र यादव का दावा - हो सकता है , हो सकता है कि वह एक वृद्ध की कुंठा का प्रदर्शन हो कि'देखो मैं शारीरिक रूप से अक्षम हूँ तो क्या आज भी शिकार कर सकता हूँ !' / हो सकता है कि यह दावा एक तरह की खीझ से उपजा हो उस लेखक के प्रति जो एक अस्सी  साला लेखक से स्त्री विमर्श के नाम पर 'सेक्स और सर्जनात्मकता के रिश्तों'पर ही बात करना चाहता था -जो भी हो पर - उनका ही दावा सही है, ज्योति का 'पिता समान'वाला दावा खोखला है. ) लेकिन ऐसा होता तो वे ये क्यों लिखते , "यह अस्वाभाविक नहीं है कि लोग मानते हैं कि एक कहानीकार के तौर खुद को धूमधड़ाके से प्रचारित करने के लिए उन्होंने ऐसा ही एक और मैन्यूपुलेशन किया होगा."यह सबसे अच्छा तरीका होता है , अपनी राय को ‘लोग मानते हैं’ की गिरह में लपेटकर पेश करदो ,और चूंकि ‘यह अस्वाभाविक नहीं है’ अतः आप अपनी नहीं जनमत की राय व्यक्त कर रहे हैं. इसे कहते हैं एक तीर से दो शिकार ! यानी वे - यदि स्पष्ट कहूं तो इन दो व्यक्तियों के संबधों को 'मैनिपुलेशन'कह रहे हैं , इसे एक सीढ़ी बता रहे हैं जिसे ज्योति ने अपनी महत्त्वाकांक्षाओं की पूर्ती के लिए इस्तेमाल किया.
 ध्यान से देखिये , एक ओर वे भारतीय समाज की सेक्सुअलिटी पर चुप्पी के खिलाफ प्रगतिशील बयान दे रहे हैं . यौन अपराध का बदला यौन हिंसा नहीं होती - जैसी मार्के की बात कह रहे हैं और दूसरी ओर वे राजेन्द्र यादव की उन'चेलियों' (ध्यान दीजिये, चेलों नहीं सिर्फ चेलियों ) को गरिया रहे हैं जिन्हें उन्होंने "साहित्य के बाजार में उत्पात मचाने के लिए छोड़ दिया जो खुद उन्हें भी अपने करतबों से चकित कर रही हैं. "  ज्यादा दिन नहीं हुए जब विभूतिनारायण राय ने एक ख़ास शब्द का प्रयोग किया था तब उसके प्रतिरोध में सारा हिन्दी समाज उठ खडा हुआ था . वह एक शब्द विशेष से लड़ाई थी या एक विचार से ? वह एक स्त्री के सम्मान का मसला था या सारी स्त्री जाति के ? अब कृपया इस पूरे वाक्य को एक बार ध्यान से पढ़िए और बताइये कि इसमें उन सारी स्त्रियों को कठघरे में नहीं खडा कर दिया गया है जो 'हंस'में छपीं, छपती रहीं और जिन्होंने अपनी रचनात्मकता के लिए इस पत्रिका को चुना ? -
"लेकिन उनका कसूर यह है अपनी ठरक को सेक्सुअल प्लेज़र तक पहुंचाने की लालसा में उन्होंने आलोचकों (जिसमें नामवर सिंह भी शामिल हैं), प्रकाशकों, समीक्षकों की मंडली बनाकर ढेरों अनुपस्थित प्रतिभाओं के अनुसंधान का नाटक किया, चेलियां बनाईं और साहित्य के बाजार में उत्पात मचाने के लिए छोड़ दिया जो खुद उन्हें भी अपने करतबों से चकित कर रही हैं."
क्या चेले नहीं होते संपादकों के और क्या वे साहित्येतर कारणों से नहीं छपते ? पर नहीं , स्त्री हमेशा साहित्येतर कारणों से ही छपती है और वह साहित्येतर कारण ‘सिर्फ एक’ होता है. ( आप चाहें तो ये जोड़ सकते हैं कि ऑफिस ,स्कूल,कॉलेज,अस्पताल आदि आदि जगहों पर भी उसे तरक्की ‘अन्य ही’ कारणों से मिलती है और आप चाहें तो किसी ऑफिस के मरदाना पेशाबघर में इसकी दृश्यात्मक व्याख्या भी देख सकते हैं.)

  वे लिखते हैं , "ऐसा क्यों हुआ कि विवेक के फिल्टर से जो कुछ जीवन भर निथारा उसे अनियंत्रित सीत्कार और कराहों के साथ मुंह से स्खलित हवा में उड़ जाने दिया. अगर वे मूल्य इतने ही हल्के थे तो राजेंद्र यादव को 'हंस'निकालने की क्या जरूरत थी? "अब समझना बहुत मुश्किल है कि अनिल किन मूल्यों की बात कर रहे हैं ? सबसे पहली बात तो ये कि उनके इस इंटरव्यू से राजेन्द्र यादव का कोई ऐसा पक्ष नहीं उभर रहा है जो उनकी कसौटी - "अगर सेक्सुअलिटी की अभियक्ति हमारे जीवन का हिस्सा होती तो शायद किसी महिला या पुरूष के साथ जोर जबर्दस्ती की स्थितियां ही नहीं बनतीं."इस कसौटी पर राजेन्द्र यादव को अपराधी बना रहा हो. मूल मुद्दा ये था ही नहीं कि ज्योति कुमारी और राजेन्द्र यादव की बीच उनकी सहमति से किसी कमरे में क्या घटा , और उसे उन दोनों ने अपनी अपनी सामाजिक प्रस्थिति के हिसाब से कैसे प्रस्तुत किया, दरअसल इस पर टिप्पणी का किसी तीसरे को अधिकार है ही नहीं . मूल मुद्दा एक स्त्री की ब्लैकमेलिंग , उस पर एक व्यक्ति की आपराधिक चुप्पी का था , पर वह तो न जाने कहाँ बिला गया .यही असली राजनीति है, एक स्त्री द्वारा अपनी गरिमा पर हमले , यौन दुर्व्यवहार की शिकायत करने पर उसके ‘चरित्र’ को ही संदेह में ला दो  , जिसका पहले से ही कुछ ‘लफडा’ है उसके साथ तो थोड़ा बहुत दुर्व्यवहार हो भी गया तो क्या ! अनिल यादव को मथुरा नामक लडकी के साथ पुलिस लौकअप में हुए बलात्कार के सन्दर्भ में आये फैसले और उसके बाद भारत के स्त्री आन्दोलन में आ गए जलजले के बारे में जरूर पढ़ना चाहिए. जो नगरवधुएं अखबार नहीं पढ़तीं , उनके भी नागरिक के रूप में वही अधिकार होते हैं जो आपके हमारे, इस बात को उनसे बेहतर कौन जानता होगा.

अनिल यादव को राजेन्द्र यादव से यह'उम्मीद नहीं थी कि वह किसी लड़की को दाबने-भींचने के लिए जीवन भर की अर्जित विश्वसनीयता, संबंधों और पत्रिका की सर्कुलेशन पॉवर को सेक्सुअल प्लेज़र के चारे की तरह इस्तेमाल करने 'लगेंगे , पर उन ढेरों संपादकों का क्या जो चापलूसों,टुकड़खोरों, रैकेटियरों,अफवाहबाजों,सत्ताधारियों,आला अफसरों,विज्ञापनदाताओं  आदि आदि आदि को अपनी पत्रिकाओं के जरिये साधते रहते हैं. ‘चरित्र’ की दुधारी तलवार उन्हें नहीं हलाल करती ना. ‘सदाचार’ का ताल्लुक सिर्फ ‘यौन शुचिता’ से है . ‘राष्ट्रभक्ति’ की गिलोटीन पर मुस्लिम हलाल होंगे और ‘सदाचार’ की गिलोटीन पर स्त्रियाँ .   और इस तरह अंत तक आते आते अनिल निष्कर्ष सुना ही देते हैं, "ज्योति कुमारी का महत्वाकांक्षी होना अपराध नहीं था लेकिन उन्होंने इसे उसकी कमजोरी की तरह देखा, उसे साहित्य का सितारा बनाने के प्रलोभन दिए और उसका इस्तेमाल किया.
    
  इस तरह निष्कर्ष क्या निकला : स्त्रियों के लिए मर्यादा,सीमा तय है जिसे पह्चानना उनके लिए जरूरी है . हिदी साहित्य की दुनिया में आना और धूमकेतु की तरह छा जाना कम से कम एक स्त्री के लिए तो अक्षम्य है , उसका सार्वजनिक आखेट किया ही जाना चाहिए. पुरुषों की तिकड़में जाहिर होना उनके लिए ईर्ष्या भाव पैदा करता है और स्त्री की तिकड़में जाहिर होना उसके लिए दयनीयता की स्थिति लाता है. कम से कम आज अनेक प्रगतिशील साथियों द्वारा इस पर लिखी स्टेटस पढ़कर तो यही लगा .

ज्यादा समय नहीं बीता जब एक बहादुर लड़की की लड़ाई को आगे बढाने के लिए इस मुल्क के लाखों नौजवान लड़के लडकियां सड़कों पर उतर आये थे. उस समय भी एक संरक्षणवादी पितृसत्तात्मक दृष्टि थी जो कह रही थी कि यदि स्त्रियाँ अपनी मर्यादा को समझें तो ऐसे अपराध कम होंगे , खुशी की बात है कि हमारे नौजवानों ने उस दृष्टि को पूरी तरह से नकारा और चिल्ला चिल्ला कर ,बेरिकेड्स तोड़कर, हर मंच पर अपनी बात रखकर इसे लड़कियों की आज़ादी की लड़ाई में बदल दिया. भारतीय स्त्री विमर्श आज बहुत दूर तक रास्ता तय कर चुका है , उसे ‘मर्यादा’ के छलावे में अब नहीं बहकाया जा सकता.
हिमांशु पंड्या


सेंसर बोर्ड अंधा है वह आंखें बंद कर “ग्रैंड मस्‍ती” मार रहा है : सारंग उपाध्याय

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 “वल्‍गर कॉमेडीके नाम पर हाफ पौर्न परोस रही फिल्‍म ग्रैंड मस्‍तीकुछ असफल और फिल्‍मी प्‍लेटफार्म से गायब होते जा रहे लोगों की अवसाद से ऊपजी भडास है. इंडस्‍ट्री में बनें रहने की दोयम दर्जे की घटिया, फूहड और अश्‍लील अभिव्‍यक्‍ति है. जिसे 70 करोड की कमाई के मानक पर सफल कहा जा रहा है. यह पूरी फिल्‍म ही मानों असफलता की बागुड में उलझे लोगों की मजबूर और बैचेन छटपटाहट है. भला ऐसी कौन सी आफत आन पडी थी कि कभी बेटा, मन, दिलजैसी संजीदा फिल्‍म बनाने वाले निर्माता और निर्देशक इंद्र कुमार फिल्‍म मस्‍तीका सिक्‍वेल बनाने को मजबूर हो गए, और यही काम कुछ अच्‍छी छबि वाले अभिनेताओं ने भी किया. हालॉंकि इस फिल्‍म को करने के पीछे लंबे समय से पर्दे से गायब दो असफल अभिनेताओं की मजबूरी मान भी लें, तो मराठी संस्‍कारों, परंपराओं और उसकी अस्‍मिता की प्रतिष्‍ठा को राजनीति में भुनाने वाले महाराष्‍ट्र के मुख्‍यमंत्री के ठीक ठाक अभिनेता बेटे को पर्दे पर सफलता के लिए आखिर ग्रैंड मस्‍तीक्‍यों करनी पड गई?तब जबकि उन्‍हें महाराष्‍ट्र का पारंपरिक मराठी समाज विलासराओ देशमुख की छबि में पसंद करता रहा है.

क्‍या बॉलीवुड में बैठे समाज सुधारक रहनुमाओं को यह दिखाई नहीं दे रहा कि किसी महलनुमा कॉलेज में प्रिंसीपल द्वारा एक छात्र को सबके सामने पूरे कपडे उतारकर उसकी कमर के हिस्‍से को ब्‍लर कर नाम बडे और दर्शन छोटेजैसे डबल मिनिंग के घटिया संवाद कहती यह फिल्‍म समाज पर क्‍या प्रभाव डालेगी?  एक लडकी के सामने पूरे कॉलेज में बंद छतरी में एक लडका कॉंडम डालकर बेहुदा संवाद बोलता है, ऐसे दृश्‍य और संवाद समाज के दिमाग को किस रसातल में पहुँचाऍंगे?एक तंबु के चादर पर रोशनी के माध्‍यम से परछाई के जरिये अभिनेता रितेश देशमुख द्वारा लडकी के साथ किया गया बेहद गंदा दृश्‍य उनके सहित फिल्‍मी दुनिया को कहॉं लाकर छोडता है?बैल की जनन प्रक्रिया के रूप में आफताब शिवसादानी के निकलने का दृश्‍य, पुरुष जननांग को लेकर सीधे-सपाट विकृत दृश्‍य, समाज में महिला वर्ग के मानस को कैसा बनाऍंगे इसकी फिक्र फिल्‍मी समाज को है?लडकियों के साथ फूहड और गंदे दृश्‍य, पूरी फिल्‍म में सेक्‍स प्रतीकोंके रूप में कॉमेडी के नाम पर अश्‍लील हरकतें, महानगर, शहरों, कस्‍बों और छोटे गांवों के हर युवा स्‍त्री–पुरुषों में कौन सा जहर भरेंगी?फिल्‍म में संवाद भी डबल मिनिंग नहीं बल्‍कि सीधे व सपाट हैं. ऐसी बहुत सारी हदों को लांघा गया है जिससे सेंसर बोर्ड के अंधे होने में कोई शक नहीं रह गया है.

पिछले साल हरियाणा में लगे बलात्‍कार के मासिक मेलेसे हतप्रभ, मुँह छिपाती राजनीति, चिथडे-चिथडे होती सामाजिक परंपराओं और संस्‍कारों की फोकली प्रतिष्‍ठा, उसके बाद राजधानी दिल्‍ली के चेहरे पर पुती निर्भयाबलात्‍कार की कालिख, (जो अभी ठीक से मिटी भी नहीं है, और उस घटना के घाव अब तक हरे हैं)इस साल सो कॉल्‍ड सेफसिटी के रूप में इतराती मुंबई में महिला पत्रकार की इज्‍जत को तार-तार करने की घटना और इन सबके बीच लगातार रोजाना देश के सुदूर गाँवों, अंचलों में बेटियों की अस्‍मिता पर डाका डालने की बुरी खबरें, यह सब हमारे बीमार और विकृत समाज की वास्‍तविक स्‍थिति प्रकट कर रही है. पुलिस, प्रशासन, सरकार, संसद समाज का हर वर्ग, हर संस्‍था, यहॉं तक की बॉलीवुड भी देश में बेटियों-बहनों के साथ हो रही इन घटनाओं पर चीख-चीखकर अपनी पीडा व्‍यक्‍त कर रहा है, समाज को जागृत करने के लिए छटपटा रहा है, वहीं ऐसे में बॉलीवुड में बन रही ग्रैंड मस्‍तीजैसी फिल्‍में और उन्‍हें पास करती सेंसर बोर्ड जैसी संस्‍थाओं की कामकाज की अंधी मस्‍तीपर सवाल उठना शुरू हो गए हैं.

टीवी न्‍यूज चैनल के पैनल्‍स में चिल्‍लाती पूजा बेदी हो या कलम के सिपाही जावेद अख्‍तर, तथाकथित स्‍त्री चेतना की आवाज बनती शबाना आजमी हो, या हमलावर मूड में दिखने वाले ओमपुरी, या फिर संजीदगी से लबरेज गंभीर बयानों से समाज को एक ही दिन में सुधारने का ठेका लेने वाली अनुपम खैर जैसी कई अन्‍य शख्‍सियतें, क्‍या इन्‍हें फिल्‍मी पर्दे से समाज में फैल रही वह मानसिक गंदगी दिखाई दे रही है, जिसने पिछले दस से बीस सालों में अपने कपडों को कम करके समाज की शर्म को उघाडा कर दिया है.

