Quantcast
Channel: जनपक्ष
Viewing all articles
Browse latest Browse all 168

इन गुनाहों के खिलाफ कौन मोमबत्तियाँ जलाता है ? - विजय कुमार की एक कविता

$
0
0
पिछली पोस्ट में आपने ख्यात कवि-आलोचक विजय कुमार जी की एक कविता पढ़ी थी...आज उसी क्रम में एक और कविता...

पिटी हुई औरत



  • विजय कुमार 



पूस के महीने में
रूह को कँपा देने वाली ठंडक में
जब ढेर सारे बिल्ली के बच्चे
पुआल में दुबके रहते हैं
रात को शराबी पति से
मार खा कर सोयी औरत
सुबह सुबह उठ जाती है – बेआवाज़

रात भर का अपमान
जो सुबकियों में शरीर भर को
झूले की तरह हिला रहा था
सुबह सिर्फ एक ठहरी हुई कराह है –
दालान के उस तरफ रसोई में
छह बच्चों की गठरी के बीच से
उठी हुई औरत
भूख से भूख के बीच फैली हुई
एक पत्थर चुप्पी है
जो इस वक़्त
अपने दिन भर के अपराधों के लिए
तैयार हो रही है

पूस के महीने में
मौसम को
किसी और तरह से जाना नहीं जा सकता
वह हड्डियों तक उतर आई सूजन
और एक खुश्क़ गला है
तमाम तमाम गुरु गम्भीर कवियो की कविताओं
और बेन्द्रे के तीन हज़ार चित्रों के बावजूद
पिटी हुई औरत
अँगीठी की रोशनी में
अपने दहकते हुए चेहरे की
रंगत से बेखबर है
यूँ दिन का उजैला
जट्टारी के उस धुँधलका भरे
घर की ड्योढ़ी  तक भी आएगा
और आदतों के बाहर
जो एक बोझ है अनकहा
जो नींद के बीच भी
एक बृक्ष की तरह उगता है
एक पत्ती सा
बाहर की ज़ोरदार हवाओं
और दिन चर्या में झर जाएगा

कितना खूँट है उस औरत का कलेजा
कितना पहाड़ उसका दुख
कोई नहीं जानता
अगली बार भी
दिल्ली के बीस मील दूर
जट्टारी के उस घर की ड्योढ़ी से
जब भी कोई पूस के महीने में
किसी अलस्सुबह गुज़रेगा
वहाँ हवाओं में
एक चुपचाप औरत के
अपराधों की गंध होगी 

Viewing all articles
Browse latest Browse all 168

Trending Articles