दाढी-मूंछ में एडल्‍ट का सर्टिफिकिट लेकर घूमने वाले युवा क्‍या मल्‍टीप्‍लेक्‍स के भव्‍य पर्दे पर इस तरह की फिल्‍म में एक स्‍त्री के गुप्‍तांगों को लेकर रचे गए प्रतीकात्‍मक सेक्‍स दृश्‍यों के प्रभाव से अपनी वयस्‍कता को समझदारी के स्‍तर पर बनाए रखते हैं?यहाँ तो बूढे भी बलात्‍कार के केस में पकडे जा रहे हैं, वह भी मासूम बच्‍चियों के साथ. स्‍कूल से भागकर चोरी-छिपे टिकिट की जुगाड कर हॉल में घुसने के लिए हाथ-पैर मार रहे बच्‍चों को तो यहीं मुंबई के मल्‍टीप्‍लेक्‍सों में आसानी से देखा जा सकता है, रिलीज के पहले दिन ही यह अनुभव रहा, उधर, रात के आखिरी शो में याचना और गिडगिडाहट के बाद 16 साल के लडके-लडकियॉं आपको अंदर मिल जाऍंगे. सोचिए महानगरों के मल्‍टीप्‍लेक्‍स थियेटरों का यह हाल है तो देश के कई राज्‍यों के छोटे कस्‍बों के सिंगल थियेटरों में, गॉंवों के कमरे में बंद सीडी प्‍लेयर्सों से क्‍या फैलाया जा रहा है?क्‍या फूहडता और सेक्‍स की अश्‍लील लीलाओं को देखने के बाद नाबालिक और युवा अपने आसपास, बच्‍चियों, लडकियों, औरतों के प्रति जो नजरिया अपना लेते हैं, वे क्‍या अभिव्‍यक्‍ति की स्‍वतंत्रता और मॉर्डन सोच वाला बॉलीवुड का समाज समझ पा रहा है. हाल ही में आई मराठी फिल्‍म बीपीइस संदर्भ में बच्‍चों के साथ-साथ फिल्‍मों के समाज पर व्‍यापक, गहरे और गंभीर प्रभाव को पूरी ईमानदारी के साथ सामने लाती है और उसके दूरगामी परिणामों को भी.

ग्रैंड मस्‍ती, क्‍या सुपर कूल हैं हम, देल्‍ही बैलीजैसी डबल मिनिंग संवादों, गीतों, आइटम सॉग्‍स वाली फिल्‍में हैं जिनके अश्‍लील दृश्‍य समाज के दिमाग में रील की तरह चलते हैं, और कहीं न कहीं दिल्‍ली सहित रोजाना देश के कोने-कोने से आ रही बलात्‍कार की घटनाओं में दिखाई पडते हैं. पैसे कमाने के लिए समाज को वह दिखाया जाए जो हमारे संस्‍कारों में छिपा है, गुप्‍त है, और अनुशासन में है और उसके पीछे यह तर्क दिया जाए कि समाज को खुला बनाओ, उसकी सोच को परिपक्‍व करो, संस्‍कारों की जकडन से बाहर करो, यह एक बेहूदा तर्क है जिसकी परिणिति बलात्‍कार और छेडछाड की बढती घटनाओं में हो रही है.

मनुष्‍य के जीवन के निजी और अंतरंग हिस्‍से को सार्वजनिक करना और फिर सेक्‍स को अपनी प्रतिष्‍ठा व सम्‍मान से जोडने वाले बेचारे अशिक्षित अपरिपक्‍व, अनपढ, गरीब, वंचित दबे-कुचले और शोषित समाज से सभ्‍य, सुसंस्‍कृत, शालीन और नैतिक बनें रहने की अपेक्षा करना. क्‍या यह दोहरे मापदंड,पैसे कमाने वाले प्रोड्यूसर और अपने कपडे उतारने वाले अभिनेताई समाज, दोनों के समझ में नहीं आते?ग्रैंड मस्‍ती फिल्‍मको लिखने वाले बेशर्म लेखक मिलाप जवेरी एक वेबसाइट को दिये अपने साक्षात्‍कार में इसकी आलोचना के प्रश्‍न पर कहते हैं-मुझे लगता है हमारे फिल्‍म समीक्षक मानसिक रूप से बडे नहीं हुए हैं, जबकि जनता परिपक्‍व हो चुकी है.मानों पूरे समाज का साक्षात्‍कार उन्‍होंने ही किया है, और बलात्‍कार की बढती घटनाएँ ही जनता की तथाकथित मानसिक परिपक्‍वता है. पॉर्न फिल्‍में करने वाली भारतीय मूल की सनी लियोनी ने भी भारत आने के बाद अब तक एक भी पॉर्न फिल्‍म नहीं की, और जो भी कि वह अपने पति के साथ की, जो पॉर्न फिल्‍में बनाने का काम करता है. प्रॉब्लम पॉर्न में नहीं है, मर्यादा की है, प्रोफेशल एथिक्‍स की है, ग्रैंड मस्‍तीसेक्‍स, गुप्‍तांगों और स्‍त्री-पुरुष संबंधों का दोयम दर्जे का एकदम महाघटिया संस्‍करण है, उनकी धज्‍जियॉं उडाता है, उन्‍हें गाली देता है. स्‍त्री और पुरुषों के बीच सहज शारारिक संबंध के सौंदर्य को इतना घिनौना, स्‍तरहीन और मजाक का विषय बनाकर दर्शाया है, जिसे देखकर हमारा पहले से ही सेक्‍स को लेकर विकृत समाज और बद्दिमाग होता है, और निर्भयाजैसी घटनाऍं होती हैं.

बॉलीवुड पूंजीवाद का एक अलग अड्डा है, उसके दिमाग में पूंजी का सुरुर चमक-धमक और सेक्‍स के साथ शराब, अफीम, चरस और कोकिन में घुलता है और कभी-कभी समलैंगिक भी हो जाता है. वह जिस मुंबई, दिल्‍ली, बैंगलोर जैसे महानगरों को देश का समाज मान बैठा है, वह जरा वहाँ से बाहर निकलकर, देश के गॉंवों, कस्‍बों और छोटे शहरों के समाज को भी देख ले, जहॉं समाज कुछ दूसरी स्‍थिति में है. भले ही वह कैसा हो, पर वैसा तो बिल्‍कुल भी नहीं है, जैसी सोच रखकर बॉलीवुड उन्‍हें ग्रैंड मस्‍तीदिखाना चाहता है और घरेलू सीरियलों में पहुँचकर परिवार सहित देखने के पीले चावल बॉंट रहा है. 

एक रूपये में वीडियो देखने का प्रचार कर रही मोबाइल कंपनियॉ समाज को कौन सा सेक्‍सुल धीमा डोज दे रही है यह बताने की जरूरत नहीं. बदलती तकनीक से झमाझम अपडेट हो रहे आईफोन, एन्‍ड्रायड फोन, कई एप्‍लीकेशन्‍स फीचर से सजे-धजे मोबाइल्‍स में चल रहे पॉर्न वीडियो मुंबई के पढे-लिखे खुले समाज में शाम की लौटती लोकल ट्रेनों का मनोरंजन बन गए हैं, तो सोचिए हरियाणा, यूपी, बिहार, मध्‍यप्रदेश सहित देश के कई राज्‍यों के कस्‍बों में क्‍या हो रहा है?घटनाऍं आकार यहीं से ले रही है. वहाँ तो बेरोजगारी, अशिक्षा, अभाव और आर्थिक शोषण वैसे ही युवाओं को निगले जा रहा है. वहॉं अवसाद को एक रूपये में पॉर्न बॉटा जा रहा है.

हाल ही में सूचना और प्रसारण मंत्रालय ने फिल्‍मों में आइटम सॉग्‍स पर रोक लगाने की पेशकश की है, लेकिन फिलहाल यह कोई आदेश में नहीं बदला है, ग्रैंड मस्‍ती जैसी फिल्‍मों पर रोक लगाने की मांग को लेकर महिला आयोग और न्‍यायालय में छटपटाहट है. बैचेनी उसमें दिखाई दे रही है. देश के कई शहरों से भी इस फिल्‍म के प्रदर्शन पर बैन लगाने की मांग की है, लेकिन बॉलीवुड तो केवल पैसे की अंधी भूख में उलझा है. एक भी सो कॉल्‍ड सेलीब्रीटी ग्रैंड मस्‍तीजैसी फिल्‍म पर बैन की मांग के साथ नहीं आई. कहॉं गए सब? क्‍या चैनल्‍स पर चिल्‍लाने वाले बॉलीवुड के सामाजिक सुधारक फिलहाल अपने दडबों में खामोशी की चिलम फूँक रहे हैं, ताकि रात को प्राइम टाइम में बलात्‍कार पर चिंता में छलने वाला चिंतन घोला जाए. 

बताते हैं कि सेंसर बोर्ड ने फिल्‍म के प्रदर्शन से पूर्व कई दृश्‍यों को छांटा-काटा और डबल मीनिंग संवादों को डिलिट करवाया, उसके बाद इसे एडल्‍ट फिल्‍म का सर्टीफिकेट देकर पास किया है. कमाल है कि उसके बाद भी यह फिल्‍म इतनी अश्‍लील, गंदी और फूहड है, तो पहले तो पता नहीं क्‍या होगी?प्रमोशन के दौरान परिवार के साथ उसके देखने की अपील छल के अलावा कुछ नहीं, ऐसे में क्‍या सेंसर बोर्ड अंधा है?और क्‍या ऐसी फिल्‍मों पर काम के नाम पर ग्रैंड मस्‍ती मार रहा है?

फिल्‍मों पर समाज का प्रभाव पडता है, वह उसके विवेक को संचालित करती है, वह उसके सामने उस सत्‍य को रखती है जो घट चुका है, छिपा है, भविष्‍य में घटने वाला है और वर्तमान में चल रहा है, ऐसे में यह निश्‍चित ही जिम्‍मेदारी का काम है कि बलात्‍कार की राजधानी होने का दुख व पीडा अपने दिल में लिए बैठा यह देश,फूहड और अश्‍लील फिल्‍मों से श्रंखलाबद्ध दिल के दौरों को न पाल बैठे.  वैसे भी अब तो यहॉं रोज बलात्‍कार हो रहे हैं.
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द्वंद्वात्मक भौतिकवाद – हेगेल से मार्क्स तक

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(जनपक्ष के पाठक जानते ही हैं कि मार्क्सवाद के मूलभूत सिद्धांतों को लेकर मैंने एक लेखमाला की शुरुआत की थी. उसकी कुछ किश्तें देने के बाद वह क्रम ब्लॉग पर रुक गया लेकिन युवा संवाद पत्रिका में लगभग नियमित रूप से वह कालम के रूप में ज़ारी है. आज एक बहस के बाद मुझे लगा कि इसे फिर से ज़ारी करने की ज़रुरत है तो बीच के कुछ अध्याय छोड़कर (जो मूलतः योरोपीय दर्शन में भौतिकवादी प्रवृतियों पर हैं) मैं द्वन्द्वात्मक भौतिकवादी प्रणाली पर लिखे दो अध्याय एक साथ प्रस्तुत कर रहा हूँ. पुराने लेख यहाँ पढ़े जा सकते हैं.)
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पूँजीवादी क्रान्ति के साथ दुनिया में पहली बार उद्योगपति और कामगार जैसा विभाजन सामने आया था. एक तरफ पूंजीपति थे जिनके पास पूँजी का नियंत्रण था और दूसरी तरफ वे लोग जो अपना मानसिक और शारीरिक श्रम पूंजीपतियों को बेचकर बदले में मज़दूरी पाते थे, जो उनके भरण-पोषण का इकलौता सहारा थी. ज़ाहिर है दोनों के हित एक-दूसरे से अलग होने थे. सामंती व्यवस्था योरप में ध्वस्त हो गयी थी. ऐसे में दर्शन के क्षेत्र में जो प्रवृतियाँ सामने आईं उन्हें हमने पिछले अध्यायों में विस्तार से देखा है. यांत्रिक भौतिकवाद के सन्दर्भ में हमने देखा कि दुनिया को किसी यंत्र की तरह चलने वाला मान लिया गया था, जिसके तहत दुनिया के बदलावों को एक क्रम-विकास के तहत माना गया और फिर इस प्रक्रिया को शुरू करने के लिए जिस बाहरी ताक़त की ज़रुरत थी, वह ईश्वर को मान लिया गया. क्रम विकास की यह प्रक्रिया निरंतर, निर्विघ्न और अटूट मानी गयी. लेकिन जैसा कि इतिहास में देखा गया था यह प्रक्रिया रेखीय नहीं थी. इतिहास के विकास में कई बार इतिहास छलाँग मारकर एक मंज़िल से दूसरी मंज़िल तक पहुँचता दिखाई देता है. जैसे सामंतवाद से पूंजीवाद में परिवर्तन. जहाँ यांत्रिक भौतिकवादी इसे भी उसी निरन्तरता की एक कड़ी मान लेते थे.
हेगेल ने पहली बार इन गुणात्मक बदलावों को अलग करके देखा. उन्होंने लिखा ‘जिस तरह एक बच्चे के जन्म के दौरान, एक लम्बे समय के खामोश पोषण के बाद, आकार की लगातार वृद्धि की निरन्तरता रुपी मात्रात्मक बदलाव में बच्चे के पहली साँस लेने के साथ ही एक रुकावट आती है. प्रक्रिया में निरन्तरता एक गुणात्मक बदलाव के रूप में टूटती है और बच्चे का जन्म होता है.’ (हेगेल, फेनामेनालाजी आफ माइंड से, यहाँ मारिस कान्फोर्ड की किताब ‘द्वंद्वात्मक भौतिकवाद’ से उद्धृत

यह प्रस्तावना क्रम-विकास की अवधारणा से अलग थी. इस गुणात्मक परिवर्तन के कारणों की तलाश में हेगेल ‘द्वंद्व’ तक पहुँचे. उन्होंने कहा कि ‘द्वंद्व’ सभी तरह के जीवन और गति के मूल में हैं. जहाँ अंतर्विरोध काम कर रहे होते हैं, वहीँ विकास की शक्ति मौज़ूद होती है या यों कहें कि वास्तविक वस्तुओं का विकास उनकी धारणाओं में मौजूद अंतर्विरोधों के कारण होता है. चूंकि हेगेल के लिए दर्शन का प्रयोजन ‘प्रकृति और अनुभवों द्वारा सारे जगत को, जैसा वह है वैसा समझना था और उसका ‘परमतत्व’ मन और भौतिक तत्व (जिन्हें वह अलग-अलग नहीं बल्कि परम तत्व के आत्मप्रकाश के एक ही प्रवाह के दो अभिन्न अंग मानता था) थे तो भौतिक तत्व से सम्बद्ध उसके परमतत्व को भी स्थिर नहीं, चलायमान ही होना था. इस गति के कारण के रूप में उसने ‘द्वंद्व’ या ‘अंतर्विरोध’ की पहचान की. उदाहरण के लिए अणु था जिसमें धनात्मक प्रोटान और ऋणात्मक इलेक्ट्रान होते है और गति इन विरोधी अवयवों की आपसी अंतर्क्रिया से होती है. ऊपर दिए गए उद्धरण में गर्भ के सन्दर्भ में भी हमने यह देखा.

दर्शन के क्षेत्र में हेगेल का यह विचार क्रांतिकारी था. एंटी ड्यूहरिंग में एंगेल्स कहते हैं, ‘इस प्रणाली में पहली बार समस्त प्राकृतिक, ऐतिहासिक एवं बौद्धिक जगत को एक प्रक्रिया के रूप में प्रस्तुत किया है – और यही इसका सबसे बड़ा गुण है...इस प्रणाली को अपनाने पर मानवजाति का इतिहास ऐसे बुद्धिहीन, हिंसात्मक कार्यों का दिशाहीन चक्रवात नहीं लगता था जो परिपक्व दार्शनिक बुद्धि की अदालत में समान रूप से निंदनीय थे और जिन्हें यथाशीघ्र भूल जाना ही उचित है ; बल्कि इतिहास स्वयं मनुष्य के विकास की प्रक्रिया प्रतीत होने लगा था. अब बुद्धि का काम यह था कि यह प्रक्रिया जिन टेढ़े-मेढे रास्तों से गुज़रती है उनका पता लगाए, इस क्रमिक विकास क्रिया की विभिन्न अवस्थाओं का अध्ययन करे और ऊपर से आकस्मिक प्रतीत होने वाली इसकी समस्त घटनाओं में अन्तर्निहित नियमितता को खोज कर निकाले.’ 

हेगेल के अनुसार विश्व निरंतर होते विकासों का प्रवाह है और ये विकास उसके भीतर उपस्थित अंतर्विरोधों के कारण हैं. द्वंद्व के चलते ही एक चीज़ बिलकुल खुद से अलग दूसरी चीज़ में बदल जाती है. इसके लिए उसने वाद, प्रतिवाद और संवाद (thesis, antithesis and synthesis) की प्रक्रिया बताई. यानि पहले एक अवयव, फिर उसका विरोधी अवयव और फिर दोनों के सामंजस्य से तीसरी चीज़ जो मूल वस्तु से बिलकुल अलग है. अंतर्विरोधों की इसी श्रृंखला से नए विचार आकार लेते हैं और विचार के यह विकास आगे चलकर भौतिक जगत में वास्तविक परिवर्तनों के रूप में दिखाई देते हैं. समस्या यहीं है. हेगेल भाववादी हैं और उनका मानना यह है कि ‘वस्तुएं और उनका विकास क्रम उस “विचार” के मूर्त रूप थे जो संसार के जन्म के पहले से ही कहीं पर अनन्त काल से विद्यमान है.’ इस तरह पूरी प्रक्रिया एक ‘परमतत्व’ की अनंतकाल से उपस्थिति से निर्धारित होती है. उनके अनुसार इस ‘अनंत काल से उपस्थित चेतना से ही जीवन निर्धारित होता है. ईश्वर ही चेतना का सर्वोच्च प्रतीक है तथा प्रशा का राज्य इसका सर्वोच्च प्रतिनिधि.” एक तरफ तो वह विश्व को ‘निरंतर होते विकासों का प्रवाह’ कहते हैं तो दूसरी तरफ हो रहे तथा भविष्य में होने वाले सभी बदलावों को पहले से उपस्थित विचार का प्रतिबिंब मात्र बनाकर वास्तविक परिवर्तनों तथा इसमें मनुष्य की भूमिका को खारिज़ भी करते हैं. यहाँ तक कि  सभी सत्ताओं की बुरी लगने वाली बातों को भी भ्रम और अंततः शुभ कहकर वह प्रशा (जिस राज्य में वह रहता था) के राजा के राज्य को ही नहीं उसकी निरंकुशता और अत्याचार को भी वैधानिकता प्रदान करता है और अपने दर्शन को एक यथास्थितिवादी दर्शन में तब्दील कर देता है.

मार्क्स ने हेगेल के दर्शन के क्रांतिकारी पक्ष ‘द्वंद्ववाद’ का उपयोग किया और इसे भौतिकवाद से जोड़कर इसे एक सकर्मक तथा क्रांतिकारी दर्शन ‘द्वंद्वात्मक भौतिकवाद’ में तब्दील कर दिया.

उनके इस दर्शन को समझने से पहले थोडा उनके बारे जान लेते हैं. यह इसलिए भी ज़रूरी है कि इससे वह वैचारिक-सामाजिक-राजनैतिक पृष्ठभूमि मिलती है जिसने मार्क्स को गढ़ा. कार्ल मार्क्स का जन्म जर्मनी के राइन प्रदेश के त्रियेर नामक शहर के एक खुशहाल यहूदी परिवार में 5मई, 1818को हुआ था.  राइन जर्मनी के उन प्रदेशों में था जो 1789-1794की महान फ्रांसीसी क्रांति से बेहद प्रभावित हुए थे. 1795में इसके बांये तट के इलाके को नेपोलियन ने फ्रांस में मिला लिया था और सामंतवादी व्यवस्था को बुनियादी तौर पर मिटाकर नेपोलियन संहिता के तहत अधिक प्रगतिशील जनतांत्रिक कानून लागू किए गए थे. नेपोलियन की हार के बाद 1815में राईन प्रांत पर प्रशा का अधिकार हो गया  जो आर्थिक और राजनीतिक दृष्टि से विखंडित जर्मनी के सबसे प्रतिक्रांतिकारी राज्यों में से एक था. प्रशा की सांमती निरंकुश राज्य.व्यवस्था कुलीनों के विशेषाधिकार और पुलिस के अत्याचार से आम जन ही नहीं, वहां की बुर्ज़ुआजी भी असंतुष्ट थी फ्रांसीसी क्रांति की कोख से जन्में मुक्ति और परिवर्तन के विचारों की छाप अब भी वहां स्पष्टतः मौजूद थी.

कार्ल मार्क्स के पिता हाइनरिष मार्क्स भी इस प्रभाव से अछूते न थे और उनकी पहचान यथोचित प्रतिनिधित्व आधारित राजनीतिक के व्यवस्था के समर्थक तथा प्रशा में यहूदियों के साथ होने वाले भेदभाव के विरोधी के रूप में थी प्रशा के कानून के अनुसार कुछ पद और व्यवस्थाएं के लिए निषिद्ध थे इसलिए अपना वकालत का जारी रखने के लिए उन्होंने 1824में अपने पूर्वजों का धर्म तथा अपना नाम ‘हर्शेल’ बदलकर प्रोटेस्टेंट धर्म अपना लिया था. वाल्तेयर और रूसो के प्रशंसक हाइनरिष को याद करते हुए उनकी पत्नी एलेओनोर ने उन्हें 18वीं सदी का सच्चा फ्रांसीसी कहा है.युवा मार्क्स पर अपने पिता के उदारवादी विचारों की गहरी छाप थी.

1830से 1835तक मार्क्स ने त्रिएर के जिम्नेजियम (उच्चतर माध्यमिक विद्यालय) में शिक्षा प्राप्त की. इस काल में ही मार्क्स का वैचारिक विकास आरंभ हो चुका था जिसका प्रमाण था विद्यालय की अंतिम परीक्षा में लिखा उनका निबंध “व्यवसाय के चयन पर एक तरूण के विचार.”इस निबंध पर प्रबोधनकाल के प्रगतिशील विचारों का स्पष्ट  प्रभाव था यहा उन्होंने निजी महत्वाकांक्षाओं को अस्वीकार कर मानव जाति सेवा को व्यवसाय चयन का अपना आधार स्वीकार किया था. उन्होंने इस निबंध में लिखा ‘यदि हम ऐसा व्यवसाय चुनते हैं, जिसके क्षेत्र में ही मानव जाति के हित में सबसे अधिक कार्य कर सकते हैं तो उसके बोझ तले झुकेंगे नही क्योंकि यह सबसे नाम पर बलिदान होगा तब हमें स्वार्थपूर्ण  सीमित व तुच्छ खुशी का अनुभव नहीं होगा हमारा सुख कोटि जन का सुख होगा बाद के वर्षों में विचारों में अनेक गुणात्मक परिवर्तनों के बावजुद मानव  जाति के लिए काम करना सदैव उनका प्रिय मुहावरा बना रहा.’
 अक्तूबर 1835में कानून के अध्ययन के लिए उन्होंने बोन विश्वविद्यालय के विधि.संकाय में दाखिला लिया लेकिन उनकी रूचि इससे अधिक कविता इतिहास और दर्शन में थी छात्र जीवन में उन्होंने कई सानेट, एक काव्य नाटक आंलानेग और व्यंग्य उपन्यास बिच्छू तथा फेलिक्स लिखा. दर्शन के लिए मार्क्स का उत्साह केवल अकादमिक नहीं था. उन दिनों दार्शनिक बहसों के केंन्द्र में समाज इतिहास और मानव के विकास की संभावनाओं के प्रश्न थे. इन उत्कट बहसों पर सबसे अधिक प्रभाव उस दौर के महान दार्शनिक हेगेल का था.

उस काल में मार्क्स के अध्ययन का प्रमुख क्षेत्र प्रचीन यूनानी रोमन दर्शन था अपने शोध प्रबंध के लिए उन्होंने “डेमोक्राइट्स और एपिक्युरस के प्रकृति दर्शनों में भेद” विषय चुना था. हेगेल के विपरीत मार्क्स धर्म और अंधविश्वास के विरूद्ध खड़े भौतिकवादी दार्शनिक एपिक्युरस से अत्यंत प्रभावित थे. उन्होंने मानव जाति के सुख के लिए आत्मबलिदान करने वाले मिथकीय प्रोमीथियस के कथन : “सच कहा जाए तो मुझे सभी देवी देवताओं से घृणा है” को अग्रणी दर्शन की स्वीकारोक्ति बताया जिसका उदात्त प्रयोजन वह आकाश और धरती पर बसे सभी देवताओं के विरूद्ध संघर्ष को ही मानते थे. अब तक वे पक्के निरीश्वरवादी बन चुके थे. वह जानते थे कि प्रशा के प्रतिक्रियावादी माहौल में शोध का वैज्ञानिक मूल्यांकन असंभव है, इसलिए उन्होंने इसे येन विश्वविद्यालय में भेजा जहां से अप्रैल 1841में उन्हें डाक्टरेट की उपाधि मिली. पहले से ही उदारवादी विचारों से प्रभावित कार्ल मार्क्स वामपंथी हेगेलवादी युवा छात्रों के उस दल “डाक्टर्स क्लब” से जुड़ गए जो हेगेल के दर्शन से निरीश्वरवादी तथा क्रांतिकारी निष्कर्ष निकालने की चेष्टा करता था. वामपंथी हेगेलवादी और उनके साथी प्रशा के अत्याचारी शासन के विरोधी थे. उनके लिए 1789की फ्रांसीसी क्रांति प्रबोधन, परिवर्तन तथा उन प्रगतिशील विचारों का प्रतीक थी जिनसे  सामंती जर्मनी को भी एक आधुनिक पूंजीवादी जनतंत्र में बदला जा सकता था.

तो प्रशा के राजभक्त हेगेल के लिए द्वंद्व के जो यथास्थितिवादी मायने निकलते थे, ज़ाहिर है परिवर्तनकामी मार्क्स के लिए वे स्वीकार्य नहीं होते. उन्होंने कहा कि ‘इतिहास गति मानवीय क्रियाओं से तय होती है...और यह भी कि मानवीय विवेक में परिवर्तन भौतिक विश्व तथा उत्पादन की स्थितियों में परिवर्तन की प्रक्रिया में ही होता है. दुनिया को बदलने की प्रक्रिया में मनुष्य अपने विचारों को भी बदलता है.  उन्होंने कहा कि  ‘एक साथ खुद को तथा परिस्थितियों को बदलना एक ऐतिहासिक प्रक्रिया है’. ‘जर्मन विचारधारा’ में उन्होने लिखा  जीवन चेतना से निर्धारित नहीं होता अपितु चेतना जीवन से निर्धारित होती हैइस तरह हेगेल के उलट मार्क्स के लिए वास्तविक जगत किसी पहले से उपस्थित विचार का मूर्त रूप न था बल्कि विचार खुद वास्तविक जगत के परिवर्तनों के साथ पैदा होने वाली चीज़ थे. पूँजी के दूसरे खंड में उन्होंने लिखा है, ‘ हेगेल के लिए मानव मष्तिष्क की जीवन प्रक्रिया यानि चिंतन की प्रक्रिया, जिसे विचार के नाम से उन्होंने एक स्वतंत्र करता बना डाला है, वास्तविक संसार का सृजन करने वाली है. इसके उलट मेरे लिए विचार इसके सिवा और कुछ नहीं है कि भौतिक संसार मानव मष्तिष्क में प्रतिबिम्बित होता है और चिंतन के रूपों में बदल जाता है.’ मार्क्स के पहले फायरबाख ने प्रकृति में द्वंद्वात्मक-भौतिकवादी तरीके से विकास की व्याख्या की थी. लेकिन वह मानवसमाज तथा इतिहास में इसे लागू नहीं करते थे. मार्क्स ने इसके आधार पर मानव समाज तथा अब तक के इतिहास में आये परिवर्तनों की भी व्याख्या की. 
द्वंद्व या विरोधाभास ही सभी तरह की गति के मूल में हैं. प्रकृति या मानव समाज दोनों में हमेशा विपरीत तत्व उपस्थित रहते हैं और उनके बीच संघर्ष चलता रहता है. विकास परस्पर विरोधी प्रवृतियों व् तत्वों के बीच का संघर्ष है. इस तरह कोई भी वस्तु या इतिहास का कोई दौर, समाज सम्पूर्ण, अंतिम या निरपेक्ष नहीं है. परिवर्तन की इस प्रक्रिया में मनुष्य के नए विचार जन्म लेते हैं. इस संघर्ष में समाज परिमाणात्मक (Quantitative) परिवर्तनों से गुणात्मक (Qualitative) परिवर्तनों की ओर जाता है और विकास की निम्नतर मंज़िल से उच्चतर मंज़िल की ओर जाने की इस प्रक्रिया में समाज में मूलभूत परिवर्तन होते हैं.

साथ ही मार्क्स के अनुसार न तो प्रकृति न समाज अलग-अलग वस्तुओं या मनुष्यों का समुच्चय है जो एक दूसरे से स्वाधीन हैं बल्कि दोनों जगह सभी पदार्थ और मनुष्य ‘एक दूसरे से सम्बद्ध, एक दूसरे पर निर्भर तथा एक दूसरे द्वारा निर्धारित होने वाले हैं.’ किसी भी मनुष्य का अध्ययन उसे समाज से काट के नहीं किया जा सकता. जैसा समाज और जैसी अर्थव्यवस्था होगी, वैसा ही मनुष्य होगा. किसी मनुष्य की चेतना किसी स्वर्ग से बनकर नहीं आती बल्कि वह जिस समाज में और जिन परिस्थितियों में रहता है, उसकी चेतना भी वैसी ही होती है तथा वह इससे प्रभावित होने के साथ-साथ इसे प्रभावित भी करता है और इस तरह उसकी चेतना का विकास भी होता है. ‘फायरबाख पर निबंध’ में मार्क्स लिखते हैं, ‘यह भौतिकवादी सिद्धांत कि मनुष्य परिस्थितियों एवं शिक्षा-दीक्षा की उपज है, और इसीलिए परिवर्तित मनुष्य भिन्न परिस्थितियों एवं बदल दी गयी शिक्षा-दीक्षा की उपज है, इस बात को भुला देता है कि परिस्थितियाँ मनुष्य ही बदलते हैं और शिक्षक को स्वयं शिक्षा की ज़रुरत होती है.’

मार्क्स का द्वंद्वात्मक भौतिकवाद अब तक के सभी भाववादी दर्शनों के विपरीत दुनिया में होने वाले परिवर्तनों में किसी ईश्वर की जगह मनुष्य की सकर्मक भूमिका को स्थापित करता है. फायरबाख पर निबंध के अंतिम हिस्से में वह कहते हैं कि ‘अब तक के दार्शनिकों ने विभिन्न तरीकों से विश्व की केवल व्याख्या की है, सवाल दुनिया को बदलने का है.’ मार्क्स ने अपने दर्शन के सहारे न केवल इतिहास के अब तक के विकास की ‘वर्ग संघर्षों’ के रूप में व्याख्या की ( कम्युनिस्ट मैनिफेस्टो की पहली पंक्ति याद करें – ‘अब तक का ज्ञात इतिहास वर्ग संघर्षों का इतिहास है) बल्कि भविष्य के परिवर्तनों के लिए मार्ग भी प्रशस्त किया. पूँजीवाद के तहत पैदा हुए बुर्ज़ुआ (पूंजीपति) तथा सर्वहारा (कामगार) वर्ग के बीच के संघर्ष को उन्होंने रेखांकित किया और बताया कि सर्वहारा विश्व को आगे ले जाने वाली शक्ति है/ था पूँजीवाद और सर्वहारा के बीच संघर्ष में सर्वहारा की जीत सुनिश्चित है. यह कोई दैवी भविष्यवाणी नहीं थी जिसे संयोगों के आधार पर घटना था. इसके लिए ज़रुरत थी सर्वहारा के अपने संगठन और पूंजीपति वर्ग से उसके तीखे और फैसलाकुन संघर्ष की. 

द्वंद्वात्मक भौतिकवाद : गतिकी के नियम  

द्वंद्वात्मक भौतिकवाद मार्क्सवाद का दर्शन है. ज़ाहिर है कि दुनिया को बदलने की ख्वाहिश रखने वाले विचार का दर्शन अकर्मक तो हो नहीं सकता. यह वस्तुतः ‘कर्मों’ का मार्गदर्शक सिद्धांत है. यानि वास्तविक जगत में शोषण विहीन व्यवस्था की स्थापना के लिए पथ प्रदर्शित करने वाला दर्शन. तो ज़रूरी होगा कि मार्क्सवाद की अन्य प्रस्थापनाओं पर जाने से पहले इस दर्शन के वास्तविक जगत में अनुप्रयोगों पर कुछ बात कर ली जाय.

मारिस कान्फोर्ड कहते हैं कि ‘द्वंद्ववाद का उद्देश्य संसार में वास्तविक परिवर्तनों तथा अंतर्संबंधों की खोज करना है.’ इसका अर्थ क्या है? पहली बात तो यह कि वास्तविक परिवर्तन शून्य में पैदा नहीं होते. न ही किसी दैवी नियम से. उनके ठोस कारण होते हैं. उन कारणों की तलाश किये बिना उन्हें लाना संभव नहीं. दूसरा यह कि संसार में होने वाली समस्त आर्थिक-सामाजिक-राजनैतिक क्रियाएं एक दूसरे से मुक्त नहीं होतीं. वे अन्य संक्रियाओं से प्रभावित भी होती हैं और उन्हें प्रभावित भी करती हैं. उदाहरण के लिए हम संस्कृति को ले लें. किसी भी राजनैतिक-सामाजिक व्यवस्था में संस्कृति उस व्यवस्था की उत्पाद होती है. राजा-महाराजाओं के काल में जो संस्कृति थी वह आधुनिक युग में नहीं है. आधुनिक युग में उसका लोप होना आधुनिक सामाजिक-आर्थिक व्यवस्था में अन्तर्निहित है. नए समय के सांस्कृतिक प्रतीक नए समय की ज़रूरतों और पसंदगियों के अनुरूप ही हो सकते हैं. पुराने समय के सभी त्यौहार-उत्सव कहीं न कहीं कृषि से जुड़े हुए थे लेकिन नए समय में कृषि के उत्पादन का प्रमुख साधन हो जाने के बाद उनका पुराना स्वरूप भी बदला और नए सामाजिक ढाँचे के अनुसार नए त्यौहार भी आये. संस्कृति न सिर्फ़ नयी सामाजिक-आर्थिक संरचना के साथ बदलती है बल्कि उसे प्रभावित भी करती है. इसीलिए आप देखेंगे कि शीत युद्ध के दौर में अमेरिका की गुप्तचर एजेंसी सी आई ए ने विचारहीनता, अराजनीतिक और अ-यथार्थवादी संस्कृति, कला और साहित्य के प्रचार प्रसार और उसका वर्चस्व स्थापित करने के लिए कांग्रेस फार कल्चरल फ्रीडम, फ़ोर्ड फाउंडेशन और राकफेलर जैसी संस्थाओं को अकूत धन दिया क्योंकि सांस्कृतिक कार्यकर्ताओं, लेखकों और फिल्मकारों के बीच वामपंथी विचारों का तेज़ी से फैलता प्रभाव उन्हें अपने वजूद के लिए ख़तरा लग रहा था. खैर, संस्कृति के प्रश्न पर हम आगे चर्चा करेंगे.

अभी मेरा उद्देश्य विभिन्न परिवर्तनों के अंतर्संबंध का एक उदाहरण देना था. इसलिए द्वंद्वात्मक भौतिकवाद चीजों को उनके पार्थक्य में नहीं बल्कि ‘दूसरी वस्तुओं के साथ इसके अटूट संबंध में’ देखता है. इसे  एक और उदहारण से समझना बेहतर होगा. हिन्दू समाज में जाति व्यवस्था प्राचीन काल से एक बेहद मज़बूत और कट्टर व्यवस्था के रूप में उपलब्ध रही है.  जातियों को लेकर समाज में एक सहजबोध भी है. यह ‘जातिगत’ विशेषता के रूप में प्रचलित किया जाता है. जैसे यह कि ब्राह्मण हमेशा विद्वान होंगे, क्षत्रिय होगा तो बलवान होगा, वैश्य व्यापारिक बुद्धि में कुशल होगा और दलित कम बुद्धि का होगा...वगैरह-वगैरह. अगर बाक़ी चीजों से काट के सिर्फ़ उदाहरणों की बात करेंगे तो समाज से इस धारणा को पुष्ट करने वाले उदाहरण भी मिल जायेंगे. इस तरह उनकी अवस्था को एकांगी तरीके से और दूसरी चीजों से काटकर देखने से ऐसा निष्कर्ष सामने आयेगा कि उनकी यह ‘प्रकृति’ अंतिम है और इस रूप में उसे बदला नहीं जा सकता. अगर कहीं इसमें विचलन दिख भी रहा है तो वह बस एक ‘अपवाद’ के रूप में है. लेकिन एक द्वंद्वात्मक भौतिकवादी नज़रिया इस बात को अलग तरीक़े से व्याख्यायित करेगा. वह वर्ण विभाजन के साथ हुए श्रम विभाजन के तहत हज़ारो वर्षों से इन जातियों को सौंपे गए विशेषाधिकारों और वंचनाओं की रौशनी में इसे देखेगा. वह विवेचना करेगा कि जिस तरह कुछ जातियों का संपत्ति और ज्ञान पर एकाधिकार रहा और कुछ जातियों को इन सबसे वंचित रखा गया, सदस्यों की मानसिक बनावट उसी के अनुरूप बनी. यह कोई ईश्वरीय या जन्मजात प्रवृतियाँ नहीं थीं बल्कि उन सामाजिक-आर्थिक-राजनैतिक परिस्थितियों की उपज थीं जिसमें इन सामजिक संरचनाओं का जन्म हुआ. इसीलिए इनके लिए दोषी वे लोग नहीं बल्कि वे हालात हैं और उन हालात को बदलकर ही इन विशिष्टताओं को बदला जा सकता है. इस तरह एक मार्क्सवादी व्यक्तियों को दोषी ठहरा कर यथास्थिति पर दुखी होने या उन परिस्थितियों के अपरिहार्य होने के यथास्थितिवाद (जो जैसा है, वैसा ही रहे) की जगह सामाजिक-आर्थिक परिस्थितियों में आमूलचूल परिवर्तन की माँग और उसका प्रयास करेगा जिससे मनुष्य की भौतिक परिस्थितियाँ बदल सकें और उसका समग्र विकास हो सके. वह इस सिद्धांत को मानेगा कि ‘मनुष्य अपनी भौतिक परिस्थितियों का उत्पाद है और इन्हें बदलने की प्रक्रिया में वह खुद भी बदल जाता है’. वह जातिवाद जैसी संस्था के ख़ात्मे की बात करेगा. इस प्रक्रिया में वह किसी ‘निष्पक्षता’ की जगह एक स्पष्ट पक्षधरता के साथ सामने आता है. असल में निष्पक्षता एक प्रकार का यथास्थितिवादी औज़ार ही है जो अक्सर शोषक के पक्ष में इस्तेमाल होता है. जहाँ स्पष्ट रूप से एक वर्ग दूसरे का शोषण कर रहा है वहाँ निष्पक्षता का अर्थ शोषक को अपनी कार्यवाही करते रहने की आज़ादी देना है. एक मार्क्सवादी घोषित तौर पर अपने वर्ग के साथ होता है और इसीलिए वह वंचित वर्ग के पक्ष में आवाज़ उठाता है. लोकतंत्र या ‘निष्पक्षता’ एक ऐसे समाज में ही लागू हो सकती है जहाँ सभी लोग समान हों. जहाँ असमानताएं हैं, वहाँ यह गरीब की लाठी के आगे अमीर की बन्दूक को हथियार के नाम पर एक मान लेने जैसा ही होगा.

यह मान लेना भी ग़लत होगा कि यह कोई बनी-बनाई पद्धति है जिसमें हर चीज़ को फिट करने की कोशिश की जाती है. इसके उलट इसका प्रयोजन चीजें वास्तविक रूप में जैसी हैं, वैसे ही उनकी तलाश करना और उन्हें व्याख्यायित करना है. यह लेनिन के शब्दों में ‘ठोस परिस्थितियों का ठोस आकलन’ है. वह कहते हैं, ‘वास्तविक द्वंद्ववाद एक प्रक्रिया के इसके समस्त ठोस रूप में सम्पूर्ण तथा ब्यौरेवार विश्लेषण के माध्यम से आगे बढ़ता है. द्वंद्ववाद का मूल सिद्धांत है : अमूर्त सत्य जैसी कोई चीज़ नहीं होती, सत्य सदा ठोस होता है.’ स्पष्ट है कि जो ठोस नहीं अमूर्त है, उसकी न तो खोज की जा सकती है न ही उसे समझा जा सकता है लेकिन जो ‘ठोस’ है उसके बारे में सम्पूर्णता से पता लगाया जा सकता है. द्वंद्वात्मक पद्धति यही करती है, इसीलिए इसमें किसी कल्पित स्वर्ग-नर्क-देवता-भूत-प्रेत के लिए कोई जगह नहीं. वह इन चीजों को आँख मूंदकर मान लेने की जगह तथ्यों और तर्कों पर इनकी पड़ताल करता है. अंध-आस्था को एक मूल्य की तरह स्वीकारने की जगह यह विज्ञान में आस्था प्रकट करने वाली एक वैज्ञानिक पद्धति है.
द्वंद्वात्मक पद्धति को हम इसकी गति के तीन नियमों से समझ सकते हैं – 

(१) विपरीतों की एकता और संघर्ष का नियम, (२) मात्रा के गुण में परिवर्तन के नियम और (3) निषेध का निषेध.  

प्रकृति तथा समाज, दोनों में विकास विपरीत तत्वों की एकता और संघर्ष से होता है. किसी भी प्रक्रिया या वस्तु में विपरीत रुझानों का संघर्ष चलता रहता है. दोनों रुझान एक ही प्रक्रिया में एक ही साथ सक्रिय होते हैं. यही ‘विपरीतों की एकता’ है. लेकिन एक ही प्रक्रिया का हिस्सा होने के बावज़ूद इनमें एक अंतर्विरोध चलता रहता है. यह ‘विपरीतों का संघर्ष’ है. इस एकता और संघर्ष से ही गतिमानता पैदा होती है. उदाहरण के लिए हम प्रकृति में बिजली या चुम्बक की बात कर सकते हैं. दोनों में ऋणात्मक और धनात्मक ध्रुव होते हैं. ये चुम्बकत्व या विद्युत् धारा के प्रवाह की प्रक्रिया में एक साथ उपस्थित होते हैं. इन ‘विपरीतों की एकता तथा उनके अन्तरविरोध’ से ही चुम्बक में आकर्षण या विद्युत धारा में प्रवाह का गुण पैदा होता है. गौर से देखा जाय तो यह ‘धनात्मकता’ या ‘ऋणात्मकता’ भी पार्थक्य में नहीं एक दूसरे के परिप्रेक्ष्य में ही अस्तित्वमान होती हैं और इस तरह जो बात हमने पहले कही कि ‘द्वंद्वात्मक भौतिकवाद चीजों को उनके पार्थक्य में नहीं बल्कि ‘दूसरी वस्तुओं के साथ इसके अटूट संबंध में’ देखता है’ इस विज्ञान सम्मत उदाहरण द्वारा पुष्ट होती है. वैसे आइन्स्टीन का सापेक्षता सिद्धांत तो इसके लिए व्यापक वैज्ञानिक आधार प्रदान करता ही है. विज्ञान से इतर समाज में भी यह नियम बहुत स्पष्ट तरीके से परिवर्तनों को व्याख्यायित करता है. ऐतिहासिक भौतिकवादी तरीके से इतिहास में हुए परिवर्तनों का विस्तार से अध्ययन हम आगे करेंगे. अभी उदाहरण के लिए हम यह देख सकते हैं कि किसी भी आर्थिक व्यवस्था में जो उत्पादन पद्धति होती है वह ऐसे ही दो विपरीत रुझान वाले तत्वों की संयुक्त निर्मिति होती है. उदाहरण के लिए पूँजीवाद में ही एक उत्पादन प्रक्रिया में एक तरफ मालिकान होते हैं तो दूसरे तरफ मानसिक या शारीरिक कामगार. मालिक का रुझान होता है कि अधिक से अधिक काम कम से कम मज़दूरी पर मिले ताकि मुनाफा अधिकतम हो, लेकिन कामगारों (चाहे वे मैनेजर हों या मज़दूर) का रुझान अच्छी से अच्छी तनख्वाह तथा दूसरी सुविधाओं पर होता है. इन दो विपरीत रुझानों के बावज़ूद इनमें से किसी एक की अनुपस्थिति में उत्पादन संभव ही नहीं. इस तरह वे एकताबद्ध हो उत्पादन करते हैं, लेकिन उनके विपरीत रुझानों के कारण संघर्ष भी लगातार चलता रहता है और उत्पादन में गति इसी से आती है.

लेकिन विपरीतों की एकता और संघर्ष से होने वाले परिवर्तन मात्रा में ही नहीं होते, इनसे एक सीमा के बाद व्यवस्था का मूलभूत गुण ही बदल जाता है. ज़ाहिर है कि वस्तु में समस्त परिवर्तनों का एक मात्रात्मक (Quantitaive) पक्ष होता है. इसमें परिवर्तन मात्रा में होता है, लेकिन प्रकृति (nature) नहीं बदलता. लेकिन यह मात्रात्मक परिवर्तन अनंत काल तक ज़ारी नहीं रह सकता. एक क्रांतिक बिंदु (critical point) पर पहुँच कर यह गुणात्मक परिवर्तन (Qualitative change) बन जाता है, यानि वस्तु का मूलभूत गुण ही बदल जाता है. प्रकृति में इसका सबसे साधारण उदाहरण पानी का गर्म /ठंढा किया जाना है जहाँ वह अनिश्चित काल के लिए गर्म/ठंढा नहीं होता बल्कि एक क्रांतिक अधिकतम/न्यूनतम तापमान के बाद इसकी प्रकृति बदल जाती है और यह भाप/बर्फ में बदल जाता है. समाज ने भी परिवर्तन के ऐसे चरण देखे हैं. अपने यहाँ देखें तो औपनिवेशिक शासन के लूट के मद्देनज़र उपनिवेशवादी अंग्रेज़ी शासन और उपनिवेश विरोधी भारतीय स्वाधीनता सेनानियों के बीच जो लंबा संघर्ष चला वह अनंत काल तक चलता ही नहीं रहा, पहले मात्रात्मक परिवर्तन आये, छोटे-बड़े अधिकार मिले फिर जब यह चरम पर पहुंचा तो उपनिवेशवाद अपना बोरिया-बिस्तर समेत कर चलता बना तथा देश की राजनीतिक अवस्था में गुणात्मक परिवर्तन आये. वर्गों की उत्पति और संघर्ष का अध्ययन करते हुए हम इसे और व्यापक रूप से देखेंगे जहाँ दो वर्गों के संघर्ष की परिणिति पूरी व्यवस्था में आमूलचूल परिवर्तन और नई उत्पादक शक्तियों के रूप में नए वर्गों के उदय में यह प्रक्रिया स्पष्ट दिखाई देती है.

लेकिन इस गुणात्मक परिवर्तन की दिशा क्या होगी? क्यों वह ख़ास रूप में ही नयापन हासिल करता है? इस वास्तविक कार्यशीलता को ‘निषेध का निषेध’ व्याख्यायित करता है. एंगेल्स कहते हैं कि ‘द्वंद्ववाद में निषेध का अर्थ मात्र नहीं कहने से नहीं है.’ हमने ऊपर उदाहरणों में जब एक प्रक्रिया को विकास के क्रम में निचली मंजिलों से ऊपरी मंजिलों (जैसे उपनिवेशवाद से संप्रभुता संपन्न होने या पानी से बर्फ बनने तक) की ओर जाते देखा तो यह ‘नई मंज़िल द्वारा पुरानी का निषेध है.’ अनिल राजिमवाले समझाते हैं कि ‘बीज से पौधा बनने की प्रक्रिया में बीज का अस्तित्व ख़त्म होता जाता है और जड़ें, तना, पत्तियाँ, फल-फूल विकसित होते जाते हैं. यह प्रक्रिया तब तक चलती रहती है जब तक विकास की सारी संभावनाएं समाप्त न हो जाएँ. निषेध की यह प्रक्रिया एक बिंदु पर आकर नए बीजों द्वारा पौधे के निषेध का रूप धारण करती है. बीज द्वारा पौधे का निषेध एक नया निषेध होता है जिसमें पिछले निषेध की पूरी प्रक्रिया शामिल होती है.’ इस तरह परिवर्तन/विकास पिछले निषेध से आगे बढ़ता हुआ अगले निषेध की ओर अग्रसर होता है. वह एक अंत से दूसरे, एक निर्माण से दूसरे निर्माण की ओर आगे बढ़ता है. पुरानी कक्षाएं पास कर नयी कक्षाओं में जाते विद्यार्थियों के उदाहरण से भी इसे समझा जा सकता है, जहाँ पुरानी कक्षाएं पास करने के बाद भी उसमें अर्जित ज्ञान को अगली कक्षा में नष्ट नहीं किया जाता, बल्कि वह अगली कक्षा के ज्ञान को हासिल करने के लिए आवश्यक होता है.

सामान्य नियम के रूप में इसे कान्फोर्ड के शब्दों में कहा जा सकता है कि ‘विकास की प्रक्रिया में प्रत्येक अवस्था में नए का पुराने के साथ संघर्ष होता है. पुरानी परिस्थितियों के अन्दर नए का उद्भव होता है तथा वह शक्तिशाली हो जाता है तो यह पुराने पर जीत हासिल कर लेता है व इसे नष्ट कर देता है. यह पिछली मंज़िल का, पुरानी गुणात्मक स्थिति निषेध है तथा इसका अर्थ है विकास की  नई  तथा उच्चतर स्थिति का, नई गुणात्मक स्थिति का अस्तित्व में आना.’

इस तरह द्वंद्वात्मक अर्थ में निषेध विनाश नहीं होता. न ही यह पुराने से पूरी तरह सम्बन्ध विच्छेद होता है. अन्यथा विकास की हर अगली मंज़िल पर शून्य से शुरू करना पड़ेगा जो असंभव है. निषेध इस रूप में पुराने का आगे विकास है. इसीलिए जो कुछ लोग यह धारणा बनाते हैं कि समाजवाद आ जाने पर पूँजीवाद द्वारा किया गया सारा विकास नष्ट कर दिया जाएगा, वह कपोल कल्पना है. होगा यह कि इस नई मंज़िल पर पुराने विकास को एक नयी राह मिलेगी. उनके निजी मालिकाने की जगह और मुनाफा केन्द्रित स्वरूप की जगह उन पर सामूहिक स्वामित्व और बहुसंख्या की ज़रुरत वाला स्वरूप विकसित होगा. तकनीक मानव समाज की बेहतरी के लिए उपयोग होगी. अब तक हुआ सारा विकास मनुष्य की अदम्य जीजिविषा और मेहनत का परिणाम है और उसका उपयोग मनुष्य के हित में ही होना चाहिए न कि एक अल्पसंख्यक पूंजीपति वर्ग के मुनाफे के औज़ार के रूप में.

इस तरह हम देखते हैं कि वास्तव में हर निषेध में स्वयं उसका निषेध छिपा है. यह एक तरह से पहले निषेध का रद्द किया जाना है. इस तरह विकास की प्रक्रिया उच्चतर स्तर पर पहुँच जाती है. उसकी वापसी होती है, लेकिन नए और उच्चतर स्तर पर. पुराना निषेध पूरी तरह नष्ट नहीं होता बल्कि उसे नए निषेध में शामिल कर लिया जाता है. पुराने निषेध के सार को ग्रहण कर नया बेहतर और उच्च स्तर की ओर बढ़ जाता है. तो यह प्रक्रिया दरअसल ‘निषेध के निषेध’ की हुई. इस प्रक्रिया में विकास सीधी रेखा में नहीं होता. वह एक क्रांतिक बिंदु के बाद उछाल लेता है और इस रूप में यह वर्तुलाकार (serpentile)  होता है.   



कोका कोला पर वक्तव्य - मार्टिन एस्पादा का एक भाषण

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(1957 में न्यूयार्क के ब्रुकलिन में जन्में मार्टिन एस्पादा को ‘अपनी पीढ़ी का लातिनी कवि’ कहा जाता है. उनका काव्यकर्म लातिनी अमेरिका की उस प्रतिरोधी परम्परा का है जिसने अमेरिकी साम्राज्यवाद के ज़ुल्म और शोषण के खिलाफ़ लगातार आवाज़ बुलंद की है. प्रतिरोध उनकी कविता का मूल स्वर है. हाल ही में उनके द्वारा संपादित जनपक्षधर लातिनी कवियों का वृहद् संकलन ‘पोएट्री लाइक एंड ब्रेड’ वहाँ के प्रतिरोधी स्वर का एक ज़िंदा दस्तावेज़ है. यहाँ किसी भूमिका की जगह हम कोलम्बिया में  कोका कोला के ज़ुल्म-ओ-सितम का तीखा प्रतिवाद करता हुआ उनका वह भाषण प्रस्तुत कर रहे हैं जो बताता है कि जनता का कवि किन मानदंडों पर अपनी नैतिक अवस्थिति तय करता है)  



कोका कोला पर वक्तव्य
(कैन्सस विश्विद्यालय में मार्च 10, 2005 को)


आज रात केन्सस विश्विद्यालय में मेरा कविता पाठ के यू एंडावमेंट असोसिएशन के ज़रिये कोका कोला द्वारा सह प्रायोजित है. गंभीरता से इस मुद्दे पर सोचने के बाद मैंने फैसला लिया है कि मैं कोलंबिया में श्रमिकों के सम्बन्ध में इसके इतिहास को देखते हुए कोका कोला से पैसे स्वीकार नहीं कर सकता.

न्यू यार्क टाइम्स के अनुसार दुनिया भर में जितने ट्रेड युनियन कार्यकर्ताओं की हत्या हुई है उनमें से नब्बे फीसदी कोलंबिया में मारे गए. पैरामिलिट्री बलों द्वारा निशाना बनाकर उस देश में हज़ारों ट्रेड युनियन कार्यकर्ता मारे गए. कई हज़ार अन्य को प्रताड़ित किया गया, अपहृत कर लिया गया या जान से मारने की धमकी दी गयी.


कोलंबिया में राष्ट्रीय खाद्य श्रमिक युनियन का प्रतिनिधित्व कोका कोला बाटलिंग प्लांट में सिनालत्रेनाल करती है. यह युनियन नष्ट कर दी गयी. न्यूयार्क सिटी काउंसिल के हिरम मोंसरेट की अगुवाई में गयी फैक्ट फाइंडिंग कमिटी ने कोक प्लांट्स में आठ हत्याओं सहित 179 बड़े मानव अधिकार उल्लंघन के मामले पाए. वस्तुतः यूनियन के नेता इसिडरो गिल को कारेपा के प्लांट में ही गोली मार दी गयी थी. उसके बाद पैरामिलिट्री दल उसी प्लांट में आये और यूनियन के सदस्यों को सामूहिक इस्तीफा देने के लिए बाध्य किया. यूनियन के नेताओं और अन्य लोगों ने यह आरोप लगाया कि कोलंबिया के कोक बाटलिंग प्लांट्स और पैरामिलिट्री बलों में साठ गाँठ है  अन्यथा प्लांट्स में पैरामिलिट्री बलों का बिना मैनेजमेंट की मिलीभगत के प्रवेश असंभव था.


कोका कोला कंपनी को निश्चित रूप से ट्रेड यूनियन कार्यकर्ताओं की रक्षा करना चाहिए. कम्पनी को प्लांट मैनेजमेंट और पैरामिलिट्रीज़ के बीच साठ गाँठ की जाँच करानी ही चाहिए. कम्पनी को निश्चित रूप से कोलंबिया के श्रमिकों के साथ मानवाधिकार उल्लंघन के मामलों की स्वतंत्र जांच में सहयोग करना चाहिए. इन आरोपों की प्रतिक्रिया में तुरत फुरत तिरस्कारपूर्ण क्रोध वाली प्रतिक्रिया देने की जगह कंपनी को इसकी ज़िम्मेदारी लेनी ही चाहिए. जब मुद्दा दूसरों की विपदा से मुनाफ़ा कमाने का हो तो तुरत फुरत तिरस्कारपूर्ण क्रोध वाली प्रतिक्रिया काफ़ी नहीं है. 


जब तक कोलंबिया में श्रमिकों के सम्बन्ध में कोक के विचलित कर देने वाले इतिहास के बारे में सवालों के जवाब नहीं मिल जाते मेरी अन्तश्चेतना कोका कोला से धन स्वीकार नहीं कर सकती न ही इस कम्पनी के साथ मैं अपना नाम जोड़ सकता हूँ. यह एक व्यक्तिगत निर्णय है और इससे के यू एंडावमेंट असोसिएशन या के यू की मेरी यात्रा के प्रायोजन में शामिल किसी अन्य से इसका कोई लेना देना नहीं है.. मैं इन मामलों में विशेषज्ञ नहीं हूँ मैं केवल इस संकट का अध्ययन कर रहा हूँ और एक नैतिक स्टैंड लेने की कोशिश कर रहा हूँ.

सबसे आसान काम होता कि मैं कोक के धन को सीधे अस्वीकार कर देता. बहरहाल, मैं सांकेतिकता से आगे जाना चाहता हूँ. इसलिए मैं आज रात के धन में कोक के पूरे हिस्से, बारह सौ डालर को कोलंबिया के राष्ट्रीय खाद्य श्रमिक युनियन, सिनालत्रेनाल को दान कर रहा हूँ. कोक को कोलम्बिया की एक युनियन को मेरे आर्थिक सहयोग से कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए जिसे उस देश की हिंसा में बर्बाद कर दिया गया. एक कवि के लिए बारह सौ डालर त्यागना आसान नहीं है लेकिन यूनियन को धन की आवश्यकता मुझसे अधिक है. शुक्रिया
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कोका कोला और कोको फ़्रिओ

अपने पारिवारिक घर 
प्यूरेटो रिको की अपनी पहली यात्रा में 
वह गदबदा लड़का इस टेबल से उस टेबल 
मुह बाए भटकता रहा.

हर टेबल पर कोई ताई-दादी 
ठंढे दागदार हाथों से इशारा करतीं कोका कोला की गिलास की जानिब 
उनमें से एक ने तो अपनी स्मृति भर 
चालीस के दशक का कोका कोला का एक विज्ञापन गीत भी सुनाया अंग्रेजी में.
वह चुपचाप पीता रहा हालांकि वह ऊब चुका था 
ब्रुकलिन के सोडा फाउन्टेनों के 
इस परिचित पेय से 

फिर, समुद्र के किनारे 
उस गदबदे लड़के ने मुंह खोला कोको फ़्रिओ के लिए 
ठंढाया नारियल ऊपर छीला हुआ चाकू से कि उससे साफ़ दूध खींच सके स्ट्रा.

लड़के ने उस हरे खोखल को मुंह से लगाया 
और नारियल का दूध टपक आया उसकी ठोड़ी तक 
अचानक प्यूरेटो रिको न कोका कोला था न ब्रुकलिन 
और वह भी नहीं.

वर्षों बाद तलक वह लड़का अचम्भित रहा एक ऐसे द्वीप पर
जहाँ लोग कोका कोला पीते थे 
और एक पराई भाषा में दुसरे विश्वयुद्ध के दौर के
विज्ञापन गीत गाते थे 
जबकि पेड़ों पर
दूध से भरे इतने सारे नारियल 
गदबदाये और अनछुए लदे रहते थे. 
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मार्टिन एस्पादा की कविताओं की एक पुस्तिका 'कोका कोला और कोको फ्रिओ'तथा 'मृत्यु', 'डर'और 'बेरोज़गारी'पर आधारित तीन अन्य पुस्तिकाएँ दख़ल प्रकाशन और प्रतिलिपि बुक्स की साझा पहल से प्रकाशित हुई हैं. इस सेट का मूल्य है १००/- रुपये 
  

बाज़ार और टीवी सीरियल : प्रांजल धर

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अँधेरा इन दिनों सबको नया-सा लगता है
बाज़ार की माँग के हिसाब से तय होते हैं टीवी सीरियलों के विषय और चरित्र

  • प्रांजल धर 


कोई सात साल पहले की मेरठ की एक ख़ूबसूरत रात की बात है। ख़ूबसूरत यानी सन्नाटे भरी। माघ महीने के अँजोर पाख की रात। शब्दों से नशा पैदा करने वाले शायर शबाब मेरठी से अचानक मेरी मुलाकात हुई। बातों-बातों में उन्होंने मुझसे कहा कि आप तो मीडिया पर लिखते हैं, आप यह बताइये कि आपको आज तक का सबसे पसन्दीदा टीवी सीरियल कौन-सा लगा?मैंने अपने दिल की बात तपाक से कह दी कि फिर वही तलाश। तब उन्होंने बताया कि इस सीरियल के टाइटिल सांग और डायलॉग्स को लिखने से लेकर इसकी रचना तक के अन्य अनेक चरणों में भी उनका योगदान रहा है। मेरे पास शब्द नहीं हैं, उस पल को बयाँ करने के लिए कि अपने सर्वाधिक प्रिय टीवी धारावाहिक की मुख्य टीम में शामिल रहे किसी महत्वपूर्ण शख्स से बहुत लम्बी बात करने का मौका मुझे मिला है। मैंने उनकी चर्चित किताब लोहे का जायकापढ़ी थी। यह किताब मेरे पैदा होने के तीन बरस पहले यानी सन 1979 में दिल्ली से प्रकाशित हुई थी और नब्बे के दशक में मुझे मेरे एक पत्रकार मित्र ने उपहार में दी थी। शबाब मेरठी अच्छे शायर हैं, यह बात तो मुझे मालूम थी। पर सीरियल वाली बात से मैं बिल्कुल अनजान था। तभी सोचा था, और उन्होंने कहा भी था कि धारावाहिकों के बदलाव और विश्लेषण पर कुछ लिखो प्रांजल। इस बदलाव का ज़िक्र करते हुए उन्होंने अपना एक शेर कहा था, किसी को दर्द, किसी को दवा-सा लगता है/अँधेरा इन दिनों, सबको नया-सा लगता है।मैंने उनसे हाँ कहा था। उस लेखन की शुरूआत करते हुए मैं शबाब मेरठी साहब को धन्यवाद दे रहा हूँ।

जहाँ पिछली शताब्दी के सत्तर, अस्सी और नब्बे के दशक में दूरदर्शन अकेला चैनल था, वहीं आज ज़ी टीवी, सोनी, कलर्स, स्टार प्लस, लाइफ़ ओके, सहारा वन और सब टीवी जैसे अनेक चैनल ऐसे धारावाहिकों को प्रसारित कर रहे हैं जिनसे हमारे देश का मिडिल क्लास बहुत लगाव महसूस करता है। हम लोगऔर बुनियादके बाद आया रामायणऔर महाभारतजैसे टीवी सीरियलों का दौर। इसके बाद ब्योमकेश बख्शीऔर देख भाई देखजैसे सीरियलों ने अपना जलवा बिखेरा और उस समय के यथार्थ को परदे पर पेश करके इण्डियन सोप ओपेरा की नई इबारत लिखी। जहाँ ब्योमकेश बख्शीवकील से लेखक बने शरदिन्दु बन्द्योपाध्याय की साहित्यिक कृति का टेलीविज़न संस्करण था, वहीं देख भाई देखने जया बच्चन के प्रोडक्शन और आनन्द महेन्द्रू के लेखन और निर्देशन के अन्तर्गत हल्की-फुल्की कॉमेडी टीवी शो के रूप में अपनी खूब पहचान बनाई। देख भाई देखपहले तो डीडी मेट्रो पर 1993 से 1997 के दौरान दिखाया गया और बाद में सोनी सब टीवी और दूरदर्शन पर इसका पुनर्प्रसारण किया गया। फ़रीदा जलाल, शेखर सुमन, नवीन निश्चल और उर्वशी ढोलकिया जैसे कलाकारों के अभिनय ने दीवान परिवार की तीन पीढ़ियों की समानताओं-असमानताओं को नये तरीके से दर्शकों के सामने रखा था। बहरहाल, आज के सीरियल नई देहभाषा के साथ-साथ नये किस्म के संवादों को पेश करके बदलाव की नई बयार का रुख़ नापने की कोशिश करते नज़र आते हैं। यह ठीक है कि न सिर्फ़ सीरियलों के मुद्दे बदले हैं, बल्कि उनकी थीम, करेक्टर, भाषा और बारीकी की मात्रा में भी बहुत परिवर्तन आए हैं। इनमें से काफी कुछ तो बाजार ही तय कर रहा है ताकि लोगों का टाइम पासआराम से हो सके। फिर भी तमाम दर्शकों को आज की तकनीकों से लैस धारावाहिक अँधेरे की तरह ही लगते हैं। किरदारों के चेहरों पर लगातार लम्बे समय तक कैमरे को फोकस कर-करके दर्शकों को बोर करना मानो आज शगल ही बन चुका है। ऊपर से कानफोड़ू ध्वनियाँ तंग करती हैं, जिन्हें कम से कम संगीत कहने से तो परहेज ही करना उचित होगा। इन सवालों पर सीरियल निर्माताओं को सोचना चाहिए।

समय के साथ पहनावे, फैशन, सोच-विचार और राजनीतिक यथार्थ में बदलाव आए। यह राजनीतिक यथार्थ में आई बदलाव की लहर को पकड़ने की ही कोशिश है कि ज़ी टीवी के सीरियल कुबूल हैने धर्म और रिश्तों के आपसी उलझाव की व्यापक पड़ताल की। ज़ोया और असद की तय शादी के बार-बार टूटने का यथार्थ हमें बताता है कि आज समय किस कदर बदल चुका है। असद का छोटा भाई इस सीरियल में अपने पहनावे का बहुत खयाल रखता है। वैसे इस सीरियल ने इस्लामी कल्चर को बेहद रवानी के साथ पेश किया है और आज धारावाहिकों की भीड़ में भी यह शायद अकेला ऐसा सीरियल है जो मुसलमानों में हो रहे वैचारिक परिवर्तनों को बेहद गहराई से रेखांकित करता है। पर एक अँधेरा पहलू यह भी है कि आज के धारावाहिकों में कुछ खास टाइप्ड फ़ार्म्यूलों और कुछ स्पेशल स्टाइल के उबाऊ दोहरावों के कारण दर्शकों का एक बड़ा तबका इनसे भाग भी रहा है। इसीलिए सीरियलों में व्याप्त अँधेरे को दूर करने के लिए सीरियल इण्डस्ट्री पर एक दबाव यह है कि किस तरह इस दूर भागते दर्शक वर्ग को नज़दीक लाया जाए?

भारतीय समाज का एक पुराना मिथक है कि हर कामयाब पुरुष के पीछे किसी महिला का हाथ होता है। क्या किसी कामयाब स्त्री के पीछे किसी मर्द का हाथ नहीं हो सकता!हमारे नये समय की नई सोच को देखना हो तो दिया और बाती हमका नाम लिया जा सकता है। स्टार प्लस के इस सीरियल में कम पढ़ा-लिखा सूरज अपनी टॉपर पत्नी सन्ध्या के सपनों को पूरा करने के लिए अनेक मुसीबतें झेलता है। यह सीरियल वैचारिक बदलाव का बैरोमीटर है। पुष्कर की एक मारवाड़ी फैमिली से जुड़े ढेर सारे पहलुओं को दिखाकर दर्शकों का मन मोहने वाला यह सीरियल परम्परा और आधुनिकता का अद्भुत संगम प्रस्तुत करता है। हमारे समय की आधुनिकता के तापमान को मापते हुए यह सीरियल परम्पराप्रेमी सास भाभो को दर्शकों के सामने लाता है और उनके संवादों के ज़रिये प्रेम में मगन एक ऐसे जोड़े को पेश करता है जिनकी शैक्षिक योग्यताएँ बहुत अलग हैं, जिनमें बहुत ज्यादा ऐसे डिफ़रेंसेज़ हैं, जिसे हम मनोविज्ञान की चलताऊ भाषा में ईडियोसिनक्रेसीज़ कह सकते हैं।
 प्रेम फिल्मों के लिए ही नहीं, बल्कि सीरियलों के लिए भी एक महत्वपूर्ण और रोचक विषय रहा है। सवाल है कि इस घिसे-पिटे विषय में नया क्या है?हाँ, नया है प्रेम को पेश करने का तरीका, चाहे वह एसएमएस की सुविधा का लाभ लेते हुए किया जाए या फिर वैलेण्टाइन कार्ड देकर। उदारीकरण और सैटेलाइट चैनलों की बाढ़ के बाद प्रेम की व्यूअरशिप में जो बदलाव आए उन्होंने सीरियल-निर्माताओं पर यह दबाव डाला कि वे प्रेम के ऐसे पक्षों को प्रसारित करें जो या तो अब तक अछूते रहे थे या फिर जिनका ग्लोबल करेक्टर रूपायित नहीं हो पा रहा था। पर इस ग्लोबल करेक्टर में सामाजिक सरोकार खोजना रेगिस्तान में पानी खोजने के बराबर कठिन हो सकता है। पहले भी प्रेम के सीरियल बने और दिखाए गये थे। उदाहरण के लिए हम प्रेम के गुनगुने और शरबती आयाम को दिखाने वाले दूरदर्शन के दो दशक पुराने सीरियल फिर वही तलाशका नाम ले सकते हैं। यह सीरियल जब शुरू होता था तो शबाब मेरठी के लिखे टाइटिल सांग की ये पंक्तियाँ अनिल बिस्वास के संगीत के अन्तर्गत चन्दनदास की मीठी आवाज़ में गूँजती थीं-

     यूँ निकल पड़ा हूँ सफ़र पे मैं, मुझे मंजिलों की तलाश है,     नए रास्ते, नए आसमाँ, नए हौसलों की तलाश है।     जहाँ बन्दिशों की हो हद ख़तम, उस हसीं सहर की तलाश है,     जहाँ रंग-ओ-ख़ुशबू का हो मिलन, मुझे उस उफ़क़ की तलाश है।

पर इस टाइटिल सांग का वह हिस्सा भी कुछ कम मज़ेदार नहीं जो इस सीरियल में नहीं गाया गया था। वह यों है-
     मुझे याद है तेरे इश्क में कभी फूल बनके हँसा था मैं,     मेरी उस हँसी पे जो हँस सके, उन्हीं कहकहों की तलाश है।     कोई मुझसे दूर भी जाए तो, जिन्हें अपनी रूह में सुन सके,     मुझे ज़िन्दगी तेरी नब्ज़ में उन्हीं आहटों की तलाश है।     वो जो मुद्दतों मेरे साथ था, वो जो मेरा दाहिना हाथ था,     मेरी ज़िन्दगी से निकल गया, मुझे आसरों की तलाश है।


इनके बरअक्स आज प्रेम को केन्द्र में रखने वाले सीरियलों का मिजाज अलग ही है। कॉस्मेटिक उत्पादों से लबरेज। कई बार तो कॉरपोरेटिया प्यार भी और अक्सर प्रोफेशनल। मसलन, मधुबाला – एक इश्क, एक जुनूँकी बात करें तो एक ब्यूटीशियन का काम करने वाली और फिल्म इंडस्ट्री के इर्द-गिर्द पलने-बढ़ने वाली इसकी नायिका मधु और उसके प्रेमी आरके के बीच आने वाले नए-नए अड़ंगे दर्शकों को काफी पसन्द आए। आज इश्क से जुड़ी चीजें प्यार का दर्द है मीठा-मीठा, प्यारा-प्यारा(स्टार प्लस पर) और बड़े अच्छे लगते हैं(सोनी पर) जैसे सीरियलों के ज़रिये अपने बदले हुए रूपों में दिखाई जा रही हैं। बानी – इश्क द कलमाजैसे सीरियलों ने उन भारतीय परिवारों पर अपना फोकस किया है जो अपनी बेटियों के लिए एनआरआई यानी कोई विदेश में बसा भारतीय या भारतीय टाइप का लड़का खोजते हैं। बैकग्राउण्ड में पंजाबी जीवनशैली को रखने वाले इस सीरियल का नाम शुरू-शुरू में गुरबानीथा लेकिन सिखों की कुछ आपत्तियों के चलते इसका नाम बदल दिया गया। दर्शकों को आकर्षित करने के लिए लोकेशन अब ड्राइंगरूम तक ही सीमित नहीं है, बल्कि आउटडोर शूटिंग, हरियाली और पेड़ों की प्रस्तुति पर भी खासा ध्यान दिया जाने लगा है। तमाम सीरियल तो जान-बूझकर गाँव-जवाँर की सोंधी माटी, खेतों और फसलों के आंचलिक नज़ारों का मद्धिम छौंक लगाते नज़र आते हैं।

 बड़े अच्छे लगते हैंने सास बहू जैसी किसी स्टोरी की बजाय चालीस की उम्र के आस-पास के एक जोड़े की भावनाओं को समग्रता में दिखाया है। युवा पीढ़ी की महत्वाकांक्षाएँ ग्लोबलाइजेशन के इस दौर में बढ़ी हैं और लिव-इन, होटल कल्चर या करियर की तरफ ध्यान देने के कारण आज विवाह की उम्र बढ़ी है। राम कपूर और प्रिया पहले शत्रुता का भाव रखते हैं, फिर दोस्त बनते हैं और वक्त के साथ यह दोस्ती प्यार में बदल जाती है। इस सीरियल में, और प्रकारान्तर से कहें तो आज के अनेक सीरियलों में भाई-बहन के खूबसूरत रिश्ते भी पार्श्व में चलते रहते हैं। यह सब एक भव्य सेट के साथ आज के सीरियलों में दिखाया जा रहा है। हालाँकि क्योंकि सास भी कभी बहू थीजैसे सीरियलों ने भी संयुक्त परिवार की विकृतियों को खूब बढ़ा-चढ़ा कर दिखाया और दर्शकों ने इसे खूब पसन्द भी किया है। आज के सीरियलों ने हमारे समाज का चित्र खींचने के साथ-साथ उसे यह प्रेरणा भी दी है कि उसे कैसा होना चाहिए। उदाहरण के लिए प्यार का दर्द है मीठा-मीठा, प्यारा-प्याराकी अवन्तिका के फ़ैशन सेंस ने बहुत प्रशंसक पैदा किये हैं और मेट्रोपॉलिटन्स में ही नहीं, गाँवों में भी इस तरीके के फ़ैशन का असर देख सकते हैं। यहाँ आदी और पंखुरी के दोस्ताना रिश्ते में प्यार का मसालेदार छौंक भी मिला हुआ है। ज़ाहिर है कि आज का समाज नीम का पेड़वाले समाज से काफी आगे का है और आज के व्यूअर्स परिधान और गहनों के साथ-साथ इस बात पर भी ध्यान देते हैं कि उनके प्रिय सीरियल में किरदारों के पास किस कम्पनी के मोबाइल फोन्स, आई पॉड्स या कारें हैं या फिर उनके घरों की, उनके किचन की सजावट भला किस तरह की गयी है। इण्टीरियर डेकोरेशनवाले समय में आज खाने से ज्यादा जोर खाना परोसने के और खाना खाने के तरीकों पर है। अधिकतर सीरियलों के परिवार आर्थिक रूप से सम्भ्रान्त दिखते हैं, लम्बी-लम्बी विदेशी गाड़ियाँ दिखाते हैं या फिर गाँव-गँवई के फुटेज लाकर रूरल-अरबन डिवाइड का रेखांकन करते हैं।

 सोचने वाली बात है कि आज के सीरियलों की स्क्रिप्ट भला किस किस्म के लोग लिख रहे हैं?एक दौर था जब शबाब मेरठी जैसे लोगों ने यह काम किया था, गरीबी के ऐसे दिन देखे थे कि पेट भरने के लिए अपने तमाम लेखों और स्क्रिप्ट को रद्दी में कबाड़ी वाले को बेच दिया मजबूरी में। आज भी मेरठी साहब (जिनका मूल नाम दिनेश कुमार स्वामी है) कहते हैं कि मैं सोचता था कि गीत और स्क्रिप्ट मैं किसी को दिखाकर क्या करूँगा प्रांजल!जिसको मेरा लेखन अच्छा लगेगा, वह मुझे खुद खोज लेगा। उसके बाद वे बताते हैं कि किस प्रकार कमलेश्वर जी ने अपनी कथा यात्रा नामक पत्रिका में उनकी रचनाओं को प्रमुखता से स्थान दिया था, कि किस तरह बेनज़ीर भुट्टो उनसे तब सम्पर्क रखती थीं, जब वे निर्वासन में थीं और अख़बार निकाला करती थीं, कि किस प्रकार मेरठी साहब कितनी गहराई तक कम्युनिस्ट बने रहे...। ये संस्मरणात्मक बातें लिखने का औचित्य यहाँ नहीं बनता इसलिए इन चीज़ों पर कभी बाद में विस्तार से लिखूँगा। फिलहाल इतनी प्रासंगिकता इन बातों की यहाँ ज़रूर है कि अगर स्क्रिप्ट राइटर काफी पढ़ा-लिखा होगा, हाशिये के लोगों के प्रति उसमें कोई संवेदना होगी तो कहानी में दम अपने आप आ जाएगा और कोई भी सीरियल उतना ही कामयाब या लोकप्रिय होता है जितनी कि उसकी कहानी। आर.के. नारायण की लघु कथाओं पर आधारित मालगुडी डेज़इस बात की एक उम्दा मिसाल है।



 चाहे वह नैतिक और अक्षरा सिंघानिया के रिश्तों को लेकर दिखाया जाने वाला सीरियल यह रिश्ता क्या कहलाता हैहो या फिर कच्ची उम्र के पक्के रिश्तों का खाका खींचने वाला सीरियल बालिका वधू, इन सबमें मानवीय सम्बन्धों की भीतरी तहों तक पहुँचने की कोशिश की गयी है। उन तहों की जिन्हें हमारे देश का मध्य वर्ग देखना चाहता है, जब वह टाइम पास कर रहा होता है। शुद्ध मनोरंजन को केन्द्र में रखकर बनाये जाने वाले इन सीरियलों में समाज तो खूब दिखता है लेकिन सामाजिक सरोकार उतने नहीं दिखाई देते। इनकी सारी संवेदनाएँ बनावटी लगती हैं, स्त्रियों की छवियों को भी ये कोई अच्छे तरीके से नहीं पेश करते, ये प्रायः बाज़ार के बोझ तले दबे-से नज़र आते हैं और समानता जैसे सामाजिक मूल्यों से इनका कोई वास्ता भी नहीं होता। शबाब मेरठी के ही शब्दों में कहें तो कुछ लोग जिनके पास चरागों के ढेर हैं/वो लोग चाहते हैं बड़ी लम्बी रात हो।वैसे भी फेसबुक और इण्टरनेट से जुड़ी हमारी युवा पीढ़ी अपने घर के पड़ोस में रहने वाले लोगों की तुलना में उनकी फिक्र ज्यादा करती है जो उससे फेसबुक पर जुड़े हुए हैं, कहीं थाईलैण्ड या अमरीका में बैठे हैं और जिनसे न पहले कभी उनकी मुलाकात हुई होती है और न ही आगे होने की कोई सम्भावना बनती है। तो क्या मदर्स डे, फ़ादर्स डे और वैलेण्टाइन डे वाली टेलीविजन धारावाहिकीय संस्कृति ही हमारे समाज का पूरा सच है?अगर नहीं, तो मालगुडी डेज़जैसे सीरियल आज क्यों कोई बना नहीं पा रहा?
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प्रांजल धर 
मई 1982 में  उत्तर प्रदेश के गोण्डा जिले के ज्ञानीपुर गाँव में जन्मे  प्रांजल की  कविताएँ, कहानियाँ, समीक्षाएँ, यात्रा वृत्तान्त और आलेख देश की सभी प्रतिष्ठित पत्र – पत्रिकाओं में  प्रकाशित और प्रकाशित। देश भर के अनेक मंचों से कविता पाठ। अनेक विश्वविद्यालयों और राष्ट्रीय- अन्तरराष्ट्रीय महत्व के संस्थानों में व्याख्यान। राष्ट्रकवि दिनकर की जन्मशती के अवसर पर 'समर शेष है ' पुस्तक का संपादन। 'नया ज्ञानोदय 'और 'जनसंदेश टाइम्स 'समेत अनेक प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में नियमित स्तम्भकार । वर्ष 2006 में राजस्थान पत्रिका पुरस्कार, वर्ष 2010 में अवध भारती सम्मान तथा  पत्रकारिता और जनसंचार के लिए वर्ष 2010 का प्रतिष्ठित भारतेन्दु हरिश्चन्द्र पुरस्कार। हाल ही में कविता के लिए प्रतिष्ठित भारत भूषण पुरस्कार से सम्मानित 

राजेन्द्र यादव : बड़े सम्पादक और लेखक ही नहीं बड़े मनुष्य भी - पल्लव

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हमारे युग के नायक राजेन्द्र यादव
पल्लव
हिन्दी कहानियों के सबसे शानदार संकलन ‘एक दुनिया समानांतर’ की भूमिका में राजेन्द्र  यादव ने एक सवाल उठाया है कि विश्वामित्र नायक हैं या खलनायक? आज जबसे खबर मिली है कि यादव जी नहीं रहे यही सवाल उनके बारे में पूछ्ने का मन हो रहा है - राजेन्द्र यादव हमारे साहित्य समय के नायक हैं या खलनायक? शुरुआत उन्होंने भी बड़ी भव्य की थी – सारा आकाश जैसे उपन्यास और कई उम्दा कहानियों के साथ । हंस के सम्पादन से उनका सितारा बुलन्दी पर पहुंचा, यह वह समय था जब बड़े समूहों की पत्रिकाएं डूब रही थीं और उधर सोवियत संघ का भी पराभव होने को था । हंस ने हिन्दी संसार में कायदे की बहसों को फ़िर जीवन दिया और एक के बाद एक बढिया कहानियां उस्में आने लगी। फ़िर मौसम में बद्लाव दिखाई देने लगा और राजनीति के साथ साहित्य में भी दलित आहट हुई। ओमप्रकाश वाल्मीकि, मोहन्दास नैमिशराय,सूरजपाल चौहान और श्योराज सिंह बेचैन जैसे लेखक परिदृश्य पर उभर रहे थे, कहना न होगा कि हंस ने इस दलित विमर्श को ज़मीन प्रदान की । इसके साथ साथ स्त्री विमर्श का सिलसिला भी शुरू हुआ और हंस ने लवलीन, मैत्रेयी पुष्पा, अनामिका, सुधा अरोड़ा के साथ अनेक नयी लेखिकाओं के लिये मंच तैयार कर दिया । क्या राजेन्द्र यादव को ऐसा नहीं करना चाहिये था? क्या उन्हें खलनायक माने जाने चाहिये क्योंकि उन्होंने हाशिये के लोगों को साहित्य के सभागार में आदरपूर्वक बैठने की जगह दी और इससे मार्क्सवाद की शाश्वत लड़ाई को धक्का लगा। ये वे विमर्श थे जो उत्तर आधुनिक मुहावरे में अपनी जगह मांगते थे बल्कि कहना चाहिए कि अपनी जगह इन्होंने खुद आगे बढकर ले ली । राजेन्द्र यादव इस ऐतिहासिक क्षण में दलितों और स्त्रियों के लिए हंस में स्वागत कर रहे थे और उनके पक्ष में जिरह कर रहे थे, पितृसत्ता और ब्राह्मणवाद से लड़ाई लड़ रहे थे। अपने समय का नायक वह होता है जो अपने समय के असली संघर्षों को पहचाने और उन्हें सही दिशा दे, राजेन्द्र यादव ने दलित और स्त्री विमर्श के लिये यह भूमिका निभाई। लड़ाई उनके स्वभाव का स्थाई भाव था। हिन्दी कहानी का इतिहास जानने वाले पाठकों को मालूम है कि नयी कहानी के हक़ में उन्होंने कितनी लड़ाइयां मोल ली थीं और कितने दुश्मन बनाए थे। हंस के माध्यम से यह काम आगे भी वे जीवन भर करते रहे। काशीनाथ सिंह के कथा रिपोर्ताज़ छापे तो गालियों के कारण कोहराम मचा-राजेन्द्र यादव फ़िर लेखक और लेखन के पक्ष में थे, तसलीमा का मामला हो या हिन्दी पट्टी की जड़ता के कारण –हंस अपने समय का वैचारिक दीपक बनने की कामयाब कोशिश करता रहा। अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता के लिये कोई भी जोखिम उठाने की तत्परता उन्हें सचमुच बड़ा बनाती है। बड़ा सम्पादक और लेखक ही नहीं बड़ा मनुष्य भी ।
विचारों की स्वतन्त्रता के कारण ही उनका अपना वैवाहिक जीवन समाप्तप्राय: हो गया लेकिन वे अडिग थे तब भी जब सारे ज़माने ने उन्हें इसके लिये कोसा और ‘लम्पट’ तक कहा। मैं सोचता हूं कि क्या हम एक आदमी भी ऐसा नहीं बना सकते जो अपनी शर्तों पर जिन्दगी जीने की हिम्मत रखता हो। उनका अपना लेखन भी तमाम इसी तरह की चुनौतियों को स्वीकार करता हुआ लेखन है। भारतीय समाज के छ्द्म और पाखंड से वही लेखक लड़ सकता है जो स्वयं अपने जीवन में इनसे लड़ने का साहस रखता हो । राजेन्द्र यादव को इस कसौटी पर हमेशा कसा गया और वे हरदम कसे जाने के लिए तैयार रहे । हम नहीं जानते कि हिन्दी साहित्य के पाठक भविष्य में भी बने रहेंगे लेकिन यह तय है कि हिन्दी की साहित्यिक पत्रकारिता के सबसे चमकदार नामों की सूची में राजेन्द्र यादव का नाम बहुत ऊपर होगा।

लगभग एक दर्जन मूल किताबों और दो दर्जन सम्पादित किताबों के धनी राजेन्द्र जी ने प्रकाशन की हिम्मत भी की थी और ‘अक्षर प्रकाशन’ उनका ऐसा सपना था जो सहकारी ढंग से लेखकों की किताबें छापे और समुचित रायल्टी भी दे, यह कोशिश बहुत लम्बी नहीं चल सकी लेकिन अपनी सुरुचि और गुणवत्तापूर्ण किताबों के लिये ‘अक्षर प्रकाशन’ को याद किया जाता रहेगा।

लता आत्या दिवाळी च्या शुभेच्छा - बादल सरोज

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यह टिप्पणी सी पी एम के मध्यप्रदेश के सचिव कामरेड बादल सरोज की फेसबुक वाल से ली गई है. लता मंगेशकर के हाल के मोदी समर्थक बयान के मद्देनज़र बादल भाई ने थोड़ा इतिहास खंगाला है, थोड़ा वर्तमान.


आपकी आवाज में जो माधुर्य है. वह अब डिजिटल क्रान्ति के बाद लाखों साल तक अमर रहेगा.

रेडियो सीलोन के जमाने में आपकी आवाज ने मुझ जैसे करोड़ों लोगो को जगाया है. आपकी लोरी ने सुलाया है. इन दिनों भी रात के सन्नाटे में, अँधेरे कमरे में, विविध भारती पर नौशाद अंकल से लेकर प्रीतम तक की स्वरलहरी में  जब आपकी आवाज गूंजती है तो लगता है कि आत्या को छोड़ बाकी सब कुछ ठहर गया है. देश-दुनिया के हिंदी-मराठी जानने वालों को आपने जो जीवन-रस दिया है उसका चुकारा कभी नहीं किया जा सकता. एक नामुमकिन सी कामना है और वह यह है कि आप हमेशा बनी रहें. हमेशा गाती रहें. इसी तरह मधुर-मधुर और मधुर.

एक नागरिक के नाते आपको अपनी राय रखने और उसे सार्वजनिक करने का अधिकार है. 

जो लोग इस पर अपनी तीखी प्रतिक्रिया जता रहे हैं वे असल में उतनी ही तीव्रता और शिद्दत से आपसे प्यार करते हैं. आप पर गर्व करते हैं.  जिस तरह आपको अपनी राय बनाने का अधिकार है उसी तरह हम सबको भी उस से असहमत या अप्रसन्न होने का हक़ है. मुझे आपके कहन पर आपत्ति नहीं है- कुछ मित्रों की प्रतिक्रिया के लहजे पर एतराज है. 

कलाकार की कलाकृति,उसकी रचनाधर्मिता और उसकी सार्वजनिक उपादेयता एक बात है-दीगर मसलों पर उसकी राय एक अलग मुद्दा है. . जो इसे गड्ड-मड्ड करते हैं वे ठीक नहीं करते.   तनाव के भीषणतम दौर में भी मेहँदी हसन या नूरजहां -मेहँदी हसन और नूरजहां ही रहते हैं. उसी तरह जैसे आप या आशा जी या रफ़ी साब-मुकेश-मन्ना डे-किशोर कुमार रहते हैं.



आत्या, आपकी "कौन बनेगा प्रधानमंत्री"टीप उन्हें ही बुरी लगी होगी जिन्हे आपकी पहली वाली टीपों की माहिती नहीं है. मुझे आश्चर्य नहीं हुआ-बल्कि उलटे कल रात भर काम करते में यू-ट्यूब पर आपको ही सुनता रहा. 

क्यों??? 

  • क्योंकि अभी कल ही तो बाल ठाकरे की मौत पर आपने कहा था कि आप अनाथ हो गई हैं.
  • उसके पहले की वर्षों में भी आप पूरी तरह ठाकरे के साथ रही. लोगो की स्मृति कमजोर है-उन्हें नहीं पता क़ि ठाकरे गिरोह का जन्म ही गुजराती व्यवसायियों की दुकानो पर हमले के साथ हुआ था. मद्रासियों और कम्युनिस्टों पर तो उनकी निगाह बाद में पड़ी थी. यूपी-बिहारियों की ठाकरे-ठुकाई तो उस कुनबे का ताजा शगल है. 
  • 1993 के मुम्बई के नरसंहारी दंगो के वक़्त -मुझे याद नहीं- क़ि आप कुछ बोल पाई थीं. 1992 के लंका काण्ड और उसके बाद देश भर में हुए अयोध्या दहन पर भी आपने कोई राय जाहिर नहीं की थी. शान्ति-वान्ति की अपील भी नहीं की थी.
  • आप तो 1984 की हिंसा के वक़्त भी कुछ नहीं बोल पाई थी. 
  • आपके घर से थोड़ी ही दूरी पर बनी भंडारकर लाइब्रेरी की दुर्लभ पांडुलिपियों को जब कुछ अपढ़ उत्पाती फूंक रहे थे या दिलीप साब के घर जाकर पथराव कर रहे थे, आत्या,  आप ने तो तब भी कुछ नहीं कहा था.
  • आत्या,  मरे हुए वली दकनी और जीवित  मल्लिका साराभाई के बारे में भी तो आप बोलना भूल गई थी. 

जब आपके इतनी बार "न बोलने"से आपके गायन की अद्भुत-अपूर्व-अतुलनीय शक्ति के प्रति हमारा लगाव कम नहीं हुआ तो भला अब आपके एकाध बार "बोलने"से दुखी क्यों हुआ जाए ?? यूँ भी इस तरह के कहने सुनने में आप न पहली हैं न आखिरी. एक थे भूपेन हजारिका. बाबा रे, क्या गाते थे. कितना जगाते थे. वे तो चुनाव तक लड़ पड़े थे. मगर क्या इससे "गंगा बहती हो क्यों"या "डोला रे"या "दिल हूम हूम करे"की मधुरता कम हो जायेगी?? एक थे अमिताभ बच्चन-इलाहाबाद से कांग्रेस की टिकिट पर लड़े, अमरसिंह के साथ सपा की सभाओं में नाचे-गाये. भैया अब गुजरात के ब्रांड अम्बेसेसडर हैं, भाभी यूपी से सांसद. चित्त भी मेरी-पट्ट भी मेरी:अंटा मेरे बाप का. एक थे सदाबहार दिलीप कुमार - ताउम्र कांग्रेसी रहे. एक हैं सलमान खान. एक सीट पर कांग्रेस-एक पर एन सी पी और ज्यादा पैसा मिला तो किसी भी पार्टी के लिए वोट मांग आयें. सूची लम्बी है-पापी पेट का सवाल है. कुछ भी करा देता है. रोटियों के लाले पड़े रहते हैं बेचारों के यहाँ. मगर इस सबसे उनकी एक्टिंग की महानता या लोकप्रियता कम थोड़े ही हो जाती है.


आदर्श समावेश विरल होता है. हर किसी का मैराडोना, चार्ली चैप्लिन,उत्पल दत्त, पॉल रॉब्सन या  सफ़दर हाश्मी होना मुश्किल भी है और थोडा जोखिम भरा भी.



लता आत्या-  


बादल सरोज 
हम सबकी ओर से दिवाळी च्या शुभेच्छा स्वीकार कीजिये.और वादा कीजिये कि हमारी बाकी बची दीवालियों में भी आप हमारे साथ बनी रहेंगी. बाकी सब विदूषक-खलनायक-नालायक-प्रतिनायक तो फिलर हैं. कल सब भूल जायेंगे. ये इतिहास में कभी शुमार नहीं होने वाले, घटना भर बनकर रह जायेंगे. आप रहेंगी. मिले सुर मेरा तुम्हारा गाती हुई.

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मुक्तिबोध की याद

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पिराते-से ख़याल 


अंधेरे मेंपर हिन्‍दी में बहुत चर्चा हुई है। मैं मुक्तिबोध के कविता-संसार में जाता हूं तो चकमक की चिनगारियांभी उससे कम महत्‍वपूर्ण नहीं लगती। मुक्तिबोध की कविता के विशद विवेचन में जाना हो तो अंधेरे मेंऔर यदि नए कवियों को मुक्तिबोध से कुछ सीखना हो तो चकमक की चिनगारियां,उनकी दो अनिवार्य लीजेंडरी कविताएं हैं। 

चकमक अग्निधर्मा पत्‍थर है। बहुत ठोस होता है,आसानी से टूटता नहीं और कहते हैं उसकी संरचना में कुछ धातु भी शामिल होती है। यह आपस में या किसी दूसरी ठोस सतह से टकराए तो चिनगारियां उत्‍पन्‍न होती हैं। दो ठोस सतहों का संघर्ष अथवा घर्षण हमें द्वन्‍द्व की ओर ले जाता है,द्वन्‍द्वात्‍मकता- ऐतिहासिक भौतिकवाद,जहां कोरे दर्शन और निपट बौद्धिक तत्‍वमीमांसाएं घुटने टेक देती हैं। सब कुछ मनुष्‍यता और समाज के परिप्रेक्ष्‍य में देखा-समझा जाता है,जैसा कि देखा-समझा जाना चाहिए। रचना में निजी और सामाजिक सन्‍दर्भ टकराते हैं तो चिनगारियां पैदा होती हैं,आग जलाना सम्‍भव होता है,रोशनी मिलती है। यह आग और रोशनी ही किसी कविता का प्राप्‍य है और उससे भी आगे मनुष्‍य-जीवन का भी। 
***

अधूरी और सतही जिन्‍दगी के गर्म रास्‍तों पर
हमारा गुप्‍त मन
निज में सिकुड़ता जा रहा
जैसे कि हब्‍शी एक गहरा स्‍याह
गोरों की निगाह से अलग ओझल
सिमटकर सिफ़र होना चाहता हो जल्‍द
मानों क़ीमती मजमून
गहरी,ग़ैर-क़ानूनी किताबों,ज़ब्‍त पत्रों का

यह इस कविता की आरम्भिक पंक्तियां हैं। मुक्तिबोध सिर्फ़ अपने नहीं,सभी समानधर्मा विचारवान जनों के गुप्‍त मन की बात कर रहे हैं,जो निज में सिकुड़ते जा रहे हैं। निज कभी किसी का सही शरण्‍य नहीं होता। यहां सिकुड़ने की क्रिया है,जो मन की सामान्‍य व्‍याप्ति को भी संकुचित कर रही है। मुझे सिकुड़ कर अपने खोल में घुसता घोंघा याद आ रहा है। मुक्तिबोध की कविता हमेशा ऐसी स्थिति में पहुंचा देती है,जहां हम अपने रूपक जोड़ने लगते हैं। खोल घोंघे का प्राकृतिक शरण्‍य है,लेकिन जब हत्‍यारे उस तक पहुंचते हैं तो वह भी उसे बचा नहीं पाता और फिर मनुष्‍य तो अपने विकासक्रम में घोंघे से अरबों गुना आगे का प्राणी है। मुक्तिबोध पहले गहरे स्‍याह हब्‍शी का रूपक देते हैं,जो गोरों की निगाह से ओझल सिमटकर कर सिफ़र हो जाना चाहता है। यह रूपक मानवजाति के भीतर अन्‍याय और भेदभाव का आदिरूपक है। नस्‍लों की श्रेष्‍ठता के क्रूर प्रसंग इतिहास से भी पूर्व के हैं। फिर एक उजला रूपक है गहरी ग़ैर-क़ानूनी किताबों और ज़ब्‍त पत्रों के क़ीमती मजमून का। यह प्रत्‍याख्‍यान है। पारम्परिक क़ानून अनाचारियों के बनाए हैं और उनसे मुक्ति और विद्रोह के क़ीमती मजमूनों के पत्र भी हमेशा ज़ब्‍तशुदा ही रहे - आने वाले समयों ने उन्‍हें पहचाना,जैसे कि हिन्‍दी कविता ने मुक्तिबोध को उनके न रहने के बाद। ज़ब्‍तशुदा मुक्तिबोध के लिए भुगता हुआ पद है। इतिहास पर उनकी एक किताब म.प्र. शासन ने न सिर्फ़ पाठ्यक्रम से हटाई बल्कि उस पर प्रतिबंध भी लगाया था। यहां से निषिद्धता पर एक पूरी बहस शुरू होती है। जो मनुष्‍यमात्र के लिए मुक्ति का दस्‍तावेज़ हो सकता है,वह मनुष्‍यद्रोही सत्‍ताओं की निषेधाज्ञाओं का लक्ष्‍य भी बनता है। इस महत्‍वपूर्ण प्रस्‍थानबिन्‍दु से ही मुक्तिबोध की यही नहीं,लगभग सभी महत्‍वपूर्ण कविताएं आकार लेना शुरू करती हैं।  
***  

मुक्तिबोध की लंबी कविताओं में आत्‍मसंघर्ष के लम्‍बे सिलसिलेवार दृश्‍य हैं। इस कविता में भी हैं। दरअसल यही दृश्‍य इन कविताओं को लम्‍बा बनाते हैं,वरना तो हम देख ही सकते हैं कि सीधे ही क्रांतिकारी बयान देने पर उतर आने में कविजनों को कितनी कम देर लगती है। ऐसी कविताएं बिना चिनगारियों की आग का बयान होती हैं।  ये वास्‍तव में आग नहीं,आग की उस चमक भर का बयान हैं,जो दिखते ही बुझ भी जाती है। चकमक की चिनगारियांमें मुझे आत्‍मसंघर्ष का यह चरम दिखता है –

व्रणाहत पैर को लेकर
भयानक नाचता हूं,शून्‍य
मन के टीन-छत पर गर्म
हर पल चीख़ता हूं,शोर करता हूं
कि वैसी चीख़ती कविता बनाने से लजाता हूं

समाज में व्रणाहत पैरों का पूरा इतिहास है उनके बारे में लिखी जा रही कविता का भी। ध्‍यान देने की बात है कि जैसी चीख़ती कविता की बात मुक्तिबोध यहां कर रहे हैं,वैसी कविता बाद में धूमिल ने लिखी और लेखन के आरम्भिक दौर में आलोक धन्‍वा ने लिखी। कविता में ठीक इसके बाद कविता में अंधेरी दूरियों में सेउभरता एक कोई श्‍याम धुंधला लम्‍बा और मोटा हाथ आता है,कवि को अपनी कनपटी पर ज़ोर से एक आघात महसूस होता है। इस प्रसंग को समझना भी जटिल है। यह हाथ दरअसल आत्‍मसंघर्ष में फंसी कविता के बीच एक विस्‍फोटनुमा हस्‍तक्षेप करता है। यहां से मुक्तिबोध का चिर-परिचित फंतासी शिल्‍प अपनी भूमिका तय करने लगता है इस आघात के बाद बिखरती चिनगारियों के साथ होता यह है –

कि कंधे से अचनाक सिर कटा और
उड़ गया,ग़ायब हुआ(जो शून्‍य यात्रा में स्‍वगत कहता –
अरे ! कब तक रहोगे आप अपनी ओट ! )
.....वह जा गिरा
उस दूर जंगल के
किसी गुमनाम गड्ढे में
(स्‍वगत स्‍वर में –
कहां मिल पाएंगे वे लोग
कि जिनमें जनम लेकर भी
उन्‍हीं से दूर दुनिया में निकल आए)

यह मुक्तिबोध का आत्‍मसंघर्ष है। इसकी दिशा बिलकुल अलग है। कोई लिजलिजा निजीपन नहीं जो अज्ञेय के कथित आत्‍मसंघर्ष में ख़ूब रहा। न नई कविता की कोई कुंठा,हताशा और न उसका पारिभाषिक संत्रास। यहां ख़ुद से सीधा सवाल है कि कब तक रहोगे आप अपनी ओट?इस कविता का पिराता-सा ख़याल भी यही कि कहां मिल पाएंगे वे लोग कि जिनमें जनम लेकर भी उन्‍हीं से दूर दुनिया में निकल आए। तमाम जनपक्षधरता का दावा करते हुए भी प्रतिबद्ध कवि अकसर अपने लोगों से दूर निकल जाते हैं,लेकिन यह आत्‍मस्‍वीकार और इससे बाहर निकलने की यह अपूर्व छटपटाहट मुझे सिर्फ़ मुक्तिबोध में मिलती है। बतौर कवि कहना चाहता हूं कि हमारे लिए ये आत्‍मालोचन के अनिवार्य पाठ हैं,जिन्‍हें हमें रोज़ पढ़ना चाहिए।
***

जहां तक मैं देख पाया हूं मुक्तिबोध की कविताओं की पूरी लिखत में चांद शायद ही कहीं सकारात्‍मक बिम्‍ब या प्रतीक के रूप में आया हो पर इस कविता में वो निजता के इस गड्ढे में एक चिट्ठी फेंक जाता है,जिसमें लिखी यह बात हिन्‍दी कविता की आने वाली पीढ़ियों के लिए शिलालेख बन जाती हैं -  

अरे जन-संग ऊष्‍मा के
बिना,व्‍यक्तित्‍व के स्‍तर जुड़ नहीं सकते
प्रयासी प्रेरणा के स्‍त्रोत,
सक्रिय वेदना की ज्‍योति,
सब साहाय्य उनसे लो ।
तुम्‍हारी मुक्ति उनके प्रेम से होगी
कि तद्गत लक्ष्‍य में से ही
हृदय के नेत्र जागेंगे
व जीवन-लक्ष्‍य उनके प्राप्‍त
करने की क्रिया में से
उभर ऊपर
          निकलते जाएंगे निज के
          तुम्‍हारे गुण
कि अपनी मुक्ति के रास्‍ते
अकेले में नहीं मिलते।

मेरे लिए यह अमर-काव्‍य है और मुक्तिबोध शिक्षक-कवि। यह शिक्षा जनवादी विचार से लेकर मुक्‍तछंद की आंतरिक लय को साधने तक कई दिशाओं में है। मुक्तिबोध के समय में भी अपनी निजता अपने में ही अगोरने वाले अहंकारी व मूर्ख बड़े कवि थे और आज भी हैं। विकट प्रतिभावान कहाने वाले दो-एक युवा कवि तो उस समय के ऐसे कवियों से चार हाथ आगे ही हैं। मुझे वो वीरेन डंगवाल की कविता में आने वाले चीं-चीं,चिक-चिक धूम मचातेउन मोटे-मोटे चूहों से ज्‍़यादा कुछ नहीं लगते,जो जीवन की महिमा नष्‍ट नहीं कर पाएंगे। उजले दिनों की आस का बरक़रार होना बड़ी बात है।

सवाल यह भी है कि कविता में मुक्तिबोध के होने को चन्‍द्रकांत देवताले,विष्‍णु खरे,वीरेन डंगवाल,मंगलेश डंबराल,राजेश जोशी,अरुण कमल आदि वरिष्‍ठ और अग्रज कवियों ने जिस तरह समझा,उस तरह हमारी पीढ़ी नहीं समझ पा रही है?जिस तरह साथी कवि सुंदरचंद ठाकुर ने अपनी भारतभूषण अग्रवाल पुरस्‍कृत कविता मुक्तिबोधों का समय नहीं है यहहै में समझा है दरअसल वह भी एक सतही समझ ही है,लेकिन कविता के सीमित शिल्‍प में है,इसलिए मैं उसकी क़द्र करता हूं। यहीं अधबीच में निवेदन यह भी है कि मेरी इस अतिरिक्‍त टीप को विषयान्‍तर न माना जाए,यह सवर्था अनन्‍तर ही है।  
***

कविता की फंतासी में बिम्‍ब पर बिम्‍ब,दृश्‍य पर दृश्‍य आते जाते हैं। गहन संवाद जारी रहता है –कभी ख़ुद से,कभी उपस्थित हो रहे बिम्‍बों-प्रतीकों से,कभी दृश्‍यों से। ऐसे ही एक दृश्‍य में –

अंधेरी आत्‍म-संवादी हवाओं से
चपल रिमझिम
दमकते प्रश्‍न करती है –
मेरे मित्र,
कुहरिल गत युगों के अपरिभाषित
सिन्‍धु में डूबी
परस्‍पर,जो कि मानव-पुण्‍य धारा है,
उसी के क्षुब्‍ध काले बादलों को साथ लायी हूं ,
बशर्ते तय करो
किस ओर हो तुम,अब
सुनहले ऊर्ध्‍व–आसन के
निपीड़क पक्ष में अथवा
कहीं उससे लुटी-टूटी
अंधेरी निम्‍न-कक्षा में कक्षा में तुम्‍हारा मन
कहां हो तुम?

यह बुनियादी चुनौती है कि तय करो किस ओर हो तुम। बिना यह तय किए कविता लिखने का कोई अर्थ नहीं। पक्षधरता उन कवियों के लिए पहली शर्त है जो कविता को महज अपने या औरों के रंजन का साधन नहीं मानते। कविता की भूमिका साहित्‍य में दूसरी विधाओं से अलग स्‍तर पर रही है और रहेगी।दूसरे यह आदि विधा है,इसके उत्‍तरदायित्‍व भी अधिक हैं। कहना ही होगा कि आस्‍वादात्‍मकता और रस-रंजन के प्रसंग कविता के पराभव के प्रसंग हैं। सुख की बात है कि बहुधा हिन्‍दी कविता ऐसे प्रसंगों में व्‍यर्थ नहीं हुई है।

यह एक सहज बात है कि कविता उसकी वाणी बन जाती है,जो अपनी अनुभूति को वाणी नहीं दे पाता। हज़ारों वर्ष में एक पूरा वर्ग ऐसा बन गया है,जिसे ऊपर मुक्तिबोध लुटी-टूटी निम्‍न-कक्षाकह रहे हैं। दूसरी ओर सुनहले ऊर्ध्‍व आसन का निपीड़कपक्ष है,जिसके पास क्रूर सत्‍ताएं रही हैं। कवि के पास तय करने के लिए बहुत अधिक विकल्‍प नहीं हैं,बस यही दो हैं। शोषक विचारों और सत्‍ताओं की गोद में बैठे या अपने लुटे-टूटे जनों के बीच चला आए। सत्‍य का पक्ष,न्‍याय का पक्ष,संसार में मानवीय शुभ्रता की कामना और उसके लिए चल रहे संघर्ष का पक्ष। यह सब कहने में जितना आसान लगता है,कर दिखाने में उतना ही कठिन और जटिल होता है। लेकिन संसार के हर कोने और हर दौर में ऐसे कवि होते हैं – आधुनिक हिन्‍दी कविता के पास भी यह परम्‍परा है,मुक्तिबोध जिसके मूल में हैं।   
*** 

आगे की कविता मुक्तिबोध के इसी सिग्‍नेचर शिल्‍प में चलती है लेकिन समाप्‍त नहीं होती। मुक्तिबोध की कोई कविता कहीं समाप्‍त नहीं होती,ऐसा कई विद्वानों का भी मानना है। इस कविता में तो मुक्तिबोध ने स्‍वयं घोषित किया –

नहीं होती,कहीं भी ख़त्‍म कविता नहीं होती
कि वह आवेग-त्‍वरित काल यात्री है।

इस कविता का अभिप्राय अर्थ से कहीं आगे का है। यह मुक्तिबोध की अपनी कविता का प्रसंग भर नहीं है,उस साकार-सरूप,सारवान और जीवन्‍त चीज़ का प्रसंग है,जो अभिव्‍यक्ति का आदि रूप है। संसार में कविता कभी ख़तम नहीं होगी,क्‍योंकि वह आवेग-त्‍वरित काल यात्री है। मुक्तिबोध इन पंक्तियों में आनेवाली नस्‍लों को जनता के हक़ में पिराते-से ख़यालों की एक विरासत ही नहीं,विश्‍वास भी सौंपते हैं। हम सब जानते हैं कि जब तक चकमक की ये चिनगारियां हमारे भीतर छिटकती रहेंगी तो हमारा आवेग कायम रहेगा।
*** 
- शिरीष कुमार मौर्य
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